Friday 29 May 2009

मार्तंड से शुरू होकर पैसे लेकर खबरें छापने तक हिंदी पत्रकारिता

तीस मई। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास के १८३ साल। कोलकाता से पहला हिंदी पत्र उदंत मार्तण्ड ३० मई 1826 में शुरू हुआ। इससे बहुत पहले वर्ष 1780 में यहीं से जेम्स आगस्टस हिक्की ने बंगाल गजट या कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर शुरू कर अंग्रेजी पत्रकारिता की शुरुआत कर दी थी। मगर उदंत मार्तण्ड को हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत का मानक मानें तो इन 183 वर्षों में हिंदी पत्रकारिता में बड़े आमूल चूल परिवर्तन आए हैं। अभी हाल में हुए १५वीं लोकसभा चुनावों में खबरों के पैकेज तक के इतिहास को लें तो आजादी की लड़ाई और सामाजिक सरोकार के दौर से निकली हिंदी पत्रकारिता ( हम यहां सिर्फ हिंदी पत्रकारिता की ही बात कर रहे हैं। वैसे अंग्रेजी समेत सभी भाषाई पत्रकारिता भी अब अपने कमाऊ दौर में ही हैं और अपने सामाजिक सरोकार के मानदंड से काफी नीचे चले गए हैं।) अब पैसे लेकर खबरें छापने की बेशर्मी के दौर में पहुंच गई है। तकनीकी प्रगति ने हिंदी पत्रकारिता को वैश्विक तो बना दिया है मगर जगदीश चंद्र माथुर, प्रभाष जोशी या फिर एसपी सिंह जैसे सिद्धांतवादी और मूल्यों की हिंदी पत्रकारिता करने वालों के युग का भी अवसान कर दिया है। अब अंग्रेजी समेत हिंदी में पैसे लेकर खबरें छापने को व्यावसायिकक तौर पर उचित मानने वाले कमान संभाले हुए हैं।
प्रिंट मीडिया के इस पतन के बावजूद कुछ संपादकों यथा प्रभात खबर के संपादक हरिवंश जैसे हिंदी के संपादक भी हैं, जो बाकायदा सूचना छापकर खबरें छापने के बदले पैसा लेने से बचने की अपने पत्रकारों को चेतावनी दी। हालांकि इससे इस नैतिक पतन को कितना रोका जा सकेगा, यह कहा नहीं जा सकता। मगर बाकी अखबारों ने तो यह नैतिक साहस नहीं दिखाया। इस मामले में प्रिंट मीडिया की समानान्तर मीडिया बन चुके हिंदी ब्लाग अभी कुछ हद तक बचे हुए हैं। कुछ समूह ब्लाग यथा- भड़ास वगैरह तो अनैतिक हो रही हिंदी पत्रकारिता को यदा-कदा बेपर्दा भी करते रहते हैं। ऐसे ब्लागों की लंबी सूची है जो बेबाक टिप्पणी करके मानदंड कायम रखने की कोशिश कर रहे हैं। विभिन्न विचारधाराओं की हिंदी ई-पत्रिकाएं भी अब वैश्विक सीमाएं लांघ चुकी हैं। प्रिट मीडिया में संपादकों की निजी दादागीरी से जो जो छप नहीं सकता वह धड़ल्ले से ब्लागों व ईपत्रिकाओं में छप रहा है। यह विचारों की अभिव्यक्ति का यह अद्भुत विस्तार और प्रिंट मीडिया को चुनौती भी है।
यही कारण है कि आज अंग्रेजी पत्रकारिता के बरक्स हिंदी पत्रकारिता के कद और ताकत में व्यापक बढ़ोतरी हुई। कागज से शुरू हुई पत्रकारिता अब कन्वर्जेंस के युग में पहुंच गई है। कन्वर्जेंस के कारण आज खबर मोबाइल, रेडियो, इंटरनेट और टीवी पर कई रूपों में उपलब्ध है। सूचना प्रौद्यागिकी के इस युग में हिंदी पत्र डिजिटल रूपों में उपलब्ध है। पंडित युगल किशोर शुक्ल द्वारा शुरू किए गए उदंत मार्तण्ड के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो उस समय पत्रकारिता का उद्देश्य समाज सुधार, समाज में स्त्रियों की स्थिति में सुधार और रूढि़यों का उन्मूलन था। उस समय पत्रकारिता के सामाजिक सरोकार शीर्ष पर थे और व्यावसायिक प्रतिबद्धताएं इनमें बाधक नहीं थीं। युगल किशोर शुक्ल का उदंत मार्तण्ड 79 अंक निकलने पर चार दिसंबर 1827 को बंद हो गया। हालांकि उसके बाद हिंदी में बहुत सारे पत्र निकले। राजा राम मोहनराय ने हिंदी सहित तीन भाषाओं में 1829 में बंगदूत नामक पत्र शुरू किया।
मौजूदा दौर में हिंदी के अखबारों पर प्रासंगिक और तेज बने रहने के साथ व्यावसायिकता का भारी दबाव है। ई पेपर तेज बने रहने की दिशा में एक अग्रगामी कदम है। यह अवसर भौगोलिक सीमाओं को पार करने और व्यावसायिक अवसरों के दोहन को लेकर है। इन सबके कारण हिंदी पत्रकारिता में मानवोचित मूल्यों को स्थान देने में पूर्व की अपेक्षा कमी आई है। 1950 से 55 के दशक तक जिस हिंदी पत्रकारिता को बाजार की सफलता के मानकों पर खरा नहीं माना जाता था, उसके प्रति विचारधारा परिवर्तित हुई है।
अस्सी के दशक के बाद से स्थिति यह हो गई कि अंग्रेजी से लेकर बड़ा से बड़ा भाषाई समूह हिंदी में अखबार शुरू करने में रुचि दिखाने लगा। हालांकि विकास के बड़े अवसर हैं, लेकिन हिंदी पत्रकारिता के समक्ष चुनौतियां भी कम नहीं हैं। हिंदी पत्रकारिता का इंटरनेट के क्षेत्र में जाने का मकसद अपने प्रभाव क्षेत्र में बढ़ोतरी करना होता है। मीडिया हाउस पर अब खबरों के व्यापार का एकाधिकार नहीं रह गया है। गूगल और याहू जैसी कई कंपनियां भी खबरों के प्रसार के प्रमुख स्रोत के रूप में काम कर रही हैं। प्रिंट मीडिया प्रसार संख्या पर आधारित है, ई पेपर भी अब इसमें शामिल किया जाने लगा है।
हिंदी पत्रकारिता ने एक समय अपना भाषाई समाज रचने में बहुत बड़ा योगदान दिया। दिनमान और धर्मयुग जैसे पत्रों ने हिंदी पाठक को उन विषयों पर सोचने और समझने का अवसर दिया, जिन पर केवल अंग्रेजी का एकाधिकार माना जाता था। अंग्रेजी में श्रेष्ठत्व के नाम पर दावा करने की कोई चीज नहीं है। हिंदी उस बराबरी पर पहुंच गई है। हालांकि परंपरा में अंग्रेजी पत्रकारिता हिंदी से आगे है लेकिन सच यह भी है कि हिंदी पत्रकारिता ने भी लंबी दूरी तय की है।

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Tuesday 26 May 2009

बंगाल को छीन लेने की राजनीतिक होड़








पश्चिम बंगाल आइला के तांडव के बाद तृणमूल और वाममोर्चा सरकार दोनों में जनता से सहानुभूति बटोरने की होड़ लग गई है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य जामतला समेत कई ग्रामीण इलाकों में पीड़ितों से हालचाल पूछते नजर आए तो ममता बनर्जी सुंदरवन इलाके के दौरे पर निकल गईं। उन्होंने नामखाना इलाके में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। एक को अपनी खिसकती जमीन खोजनी है तो दूसरे को अपने जनाधार का वह दायरा ढूंढना है जहां से सत्ता की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। ऐसा मौका ३२ साल बाद विपक्ष के हाथ लगा है जब जनता पश्चिम बंगाल में परिवर्तन के मूड में है। इस बात की गंभीरता को महसूस करते हुए ममता बनर्जी रेल मंत्रालय का कार्यभार संभालने की औपचारिकता पूरा करने दिल्ली तक नहीं जा पाईं। सियालदह स्टेशन स्थित बीसी राय इंस्टीट्यूट में ही रेलमंत्रालय की जिम्मेदारी ओढ़कर पहुंच गईं जनता जनार्दन के दरबार में। सबसे बड़ी बात काबिले गौर है कि कोलकाता महानगर की तबाही इन दोनों को ग्रामीण इलाकों से अहम नहीं लगी जहां तमाम सारे इलाकों में सारे दिन की मसक्कत के बाद भी अंधेरा होने तक बिजली बहाल नहीं हो पाई
थी। जाहिक है कि कोलकाता महानगर से २०० किलोमाटर की परिधि से बाहर वामपंथी राजनीति को धकेलने के बाद तृणमूल अब बंगाल के उन गांवों को जीतना चाहती हैं जहां इस लोकसभी चुनाव में सेंध नहीं लगा पाईं। जबकि वाममोर्चा सरकार के मुख्यमंत्री बुद्धदेव जनता के घावों पर मरहम लगाने के साथ यह भरोसा दिला रहे हैं कि- हमें न बिसारिए, हम ही हैं आप के सुखदुख के साथी। जनता पता नहीं क्या समझेगी और वक्त आने पर किसे अपना समझेगी मगर इतनी सी बात तो समझ में आ रही है कि मामूली सी चोट देकर जनता ने खुद को दोनों का जनार्दन बना लिया है। वरना इसी बंगाल में ३२ साल के शासन ने वाममोर्चा में इतना घमंड पैदा कर दिया था कि कभी किसी नीतिगत मुद्दे पर विपक्ष से राय तक की जरूरत नहीं समझी जाती थी और फैसले इकतरफा लिए जाते थे। भूमि अधिग्रहण व बंगाल के औद्योगिकीकरण में माकपा के इसी एकतरफा रवैए ने विपक्ष के उस जिन्न को पैदा कर लिया है जो मुमकिन है कि उससे सत्ता भी छीन ले। बंगाल किसके आधीन सुखी है और सुखी रहेगा, यह सवाल तो विधानसभा चुनाव होने तक सवाल ही बना रहेगा मगर चुनाव बाद विचारमंथन को बैठी उस माकपा को अपनी गलतियां साफ नजर आनी चाहिए जिसे सिंगुर और नंदीग्राम के ममता के आंदोलन में अपने घटक भाइयों की सलाह तक नागवार गुजरती थी। लोकतंत्र में ताकत का घमंड तभी तक कायम रहता है जब तक जनता भीरु बनकर सिर पर बैठाए रखती है। राजनीति की दुनिया वोलों तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि यही जनता बास्तील की जेल तोड़ सकती है और अंग्रेजों को वापस उनके देश भेज सकती है। पश्चिम बंगाल की जनता को नागवार गुजरने वाले बयानों से तार-तार करने वाले विमान बोस और बिनय कोनार या फिर दखल की लड़ाई घोषित करने वाले बुद्धदेव या अपनी सरकार व पार्टी को ऐसे संवेदनशील मौके पर चाणक्य की तरह सही सलाह न दे पाने वाले प्रकाश करात को जनता की इस ताकत का क्या अंदाजा नहीं था ? दखल की लड़ाई में अपनी ही जनता के भक्षक बन बैठे थे यो लोग। क्या इस निरीह जनता की ताकत नहीं मालूम थी ? अगर सचमुच नहीं थी, तो संभल जाओ दंभ में जीने वालों। अब जनता ने अपनी ताकत का न सिर्फ एहसास करा दिया है बल्कि उसने अपना वह नायक भी खोजना शुरू कर दिया है जो उसे संत्रास की जिंदगी से मुक्ति दिलाए।

Tuesday 19 May 2009

प्रभाकरण - तमिलों का मसीहा और श्रीलंका का विद्रोही





प्रभाकरण के मारे जाने की खबर ने श्रीलंका सरकार को काफी राहत पहुंचाई है मगर उसके चाहने वाले दुखी भी हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे कश्मीर में मारे गए उग्रवादी भारतीयों के लिए तो उग्रवादी ही होते हैं मगर जिहादियों के लिे शहीद होते हैं। देश, राष्ट्र और विश्व शांति के लिहाज से देखें तो जिहादी सिर्फ जिहादी ही होते हैं और उनके कृत्य को समर्थन नहीं दिया जाना चाहिए। श्रीलंका में सेना ने ठान लिया था कि लिट्टे का सफाया ही कर देंगे तो कर ही दिया। बेशक इस लड़ाई में लाखों लोग बेघर हो गए या काफी तादाद में श्रीलंका के लोग मारे गए मगर एक राष्ट्र के लिए सिरदर्द बने प्रभाकरण के अंत को ठीक ही माना जाना चाहिए। पूरी दुनिया से आतंकवाद का खात्मा भी तभी होगा जब ऐसे लोग हथियार डालकर मुख्यधारा में आएं या फिर उनका सफाया कर दिया जाए।
मैंने बीबीसी और गूगल में जारी प्रभाकरण की खबरों को संदर्भ के लिए इस पोस्ट में साभार के साथ ज्यों का त्यों डाल दिया है ताकि मुख्य खबर से भी आप वाकिफ हो सकें।

श्रीलंका के पूर्वोत्तर इलाक़े में एक छोटे से क़स्बे में वेलुपिल्लई प्रभाकरण का उदय हुआ और तमिलों के लिए अलग 'होमलैंड' की माँग को पूरा करने के लिए उन्होंने लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (एलटीटीई) का गठन किया. उनकी पहचान एक निर्भीक छापामार लड़ाके के रुप में थी. ख़ुद एलटीटीई की वर्दी में असलहों से लैस रहने वाले प्रभाकरण तमिल विद्रोहियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गए. अपने साथी लड़ाकों के बीच वह इस क़दर लोकप्रिय और सर्वमान्य थे कि उनके एक इशारे पर कोई भी विद्रोही अपनी जान गँवा कर भी हमला करने के लिए तैयार रहता था. पिछले तीन दशकों से एलटीटीई हमेशा श्रीलंका सेना के लिए ख़तरा बना रहा और पूर्वेत्तर इलाक़े के एक बड़े भू-भाग पर उसका नियंत्रण था. लेकिन पिछले एक वर्षों के दौरान सेना ने उस पर शिकंजा कसा और तमाम अंतरराष्ट्रीय दबावों के विपरीत सेना की कार्रवाई जारी रही. सेना ने वर्ष 2007 में ही विद्रोहियों के क़ब्ज़े वाले पूर्वी द्वीप पर नियंत्रण बना लिया और इस वर्ष के शुरू में एलटीटीई के गढ़ किलिनोच्ची और मुलाईतिवू पर भी सेना का क़ब्ज़ा हो गया. इसके बाद तमिल छापामार एक छोटे से इलाक़े में फँस गए थे।

प्रभाकरण के साथ-साथ लगभग सभी तमिल विद्रोही अपने साथ जानलेवा साइनाइड कैप्सूल रखते थे. सेना के साथ लड़ते-लड़ते अगर हार का मुँह देखना पड़े तो उन्हें ये कैप्सूल निगल लेने का निर्देश रहता है. प्रभाकरण की अगुआई में जो विद्रोही लड़ाके थे उनमें बच्चों से लेकर महिलाओं की भारी तादाद थी. प्रभाकरण ख़ुद वार्ता की मेज़ पर बात करने की बज़ाए युद्धक्षेत्र में होना पसंद करते थे. शायद इसीलिए जब नॉर्वे की मध्यस्थता में वर्ष 2002 में संघर्ष विराम हुआ तो इसका उपयोग प्रभाकरण ने अपनी सेना को फिर संगठित करने के लिए किया. लेकिन ये संघर्ष विराम टिकाऊ साबित नहीं हुआ और वर्ष 2003 से वर्ष 2008 के बीच प्रभाकरण को कई झटके लगे. वर्ष 2004 में कभी प्रभाकरण का दाहिना हाथ माने जाने वाले कर्नल करुणा उनसे अलग हो गए. दो साल बाद एलटीटीई की राजनीतिक शाखा के प्रमुख एंटन बालासिंघम की लंदन में मृत्यु हो गई. वो कैंसर से पीड़ित थे. नवंबर 2007 में सेना की बमबारी में वरिष्ठ तमिल विद्रोही नेता एसपी तमिलचेल्वम मारे गए.
हत्या के आरोप
तमिलों का एक बड़ा तबका प्रभाकरण को स्वतंत्रता सेनानी मानता था जो बहुसंख्यक सिंहला शासन के 'अत्याचारों' के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ रहा था. दूसरी ओर श्रीलंका सरकार और सेना उन्हें एक क्रूर हत्यारा मानती थी, जिसके लिए मानव जीवन का कोई मूल्य नहीं था. प्रभाकरण शायद ही कभी सार्वजनिक जगहों पर देखे गए. घने जंगलों के बीच आशियाना बदलते रहने वाले तमिल नेता पर कई बार जानलेवा हमले हुए लेकिन वो बचते रहे.
शुरुआती जीवन
प्रभाकरण का जन्म 26 नवंबर 1954 को समुद्रतटीय शहर वेलवेत्तिथुरई में हुआ था. वो अपने माता पिता की चौथी और सबसे छोटी संतान थे .पढ़ाई में उन्हें औसत दर्जे का माना जाता था. बचपन में उनका स्वभाव शर्मीला और किताबों से चिपके रहने वाले बच्चे के रुप में था. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि नेपोलियन और एलेक्ज़ेंडर महान का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा. साथ ही वो सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह से भी प्रभावित थे. ये दोनों भारतीय नेता ब्रितानी हुकूमत के ख़िलाफ़ हिंसक संघर्ष में विश्वास रखते थे. राजनीति, रोज़गार और शिक्षा में तमिलों के साथ भेद-भाव से आहत प्रभाकरण ने राजनीतिक बैठकों में हिस्सा लेना शुरु किया और मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण प्राप्त किया. वर्ष 1975 में उन पर जाफ़ना के मेयर की हत्या का आरोप लगा. तमिल विद्रोहियों की ओर से ये पहली बड़ी कार्रवाई थी'

तमिल विद्रोही नेता प्रभाकरण का शव बरामद'
श्रीलंका सेना का कहना है कि तमिल विद्रोही नेता वेलुपिल्लई प्रभाकरण का शव बरामद कर लिया गया है और उनकी पहचान सुनिश्चित कर ली गई है. सेना के एक वरिष्ठ कमांडर ब्रिगेडियर शवेंद्र सिल्वा ने बीबीसी को बताया कि प्रभाकरण का शव संघर्ष वाले क्षेत्र से उनके कई अन्य सहयोगियों के साथ बरामद किया गया. श्रीलंका के सरकारी टीवी पर उनकी तस्वीरें दिखाई गईं जिनमें चेहरा स्पष्ट नज़र आ रहा था. श्रीलंका सेना का कहना है कि जब संघर्षवाले क्षेत्र से प्रभाकरण एक एंबुलेंस में भागने की कोशिश कर रहे थे, उस दौरान वो मारे गए. इसके पहले उनके मारे जाने को लेकर भ्रम उत्पन्न हो गया था क्योंकि विद्रोहियों के अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रमुख ने तमिल विद्रोहियों से सहानुभूति रखनेवाली वेबसाइट में कहा था कि प्रभाकरण जीवित और सुरक्षित हैं. इसके पहले श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने संसद को संबोधन में तमिल विद्रोहियों के ख़िलाफ़ जीत का ऐलान किया. लेकिन उन्होंने तमिल विद्रोही नेता प्रभाकरण की मौत के बारे में कुछ नहीं कहा था. राष्ट्रपति राजपक्षे ने अपने संबोधन में कहा,''श्रीलंका को लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (एलटीटीई) के आतंकवाद से मुक्त करा लिया गया है.'' उन्होंने कहा कि ये संघर्ष एलटीटीई के ख़िलाफ़ था न कि तमिल लोगों के. श्रीलंका को लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम के आतंकवाद से मुक्त करा लिया गया है
उन्होंने तमिल लोगों को आश्वासन दिया कि सभी लोगों रक्षा की जाएगी और सभी को समान अधिकार हासिल होंगे और लोग बिना किसी भय के रह सकेंगे. उनके इस संबोधन को श्रीलंका में टीवी पर लाइव दिखाया गया .महिंदा राजपक्षे ने कहा कि इसके पहले श्रीलंका के एक तिहाई हिस्से पर श्रीलंकाई पार्लियामेंट के क़ानून नहीं चलते थे लेकिन अब देश के सभी हिस्सों पर ये क़ानून लागू होंगे. साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि अब तमिल विद्रोहियों को फिर से पैर जमाने नहीं दिया जाएगा. भारत की प्रतिक्रिया इधर अमरीकी सरकार ने कहा है कि श्रीलंका सरकार को तमिल और अन्य गुटों के साथ बातचीत कर ऐसी राजनीतिक व्यवस्था बनानी चाहिए जिसमें सभी नागरिकों के हितों की रक्षा की जा सके. भारत ने भी कहा है कि प्रभाकरण के मारे जाने के साथ ही श्रीलंका में लड़ाई ख़त्म हो गई है और अब वहां की सरकार को तमिलों की समस्याएँ हल करनी चाहिए.
भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विष्णु प्रकाश ने कहा,''अब श्रीलंका में लड़ाई ख़त्म हो गई है, इसलिए वहां की सरकार को संविधान में सत्ता के विकेंद्रीकरण पर ध्यान देना चाहिए ताकि तमिलों समेत सभी समुदाय अपने को सुरक्षित महसूस कर सकें और सम्मानजनक जीवन जी सकें.'' भारत ने जल्दी ही श्रीलंका के युद्ध प्रभावित इलाक़े में चिकित्सा दल और दवाइयाँ भेजने का फ़ैसला किया है इस ख़बर के आने के बाद श्रीलंका के कई हिस्सों में लोगों के जश्न मनाने की ख़बरें हैं.
कोलंबो में बीबीसी संवाददाता का कहना है कि सेना प्रमुख जनरल फोनसेंका की ''सैन्य अभियान ख़त्म होने'' की घोषणा के बाद लोगों ने सड़कों पर आकर जश्न मनाया. इस बीच संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि 40 से 60 हज़ार तमिल लोग राहत शिविरों का रुख़ कर रहे हैं जबकि शिविरों में पहले से ही बहुत भीड़ है. संयुक्त राष्ट्र आपात राहत के समन्वयक जॉन होम्स ने कहा कि पहले से ही लगभग सवा दो लाख लोग राहत शिविरों में हैं और वे मानवीय त्रासदी से जूझ रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र महासचिव के सैन्य प्रतिनिधि विजय नांबियार श्रीलंका पहुँच गए हैं और वे सरकारी अधिकारियों से मुलाक़ात कर रहे हैं. वो मंगलवार को एक शिविर की स्थिति देखने भी जाएंगे.
श्रीलंका पर नियंत्रण
पिछले कुछ हफ्तों में श्रीलंका की सेना ने विद्रोहियों को उनके लगभग सभी इलाक़ों से खदेड़ दिया है. सोमवार को जनरल फोनसेका ने कहा, ''हमें राष्ट्रपति ने जो काम दिया था, वो हमने पूरा कर दिया है और देश को लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम के चंगुल से निकाल लिया है. '' सैन्य अधिकारियों का कहना है कि प्रभाकरण अपने खुफिया विभाग के प्रमुख पोट्टू अमान और नौसेना के प्रमुख सुसै के साथ मारे गए हैं. सेना के प्रवक्ता ने एक प्रसारण में कहा कि 26 वर्षों के बाद श्रीलंका की पूरी ज़मीन एक बार फिर सेना के नियंत्रण में है. इससे पहले प्रभाकरण के बेटे चार्ल्स एंथनी के अलावा एलटीटीई के तीन अन्य प्रमुख नेता भी मारे गए थे.

एलटीटीईः अस्तित्व से अंत तक
एलटीटीई के उदय की पृष्ठभूमि में सिंहली और तमिलों के बीच का जातीय संघर्ष है. इसकी कहानी शुरू होती है 1971 के पास. आइए, एलटीटीई के उदय से अबतक के सफ़र पर एक सरसरी नज़र डालें–सीलोन (आज के श्रीलंका) में सिंहली मार्क्सवादी विद्रोह हुआ जिसमें छात्रों और वामपंथी कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया.
वर्ष 1972 -सीलोन ने अपना नाम बदलकर श्रीलंका किया और बौद्ध धर्म को देश में प्रमुख स्थान मिला. इससे तमिल संप्रदाय की नाराज़गी बढ़ी.
वर्ष 1976 - श्रीलंका का उत्तर और पूर्वी हिस्सा तमिल बाहुल्य. वहाँ तनाव बढ़ता गया. इसी तनाव और विरोध की पृष्ठभूमि में तमिलों के विद्रोही संगठन, लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (एलटीटीई) का गठन हुआ.
वर्ष 1977 - पृथकतावादी तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट (टीयूएलएफ़) ने तमिल बाहुल्य क्षेत्रों में सभी सीटें जीतीं. </p><p वर्ष 1983 - एलटीटीई के घात लगाकर किए गए हमले में 13 सैनिक मारे गए. इसके बाद तमिल विरोधी दंगे भड़क उठे जिनमें सैकड़ों लोगों की मौत हो गई. श्रीलंका के उत्तरी क्षेत्र में तमिलों और सरकारी सेना के बीच लड़ाई तेज़ हो गई. गृहयुद्ध की गंभीरता
वर्ष 1985- सरकार और तमिल विद्रोहियों के बीच शांति वार्ता की पहली कोशिश नाकाम हो गई.
वर्ष 1987 - सरकारी सेनाओं ने उत्तरी शहर जाफ़ना में तमिल विद्रोहियों को और पीछे हटा दिया. सरकार ने एक ऐसे समझौते पर दस्तख़त किए जिनके तहत तमिल बाहुल्य इलाक़ों में नई परिषदों का गठन किया जाना था. भारत के साथ भी समझौता हुआ जिसके तहत वहाँ भारत की शांति सेना की तैनाती हुई.
वर्ष 1988 - वामपंथी धड़े और सिंहलों की राष्ट्रवादी पार्टी, जनता विमुक्ति पैरामुना (जेवीपी) ने भारत-श्रीलंका समझौते के ख़िलाफ़ अभियान शुरू किया.
वर्ष 1990 - उत्तरी क्षेत्र में काफ़ी लड़ाई को देखते हुए भारतीय सेना ने देश छोड़ दिया. श्रीलंका की सेना और पृथकतावादी तमिल विद्रोहियों के बीच हिंसा और बढ़ गई.
राजीव गांधी की हत्या
वर्ष 1991 - भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की तमिलनाडु राज्य में एक आत्मघाती हमले में मौत हो जाती है जिसके लिए तमिल विद्रोहियों को ज़िम्मेदार ठहराया गया.
वर्ष 1993 - राष्ट्रपति प्रेमदासा एक बम हमले में मारे गए जिसके बारे में कहा गया कि यह तमिल विद्रोहियों ने किया.
वर्ष 1994 - राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगा युद्ध समाप्त करने के वादे के साथ सत्ता में आती हैं. तमिल विद्रोहियों के साथ शांति वार्ता शुरू होती है.
वर्ष 1995 - शांति वार्ता नाकाम हो गई और तमिल विद्रोहियों ने बम हमले शुरू कर दिए. श्रीलंका सेना ने तमिल विद्रोहियों के ख़िलाफ़ एक बड़ा अभियान चलाते हुए उन्हें जाफ़ना से बाहर निकाल दिया.
वर्ष 1996 - आपातकाल पूरे देश तक बढ़ा दिया गया. उधर तमिल विद्रोहियों ने राजधानी कोलंबो में भी बम हमले किए. वर्ष 1997 - सरकार ने तमिल विद्रोहियों के ख़िलाफ़ एक और बड़ा अभियान शुरू किया.
वर्ष 1998 - तमिल विद्रोहियों ने श्रीलंका के सबसे पवित्र बौद्ध स्थल को निशाना बनाया. भीषण लड़ाई के बाद तमिल विद्रोहियों ने उत्तरी क्षेत्र में कुछ प्रमुख शहरों पर क़ब्ज़ा कर लिया.
वर्ष 1999 - राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगा एक चुनावी रैली में हुए बम धमाके में घायल हो गईं. वे फिर से राष्ट्रपति चुनी गईं. शांति के अंतरराष्ट्रीय प्रयास
वर्ष 2000 - फ़रवरी में नॉर्वे ने कहा कि वह श्रीलंका सरकार और तमिल विद्रोहियों के बीच शांति वार्ता में मध्यस्थ की भूमिका निभाना चाहता है. इसी वर्ष अप्रैल में तमिल विद्रोहियों ने उत्तरी द्वीप में सामरिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण एलीफ़ेंट पास पर क़ब्ज़ा कर लिया. इसी वर्ष अक्टूबर में राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगा के पीपुल्स अलायंस ने आम चुनावों में जीत हासिल की
वर्ष 2001 - फ़रवरी में ब्रिटेन ने नए आतंकवाद निरोधक क़ानून के तहत तमिल विद्रोहियों के संगठन एलटीटीई को 'आतंकवादी संगठन' घोषित किया.
वर्ष 2001 - जुलाई में तमिल विद्रोहियों ने अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर आत्मघाती हमला किया. इसी वर्ष अक्टूबर में चंद्रिका कुमारतुंगा ने अपनी सरकार बचाने के लिए अविश्वास मत से कुछ ही घंटे पहले संसद को भंग कर दिया. उनकी सरकार को मार्क्सवादियों का समर्थन था. नए चुनाव पाँच दिसंबर को कराने की घोषणा की गई. इसी वर्ष दिसंबर में चुनावों के बाद प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे के नेतृत्व में एक नई सरकार बनी. उनकी यूनाइटेड नेशनल पार्टी ने मामूली बहुमत से संसदीय चुनाव जीता.
शांति वार्ता
वर्ष 2002 - सरकार और तमिल विद्रोहियों ने स्थाई युद्धविराम समझौते पर दस्तख़त किए जिससे इस लंबे हिसंक संघर्ष को समाप्त करने का कुछ रास्ता निकला. शांति वार्ता में मध्यस्थता नॉर्व ने शुरू की.
वर्ष 2002(मार्च-मई - हथियार छोड़ने की प्रक्रिया शुरू हुई. जाफ़ना को श्रीलंका के बाक़ी हिस्से से जोड़ने वाली सड़क 12 वर्ष बाद खुली. जाफ़ना के लिए यात्री विमानों की उड़ान भी शुरू हुई.
वर्ष 2002 – सितंबर में सरकार ने तमिल विद्रोहियों पर से प्रतिबंध हटा लिया जो उनकी लंबे समय से माँग रही थी. पहले दौर की बातचीत थाईलैंड में शुरू हुई. दोनों पक्षों ने पहली बार युद्ध क़ैदियों की अदला-बदली की. तमिल विद्रोहियों ने अलग देश की माँग छोड़ दी.
वर्ष 2002 – दिसंबर में नॉर्व में हुई शांति वार्ता में दोनों पक्ष सत्ता बँटवारे पर सहमत हुए. इस समझौते के तहत अल्पसंख्यक तमिलों को मुख्य रूप से तमिलभाषी - पूर्वोत्तर क्षेत्रों में स्वायत्तता देने की बात हुई.
वर्ष 2003 - फ़रवरी में शांति वार्ता का अगला दौर बर्लिन में संपन्न हुआ.
वर्ष 2003 - अप्रैल में तमिल विद्रोहियों ने शांति वार्ता से यह कहते हुए हाथ खींच लिया कि उन्हें नज़रअंदाज़ किया जा रहा है.
राजनीतिक संकट
वर्ष 2003 - नवंबर में राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगा ने तीन मंत्रियों को बर्ख़ास्त किया और संसद स्थगित कर दी. शांति वार्ता को लेकर सरकार के साथ उनकी अनबन चल रही थी. एक पखवाड़े के बाद संसद बहाल कर दी गई लेकिन तमिल विद्रोहियों के साथ बातचीत स्थगित कर दी गई
वर्ष 2004 – मार्च में विद्रोही तमिल नेता करुणा ने अलग होकर अपना अलग धड़ा बना लिया और अपने समर्थकों के साथ भूमिगत हो गया.
वर्ष 2004 – अप्रैल में राजनीतिक खींचतान के बीच समय से पहले आम चुनाव कराए गए. कुमारतुंगा की पार्टी को 225 में 105 सीटें मिलीं जो सरकार बनाने के लिए काफ़ी नहीं थीं. महिंद्रा राजपक्षे को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई.
वर्ष 2004 - जुलाई - कोलंबो में एक आत्मघाती हमला हुआ जो 2001 के बाद से इस तरह का बड़ा हमला था. इससे शांति वार्ता के औचित्य पर सवाल खड़े हो गए.
वर्ष 2004 - दिसंबर में सुनामी के कहर ने 30 हज़ार से ज़्यादा लोगों की जान ले ली. लाखों लोग बेघर भी हो गए. श्रीलंका में राष्ट्रीय आपदा घोषित की गई.
वर्ष 2005 – जून में तमिल बाहुल्य इलाक़ों में भी सूनामी प्रभावितों तक सहायता पहुँचाने के लिए समझौता हुआ.
वर्ष 2005 – अगस्त में विदेश मंत्री लक्ष्मण कादिरगमर की हत्या के बाद राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की गई.
बिखर गईं कोशिशें
वर्ष 2005 – नवंबर में प्रधानमंत्री महिंद्रा राजपक्षे ने राष्ट्रपति पद के लिए हुआ चुनाव जीता.
इस चुनाव में तमिल विद्रोहियों के नियंत्रण वाले बहुत से इलाक़ों में लोगों ने मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया.
वर्ष 2006 – फ़रवरी में सरकार और तमिल विद्रोहियों ने जेनेवा में हुई शांति बातचीत में उस युद्धविराम समझौते के लिए अपना सम्मान फिर से व्यक्त किया जो 2002 में हुआ था.
वर्ष 2006 – अप्रैल में पूर्वोत्तर में तमिल बाहुल्य शहर ट्रिंकोमाली में विस्फोट हुए जिनके बाद दंगे भी फैले जिनमें 16 लोगों की मौत हो गई. पुलिस ने उन विस्फोटों के लिए तमिल विद्रोहियों को ज़िम्मेदार ठहराया.
वर्ष 2007- श्रीलंका की पुलिस ने सैकड़ों की तादाद में तमिल नागरिकों को राजधानी कोलंबो से बाहर निकाल दिया. इसके पीछे सुरक्षा चिंताओं का हवाला दिया गया. हालांकि न्यायालय ने इसे ग़लत क़रार दिया.
अंत की शुरुआत
वर्ष 2008- श्रीलंका सरकार ने 2002 के शांति समझौते को बेमानी बताते हुए इससे अपने हाथ खींच लिए.
वर्ष 2008- मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों से घिरी श्रीलंका सरकार. अंतरराष्ट्रीय पैनलों ने भी भर्त्सना की.
वर्ष 2008- जुलाई में सरकार ने दावा किया कि उन्होंने तमिल विद्रोहियों के देश के उत्तर में स्थित नौसेना बेस पर कब्ज़ा कर लिया है. इसी वर्ष अक्टूबर में हुए आत्मघाती हमलों में एक पूर्व जनरल समेत 27 लोग मारे गए. इसका भी आरोप एलटीटीई पर लगा. यहाँ से खुली लड़ाई की बात शुरू हो गई. श्रीलंका की सेना और एलटीटीई की ओर से एक दूसरे के लोगों को मारने की दावेदारियाँ शुरू हो गईं.
वर्ष 2009- जनवरी में 10 वर्षों से एलटीटीई के कब्ज़े में रहे किलिनोच्चि शहर पर अपना कब्ज़ा कर लिया. यह शहर एलटीटीई का प्रशासनिक मुख्यालय था. राष्ट्रपति ने तमिल विर्दोहियों से समर्पण करने को कहा.
वर्ष 2009- फ़रवरी में दुनियाभर से श्रीलंका में मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर चिंता व्यक्त की जाने लगी. युद्धक्षेत्र में फंसे हज़ारों-लाखों लोगों को लेकर विश्व समुदाय ने मांग की कि अल्पकालिक संघर्षविराम घोषित हो. श्रीलंका की सरकार ने इस मांग को ख़ारिज कर दिया. तमिल विद्रोहियों को फिर से समर्पण करने को कहा. पर एलटीटीई ने कोलंबो पर हवाई हमले किए.
वर्ष 2009 मार्च- एलटीटीई से अलग हुए विद्रोही नेता करुणा को मंत्रिमंडल में जगह मिली. एलटीटीई के एक वरिष्ठ नेता थामिलेंथी मारे गए. संयुक्त राष्ट्र ने दोनों पक्षों की युद्ध अपराधों के लिए भर्त्सना की. अप्रैल और मई में सेना का अभियान अपने चरम पर पहुँच गया. एलटीटीई का दायरा लगातार घटता गया. एक छोटे से इलाके में सिमटे तमिल विद्रोहियों के बीच फंसे हज़ारों लोगों को सुरक्षित बाहर निकालने का मुद्दा उठता रहा. हज़ारों लोग खुद युद्ध क्षेत्र में भागकर बाहर आए. सैकड़ों मारे गए. तमिल विद्रोहियों ने दो बार संघर्ष विराम घोषित किया पर सेना का अभियान जारी रहा.
18 मई, 2009 को प्रभाकरन की मौत की ख़बर के साथ एलटीटीई के अस्तित्व का अंत मान लिया गया.

Thursday 14 May 2009

स्लमडाग मिलेनियर बहुत खराब फिल्म : मृणाल सेन


देर से ही सही एक बड़े फिल्म निर्देशक मृणाल सेन ने बहुचर्चित आठ आस्कर अवार्ड जीत चुकी फिल्म स्लमडाग मिलिनेयर को खराब फिल्म कहा। वैसे तो फिल्म पर तमाम सवाल उठाए जा चुके हैं मगर ताज्जुब यह है कि मृणाल सेन ने अपनी यह राय इतनी देर से दी। अपने जन्मदिन के मौके पर दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने आस्कर पर भी सवाल उठाया। दादा साहेब फाल्के पुरस्कार प्राप्त महान फिल्मकार मृणाल सेन का मानना है कि आस्कर सिनेमाई श्रेष्ठता का पैमाना नहीं है और महान फिल्मकारों को कभी इन पुरस्कारों से नवाजा नहीं गया।
वैसे फिल्म की निंदा संगीतकार आदेश श्रीवास्तव, बाबा रामदेव समेत तमाम विचारकों ने भी की है। कुछ बानगी इसी पोस्ट में भी देख सकते हैं। मगर इस फिल्म के प्रशंसक भी काफी हैं। अभी ही संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में जहां माकपा उम्मीदवार मोहम्मद सलीम ने फिल्म का गाना जय हो को अपने सारे पोस्टरों पर लगवा दिया वहीं जय हो की तर्ज पर तमाम चुनावी नारे भी लगाए गए। अब यह समझना मुश्किल हो रहा है कि भारतीयों को कुत्ते की औकात पर ला देने वाली इस फिल्म के प्रशंसक भारतीय अस्मिता के रक्षक हैं या फिर फिल्म की निंदा करने वाले ?

मृणाल सेन ने इंटरव्यू में कहा कि मैं नहीं मानता कि आस्कर श्रेष्ठता का पैमाना है। क्या कभी चार्ली चैपलिन या सत्यजीत रे की किसी फिल्म को आस्कर मिला। कभी किसी महान फिल्मकार को आस्कर मिला हो, मुझे तो याद नहीं पड़ता। उन्होंने कहा कि आस्कर के लिए फिल्मकार अपनी प्रविष्टियां भेजते हैं और महान फिल्मकारों ने कभी इसके लिए अपनी फिल्में नहीं भेजी होंगी। आठ आस्कर जीतने वाली भारतीय पृष्ठभूमि पर बनी स्लमडाग मिलेनियर के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि मैने फिल्म देखी नहीं है लेकिन यह जरूर बहुत खराब फिल्म होगी। झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले लड़के के करोड़पति बनने की कहानी से पता नहीं वे क्या दिखाना चाहते हैं। इसकी थीम ही खराब है।

मृगया, भुवन सोम, रातभोर और पदातिक जैसी अनगिनत बेहतरीन फिल्में बना चुके इस वयोवृद्ध फिल्मकार ने मौजूदा दौर की फिल्मों के स्तर पर निराशा जताई। आज अपना 87वां जन्मदिन मना रहे सेन ने कहा कि आजकल की फिल्में मुझे पसंद नहीं। मैंने कुछ चर्चित फिल्में देखी लेकिन पसंद नहीं आई। मैं उनके बारे में बात भी नहीं करना चाहता।

अपनी पुरानी क्लासिक फिल्मों के मास्टर प्रिंट नष्ट होने से व्यथित सेन ने बताया कि सत्तर के दशक में बनी प्रतिदिन, कलकत्ता 71 और खंडहर जैसी 1984 में बनी फिल्म के प्रिंट भी नष्ट होने की कगार पर हैं। उन्होंने कहा कि फिल्मों के संरक्षण की बात मैं कई साल से कहता आया हूं। मेरे पास इतना पैसा नहीं है कि मैं उन्हें बचा सकूं। केंद्र सरकार से इस बारे में बात हुई है और चुनाव के बाद इस बारे में कोई फैसला लिया जाएगा। हम अपनी धरोहरों को यूं खो नहीं सकते। सत्यजीत रे की कालजई फिल्म पाथेर पांचाली के मास्टर प्रिंट भी लंदन फिल्म महोत्सव के दौरान खराब हो गए थे। फोर्ड फाउंडेशन ने लाखों रूपए खर्च करके उसे बचाया। सेन की भी पुनश्च : 1961 : और प्रतिनिधि : 1964 : के मास्टर प्रिंट नष्ट हो चुके हैं। सेन ने कहा कि यह दुखद है लेकिन मुझे सच्चाई को स्वीकार करना ही होगा।

आखिरी बार 2002 में आमार भुवन बनाने वाले सेन ने निर्देशन का दामन नहीं छोड़ा है लेकिन उन्हें सही पटकथा का इंतजार है। उन्होंने कहा कि मैं रोज सुबह उठता हूं तो नई पटकथा लिखने की सोचता हूं। पिछले सात साल से ऐसा ही कर रहा हूं। पता नहीं मुझे सही कहानी कब मिलेगी। अपनी सृजनात्मक क्षुधा को कैसे शांत करते हैं, यह पूछने पर उन्होंने कहा कि मैं ऐसी बहुत सी चीजें करना चाहता हूं जो नहीं कर पाया। अपनी हर फिल्म को जब मैं देखता हूं तो मुझे वह ड्रेस रिहर्सल लगती है। मुझे लगता है कि इससे बेहतर कर सकता था। लगता है कि काश अपनी जिंदगी को दोबारा जी सकता और अधिक फिल्में बना सकता। ( News agencies)

सड़क पर आए 'स्लमडॉग मिलिनेअर' के बच्चे
14 May 2009, 1750 hrs IST,आईएएनएस
मुंबई ।। मुंबई में गुरुवार सुबह वृहन मुंबई नगर निगम (एमसीजीएम)द्वारा करीब 50 झोपड़ियां ढहाए जाने की वज
ह से ऑस्कर से सम्मानित 'स्लमडॉग मिलिनेअर' में काम कर चुके करीब 20 बच्चे सड़क पर आ गए।

फिल्म में मुख्य बाल कलाकार की भूमिका निभाने वाले अजहरुद्दीन इस्माइल एम. शेख ने बताया कि एमसीजीएम का एक दल बिना पूर्व घोषणा के गुरुवार सुबह आ गया और उसने बांद्रा ईस्ट के गरीब नगर की झोंपड़ियों में रहनेवालों से बाहर निकलने को कहा।

अजहर ने रोते हुए बताया कि हमारे पास रहने को कोई ठिकाना नहीं। हम चिलचिलाती धूप में सड़क पर बैठे हैं। हमारा सारा सामान या तो फेंक दिया गया है या फिर नष्ट हो गया है। हम नहीं जानते आज हमारा पेट कैसे भरेगा।

संपर्क करने पर एमसीजीएम के यू. डी. मिस्त्री ने बताया कि निगम को मुख्यालय की ओर से बांद्रा ईस्ट के मुख्य नाले पर बनी झोंपड़ियां हटाने का आदेश मिला था। मिस्त्री ने बताया, ''हो सकता है कि इन सिलेब्रिटी बच्चों का घर भी उसी जगह पड़ता हो लेकिन हमें तो आदेश का पालन करना पड़ता है।''

इस बीच अजहर और उसकी साथी कलाकार रूबीना अली कुरैशी की उम्मीद अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण पर टिकी है जिन्होंने उन्हें फ्लैट देने का वादा किया था। चुनावों की घोषणा होने के कारण फ्लैट आवंटन में विलंब हो गया था लेकिन सोमवार को आदर्श आचार संहिता हट जाएगी।

याकूब शेख नाम के एक निवासी ने बताया कि पिछले पांच साल में यह दूसरी बार हुआ है जब एमसीजीएम ने इलाके की झुग्गियां ढहाई हैं। पिछली बार ढहाए जाने के बाद से कलाकारों सहित सभी परिवार पार्क या फुटपाथ पर रह रहे थे।
'कुत्ता' कहलाकर ऑस्कर जीतना शर्म की बात: रामदेव
10 Mar 2009, 1901 hrs IST,भाषा
जयपुर।। स्लमडाग मिलिनेअर को ऑस्कर पुरस्कार मिलने पर देश भर में खुशियां मनाए जाने से योग गुरु बाबा राम
बाबा रामदेव
देव खासे दुखी हैं। योग गुरु ने कहा कि इस फिल्म में भारतीयों की बड़ी आबादी को 'कुत्ते' की तरह दिखाया गया है। बाबा ने कहा कि कुत्ता कहलाकर पुरस्कार जीतने पर भारतीयों को शर्म आनी चाहिए।

रामदेव मंगलवार को बापू नगर स्थित प्राकृतिक चिकित्सालय में एक समारोह को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि पश्चिमी देश भारत में रहने वालों को आज भी कुत्ता मानते हैं। हमें (भारतवासियों को)'कुत्ते' की तरह सम्मानित किया गया। यह भारतवासियों के लिए शर्म की बात होनी चाहिए, पर यह दुख की बात है कि देश भर में 'स्लमडॉग मिलिनेअर' को पश्चिमी देश का पुरस्कार (ऑस्कर) मिलने पर खुशियां मनाई जा
रही है। बाबा ने इस घटना को बेहद शर्मनाक करार दिया। उन्होंने कहा कि यह देशवासियों के बौद्धिक स्तर में आई गिरावट को दर्शाता है। बाबा ने जोर देकर कहा कि हमें इस बौद्धिक गिरावट को रोकने की जरूरत है।
गौरतलब है कि मुंबई के स्लम के बैकग्राउंड पर बनी 'स्लमडॉग मिलिनेअर' ऑस्कर की 10 कैटिगरी में नॉमिनेट थी और बेस्ट मूवी समेत 8 अवॉर्ड जीतकर वह सबसे आगे रही। इससे पहले 1982 में भारतीय पृष्ठभूमि पर बनी 'गांधी' को भी 8 ऑस्कर अवॉर्ड्स मिले थे।
स्मडाग बनाने की सोच पर यह टिप्पणी
कितनी मेहनत करते हैं लोग !!!!!!!!!

On Fri, Apr 3, 2009 at 12:26 PM, Ashish <tambe.ashish@gmail.com> wrote:
Recently, i have got a mail from one of my friend about the Oscar Winning Film Slumdog Millionaire.
Though, i have not seen the movie yet, but i am willing to share contents of that mail with you people as this exposes the other side of film. Do you feel that its a Media Scam??? please go thru the slides below and share your comments.












































Religion, Marxism and Slumdog
Francois Gautier
Express Buzz

WHY did a film like Slumdog Millionaire, which conveys an utterly negative image of India — slums, exploitation, poverty, corruption, anti Muslim pogroms — create so many waves in the West, pre and post Oscars?

And why does not the Indian government protest, as the Chinese would indeed have, for a twisted and perverted portrayal of its own reality?

There are several answers:

When the missionaries began to evangelise India, they quickly realised that Hinduism was not only practised by a huge majority, but that it was so deeply rooted that it stood as the only barrier to their subjugating the entire subcontinent.

They therefore decided to demonise the religion, by multiplying what they perceived as its faults, by one hundred: caste, poverty, child marriage, superstition, widows, sati … Today, these exaggerations, which at best are based on quarter-truths, have come down to us and have been embedded not only in the minds of many Westerners, but also unfortunately, of much of India's intelligentsia.

We Westerners continue to suffer from a superiority complex over the socalled Third World in general and India in particular.
Sitting in front of our television sets during prime time news, with a hefty steak on our table, we love to feel sorry for the misery of others, it secretly flatters our ego and makes us proud of our so-called 'achievements'.

That is why books such as The City of Joy by Dominique Lapierre, which gives the impression that India is a vast slum, or a film like Slumdog Millionaire, have such an impact.

In this film, India's foes have joined hands. Today, billions of dollars that innocent Westerners give to charity are used to convert the poorest of India with the help of enticements such as free medical aid, schooling and loans.

If you see the Tamil Nadu coast posttsunami, there is a church every 500 metres. Once converted, these new Christians are taught that it is a sin to enter a temple, do puja, or even put tilak on one's head, thus creating an imbalance in the Indian psyche (In an interview to a British newspaper, Danny Boyle confessed he wanted to be a Christian missionary when he was young and that he is still very much guided by these ideals — so much for his impartiality).

Islamic fundamentalism also ruthlessly hounds India, as demonstrated by the 26/11 attacks on Mumbai, which are reminiscent of the brutality and savagery of a Timur, who killed 1,00,000 Hindus in a single act of savagery.

Indian communists, in power in three states, are also hard at work to dismantle India's cultural and spiritual inheritance. And finally, the Americanisation of India is creating havoc in the social and cultural fabric with its superficial glitter, even though it has proved a failure in the West.

Slumdog plays cleverly with all these elements.

Many of the West's India-specialists are staunchly anti-Hindu, both because of their Christian upbringing and also as they perpetuate the tradition of Max Mueller, the first 'Sankritist' who said: "The Vedas is full of childish, silly, even monstrous conceptions. It is tedious, low, commonplace, it represents human nature on a low level of selfishness and worldliness and only here and there are a few rare sentiments that come from the depths of the soul".

This tradition is carried over by Indologists such as Witzel or Wendy Doniger in the US, and in France where scholars of the state-sponsored CNRS, and its affiliates such as EHESS, are always putting across in their books and articles detrimental images of India: caste, poverty, slums — and more than anything — their pet theories about 'Hindu fundamentalism'.

Can there be a more blatant lie? Hinduism has given refuge throughout the ages to those who were persecuted at home: the Christians of Syria, the Parsees, Armenians, the Jews of Jerusalem, and today the Tibetans, allowing them all to practise their religion freely.

And finally, it is true that Indians, because they have been colonised for so long (unlike the Chinese) lack nationalism.
Today much of the intellectual elite of India has lost touch with its cultural roots and looks to the West to solve its problems, ignoring its own tools, such as pranayama, hata-yoga or meditation, which are very old and possess infinite wisdom.

Slumdog literally defecates on India from the first frame. Some scenes exist only in the perverted imagery of director Danny Boyle, because they are not in the book of Vikas Swarup, an Indian diplomat, on which the film is based.

In the book, the hero of the film (who is not Muslim, but belongs to many religions: Ram Mohammad Thomas) does not spend his childhood in Bombay, but in a Catholic orphanage in Delhi. Jamal's mother is not killed by "Hindu fanatics', but she abandons her baby, of unknown religion, in a church. Jamal's torture is not an idea of the television presenter, but of an American who is after the Russian who bought the television rights of the game. The tearful scene of the three children abandoned in the rain is also not in the book: Jamal and his heroine only meet when they are teenagers and they live in an apartment and not in a slum.

And finally, yes, there still exists in India a lot of poverty and glaring gaps between the very rich and the extremely poor, but there is also immense wealth, both physical, spiritual and cultural — much more than in the West as a matter of fact.

When will the West learn to look with less prejudice at India, a country that will supplant China in this century as the main Asian power? But this will require a new generation of Indologists, more sincere, less attached to their outdated Christian values, and Indians more proud of their own culture and less subservient to the West. fgautier26@gmail.com

Related articles below:

1)
Motivation of Indologists

2)
Invading the Sacred

3)
Interview of Evangelist
They've started calling Indians 'slumdogs': Composer Aadesh Srivastava

http://www.musicindiaonline.com/n/i/top_stories/2867/

Mumbai, Feb 20 (IANS) Bollywood composer Aadesh Srivastava says he is
embarrassed to walk on the streets of the US after Oscar-nominated
"Slumdog Millionaire" because "they have started calling Indians
slumdogs".

"I'm so upset. They've started calling Indians 'slumdogs', just like
'coolie' was a 'slang' in Britain. Now in the US I feel slumdog is a
'gaali' (slang) for Indians. Mumbai has given me everything,"
Srivastava told IANS.

"To see the city being shown as a place of dirt, filth and crime only
is very humiliating. Even I can make a film on child prostitution and
paedophilia. But it won't get Oscars because I am not a 'gora'
(white)," added the composer.

Based on Indian diplomat Vikas Swarup's novel "Q & A", "Slumdog
Millionaire" is about an impoverished teaboy who wins a quiz show.
Directed by British director Danny Boyle, the story is set in the
slums of Mumbai. While Anil Kapoor, Freida Pinto and NRI Dev Patel
played main leads, A.R. Rahman composed the music for the movie. It
has got 10 Oscar nominations, out of which three are for Rahman.

The film was lauded in the West, but it has been criticised by some in
India for showing its ugly side by concentrating on grinding poverty.

"What right does the director have to show Mumbai as a slum? Now we
are considered a slum city in all parts of the world. Humlog kahin
mooh dikhane laayak nahin rahe (we're unable to show our face
anywhere)," said Srivastava, who watched the movie in Los Angeles this
week.

Srivastava applauds fellow composer Rahman's music in the movie, but
says he'd never be part of a film that makes India look like a slum.

"I'm so upset. It's a disgusting movie. Being an Indian it was doubly
humiliating to be watching the film with Americans. Even if Steven
Spielberg asked me to compose music for a film that makes fun of
India, I won't do it," he said.

Being a diehard Amitabh Bachchan fan, Srivastava is appalled by the
way the Big B is shown in the film.

"I puked when I saw that kid smeared in shit asking for Bachchan
saab's autograph. What the f...k was that? Does Danny Boyle know what
Bachchan saab means to us Indians? Who would dare approach him like
that?

"We applaud people who come to our city and spit in our faces!" he said.
Slumdog Millionaire: the prejudice continues?
Saurav Basu
http://www.blogs.ivarta.com/Slumdog-Millionaire-prejudice-
continues/blog-231.htm

Back in the good old days when Satyajit Ray often made the most
sublime neo-realistic cinema, one Ms. Nargis Dutt caustically charged
him with selling Indian poverty abroad. Yet, Satyajit Ray"s films did
not feature Calcutta"s slums but the villages of Bengal. There was an
undercurrent of poverty in his major films like Pather Panchali,
Aparajito and Pratidwandhi but there was human irony. No
romanticizing poverty yet ultimately a resounding affirmation of
human dignity. Who can forget the immortal scene in Aparajito where a
guilt ridden Apu, a poor Brahmana boy rejects his priestly duties
towards his mother"s last rites and opts to pursue a modern education
instead.

Ray"s father was a Brahmo and he himself a recalcitrant Hindu, yet
his cinema encompassed everything that represented the best and the
worst of Indian civilization ethos.

Through the vicissitudes of times, India has emerged as a global
economy shedding both its Nehruvian rate of growth and the associated
stereotypes, although we are admittedly a third world country with
sub Saharan level hunger and human development indices. Yet, a share
of its misfortune may be attributed to being surrounded by two failed
states whose burdens of jihadi terrorism and poverty India has to
suffer. Even the slum is an artificial socio-political construct and
misrepresents Indian poverty.

Indian slums have unpaid electricity accounts yet even today
thousands of Indian villages wait electrification; slums have NGOs
operating in vain while villages still await their first permanent
school buildings. Slums create and sustain criminals yet millions of
Indian villages represent a morally and ethical superior way of life
and hospitality. Slums in India are infested by some over 30-40
million illegal Bangladeshi migrants who constitute a sizable secular
votebank.

But contemporary film making seems to have appreciated little of
these ground realities; instead we find a rehash of the old and
improbable rags to riches story in an ultra-regressive style. A
magnificent Mumbai slum, two Muslim brothers, a Hindu mob killing
innocent Muslim women, criminally amputated children singing Surdas"s
songs, Hindu policemen torturing an innocent Muslim boy and a
diabolic Hindu game-show host who hands his Muslim contestant to his
Hindu police which hates the Amnesty international, and voila, you
have all the ingredients for a "secular" potboiler which is on the
road to the Oscars! You might argue that it"s not realistic but only
fantasy since there is greater probability of winning the jackpot on
a lottery ticket without being abused by the police than winning the
top prize on a quiz show with 15 unique questions.

But then you can be kidding with the graphic depiction of blood
curdling anti Muslim riot in which a Hindu mob slits the children"s
mother, the Indian policeman electrocuting the Muslim suspect or the
gory scene of the amputation of the street children by the mafia who
are then forced to sing Surdas"s bhajans. The book by Vikas Swarup
has the main protagonist named as Ram Mohammad Thomas who was
conveniently transformed into a Muslim boy, Jamal Malik who lost his
mother to a Hindu mob to make it sound in the author"s own confession
more "politically correct."

When was the last time in Indian History when an unprovoked Hindu
population took to violence? For the record the Mumbai riots were
incited by fanatical Muslim mobs in the face of the Baburi Masjid
demolition. Moreover, it beats me how the consequent Mumbai bomb
blasts triggered by local Muslim gangs can be disassociated from the
Mumbai riots? And the much maligned Bombay Police recently lost
sixteen of its bravest men while defending the city"s freedom of
speech and expression against Islamist zealots who wanted to
replicate in India, a 7th century Arabia.

More disturbingly, you have the depiction of the blue bodied Rama
whom Hindus consider as Maryada Puroshottam [the best among men]
threatening to terminate the existence of the innocent Muslim
children. To a question on with which weapons is Lord Rama depicted
with in popular iconography, Jamal Malik the protagonist does not
remember the grand Ram Lilas which happen across the country or Ram
Kathas on televisions. Instead, a Hindu kid dressed like immaculately
like Lord Rama stand in the mid of a slum in a threatening pose. And
one cannot miss the hatred being portrayed in the face and looks of
that young Hindu kid, younger than even Jamaal. Even a 5 year old
Hindu kid is a communal bigot and Rama is responsible for all the
communal crap. Muslims are seculars and victims by definition. And we
need one white director to tell these things to the whole world.

Not only this we have forcibly amputated children singing Surdas"s
bhajan pining for a glimpse of illusory Krishna? This insensitive
jaundiced anti Hindu view is reminiscent of Indian leftist cinema
where Hindu male characters are black and Muslims white! Remember, Mr
and Mrs Iyer where a Hindu mob was searching for circumcised dicks
and didn"t even spare a Jew in true Nazi fashion! Never mind that in
world history, Hindus are the only people who don"t carry an atom of
anti-Semitism, but the director"s flight of "secularist" fancy won
critical acclaim.

Buddhadeb Bhattacharya in his film Uttara shows a band of Hindu goons
burning a Christian church made in service of the lord"s lepers and
raping an orphan girl in the process. Expectedly, this rather
original gruesome way of story-telling won him the national awards!
In the Tamil hit, Dasavathaaram, we find an anti-historical situation
fantasizing Shaivite intolerance against Vaishnavs where Ramanujam"s
disciple is shown fighting Kulothunga Chola. Based on a solitary
description of Chola antagonism in Ramanujam"s writings, we discover
the Chola fanatic stealing the idol of Vishnu from Srirangam,
ironically the same temple complex which was plundered at least five
times by Islamic armies. Similarly, Kamal Hassan in his movie "Anbe
Sivam", shows a pious Shiva devotee injuring the hero who is rescued
by a group of benevolent Christian nuns. Previously, in the 70s when
anti-Brahmana movement in Tamil Nadu was at its peak, we had Brahmana
priests routinely paraded as rascals in Tamil movies.

"Islamic" sensitivities have extracted book bans from both British
and Congress governments. Girja Kumar in his "Book on Trial" has
reproduced dozens of cases where Hindu books critical of Islam or the
Prophet were banned, and the authors faced arrest or were killed.
Salman Rushdie"s flight and Taslima Nasrin"s plight is well known.
Lajja almost faced a ban because she had exposed the genocide against
Hindus in Bangladesh. Movies on the state of Kashmiri pundits,
victims of Islamic genocide against Hindus of Bangladeshis, the Hindu
victims of the North East against Christian separatism and also the
historical crimes by the armies of Islam and inquisitory Christianity
are taboo in a "secular country" They cannot see the light of the day
because they are inimical to communal harmony and hurt minority
sentiments.

This ostentatious display of anti Hindu sentiment is of course lost
on the jingoists or those ABCDs who go gaga over such pernicious
cinema. Sincere critics questioning the dumb plot where a slum boy
grows up into a sophisticated leftist JNU product with a flawless
English accent are censured by appealing to the authority of the
Golden globe awards. They keenly forget the film was precisely
designed for that, appeal to the racial sensitivities of those who
really matter! Therefore, even the liberation of Jamal is not through
out of any indigenous worth, but through an internationally funded
poverty alleviation game show [Kaun Banega Crorepati recedes into its
international avatar, Who wants to become a millionaire].





--
Dr. Mandhata Singh
From Kolkata (INDIA)

These are my sites. ...........
http://apnamat.blogspot.com/
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​अपनी भाषा को पहचान दें, हिंदी का प्रसार करें।।
Want to write in hindi. Try it please.....
http://kaulonline.com/uninagari/inscript/
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THANKS

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