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Tuesday, 18 March 2008

सास्कृतिक एकता के युगपुरूष चैतन्य


पश्चिम बंगाल के नदिया जिले के नवद्वीप में चैतन्य महाप्रभु का मंदिर जर्जर हालत में पड़ा हुआ है। हालांकि वहीं पास में इस्कान के कृष्ण भक्तों ने नवद्वीप के मायापुर में विशाल मंदिर बनाया है मगर भगवान कृष्ण के अवतार माने जाने वाले चैतन्य महाप्रभु की लीला भुमि उपेक्षित व जर्जर अवस्था में है। यह नदिया जिले के नवद्वीप में मौजूदा मायापुर के इस्कान मंदिर से दूर पोरा मातला नदी के उस पार अवस्थित है। चैतन्य महाप्रभु १६वीं शताब्दी के ऐसे कालपुरुष थे जिन्होंने भक्ति के माध्यम समाज से को जागृत किया। भक्तिकाल के समाजसुधारकों में चैतन्य का नाम अग्रणी है। कुसंस्कार और आडंबर के खोल में बंद हो रहे भारत में भक्ति से एकता का अलख जगाया चैतन्य ने। इनकी भक्ति भावना ने पूरे देश में एकता की वह लहर पैदा की जो किसी सांस्कृतिक क्रांति से ही संभव थी। कृष्ण भक्त होकर भी चैतन्य ने किसी संप्रदाय को भड़काने का कोई काम नहीं किया। मगर यह विडंबना ही समझिए कि पुरी में विरोधी तत्वों ने उनके साथ घात किया। यह किंवदंती बंगाल में उनके साथ जुड़ी है कि कुछ कुसंस्कारी पंडों ने अपने स्वार्थ के लिए इस संत को गायब कर दिया। कुछ हद तक इसे सही माना जाए तो संभव है कि आडंबर तोड़कर भक्ति जगाने वाले चैतन्य से धर्म का धंधा करने वालों को अवश्य जलन व परेशानी हुई होगी। जनश्रुति है कि चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते-करते जगन्नाथ मंदिर की भीड़ में अदृश्य हो जाते है। एक अन्य जनश्रुति है कि महाप्रभु जगन्नाथपुरी स्थित गोपीनाथ मंदिर में कृष्ण की प्रतिमा में विलीन हो जाते है। महाप्रभु के अदृश्य अथवा विलीन होने की घटना सन् 1534 ई. की है। उस समय महाप्रभु की आयु 48 वर्ष थी।
जो हो मगर कृष्ण भक्ति से भारत में एकता का अलख जगाने वाले चैतन्य की अमिट छाप आज भी बंगाल सहित पूरे देश में विराजमान है। राजनैतिक और सामाजिक तौर पर डावाडोल हो रहे तत्कालीन भारत को इस युगपुरुष चैतन्य महाप्रभु की जरूरत थी। आइए उनके पावन जीवन की कथा जानने की कोशिश करते हैं।


चैतन्य महाप्रभु के बचपन का नाम विश्वंभर था। लोग इन्हें निमाई नाम से भी पुकारते थे। पिता पण्डित जगन्नाथ मिश्र तथा माता शची देवी की ये दसवीं संतान थे। प्रथम आठ कन्या संतानें शैशवावस्था में ही कालकवलित हो गई थीं तथा नवां पुत्र विश्वरूप युवावस्था में ही संन्यास में दीक्षित हो गया था। बचपन में निमाई नटखट व हठी थे। हर बात में रोना तथा गाना सुनाने पर चुप हो जाना उनकी आदत सी थी। शुक्लवर्ण( गौरांग)निमाई आस-पास के लोगों में 'गौरहरि' (गोरे कृष्ण) के नाम से विख्यात थे।
श्रीकृष्ण चैतन्यदेव का पृथ्वी पर अवतरण विक्रम संवत् 1542 के फाल्गुन मास की पूíणमा को संध्याकाल में चन्द्र-ग्रहण के समय सिंह-लग्न में बंगाल के नवद्वीप नामक ग्राम में भगवन्नाम-संकीर्तन की महिमा स्थापित करने के लिए हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ तथा माता का नाम शची देवी था।

पतितपावनी गंगा के तट पर स्थित नवद्वीप में श्रीचैतन्य महाप्रभु के जन्म के समय चन्द्रमा को ग्रहण लगने के कारण बहुत से लोग शुद्धि की कामना से श्रीहरि का नाम लेते हुए गंगा-स्नान करने जा रहे थे। पण्डितों ने जन्मकुण्डली के ग्रहों की समीक्षा तथा जन्म के समय उपस्थित उपर्युक्त शकुन का फलादेश करते हुए यह भविष्यवाणी की-'इस बालक ने जन्म लेते ही सबसे श्रीहरिनाम का कीर्तन कराया है अत: यह स्वयं अतुलनीय भगवन्नाम-प्रचारक होगा।'

वैष्णव इन्हे भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मानते है। प्राचीन ग्रंथों में इस संदर्भ में कुछ शास्त्रीय प्रमाण भी उपलब्ध होते है। देवीपुराण- भगवन्नाम ही सब कुछ है। इस सिद्धांत को प्रकाशित करने के लिए श्रीकृष्ण भगवान 'श्रीकृष्ण चैतन्य' नाम से प्रकट होंगे। गंगा के किनारे नवद्वीप ग्राम में वे ब्राह्मण के घर में जन्म लेंगे। जीवों के कल्याणार्थ भक्ति-योग को प्रकाशित करने हेतु स्वयं श्रीकृष्ण ही संन्यासी वेश में 'श्रीचैतन्य' नाम से अवतरित होंगे। गरुड़पुराण- कलियुग के प्रथम चरण में श्रीजगन्नाथजी के समीप भगवान श्रीकृष्ण गौर-रूप में गंगाजी के किनारे परम दयालु कीर्तन करने वाले 'गौराङ्ग' नाम से प्रकट होंगे। मत्स्यपुराण-कलियुग में गंगाजी के तट पर श्रीहरि दयालु कीर्तनशील गौर-रूप धारण करेंगे। ब्रह्मयामल- कलियुग की शुरुआत में हरिनाम का प्रचार करने के लिए जनार्दन शची देवी के गर्भ से नवद्वीप में प्रकट होंगे। वस्तुत: जीवों की मुक्ति और भगवन्नाम के प्रसार हेतु श्रीकृष्ण का ही 'चैतन्य' नाम से आविर्भाव होगा।

कालक्रम में यज्ञोपवीत, तदनंतर विधिवत अध्ययन प्रारंभ हुआ। गंगादास गुरु थे। निमाई अति कुशाग्र एवं प्रखर बुद्धि के थे। व्याकरण, अलंकार, तंत्रशास्त्र, न्यायशास्त्र का गहन अध्ययन किया। 16 वर्ष की आयु में निमाई का अध्ययन पूर्ण हो गया। इसी बीच पिताश्री का लोकान्तरण। शिखरस्थ विद्वान् के रूप में चतुर्दिक् निमाई की ख्याति होने लगी। अब वे निमाई से आचार्य विश्वम्भर मिश्र नाम से विख्यात हो गए। द्रव्यार्जन हेतु अध्यापन कार्य अपनाया। मुकुन्द संजय नामक एक धनाढ्य ब्राह्मण के चण्डीमण्डप में विद्यालय का शुभारम्भ हुआ।

विद्वत्परिषद द्वारा आचार्य मिश्र को 'विद्यासागर' की उपाधि प्रदान की गई। इस समय इनकी आयु 22 वर्ष थी। आचार्य मिश्र वैवाहिक सूत्र में आबद्ध हुए। पत्नी का नाम लक्ष्मी था। दुर्योग से सर्पदंश से पत्नी की अकाल मृत्यु हो गई। पंडित विश्वंभर को शास्त्रार्थ में विशेष आनन्द आता था। एक घटना से उनके पाण्डित्य गर्व में विशेष उछाल आया। आचार्य केशव नाम के एक विद्वान् का नवद्वीप में आगमन हुआ। शास्त्रार्थ में वे दिग्विजयी के रूप में विख्यात थे। आचार्य केशव एवं आचार्य मिश्र के बीच वाग्युद्ध प्रारंभ होता है। आचार्य केशव कुछ स्वरचित श्लोक सुनाते है। आचार्य मिश्र इन श्लोकों में अलंकार दोष निकालते है। आचार्य केशव शास्त्रार्थ में परास्त हो जाते हैं। इस घटना के उपरान्त आचार्य विश्वंभर मिश्र का सारस्वत-यश आकाश की ऊंचाइयां छूने लगता है।

प्रथम पत्नी के देहांत के उपरान्त आचार्य मिश्र का दूसरा विवाह विष्णुप्रिया नामक अनिंद्य सुन्दरी, दिव्यानन, सर्वगुणसम्पन्न बाला से हुआ। वह प्रसिद्ध विद्वान् आचार्य सनातन मिश्र की पुत्री थीं। आचार्य विश्वम्भर मिश्र पत्नी के प्रति पूर्णतया उदासीन थे। पिता के श्राद्ध हेतु आचार्य मिश्र गया तीर्थ की यात्रा पर गए। गया में विष्णुपदी मंदिर में वे नृत्योन्माद की स्थिति में, भावोल्लास की चरमावस्था में आ गए। किसी तरह उन्हे नवद्वीप लाया जाता है। यहां पत्नी विष्णुप्रिया भी उन्हे उन्माद से विरत करने में अक्षम हुई। स्वामी ईश्वर पुरी के उपदेश से वे कृष्ण भक्ति की ओर आकर्षित हुए। 24 वर्ष की आयु में आचार्य मिश्र स्वामी केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेते है। स्वामी केशव भारती भी आचार्य मिश्र को कृष्ण भक्ति की ओर प्रेरित करते है।

गया से लौटने के उपरान्त आचार्य मिश्र के विरोधी उन्हे 'सिरफिरा', 'पागल' जैसे विशेषणों से विभूषित करते है। दूसरी ओर कुछ लोगों की ऐसी मान्यता थी कि आचार्य मिश्र को कृष्णदर्शन हो चुका है। आचार्य विश्वंभर मिश्र कालक्रम में चैतन्य महाप्रभु हो जाते हैं; गौरांग महाप्रभु हो जाते है; गौरहरि हो जाते है। अध्यापनकार्य से वे पूर्णतया विरत हो जाते है। कृष्ण-विरह में अहर्निश आंसू बहाते है। 'हरिबोल', 'हरिबोल' कहते हुए दोनों हाथ ऊपर उठाकर नाचते है। उनके छात्र जब उनके पास अध्ययन हेतु आते है तो उन्हे कुछ बताने के स्थान पर वे कृष्ण-चेतना में खो जाते है।

विक्रम संवत् 1566 में मात्र 24 वर्ष की अवस्था में श्रीचैतन्य महाप्रभु ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके संन्यास ले लिया। इनके गुरु का नाम श्रीकेशव भारती था। संन्यास लेने के उपरान्त श्रीगौरांग(श्रीचैतन्य) महाप्रभु जब पुरी पहुंचे तो वहां जगन्नाथजी का दर्शन करके वे इतना आत्मविभोर हो गए कि प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य व कीर्तन करते हुए मन्दिर में मूíच्छत हो गए। संयोगवश वहां प्रकाण्ड पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य उपस्थित थे। वे महाप्रभु की अपूर्व प्रेम-भक्ति से प्रभावित होकर उन्हे अपने घर ले गए। वहां शास्त्र-चर्चा होने पर जब सार्वभौम अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने लगे, तब श्रीगौर ने ज्ञान के ऊपर भक्ति की महत्ता स्थापित करके उन्हे अपने षड्भुजरूप का दर्शन कराया। सार्वभौम गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और वह अन्त समय तक उनके साथ रहे। पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य ने जिन 100 श्लोकों से श्रीगौर की स्तुति की थी, वह रचना 'चैतन्यशतक' नाम से विख्यात है। श्रीगौरांग अवतार की श्रेष्ठता के प्रतिपादक अनेक ग्रन्थ है। इनमें 'श्रीचैतन्यचरितामृत', 'श्रीचैतन्यभागवत', 'श्रीचैतन्यमंगल', 'अमिय निमाइचरित' आदि विशेष रूप से पठनीय है। महाप्रभु की स्तुति में अनेक महाकाव्य भी लिखे गए है। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने 32 अक्षरों वाले तारकब्रह्म हरिनाम महामन्त्र को कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया-

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥


विक्रम संवत् 1572 में विजयादशमी के दिन चैतन्य महाप्रभु ने श्रीवृन्दावनधाम के निमित्त पुरी से प्रस्थान किया। श्रीगौरांग सड़क को छोड़कर निर्जन वन के मार्ग से चले। हिंसक पशुओं से भरे जंगल में महाप्रभु 'श्रीकृष्ण' नाम का उच्चारण करते हुए निर्भय होकर जा रहे थे। पशु-पक्षी प्रभु के नाम-संकीर्तन से उन्मत्त होकर उनके साथ ही नृत्य करने लगते थे। एक बार श्रीचैतन्यदेव का पैर रास्ते में सोते हुए बाघ पर पड़ गया। महाप्रभु ने 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण' नाम-मन्त्र बोला। बाघ उठकर 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण' कहकर नाचने लगा। एक दिन गौरांग प्रभु नदी में स्नान कर रहे थे कि मतवाले जंगली हाथियों का एक झुंड वहां आ गया। महाप्रभु ने 'कृष्ण-कृष्ण' कहकर उन पर जल के छींटे मारे तो वे सब हाथी भी भगवन्नाम बोलते हुए नृत्य करने लगे। सार्वभौम भट्टाचार्य श्रीचैतन्यदेव की ये अलौकिक लीलाएं देखकर आश्चर्यचकित हो उठे। काíतक पूíणमा को श्रीमहाप्रभु वृन्दावन पहुंचे। वहां आज भी प्रतिवर्ष काíतक पूíणमा को श्रीचैतन्यदेव का 'वृन्दावन-आगमनोत्सव' मनाया जाता है। वृन्दावन के माहात्म्य को उजागर करने तथा इस परमपावन तीर्थ को उसके वर्तमान स्वरूप तक ले जाने का बहुत कुछ श्रेय श्रीचैतन्य महाप्रभु के शिष्यों को ही जाता है।

कृष्ण-चेतना से आप्लावित चैतन्य महाप्रभु सम्पूर्ण भारत की यात्रा करते है। उनका सम्पूर्ण जीवन कृष्णमय हो जाता है। वे स्वयं कृष्ण हो जाते है। अंतत: महाप्रभु के मन में बालकृष्ण की लीला-भूमि मथुरा वृंदावन-यात्रा की इच्छा बलवती होती है। निकल पड़ते है वे अकेले ही जगन्नाथपुरी से। नदी, पर्वत, वन, गाँव लाँघते काशी पहुँचते है। यहाँ वे मणिकर्णिका घाट के पास प्रवास करते है। देवदर्शन करते है। काशी से प्रयाग। प्रयाग में त्रिवेणी पर स्नान। प्रयाग से मथुरा-वृंदावन। यहाँ कृष्ण प्रेमोन्माद में नाचते-गाते है। मथुरा-वृंदावन की मिट्टी में लोटते-पोटते है। फिर लौटते है, अपनी लीलाभूमि जगन्नाथपुरी में। कृष्ण नाम-संकीर्तन का उपदेश करते हुए भक्तों से कहते है, 'कलिकाल में कृष्ण नामोच्चारण के अतिरिक्त मुक्ति का और कोई मार्ग नहीं है'।

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्। कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।




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