Monday 30 July 2007

मुझको मेरे बाद जमाना ढूँढेगा !

यह विडंबना ही है कि त्रिलोचन जैसे महाकवि का अशक्त और बीमार होना हिंदी साहित्य जगत को उस हद तक उद्देलित नहीं करता जितना कि होना चाहिए था। कम से कम यह मलाल तो त्रिलोचन की देखभाल कर रहीं उनकी बहू श्रीमती ऊषा सिंह को अवश्य है। बीबीसी की हिंदी सेवा भी ऊषा सिंह की यह शिकायत जगजाहिर कर चुकी है। क्या हिंदी साहित्य को इनका अप्रतिम योगदान राष्ट्रसेवा की किसी ऐसी कोटि में भी नहीं आता कि इनकी खोजखबर राष्ट्रीय चिंता का विषय बन सके? यह सवाल उठाने का मेरा मकसद यह कतई नहीं है कि इस युगपुरुष की सेवा की जिम्मेदारी उनका परिवार किसी और पर डालना चाहता है। दरअसल यह सवाल किसी व्यवस्था के अपनी जिम्मेदारी से बेखबर होने का है। ऐसा भी नहीं कि इनके ऐसे शुभचिंतक भी नहीं हैं। यदा-कदा लोग त्रिलोचन का हालचाल पूछने हरिद्वार शहर के ज्वालापुरी की संकरी गली के आखिरी मकान में पहुंच ही जाते हैं। और महाकवि के जीवन की यह सांध्यबेला उन्हें व्यथित भी करती है। ऐसी ही एक शुभचिंतक का एक यह मार्मिक पत्र देखिए ---
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(यह पत्र नोयडा से छपने वाली हिंदी पत्रिका -भारतीय लेखक-के अप्रैल-जून के २००६ के अंक में पत्रिका के संपादक ने अपनी टिप्पणी के साथ छापा । संदर्भ के लिए इस पत्र को शब्दशः देखिए-----)

त्रिलोचन से एक मार्मिक भेंट
हिंदी तथा देश की विभिन्न भाषाओं के लेखकों को जोड़ने में सेतु का काम करने वाले, विशेष रूप से बाबा नागार्जुन तथा त्रिलोचन के परम आत्मीय, साहित्य के मौन तपस्वी वाचस्पति जहां-जहां रहे, वह स्थान एक साहित्य-तीर्थ में बदलता रहा। और तो और, पहाड़ के एकांत कोने में जाहरीखाल जैसी छोटी जगह आज भी उसी गरिमा को प्राप्त है। पिछले दिनों वाचस्पाति की विदुषी पत्नी शकुंतला जी उत्तरांचल की यात्रा के दौरान त्रिलोचन जी से मिलने हरिद्वार गईं थीं। उनके लौटने पर वाचस्पति ने श्री हरिपाल त्यागी के नाम विह्वल कर देने वाला पत्र लिखा। प्रस्तुत है पत्र के उल्लेखनीय अंश। ( संपादक ) ।
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आदरणीय भाई,
शकुंतला जी के छोटे भाई देवपूजन शउक्ल सपरिवार थाईलैंड से आए थे। वे दो दिन के लिए उनके साथ देहरादून-मसूरी गईं। मैने आग्रह किया था कि यदि समय मिले तो त्रिलोचन जी से जरूर मिल लेना। देव के परिवार को हरिद्वार हर की पैड़ी पर बिठाकर शकुंतला जी २० अप्रैल २००६ को ज्वालापुर-हरिद्वार में घंटे भर त्रिलोचन जी के साथ रहीं। अमित की पत्नी श्रीमती ऊषा सिंह एडवोकेट हैं। वे हरिद्वार कोर्ट चली जातीं हैं। घर में कोई और न होने से वे बाहर से ताला बंद कर जाती हैं। बंद गाली के आखिरी मकान के आखिरी कमरे में त्रिलोचन जी दिन मे अकेले रहते हैं। हिंदी के महाकवि के जीवन की संध्या बेला है यह। त्रिलोचन जी ने शकुंतला जी को सहसा देखा तो उनकी आंखों में अद्भुत चमक आई और वे बोले-आश्चर्य कि आप यहां हैं। स्मृति मंद हुई है उनकी। संग-साथ वहां दूर तक नहीं है उनका। निपट अकेलापन ही उनका असाध्य रोग है।
मंगलवार ९ मई को सुबह दिल्ली से मृणाल पांडे, श्याम सुशील, विष्णु नागर और पंकज पाराशर के ज्वालापुर-हरिद्वार में त्रिलोचन जी के पास जाने की बात थी। गए होंगे। वहां त्रिलोचन जी के परिवार की शायद याह आर्थिक हैसियत नहीं कि उनके पास कोई पास का पहाड़ी सेवक रख दिया जाए। बनारस-दिल्ली-भोपाल-सागर वगैरह में सड़कों पर बतरस बहाने वाले त्रिलोचन का हाल बकौल इकबाल अब यह है--

ये दस्तूरे जुबाबंदी है कैसा तेरी महउिल में,
यहां तो बात करने को तरसती है जुबां मेरी।
भारतीय लेखक में त्रिलोचन जी पर महापुरुष आपने निस्संग होकर लिखा है।
सादर आपका
वाचस्पति
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कुछ हिंदी चिट्ठाकारों ने त्रिलोचन की बीमारी का जिक्र करके चिट्ठों पर मौजूद साहित्यकारों को बेहद उद्देलित कर दिया है। बोधिसत्व और चंद्रभूषण की इन्हीं टिप्पणियों का जिक्र जब मैने हाल ही में कोलकाता में अपने बेटे मनु से मिलने आईं ऊषा सिंह से किया तो उनके भी मन की पीड़ा हलक पर बरबस आ गई। कहा- मान्धाताजी हमारे परिवार और हिंदी साहित्य जगत के युगपुरुष त्रिलोचन हमारी पारिवारिक जिम्मेदारी हैं और हम इसे सहर्ष निभा भी रहे हैं। दरअसल मैंने ऊषा जी को कोलकाता में देखकर पूछ बैठा कि त्रिलोचन जी कैसे और कहां हैं? कहा- उन्हें दिल्ली में अमित जी के यहां छोड़ आई हूं। अन्यथा कोलकाता आना कैसे हो पाता? ऊषाजी-अमितजी का बेटा और त्रिलोचनजी का पोता अदरीश ( मनु ) यहीं कोलकाता में है। अभी हाल में ही अदरीश को टीसीएस में नौकरी मिली है। त्रिलोचन जी का बेहाल हाल भी मैने भी जाना तो बड़ी तकलीफ हुई। त्रिलोचन जी के कोलकाता प्रवास के वे दिन भी याद आ गए जब वे अमित जी के पास आए थे। हम लोगों की हर उत्सुकता पर वे बड़ी सजीदगी से विद्वतापूर्ण बहस किया करते थे। उन दिनों अमित जी यहीं कोलकाता जनसत्ता में समाचार संपादक थे। ऊषाजी और बच्चे भी यहीं कोलकाता में ही थे। अब उनकी बीमारी का हाल सुनकर तो लगता है कि उनके बतरस का चहकता अंदाज शायद ही देखने को मिले। कम से कम शकुंतलाजी की चिट्ठी, ऊषाजी से मिली जानकारी, हिंदी चिट्ठों पर बोधिसत्व और चंद्रभूषण की टिप्पणी से तो ऐसा ही लगता है। २० अगस्त को त्रिलोचन जी का जन्म दिन है। मेरी और हिंदी चिट्ठजगत के मित्रों की ओर से उन्हें जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं। ईश्वर उन्हें स्वस्थ रखे और लंबी उम्र दे। आमीन।
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( दैनिक जागरण ने सखी पात्रिका में भीष्म साहनी का संस्मरण छापा है। यह अंश उसी संस्मरण का है जिसमें त्रिलोचन से एक बतरस का जिक्र है। खुद भीष्म साहनी स्वीकार करते हैं कि इस बतरस ने ही माधवी नाटक का प्लाट तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह है सहज त्रिलोचन के सार्थक बतरस का अनुपम उदाहरण।)
http://www.jagran.com/sakh
बहुत भाता है पीछे मुड़कर देखना: भीष्म साहनी
--------------------- एक बार मैं त्रिलोचन शास्त्री के साथ रेलगाड़ी के खचाखच भरे डिब्बे में सफर कर रहा था। वह महाभारत की एक कथा सुनाने लगे। कथा बड़ी रोचक, पर दिल दहला देने वाली थी। वह मुझे नाटक के योग्य लगी। मैंने उसी समय अपने मन में नाटक का प्लॉट तैयार कर लिया। यह मेरा तीसरा नाटक माधवी था। कबिरा खड़ा बाजार में की प्रेरणा तो मुझे कबीर के महान व्यक्तित्व से ही मिली थी। हां, हजारी प्रसाद द्विवेदी की कबीर पुस्तक से इसमें बड़ी मदद मिली। मय्यादास की गाड़ी की मूल घटना मैंने माताजी से सुनी थी। तमस भी मेरे निजी अनुभवों पर ही आधारित है। मेरे शहर रावलपिंडी में 1947 में दंगा हुआ, कांग्रेस ने रिलीफ कैंप लगाया था, वहां शिकायतें दर्ज करने का काम मुझे सौंपा गया था। बड़ा हैरतअंगेज अनुभव था। अब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है जैसे मैं अपने नॉवल तमस के लिए कच्चा माल इकट्ठा कर रहा था।
मंजीत कौर भाटिया

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मैने त्रिलोचनजी पर चिंता जाहिर करने वाले या फिर उनकी कविताओं के जरिए उनको याद करने व टिप्पणियों का जहां जो कुछ भी संदर्भ पाया उसका आप भी अवलोकन कर सकते हैं। कुछ संदर्भ यहां नहीं दे पा रहा हूं मसलन १० जून २००७ को अपने रविवारीय में प्रभातखबर ने सानेट के कवि त्रिलोचन शीर्षक से लेख छापा है। जिसे मै यहां लिंक नहीं कर पा रहा हूं।
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अनहद नाद
July 18, 2007
त्रिलोचन : ( वागर्थ के जुलाई-07 अंक से साभार )
Filed under: Uncategorized — PRIYANKAR @ 5:49 am
बोधिसत्व की एक कविता
त्रिलोचन
‘सुनने में आया, हैं बीमार त्रिलोचन
हरिद्वार में पड़े हैं, अपने बेटे के पास
जिनका कविता-फ़विता से कोई
लेना-देना नहीं है। टूट गई है जीभ, जो मन सो
बकते से हैं, जसम-फ़सम, जलेस-प्रलेस सब
सकते में हैं’
खबर सुनाई जिसने कवि-अध्यापक वह
इलाहाबाद-अवध में चर्चा है व्यापक कह
मौन हुआ, मैं रहा देखता उसका मुंह
रात बहुत थी काली, जम्हाता अंगुली
पटकाता वह फिर बोला –
‘सूतो अब तुम भी’
मैंने मन ही मन कहा –
‘त्रिलोचन घनी छांव वाला तरुवर है
मूतो अब तुम भी’
उस पर विचार के नाम पर
दुर-दुर करो, कहो वाम पर
धब्बा है त्रिलोचन
कहो त्रिलोचन कलंक है।
भूल जाओ कि वह जनपद का कवि है
गूंज रहा है उसके स्वर से दिग-दिगंत है।
मरने दो उसको दूर देश में पतझड़ में
तुम सब चहको भड़ुओं तुम्हारा तो
हर दिन बसंत है।
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हिंदी ब्लाग पर चंद्रभूषण की टिप्पणी ------
प्रियंकर जी के ब्लॉग पर भाई बोधिसत्व की एक कविता पड़ी है। कवि त्रिलोचन की बीमारी की खबर सुनकर धक् से कलेजा मुंह को आ जाने जैसा भाव उसमें है और खानों में बंटे हिंदी समाज में उनके प्रति व्याप्त उपेक्षा से उपजी तोड़ देने वाली तकलीफ भी। कुछ समय पहले कहीं डाली गई अपनी एक टीप में मैंने त्रिलोचन का जिक्र किया था, साथ में कोष्ठक में 'प्रगतिशील त्रयी के कवि' का एक पुछल्ला भी नत्थी कर दिया था। किसी भाई को यह बहुत बुरा लगा और उन्होंने इसपर एक जुतियाती हुई सी बेनाम टिप्पणी भेज दी। मुझे उनकी टिप्पणी पर खुन्नस तो हुई लेकिन उससे ज्यादा खीझ खुद पर हुई कि मुझे त्रिलोचन का परिचय देने की ऐसी क्या जरूरत पड़ गई थी।गलती को सुधारने के लिए इस बारे में अब सिर्फ इतना निवेदन किया जा सकता है कि पूरा ब्लॉग जगत अभी हिंदी साहित्य से ज्यादा परिचित नहीं है। यहां कभी-कभी लोगबाग रघुवीर सहाय और रघुपति सहाय 'फिराक' के बीच में भी गड़बड़ा जाते हैं लिहाजा इतने अंधेरे में सूरज को दिया दिखाने की यह गलती माफ कर दी जानी चाहिए।त्रिलोचन जी से मेरी पहली मुलाकात दिल्ली, यमुनापार में मदर डेरी के पास ऊना अपार्टमेंट में हुई थी, जहां वे मेरे मित्र राजेश अभय, नंदिता और संजय जोशी के साथ रह रहे थे। एक दिन अपने किसी काम से मैं राजेश के यहां गया हुआ था। बातचीत के बीच राजेश ने कहा, बाबा से मिलेंगे। मैंने सोचा शायद राजेश, संजय या नंदिता के घर से कोई बुजुर्ग आए हों। दूसरे कमरे में बड़ी-बड़ी, बिखरी, सफेद दाढ़ी वाले पाजामा-बनियान पहने कसे बदन के एक बुजुर्ग उठंगे हुए अखबार देख रहे थे। राजेश ने मिलवाया, कहा बाबा ये चंदू भाई हैं, जनमत में काम करते हैं, कविता भी लिखते हैं। कोई एक घंटा हम लोग तमाम अवाट-बवाट चीजों पर बतियाते रहे। मुझे आश्चर्य हुआ- बड़ा जानकार बुजुर्ग है, और एकदम अपटुडेट। सिर्फ कविता के बारे में उनसे कोई बात नहीं हुई, क्योंकि मुझे लगा, बिना तुक की कविताओं में किसी आम बुजुर्ग की भला क्या दिलचस्पी हो सकती है।कुछ ऐसा संयोग कि नमस्ते का जवाब नमस्ते से देने के बजाय गर्मजोशी से हाथ मिलाने वाले इन बुजुर्ग से बातचीत करके मैं घर चला आया, लेकिन ये हैं कौन, इस बारे में कुछ बताने की जरूरत राजेश अभय को महसूस नहीं हुई। शायद यह ठीक ही हुआ क्योंकि इस समय तक त्रिलोचन की कोई कविता मैंने नहीं पढ़ी थी और नाम भी नागार्जुन, शमशेर की निरंतरता में ही सुना था। कुछ दिन बाद किसी और चीज पर चर्चा के क्रम में राजेश ने बताया तो मुझे झेंप सी हुई कि इतने बड़े आदमी से यह मैं क्या फालतू बातें करके चला आया।उस समय मेरे जीवन में एक अलग प्रकरण चल रहा था, जिसका ब्योरा यहां देना उचित नहीं होगा। संक्षेप में कहें तो यह मेरे शादी-ब्याह से जुड़ा हुआ था, जो झंझट और उत्तेजना के मामले में आल्हा वाली माड़ोगढ़ की लड़ाई से कम नहीं था। इसी सिलसिले में नैनीताल जिले के खटीमा नाम के कस्बे में मैं गया हुआ था, जहां फुरसत के एक छोटे से वक्फे में ताजा-ताजा दोस्त बने समान विचारधारा वाले एक नौजवान रवींद्र गड़िया ने 'त्रिलोचन की प्रतिनिधि कविताएं' पढ़ने को दी। इसमें 'चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती' रवींद्र ने पढ़ाई और फिर 'नगई महरा' और कई सारे सॉनेट मैंने खुद पढ़े।त्रिलोचन को पहली बार पढ़ने के अनुभव के बारे में एक झटके में कुछ बताना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। यह अंडरटोन्स की कविता है, जो हिंदी जैसी एक विकासमान भाषा में बड़ी दुर्लभ चीज है। चीखते, भड़भड़ाते हुए, तयशुदा शब्दावली और वैचारिक आग्रहों के साथ बोलना भारत में कभी कविता की पहचान नहीं रही। लेकिन दुर्भाग्यवश अभी की जिस भाषा में हमारा लिखना-पढ़ना होता है, उसका स्वभाव कुछ ऐसा ही बनता चला गया है। त्रिलोचन और शमशेर इसके अपवाद हैं लिहाजा उनको पढ़ने के लिए आपको धीमी आवाजें और फुसफुसाहटें सुनने के लिए खुद को अभ्यस्त बनाना पड़ता है।एक और खास बात त्रिलोचन का ठेठ देसी मुहावरा है। एक हिंदुस्तानी किसान बड़ी बातें जितने सहज तरीके से कह जाता है, उसे समझना टेढ़ा काम है, लिहाजा पढ़े-लिखे लोग उसे अनसुना कर देना ही बेहतर समझते हैं। त्रिलोचन की एक कविता, शायद 'नगई महरा' में सारे करम कर चुकी गांव की एक बुआ बिना विवाह किए किसी के साथ रह रही एक औरत की लानत-मलामत कर रही हैं। कहार जैसी प्रजा बिरादरी की यह स्त्री चाहकर भी जवाब में कुछ तीखा बोल नहीं सकती, लिहाजा कविता में वह इसृ तरह का कुछ कहकर रह जाती है कि 'बुआ, सबको अपना-अपना देखना चाहिए '।बोरिस पास्तरनाक ने अपनी कालजयी रचना 'डॉ. जिवागो' में एक लयदार प्रेमगीत की तुलना किसी नहर या नदी पर बने स्लूइस गेट से की है, जिसके एक तरफ पानी बिल्कुल रुका हुआ नजर आता है तो दूसरी तरफ वह प्रचंड गति से हरहराता हुआ बहता दिखाई देता है। वे बताते हैं कि ऐसे गीतों में बार-बार आ रही टेक कुछ ऐसा भ्रम पैदा करती है जैसे बातें अपनी ही जगह कदमताल कर रही हों, लेकिन लय की इस रुकी हुई सतह के नीचे भाव विकट गति से आगे बढ़ रहे होते हैं। त्रिलोचन की कविता की लयकारी भी कुछ ऐसी ही है- सॉनेटों में यह काफी ज्यादा है लेकिन बाकी कविताओं में भी इसका असर कम नहीं है। उनकी एक कविता में मृत पत्नी के वियोग में तप रहे एक व्यक्ति के नजरिए को हास्यास्पद समझने वाले मूढ़ सामाजिक चातुर्य से भरी टिप्पणी कविता की अंतिम टेक के रूप में आती है- 'उसमें क्या है, उसमें क्या है, उसमें क्या है...'।ऐसी कितनी तो बातें हैं जो त्रिलोचन की कविता को बहुत-बहुत जरूरी बनाती हैं, लेकिन इनसे मेरा परिचय खटीमा के रवींद्र गड़िया न कराते तो शायद इनतक मेरी पहुंच कभी न बनती। खटीमा से लौटने के अगले दिन ही मैं सीधा राजेश अभय के घर गया और त्रिलोचन जी के सामने कुछ देर मुंह सिए बैठा रहा। हिम्मत बंधी तो बोला, 'खटीमा में आपकी कविताएं पढ़ीं- पहली बार'। त्रिलोचन जी बच्चों की तरह खुश हो गए। पूछने लगे, कहां पढ़ीं, किसके पास थी किताब। उसी दिन मैंने पहली बार अस्सी के लपेटे में पहुंच रहे एक बुजुर्ग को ह्विस्की पीते देखा और लगा कि यह तो यार आदमी है।उसी समय पटना या बनारस में जन संस्कृति मंच का सम्मेलन होने वाला था और किसी अध्यक्ष की तलाश जोरों पर थी। मैंने रामजी भाई से कहा कि क्यों न त्रिलोचन जी से बात की जाए। रामजी भाई उनसे बात करने गए और मुझसे भी ज्यादा दीवाने होकर लौटे। करीब छह-सात साल त्रिलोचन जी जसम के अध्यक्ष रहे और एक बार अटल बिहारी वाजपेयी से कोई पुरस्कार लेने का आरोप लग जाने के बाद ही इस जिम्मेदारी से मुक्त हुए, लेकिन इससे काफी पहले जसम के दिल्ली सम्मेलन में ही मैंने उनका जो वक्तव्य सुना, वह जसम वालों के लिए कोई कम परेशानी पैदा करने वाला नहीं था।बहरहाल, त्रिलोचन जी के साथ हमारे घरऊ सान्निध्य की शुरुआत इसी तरह हुई। उस समय वे ईरानी एंबेसी में फारसी-हिंदी शब्दकोश पर काम कर रहे थे। रोजाना दिल्ली की दारुण बसों पर सवार होकर मदर डेरी से फिरोजशाह रोड जाते थे, दिन भर वहां काम करते थे और फिर शाम की भीड़ में लदकर वापस लौटते थे। जब भी उनका दिल करता, मदर डेरी के बजाय शकरपुर उतर आते और बी-30, सुंदर ब्लॉक में जनमत के हमारे 'आवास कम दफ्तर' पहुंच जाते। वहां एक बार किसी चीज पर उनसे चर्चा शुरू हो जाती तो रात गुजर जाती। सुबह मुर्गा बोलने की आवाज के साथ हम सोने की योजना बनाते और तीन-चार घंटे बाद नाश्ते के साथ ही वही क्रम फिर शुरू हो जाता।त्रिलोचन जी के ज्ञानकोश होने की बात यूं ही नहीं कही जाती। वे दस हजार के लगभग कविताएं याद होने की बात स्वीकार करते हैं लेकिन मुझे यह तादाद और भी ज्यादा लगती है। पिछले साठेक साल में भारत के तमाम लोक कवियों से लेकर सड़कछाप और क्लासिकी कवियों, मध्यकाल और संस्कृत के न जाने कितने कवियों और अंग्रेजी के अलावा और कई दूसरी यूरोपीय भाषाओं के कवियों की रचनाएं भी उन्हें कंठस्थ हैं- यहां तक कि देखे गए कवियों के लहजे और उनकी अदायगी भी। किसी लेखक की लिखावट कैसी थी, इस बारे में आप उनसे जानकारी ले सकते हैं। मध्यकाल का कौन सा कवि कहां का रहने वाला था और उसके घरेलू हालात कैसे थे, इस बारे में उसके गांव जाकर जुटाई गई सूचनाएं त्रिलोचन के पास मौजूद हैं। पूरे उत्तर भारत का चप्पा-चप्पा उनका अपने पैरों से नापा हुआ है, इसका अंदाजा सामाजिक कार्यकर्ताओं को बिना उनके बताए ही हो जाता है।त्रिलोचन को एक मिथक और किंवदंती माना जाता है तो ऐसा यूं ही नहीं है। मजे की बात यह कि साहित्यकार हलकों में उनके सच से ज्यादा चर्चा उनके झूठ की होती है। उनकी दी हुई सूचनाओं में अंतर्विरोध और घालमेल के कुछ मामले मेरी भी पकड़ में आते रहे हैं, लेकिन उसे झूठ के बजाय आत्मगत सत्य कहना मैं ज्यादा बेहतर समझता हूं। मसलन, हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के क्रांतिकारियों के साथ अपने संबंध से जुड़े उनके किस्से, जो अलग-अलग अदायगियों में थोड़े-बहुत बदल जाया करते हैं। लेकिन कोरे तथ्यों के मामले में क्या एक मनीषी को इतनी छूट नहीं मिलनी चाहिए? त्रिलोचन इन सूचनाओं से बड़े हैं और उनका कहा एक-एक शब्द बार-बार सुने, और फिर-फिर समझे जाने लायक है।यह सब कह चुकने के बाद बोधिसत्व की कविता में मौजूद धक्के और अपने भाषिक समाज के प्रति बरबस उमड़ने वाली जुगुप्सा को अपने भीतर महसूस करता हूं और उम्मीद करता हूं कि अपने अंतिम दिनों में चल रहे त्रिलोचन से उऋण होने का यत्न करने के लिए हम सब मिलकर कोई योजना बनाएंगे।
Posted by चंद्रभूषण at 12:35 AM

Labels: कुछ निवेदन

6 comments:
बोधिसत्व said...
अच्छा लिखा है आप ने।पिछले साल मैंने मुंबई से कुछ करने की कोशिश की थी पर मेरी सारी योजना धरी की धरी रह गई। मेरी कविता उसी असमर्थता की खीझ है। कुछ बातें हम लेख लिख कर नहीं बल्कि लिख कर ही कह सकते हैं। अगर सचमुच में हम एक बार चल कर उनसे मिल ही पाते। देख ही पाते।हमने इलाहाबाद में एक अच्छी बात-चीत रेकार्ड की थी । वह रेकार्ड इलाहाबाद में सुधीर सिंह के पास है। उसमें त्रिचन जी ने शव्दों के बननेपर बात की थी। एक शव्द मोमिया का उदाहरण भी दिया था। इस शव्द पर रोज बादार जाने वाला ही ध्यान दे सकता है। क्योंकि यह शब्द प्लॉस्टिक की थैलियों के लिए सब्जी बेचने वालों ने गढ़ा था। त्रिलोचन जी शतायु हों
July 18, 2007 3:46 AM HYPERLINK "http://www.blogger.com/delete-comment.g?blogID=5004531893346374759&postID=3356883782639856163"HYPERLINK "http://www.blogger.com/profile/12211852020131151179"काकेश said...
त्रयी के त्रिलोचन के बारे में जानना सुखद रहा.जिन कविताओं का जिक्र किया आपने उनको भी पढ़वायें.इतने अच्छे लेख के लिये साधुवाद.
July 18, 2007 3:46 AM HYPERLINK "http://www.blogger.com/delete-comment.g?blogID=5004531893346374759&postID=2370339259528822574"HYPERLINK "http://www.blogger.com/profile/01811121663402170102"परमजीत बाली said...
जानकारी देने के लिए धन्यवाद।लेख अच्छा है लेकिन अगर त्रिलोचन जी की कुछ रचनाए पढने को मिल जाती तो बहुत बढिया होता।
July 18, 2007 4:06 AM HYPERLINK "http://www.blogger.com/delete-comment.g?blogID=5004531893346374759&postID=4169792531855875272"HYPERLINK "http://www.blogger.com/profile/11191795645421335349"चंद्रभूषण said...
प्यारे भाई अभय या बोधिसत्व या दोनों, यदि संभव हो तो काकेश जी और बाली जी की इच्छा पूरी करें और त्रिलोचन जी की कुछ कविताएं अपने ब्लॉग पर जल्द से जल्द चढ़ा दें। मुझे इस काम में कुछ वक्त लग जाएगा क्योंकि उनका संग्रह अभी मेरे पास नहीं है, कहीं से जुटाना पड़ेगा।
July 18, 2007 4:25 AM HYPERLINK "http://www.blogger.com/delete-comment.g?blogID=5004531893346374759&postID=966347599204435976"HYPERLINK "http://www.blogger.com/profile/17920509864269013971"avinash said...
बिना किसी अतिरिक्‍त भावुकता के एक मार्मिक वृत्तांत...
July 18, 2007 4:30 AM HYPERLINK "http://www.blogger.com/delete-comment.g?blogID=5004531893346374759&postID=2358268943032481153"HYPERLINK "http://www.blogger.com/profile/07001026538357885879"अनूप शुक्ला said...
चंद्रभूषणजी, त्रिलोचनजी के बारे में यह् अनौपचारिक् बातें जानकर् अच्छा लगा। हिंदी ब्लाग् जगत् हिंदी समाज् का ही प्रतिनिधित्व् करता है। लिहाजा त्रिचोलनजी के बारे में कोई ब्लाग् पढ़ने वाला -लिखने वाला अगर् नहीं जानता तो यह् कोई ताज्जुब् की बात् नहीं है। त्रिलोचनजी की अधिक् से अधिक रचनायें नेट् पर् लाकर् उनके बारे में लोगों को जानकारी दे सकते हैं।

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अपने त्रिलोचन जी
आज की हिंदी के शिखर कवि त्रिलोचन का जन्म 20 अगस्त 1917 को चिरानीपट्टी, कटघरापट्टी, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। अंग्रेजी में एम.ए.पूर्वार्ध तक की पढ़ाई बीएचयू से । इनकी दर्जनों कृतियाँ प्रकाशित हैं जिनमें धरती(1945), गुलाब और बुलबुल(1956), दिगंत(1957), ताप के ताए हुए दिन(1980), शव्द(1980), उस जनपद का कवि हूँ (1981) अरधान (1984), तुम्हें सौंपता हूँ( 1985) काफी महत्व रखती हैं।इनका अमोला नाम का एक और महत्वपूर्ण संग्रह है। त्रिलोचन की प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह राजकमल प्रकाशन से छप चुका है। वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह के शव्दों में "उनका जितना प्रकाशित है उतना या कदाचित उससे अधिक ही अप्रकाशित है"।हिंदी में सॉनेट जैसे काव्य विधा को स्थापित करने का श्रेय मात्र त्रिलोचन को ही जाता है। आप त्रिलोचन को आत्मपरकता का कवि भी मान सकते हैं। भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल जैसी आत्मपरक पंक्तियाँ त्रिलोचन ही लिख सकते हैं। परंतु ऐसा नहीं है कि त्रिलोचन का काव्य संसार केवल आत्म परकता तक ही सीमित है। शब्दों का सजग प्रयोग त्रिलोचन की भाषा का प्राण है । चंदू भाई अभी ऐसा ही कर पाया हूँ । हमें कोशिश कर के पिछली पीढी की कविताएं ब्लॉग पर छापनी होगी। त्रिलोचन जी शतायु हों और उनका आशीष हम सब पर बना रहे इसी कामना के साथ प्रतुत हैं त्रिलोचन की दो कविताएँ।
पहली कविता
उनका हो जाता हूँचोट जभी लगती हैतभी हँस देता हूँदेखनेवालों की आँखेंउस हालत मेंदेखा ही करती हैंआँसू नहीं लाती हैं
औरजब पीड़ा बढ़ जाती हैबेहिसाबतबजाने-अनजाने लोगों मेंजाता हूँउनका हो जाता हूँहँसता हँसाता हूँ।
दूसरी कविता
आज मैं अकेला हूँ
(1)
आज मैं अकेला हूँअकेले रहा नहीं जाता।
(2)
जीवन मिला है यहरतन मिला है यहधूल मेंकिफूल मेंमिला हैतोमिला है यहमोल-तोल इसकाअकेले कहा नहीं जाता
(3)
सुख आये दुख आयेदिन आये रात आयेफूल मेंकिधूल मेंआयेजैसेजब आयेसुख दुख एक भीअकेले सहा नहीं जाता
(4)
चरण हैं चलता हूँचलता हूँ चलता हूँफूल मेंकिधूल मेंचलतामनचलता हूँओखी धार दिन कीअकेले बहा नहीं जाता।
द्वारा भेजा गया बोधिसत्व पर 5:24 AM


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बीमारी से जूझ रहे हैं हिंदी सॉनेट के शिखर पुरुष
http://www.bbc.co.uk/hindi/
( बीबीसी ने त्रिलोचन जी की बीमारी पर शालिनी जोशी के हवाले से यह रिपोर्ट छापी है। )
बुधवार, 04 मई, 2005
उत्तर प्रदेश सरकार ने हिंदी के जानेमाने कवि त्रिलोचन को गांधी पुरस्कार देने की घोषणा की है. हिंदी सॉनेट के शिखर पुरूष कहे जाने वाले त्रिलोचन उम्र के आखिरी पड़ाव पर गुमनाम जीवन जीते हुए बीमारी से जूझ रहे हैं. वह हरिद्वार में रहते हैं जहाँ उनकी बहू उनकी देखभाल करती हैं.बिस्तर पर बिल्कुल शिथिल और निश्चेष्ट से लेटे हुए त्रिलोचन की आंखों में हांलाकि वही चमक दिखती है जो सालों पहले रही होगी जब उनका लिखा हुआ एक-एक शब्द मील का पत्थर बन जाता था. और न ही उनके लिखने का जज़्बा कम हुआ है.
हांलाकि मधुमेह, ब्लड प्रेशर और ट्यूमर की बीमारी के कारण अब उनका शरीर साथ नहीं दे रहा है. वो हंसते हुए कहते हैं, "तबियत कुछ ठीक नहीं है.
ये पूछे जाने पर कि क्या आपका अब भी लिखने का मन करता है वो अस्फुट से शब्दों में कहते हैं,"हां-हां क्यों नहीं,पुरानी बातों को लिखना चाहता हूं लेकिन याद कुछ ठीक से नहीं आती.अब शायद याददाश्त नहीं रही. जब याद आएगा तब लिखूंगा".
ऐसा लगता है कि जीवन की इस अंतिम बेला में त्रिलोचन अपनी ही चर्चित कविता अपराजेय की इन पंक्तियों का प्रतीक बन गये हैं-
'भाव उन्हीं का सबका है,जो थे अभावमय,लेकिन अभाव से तपे नहीं,जागे स्वभाव में थके'
हरिद्वार के ज्वालापुर इलाके में लोहामंडी की एक तंग गली में जहां त्रिलोचन रहते हैं शायद किसी को इस बात का भान तक नहीं है कि उनके बीच हिंदी का इतना बड़ा जनकवि रहता है.
त्रिलोचन की बहू उषा सिंह कहती हैं कि साहित्य की दुनिया के कुछ लोग कभी-कभी दर्शन के लिये जरूर आ जाते हैं लेकिन समाज और शासन के स्तर पर कभी किसी ने सुध नहीं ली.
नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन की त्रयी आधुनिक हिंदी कविता का आधारस्तंभ मानी जाती है.
त्रिलोचन की गिनती छायावाद के बाद के सबसे महत्त्वपूर्ण कवियों में की जाती है खासतौर पर उन्हें हिंदी सॉनेट का साधक माना जाता है.
शेक्सपियर ने सॉनेट की जिस विधा को बुलंदियों तक पंहुचाया था त्रिलोचन ने उसको भारतीय परिवेश में ढाला .
उन्होंने करीब 550 सॉनेट की रचना की और इसके अलावा कहानी, गीत, ग़ज़ल और आलोचना से भी हिंदी साहित्य को समृद्ध किया.
जनसमाज से जुड़े विषय और थके-हारे, उपेक्षित और मेहनतकश लोग उनके लेखन का अंग रहे.
साहित्यकार के साथ-साथ त्रिलोचन जुझारू व्यक्तित्व के भी धनी रहे.
त्रिलोचन को अपना काव्यगुरू बताते हुए प्रसिद्ध कवि लीलाधर जगूड़ी याद करते हैं, "त्रिलोचन ने हमें कम साधनों में जीना सिखाया, वो अपनी कविता के साथ सड़कों पर साइकिल लेकर निकल पड़ते थे और वो भी साइकिल चलाते नहीं उसे लेकर चलते थे".
त्रिलोचन एक साल पहले तक सक्रिय थे. 2004 में ही 'जीने की कला' नाम से उनका काव्य संग्रह आया जो खूब चर्चित रहा.
'मेरा घर', 'ताप के ताए हुए दिन', 'चैती', 'देशकाल', 'अनकहनी भी कुछ कहनी है' उनकी कुछ अन्य मशहूर किताबें हैं.
उनके सुधी पाठकों की शायद यही चाहत होगी कि त्रिलोचन जल्दी से जल्दी स्वस्थ हों और एक बार फिर अपनी क़लम से हिंदी को समृद्ध करें.
( बीबीसी ने त्रिलोचन जी की दो कविताएं भी छापी है। )
07 सितंबर, 2006
त्रिलोचन की दो कविताएँ
आछी के फूल
मग्घू चुपचाप सगरा के तीरबैठा था बैलों की सानी पानी करचुका था मैंने बैठा देखकरपूछा,बैठे हो, काम कौन करेगा.मग्घू ने कहा, काम कर चुका हूंनहीं तो यहां बैठता कैसे,मग्घू ने मुझसे कहा,लंबी लंबी सांस लो,सांस ले ले कर मैंने कहा,सांस भीले ली,बात क्या है,आछी में फूल आ रहे हैं,मग्घू ने कहा,अबध्यान दो,सांस लो,कैसी मंहक है.मग्घू से मैंने कहा,बड़ी प्यारी मंहक हैमग्घू ने पूछा ,पेड़ मैं दिखा दूंगा,फूल भीदिखा दूंगा.आछी के पेड़ पर जच्छ रहा करते हैंजो इसके पास रात होने पर जाता है,उसकोलग जाते हैं,सताते हैं,वह किसी काम कानहीं रहता.इसीलिये इससे बचने के लिये हमलोगइससे दूर दूर रहते हैं7.10.2002
पीपल
मिट्टी की ओदाई नेपीपल के पात की हरीतिमा कोपूरी तरह से सोख लिया थामूल रूप में नकशापात का,बाकी था,छोटी बड़ीनसें,वृंत्त की पकड़ लगाव दिखा रही थीपात का मानचित्र फैला थादाईं तर्जनी के नखपृष्ठ कीचोट दे दे कर मैंने पात को परिमार्जित कर दियापीपल के पात मेंआदिम रूप अब न थामूल रूप रक्षित थामूल को विकास देनेवाले हाथआंखों से ओझल थेपात का कंकाल भईमनोरम था,उसका फैलावक्रीड़ा-स्थल था समीरण काजो मंदगामी थापात के प्रसार कोकोमल कोमल परस से छूता हुआ.12.1.2003
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त्रिलोचन शास्त्री
संदेश: 05 जुलाई 2007 को कविता कोश ( http://hi.literature.wikia.com/wiki Category: त्रिलोचन
) ने अपनी स्थापना का एक वर्ष पूरा कर लिया
त्रिलोचन की रचनाएँ
चैती / त्रिलोचन (कविता संग्रह)
हंस के समान दिन / त्रिलोचन
हाथों के दिन / त्रिलोचन
तरूण से / त्रिलोचन
नदी : कामधेनु / त्रिलोचन
उस जनपद का कवि हूँ / त्रिलोचन
दिन सहज ढले / त्रिलोचन
एक लहर फैली अनन्त की / त्रिलोचन
तुम्हें जब मैने देखा / त्रिलोचन
कौन कान सुनेगा / त्रिलोचन
भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल / त्रिलोचन
शब्दों से कभी-कभी काम नहीं चलता / त्रिलोचन
पास / त्रिलोचन
ललक / त्रिलोचन
आशी: / त्रिलोचन
तुम्हे सौंपता हूँ / त्रिलोचन
आत्मालोचन / त्रिलोचन
त्रिलोचन
जन्म: 20 अगस्त 1917
उपनाम जन्म स्थान चिरानीपट्टी, कटघरा पट्टी, जिला-सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश, भारत कुछ प्रमुखकृतियाँ धरती, गुलाब और बुलबुल, दिगंत, ताप के ताये हुए दिन, शब्द, उस जनपद का कवि हूँ, अरघान, तुम्हे सौंपता हूँ। विविध कविता संग्रह "ताप के ताये हुए दिन" के लिये 1981 का साहित्य अकादमी पुरस्कार। जीवनी त्रिलोचन / परिचय
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आत्मालोचन / त्रिलोचन
संदेश: 05 जुलाई 2007 को कविता कोश ने अपनी स्थापना का एक वर्ष पूरा कर लिया
रचनाकार: त्रिलोचन
शब्द मालूम है व्यर्थ नहीं जाते हैं
पहले मैं सोचता था उत्तर यदि नहीं मिले तो फिर क्या लिखा जाए किन्तु मेरे अन्तर निवासी ने मुझसे कहा- लिखा कर तेरा आत्मविश्लेषण क्या जाने कभी तुझे एक साथ सत्य शिव सुन्दर को दिखा जाए
अब मैं लिखा करता हूँ अपने अन्तर की अनुभूति बिना रँगे चुने कागज पर बस उतार देता हूँ । -----------------------------------------------------------------------------------------
India Today hindi
त्रिलोचन बताते हैं, ‘‘दिल्ली में मैं सबसे पहले ... त्रिलोचन उन आम लोगों को भी नहीं भूलते ...hindi.india-today.com/datedir/20010711/book3.shtml - 35k - पूरक परिणाम - संचित प्रति - समान पन्ने
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Thursday, July 19th, 2007
Daily Archive
त्रयी के त्रिलोचन की कवितायें.
Posted by kakesh under काम की बात , कविता[12] Comments
कल प्रियंकर जी के चिट्ठे पर एक मासूम सा सवाल उठा "ये त्रिलोचन कौन है?" जिसका उत्तर अपने संस्मरणों के साथ पहलू में दिया गया. फिर बोधिसत्व जी ने थोड़ा जीवन परिचय देते हुए दो कविताय़ें भी छाप दी. उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए पेश हैं त्रिलोचन की कुछ कविताऎं.
कुछ बातें जो मैं जानता हूँ त्रिलोचन के बारे में.
नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन की त्रयी आधुनिक हिंदी कविता का आधारस्तंभ मानी जाती है. इस त्रयी के त्रिलोचन हरिद्वार के ज्वालापुर इलाके में लोहामंडी की एक तंग गली के मकान में अपनी बीमारी से जूझ रहे हैं. त्रिलोचन भारतीय सॉनेट के अहम हस्ताक्षर रहे हैं.उन्होने सॉनेट को भारतीय परिवेश दिया .उन्होने 500 से ज्यादा सॉनेट लिखे हैं. सॉनेट चौदह लाइन की कविता होती है जिसे शेक्सपियर ने अपनी रचनाओं में बखूबी प्रयोग किया.
त्रिलोचन के कुछ सॉनेट
जनपद का कवि
उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है,नंगा है, अनजान है, कला–नहीं जानताकैसी होती है क्या है, वह नहीं मानताकविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा हैउसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता सकता है। वह उदासीन बिलकुल अपने से,अपने समाज से है; दुनिया को सपने सेअलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पतादुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची; अब समाज मेंवे विचार रह गये नही हैं जिन को ढोताचला जा रहा है वह, अपने आँसू बोताविफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायणसुन पढ़ कर, जपता है नारायण नारायण।
भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल जिस को समझे था है तो है यह फ़ौलादी ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी नहीं; झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल, नहीं संभाल सका अपने को । जाकर पूछा ‘भिक्षा से क्या मिलता है। ‘जीवन।’ ‘क्या इसको अच्छा आप समझते हैं ।’ ‘दुनिया में जिसको अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा पेट काम तो नहीं करेगा ।’ ‘मुझे आप से ऎसी आशा न थी ।’ ‘आप ही कहें, क्या करूं, खाली पेट भरूं, कुछ काम करूं कि चुप मरूं, क्या अच्छा है ।’ जीवन जीवन है प्रताप से, स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था, यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था ।
कुछ अन्य कवितायें.
आत्मालोचन
शब्द मालूम है व्यर्थ नहीं जाते हैं
पहले मैं सोचता था उत्तर यदि नहीं मिले तो फिर क्या लिखा जाए किन्तु मेरे अन्तर निवासी ने मुझसे कहा- लिखा कर तेरा आत्मविश्लेषण क्या जाने कभी तुझे एक साथ सत्य शिव सुन्दर को दिखा जाए
अब मैं लिखा करता हूँ अपने अन्तर की अनुभूति बिना रँगे चुने कागज पर बस उतार देता हूँ ।
आछी के फूल
मग्घू चुपचाप सगरा के तीरबैठा था बैलों की सानी पानी करचुका था मैंने बैठा देखकरपूछा,बैठे हो, काम कौन करेगा.मग्घू ने कहा, काम कर चुका हूंनहीं तो यहां बैठता कैसे,मग्घू ने मुझसे कहा,लंबी लंबी सांस लो,सांस ले ले कर मैंने कहा,सांस भीले ली,बात क्या है,आछी में फूल आ रहे हैं,मग्घू ने कहा,अबध्यान दो,सांस लो,कैसी मंहक है.मग्घू से मैंने कहा,बड़ी प्यारी मंहक हैमग्घू ने पूछा ,पेड़ मैं दिखा दूंगा,फूल भीदिखा दूंगा.आछी के पेड़ पर जच्छ रहा करते हैंजो इसके पास रात होने पर जाता है,उसकोलग जाते हैं,सताते हैं,वह किसी काम कानहीं रहता.इसीलिये इससे बचने के लिये हमलोगइससे दूर दूर रहते हैं
पीपल
मिट्टी की ओदाई नेपीपल के पात की हरीतिमा कोपूरी तरह से सोख लिया थामूल रूप में नकशापात का,बाकी था,छोटी बड़ीनसें,वृंत्त की पकड़ लगाव दिखा रही थीपात का मानचित्र फैला थादाईं तर्जनी के नखपृष्ठ कीचोट दे दे कर मैंने पात को परिमार्जित कर दियापीपल के पात मेंआदिम रूप अब न थामूल रूप रक्षित थामूल को विकास देनेवाले हाथआंखों से ओझल थेपात का कंकाल भईमनोरम था,उसका फैलावक्रीड़ा-स्थल था समीरण काजो मंदगामी थापात के प्रसार कोकोमल कोमल परस से छूता हुआ.
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सुरभित रचना
'सुरभित रचना' में सम्मिलित हैं कुछ प्रिय रचनायें : जिनके सर्वाधिकार संलग्न साहित्यकारों, प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं ।
बुधवार, दिसंबर 28, 2005

हंस के समान दिन उड़ कर चला गया: त्रिलोचन
हंस के समान दिन उड़ कर चला गयाअभी उड़ कर चला गयापृथ्वी आकाशडूबे स्वर्ण की तरंगों मेंगूँजे स्वरध्यान-हरण मन की उमंगों मेंबन्दी कर मन को वह खग चला गयाअभी उड़ कर चला गयाकोयल सी श्यामा सीरात निविड़ मौन पासआयी जैसे बँध करबिखर रहा शिशिर-श्वासप्रिय संगी मन का वह खग चला गयाअभी उड़ कर चला गया------------------------------------------------------------------------------------------
दिगंत
त्रिलोचन
पृष्ठ
:
67
मूल्य
:
$12.5
प्रकाशक
:
राजकमल प्रकाशन
प्रकाशित
:
मार्च ०४, २००६


सारांश:
दिगंत में कवि त्रिलोचन के कुछ सॉनेट संकलित हैं। हिन्दी में सानेट तो प्रसाद, पन्त, निराला आदि अन्य कवियों ने भी लिखे हैं, लेकिन त्रिलोचन ने सॉनेट के रूप में विविध प्रकार के नये प्रयोग कर सॉनेट को हिन्दी कविता में मानो अपना लिया है। जीवन के अनेक प्रसंगों की मार्मिक और व्यंग्यपूर्ण अभिव्यंजना इन कविताओं में हुई है।
त्रिलोचन के सॉनेटों की भावभूमि छायावाद नहीं है, और न प्रयोगवादी ही, यद्यपि भाषा, लय और विन्यास सर्वथा नवीन और चमत्कारपूर्ण हैं। जीवन के वैषम्यों की गहरी चेतना होने के कारण ही त्रिलोचन का दृषटिकोण आशावादी है और उन्होंने अपनी अनुभूतियों को नई भाषा में ढालकर तीखी अभिव्यक्ति दी है जो सीधे ह्रदय पर चोट करती है।
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( दैनिक जागरण ने साहित्य पन्ने पर त्रिलोचन पर यह खबर छापी है। )
http://us.jagran.com/sahitya
पुनर्जन्म का संस्कार है कवि होना: त्रिलोचन
देहरादून [प्रमोद पांडे]। सपने लो सपने लो,मीठे मीठे सपने अच्छे अच्छे सपने,अपने मन के सपने सपने लो ..पंक्तियों का रचने वाले त्रिलोचन शास्त्री पिछले पांच एक वर्षोसे उस नगर में रह रहे हैं जहां कभी अमृत घट से बूंदें गिरीं होंगी यानी तीर्थनगरी हरिद्वार। अनायास ही सही पर अब यह नगर इस दृष्टि से भी तीर्थ से कम नहीं है कि हिंदी साहित्यिक घट के त्रयी में से एक यानी त्रिलोचन यानी मानव संघर्षोका कवि, की सांसें यहां रचनाशील हैं। वह पिछले दिनों से अखबारी दुनिया की चरचा में तब आए, जब उनको लेकर कुछ समाचार प्रकाशित हुए। रचनाकार में उद्वेलन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है पर उन्हें लाचार दर्शाने वाले समाचारों से वह हतप्रभ हैं। हकीकत यह है कि त्रिलोचन स्वभावगत वाचाल नहीं, मौन हैं। वे जब भी अपनी बात कहते हैं तो उसमें बड़बोलापन नहीं, बल्कि अपना धीमे पर स्वाभाविक ढंग होता है, क्योंकि उन्हें अभी भी भरोसा है कि हाथों के दिन आएंगे। उन्हें उस जनता पर भरोसा है, जो परिवर्तन में क्रांतिकारी भूमिका का निर्वाह करेगी। यह पूछने पर कि उम्र की इस ढलान पर आपको अपने रचना कर्म से कितनी आश्वस्ति मिल पाती है, उनका जवाब कि यह निरंतर विकास की प्रक्रिया है। समाज को लग सकता है कि कवि उपेक्षित है, सरकारों के द्वारा वह हो भी सकता है पर वास्तव में यहां से उसकी खुद को तपाने-गलाने की प्रक्रिया शुरू होती है और जन्मांतर में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में वह उद्घाटित हो कर रहता है। ठीक उसी प्रकार जैसे जमीन में बोया हुआ बीज। यानी कवि होना पुनर्जन्म का संस्कार है। वहीं तंगहाली पर पूछने पर उन्होंने बताया कि कविता करते हुए गरीबी आ जाती है पर उसका परिणाम निराशा नहीं है। यह समाज और सरकारों का दायित्व है कि वह इस विषय में सोचे। हां, पुरस्कार यदि समय पर मिल जाए तो देहांतर की प्रतीक्षा किए बिना कवि समाज के लिए बड़ा काम कर सकता है। उन्होंने बताया कि शरत चंद्र चटर्जी ने एक समय कहा था (जब उन्हें कोई पुरस्कार मिला) कि यह पहले मिल जाता तो उसकी उपयोगिता कहीं अधिक होती। शायद टैगोर इसीलिए विपुल साहित्य दे गए कि वह संपन्न थे। पिछले दिनों इस प्रकार की खबरें कि हरिद्वार में जिस गली में वह रहते हैं, वह पांच फीट चौड़ी है या कि उनका दस बाई दस का कमरा, प्रकाशित हुई, पर उन्होंने उत्तर दिया कि इस देश में ऐसे भी लोग हैं जिनके पास घर ही नहीं है, फिर वह तो ऐसे घर में रह रहे हैं जहां जाने के लिए बाकायदा रास्ता भी है। और फिर त्रिलोचन तो वही है जीवन इसका जो कुछ है पथ पर बिखरा है तप तप कर ही भट्ठी में सोना निखरा है। ----------------------------------------------------------------------------------------
त्रिलोचन शास्त्री जितने बड़े लेखक ...
त्रिलोचन शास्त्री जितने बड़े लेखक हैं, उससे श्रेष्ठ वक्ता हैं। ...www.blogger.com/feeds/7173362472205987392/posts/default/4867477767532549473 - 3k - Supplemental Result - Cached - Similar pages

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Tuesday 24 July 2007

कल्याणकारी सरकार का जनविरोधी नजरिया ?

पहले इन खबरों को पढ लें. ये खबरें गवाह हैं कि कब कैसे आम लोगों के जनहित के मद्देनजर हमारी रहनुमा सरकारों और प्रगतिशील पार्टियों का मुखौटा बदलता है.
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२३ जुलाई २००७
ईपीएफ पर ब्याज दर 8.5 फीसदी
कर्मचारी भविष्य निधि पर 2006-07 के लिए पहले की भाँति साढ़े आठ प्रतिशत ब्याज दिया जाएगा। इस आशय का फैसला श्रममंत्री ऑस्कर फर्नांडीज की अध्यक्षता में सोमवार को हुई कर्मचारी भविष्य निधि बोर्ड की बैठक में लिया गया। आधिकारिक सूत्रों के अनुसार वर्ष 2006-07 के लिए कर्मचारी भविष्य निधि पर साढ़े आठ प्रतिशत ब्याज दिया जाएगा। चालू वित्त वर्ष के ब्याज दर का फैसला बोर्ड की आगामी बैठक में होगा।
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उपर जो खबर आपने पढी उसके पूर्व का आम लोगों से किया गया प्रधानमंत्री का वायदा देखिए.
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शुक्रवार, 09 दिसंबर, 2005
श्रम मंत्रालय से बात करेंगे प्रधानमंत्री
कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ़) की ब्याज दर घटाने के मामले में कर्मचारी संगठनों और विपक्षी पार्टियों के दबाव में झुकते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि वे श्रम मंत्रालय से इस बारे में बात करेंगे.
बुधवार को ईपीएफ़ बोर्ड की बैठक में वर्ष 2005-06 के लिए कर्मचारी भविष्य निधि की ब्याज़ दर 9.5 प्रतिशत से घटाकर 8.5 प्रतिशत करने का फ़ैसला किया गया था.
लेकिन विपक्षी पार्टियों के साथ-साथ सरकार को समर्थन दे रही वामपंथी दलों ने इस पर आपत्ति व्यक्त की थी.
शुक्रवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भारतीय श्रम सम्मेलन के उदघाटन सत्र में भाषण करते हुए कहा, "मैं इस मामले पर श्रम मंत्रालय के साथ विचार विमर्श करूँगा. मैं यह जानने की कोशिश करूँगा कि ईपीएफ़ संगठन के संसाधनों के दायरे में क्या हो सकता है."
आश्वासन
कर्मचारी संगठनों की आलोचना पर प्रतिक्रिया देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि उन्होंने कर्मचारी संगठनों की मांग पर विचार किया है और वे समझ सकते हैं कि ब्याज दर घटाने से कर्मचारी दुखी हुए हैं. बुधवार को दिल्ली में एक बैठक के बाद केंद्रीय श्रम मंत्री चंद्रशेखर राव ने कहा था कि साढ़े आठ प्रतिशत का ब्याज़ देने से हमें लगभग 370 करोड़ रूपए की अतिरिक्त आवश्यकता होगी.
उन्होंने कहा," इस अतिरिक्त बोझ के कारण सरकारी ख़ज़ाने पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा. इसके लिए अतिरिक्त संसाधन खोजने का भार श्रम मंत्रालय पर होगा". भारत में लगभग चार करोड़ लोग कर्मचारी भविष्य निधि के सदस्य हैं.
ईपीएफ़ की ब्याज़ दर को घटाने के पीछे एक प्रमुख कारण ये बताया जा रहा है कि 9.5 प्रतिशत ब्याज़ दर के समय वित्त वर्ष 2004-05 में ईपीएफ़ संगठन को 716 करोड़ रुपए का घाटा हुआ था.
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अब खुद को गरीबों के रहनुमा बताने वाले वामपंथियों का तब का तेवर देखिए। यह ध्यान रहे कि मौजूदा केंद्र सरकार इन्हीं वामपंथी समर्थन के भरोसे कायम है.
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08 दिसंबर, 2005
ईपीएफ़ दर घटाने पर वामदल ख़फ़ा
ईपीएफ़ की दरों को घटाने के निर्णय पर वामदलों ने सदन के दोनों सदनों में जमकर हंगामा किया.
वामदलों ने केंद्रीय श्रम मंत्री चंद्रशेखर श्रम मंत्री के इस फ़ैसले का विरोध करते हुए आरोप लगाया कि इस मामले में किसी भी घोषणा से पहले प्रधानमंत्री से चर्चा करना तय हुआ था.वामदलों ने कहा कि चर्चा के बग़ैर ईपीएफ़ के बारे में घोषणा करना ग़लत है.
वामदलों के सांसदों ने यह भी आरोप लगाया कि जब सदन का शीतकालीन सत्र चल रहा है तो ऐसे में मंत्री का सदन के बाहर कोई घोषणा करना और अपनी घोषणा के बारे में सदन में कोई स्पष्टीकरण देने के लिए उपस्थित न होना बिल्कुल ग़लत है.
सांसद और मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो की सदस्य, वृंदा कारत ने कहा, "श्रममंत्री को तो यह अधिकार ही नहीं है कि वह इस तरह का वक्तव्य दें क्योंकि इसपर प्रधानमंत्री के साथ चर्चा होनी तय हुई थी."
ग़ौरतलब है कि भारत में वर्ष 2005-06 के लिए कर्मचारी भविष्य निधि की ब्याज़ दर घटाने का फ़ैसला किया गया है जिसके बाद ईपीएफ़ पर 9.5 प्रतिशत की जगह 8.5 प्रतिशत ब्याज़ दिया जाएगा.
घाटा
बुधवार को दिल्ली में एक बैठक के बाद केंद्रीय श्रम मंत्री चंद्रशेखर राव ने कहा था कि साढ़े आठ प्रतिशत का ब्याज़ देने से हमें लगभग 370 करोड़ रूपए की अतिरिक्त आवश्यकता होगी.
उन्होंने कहा," इस अतिरिक्त बोझ के कारण सरकारी ख़ज़ाने पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा. इसके लिए अतिरिक्त संसाधन खोजने का भार श्रम मंत्रालय पर होगा".
भारत में लगभग चार करोड़ लोग कर्मचारी भविष्य निधि के सदस्य हैं.
ईपीएफ़ की ब्याज़ दर को घटाने के पीछे एक प्रमुख कारण ये बताया जा रहा है कि 9.5 प्रतिशत ब्याज़ दर के समय वित्त वर्ष 2004-05 में ईपीएफ़ संगठन को 716 करोड़ रुपए का घाटा हुआ था.
कर्मचारी संगठन कर्मचारी भविष्य निधि की ब्याज़ दर में किसी तरह के बदलाव का विरोध कर रहे थे.
कर्मचारी संगठनों ने माँग की थी कि ब्याज़ दर में कोई बदलाव न हो और उन्होंने इसके लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से दख़ल देने की माँग की थी.
पिछली बार श्रम मंत्री और सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ ट्रस्टीज़ (सीटीबी) के चेयरमैन के बीच हुई बैठक में यह वादा किया गया था कि ये मामला प्रधानमंत्री के पास ले जाया जाएगा.
कई श्रम संगठनों ने एक संयुक्त पत्र लिखकर श्रम मंत्री से मांग की थी कि ब्याज़ दर कम नहीं किया जाना चाहिए.
संगठनों की माँग थी कि विशेष जमा योजना और सरकारी बॉन्ड पर ब्याज़ बढ़ा देना चाहिए.
हालाँकि इस मामले पर वित्त और निवेश उप समिति ने सिफ़ारिश की थी कि कर्मचारी भविष्य निधि पर ब्याज दर घटाकर आठ प्रतिशत कर देनी चाहिए.
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अब आप ही बताएं कि और किस पर भरोसा करे भविष्यनिधि पर आश्रित यह कर्मचारी वर्ग। प्रधानमंत्री के वायदे भी झूठे साबित हुए। देश के चार करोड़ कर्मचारियों की उम्मीद पर यह घोषणा एक तुषारापात है। एक तरफ बैंक दस फीसद तक जमा पर सूद दे रहा है तो दूसरी तरफ सरकार कर्मचारियों को फायदे दिलाने की जगह घाटे का रोना रो रही है। क्या पूंजीपतियों के इतने दबाव में यह सरकार आ गयी है कि जनकल्याण के कामों से भी उसे हाथ खींच लेना पड़ रहा है? तो फिर यह भी मान लिया जाए कि जनता के द्वारा चुनी गयी यह लोकतांत्रिक सरकार अब आम जनता की सुध लेने में सक्षम भी नहीं रह गयी?

Monday 23 July 2007

पत्र मिला पर क्या गांधीवाद की वापसी भी होगी !

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
गांधी के जिस हस्तलिखित पत्र की नीलामी स्थगित कर दी गई थी अब वह भारत सरकार को मिल गई है. इसकी नीलामी होनी थी लेकिन नीलामी आयोजित करने वाली कंपनी क्रिस्टीज़ ने यह कहते हुए नीलामी रोक दी थी कि इस राष्ट्रीय धरोहर को भारत सरकार हासिल करना चाहती है.महात्मा गांधी ने यह पत्र अपनी हत्या से 19 दिन पहले लिखा था और एक स्विस संग्रहकर्ता के संग्रह में यह चिट्ठी थी जिसे नीलाम करने की क्रिस्टीज़ ने घोषणा की थी.क्रिस्टीज़ ने कहा था कि उसे इस बात की ख़ुशी है कि उसने पत्र के मालिक और भारत सरकार के बीच एक समझौता करा दिया है जिसके तहत पत्र भारत को मिल जाएगा.लेकिन भारत सरकार या क्रिस्टीज़ ये बताने को तैयार नहीं है कि इस पत्र को हासिल करने के लिए भारत सरकार ने कितनी रक़म अदा की.माना जा रहा है कि इस पत्र पर नौ हज़ार से 12 हज़ार पाउंड के बीच की बोली लगाई जाती यानी 10 लाख रुपए तक इसकी क़ीमत हो सकती थी.गांधी जी का पत्र एल्बिन श्राम कलेक्शन का हिस्सा था जिसमें सिगमंड फ्रायड, विंस्टन चर्चिल, चार्ल्स डिकिंस, आइजैक न्यूटन जैसी हस्तियों के लिखे पत्र शामिल हैं.एल्बिन श्राम चेक गणराज्य में 1926 में पैदा हुए थे, वे ऑस्ट्रियाई माता-पिता की संतान थे और स्विट्ज़रलैंड में रहते हुए उन्होंने इन चिट्ठियों का संग्रह किया था.



गांधी के लौटने की बातें छोड़ो

यह धारणा बनाई जा रही है कि महात्मा गांधी के प्रति भारत में नई रुचि पैदा हो रही है. लोग उन सब बातों को याद कर रहे हैं जो गांधी ने कहीं थीं और लोग अब उनके क़दमों पर चलना चाह रहे हैं.हाल ही में एक अख़बार ने सर्वेक्षण करवाया और बताया कि देश में 46 प्रतिशत लोग गांधी को सबसे बड़ा ब्रांड एम्बेसडर मानते हैं.जो अख़बार बाज़ार के लिए निकल रहे हैं, उनके लिए ब्रांड बड़ी चीज़ है. विचार, आदर्श और सिद्धांत का उनके लिए कोई मतलब नहीं है.किसी विचार या सिद्धांत को ब्रांड में बदलना उसे बाज़ार की चीज़ बनाना है.पूरे संसार को बाज़ार बनाकर मनुष्य के समाज को नहीं चलाया जा सकता. ऐसा गांधी जी ने भी कहा था और उनसे पहले के जितने विचारक हुए हैं, उन्होंने भी कहा था.


खड़े बाज़ार में..


आज किसी भी प्रकार से गांधी को बाज़ार के अनुरुप बनाने की कोशिश क्यों हो रही है.100 साल तक भारत का मध्यवर्ग इस अपराध बोध में रहा है कि जो कुछ हमारे पास खाने और मौज उड़ाने के लिए है वह हमारे देश के और लोगों के पास नहीं है और खाते, कमाते और मौज करते हुए भी उसे यह अपराधबोध था कि वह देश के सब लोगों को सुलभ नहीं है.इसलिए गांधी के पहले, मार्क्स के असर से भी पहले हमारे भक्तकवियों ने ग़रीब को समाज का पैमाना बनाकर चलाने की कोशिश की.स्वामी विवेकानंद ने क्या कहा, दरिद्र नारायण, महात्मा गांधी ने कहा कि जब तक उस आख़िरी आदमी को कुछ नहीं मिलेगा, मैं कुछ नहीं लूँगा.इस अपराधबोध में समाज का मध्यवर्ग ग़रीब और ग़रीबों के बारे में सोचता था. आज़ादी की लड़ाई का पूरा नेतृत्व मध्यवर्ग से ही आया था और वह इस अपराधबोध का निवारण करना चाहता था.इसलिए आज़ादी की पूरी लड़ाई के केंद्र में सबसे ग़रीब और सत्ताविहीन व्यक्ति था. यह सिर्फ़ गांधी का ही सपना नहीं था, कम्युनिस्टों का भी यही सपना था और क्रांतिकारियों का भी यही सपना था.आज़ादी की लड़ाई का सबसे बड़ा नारा था, धन और धरती बँटकर रहेगी. यानी पूरी 19वीं और 20वीं सदी आख़िरी आदमी को सत्ता पर बैठाने की सदी थी.लेकिन 21वीं सदी की शुरुआत में आप किसकी बात करते हैं, आप प्रेमजी की बात करते हैं कि वह सबसे अमीर भारतीय है, आप लक्ष्मीनारायण मित्तल की बात करते हैं कि वह दुनिया के रईसों में तीसरे नंबर पर है. आज अचानक इस देश में पैसे वालों की बात होने लगी है.इसलिए इस देश का मध्यवर्ग, जो इस देश की आत्मा और चेतना की रक्षा करता था, एक तरह के वंचित होने की हीन भावना से ग्रसित हो गया है.अब मध्यवर्ग सोचने लगा है कि दुनिया के अमीर लोग इतने सुख भोग रहे हैं और मैं इस जाहिल देश के कारण अपनी योग्यता के अनुरुप भी नहीं कमा पा रहा हूँ.एक तरह की होड़ शुरु हो गई है और यह होड़ बाज़ार ने शुरु की है.गांधी इस बाज़ार और इस होड़ के ख़िलाफ़ थे और उन्होंने अपनी बात साफ़-साफ़ ढंग से 1909 में हिंद स्वराज में कही थी.गांधी उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ थे और चाहते थे कि गाँवों के प्राथमिकता दी जाए. लेकिन अब तो सरकार 12 प्रतिशत विकास दर हासिल करने के लिए कोई भी और कैसी भी रियायतें उद्योग और व्यवसाय को देने को तैयार है.



बंद रस्ते


जहाँ तक गांधी के लौटने का सवाल है तो उनके लौटने के रास्ते तो उस वक़्त भी खुले नहीं थे, जब ख़ुद गांधी मौजूद थे.उन्होंने 1909 में लॉर्ड एम्टिल को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि मैंने अब तक एक भारतीय नहीं देखा जो यह मानता हो कि अहिंसा से इस देश को आज़ाद किया जा सकता है.अहिंसा की बात उन्होंने तब की जब 1914 से 1918 तक प्रथम विश्व युद्ध और 1939 से 1944 तक द्वितीय विश्व युद्ध की भीषण हिंसा को इस दुनिया ने देख लिया. यानी हिंसा के चरम पर वे अहिंसा की बात कर रहे थे.जब उद्योगवाद चरम पर था जब वे कहते थे कि यह एक शैतानी व्यवस्था है. मनुष्य के मनुष्य द्वारा शोषण पर आधारित है. इसमें न्याय नहीं होगा, इसमें विषमता बढ़ेगी.जब गांधी कह रहे थे, तब भी अहिंसा के लिए गुंजाइश नहीं थी. जब गांधी लड़ रहे थे तब भी विकेंद्रित व्यवस्था और विकेंद्रित वितरण व्यवस्था के लिए गुंजाइश नहीं थी.फिर भी गांधी इन दोनों बातों पर टिके रहे. अगर आज आप सच्चाई से देखेंगे तो पाँएगे कि गांधी ठीक कह रहे थे.1945 में गांधी के सिद्धांतो के अनुरुप ही संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि बातचीत से ही सारे मामले सुलझाए जाएँ और युद्ध कोई निवारण नहीं हो सकता. हर देश ने उस पर दस्तख़त किए.वही हाल साम्राज्यवाद और नए साम्राज्यवाद का भी है.मेरा निवेदन है कि गांधी लौटकर आएगा या गांधीवाद लौटकर आएगा ये बातें हमें छोड़ देनी चाहिए.हमें सोचना चाहिए कि असमानता और अन्याय आज भी उतना ही है जितना की गांधी के ज़माने में था.गांधी जी ने इससे लड़ने का एक मानवीय तरीक़ा दिया था जिसमें न हथियार उठाने की ज़रुरत है और न किसी को दुश्मन बनाने की. इसमें साफ़ है कि मैं सबको अपने विचारों से सहमत करने में लगा हुआ हूँ. हृदय परिवर्तन करने में लगा हुआ हूँ.उसी प्रकार से संसाधनों के समान या न्यायिक वितरण का सवाल उतना ही बड़ा है जितना कि कल था.आज आप गांधी की फिर से व्याख्या करके इन दोनों लड़ाइयों को फिर से शुरु कर सकते हैं.ज़रुरी नहीं कि गांधी का नाम लें या ज़रुरी नहीं कि आप कहें कि मैं गांधी के रास्ते पर चलूँगा.इसलिए गांधी की वापसी का सवाल ही अप्रासंगिक लगता है.गांधी की वापसीआम लोगों की तरह मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने माता-पिता के दिए इसी नाम से साथ जीवन शुरू किया था.इसी के साथ उन्होंने बैरिस्टरी पास की. दक्षिण अफ्रीका गए. वकालत शुरू की. वकालत चल निकली. गांधी कामयाब वकील बन गए. यह एक प्रतिभाशाली युवा वकील की कामयाबी थी.उस ज़माने में अदालती दाँवपेंच से गांधी को पाँच हज़ार पाउंड सालाना की आमदनी होती थी. यह रकम बहुत बड़ी थी. अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1905-06 में एक पाउंड में सात तोला सोना मिलता था. यानी कि गांधी न केवल कामयाब थे बल्कि लखपती भी थे.निहत्था विरोधगांधी को यह सब मिलकर भी कुछ न मिला हुआ लगता था. बतौर बैरिस्टर गले में टाई और तीन पीस सूट गांधी पर फबता था, पर उन्हें जँचता नहीं था.उनका मन कहीं और था. उनका विरोध साम्राज्यवाद की दमनकारी नीतियों से था. मन में कल्पना थी उस ताक़तवर शक्ति को हाथ उठाए बिना परास्त करने की.बात लोगों को ज़्यादा समझ में नहीं आई. ताक़त के आगे निहत्था विरोध.कुछ को यह तजवीज़ हास्यास्पद लगी. कुछ को अनूठी. गांधी ने जोहानसबर्ग की एंपायर थिएटर बिल्डिंग भाड़े पर ली. पैसे अपनी जेब से भरे.तारीख़ तय की 11 सितंबर 1906. लोगों को आमंत्रित किया. एक शपथ-पत्र भरने को कहा. यह कि वे अहिंसा का रास्ता अपनाकर श्वेत साम्राज्यवादी शक्ति का विरोध करेंगे.उस समय तक इस प्रतिरोध का कोई औपचारिक नाम नहीं था. गांधी ने कई नाम सोचे, पर वे संतुष्ट नहीं थे. अंत में उन्होंने एक प्रतियोगिता आयोजित की. प्रतिरोध का नामकरण करने की. इसका नाम अंत में ‘सदाग्रह’ चुना गया. गांधी ने उसे बदलकर ‘सत्याग्रह’ किया.तब तक वे इसे ‘जीने और मरने की कला’ कहते थे.परिवर्तनशील व्यक्तित्वगांधी का व्यक्तित्व शुरू से परिवर्तनशील रहा. चाहे वह पोशाक का मामला हो, भोजन का या सोच का.कई बार गांधी के आस-पास लोगों ने इस बदलाव में भूमिका निभाई. कई बार परिस्थितियों ने.गांधी ने ऐशोआराम की ज़िंदगी हासिल करके छोड़ दी. सत्याग्रह के लिए. साम्राज्यवाद के विरोध में. भारत लौटे तो बैरिस्टर गांधी को पीछे छोड़ आए. कपड़े एक-एक कर कम होते गए. बाना संतों जैसा हो गया.आज़ादी के बाद आई पीढ़ी को गांधी के बिंब पुराने ज़माने के लगे. चरखा, तकली, सूत, खादी. शायद उन्हें लगा कि विरोध के ये हथियार नए ज़माने में कारगर नहीं होंगे.उन्होंने सब छोड़ दिया या उसकी ओर ध्यान नहीं दिया. उन्होंने प्रतीक देखे, उसके पीछे भी भावना नहीं देखी.गांधी की वापसीसत्याग्रह को हथियारों की होड़ और सबसे ताक़तवर बनकर उभरने की इच्छाओं के कारगर प्रतिकार का तरीका नहीं माना. लेकिन गांधी की वापसी हुई.इतनी ज़ोरदार वापसी की हाल के इतिहास में दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती.नई पीढ़ी की गांधी में दिलचस्पी की वजहें कम दिलचस्प नहीं हैं. आधुनिकतम शिक्षा से लैस, टेक्नालॉजी में दक्ष और वैज्ञानिक सोच के हामी ये युवा इससे ऊपर कुछ और चाहते हैं. ज़िंदगी को नया अर्थ देना. मानीखेज बनाना. ऐसे में उनके सामने गांधी आ खड़े होते हैं.नई पीढ़ी शायद गांधीवाद को बेहतर समझ पा रही है.उसे अपने सवालों के जवाब गांधी के पास आसानी से मिल जाते हैं. गांधी उसे पुरातनपंथी नहीं लगते.गांधी की वापसी सारी दुनिया में हो रही है. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद बहुत तेज़ी के साथ.1995 में पाँचवीं कक्षा में मैंने बच्चों से गांधी के बारे में पूछा. एक भी छात्र गांधी के बारे कुछ न बता सका. उन्हें गांधी का पूरा नाम भी नहीं मालूम था.मैं उस घटना से बहुत निराश था. ख़ासतौर पर इसलिए कि वह स्कूल गुजरात में था. इसलिए भी कि गांधी उस गाँव में एक रात रुक चुके थे.लौटकर मैंने यह वाक़या गांधी के पौत्र रामचंद्र गांधी को सुनाया.प्रोफेसर रामू गांधी ने कहा, ‘‘मृत्यु सच नहीं है. उपस्थिति का अभाव मृत्यु है. विचार कोई इमारत, पेड़, पहाड़ नहीं है. वह अनुपस्थित रहकर उपस्थित रहता है. उसकी मृत्यु नहीं होती. गांधी लौटेंगे.’’11 साल बाद रामू गांधी की बात सही साबित हुई.गांधी के सत्याग्रह की शताब्दी पर एक सर्वेक्षण कराया गया. राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण. यह पता लगाने के लिए कि 21वीं सदी में गांधी के विचार कितने उपयोगी रह गए हैं. गांधी को लोग किस रूप में देखते हैं. ख़ासकर युवा.19 राज्यों में लोगों से सवाल पूछे गए. सबकी उम्र 30 साल से कम. सर्वेक्षण के नतीजे चौंकाने वाले थे.80 प्रतिशत से अधिक युवा गांधी के बारे में जानते थे. और अधिक जानना चाहते थे. 75 फीसदी गांधी पर कुछ न कुछ पढ़ चुके थे. इससे एक प्रतिशत अधिक युवा उन्हें अपना आदर्श मानते थे.युवाओं के आदर्शों की लंबी सूची में गांधी सबसे ऊपर थे. यह निश्चित रूप से गांधी का लौटना है.बकौल किशन पटनायक दुनिया विकल्पहीन कभी नहीं रही. गांधी सार्थक विकल्प की तरह अब पहले से भी अधिक ज़रूरी हैं.युवावर्ग का गांधी की ओर झुकाव ऐसे भविष्य की ओर इशारा है जिसकी ज़रूरत आने वाली नस्लों को हमसे ज़्यादा होगी.क्यों ग़लत लग रही है गाँधी की सीखमौजूदा समय में जिससे भी पूछो कि महात्मा गाँधी की कितनी आवश्यकता है तो जवाब मिलता है कि गाँधी की आज भी उतनी ही ज़रूरत है जितने उनके दौर में थी.यदि ऐसा है तो फिर क्या वजह है कि गाँधी के विचारों और इन विचारों पर आधारित संस्थाओं का पतन हो रहा है?बाक़ी जगह तो दूर रही, यह चीज़ गुजरात में भी बहुत हद तक देखने में आ रही है.वो गुजरात जिसे गाँधी का गुजरात कहा जाता है, क्योंकि गाँधी यहीं से थे, चाहे वो हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों की बात हो, चाहे दलित उत्थान का मामला हो, गाँधी के समाजवाद का मसाला हो या फिर शराब-बंदी हो,हर जगह ठीक गाँधी की सीख के विपरीत हो रहा है.आखिर ऐसा क्यों हुआ? इस सवाल के जवाब बहुत से हैं. पड़तालबुजुर्ग गाँधावादी चुन्नीभाई वैद्य तो मानते हैं लोगों ने सिर्फ गाँधी के नाम को जिंदा रखा और उनके मूल्यों से मुँह फेर लिया.वे कहते हैं,"हमको सरकार ने अनुदान दिया तो हमारा चरित्र अनुदान के साथ बंट गया. हम लोग खादी तो बनाते और बेचते रहे और जो गाँधी का एक किरदार था, सामाजिक क्रांतिकारी का, एक सीख थी कि समाज में क्रांति चलती रहनी चाहिए, उसे हम भूल गए."चुन्नीभाई कहते हैं,"सन 2002 के दंगों के बाद तो बहुत लोग बड़े फ़ख़्र से कहते हैं कि अब वो गाँधी के फ़लसफ़े से बाहर आ गए हैं और कायर नहीं रहे, गाँधी का अर्थ ग़लत समझते हैं." उनके शब्दों में,"दुर्भाग्यवश यह माना जा रहा है कि क्रांति का मतलब हिंसा है किसी को मार देना क्रांति है. क्रांति का सही मतलब तो मूल्यों का परिवर्तन होता है."गाँधीवाद के अध्ययनकर्ता रिज़वान क़ादरी इस विचार के हैं कि गाँधी के, जोश, उनके जैसे और उनके मक़सद को भूलाया जा चुका है. वे मानते हैं कि गाँधी की शहादत के बाद गाँधी की विचारधारा और उसमें मनाने वालों का अंत होता गया. पीढ़ियों का अंतररिज़वान क़ादरी मानते हैं कि एक पीढ़ी खत्म होती गई और नई पीढ़ी अपने ही माहौल में खोई रही. क़ादरी कहते हैं,"उन्होंने उस जंग को नहीं देखा था, उस गुलामी को नहीं देखा था. तो आने वाली तीसरी पीढ़ी को पता नहीं था कि गाँधीवाद क्या था, वो मर मिटने और सरफरोशी की तमन्ना क्या थी. इसलिए धीरे-धीरे उस संस्था का ख़ात्मा होने लगा."क्या नवयुवकों के हाथ में गाँधीवादी संस्थाओं का नेतृत्व सौंपने से कुछ फर्क पड़ेगा? भाजपा नेता जयंती बरोट कुछ ऐसा ही मानते हैं. उनका कहना है,"गाँधी की सोच वाली संस्थाएं नए खून नई नए नौजवानों को साथ लेकर नहीं चलते हैं. मेरे दादा की उम्र के लोग ये संस्थाएं चला रहे हैं, इसलिए संस्थाएं उनकी उमर के साथ घिसती जा रही हैं." घर की मुर्गीबरोट कहते हैं कि अगर इन इरादों में युवा पीढ़ी को जोड़ा जाए तो बहुत बदलाव देखने में मिलेगा.कुछ लोगों का यह भी मानना है कि चूँकि गाँधी गुजरात और भारत से थे, इसलिए उनकी अहमियत का अंदाज़ा आम आदमी को नहीं है. अहमदाबाद के कलाकार अरविंद पटेल कुछ ऐसा ही मानते हैं. पटेल का कहना है,"कई बार हम अपनी अच्छी चीज़ को पहचान नहीं पाते.वो कहावत है कि घर की मुर्गी दाल बराबर. इसलिए बहुत बार हम अनजाने में अपनी अच्छी चीज़ को अनदेखा कर जाते हैं."इन तमाम विचारों के बावजूद लोग यह मानते हैं कि कुछ समय बाद ही सही पर एक बार फिर ऐसा वक़्त आएगा जब संसार एक बार फिर गाँधी की ओर समस्याओं के समाधान के लिए देखेगा.चर्चिल की मंशा थी, 'गांधी मरें तो मरें'ब्रितानी कैबिनेट के हाल ही में प्रकाशित कागज़ातों से विंस्टन चर्चिल की उस मंशा का पता चलता है जिसके मुताबिक वो चाहते थे कि गांधी अगर भूख हड़ताल पर बैठते हैं तो उन्हें मरने देना चाहिए.ऐसे कागज़ातों की एक प्रदर्शनी इन दिनों लंदन स्थित केव अभिलेखागार में चल रही है.दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे चर्चिल का मानना था कि महात्मा की छवि वाले गांधी अगर अंग्रेज़ी हुकूमत की गिरफ़्त में भूख हड़ताल पर बैठते हैं तो उनके साथ भी आम लोगों जैसा बर्ताव होना चाहिए.हालाँकि उनके मंत्रियों ने उन्हें ऐसा न होने देने के लिए समझाया क्योंकि अगर गांधी की मृत्यु अंग्रेज़ी हुकूमत की गिरफ़्त में हो जाती तो वह एक बड़ी शहादत बन जाएगी.गाँधी ने 1942 के विश्वयुद्ध में भारत को शामिल करने का विरोध किया था जिसके बाद उन्हें हवालात में डाल दिया गया था.पक्ष और विपक्षब्रिटेन शासित भारत के तत्कालीन वायसरॉय, लॉर्ड लिनलिथगो ने भी कहा था कि वो "मज़बूती के साथ गांधी के भूख से मरने की स्थिति के पक्ष में हैं."पर कई वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों ने इस कद़म को ग़लत ठहराया. पूर्व विदेश सचिव लॉर्ड हैलिफ़ैक्स ने तर्क रखा, "गांधी को मुक्त करने के चाहे जो भी नुक़सान हों पर उनको बंद रखना और भी ज़्यादा संकट पैदा कर सकता है."वर्ष 1943 के जनवरी महीने में अधिकारियों ने तय किया कि गांधी को छोड़ दिया जाए, पर लोगों की नज़र में यह क़दम अंग्रेज़ों की सहानुभूति के रूप में सामने आना चाहिए ना कि दबाव के आगे अंग्रेज़ों के झुकने के जैसी.हवाई जहाज़ निर्माण विभाग के तत्कालीन मंत्री सर स्टैफ़ोर्ड क्रिप्स ने कहा था, "महात्मा गांधी की छवि कुछ धार्मिक हस्ती जैसी है इसलिए उनकी हमारी गिरफ़्त में मौत हमारे लिए एक बड़ी समस्या बन सकती है."चर्चिल का मतचर्चिल का मत इनसे अलग था.चर्चिल का मत था कि गांधी को क़ैद में ही रखा जाए और वो जो करना चाहें, करने दिया जाए.हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि अगर उन्हें इसलिए छोड़ा जा रहा है क्योंकि वो भूख हड़ताल पर बैठ जाएँगे तो उन्हें तुरंत छोड़ देना चाहिए.आख़िरकार 1944 में गांधी के ख़राब होते स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें छोड़ दिया गया क्योंकि ब्रितानी हुकूमत को डर था कि उनकी गिरफ़्त में गांधी की मौत एक संकट बन सकती थी हात्मा गांधी की 78 वर्ष की उम्र में 30 जनवरी 1948 को हत्या कर दी गई थी.

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