Wednesday 22 December 2010

महज तीस सेकेंड में खोज लीजिए नौकरी !

  यदि आप सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़े हुए हैं और आप एमसीए, बीसीए, बीटेक, एमएससी आईटी, बीएससी आईटी, आदि कर चुके हैं और ये सोच रहे हैं कि कौन सी कंपनी आपके लिए ठीक रहेगी, तो हम आपके सवालों का हल बताएंगे। कौन सी कंपनी में आप फिट हो सकते है, यह आप मात्र 30 सेकेंड में जान सकते हैं- कॉर्प-कॉर्प डॉट कॉम ( http://www.corp-corp.com/ ) के माध्‍यम से।

वर्जीनिया की कंपनी कॉर्प-कॉर्प डॉट कॉम पिछले तीन वर्षों से जॉब मैचिंग के क्षेत्र में सफलतापूर्वक कार्यरत है। इम्‍प्‍लॉयर या फिर अभ्‍यर्थी, किसी को भी सही व्‍यक्ति या सही नौकरी ढूंढ़ने की जरूरत नहीं पड़ेगी। यदि इम्‍प्‍लॉयर किसी अभ्‍यर्थी की तलाश में है, तो वो अपनी जरूरत के मुताबिक वेबसाइट पर पोस्‍ट कर दें। कॉर्प-कॉर्प डॉट कॉम पूरे शोध और समीक्षा के बाद अभ्‍यर्थियों के नाम शॉर्टलिस्‍ट कर देगी। साथ ही पूरी तरह मैच करने वाले टॉप-10 अभ्‍यर्थी छांट कर आपके सामने रख देगी। वो भी मात्र 30 सेकेंड में।

  इससे नौकरी देने वाली कंपनियों और नौकरी चाहने वाले लोगों की राहें आसान हो जाती हैं। कॉर्प-कॉर्प के सीईओ प्रभाकरण मुरुगईया ने इस बारे में जानकारी देते हुए कहा, "हम रोजाना कंपनियों और अभ्‍यर्थियों का नौकरी ढूढ़ने में व्‍यय होने वाला तीस प्रतिशत समय बचाते हैं।"

मुरुगइया के मुताबिक, "यदि कंपनी तक सही व्‍यक्ति पहुंचे और न्‍यूनतम संख्‍या में हों तो समय की बचत होती है साथ में उनके वर्कफोर्स की प्रोडक्टिविटी बढ़ती है। जब क्‍लाइंट की सभी जरूरतें पूरी हो जाती हैं तो वो नौकरी ढूंढने में बचा समय कंपनी की नींव मजबूत करने में लगा देता है।"

मुरुगइया ने एक उदाहरण देते हुए बताया कि एक कंपनी जिसमें 50 कर्मी हैं, वो अपनी प्रोडक्टिविटी यानी उत्‍पादकता 10 प्रतिशत तक बढ़ा सकते हैं। इसके परिणामस्‍वरूप कंपनी को करीब 5 लाख डॉलर सालाना की आय होती है। कॉर्प-कॉर्प डॉट कॉम अमेरिका में अब तक 20 आईटी परामर्श सम्‍मेलन आयोजित करा चुका है, जिससे छोटी कंपनियां लाभान्वित हुई हैं।

   आज कॉर्प-कॉर्प डॉट कॉम के साथ 6000 कंपनियां पंजीकृत हैं और वेबसाइट के माध्‍यम से 30,000 नई कॉन्‍ट्रैक्‍ट जॉब हर महीने मिलती हैं। हाल ही में हुई आर्थिक मंदी के दौरान भी कंपनी ने अपनी ग्रोथ को बनाए रखा था। मुरुगइया अपनी कंपनी की सफलता का श्रेय तकनीकी और अनुभवी कर्मचारियों को देते हैं और ग्राहक के अनुसार संगठन के क्रियाकलापों को। कॉप-कॉर्प डॉट कॉम आने वाले वर्षों में वैश्विक स्‍तर पर कार्य करने की योजना में है। ( साभार- वनइंडिया http://thatshindi.oneindia.in/news/2010/12/22/corp-corp-match-the-job-candidate-in-30-seconds.html)

Wednesday 24 November 2010

मोबाइल से मैसेज ट्विट करिए

  अब मोबाइल से भी मैसेज ( एसएमएस व एमएमएस ) ट्विटर पर पोस्ट करिए और मैसेज प्राप्त करिए। यह सेवा रिलायंस मोबाइल ने अपने भारतीय ग्राहकों को मुफ्त में उपलब्ध कराई है। इसके लिए जीपीआरएस सुविधा का मोबाइल में होना आवश्यक नहीं है। बिना जीपीआरएस के रिलायंस मोबाइल नेटवर्क का प्रयोग करके ट्विटर का इस्तेमाल करिए। फिलहाल यह मुफ्त सेवा ३० नवंबर २०१० तक ही उपलब्ध है। इस सेवा के इस्तेमाल का तरीका रिलायंस कम्युनिकेशन वेबपेज पर बताया गया है कि कैसे आप अपनी मोबाइल को इस सेवा से जोड़ सकते हैं।

अगर आपके पास पहले से ट्विटर अकाउंट है तो इन चरणों को पूरा करिए-----

१- अपनी मोबाइल के मैसेज बाक्स में "START" लिखकर उसे 53000 पर भेज दीजिए। इसके बाद ट्विटर आपसे आपका यूजरनेम पूछेगा।


२- जवाब में जो मैसेज आपको मिलेगा उस पर अब आप अपना यूजरनेम लिखकर रिप्लाई करिए। अब ट्विटर आपसे पासवर्ड पूछेगा।


३- आप १५ शब्दों से कम का पासवर्ड लिखकर रिप्लाई करिए।


४- इसके बाद आपको जो संदेश मिलेगा उसे OK लिखकर रिप्लाई कर दीजिए।


अब आप रिलायंस मोबाइल से मैसेज ट्विट कर सकते हैं।



अगर आपने ट्विटर में पहले से खाता नहीं खोला है तो रिलायंस मोबाइल से ट्विट करने के लिए इन चरणों को पूरा कीजिए------------।

१- START लिखकर ५३००० पर मैसेज भेजिए। जवाब में आपको signup मैसेज मिलेगा।


२- अब SIGNUP लिखकर ५३००० पर भेजिए। अब ट्विटर मैसेज देकर आपसे यूजरनेम पूछेगा।


३- अब १५ शब्दों से कम का यूजरनेम लिखकर रिप्लाई करिए।


४- जब आपको यूजरनेम का कन्फर्मेशन मैसेज मिल जाए तो अपना पासवर्ड चुन लीजिए।


अब आप एसएमएस के जरिए ट्विटिंग कर सकते हैं।

   आप कंप्यूटर पर ट्विटर लागिन करके अपने समर्थकों के प्रोफाइल में मोबाइल आइकन पर क्लिक करके उसे एनेबल भी कर दीजिए। इससे उनके मैसेज आपको मोबाइल पर मिल पाएंगे।

Thursday 4 November 2010

दीपावली की शुभकामनाएं

HAPPY  DIPAWALI 

आपको दीपावली की शुभकामनाएं। 


दीपावली पूजा के शुभ मुहूर्त...




दीपावली महापर्व पर धन-ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि
 प्राप्त करने के लिए शुभ मुहूर्त में लक्ष्मी जी की
 पूजा करनी चाहिए। विशेष शुभ मुहूर्त में पूजा 
करने से लक्ष्मी पूजा का पूरा फल प्राप्त होता है।
 जानिएं दीपावली महापर्व पर पूजा के शुभ लग्र 
एवं मुहूर्त..


शुभ चौघडिय़ां-
दोपहर 12:20 से 01:50 तक- शुभ
शाम 04:50 से 06:20 तक- चल
रात 08:45 से 10:15 तक- लाभ
रात 12:05 से 01:39 तक- शुभ


व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर पूजा का मुहूर्त-
रात 08:45 से 10:15 तक (शुक्र की होरा एवं 
लाभ का चौघडिय़ा)
घर पर लक्ष्मी पूजा करने का मुहूर्त-
शाम को 06:19 से रात 08:17 बजे तक (वृष लग्र )


वृष लग्र (शाम 06:19 से रात 08:17 बजे तक) - सामान्य, गृहस्थ, किसान, सेवाकर्मी,
 सोंदर्य प्रसाधन विक्रेता एवं निर्माता, वस्त्र व्यवसायी, अनाज व्यापारी, वायदा एवं शेयर 
बाजार वाले, व्यवसायी(दुकानदार, मार्केटिंग-फाइनेंस), होटल मालिक, अध्यापक, लेखक,
 एकाउंटेंट, चार्टर्ड एकाउंटेंट, बैंककर्मी, प्रशासनिक अधिकारी एवं नौकरी-पेशा लोग।
सिंह लग्र (रात 12:46 से 02:59 बजे तक)- जज, वकील एवं न्यायालय से संबंधित व्यक्ति
, पुलिस विभाग, डॉक्टर, कैमिस्ट, वैद्य, दवा निर्माता, इंजीनियर, पायलेट, सेना, उद्योगपति
 (कारखानेदार) ठेकेदार, हार्डवेयर व्यवसायी।

Tuesday 2 November 2010

आप तो अलगाववादियों की भाषा बोल रही हैं अरुन्धतीजी !


बयान देना दिलीप पडगावकर से सीखिए


   कश्मीर पर अरुन्धती का यह नजरिया नया नहीं है। मीडिया में कई बार यह बातें आईँ है। ताज्जुब यह है कि यह चर्चा का विषय तब बना जब पिछले दिनों दिल्ली में कॉलिशन ऑफ सिविल सोसायटीज की ओर से - मुरझाता कश्मीर: आजादी या गुलामी, विषय पर आयोजित सेमिनार में कहा की कश्मीर भारत का अभिन्न अंग कभी नहीं रहा ।
   उन्होंने कश्मीरी लोगों के लिए आत्म निर्णय के अधिकार की वकालत करते हुए कहा कि 1947 में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का स्थान भारतीय उपनिवेशवाद ने ले लिया था, जिससे लोग आज भी गुलामी में हैं। 21 अक्टूबर को 'आजदी एकमात्र विकल्प' विषय पर सेमिनार में गिलानी के साथ अरुंधति रॉय और माओवादी नेता वारा वारा राव भी मंच पर थे और भाषण भी दिया था। उनके भाषण के दौरान काफी हंगामा हुआ था और कश्मीरी पंडितों ने हुर्रियत नेता अली शाह गिलानी गिलानी की तरफ जूता भी फेंका था।

  आपको याद दिला दें कि पाकिस्तान भी, जो कि आजादी के बाद से कश्मीर में अशांति फैलाने में लगा है, कश्मीर में जनमत संग्रह ( वही आत्मनिर्णय ) की वकालत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर करता रहा है। पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी संयुक्त राष्ट्र महासभा के वार्षिक अधिवेशन में भाषण के दौरान, कश्मीर विवाद को सुलझाने के लिए संयुक्त राष्ट्र से जनमत संग्रह कराए जाने की अपील दोहरा चुके हैं।



कौन हैं अरुन्धती राय ?

  अरुन्धती रॉय का जन्म 24 नवंबर, 1961 को असम में हुआ था। इनकी माँ केरल की इसाई और पिता बंगाली हिन्दू हैं। इनकी पहली पुस्तक "गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स" काफी मशहूर हुई और 1997 मे बुकर पुरस्कार से नवाजी गयी है। भारतीय लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधती रॉय और पेप्सिको की प्रमुख इंद्रा नूई का नाम दुनिया की 30 अति प्रेरक महिलाओं की सूची में दर्ज है। इस सूची में मदर टेरेसा और अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के नाम भी शामिल हैं। इस सूची में अरुन्धती रॉय तीसरे स्थान पर हैं तो नूई 10वें स्थान पर। 30 प्रेरक महिलाओं की सूची फोर्ब्स वूमेन नामक टीवी शो की मेजबान ओपरा विन्फ्रे द्वारा तैयार की गई है।

सिर्फ एक उपन्यास लिखनेवाली अरुंधती राय अब निबंध लेखक और टिप्पणीकार के रूप में भारत-प्रसिद्ध हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उनके प्रशंसकों की कमी नहीं है। उन्हें एक तरह से ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ कहा जा सकता है। अरुंधती राय ने ‘कॉमरेडों के साथ घूमते हुए’ रिपोर्ट लिखी, तो देश भर में तहलका मच गया। अरुंधती राय ने मुंबई की एक जनसभा में माओवादी हिंसा का समर्थन किया, तो शोर मच गया कि वे हिंसा के पक्ष में हैं। अरुंधती राय ने कहा कि माओवाद का समर्थन करने के लिए सरकार उन्हें जेल भेजना चाहती है, तो वे इसके लिए पूरी तरह तैयार हैं। वे मलयाली हैं, पर मलयालम में नहीं लिखतीं। छत्तीसगढ़ के आदिवासियों या लालगढ़ के आदिवासियों के लिए आवाज उठाती हैं मगर यह बताने के लिए उनकी समझ की भाषा हिंदी तक का इस्तेमाल नहीं करतीं। अंग्रेजी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जो भले इन्हें ( गरीबों, आदिवासियों को ) समझ में नआए मगर अरुन्धती को ग्लोबल पहचान अवश्य दिलाती है। बुकर सम्मान की दहलीज पर इसी अंग्रेजी की बदैलत पहुंचीं। शोहरत मिली और कद इतना बड़ा हो गया कि भारत की राष्ट्रीयता पर ही सवाल खड़ा कर दिया। इतिहास उठाकर देखा जाए तो अरुन्धती की परिभाषा के दायरे में कम ही ऐसे राज्य होंगे जिसे भारत का अभिन्न अंग माना जाएगा।



इतिहास को झुठलाने की साजिश

   हमें जिस भारत का इतिहास पढ़ाया जाता है उसमें छठी शताब्दी ईसापूर्व में तो भारत चौदह महाजनपदों में विभाजित था। हर महाजनपद स्वतंत्र था। शक्तिशाली मगध या लिच्छवि के शासकों ने एकीकरण किया और इस क्रम को सम्राट कनिष्क, सम्राट अशोक से लेकर गुप्त राजाओं ने प्राचीन भारत को एक विराट राज्य का दर्जा दिया। इतिहास के इन्हीं दौर से गुजरता हुआ भारत या हिंदुस्तान मुगलों व अंग्रेजों के परचम तले एक ऐसे देश में बदल गया जिसकी आजादी के लिए पूरे देश के लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी। तब सभी इसी देश को अपना देश मानते थे। इस देश को बांटना अंग्रेजों ने शुरू किया और आजादी हासिल होने तक पाकिस्तान नामक देश अस्तित्व में आगया। अंग्रेजों ने जो अशांति विभाजन से पैदा की उसकी ज्वाला आज भी भारत को जला रही है।

इतिहास में यहां फिर से झांककर सिर्फ यह बताना चाहरहा हूं कि दुनिया में जितने भी देश हैं उनको एक देश का पहचान ऐसे ही दौर से गुजरकर हुई है। तो क्या लोग उन देशों में लोग गुलामी की जिंदगी जी रहे हैं। भारत के जिस भी हिस्से में अलगाववाद भड़का है वह सब आजाद होना चाहते हैं। अरुन्धती को चाहिए कि उन सब के लिए जंग लड़ें। सिर्फ कश्मीरी अलगाववादियों ही नहीं बल्कि खालिस्तान, बोडोलैंड, कामतापुरी, मणिपुर लिबरेशन फ्रंट, नगा विद्रोही,, आमरा बांगाली सभी की आजादी की जंग अरुन्धती को लड़नी चाहिए। आखिर जिन राज्यों के लिए ये विद्रोही लड़ रहे हैं वे भी इसी परिभाषा के तहत भारत के अभिन्न अंग नहीं ही माने जा सकते। ये सभी कभी रियासते थीं।


अभिव्यक्ति की जगह

   मैं ऐसा कहकर अरुन्धती की अभिव्यक्ति पर किसी प्रतिबंध की वकालत नहीं कर रहा हूं। अपने देश व समाज की बेहतरी के लिए आवाज उठाना भी गलत नहीं है मगर वह अभिव्यक्ति, जो देश को तोड़ती हो या फिर देश की अलगाववादियों की भाषा बोलती हो, शायद देश के किसी भी ऐसे नागरिक को प्रिय नहीं लगेगी जो अपने देश से प्यार करता होगा। शायद देशभक्त कश्मीरी भी नहीं । यहां अरुन्धती की अभिव्यक्ति की तुलना दिलीप पड़गावकर से करना चाहूंगा। पडगावकर ने वकालत की है कि कश्मीर का समाधान पाकिस्तान को साथ लिए बिना संभव नहीं। दिलीप ने कश्मीर के समाधान में देश को तोड़ने वाली कोई बात नहीं कही है। उन्होंने शिमला समझोते का मान रखा है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि कश्मीर विवाद को अंतरराष्ट्रीय रूप न देकर, अन्य विवादों की तरह आपसी बातचीत से सुलझाया जाएगा। तो पाकिस्तान को बातचीत में शामिल करना कोई विवाद का विषय नहीं है। मगर अरुन्धती की भाषा अलगाववादियों की ही है।

आइए पहले शिमला समझौते पर एक नजर डालते हैं------।



शिमला समझौता
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A4%BE_%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%9D%E0%A5%8C%E0%A4%A4%E0%A4%BE
  १९७२ में भारत-पाक युद्ध के बाद भारत के शिमला में एक संधि पर हस्ताक्षर हुए. इसे शिमला समझौता कहते हैं. इसमें भारत की तरफ से इंदिरा गांधी और पाकिस्तान की तरफ से जुल्फिकार अली भुट्टो शामिल थे। जुलफिकार अली भुट्टो ने 20 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति का पदभार संभाला। उन्हें विरासत में एक टूटा हुआ पाकिस्तान मिला। सत्ता सभांलते ही भुट्टो ने यह वादा किया कि वह शीघ्र ही बांग्लादेश को फिर से पाकिस्तान में शामिल करवा लेंगे। पाकिस्तानी सेना के अनेक अधिकारियों को, देश की पराजय के लिए उत्तरदायी मान कर, बरखास्त कर दिया गया था।

   कई महीने तक चलने वाली राजनीतिक-स्तर की बातचीत के बाद जून १९७२ के अंत में शिमला में भारत-पाकिस्तान शिखर बैठक हुई। इंदिरा गांधी और भुट्टो ने, अपने उच्चस्तरीय मंत्रियों और अधिकारियों के साथ, उन सभी विषयों पर चर्चा कह जो 1971 के युद्ध से उत्पन्न हुए थे। साथ ही उन्होंने दोनों देशों के अन्य प्रश्नों पर भी बातचीत की। इन में कुछ प्रमुख विषय थे, युद्ध बंदियों की अदला-बदली, पाकिस्तान द्वारा बांग्लादेश को मान्यता का प्रश्न, भारत और पाकिस्तान के राजनयिक संबंधों को सामान्य बनाना, व्यापार फिर से शुरू करना और कश्मीर में नियंत्रण रेखा स्थापित करना। लम्बी बातचीत के बाद भुट्टो इस बात के लिए सहमत हुए कि भारत-पाकिस्तान संबंधों को केवल द्विपक्षीय बातचीत से तय किया जाएगा। शिमला समझौते के अंत में एक समझौते पर इंदिरा गांधी और भुट्टो ने हस्ताक्षर किए।

इनमें यह प्रावधान किया गया कि दोनों देश अपने संघर्ष और विवाद समाप्त करने का प्रयास करेंगे, और यह वचन दिया गया कि उप-महाद्वीप में स्थाई मित्रता के लिए कार्य किया जाएगा। इन उद्देश्यों के लिए इंदिरा गांधी और भुट्टो ने यह तय किया कि दोनों देश सभी विवादों और समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान के लिए सीधी बातचीत करेंगे और स्थिति में एकतरफा कार्यवाही करके कोई परिवर्तन नहीं करेंगे। वे एक दूसरे के विरूद्घ न तो बल प्रयोग करेंगे, न प्रादेशिक अखण्डता की अवेहलना करेंगे और न एक दूसरे की राजनीतिक स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप करेंगे। दोनों ही सरकारें एक दूसरे देश के विरूद्घ प्रचार को रोकेंगी और समाचारों को प्रोत्साहन देंगी जिनसे संबंधों मेंमित्रता का विकास हो। दोनों देशों के संबंधों को सामान्य बनान के लिए : सभी संचार संबंध फिर से स्थापित किए जाएंगे । आवागमन की सुविधाएं दी जाएंगी ताकि दोनों देशों के लोग असानी से आ-जा सकें और घनिष्ठ संबंध स्थापित कर सकें। जहां तक संभव होगा व्यापार और आर्थिक सहयोग शीघ्र ही फिर से स्थापित किए जाएंगे। विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में आपसी आदान-प्रदान को प्रोत्साहन दिया जाएगा। स्थाई शांतिं के हित में दोनों सरकारें इस बात के लिए सहमत हुई कि 1 भारत और पाकिस्तान दोनों की सेनाएं अपने-अपने प्रदेशों में वापस चली जाएंगी।

दोनों देशों ने 17 सितम्बर 1971 की युद्ध विराम रेखा को नियंत्रण रेखा के रूप में मान्यता दी और यह तय हुआ कि इस समझौते के बीस दिन के अंदर सेनाएं अपनी-अपनी सीमा से पीछे चली जाएंगी। यह तय किया गया कि भविष्य में दोनों सरकारों के अध्यक्ष मिलते रहेंगे और इस बीच अपने संबंध सामान्य बनाने के लिए दोनों देशों के अधिकारी बातचीत करते रहेंगे। भारत में शिमला समझौते के आलोचकों ने कहा कि यह समझौख्ता तो उएके प्रकार से सामने भारत का समर्पण था क्योंकि भारत की सेनाओं ने पाकिस्तान के जिन प्रदेशों पर अधिकार किया था अब उन्हें छोड़ना पड़ा। परंतु शिमला समझौते का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि दोनों देशों ने अपने विवादों को आपसी बातचीत से निपटाने का निर्णय किया। इसका यह अर्थ हुआ कि कश्मीर विवाद को अंतरराष्ट्रीय रूप न देकर, अन्य विवादों की तरह आपसी बातचीत से सुलझाया जाएगा।



तो क्या समझें अरुन्धती के बयान को ?

जहां तक मेरा ख्याल है कि बेहद गरीब व असहाय लोगों की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाली अरुन्धती राय का खयाल अंग्रेजों जैसा ही है। देश को तोड़कर ही उन्हें कश्मीर समस्या का समाधान दिखता है। कश्मीर को तो भारत से अलग-थलग पाकिस्तान भी देखना चाहता है। जनमत संग्रह की बात तो इसी लिए पाकिस्तान उठाता है। फिर यह कौन सा समाधान खोजा अरुन्धती ने ? फिलहाल तो केंद्र सरकार भी भड़काऊ भाषण के आरोप में हुर्रियत नेता गिलानी और अरुन्धती राय पर केस दर्ज कराया है। यहां यह ध्यान देने की बात है कि सरकार या किसी अन्य ने दिलीप पडगावकर पर कोई मामला दर्ज नहीं कराया है क्योंकि पडगावकर ने देश तोड़ने वाला कोई बयान नहीं दिया है। कश्मीर समस्या का हल वे भी तलाश रहे हैं मगर अरन्धती की तरह भावावेश में नहीं बल्कि कानून के दायरे में रहकर बयान दिया है। इससे साफ समझा जा सकता है कि विश्व क्षितिज पर सितारा बनकर चमक रहीं अरुन्धती अपने ही देश के लोगों की भावनों को समझने में भारी भूल कर बैठी हैं। अरुन्धती की अलगाववादी भाषा किसी के भी गले नहीं उतरी है।

अब कुछ उन खबरों पर गौर फरमाएं जो काफी पहले अरुन्धती ने कश्मीर पर कहा है-------।

१- सच नहीं लिखूंगी तो मर जाऊंगी: अरुंधती राय
http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_5216912/
जागरण के पत्रकार अशोक चौधरी ने गोरखपुर में अरुन्धती से बात की थी। यहां सिर्फ वही प्रश्न ले रहा हूं जो कश्मीर पर पूछा गया था। इस बातचीत में उन्होंने कहा है कि सच नहीं लिखूंगी तो मर जाऊंगी। पूरा विवरण लिंक से पढ़िए। यहां देखिए कश्मीर पर अरुन्धती का जवाब------

प्रश्न:अभी आपने कश्मीर पर जो लिखा है, उस पर तमाम बहसें हो रही हैं। इस पर आपकी कोई टिप्पणी।

उत्तर: देखिए, कश्मीर मसला वहां की आम आवाम की आजादी के प्रश्न से जुड़ा है। पहले चरण में जब कश्मीर के चुनाव की हालत का जायजा लीजिये। वहां कुल आबादी थी 30 हजार जिसमें मतदाता थे 15 हजार। इन मतदाताओं पर फौज तैनात थी 60 हजार। यानी एक मतदाता पर 4 फौजी। कश्मीर की आवाम आजादी के लिए लाखों की तादाद में जुट सकती है लेकिन चुनाव में नहीं जुटी। अगर कश्मीर की सही हालत जाननी है तो फौज हटाकर चुनाव कराकर देख लें।

२-ईराक जैसा है कश्मीर – अरुंधती
http://www.network6.in/2010/10/25/%E0%A4%88%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95-%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A5%88-%E0%A4%95%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%A7/
   यह भी एक इंटरव्यू है। इसमें अरन्धती कहती हैं कि भारत और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर अनवरत प्रोपोगंडा कर रहे हैं। दोनों कश्मीर को एक समस्या मानकर शेष दुनिया के सामने प्रदर्शित करते हैं
लेकिन दोनों के लिए कश्मीर एक समस्या नहीं अपितु एक समाधान है जैसा कि आप जानते हैं कश्मीर वो जगह है जहाँ ये दोनों गन्दी राजनीति कर रहे हैं ,वजह साफ़ है कि वो इन्हें सुलझाना नहीं चाहते हैं । ( पूरा इंटरव्यू लिंक से पढ़िए। यहां संक्षिप्त विवरण सिर्फ कश्मीर का दे रहा हूं )।

सवाल--अरुंधती अमेरिकी जनता भारत की जिस जगह बारे में जो सबसे ज्यादा जाना चाहती है वो है कश्मीर ,जिसे हम स्वेटर भी कहते हैं क्या आप हमें बता सकती हैं कि कश्मीर के मौजूदा हालत को वहाँ के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में हम कैसे देखें ?

अरुंधती रॉय -जैसा कि आप जानते हैं वो आजादी के बाद भारत और पकिस्तान के मध्य अधुरा छोड़ा गया एक सवाल है ,ये अंग्रेजों द्वारा भारत को दिया गया उपनिवेशिक तोहफा है ,जैसा कि आप जानते हैं जब अंग्रेज हिंदुस्तान से जाने लगे तो उन्होंने कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बींच फेंक दिया ,विभाजन से पहले कश्मीर एक स्वतंत्र राज्य हुआ करता था , जिसमे मुसलमानों की बहुलता थी लेकिन जिन पर एक हिन्दू राजा का शासन था ,विभाजन के बाद हिंदुस्तान और पाकिस्तान में तक़रीबन एक लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई
उस वक्त हैरत अंगेज तौर पर कश्मीर में शांति थी ,लेकिन जब स्वतंत्र राज्यों को हिंदुस्तान और पाकिस्तान में सम्मिलित होने के लिए कहा गया ,तो राजा कोई फैसला नहीं ले सके ,जिसका फायदा उठाते हुए पाकिस्तानी सेना कश्मीर में घुसपैठ करने लगी ,राजा भागकर जम्मू आ गए और हिंदुस्तान को खुद पर और कश्मीरियों पर शासन करने का अधिकार सौंप दिया
उसके बाद से ही कश्मीर की जनता आजादी की लड़ाई खुदमुख्तारी के मसले पर लड़ाई लड़ रही है ,१९८९ में जब इस लड़ाई ने विद्रोह का रूप धारण कर लिया तो इन्डियन मिलिट्री द्वारा बेहद क्रूरता के साथ उस विद्रोह का दमन कर दिया गया ,अगर आज देखा जाए तो अमेरिकी सेना ईराक में जो कर रही है वही भारत सरकार कश्मीर में कर रही है
सेना के द्वारा उन्होंने समूचे कश्मीर को अपने कब्जे में कर रखा है इसे हम मार्शल ला कह सकते हैं


सवाल--मुझे याद पड़ता है जब ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ रहे थे तब उन्होंने एक साक्षात्कार में कश्मीर के मुद्दे पर कहा था कि ये एक ज्वलंत मुद्दा है और हमें भारत और पाकिस्तान के साथ मिलकर इसे सुलझाना होगा ,क्या आप इसे गंभीर समस्या मानती हैं और आप क्या सोचती है इसका क्या समाधान होना चाहिए?

अरुंधती राय -जैसा कि आप जानते हैं भारत और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर अनवरत प्रोपोगंडा कर रहे हैं ,दोनों कश्मीर को एक समस्या मानकर शेष दुनिया के सामने प्रदर्शित करते हैं
लेकिन दोनों के लिए कश्मीर एक समस्या नहीं अपितु एक समाधान है ,जैसा कि आप जानते हैं कश्मीर वो जगह है जहाँ ये दोनों गन्दी राजनीति कर रहे हैं ,वजह साफ़ है कि वो इन्हें सुलझाना नहीं चाहते हैं क्यूंकि जब कभी इन दोनों देशों में कोई अंदरूनी समस्या उठ खड़ी होती है तो वो कश्मीर के मुद्दे को उछलकर अपने अपने देश की जनता का ध्यान मुख्य समस्याओं से हटा सकते हैं
मेरा मानना है कि ये दोनों ही देश इस समस्या को सुलझाने वाले नहीं है ,जिसका खामियाजा कश्मीर की जनता भुगत रही है ,जिसके बारे में बहुत सारे झूठ बोले जा चुके है


३- अरुंधती राय और उनका क्रांति का कैरीकेचर
http://www.jlsindia.org/nayapath/latest/arundhati_rajendra_sharma.htm

माओवादियों पर अरुंधती राय के नजरिए के लिए यह लेख पढ़ें ।

४-कश्मीर मामले में एक श्वेत पत्र प्रकाशित किये जाने की जरूरत
http://www.swatantravaarttha.com/editorial/article-6227


अब अरुन्धती का भाषण देखिए------

कश्मीर पर अरुंधती राय का सनसनीखेज़ बयान

http://www.mediapassion.co.in/Breakingnews.asp?Details=3188
सुप्रसिद्ध लेखिका अरुंधती राय ने रविवार को कॉलिशन ऑफ सिविल सोसायटीज की ओर से मुरझाता कश्मीर: आजादी या गुलामी विषय पर आयोजित सेमिनार में कहा की कश्मीर भारत का अभिन्न अंग कभी नहीं रहा । उन्होंने कश्मीरी लोगों के लिए आत्म निर्णय के अधिकार की वकालत करते हुए कहा कि 1947 में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का स्थान भारतीय उपनिवेशवाद ने ले लिया था, जिससे लोग आज भी गुलामी में हैं। ज्ञात हो कुछ दिनों से कश्मीर का मुद्दा विभिन्न कारणों से गर्म है, पहला वहा जारी हिंसा दूसरा, लोगो के उकसाने वाले बयानों से । उल्लेखनीय है कश्मीर मुद्दे का समाधान पाकिस्तान को वार्ता में शामिल किए बिना संभव नहीं होने की टिप्पणी कश्मीर भेजे गए प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य दिलीप पडगांवकर ने भी की है। पडगांवकर व अरुन्धती दोनों अपने बयान पर कायम हैं।

प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका अरुंधती राय ने सेमिनार में कहा की साम्राज्यवादी औपनिवेश को जगह तेजी से कॉर्पोरेट औपनिवेश आ रहा है। कश्मीरी लोगों को तय करना होगा कि क्या वे भारतीय दमन की जगह भावी स्थानीय कॉर्पोरेट दमन चाहते हैं । उन्होंने कहा की कश्मीरी लोगो के कारण ही बाकि के भारतीयों को पता चल रहा है की वे कितनी परेशानी में है। उन्होंने कहा की आपको तय करना होगा की, जब आपको अपना भविष्य तय करने की अनुमति दी जाएगी तो आप किस तरह का समाज चाहते हो ।
इस सेमिनार में अरुंधती रॉय के अलावा मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नौलखा और दिल्ली के मजदूर यूनियन नेता अशिम रॉय ने भी अपने विचार रखे और आजादी के लिए कश्मीरी लोगों के संघर्ष का समर्थन किया । जम्मू कश्मीर कोएलिशन ऑफ सिविल सोसायटी की तरफ से कराए गए इस सेमिनार में कोई मुख्यधारा या अलगाववादी राजनेता मौजूद नहीं था ।

Thursday 21 October 2010

बिहार को तलाश है एक और सम्राट अशोक की

    बिहार में वोट पड़ने शुरू हो गए हैं। पहले चरण में तीन बजे तक ५५ फीसद वोट पड़े। यह आंकड़ा  किसी परिवर्तन या वर्तमान नीतीश सरकार की फिर वापसी का संकेत है कि नहीं मगर इस चुनाव ने यह बहस जरूर चला दी है कि बिहार कितना बदला ? प्राचीन भारत में सुशासन और मजबूत सत्ता का पर्याय था बिहार। अजातशत्रु, बिम्बिसार, सम्राट अशोक का पाटलिपुत्र इतिहास के  अनेक दौर से होकर लालू और नीतीश तक पहुंचा है। आम लोगों से जानने की कोशिश करिए तो एक बात पर सहमति दिखती है कि बिहार अब बदलाव के रास्ते पर है। यह बदलाव क्या सिर्फ राजनीतिक बदलाव है या बिहार फिर शक्तिशाली और सुविकसित मगध बनने की ओर है। इसका आकलन तो वह जनता ही कर पाएगी जो वोट दे रही है मगर यह तय है कि अगर नीतीश के कार्यकाल में लोगों को विकास व बदलाव भाया है तो नतीजे भी वैसे ही आएंगे। जो भी हो मगर बदलते बिहार को फिर तलाश है एक सम्राट अशोक की।

आज यक़ीन करना मुश्किल लगता है कि 1952 तक बिहार देश का सबसे सुशासित राज्य था और इसी बिहार में, जो 270 ईसा पूर्व में मगध था, सम्राट अशोक ने प्रशासन प्रणाली एक ढाँचा विकसित किया था. आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह बहस चल रही है कि क्या सम्राट अशोक ने ही आधुनिक खुली अर्थव्यवस्था की नींव रखी थी. लेकिन यह विडंबना है कि समकालीन राजनीति में उसी बिहार का उल्लेख सबसे अराजक राज्य के रुप में होता है. इसी बिहार ने आज़ादी के बाद का देश का अकेला जनआंदोलन खड़ा किया लेकिन यही बिहार ग़रीबी और कुपोषण से लेकर राजनीति के अपराधीकरण तक के लिए बदनाम भी सबसे अधिक हुआ. हाल के दिनों में आंकड़ो ने बिहार के बदलने के संकेत दिए हैं लेकिन ज़मीनी स्थिति कितनी बदली है यह अभी अस्पष्ट है.

कांग्रेस का दबदबा

बिहार विधानसभा ने लगातार अस्थिर सरकारों का दौर भी देखा है. अन्य उत्तर भारतीय राज्यों की तरह ही बिहार भी लंबे समय तक कांग्रेस के प्रभाव में रहा है. वर्ष 1946 में श्रीकृष्ण सिन्हा ने मुख्यमंत्री का पद संभाला तो वे वर्ष 1961 तक लगातार इस पद पर बने रहे. चार छोटे ग़ैर कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल को छोड़ दें तो 1946 से वर्ष 1990 तक राज्य में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ही सत्तारुढ़ रही. पहली बार पाँच मार्च 1967 से लेकर 28 जनवरी 1968 तक महामाया प्रसाद सिन्हा के मुख्यमंत्रित्व काल में जनक्रांति दल का शासन रहा. इसके बाद 22 जून 1969 से लेकर चार जुलाई 1969 तक कांग्रेस के ही एक धड़े कांग्रेस (ओ) का शासन रहा और भोला पासवान शास्त्री ने मुख्यमंत्री का पद संभाला.

22 दिसंबर 1970 से दो जून 1971 तक सोशलिस्ट पार्टी के लिए कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री रहे और फिर 24 जून 1977 से 17 फ़रवरी 1980 तक कर्पूरी ठाकुर और रामसुंदर दास के मुख्यमंत्रित्व काल में जनता पार्टी का शासन रहा. बिहार को राजनीतिक रुप से काफ़ी जागरुक माना जाता है, लेकिन यह राजनीतिक रुप से सबसे अस्थिर राज्यों में से भी रहा है.

शायद यही वजह है कि वर्ष 1961 में श्रीकृष्ण सिन्हा के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद 1990 तक क़रीब तीस सालों में 23 बार मुख्यमंत्री बदले और पाँच बार राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. संगठन के स्तर पर कांग्रेस पार्टी राज्य स्तर पर कमज़ोर होती रही और केंद्रीय नेतृत्व हावी होता चला गया. लेकिन साफ़ दिखता है कि बिहार की राजनीतिक लगाम उसके हाथों से भी फिसलती रही. जिन तीस सालों में 23 मुख्यमंत्री बदले उनमें से 17 कांग्रेस के थे.

संपूर्ण क्रांति आंदोलन
1973 में गुजरात में मेस के बिल को लेकर शुरु हुआ छात्रों का आंदोलन जब 1974 में बिहार पहुँचा तो वह नागरिक समस्याओं का आंदोलन था. लेकिन धीरे-धीरे इसका स्वरुप व्यापक हो गया. शैक्षिक स्तर में गिरावट, महंगाई, बेकारी, शासकीय अराजकता और राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण के मुद्दों पर शुरु हुआ यह आंदोलन सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नतृत्व में एक देशव्यापी आंदोलन बन गया.
चंद्रशेखर, मोहन धारिया, हेमवती नंदन बहुगुणा, जगजीवन राम, रामधन और रामकृष्ण हेगड़े जैसे दिग्गज नेता कांग्रेस से अलग होकर जेपी के साथ आ गए. इस आंदोलन का असर इतना गहरा था कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को इससे ख़तरा महसूस होने लगा और कहा जाता है कि 26 जून, 1975 को जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाने की घोषणा की तो उसके पीछे संपूर्ण क्रांति आंदोलन एक बड़ा कारण था. इसके बाद जनता पार्टी की सरकार आई लेकिन वह अपने ही अंतर्विरोधों की वजह से जल्दी ही गिर गई. बिहार में भी उसका यही हश्र हुआ.

लालू से नीतीश तक

लालू और नीतीश कुमार की राजनीतिक बुनियाद एक ही है. जेपी के आंदोलन ने बिहार में एक नए नेतृत्व को जन्म दिया. लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार उसी की उपज थे. ये नई पीढ़ी राममनोहर लोहिया और जेपी के प्रभाव में जाति तोड़ो आंदोलन की हामी थी. अस्सी के दशक के अंत आते-आते तक उनकी विचारधारा बदलने लगी थी.
वर्ष 1989 में जब केंद्र में वीपी सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में जनता दल सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया तो बिहार के नेता लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान उसके सबसे बड़े समर्थकों में से थे. इसके बाद बिहार में लालू प्रसाद यादव का उदय हुआ. वीपी सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की वजह से बिहार में जनता दल को जीत मिली और लालू प्रसाद यादव 10 मार्च 1990 को मुख्यमंत्री बने. लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों की वजह से 25 जुलाई 1997 को उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा.
इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री के पद पर बिठा दिया जो छह मार्च 2005 तक लगातार मुख्यमंत्री बनी रहीं. इस बीच राज्य में कांग्रेस एक तरह से हाशिए पर ही चली गई और भाजपा कभी भी ऐसी स्थिति में नहीं आ सकी कि वह अपने बलबूते पर सरकार का गठन कर सके. लालू-राबड़ी के तीन कार्यकालों के बाद बिहार में एक परिवर्तन आया और राष्ट्रीय जनता दल को हार का सामना करना पड़ा.
त्रिशंकु विधानसभा उभरी. लालू प्रसाद के पुराने गुरु जॉर्ज फ़र्नांडिस के साथ उनके पुराने साथी नीतीश कुमार ने जनता दल (यूनाइटेड) बनाकर सत्ता परिवर्तन किया. हालांकि नीतीश को सरकार बनाने के लिए मशक्कत करनी पड़ी. सात मार्च से 24 नवंबर, 2005 तक राज्य में राष्ट्रपति शासन रहा फिर नीतीश कुमार ने 24 नवंबर, 2005 को भाजपा के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री का पद संभाला. उन्होंने बिहार को राजनीति के अपराधीकरण से मुक्ति दिलाने और विकास के रास्ते पर चलाने का वादा किया. और अब २०१० के बिहार विधानसभा चुनाव में वोट भी उसी वादे को पूरा करने के एवज में मांग रहे हैं।

Wednesday 8 September 2010

निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की रिटायरमेंट आयु अब ६० वर्ष होगी

न्यूनतम पेंशन भी ३५० रूपए से बढ़ाकर १००० करने का सुझाव

    पेशन में सुधार के लिए बनी समिति ने निजी क्षेत्र के लिए सेवानिवृत्ति की आयु ६० वर्ष करने के साथ रिटायर होने के बाद के अन्य लाभ भी बेहतर करने की सिफारिश की है । यानी रिटायरमेंट पेंशन न्यूनतम ३५०- ४०० की जगह १००० रूपए और ईपीएस की वेज सीलिंग भी न्यनतम ६५०० से बढ़ाकर १०००० करने की सिफारिश की गई है। समीति की सिफारिश का यह लाभ ईपीएस के दायरे वाले कर्मचारियों को मिलेगा। इसके अलावा सरकार ईपीएस की जगह नई पीएफ-पेशन एन्यूटी योजना ला सकती है या फिर इसी में संशोधन कर सकती है। नई योजना के तहत प्रत्येक कर्मचारी का पीएफ व पेंशन का अलग-अलग खाता होगा। समिति की सिफारिश के मुताबिक ६० साल की उम्र में २३४६७ के वेतन पर रिटायर होने वाले कर्मचारी की मासिक एन्यूटी १९००० से २६००० के बीच होगी। इस वृद्धि के कारण कर्मचारी के पेंशन में योगदान में वृद्धि हो जाएगी। यह ९.४ प्रतिशत से बढ़कर १३.५ प्रतिशत हो जाएगी। ( साभार- टाइम्स आफ इंडिया )

इस खबर को विस्तार से यहां पढ़ें। इस लिंक पर क्लिक करें --- http://epaper.timesofindia.com/Daily/skins/TOINEW/navigator.asp?Daily=TOIKM&showST=true&login=default&pub=TOI&AW=1283936223609

Sunday 5 September 2010

प्रेमानन्द घोष फिर चुने गए कोलकाता प्रेस क्लब के अध्यक्ष

 
कोलकाता प्रेस क्लब के अभी ४ सितंबर को संपन्न हुए चुनाव में पिछले साल के अध्यक्ष रहे वर्तमान बांग्ला दैनिक के पत्रकार प्रेमानन्द घोष ने अपनी लोकप्रियता बरकरार रखी है। उनकी कार्यकारिणी के ज्यादातर पत्रकार चुनाव जीत गए हैं। इस बार बांग्ला दैनिक वर्तमान के प्रेमानन्द घोष ( अध्यक्ष ), आकाशवाणी के अशोक तरु चक्रवर्ती और स्वतंत्र पत्रकार स्यामल राय ( दोनों उपाध्यक्ष ), बांग्ला दैनिक आनन्दबाजार के काजी गुलाम सिद्दिकी ( सचिव ), आनन्द बाजार समूह के अंग्रेजी दैनिक टेलीग्रीफ के देवाशीष चट्टोपाध्याय ( सहसचिव ), कोलकाता के स्थानीय टीवी सीटीवीएन के काजी फजले इलाही ( कोषाध्यक्ष ) जीते हैं। यह प्रेमानन्द की पिछले साल की ही कार्यकारिणी है सिर्फ उपाध्यक्ष पद पर बदलाव हुए हैं।

फेरबदल ज्यादा कार्यकारी सदस्यों के चयन में हुआ है। इस बार कोलकाता के प्रमुख हिंदी अखबारों में से वह कोई भी हिंदी पत्रकार अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाया है जो पिछली बार जीता था। कहा जा रहा है कि इस बार इनमें से कुछ एक को अपनी हार का आभास पहले ही हो गया था। इस लिए इस बार चुनाव मैदान को उन्होंने पहले ही पीठ दिखा दी। पिछली बार के कार्यकारी सदस्य रहे दैनिक जागरण के अरविंद दूबे इस बार उपाध्यक्ष के लिए पर्चा भरे थे मगर जीत हासिल नहीं हो पाई। राजस्थान पत्रिका के कृष्णदास पार्थ कोषाध्यक्ष पद के लिए खड़े थे मगर नतीजे में उन्हें भी हार का ही मुंह देखना पड़ा। ताजा खबर टीवी चैनल से जुड़े पवन बजाज तो कार्यकारी सदस्यता भी हासिल नहीं कर पाए। कुल मिलाकर प्रेस क्लब में निरंतर सक्रिय दिखने वाले प्रमुख स्थानीय हिंदी अखबारों प्रभात खबर, राजस्थान पत्रिका, सन्मार्ग, विश्वमित्र, छपते-छपते, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, भारत मित्र, जनसत्ता के पत्रकार अपनी वह उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाए, जिसकी कि इनसे उम्मीद थी।

ऐसा क्यों हुआ ? इस सवाल का सीधा जवाब किसी के पास नहीं है। दबी जुबान से सभी कह रहे हैं कि हिंदी के पत्रकार कोलकाता प्रेस क्लब में बेहतर सामंजस्य नहीं बना पाए। अगल-थलग पड़ गए। जिसका असर वोट पर पड़ा। यह सही भी है कि चुनाव लड़ने के लिए पहले स्तरीय होना आवश्यक होता है। बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू प्रेस के बीच समरसता बनाकर ही चुनाव जीता जा सकता है। इस समरसता का कोलकाता प्रेस क्लब में सबसे बड़ा उदाहरण एक ही दिखता है। वह हैं- राज मिठोलिया। हिंदुस्तान दैनिक से जुडे़ रहे राज मिठोलिया ने २००४-०५ में कोलकाता प्रेस क्लब के अध्यक्ष पद पर आसीन होकर यह साबित कर दिया कि सभी प्रेस के साथ समरसता बनाकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जा सकती है। राज मिठोलिया इस मायने में इतिहास रच चुके हैं। हिंदी प्रेस का कोई पत्रकार पहली बार कोलकाता प्रेस क्लब का अध्यक्ष बना। उनके बाद से शायद यह समरसता की कड़ी कहीं से बिखरने लगी है। और यह कोलकाता के हिंदी प्रेस के लिए चिंता और आत्ममूल्यांकन का विषय बनना चाहिए।

एक और बात यहां गौर फरमाने लायक है कि रात दस बजे घोषित हुए नतीजे की ज्यादातर हिंदी अखबारों ने खबर भी नहीं छापी। जबकि प्रेस क्लब से संबंधित खबरें इन अखबारों में छपती रहती हैं। यह अलग बात है कि कोलकाता के हिंदी पत्रकारों में मायूसी छाई हुई है। हालांकि अपुष्ट खबरों के मुताबिक हिंदी के कुछ पत्रकार इस बार चुनाव लड़ रहे लोगों की हार से खुश हैं और आरोप लगा रहे हैं कि काम नहीं करने वाले तो हारेंगे ही।

६० साल पहले जब कोलकाता प्रेस क्लब की नींव पड़ी थी तो इसका एक मकसद पत्रकारों के बीच सामाजिक संपर्क बढ़ाना भी था। पेशागत समस्याओं का मिलजुलकर निवारण और भाईचारा भी मकसद था। इसका निर्वाह भी बखूबी हो रहा है। फिर हिंदी प्रेस अचानक अलग-थलग कैसे पड़ गया ? निश्चित तौर पर हिंदी प्रेस की यह अपनी कमियां हैं और आने वाले समय में इस पर गौर फरमाना जरूरी होगा।

इस बार के चुने गए कार्यकारी सदस्य हैं - आजतक हिंदी टीवी के अंशु चक्रवर्ती, बांग्ला दैनिक गणशक्ति के प्रसन्न भट्टाचार्य, एनई बांग्ला टीवी के देवाशीष सेनगुप्त, अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाईम्स के मनोतोष चक्रवर्ती, हिंदी दैनिक दैनिक जागरण के प्रदीप पाल, साकाल बेला से सुगता बनर्जी, बांग्ला दैनिक प्रतिदिन के सुप्रीमो बंद्योपाध्याय, बांग्ला न्यूज चैनल २४ घंटा के तन्मय प्रमाणिक और आकाश बांग्ला टीवी के त्रिदीव चटर्जी ।

Tuesday 24 August 2010

कलाई पर राखी के बदले मौत मिली इस बदनसीब भाई को !


   राखी का पर्व हर भाई-बहने के लिए अहम होता है। बहने उम्मीद करती हैं कि उसका भाई कम से कम राखी बंधवाने तो जरूर ही आएगा। मगर यह नसीब की ही बात है कि किसी को यह पर्व तमाम खुशियां लेकर आता है तो किसी भाई-बहन को यह खुशी नसीब तो होती नहीं उल्टे नियति उन्हें गम के अंधेरे में धकेल देती है। आप राखी की खुशिया मना रहे हैं तो एक कष्ट और करिए। एक उस भाई के लिए अपनी आंखों में दो बूंद आंसू भर लीजिए जिसे अपनी कलाई पर राखी तो नसीब नहीं हुई, बदले में मौत मिली। वह सिर्फ इस कारण कि वह अपनी राखी बंधवाने कोलकाता से अपने गांव बिहार जाना चाहता था मगर उसके दुकान मालिक ने पीटकर मार डाला।


राखी उत्सव के मौके पर बहन से राखी बंधवाने के लिए एक पान की दुकान में काम करने वाला विक्रम घर जाना चाहता था। दुकान का मालिक उसके छुट्टी देने के लिए तैयार नहीं था। उसने छुट्टी की बात सुन कर किशोर को जमकर पीटा। इससे चौदह वर्षीय किशोर की मौत हो गई। पश्चिम बंगाल के हावड़ा स्टेशन के पास गोलाबाड़ी थाना इलाके में 56 नंबर बस स्टैंड के नजदीक यह घटना हुई। यहां बबलू चौरसिया की पान की दुकान में विक्रम राम (14) काम करता था। उसने बिहार स्थित अपने गांव जाने के लिए छुट्टी मांगी थी। बीते तीन महीनों से विक्रम को छुट्टी नहीं दी गई थी। रविवार की रात से ही वह राखी के लिए गांव जाने की जिद कर रहा था। मकान मालिक ने उसकी लाख मिन्नतों के बादजूद छुट्टी देने से साफ मना कर दिया। पुलिस व स्थानीय लोगों की मानें तो विक्रम ने यह तय कर लिया था कि मालिक उसे छुट्टी नहीं देगा तो वह बहन से राखी बंधवाने के लिए नौकरी छोड़ देगा। एक मामूली नौकर यह इस हिमाकत बबलू चौरसिया से बर्दाश्त नहीं हुई। नौकरी छोड़कर घर जाने की खबर मिलते ही चौरसिया ने उसे जमकर पीटना शुरू कर दिया। मार खाकर किशोर बेहोश होकर वहीं गिर गया।


स्थानीय लोगों ने देखा कि विक्रम खून से लथपथ है और उलटी कर रहा है। वह एक दुकान के सामने पड़ा था। इसके कुछ ही देर बाद वह बेहोश हो गया। बेहोशी की हालत में उसे स्थानीय लोग हावड़ा के सदर अस्पताल ले गए जहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। तीन महीने से वह पान की दुकान पर काम करता था। पुलिस ने बबलू को गिरफ्तार कर लिया है। पुलिस सूत्रों का कहना है कि चौरसिया दुकान पर काम करने वाले बच्चों को पीटता रहता था। हावड़ा के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक एसके जैन ने बताया कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट मिलने के बाद मौत का कारण पता चल सकेगा। गिरफ्तारी के बाद दुकान के मालिक ने पुलिस को बताया कि उसने पिटाई नहीं की। किशोर बीमार था, हालत बिगड़ने के बाद उसे अस्पताल में भर्ती किया गया था। और वहीं उसकी मौत हो गई।


कोलकाता के स्थानीय सांध्य बांग्ला अखबारों ने यह खबर छापी है। मामला पुलिस के हवाले है। हो सकता है दुकानदार दोषी पाया जाए और उसे हवालात की हवा खानी पड़े मगर इससे क्या उस बहन कोई दिलासा मिल पाएगी जिसका भाई अब कभी भी राखी बंधवाने नही आ सकेगा। क्या बीती होगी उस बहन और विक्रम के मां-बाप पर जब उन्हें इस मार्मिक हादसे की खबर मिली होगी । यह सिर्फ विक्रम की कहानी नहीं है। बिहार के गरीब घरों के लड़के पश्चिम बंगाल ही नहीं दिल्ली, मुंबई व पंजाब और गुजरात में काम पर जाते हैं और वहीं फंसकर रह जाते हैं। अधिकतर का जीवन तो नारकीय हो जाता है।


हमारे सांसद अपने वेतन पर तो इतना होहल्ला मचाते हैं। चार दिन तक कैबिनेट को इसे राष्ट्रीय संकट जैसे मसले की तरह हल करना पड़ा। क्या हमारे जनप्रतिनिधि देश की ऐसी तमाम समस्याओं से जूझ रही देश की मजबूर और गरीब जनता की खोजखबर लेकर उनके लिए होहल्ला मचाते हैं ? शायद कम ही। तब तो मेरा दावा है कि इस देश के गरीब ऐसे ही मुफलिसी और गुलामी में पिसते रहेंगे। जागो भारत, जागो।

Saturday 21 August 2010

परमाणु दायित्व विधेयक विरोध के नाटक का पटाक्षेप कर अपने वेतन के लिए हंगामा करते रहे सांसद

  १८ अगस्त को मैंने इसी ब्लाग में लिखा था कि संसद में विरोध का नाटक हो रहा है। ( देखिए- कहीं यह विरोध का नाटक जनता को फिर निराश न कर दे ) उस नाटक का आज चरमोत्कर्ष संसद में दिखा। दरअसल आज संसद में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक तो सासंदों का वेतन बढ़ाया गया और दूसरी तरफ परमाणु दायित्व विधेयक में संशोधन को हरी झंडी दिखाई गई। अब परमाणु दायित्व विधेयक के कानून बन जाने की बाधा भी खत्म हो गई है।इस बार संसद को ठप कर देने वाला हंगामा सांसदों के वेतन के मुद्दे पर हुआ। मगर परमाणु दायित्व विधेयक पर विरोध एक उपबंध में एंड शब्द के हटाने तक सीमित रहा। वह विरोध भी सिर्फ वामपंथी व भाजपा सासंदों ने किया। यानी कल तक मोदी को क्लीनचिट देने का आरोप लगाकर इस बिल के मसौदे को पारित कराने में भाजपा और कांग्रेस की सौदेबाजी बताने वाले सांसद ( लालू, मुलायम वगैरह ) आज संसद में सिर्फ अपने वेतन पर ही चिंतित दिखे।
१८ अगस्त को मैंने इसी ब्लाग में विरोध का नाटक लेख में यह बात कहकर यह स्पष्ट करने की कोशिश की थी कि इन दलों ने परमाणु दायित्व विधेयक को गलत तो बताया मगर देश के सामने वह ठोस तर्क नहीं रखे जिसके कारण जनता को समझ में आए कि यह देश के लिए खतरनाक विधेयक है। फिर भी संसद को १८ अगस्त को तीव्र विरोध करके चलने नहीं दिया। आज जब उसमें संशोधन को मंजूरी दी गई तो इन सांसदों को देश और खुद के हित में से अपना हित जरूरी लगा। लगना भी चाहिए मगर जिस मुद्दे को देशहित का मानते हैं उस मुद्दे पर संसद और देश की जनता को गुमराह क्यों किया ? कायदे से आज जब संशोधन विधेयक को मंजूरी दी जा रही थी तब परमाणु दायित्व विधेयक का विरोध कर रहे दलों को फिर सदन नहीं चलने देना चाहिए था या फिर सदन से उठकर चले जाना चाहिए था। सरकार को यह जताना जरूरी था कि- जब आप विपक्ष की बात नहीं सुनेंगे तो हम सदन में बैठकर क्या करेंगे ? वैसे भी इन सांसदों ने और भी दूसरी नौटंकी की। समानांतर सरकार का स्वांग रचा। जब ऐसा कर रहे थे तब पत्रकारों को सदन से हटा दिया ।यानी जनप्रतिनिधि होने का दायित्व तो निभाया नहीं उल्टे जनता को गुमराह किया ? अब इनकी मंशा पर कौन सवाल उठाएगा। एक उदाहरण के तौर पर लें तो पत्रकारों के वेतन के लिए गठित वेतन आयोग तो वेतन में किसी सुधार की सिफारिश देने में वर्षों लगा देता है और उसको लागू होने तक इन सिफारिशों के कोई मायने नहीं रह जाते। यहां बिना किसा आयोग के सांसदों ने महज दो दिन में अपनी तनख्वाह बढ़वा ली। मीडिया का तो जानबूझकर उदाहरण दिया क्यों कि वेतन संस्तुति का यह भी एक मामला है। अगर वेतन का ही मामला संसद में मुद्दा बनता था तो सांसदों को अपने साथ उदाहरण में मीडिया समेत तमाम वेतनमानों की लटकी संस्तुतियों का मामला भी उठाना चाहिए था।

सासंदजी अगर वेतन की गुहार लगाकर आप जनसेवक जनप्रतिनिधि कहला सकते हैं तो देश के बाकी वेतनभोगी क्यों नहीं ? जरूरतें बड़ी हों या छोटी, जरूरतें तो सभी को बेहाल कर रही हैं। क्या इस मुद्दे पर बाकी लोगों के लिए आप जनप्रतिनिधि नहीं हैं ? आपके संसद में कुछ भी कहने या करने की तार्किकता की कसौटी जो भी हो मगर सिर्फ स्वकेंद्रित तो नहीं ही होनी चाहिए।अगर इस वेतनमान को अमेरिकी सांसदों के वेतन की तुलना में नहीं के बराबर मानते हैं तो मीडिया समेत बाकी के बारे में भी तो सोचिए। बहरहाल कैबिनेट ने आप सांसदों की सैलरी में बढ़ोतरी को भी मंजूरी दे दी है। यह 300% की बढ़ोतरी हुई है। यानी सांसदों का वेतन 16 हजार रुपये से बढ़ाकर 50 हजार रुपये कर दिया है फिर भी मांग है कि इसे 80 हजार किया जाए। अब आप ही अपने तार्किक विरोध को कितना तार्किक मान सकते हां जबकि आज ही कैबिनेट ने उस न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल को भी अपनी मंजूरी दे दी । जिसको आप बेहद खतरनाक बता रहे थे। बीजेपी की आपत्ति पर न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल में कुछ संशोधन किया गया। कैबिनेट ने शुक्रवार को विवादास्पद परमाणु दायित्व विधेयक के मसौदे को मंजूरी दे दी जिसमें विपक्षी दलों की चिंताओं को दूर करने वाले प्रावधानों को शामिल करने का प्रयास किया गया है। इससे अब संसद के मौजूदा सत्र में ही इस विधेयक के पारित हो जाने का रास्ता साफ हो गया है।


एंड शब्द का टोटका

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में दो उपबंधों को जोड़ने के लिए अंतिम समय में इस्तेमाल एंड शब्द को वाम दलों और भाजपा की आपत्ति के बाद निकाल दिया गया है। विधेयक पर आम सहमति निर्मित करने की संभावनाओं को तब झटका लगा जब वाम दलों ने 'एंड' का जिक्र होने के मुद्दे पर सरकार की आलोचना की। वाम दलों का दावा है कि दो उपबंधों के बीच शब्द एंड का जिक्र होने से हादसा होने की स्थिति में परमाणु उपकरण के विदेशी आपूर्तिकर्ताओं का दायित्व कुछ कम हो जाता है। भाजपा ने भी वाम दलों की ही तरह यह मुद्दा सरकार के समक्ष उठाया। विपक्षी दलों को आशंका थी कि इस शब्द के इस्तेमाल से परमाणु उपकरण के विदेशी आपूर्तिकर्ताओं का दायित्व कुछ कम हो जाएगा।


बढ़ी सैलरी से नाखुश सांसदों का हंगामा.और ज्यादा वेतन की मांग

सांसदों की वेतन वृद्धि के मुद्दे पर जब सदन में "सांसदों का अपमान बंद करो" और "संसदीय समिति की रिपोर्ट को लागू करो" जैसे नारे गूंजने लगे तो स्पीकर मीरा कुमार को सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी. समाजवादी पार्टी, बीएसपी, जेडी (यू), शिवसेना और अकाली दल के सदस्यों ने संसद में हंगामा किया। आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव और समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव समेत कई सदस्यों ने इस पर संसद में जमकर हंगामा किया। इससे लोकसभा की कार्यवाही दोपहर तक स्थगित करनी पड़ी। इसके बाद लालू - मुलायम दोबारा सैलरी में बढ़ोतरी को लेकर संसद में धरने पर बैठ गए।

हंगामे के कारण पहली बार संसद को दोपहर तक के लिए स्थगित किया गया. प्रश्नकाल के दौरान सासंद अपनी सीटों से उठ कर कहने लगे कि सरकार ने सांसदों का अपमान किया है क्योंकि संसदीय समिति की रिपोर्ट में उनके वेतन को बढ़ाकर 80.001 रुपये प्रति महीने करने की सिफारिश है। यानी सरकारी अधिकारियों को मिलने वाले वेतन से एक रुपया ज्यादा. सांसद चाहते हैं कि सरकार इस रिपोर्ट की सिफारिश के आधार पर ही उनका वेतन बढ़ाए। इससे पहले शुक्रवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उस विधेयक को पारित कर दिया, जिसमें सांसदों के मूल भत्ते को 16 हजार रुपये से बढ़ाकर 50 हजार रुपये करने का प्रावधान है।

कई सरकारी अफसरों के वेतन के मुकाबले सांसदों को मिलने वाले 16 हजार रुपये काफी कम हैं। इससे भारत के विभिन्न राजकीय अंगों, मसलन पुलिस सेवा में वेतन की संरचना के सिलसिले में कई बुनियादी सवाल उभरते हैं। यह भी कि वेतन संरचना के साथ भ्रष्टाचार का क्या संबंध है. दूसरी ओर, एकबारगी 300 फीसदी की वृद्धि की आलोचना भी बेमानी नहीं है। कई हलकों में यह भी पूछा जा रहा है कि अन्य क्षेत्रों की तरह क्या सांसदों के भत्ते में भी नियमित वृद्धि नहीं हो सकती है।

   इस वृद्धि के लिए सरकार को 1 अरब 42 करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने पड़ेंगे. बहरहाल, महंगाई भत्ता बढ़ाने और उनके लिए प्रति वर्ष मुफ़्त हवाई उड़ानों की संख्या 35 से बढ़ाकर 50 करने की मांग को ठुकरा दिया गया है। सांसदों के भत्ते के सवाल पर बने पैनल ने सांसदों के कार्यालय संबंधी खर्चों के लिए भत्ते को 14 हजार रुपये से बढ़ाकर 44 हजार करने का सुझाव दिया था। सरकार ने फिलहाल इसे 20 हजार करने का निर्णय लिया है। मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों ने इस विधेयक पर आपत्ति जताई थी। लोकसभा में राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी सहित विपक्ष के कुछ सदस्यों ने काफ़ी शोरगुल किया था। सिर्फ़ वामपंथी दल सांसदों के भत्ते में वृद्धि का विरोध कर रहे हैं।

Wednesday 18 August 2010

यह विरोध का नाटक कहीं जनता को निराश न कर दे ?

   ठोस विरोध या तकनीकी तौरपर किसी जनहित के मुद्दे पर तार्किकता के अभाव में परमाणु दायित्व विधेयक अमलीजामा पहनाने की यूपीए सरकार की रणनीति सफल हो गई है। अब भाजपा समेत तमाम दलों के तैयार हो जाने से इस विधेयक के पास हो जाने का रास्ता साफ हो गया है। यह वहीं विधेयक है जिसके मुद्दे पर वामपंथी दलों ने केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। आज भी लालू, मुलायम समेत वामपंथी दलों के सांसद हंगामा किए और संसद नहीं चलने दी। क्या इसे विरोध का सिर्फ नाटक समझा जाना चाहिए ? जनता को समझने लायक तर्क चाहिए। इसी तर्क के अभाव में पश्चिम बंगाल में जनता को वाममोर्चा यह समझा नहीं पाई कि इस परमाणु विधेयक से जनता को क्या नुकसान हैं ? नतीजा यह कि बंगाल की जनता के बीच यह चुनावी मुद्दा तक नहीं बन सका और संसदीय चुनावों में वाममोर्चा को करारा झटका लगा।
    पहले संसद में महिला विधेयक पर कुतर्क का हंगामा और इसके बाद बुधवार ( 18 अगस्त ) को परमाणु विधेयक पर जनता के समझ में आने लायक किसी ठोस दलील के अभाव में विरोध की सारी रणनीति के फेल हो जाने को किस नजरिए से देखा जाना चाहिए ? इसमें किसी दल को राजनीतिक फायदा हुआ तो किसी को नुकसान मगर देश की जनता सिर्फ गुमराह होती रही। बिहार और बंगाल को विधानसभा चुनाव सामने हैं। अगर ऐसे मौकों पर जनता को उसके हक की बात बतानें में विरोध कर रहे लोग नाकाम रहे तो इसके मतलब भी साफ हैं। या तो यह विरोध का नाटक है और देश की जनता को गुमराह किया जा रहा है या फिर यह विरोध के लायक कारगर व जनता के समझ में आने लायक मुद्दा ही नहीं ढूंढ पाए विरोध करने वाले। इसमें मुझे नाटक वाली बात ज्यादा सही लगती है। नेता या राजनैतिक दल भले कुछ कहें पर इस पूरे नाटक को टीवी और समाचार माध्यमों से अवगत होने वाली जनता भी अपने हित खोजती है। और वह जब निराश होती है तो बड़ी से बड़ी सत्ता को भी बिखरने में देर नहीं लगती। देखिए कहीं यह परमाणु विधेयक के विरोध का नाटक भी जनता को निराश न कर दे। अगर ऐसा होगा तो इस निराश जनता से क्या कहकर वोट मांगने जाएंगे ? और यह भी सच है कि विरोध में आपकी हार उस जनता को निराश तो करेगी ही जो आपसे बड़ी उम्मीद लगाए बैठी है। संभल जाइए, क्यों कि सामने अब किसानों का भी मुद्दा है। अपने वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर जो एकजुटता संसद में दिखा रहे हैं वही देशहित में भी दिखाइए। आइए अब समझने की कोशिश करते हैं कि परमाणु दायित्व विधेयक क्या है ? और विरोध के मुद्दे क्या हैं ?

परमाणु दायित्व विधेयक -2010

परमाणु दायित्व विधेयक -2010 ऐसा क़ानून बनाने का रास्ता है जिससे किसी भी असैन्य परमाणु संयंत्र में दुर्घटना होने की स्थिति में संयंत्र के संचालक का उत्तरदायित्व तय किया जा सके. इस क़ानून के ज़रिए दुर्घटना से प्रभावित लोगों को क्षतिपूर्ति या मुआवज़ा मिल सकेगा। अमरीका और भारत के बीच अक्तूबर 2008 में असैन्य परमाणु समझौता पूरा हुआ। इस समझौते को ऐतिहासिक कहा गया था क्योंकि इससे परमाणु तकनीक के आदान-प्रदान में भारत का तीन दशक से चला आ रहा कूटनीतिक वनवास ख़त्म होना था। इस समझौते के बाद अमरीका और अन्य परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों से भारत को तकनीक और परमाणु सामग्री की आपूर्ति तब शुरु हो सकेगी जब वह परमाणु दायित्व विधेयक के ज़रिए एक क़ानून बना लेगा। इस विधेयक के आरंभिक प्रारुप में प्रावधान किया गया है कि क्षतिपूर्ति या मुआवज़े के दावों के भुगतान के लिए परमाणु क्षति दावा आयोग का गठन किया जाएगा। विशेष क्षेत्रों के लिए एक या अधिक दावा आयुक्तों की नियुक्ति की जा सकती है। इन दावा आयुक्तों के पास दीवानी अदालतों के अधिकार होंगे।

क्या है विवाद?

इस विधेयक पर विपक्षी दलों ने कई आपत्तियाँ दर्ज की थीं जिसके बाद इसे सरकार ने टाल दिया था और इसे संसद की स्थाई समिति को भेज दिया गया था. अब स्थाई समिति ने अपनी सिफ़ारिशें संसद को दे दी हैं। एक विवाद मुआवज़े की राशि को लेकर था. पहले इसके लिए विधेयक में संचालक को अधिकतम 500 करोड़ रुपयों का मुआवज़ा देने का प्रावधान था लेकिन भारतीय जनता पार्टी की आपत्ति के बाद सरकार ने इसे तीन गुना करके 1500 करोड़ रुपए करने को मंज़ूरी दे दी है। कहा गया है कि सरकार ने कहा है कि वह समय समय पर इस राशि की समीक्षा करेगी और इस तरह से मुआवज़े की कोई अधिकतम सीमा स्थाई रुप से तय नहीं होगी. दूसरा विवाद मुआवज़े के लिए दावा करने की समय सीमा को लेकर था. अब सरकार ने दावा करने की समय सीमा को 10 वर्षों से बढ़ाकर 20 वर्ष करने का निर्णय लिया है। तीसरा विवाद असैन्य परमाणु क्षेत्र में निजी कंपनियों को प्रवेश देने को लेकर था. कहा जा रहा है कि सरकार ने अब यह मान लिया है कि फ़िलहाल असैन्य परमाणु क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए नहीं खोला जाएगा और सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम ही इस क्षेत्र में कार्य करेंगे। विवाद का चौथा विषय परमाणु आपूर्तिकर्ताओं को परिवहन के दौरान या इसके बाद होने वाली दुर्घटनाओं को लिए जवाबदेह ठहराने को लेकर है। विधेयक का जो प्रारूप है वह आपूर्तिकर्ताओं को जवाबदेह नहीं ठहराता. आख़िरी विवाद का विषय अंतरराष्ट्रीय संधि, कन्वेंशन फॉर सप्लीमेंटरी कंपनसेशन (सीएससी) पर हस्ताक्षर करने को लेकर है. यूपीए सरकार ने अमरीका को पहले ही यह आश्वासन दे दिया है कि वह इस संधि पर हस्ताक्षर करेगा लेकिन वामपंथी दल इसका विरोध कर रहे हैं।

क्या है सीएमसी पर हस्ताक्षर करने का मतलब

सीएमसी एक अंतरराष्ट्रीय संधि है जिस पर हस्ताक्षर करने का मतलब यह होगा कि किसी भी दुर्घटना की स्थिति में दावाकर्ता सिर्फ़ अपने देश में मुआवज़े का मुक़दमा कर सकेगा। यानी किसी दुर्घटना की स्थिति में दावाकर्ता को किसी अन्य देश की अदालत में जाने का अधिकार नहीं होगा. वैसे यह संधि थोड़ी विवादास्पद है, क्योंकि इसमें जो प्रावधान हैं, उसकी कोई कानूनी अनिवार्यता नहीं है. उल्लेखनीय है कि सीएसई पर वर्ष 1997 में हस्ताक्षर हुए हैं लेकिन दस साल से भी अधिक समय बीत जाने के बाद इस पर अब तक अमल नहीं हो पाया है।

क्या इसकी कोई समय सीमा है?

  यह भारत का अंदरूनी मामला है कि वह परमाणु दायित्व विधेयक को कब संसद से पारित करता है और कब इसे क़ानून का रुप दिया जा सकेगा। लेकिन यह तय है कि असैन्य परमाणु समझौते के तहत परमाणु तकनीक और सामग्री मिलना तभी शुरु हो सकेगा जब यह क़ानून लागू हो जाएगा। लेकिन ऐसा दिखता है कि भारत सरकार नवंबर से पहले इसे क़ानून का रुप देना चाहती ताकि जब अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत के दौरे पर आएँ तो भारत पूरी तरह से तैयार रहे।

परमाणु संयंत्रों से निजी कंपनियों को दूर रखने की सिफारिश

परमाणु दायित्व विधेयक पर संसद की स्थाई समिति ने दुर्घटना की स्थिति में मुआवजे की सीमा 500 करो़ड रूपये से बढ़ाकर 1,500 करो़ड रूपये करने और निजी कंपनियों को इस क्षेत्र से दूर रखने की सिफारिश की है। बुधवार को हंगामे के बीच दोनों सदनों में पेश की गई समिति की रिपोर्ट के मुताबिक सरकार या सरकारी कंपनियां ही देश में परमाणु संयंत्रों का संचालन कर सकती हैं। समिति के सुझावों को स्वीकार किए जाने की स्थिति में मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने संबंधित विधेयक का समर्थन करने की बात कही है। ऑपरेटर की परिभाषा में संशोधन कर किसी प्रायवेट ऑपरेटर के इसमें शामिल होने की बीजेपी की आशंका का भी समाधान किया गया है।

संसद में विरोध, हंगामा

रिपोर्ट पर बीजेपी के अलावा एसपी, जेडी (यू), आरजेडी, एमडीएमके, एनसीपी और एनसी ने अपनी सहमति व्यक्त की है, जबकि सीपीआई, मार्क्सवादी पार्टी, फॉरवर्ड ब्लॉक ने अपनी असहमति दर्ज कराई है। वामपंथी दलों का आरोप है कि सरकार राष्ट्रपति ओबामा को तोहफ़ा देने के लिए हड़बड़ी कर रही है। लालू, मुलायम, पासवान और लेफ्ट के नेताओं ने आरोप लगाया कि विवादास्पद परमाणु दायित्व बिल पर समर्थन के एवज में मोदी को सोहराबुद्दीन मामले में क्लीन चिट देने की बीजेपी और कांग्रेस में सौदेबाजी हुई है। राज्यसभामें भी इन पार्टियों के सदस्यों ने परमाणु दायित्व विधेयक पर बीजेपी के समर्थन के बदले मोदी को कथित रूप से क्लीन चिट देने का मुद्दा उठाया।

विवादास्पद परमाणु दायित्व बिल को लेकर संसद में संसदीय समिति की रपट पेश किए जाने के बीच एसपी, आरजेडी, लेफ्ट और एलजेपी जैसे दलों ने बीजेपी-कांग्रेस में डील आरोप लगाते हुए संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही नहीं चलने दी। इन पार्टियों का आरोप है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड मामले में सीबीआई से क्लीन चिट दिलाने के एवज में बीजेपी ने कांग्रेस से सांठगांठ की है। राज्यसभा और लोकसभा दोनों की ही बैठक दो बार के स्थगन के बाद पूरे दिन के लिए स्थगित कर दी गई। विभिन्न देशों के साथ परमाणु समझौतों को अमली जामा पहनाने के लिए लाए जाने वाले इस बिल के बारे में समिति के अध्यक्ष टी. सुब्बीरामी रेडडी ने राज्यसभा में रपट पेश की, जबकि लोकसभा में समिति के सदस्य प्रदीप टम्टा ने यह रपट रखी।

Wednesday 11 August 2010

बदल जाएगा मदरसों का मुगलिया पाठ्यक्रम !

    मदरसों को बदलने की कोशिश की जा रही है। मदरसे काफी पुराने पाठ्यक्रम और इस्लामी शिक्षा पद्धति पर ही चल रहे थे।पिछले कुछ समय से मदरसों की भूमिका को लेकर लगातार बहस होती रही है, मदरसों पर चरमपंथ को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं। पाकिस्तान की लाल मस्जिद के मदरसे के छात्रों और सैनिकों के बीच टकराव के बाद यह बहस एक बार फिर तेज़ हुई। मालूम हो कि राजेंद्र सच्चर कमिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा के अवसरों से वंचित हैं।

अब उत्तर प्रदेश सरकार ने जहां नया पाठ्यक्रम नए सत्र से लागू करने का फैसला किया है वहीं पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने मदरसों की पढ़ाई को आज की जरूरतों के हिसाब से बदलना तय किया है।और भी राज्यों के मदरसों में तकनीकी शिक्षा की पहल की जा रही है। भारत सरकार ने मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए एक क़ानून बनाने का प्रस्ताव रखा है जिसका उद्देश्य पाठ्यक्रम और पढ़ाई की व्यवस्था को बेहतर बनाना बताया जा रहा है। सरकार मदरसों को सीबीएसई की तरह केंद्रीय मदरसा बोर्ड के तहत लाने के लिए एक क़ानून पारित करना चाहती है। सरकार का कहना है कि इससे मदरसों की पढ़ाई को आधुनिक और उपयोगी बनाया जा सकेगा ।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित कई लोग इस नए क़ानून की पुरज़ोर हिमायत कर रहे हैं, वहीं इसका विरोध करने वाले भी हैं मगर कुछ मुसलमान धार्मिक नेताओं का कहना है कि धार्मिक अध्ययन के केंद्र मदरसों के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप अनुचित है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की राय

हाल ही में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की हुई बैठक में बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना राबे हसनी नदवी ने कहा कि मदरसों में सरकारी हस्तेक्षेप कुबूल नहीं किया जाएगा। दरअसल मौलाना का ये रूख इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि केंद्रीय सरकार मदरसों के लिए केंद्रीय मदरसा बोर्ड बनाने की तैयारी में है। मौलाना ने कहा कि केंद्रीय मदरसा बोर्ड के प्रस्ताव को हम दोनों शैक्षिक संस्थाओं के लिए हानिकारक मानते हैं। उन्होंने कहा कि मदरसों के जरिए इस्लाम की शिक्षा दी जाती है। इस वजह से उसमें हम किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं चाहते। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने प्रस्तावित सांप्रदायिक हिंसा विरोधी बिल पर असहमति जताई है। बोर्ड के प्रवक्ता अब्र्दुरहीम कुरैशी ने कहा कि प्रस्तावित बिल में पीडित लोगों में पीडित लोगों के लिए राहत और फिर से बात नहीं की गई है। पुलिस अपनी जिम्मेदारी सही ढंग से नहीं निभाती है और ऐसे में दंगे के दौरान बेकसूर लोग फंसते है। उन्होंने ये भी कहा कि लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट में तत्कालीन केंद्र सरकार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है जिस पर बोर्ड को सख्त ऐतराज है। जिन लोगों को अयोध्या विध्वंस के लिए जिम्मेदार माना गया है उनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए।

उत्तरप्रदेश ने मदरसों के मुगलकालीन पाठ्यक्रम को अलविदा कहा

उत्तर प्रदेश के मदरसे अब कुरआन हदीस और दीगर इस्लामी शिक्षा तक सीमित नहीं रहेंगे। उत्तर प्रदेश अरबी फारसी मदरसा बोर्ड ने दीनी मकतबों के पाठ्यक्रमों को पुनरीक्षण कर संशोधित पाठ्यक्रम लागू करने का फैसला किया है। नये मदरसों में अध्ययनरत छात्र माध्यमिक (आलिया) एवं उच्च शिक्षा (उच्चतर आलिया) स्तर पर सामान्य हिन्दी, अंग्रेजी, कम्प्यूटर, भूगोल, सामाजिक विज्ञान एवं टाइपिंग सहित आधुनिक विषयों का अनिवार्य रूप से अध्ययन करेंगे। शासन ने प्रदेश के लगभग तीन हजार से अधिक मदरसों के लिए संशोधित पाठ्यक्रमों की सूची जारी कर दी है।

मदरसा बोर्ड के रजिस्ट्रार असलम जावेद द्वारा 16 जून को अनुमोदित नये पाठ्यक्रम को अनुदानित एवं गैर अनुदानित मान्यता प्राप्त मदरसों में लागू करने का निर्देश दिया है। मदरसा बोर्ड ने बदले हुए पाठ्यक्रम की जानकारी प्रदेश के समस्त अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारियों को उपलब्ध करा दी है। इस नये फरमान से वर्ष 1917 में स्थापित मदरसों में अब मुगलिया पाठ्यक्रमों की विदाई तय है। मदरसा वसीयतुल उलूम के सचिव मौलाना अहमद मकीन का कहना है कि अधिकतर मदरसों में चल रहा पाठ्यक्रम मुगल शासन के मुल्ला निजामउद्दीन का बनाया हुआ है। इसे दर्स निजामी कहते हैं। अब तक चल रहा था मदरसों को यह मुगलकालीन पाठ्यक्रम।

उत्तर प्रदेश अरबी फारसी मदरसा बोर्ड ने सत्र 2010-11 से दीनी मकतबों में पढ़ाए जाने वाले निसाब में परिवर्तन की पहल तेज कर दी है। हालांकि दर्स आलिया के अंतर्गत मदरसों के पाठ्यक्रम में संशोधन करने की शुरुआत वर्ष 2001 में ही की गई थी। 16 जून को 2010 को संशोधित पाठ्यक्रम पर अंतिम मुहर लगाई गई। नये सत्र से मदरसा बोर्ड के मुंशी और मौलवी स्तर के पाठ्यक्रम एवं इनकी अवधि बदल जायेगी। ( इस खबर को विस्तार से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttarpradesh/4_1_6639172_1.html

पश्चिम बंगाल में अब अंग्रेजी माध्यम मदरसे
http://thatshindi.oneindia.in/news/2009/10/16/bengalmadarsaadas.html
पश्चिम बंगाल के मदरसों में जल्द ही शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी कर दिया जाएगा। पश्चिम बंगाल सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री अब्दुस सत्तार ने कहा है कि इसी शैक्षिक सत्र ( सत्र २००९ ) में दस मदरसों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी कर दिया जाएगा. आने वाले कुछ वर्षों में बाकी के 566 मदरसों में इसे लागू किया जाएगा। इन मदरसों में 70 इसी वर्ष से शुरू किए गए हैं जिनमें 34 सिर्फ़ लड़कियों के लिए हैं। यह बात उन्होंने बीबीसी के संवाददाता सुबीर भौमिक से बातचीत में पिछले साल ( शुक्रवार, अक्तूबर 16, 2009 ) कही थी।

सत्तार, जो ख़ुद एक मदरसा में शिक्षक रह चुके हैं, का कहना था कि धार्मिक स्कूलों के पाठ्यक्रम में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया कुछ महीनों से जारी है. पश्चिम बंगाल के मदरसों में आधुनिक विज्ञान और गणित की पढ़ाई पहले की शुरू की जा चुकी है। सत्तार का कहना था कि अमरीका और पाकिस्तान से विशेषज्ञों का दल मदरसों में आए इस बदलाव का अध्ययन कर चुके हैं। इस बदलाव को यहां का मदरसा बोर्ड मानने को तैयार है। पश्चिम बंगाल में मदरसा शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन सोहराब हुसैन की माने तो अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई किए बिना हमारे बच्चों को बेहतरीन शिक्षा नहीं मिल सकती है। आठ करोड़ की जनसंख्या वाले पश्चिम बंगाल में 26 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है जिनमें ज्यादातर ग़रीब किसान या छोटे कारोबारी है जो अपने बच्चों को मदरसों में ही पढ़ने भेज सकते हैं।

मदरसे का इतिहास
http://dialogueindia.in/magazine/article/maradrson-ki-shiksha

मदरसा अरबी भाषा का शब्द है एवं इसका अर्थ है शिक्षा का स्थान। इस्लाम धर्म एवं दर्शन की उच्च शिक्षा देने वाली शिक्षण संस्थाएं भी मदरसा ही कहलाती है। वास्तव में मदरसों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा देने वाले मदरसों को मक़तब कहते है। यहाँ इस्लाम धर्म का प्रारंभिक ज्ञान कराया जाता है। मध्यम श्रेणी के मदरसों में अरबी भाषा में कुरान एवं इसकी व्याख्या, हदीस इत्यादि पढ़ाई जाती है। इससे भी आगे उच्च श्रेणी के मदरसे होते हैं जिन्हें मदरसा आलिया भी कहते हैं। इनके अध्ययन का स्तर बी.ए. तथा एम.ए. के स्तर का होता है। इनमें अरबी भाषा का साहित्य, इस्लामी दर्शन, यूनानी विज्ञान इत्यादि विषयों का अध्ययन होता है। इन उच्च शिक्षा संस्थानों का पाठ्यक्रम दार्से-निजामी कहलाता है। इसे मुल्ला निजामी नाम के विद्वान ने अठारहवीं शताब्दी में बनाया था एवं ये आज भी वैसा ही चल रहा है। उदारवादी एवं कट्टरपंथी मुसलमानों में इस मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है कि क्या इस पाठ्यक्रम को ज्यों का त्यों जारी रखा जाये या परिर्वितत कर दिया जाये।

शुरुआत हजरत मुहम्मद से

मदरसों की शुरुआत हजरत मुहम्मद से ही मानी जाती है। उन्होंने अपनी मस्जिद में मदरसों की स्थापना की थी एवं वे वहाँ इस्लाम के सिद्वांत एवं कुरान जिस रूप में वह उन पर आयद होती थी, पढ़ाया करते थे। विधिवत रूप से मदरसों की स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में बग़दाद में हुई। लगभग इसी समय इजिप्ट में अल-अजहर नामक मदरसा प्रारम्भ हुआ जो अब विश्व विख्यात इस्लामिक विश्वविद्यालय बन चुका है।

भारतवर्ष में मदरसों की शुरुआत

भारतवर्ष में मदरसों की शुरुआत मुस्लिम बादशाहों के समय से ही हो गई थी। सन् 1206 में जब दिल्ली मे मुस्लिम सुल्तानों के शासन की स्थापना हुई तभी मदरसे भी स्थापित किये गये। प्रारम्भ में इनकी शिक्षा का ढांचा इस प्रकार का रखा गया ताकि शासन के विभिन्न पदों के लिए प्रशिक्षित व्यक्ति मिल सकें। धीरे-धीरे मुसलमान शासकों की अनुकम्पा से मदरसे सम्पूर्ण उत्तर भारत में स्थापित हो गये। अकबर के शासन काल में फतेहउल्ला नामक विद्वान मदरसों की शिक्षा का प्रमुख था एवं उसने पाठ्क्रम में भूगोल, ज्योतिष, भौतिक शास्त्र, दर्शन शास्त्र इत्यादि विषय शामिल कराये। किन्तु औरंगजेब के काल में यह सब बदल दिया गया। उसने इस्लामी विद्वानों की एक टीम बनाकर इस्लामी कानूनों का एक वृहद संग्रह तैयार कराया जिसे फतवा-ए-आलमगीरी कहा गया। लखनऊ में उसने मुल्ला निजामुद्दीन को एक बड़ी इमारत दान दे दी जिसमें एक मदरसा स्थापित किया गया जो फिरंगी महल नाम से आज भी प्रसिद्घ है।

सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् भारतवर्ष से मुस्लिम हुकुमत खत्म हो गई एवं उलेमाओं को यह डर सताने लगा कि अंग्रेजों के प्रभाव एवं नई शिक्षा प्रणाली के कारण साधारण मुसलमानों में इस्लाम का प्रभाव कम हो जायेगा। अत: उन्होंने 1866 में देवबंद में दारुल उलूम की नींव डाली। उसके पश्चात् लखनऊ में नदावत-अल-उलेमा नाम का एक और मदरसा प्रारंभ हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में देवबंद का दारुल उलूम एवं लखनऊ के फिरंगी महल तथा नदावत-उल-उलेमा इस्लामी शिक्षा एवं अरबी-फारसी परम्पराओं के प्रमुख केंद्र बन गये। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अत्यंत वफादार एक अन्य मुस्लिम विद्वान सर सैयद अहमद खान ने 1873 में अलीगढ़ में मदसरातुल उलूम प्रारंभ किया जो बाद में मोहमडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज एवं तत्पश्चात् अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बन गया। सर सैयद अहमद खान का मुसलमानों की शिक्षा के विषय में देवबंदियों से विपरीत विचार था। सर सैयद मुसलमानों की शिक्षा को केवल कुरान, हदीस एवं अरबी भाषा तक सीमित नहीं रखना चाहते थे। उन्होंने अलीगढ़ विश्वद्यिालय के पाठ्यक्रम में समस्त आधुनिक पाठ्यक्रमों को सम्मिलित कराया किन्तु एक बिन्दु पर ये दोनों समान विचार रखते थे एवं वह है मुसलमानों की अलग पहचान। यह विचार ही आगे चलकर द्विराष्ट्र के सिद्घांत का जनक बना जिसकी परिणति देश के विभाजन के रूप में हुई।

आजाद भारत के मदरसे

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बनाये गये संविधन में अल्पसंख्यकों की शिक्षा संस्थाओं को विशेष सुविधाएं दी गईं अत: मदरसों की संख्या में विस्तार हुआ। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता काजी मुहम्मद अब्दुल अब्बासी ने सन् 1959 उत्तर प्रदेश में दीनी तालिमी काउंसिल की स्थापना की जिसका उद्देश्य प्रत्येक मुसलमान बालक को प्राइमरी शिक्षा के स्तर पर इस्लाम की बुनियादी शिक्षा देना था। अब्बासी का विचार था कि सरकारी स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा हिन्दू धर्म पर आधरित है एवं इस्लामी परम्पराओं के विरूद्घ है। काउंसिल मदरसों के लिए कोई सरकारी मदद लेने के भी खिलाफ थी।

गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार असम में 721 मदरसों में 120000, गुजरात में 1825 मदरसों में 120000 छात्र, कर्नाटक में 961 मदरसों में 84864, केरल में 9975 मदरसों में 738000, मध्य प्रदेश में 6000 मदरसों में 400000 एवं राजस्थान में 1780 मदरसों में 25800 छात्र शिक्षा पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में 15000 मकतब एवं 18000 मदरसे तथा बिहार में 3500 मदरसे कार्य कर रहे हैं। अन्य राज्यों की स्थिति भी इसी प्रकार हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार कुल मुस्लिम बच्चों में से चार प्रतिशत ही मदरसों में जाते हैं जबकि कुछ अन्य अनुमानों के अनुसार यह संख्या पच्चीस से तीस प्रतिशत तक है।

सवालों के घेरे में मदरसों की पुरानी शिक्षा पद्धति

मदरसों में जो पाठ्यक्रम लागू किया जाता है वह सैकड़ों वर्ष पुराना है। उसका सम्बन्ध अरब एवं फारस में प्रचलित उस समय की शिक्षा प्रणाली से है। आज भी मदरसों में यही समझा जाता है कि संसार का समस्त ज्ञान अरबी, फारसी के साहित्य में सिमटा हुआ है एवं उससे बाहर निकल कर कुछ भी पढऩे या समझने की आवश्यकता नहीं हैं। इन मदरसों के चलाने वालों ने इस तरफ कभी भी ध्यान नहीं दिया कि शिक्षा का एक उद्देश्य तालिब इल्म को रोजगार मुहैया कराना भी है। प्रसिद्घ विद्वान वहीदुद्दीन खान ने एक स्थान पर लिखा है कि यद्यपि भारतवर्ष में लाखों मदरसे शिक्षा देने के काम में लगे है किन्तु उन्होंने मुस्लिम बच्चों में कभी भी एक विस्तृत दृष्टिकोण विकसित करने का प्रयत्न नहीं किया। प्रसिद्घ लेखिका शीबा असलम फहमी ने मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा को मुसलमानों में गरीबी पनपाने वाली वजूहात में से एक वजह कहा है।

ईसाई समाज अपने स्कूल में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ गणित, साइंस, समाजयात, भाषाएं, कला, संगीत सभी कुछ पढ़ाता है और मिशनरी स्कूलों में अपने बच्चे भेजने के लिए हिन्दू- मुसलमान सभी लालायित रहते हैं। सिक्ख समाज ने भी इसी तरह के उम्दा, सापफ-सुथरे और आधुनिक स्कूल खोल कर अपने धर्म को तरक्की की राह का रोड़ा नहीं बनाया। यह सवाल उठाकर शीबा के कहना है कि हमारे आलिमों का क्या बिगड़ जाता अगर मुसलमान समाज भी अपने दीन की तालीम को तरक्क़ी से जोड़ कर एक ऐसा निजाम पैदा करता जो कि रोजगार और खुशहाली लाता? 21वीं सदी में भी भारतीय मुसलमान के सामने वह सामान्य लक्ष्य नहीं रहे जो उसे इस युग में जी रहे आम आदमी की पहचान दें। अगर बांग्लादेश जैसे छोटे और नये राष्ट्र में जीव-वैज्ञानिक, भूगर्भ-वैज्ञानिक, कृषि-वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, व्यवसायिक विशेषज्ञ, कानूनदां, इतिहासकार, गणितज्ञ आदि हर विशेषज्ञ मुसलमान ही होता है तो फिर भारत में क्यों नहीं हो सकता ? शीबा कहतीं हैं कि- '' विज्ञान-तकनीक से इन्सान को जो राहतें मिलती है उससे एक उपभोक्ता के तौर पर मौलाना परहेज नहीं करते। इंजीनियरिंग, चिकित्सा, आधुनिक कृषि, मोटर-ट्रेन-हवाई जहाज, फोन, टी.वी. इन्टरनेट, कम्प्यूटर, फ्रिज, वाशिंग मशीन, ए.सी. या स्वचालित हथियार जैसे किसी भी आधुनिक यंत्र या सहूलत से दूरी न रखने वाले मौलाना, अपने युवाओं को इन नई खोजों, अविष्कारों में नहीं लगाते। इल्म से होने वाली इन तरक्किय़ों में मुस्लिम समाज का योगदान नहीं के बराबर है जबकि मुसलमान इन सहूलियत के दुनिया में दूसरे नम्बर के उपभोक्ता हैं।"

Monday 9 August 2010

हिंसा व हत्याएं रोकें, बंगाल को शांति की राह दिखाने वाला बनने दीजिए - ममता की माओवादियों से अपील


लालगढ़। पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में आयोजित रैली में रेल मंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार से माओवादियों के ख़िलाफ़ अभियान बंद करने और शांतिपूर्ण तरीके से बातचीत करने को कहा है। बंगाल को पूरे देश के लिए एक राह दिखाने वाला बनने दीजिए। हिंसा और हत्याएं रोकिए।

   उनके बयान राजनीतिक रूप से संवेदनशील हैं क्योंकि ममता बनर्जी केंद्र सरकार में मंत्री हैं और केंद्र सरकार ने हाल में माओवादियों के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ा है.ममता बनर्जी ने कहा,''आज से ही शांति प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए. बंगाल इस संबंध में पूरे भारत को रास्ता दिखा सकता है. हिंसा और हत्याएँ बंद होनी चाहिए. यदि आपको मुझसे कोई समस्या है तो मेधा पाटकर और स्वामी अग्निवेश जैसे लोग पहल कर सकते हैं. लेकिन बातचीत शुरू होनी चाहिए.''

ममता ने कहा,''मैं वादा करती हूँ कि जंगलमहल के विकास के लिए जो भी आवश्यक होगा, वो मैं करूंगी. यदि ज़रूरी हुआ तो मैं यहाँ रेलवे फैक्ट्री स्थापित करने पर भी विचार किया जा सकता है.''आज से ही शांति प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए. बंगाल इस संबंध में पूरे भारत को रास्ता दिखा सकता है. हिंसा और हत्याएँ बंद होनी चाहिए. यदि आपको मुझसे कोई समस्या है तो मेधा पाटकर और स्वामी अग्निवेश जैसे लोग पहल कर सकते हैं. लेकिन बातचीत शुरू होनी चाहिए.ग़ौरतलब है कि इस रैली को माओवादियों का 'पूरा समर्थन' हासिल था.

ममता ने कहा कि माओवादी समस्या का हल बातचीत, शांति और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से हो सकता है. उन्होंने कहा, ‘हमें बताइए कि कहां और कब आप बातचीत के लिए बैठना चाहते हैं. हमलोग शांति के लिए बातचीत करना चाहते हैं. हम लोकतंत्र की बहाली और आतंक मुक्त भारत चाहते हैं.’ माकपा पर आतंक से फायदा उठाने का आरोप लगते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं आपलोगों से हाथ जोड़कर कह रही हूं कि अब हत्याओं की राजनीति नहीं की जानी चाहिए. मैं मौत पर राजनीति नहीं चाहती हूं.’ ममता ने कहा, ‘अगर माकपा का आदमी मारा जाता है, वह एक परिवार से ताल्लुक रखता है. अगर एक माओवादी मरता है तो वह भी एक परिवार से संबंध रखता है और अगर तृणमूल का एक आदमी मरता है तो वह भी किसी परिवार का सदस्य होता है.’

माओवाद प्रभावित लालगढ़ में रेल मंत्री ने रैली को संबोधित करते हुए कहा, ‘अगर आप हिंसा और हत्याएं रोकने को तैयार हो जाते हैं तो बातचीत शुरू हो सकती है. संयुक्त अभियान भी वापस ले लेना चाहिए.’ उन्होंने माओवादियों से रेल सेवा बाधित नहीं करने का आग्रह किया और कहा, ‘अगर ट्रेन सेवाएं रोज बाधित की गईं तो मैं काम कैसे करूंगी? कभी कुछ लोग आपके नाम पर यह करते हैं तो कभी आप ऐसा करते हैं.’ इस साल जनवरी में झाड़ग्राम में आयोजित अपनी रैली का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने इलाके में दो ट्रेनें शुरू की हैं.



पीसीपीए नेताओं की गिरफ्तारी

पुलिस ने रैली स्थल के पास से पीसीपीए के चार नेताओं को गिरफ्तार किया। सुशील महतो को पुलिस ने दोबारा गिरफ्तार किया है। पहले वह पुलिस हिरासत से भाग निकला था। तीन दूसरे नेताओं को वसूली के आरोप में पकड़ा गया है। मगर बीबीसी संवाददाता अमिताभ भट्टासाली का कहना है कि पीपीसीए के नेतृत्व में बड़ी संख्या में लोग रैली में आकर शामिल हुए लेकिन भारी पुलिस बल के बावजूद किसी भी नेता को गिरफ़्तार नहीं किया गया. अमिताभ भट्टासाली का कहना है कि वो लालगढ़ रैली में शामिल हुए लगभग 10 से 12 आदिवासियों के जत्थे के साथ काफ़ी दूर तक चले. इनका नेतृत्व पीसीपीए के सचिव मनोज महतो कर रहे थे और उन्होंने कई पुलिस नाकों को पार किया लेकिन पुलिस ने उनसे कुछ नहीं कहा. मनोज महतो का कहना था,''मैं पुलिस को चुनौती देता हूँ कि वो मुझे गिरफ़्तार करे. हमने आदिवासियों को इस रैली में शामिल होने के लिए प्रेरित किया क्योंकि ये राज्य के आतंक के ख़िलाफ़ है। मालूम हो कि पश्चिम बंगाल के पुलिस प्रमुख भूपिंदर सिंह ने घोषणा की थी कि माओवादियों से जुड़े पीपुल्स कमेटी अगेस्ट पुलिस एट्रोसिटीज़ (पीसीपीए) के नेता यदि रैली में दिखाई दिए तो उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाएगा।



राजनीतिक मकसद

जंगलमहल तीन जिलों (पश्चिमी मिदनापुर, बांकुड़ा और पुरुलिया) में फैला पश्चिम बंगाल का वह इलाका है, जो वामपंथियों का गढ़ है और नक्‍सलियों के प्रभाव में आ चुका है। 2006 के विधानसभा चुनाव में माकपा को इस इलाके की 18 विधानसभा सीटों में से ज्‍यादातर पर जीत मिली थी। 2009 लोकसभा चुनाव में भी यहां तृणमूल को कामयाबी नहीं मिली थी। इसलिए ममता बनर्जी इस इलाके में अपनी पैठ मजबूत कर आने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहती हैं।



ममता की मजबूती

रैली को नक्सलियों ने पूरा समर्थन दिया है, जो ममता के लिए उत्‍साहजनक संकेत है। नक्सली नेता किशनजीके अनुसार रैली गैरराजनीतिक है क्योंकि इसे संघर्ष विरोधी मंच के बैनर तले आयोजित किया गयाहै। और इसीलिए नक्सलियों ने इसे समर्थन दिया है।

ममता बनर्जी ने सोमवार को पिछले महीने नक्सलियों के प्रवक्ता चेरुकुरी राजकुमार उर्फ आजाद को मारने के लिए अपनाए गए तरीके की निंदा की। नक्सलियों के प्रभाव वाले पश्चिमी मिदनापुर जिले में एक विशाल रैली में उन्होंने कहा, 'मैं महसूस करती हूं कि जिस तरह आजाद को मारा गया वह ठीक नहीं है।' उन्होंने नक्सलियों के इस आरोप का लगभग समर्थन किया कि आजाद को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया। गौरतलब है कि पुलिस ने दावा किया था कि नक्सलियों के तीसरे नंबर के नेता आजाद की आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले के जंगलों में मुठभेड़ में मौत हो गई। बनर्जी ने कहा कि नक्सलियों और सरकार के बीच वार्ता के मध्यस्थ सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश ने आजाद को वार्ता के लिए तैयार किया था। संत्रास विरोधी फोरम के तहत आयोजित एक गैर राजनीतिक रैली में बनर्जी ने कहा, 'जो हुआ वह ठीक नहीं है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति आजाद ने विश्वास जताया था।'

नक्सल समर्थन जनजातीय संस्था पुलिस संत्रास विरोधी जन समिति (पीसीएपीए) ने इस रैली को समर्थन दिया। इस रैली में स्वामी अग्निवेश, मेधा पाटकर और नक्सल समर्थक लेखिका महाश्वेता देवी जैसे कई सामाजिक कार्यकर्ता उपस्थित थे। केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के दूसरे सबसे बड़े घटक की नेता बनर्जी ने आजाद की मौत पर शोक जताया। स्वामी अग्निवेश ने आजाद के मारे जाने की घटना की न्यायिक जांच की मांग करते हुए आरोप लगाया कि प्रशासन ने अपने संचार माध्यमों का इस्तेमाल करके नक्सली नेता का पता लगाया और उसे मार दिया। वहीं नक्सलियों का कहना है कि आजाद और एक अन्य कार्यकर्ता हेमचंद पांडे को पुलिस ने गत एक जुलाई को नागपुर से उठाया था और अगले दिन आदिलाबाद में मार डाला था। ( साभार-बीबीसी, आजतक, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण व एजंसियां )

Friday 2 July 2010

गूगल के मेल में छिपा है किराये का खेल !

   मुफ्त वेबमेल सेवा जीमेल, पीकासा वेब एल्बम्स और गूगल डॉक्स जैसी बेहतरीन एप्लीकेशंस देने वाली कंपनी गूगल इंक आपको कभी गुगली भी मार सकती है। दरअसल, कंपनी की कई एप्लीकेशंस के बारे में यह भ्रांति है कि इन सेवाओं में मुफ्त असीमित स्टोरेज है। लेकिन, ऐसा है नहीं। जब आप इन एप्लीकेशंस में तयशुदा स्टोरेज के पास पहुंच जाते हैं तो आपको पता चलता है कि इसके आगे स्टोरेज करने के लिए आपको सालाना रेंटल यानी किराया देना होगा। जीमेल ऐसी ही एक सेवा है। जीमेल में 7जीबी से ज्यादा स्टोरेज के लिए आपको सालाना रेंटल देना होगा।
जीमेल में अब 7जीबी तक ही स्टोरेज मुफ्त है। इसके बाद अगर आप अपनी स्टोरेज क्षमता बढ़ाना चाहते हैं तो इसके लिए डॉलर खर्च करने पड़ेंगे। 20 जीबी अतिरिक्त स्टोरेज लेने के लिए ग्राहकों को 5 डॉलर सालाना खर्च करने होंगे। इस बारे में बिजनेस भास्कर ने जब गूगल से बात की तो उसके प्रवक्ता ने कहा कि यह निर्णय 2009 के अंत में हुआ था और यह तब से ही प्रभावी है। हालांकि प्रवक्ता के इस दावे के उलट यह बात सही है कि भले ही गूगल का यह फैसला कभी का भी हो, भारत में तो अधिकांश जीमेल उपभोक्ताओं में यही भ्रांति है कि जीमेल में स्टोरेज किसी भी सीमा तक पूरी तरह से मुफ्त है।
दरअसल, जब किसी ग्राहक की स्टोरेज क्षमता 7जीबी के आसपास पहुंच जाती है तब जाकर गूगल की तरफ से इस बारे में जानकारी दी जाती है। ऐसे में ग्राहक बेहद पसोपेश की स्थिति में होता है कि वह अपना स्टोरेज किस तरह खाली करे। खाली करने के झंझट से बचने के लिए ग्राहक मजबूरी में अतिरिक्त स्टोरेज की सुविधा खरीदता है।
वहीं, अगर ग्राहकों को पहले से ही यह पता हो कि 7जीबी के बाद स्टोरेज के लिए चार्ज देना होगा तो वह शुरू से ही उस हिसाब से जीमेल का इस्तेमाल करेगा। इस बारे में पूछे जाने पर गूगल इंडिया के प्रवक्ता ने बताया कि जीमेल में 7 जीबी से कुछ ज्यादा स्टोरेज मुफ्त है। इसके बाद अगर कोई ग्राहक स्टोरेज क्षमता बढ़ाना चाहता है तो उसके लिए सालाना कई प्लान हैं। प्रवक्ता ने बताया कि नवंबर 2009 में इस बाबत निर्णय किया गया था।
इस निर्णय के मुताबिक 20 जीबी की अतिरिक्त स्टोरेज क्षमता के लिए ग्राहकों को 5 डॉलर सालाना का शुल्क अदा करना होगा। इसके अलावा अगर ग्राहक 80 जीबी का अतिरिक्त स्टोरेज स्पेस चाहते हैं तो उन्हें इसके लिए 20 डॉलर सालाना खर्च करने होंगे।

http://www.bhaskar.com/article/DEL-google-email-service-1115021.html

Wednesday 19 May 2010

किस जमीन की तलाश है समाजवादियों को !

    लोहिया से मुलायम तक समाजवादियों का सफर निरंतर बिखराव का ही रहा है। लोहिया से जयप्रकाश तक तो विचारधारा की लौ टिमटिमाती रही। आगे के सफर में यह मशाल अब नए दौर के समाजवादी नेता मुलायम सिंह के हाथों में है। उनकी समाजवादी पार्टीं तो है, मगर समाजवादी विचारधारा के लोग एकजुट नहीं है। अगर इसे आरोप न समझा जाए तो मुलायम सिंह समाजवादी कम मगर यादवों के नेता ज्यादा समझे जाते हैं। ऐसा होने की की मजबूरियां भी हो सकती हैं। समाजवादी चिंतक इसके कई कारण मानते हैं। पहली बात तो यह हैं कि भारत में किसी नेता की पहचान उसकी जमात से ज्यादा है। उसके लोग कितना तादाद में हैं। आजादी के बाद से भारत में धर्म, क्षेत्र और जाति ने नेता और दलों की पहचान तय करने में प्रमुख भूमिका निभाई है। दरअसल लोगों को लुभाने के समाजवादी आर्थिक सिद्धांत कारगर नहीं रहे। समाजवादी नेता अब लोगों को महज विचारधारा से प्रभावित करने में असफल होने लगे। यह बात काफी हद तक वामपंथियों पर भी लागू होती है। लिहाजा संकीर्ण निजी हितों को हथियार बनाना इन नेताओं की मजबूरी हो गई। शायद इसी वजह से मुलायम समाजवादी से ज्यादा पिछड़े तबके ( मूलत: यादवों) के नेता बनकर उभरे। यह उनकी अलग सामाजिक पहचान बनी है जहां समाजवाद दम तोड़ता नजर आता है। भारतीय राजनाति में टिके रहने का यह अलग कारगर राजनीतिक हथियार है जिसे अन्य नेता मसलन मायावती, लालू यादव, रामविलास पासवान वगैरह आजमा रहे हैं। इस नई विधा ने समाजवादियों की लोहिया की उस आर्थिक नीति को ठंडे बस्ते में डाल दिया है, जिसने कभी किसानों, मजदूरों व समाज के अन्य दबे-कुचले व पिछड़े तबके को सर्वाधिक आकर्षित किया था। दरअसल तब समाजवाद उस सामूहिकता का प्रतीक था जो अन्याय के खिलाफ लड़ता था।

धर्म और जाति की अवधारणा पर खड़े दल संकीर्ण विचारधारा को जन्म देते हैं। ये उस समाजवाद के विरोध में खड़े होते हैं, जो आपसी सामाजिक सहयोग की अपेक्षा रखते हैं। नतीजा यह कि समाजवादियों को भी जनप्रिय बनने के हथकंडे अपनाने पड़े। जनप्रिय होने का यह रास्ता समाजवादियों को उस संप्रदायवाद के नजदीक ले जाता जो समाजवाद के लिए वर्ज्य है। सामाजिक न्याय की लड़ाई एक पंथ या समुदाय के हित के रास्ते पर चलकर लड़ी नही जा सकती। मतलब समाजवाद और लोकप्रियता दोनों को साथ लेकर चलने से गरीबों में भ्रम व विभाजन की स्थिति पैदा होती है। यही वह दो बुराईयां हैं जो एक दूसरे का विरोध करतीं हैं। अब गरीबी निवारण की नई अवधारणा जन्म लेती है। इसके तहत अमीर पगार बढ़ाकर सामाजिक अन्याय या गरीबी को कम कर सकते हैं। समाजवादियों के यह मान लेने से कि आय बढ़ने और धन वितरण से गरीबी कम की जा सकती है, समाजवादी उस सिद्धांत को नकार देते हैं जिसमें कहा गया है कि गरीबी आदमी की ही गलतियों का नतीजा है। और गरीबी तब बढ़ती है जब धीमी आर्थिक वृद्धि व पूंजी की अपर्याप्त उपलब्धता हो। लोहिया से चलकर मुलायम तक पहुंचे समाजवाद का यह वह नया चेहरा है जिसे अभी भी उस जमीन की तलाश है जिसमें समाजवाद भी जिंदा रह सकें। मगर वजूद की इस लड़ाई में समाजवादी अभी भी बिखराव ही झेल रहे हैं।

स्वतंत्रता के बाद जिसे समाजवादी आंदोलन के नाम से जाना गया, उसका सबसे ज्यादा श्रेय राममनोहर लोहिया को जाता है। लोहिया कभी भी मार्क्सवादी नहीं रहे। मार्क्स से वे प्रभावित जरूर थे। जो समाजवादी मूलतः मार्क्सवादी थे, उन्होंने स्वतंत्रता के बाद मार्क्सवाद का परित्याग कर दिया। कोई धर्म की तरफ चला गया, किसी ने विनोबा की शरण ली और जो बचे रह गए, वे क्रमशः लुंज-पुंज होते गए और अंततः किसी काम के नहीं रहे। लोहिया ने समाजवाद के चिराग को रोशन रखा और उसमें नए-नए आयाम जोड़ने का काम किया। लोहिया के निधन के बाद जयप्रकाश ने भी इस आंदोलन को आगे बढ़ाया। गैरकांग्रेसवाद को उस अंजाम तक पहुंचाया जहां लोहिया भी समाजवादियों को नहीं ले जा पाए थे। जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति का ही नतीजा था कि आपातकाल में सभी गैरकांग्रेसी एकजुट हुए और १९७७ में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में जनता पार्टी की गैर कांग्रेसी सरकार बनी। यहीं से समाजवादियों के उस पतन का इतिहास भी शुरू होता है जो आज तक जारी है। जनता पार्टीं टूटी तो समाजवादी भी बिखर गए। बाद के समय में मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी का गठन को कर लिया मगर समाजवादी विचारधारा को छिन्न-भिन्न होने से नहीं बचा पाए। फिलहाल मौजूदा दौर के समाजवादी नेता मुलायम सिंह ही हैं।

कोलकाता में समाजवादी

कोलकाता में २१ मई से समाजवादियों का एक जमावड़ा होने जा रहा है। पहले राजबब्बर फिर अमरसिंह प्रकरण के बाद बिखराव झेल चुके मुलायम अब कोलकाता में समाजवादी पार्टी का आधार तलाशने आ रहे हैं। अमरसिंह प्रकरण का कोलकाता पर भी असर पड़ा । कोलकाता में विजय उपाध्याय सपा छोड़कर तृणमूल चले गए हैं। मुलायम सिंह ने अब पश्चिम बंगाल सोशलिस्ट पार्टीं के अध्यक्ष किरणमय नंद को समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया है। किरणमय नंद पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार में मत्स्य पाल मंत्री हैं। विजय उपाध्याय के समय से पश्चिम बंगाल के समाजवादियों में जो असंतोष है, उसे क्या कोलकाता में हो रहा सम्मेलन खत्म कर पाएगा। श्यामधर पांडेय जैसे तमाम ऐसे समाजवादी हैं जो लंबे अरसे से पार्टीं से जुड़े हैं मगर हमेशा उनको नजरअंदाज किया गया है। कहा यह जा रहा है कि अगर किरणमय नंद सूझबूझ से काम नहीं लेगें तो कोलकाता में भी समाजवादी और बिखर जाएंगे। आखिर कब और कौन रोकेगा समाजवादियों का बिखराव ? यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि मुलायम सिंह यादव किस बात को तरजीह देते हैं। अगर उनके लिए सिर्फ कुछ व्यक्ति ही महत्वपूर्ण होंगे तो उनकी मनमानी से कोलकाता में समाजवादी पार्टीं की जमीन भी खिसकनी भी तय है। जैसा कि पहले भी हुआ है। सभी को साथ न लेकर का नतीजा यह थी कि तमाम पुराने समाजवादी भी कोलकाता में निष्क्रिय व उदासीन थे। अब उनमें भी आस जगी है। समाजवाद की मशाल तभी जलती रहेगी जब कारवां भी साथ होगा। बिखरना तो इतिहास रहा है समाजवादियों का।

रुका नहीं समाजवादियों का बिखराव

दरअसल पहला आम चुनाव लड़ने वाली देश की जितनी भी प्रमुख राजनीतिक पार्टियां थीं, उन सभी का आजादी के बाद विभाजन हुआ और समाजवादियों में बिखराव सबसे ज्यादा हुआ। 1967 के बाद सत्ता से स्वभाव बदला। नीति, नैतिकता, मान्य मूल्य प्रभावित हुए। 1977 के बाद समाजवादियों में और बिखराव हुआ और इसके नेताओं ने सुविधा एवं सहूलियत के अनुसार नीति स्वीकार करने का काम किया। आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस के भीतर रह कर काम करने वाली सोशलिस्ट पार्टी पहली बार 1955 में टूटी जब राम मनोहर लोहिया ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनाई। दोनों पार्टियों ने 1957 और 1962 का चुनाव अलग अलग लड़ा। फिर 1965 में मिल गईं और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बनी जो उसी साल फिर टूट गई। 67 का चुनाव इन्होंने अलग अलग लड़ा। सोशलिस्ट फिर 1971 में एकजुट हुए लेकिन कुछ राज्यों में इनके छोटे छोटे गुट रह गए। इन सभी ने 1977 में जनता सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्हीं समाजवादियों की जड़ से मौजूदा समाजवादी पार्टी, जनता दल सेक्युलर, जद यू निकली हैं। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में व्यक्तिगत खुन्नस, आकांक्षा और एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रह टूटन का कारण बना। उन्होंने कहा कि सोशलिस्ट पार्टियों के नेता समय के अनुसार बदले नहीं और वे दूसरी पार्टियों में जाते रहे।

भारतीय राजनीति और समाजवादी

पहले सोशलिस्ट मूवमेंट और फिर जेपी आंदोलन ने इस देश में इतिहास रचा। इन्हीं मूवमेंट और आंदोलनों की उपज हैं लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव। शरद यादव सोशलिस्ट पार्टी में तो नहीं थे, लेकिन उन दिनों एक छात्र नेता के रूप में मध्यप्रदेश में समाजवाद की अलख जगाए हुए थे। लालू और मुलायम सोशलिस्ट मूवमेंट में रहे, लेकिन बाद में लालू प्रसाद जेपी आंदोलन में शरीक हो गए। राजनारायण के बारे में कहा जाता है संसद में मार्शल और राजनारायण एक-दूसरे के पूरक बन गए थे। वे इतनी हठधर्मिता और हंगामा खड़ा करते थे कि उन्हें मार्शल से टंगवाकर बाहर करा दिया जाता था। वह दौर इंदिरा गांधी का था। कांग्रेस सरकार के खिलाफ वर्ष 1973-74 में जेपी आंदोलन ने देश के युवाओं में नया जोश फूंका। 1974 में शरद यादव मध्य प्रदेश के एक संसदीय क्षेत्र से सांसद चुने गए। राजनारायण ने इमरजेंसी (1975) के बाद के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी को रायबरेली में शिकस्त दी।

भारतीय राजनीति में समाजवादी विचारधारा का एक अहम रोल रहा है.1948 में कांग्रेस से अलग हुए समाजवादियों ने जिनमें आचार्य नरेन्द्र देव, लोकनायक जयप्रकाश नारायण और डॉ राम मनोहर लोहिया शामिल थे सोशलिस्ट पार्टी के नाम से एक दल का गठन किया था, बाद में आचार्य जे बी कृपलानी की किसान मज़दूर प्रजा पार्टी का इस दल में विलल हो जाने के बाद इस दल को प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का नाम दिया गया लेकिन इस दल के गठन के कुछ वर्षों बाद ही सोशलिस्ट पार्टी में विभाजन की प्रकिया शुरु हो गई. जय प्रकाश नारायण क्षुब्ध होकर भूदान आंदोलन में शामिल हो गए. डॉ लोहिया ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नाम से अलग दल बना लिया और नरेंद्र देव के नेतृत्व में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का अलग अस्तित्व बना रहा.

ग़ैर कांग्रेसवाद की रणनीति

1952, 57 और 1962 में हुए आम चुनावों में समाजवादी दल संख्या के लिहाज़ से तो ज़्यादा सीटें नहीं जीत सके लेकिन संसद में उन्होंने प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाई. 1963 में हुए संसदीय उप चुनावों में आचार्य कृपलानी और डॉ लोहिया के चुनाव जीतने से संसद में विपक्ष की भूमिका और मज़बूत हुई और पहली बार लोक सभा में नेहरु सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास का प्रस्ताव पेश किया गया. इसी साल कलकत्ता में हुए संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के वार्षिक सम्मेलन में डॉ लोहिया ने ग़ैर कॉग्रेसवाद की रणनीति पेश की और सभी विपक्षी दलों से कांग्रेस के ख़िलाफ़ एक साझा गठबंधन बनाने की अपील की.

डॉ. लोहिया की ग़ैर कांग्रेसवाद की रणनीति का पहला प्रयोग 1967 के आम चुनावों में हुआ। इन चुनावों में ग़ैर कांग्रेसी दल यानि समाजवादी, वामपंथी, जनसंघी, स्वतंत्र और रिपब्लिकन पार्टियां कोई एक संयुक्त मोर्चा बनाकर तो चुनाव नहीं लड़ीं, लेकिन 9 राज्यों में इन दलों को भारी सफलता मिली और कांग्रेस से अलग हुए विधायकों को मिलाकर 9 राज्यों में संयुक्त विधायक दल यानि एस.वी.डी. का गठन हुआ और ग़ैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। उत्तर प्रदेश में चैधरी चरण सिंह ऐसी ही पहली सरकार के मुख्यमंत्री बनाये गये।

1967 के आम चुनावों में ही डॉ लोहिया के साथ मधुलिमए और जॉर्ज फ़र्नानडीज़ जैसे तेज़ तर्रार समाजवादी लोक सभा में पहुँचे और कांग्रेस के ख़िलाफ़ विपक्षी मुहिम को और तेज़ किया. मगर उत्तर प्रदेश तथा बिहार जैसे उत्तरी राज्यों में समाजवादी अपना जनाधार बनाने में सफ़ल रहे.

वर्ष 1971 में इंदिरा गाँधी के आने के बाद समाजवादियों का एक तरह से सफ़ाया ही हो गया। इसी दौर में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का दबदबा बढ़ा और 1969 में कांग्रेस का विभाजन होने और उसके बाद 1971 में हुए लोक सभा चुनावों में उन्हें जो भारी बहुमत मिला उसमें समाजवादी लगभग साफ़ हो गए. इंदिरागांधी ने ही १९७६ में संविधान में ४२वां संशोधन करके समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ा। इतना ही नहीं उनहोंने जनप्रतिनिधित्व कानून में भी संशोधन करके सभी दलों की समाजवादी जिम्मेदारी भी तय की। संविधान में ये परिवर्कन और इंदिरागांधी के गरीबी हटाओ नारे ने समाजवादियों को ध्वस्त कर दिया।

समाजवादी खेमे को उम्मीद की किरण तब दिखी जब. समाजवादी नेता राजनारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक चुनाव याचिका दायर करके आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री ने इस चुनाव में अपने पद का दुरुपयोग किया और चुनाव जीतने के लिए सरकारी तंत्रमंत्र का इस्तेमाल किया.इसी समय गुजरात और बिहार में छात्रों का आंदोलन शुरु हुआ जिसमें दो दशक पहले राजनीति छोड़ चुके समाजवादी नेता जय प्रकाश नारायण शामिल हुए. उनकी अगुवाई में सभी विपक्षी दलों ने 6 मार्च 1975 को दिल्ली में एक ऐतिहासिक रैली का आयोजन किया जिससे इंदिरा गाँधी की सरकार हिल गई.घबराकर इंदिरा गांधी ने २५ जून १९७५ को देश में आपातकाल घोषित कर दिया।

आपातकाल और समाजवादी

इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून 1975 को राजनारायण की याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए इंदिरा गाँधी को चुनावी धांधलियां करने का दोषी ठहराया और उनका चुनाव रद्द कर दिया. इलाहाबाद हाईकोर्ट का यही फ़ैसला इंदिरा गांधी के पतन का कारण बना और उन्होंने 25 जून को देश में आपातकाल लागू कर दिया. इसी के तहत देश के लगभग सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं और कार्यक्रर्त्ताओं को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया जिनमें समाजवादी भी बड़ी तादाद में शामिल थे.

19 माह के आपातकाल के दौरान ही जेल में जनता पार्टी का गठन हुआ और इसमें भी समाजवादियों की भूमिका अहम रही. आपातकाल ख़त्म होने के बाद 1977 में जब लोक सभा के आम चुनाव हुए तो जनता पार्टी को भारी बहुमत मिला। बड़ी तादाद में समाजवादी संसद में चुनकर आए और पहली बार मंत्री बने. इनमें राजनारायण, जॉर्ज फ़र्नांडीज़, रविराय, ब्रजलाल वर्मा, पुरुषोत्तम कौशिक, जनेश्वर मिश्र आदि शामिल थे. इसी वर्ष हुए विधान सभा चुनावों में समाजवादी आंदोलन से जुड़े कर्पूरी ठाकुर बिहार में, रामनरेश यादव उत्तर प्रदेश में और गोलप बोरबोरा असम में मुख्यमंत्री बने.

1979 में जनता पार्टी में हुए विभाजन के बाद समाजवादी एक बार फिर छिन्न भिन्न हो गए और एक दशक तक सत्ता की राजनीति से दूर हो गए. जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जनमोर्चा बनाकर राजीव गांधी के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरु किया तो समाजवादियों ने उसमें बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और जनता दल बना कर एक बार फ़िर केंद्र में और कई राज्यों में सत्ता हासिल की.

सामाजिक न्याय की शुरुआत

वी पी सिंह सरकार में रहते हुए ही जार्ज फ़र्नांडीज़, शरद यादव, नीतिश कुमार और रामविलास पासवान ने मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करवाने का फ़ैसला करवाया जिससे भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय की राजनीति की शुरुआत हुई. इसी दौर में मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव उत्तर प्रदेश और बिहार में मुख्यमंत्री बने. लेकिन एक साल में ही वी पी सिंह सरकार का पतन हो जाने के बाद समाजवादियों में जो विभाजन हुआ उससे यह आंदोलन लगातार कमज़ोर ही होता गया। पिछले आम चुनावों से समाजवादी विचारधारा सामूहिक रुप से अपनी कोई छाप या पहचान नहीं बना पा रही है।

समाजवाद की चर्चा के संदर्भ में लोहिया और जयप्रकाश जैसे महानायकों को याद करना उपयुक्त होगा। इससे संबंधित लेखों को पढ़ने के लिए इन शीर्षकों पर क्लिक करें...............।

भारतीय समाजवाद



सत्ता के लिए समाजवाद याद रहा, लोहिया को भूल गए

युवाओं के प्रेरणा श्रोत थे जेपी


राममनोहर लोहिया


"एक असमाप्त जीवनी" का प्रथम अध्याय


समाजवादी आंदोलन : पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में


आचार्य नरेन्द्रदेव : समाजवाद के माली


समाजवाद के प्रकार


समाजवादी विचारधारा आज कहाँ है ?


कुछ पार्टियां ऐसी जिन्हें ढूंढते रह जाओगे

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