Tuesday, 12 March 2013
पत्रकारों की न्यूनतम योग्यता तय करेगी समिति
काटजू ने कहा कि वकालत के लिए एलएलबी की डिग्री के साथ बार काउंसिल में पंजीकरण जरूरी है। चिकित्सा क्षेत्र के लिए एमबीबीएस डिग्री और मेडिकल काउंसिल में पंजीकरण जरूरी है, जबकि पत्रकारिता में शुरुआत करने के लिए कोई न्यूनतम योग्यता तय नहीं है। कुछ लोग पत्रकारिता के मामूली या अधूरे प्रशिक्षण के साथ इस पेशे में आ रहे हैं। इससे बुरा असर पड़ रहा है। ऐसे गैरप्रशिक्षित लोग पत्रकारिता के उच्च मूल्यों को बरकरार नहीं रख पाते। कुछ समय से पत्रकारिता में शुरुआत करने के लिए न्यूनतम योग्यता तय करने की जरूरत महसूस की जा रही है। समिति की रिपोर्ट पूर्ण प्रेस काउंसिल के सामने रखी जाएगी। इसके बाद इसे कानून बनाने के लिए सरकार के समक्ष पेश किया जाएगा।
(साभार-http://www.jagran.com/news/national-minimum-qualification-for-journos-needed-katju-10209646.html)
Monday, 6 August 2012
अपेक्षा के अनुरूप पैसा नहीं मिलने से प्रशिक्षित पत्रकारों का हो रहा है दूसरे क्षेत्रों में पलायन
रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय जनसंचार संस्थान से प्रशिक्षित कुल 73.24 फीसद छात्र ही इस पेशे से जुड़े हुए हंै, जबकि एक चौथाई से ज्यादा पत्रकारों का दूसरे क्षेत्रों में पलायन हो चुका है। अभी तक मीडिया से जुड़े प्रशिक्षित छात्रों में से 32.28 फीसद अखबार, 25.98 फीसद टेलीविजन, 13.39 फीसद साइबर माध्यमों, 8.66 फीसद रेडियो, 7.09 फीसद पत्रिकाओं, 2.88 फीसद विज्ञापन और 5.77 फीसद जनसंपर्क क्षेत्र में कार्यरत हैं।
सर्वेक्षण में कहा गया है कि पत्रकारिता से जुड़े पेशेवरों की काफी बड़ी तादाद इससे असंतुष्ट है। इसके कारण इनमें तेजी से नौकरियां बदलने का चलन देखा गया है। सर्वेक्षण में शामिल 24.77 फीसद लोगों ने ही कहा कि वे अपने कामकाज से पूरी तरह से संतुष्ट हैं। 53.21 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे मामूली संतुष्ट है जबकि 16.51 फीसद लोग अपने कामकाज से असंतुष्ट हैं।
सर्वेक्षण के मुताबिक पत्रकारों और मीडियाकर्मियों की माली हालत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 56.64 फीसद लोगों के पास अपना मकान नहीं है और वे किराए के मकान में रह रहे हैं। 30.97 फीसद मीडियाकर्मियों के पास मकान तो है लेकिन यह उनकी पैतृक संपत्ति है। 6.19 फीसद मीडियाकर्मियों के पास मध्य आय वर्ग (एमआईजी) मकान हैं जबकि 5.31 फीसद मीडियाकर्मियों के पास उच्च आय वर्ग (एचआईजी) मकान हैं।
मीडिया स्टडीज ग्रुप के संयोजक अनिल चमडि़या ने कहा कि देश के विभिन्न क्षेत्रों से बड़े बड़े सपने लेकर छात्र पत्रकारिता का कोर्स करते हैं। वे इस पेशे में अच्छा पैसा मिलने और लिखने की स्वतंत्रता की उम्मीद के साथ आते हैं। लेकिन यहां आने के बाद उन्हें न तो अच्छा पैसा मिलता है और न ही कामकाज की स्वतंत्रता। इससे असंतुष्ट होकर उनका दूसरे क्षेत्रों में पलायन हो रहा है। इस स्थिति से देश का शीर्ष पत्रकारिता संस्थान भारतीय जनसंचार संस्थान भी गंभीर रूप से प्रभावित हो रहा है। नई दिल्ली, 6 अगस्त (भाषा)।
Thursday, 16 April 2009
पत्रकारिता की दुनिया में हैं कई और विसंगतियां
मान्यता प्राप्त पत्रकार अगर संपादक भी हों तो ऐसे किस कानून का उल्लंघन होता है या फिर संवाददाताओँ और शासन पर कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। फिलहाल तो यह समझ से परे है। क्या यशवंतजी इस दोहरे मानदंड पर भी सवाल उठाने की कृपा करेंगे। पत्रकारों को बांटने की इस कुटिल चाल का भी पर्दाफास अवश्य किया जाना चाहिए।
हिंदी अखबारों के पत्रकार एवार्ड लायक नहीं होते?
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि हिंदी अखबारों के दूर-दराज के रिपोर्टर जिन खबरों को भेजते हैं और वे अखबारों में प्रकाशित होती हैं, उन्हीं खबरों को कई महीने बाद अंग्रेजी अखबारों के रिपोर्टर उठाते हैं और खबर ब्रेक करने का श्रेय भी ले जाते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि अंग्रेजी अखबारों और टीवी के पत्रकार अपने व्यक्तित्व और काम की 'मार्केटिंग' अच्छी तरह से कर ले जाते हैं, इसीलिए उन्हें पुरस्कार मिल जाता है जबकि हिंदी का भदेस, मेहनती और जुझारू पत्रकार सब कुछ करने के बाद भी सिर्फ अपने किए को ठीक से 'मार्केट' न कर पाने की वजह से पिछड़ा रह जाता है। कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि पुरस्कार देने वाली संस्थाओं को एवार्ड के लिए आवेदन आमंत्रित किए जाने की जानकारी सभी पत्रकारों तक पहुंचाने की गारंटी करनी चाहिए। होता यह भी है कि एवार्ड के लिए आवेदन मांगे जाने की जानकारी सिर्फ अंग्रेजी अखबारों में प्रकाशित करा दी जाती है। इससे यह सूचना दूर-दराज के इलाकों को तो छोड़ दीजिए, प्रदेश की राजधानियों के पत्रकारों तक भी नहीं पहुंच पाती।
रामनाथ गोयनका एक्सीलेंस एवार्ड 2007-08 के नामिनी में हिंदी अखबारों के कुछ पत्रकारों के नाम हैं लेकिन इन्हें विजेता घोषित नहीं किया गया। उदाहरण के तौर पर एक्सीलेंस इन जर्नलिज्म एवार्ड हिंदी प्रिंट कैटगरी में अमर उजाला के प्रताप सोमवंशी और दैनिक भास्कर के मनोज सिंह पमार के नाम हैं। इस कैटगरी में एवार्ड के विजेता रहे पुण्य प्रसून वाजपेयी। पुण्य को प्रिंट कैटगरी का पुरस्कार इसलिए दिया गया क्योंकि उन्होंने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों पर जो रिपोर्टें लिखीं, उन्हें हिंदी मैग्जीन प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित किया गया। देखा जाए तो यह एवार्ड भी किसी हिंदी प्रिंट वाले को नहीं मिला बल्कि टीवी जर्नलिस्ट को दिया गया। यहां मकसद किसी के काम को कमतर आंकना नहीं है बल्कि पुरस्कार के पैमानों पर बात करना है। हिंदी भाषी इस देश में अगर पत्रकारिता के दो दर्जन से ज्यादा पुरस्कारों में हिंदी के टाप टेन अखबारों के एक भी पत्रकार नहीं आ पाते तो क्या इसे यूं ही संयोग मानकर छोड़ देना चाहिए या फिर इस पर बहस होनी चाहिए?