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Thursday, 20 March 2008

अब इस चमन में तुम्हारा गुजारा नहीं !


साढ़े सात महीने नजरबंद रहने के बाद बांग्लादेश की विवादित लेखिका तस्लीमा नसरीन बुधवार को भारत छोड़कर विदेश चली गईं। यह बात कोई मायने नहीं रखती कि वह कहां गईं और कहां रहेंगी। मगर यह बात काबिले गौर है कि एक धर्म निरपेक्ष देश से कट्टरपंथियों के दबाव में उन्हें देश छोड़ना पड़ा। तस्लीमा ने सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा जताते हुए कहा कि भारत की सरकार धार्मिक कट्टरपंथियों की तरह बर्ताव कर रही है।
हीथ्रो एयरपोर्ट से पीटीआई से बातचीत में तसलीमा ने अपने ठिकाने के बारे में कुछ भी नहीं बताया। उन्होंने कहा कि मैं अपनी सुरक्षा से समझौता नहीं करना चाहती हूं। अगर मैं अपने गंतव्य के बारे में कुछ बताती हूं तो इससे मेरी सुरक्षा से समझौता होगा। मेरा चेहरा अब जाना-पहचाना हो गया है और मैं धार्मिक कट्टरपंथियों का निशाना बन सकती हूं।
उल्लेखनीय है कि पिछले महीने ही तसलीमा का वीजा छह महीने के लिए बढ़ा दिया गया था। बहरहाल, उन्होंने यह आरोप लगाया कि कोलकाता से जब मुझे दिल्ली लाया गया तो पिछले चार महीनों में मेरे मानवाधिकारों का हनन हुआ। उन्होंने कहा कि इस दौरान में जिस विषम मानसिक परिस्थितियों से गुजरी उसके बारे में बोलने में मुझे झिझक नहीं होगी। बड़े ही रुंधे गले से उन्होंने कहा कि मुझे काफी तनाव में रखा गया, लेकिन मैं कुछ बोल नहीं सकती थी क्योंकि मैं उनकी निगरानी में थी। मुझे इस बात का भी भय था कि वे मुझे यातना दे सकते हैं। सरकार धार्मिक कट्टरपंथियों से कम नहीं है। उन्होंने कहा कि दिल्ली में मुझे जहां रखा गया था मैं लगातार उसे 'यातना गृह' कहती आ रही हूं। बाद में मुझे यह अहसास हुआ कि यह 'यातना गृह' नहीं, बल्कि 'मौत का घर' है। विवादास्पद लेखिका ने बताया कि पिछले चार महीनों के दौरान अत्यधिक तनाव के कारण मुझे भारत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। साथ ही उन्होंने इस बात की इच्छा भी जताई मई में पंचायत चुनावों के बाद मैं कोलकाता वापस जाना चाहूंगी।

उन्होंने कहा कि मुझे हार्ट डिजीज है और आंखों में भी कुछ समस्या है। मेरा उचित इलाज नहीं किया गया। मेरे मन में हमेशा के लिए अपनी आंखों की रोशनी खोने का भी डर समा गया। भारत सरकार के दबाव के कारण जब मेरा ब्लड प्रेशर अनियंत्रित होने लगा तो भी सुरक्षा कारणों से मुझे किसी स्पेशलिस्ट से मिलने की भी इजाजत नहीं दी गई। तसलीमा ने बताया कि बुनियादी सुविधाओं से वंचित गरीब बच्चों के लिए मैंनेजीवन पर्यन्त काम किया है और कर रही हूं, लेकिन जिस देश को मैं अपना देश मानती हूं उसने मेरे मानवधिकारों का हनन किया। जब उनसे यह सवाल किया गया कि क्या वह अपने इस कड़वे अनुभव को कलमबंद करेंगी तो उन्होंने इसका जवाब हां में दिया।

सरकार को आड़े हाथों लेते हुए उन्होंने कहा कि देश छोड़ने के लिए सरकार ने मुझ पर मानसिक रूप से काफी दबाव, लेकिन मैंने घुटने नहीं टेके। इसके बाद उन्होंने मेरे स्वास्थ्य को प्रभावित करने का हथकंडा अपनाया। इसमें वे सफल भी हुए। इसके बाद मेरे पास देश छोड़ने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था। मैंने मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और ज्योति बसु को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि मुझे कोलकाता में रहने की इजाजत दी जाए, लेकिन मेरे पत्रों का कोई जवाब नहीं मिल पाया।

वामपंथी चाहते हैं मैं भारत छोड़ दूं - तस्लीमा

सीएनएन आईबीएन को दिए इंटरव्यू में तस्लीमा ने स्वास्थ्य कारणों के साथ यह भी कहा कि वामपंथी पश्चिम बंगाल में होने वाले पंचायत चुनाव में मुसलमान वोटरों को नाराज नहीं रखना चाहते। मालूम हो कि कोलकाता में कट्टरपंथियों के भारी विरोध और तोड़ -फोड़ के बाद वाममोर्चा ने तस्लीमा को कोलकाता से चले जाने को कहा था। और तभी से तस्लीमा दिल्ली में अज्ञात जगह पर नजरबंद थीं। कुछ ज्यादा ही स्पष्ट करते हुए तस्लीमा ने कहा कि जब पंचायत चुनाव खत्म हो जाएंगे तो वे निश्चित तौर पर कोलकाता लौटेंगी। तस्लीमा ने कहा कि उनसे कहा गया है कि जब पंचायत चुनाव में राजनैतिक दल मुसलमानों के वोट हासिल कर जीत जाएंगी तो उन्हें कोलकाता लौटने की इजाजत दी जाएगी। उम्मीद जाहिर की कि दो या तीन महीने बाद उनहें कोलकाता में रहने की इजाजत दी जाएगी क्यों कि मेरा सब कुछ वहीं है।

तस्लीमा ने दिल्ली में नजरबंदी को मौत का चैंम्बर कहा। जिसमें मौत के सन्नाटे जैसी हालत में रहना मुश्किल था। उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि वे मेरे दिल और दिमाग दोनों को मार देने की साजिश कर रहे थे। हालाकि भारत के गृह मंत्रालय ने इस आरोप को खारिज कर दिया है कि देश छोड़ने के लिए तस्लीमा को मजबूर किया गया। यह भी कहा कि एम्स के अच्छे डाक्टरों को उपलब्ध कराया गया। यह जरूर है कि सुरक्षा कारणों से उन्हें कहीं जाने की इजाजत नहीं थी। मालूम हो कि नवंबर २००७ से तस्लीमा दिल्ली में रखी गईं थीं।
तस्लीमा १९९४ से निर्वासन का जीवन जी रही हैं। इसी साल गिरफ्तारी से बचने के लिए उन्होंने बांग्लादेश छोड़ा था। करीब १३ साल तक निर्वासन में रहीं। हालांकि वे अभी भी बांग्लादेश की नागरिक हैं मगर बाद की किसी सरकार ने जानबूझकर तस्लीमा के स्वदेश वापसी की पहल नहीं की। अंशकालिक वीजा के आधार तस्लीमा अभी भारत में रह रही थीं। उन्होंने भारत सरकार से नागरिकता भी मांगी थी मगर उनकी अर्जी मानी नहीं गई। वे अब बांग्लादेश भी नहीं लौट सकतीं क्यों कि उनके पास नतो बांग्लादेश का पासपोर्ट है और न वीजा। फिलहाल उनके पास स्वीडन का पासपोर्ट है।

वे जीत गए मगर धर्मनिरपेक्ष भारत हार गया ?

अगर तस्लीमा के विरोध के तह में जाएं तो उनसे मुसलमान इसलिए नाराज हैं क्यों कि उन्होंने अपनी आत्मकथा द्विखंडिता में कुछ इस्लाम विरोधी टिप्पणियां की हैं। एक लेखक अपने विचार व्यक्त करने के लिए आजाद होता भी है और तस्लीमा ने वही किया। इसके बावजूद तस्लीमा ने हालात से समझौता करने के लिे वह भी किया जो आजाद खयाल और क्रांतिकारी विचार रखने वाले लेखक के लिए शर्म की बात होती है। जब दिल्ली में नजरबंद थीं तो उन्हें सलाह दी गई कि वे उपन्यास का विवादित अंश हटा दें और तस्लीमा ने वह भी किया। माफी मांगने का और क्या तरीका हो सकता है। अपने ही विचारों से पीछे हटना वह बिना किसी ठोस तर्क के। यह करके भी तस्लीमा को वह राह नहीं मिली जिसकी उनको इस धर्मनिरपेक्ष सरकार से अपेक्षा थी। तब इसे क्या माना जाए ? यही न कि कट्टरपंथी अपने फतवे का अमल चाहते हैं यानी तस्लीमा की मौत। पन्ने निकालने से संतुष्ट नहीं हुए और हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकार कट्रपंथियों के आगे हार गई। अंततः तस्लीमा को कट्टरपंथियों की मर्जी का शिकार और सरकार को भी वोट की खातिर बेबश होना पड़ा। तस्लीमा का विरोध कट्टरपंथियों ने किया और वोट की राजनीति में वे जीत गए मगर धर्मनिरपेक्ष भारत हार गया। इतना ही नही कोलकाता के प्रति जो लगाव तस्लीमा दर्शाती हैं उससे तो यह भी लगता है कि अगर कोलकाता नहीं लौट पाईं तो एक लेखिका तस्लीमा इसके बिना जिंदा भी कैसे रह पाएगी।
मेरी भी सलाह है कि आप भारत छोड़ ही दो। ऐसे आशियाने का क्या ठिकाना जो अपने सिद्धांतों की भी राजनीतिक फायदे के लिए बलि चढ़ा दे। कहीं और बस जाओ तस्लीमा। कट्टरपंथियों के इस चमन में अब तुम्हारा गुजारा नहीं। पर लिखना मत छोड़ना।

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