Sunday 30 March 2014

मृत्यु से पहले ही अयोध्या के पावन सरयू तट पर प्रवाहित करवा दी थी अपनी पोथी


( श्रद्धांजलि भाग-3 ..आज भी खोजता हूं उस वटवृक्ष की छाया ) 
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पिताजी को श्रद्धांजलि देने के क्रम में संयोग से वह दिन यानी चैत्र नवरात्र भी शुरू होने वाला है। प्लवंग नामक विक्रम संवत्सर 2071 प्रारंभ होने जा रहा है। 31 मार्च 2014 से रामनवमी या वासंतिक नवरात्र शुरू हो रहा है। आठ अप्रैल 2014 को श्रीरामनवमी व्रतोत्सव, श्रीरामजन्मभूमि-दर्शन एवं परिक्रमा ( अयोध्या)  के साथ संपन्न होगा।
हिंदू कैलेंडर के अनुसार विक्रम संवत्  के नव वर्ष पर आप सभी को नववर्ष, वासंती नवरात्रि ( चैत्र रामनवमी ) की शुभकामनाएं। पिता को श्रद्धांजलि के बहाने उनकी कुछ बातें लिखने के क्रम में आज वह प्रसंग दे रहा हूं जो न सिर्फ रामनवमी  बल्कि उनके आराध्य भगवान श्रीराम और उनकी जन्मभूमि अयोध्या से संबद्ध है। भगवान श्रीराम के जन्मदिवस का यह पावन पर्व पिताजी के लिए इसी लिए काफी मायने रखता था, क्यों कि उनके ईष्ट ही भगवान श्रीराम थे।
पिताजी अपने आराध्य का जन्मदिन भी नहीं मना के और परलोक का बुलावा आ गया।……….

क्या अपनी मौत का आभास पहले ही हो जाता है किसी इन्सान को ? अनेक साधु महात्माओं को इच्छामृत्यु या समाधि की कहानियां सुनी है। मठों या मंदिरों के पास  कई ऐसी समाधियों को देखा भी है जिनके बारे में अनेक मिथकीय बातें भी कही जाती हैं। इनमें एक बलिया जिलें में  रसड़ा के पास मेरी ससुराल मुड़ेरा के लषनेश्वर मंदिर की है। अन्य भी हैं मगर  सभी को उदाहरण के लिए यहां पेश करना संभव नहीं। विषयांतर का खतरा है। संभवतः आज की आधुनिक खोजों व विज्ञान के जानकारों के पास भी मृत्यु के पूर्वाभास के  इस रहस्य का जवाब नहीं होगा मगर  मानव जीवन की कई रहस्यमयी बातों का जवाब हमारी आस्था, धर्म-दर्शन या पौराणिक व्याख्याओं में भी उपलब्ध है। कई बार साक्ष्य या तार्किकता के अभाव में निरुत्तर भी होना पड़ता है। कुल मिलाकर यह एक जटिल व कठिन प्रश्न  जरूर है,  मगर मेरे लिए आसान लगता है। जब किसी बात का साक्षी इंसान खुद होता है तो उसे मानने पर मजबूर भी हो जाता है।

मेरे साथ दो घटनाएं जुड़ी हैं जो यह मानने पर मजबूर कर देती हैं कि शायद कुछ लोगों को अपनी मौत का एहसास पहले ही हो जाता है। एक घटना तो पिताजी से जुड़ी है जिसका मैं विवरण यहां दूंगा और दूसरा प्रसंग भी मेरे ही परिवार से जुड़ा है। वह थीं मेरी नानी। मृत्यु शैया पर थीं। बोल नहीं पाती थीं मगर अपने जाने के दिन गिनकर बताती रहीं। आखिर में जिस दिन एक उंगुली दिखाई उसके अगले ही दिन चल बसीं। नानी का किस्सा बाद में पूरा करूंगा। अभी पिताजी के अपने जाने के पूर्वाभास की घटना जो इस तथ्य को न मानने वाले के लिए ऐसा सबूत है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। इस बात के सबसे बड़े गवाह मेरे सगे सबसे बड़े भाई साहब श्री कृष्णानन्द सिंह जी हैं। उनके अलावा मेरा बाकी परिवार भी इस तथ्य से वाकिफ था।

 पिताजी राम के अनन्य भक्त थे। शायद इसी कारण रामजन्मभूमि अयोध्या से उनका बेहद लगाव था। चैत्र रामनवमी ( जो अंग्रेजी महीने के हिसाब से अप्रैल में पड़ती है ) को वर्षों से अयोध्या के भंडारे में दान देना और संभव हो तो वहां उपस्थित होना उनके जीवन के आवश्यक कार्यों में से एक था। ऐसा नहीं था कि उनके पास इफरात पैसे थे या फिर ऐसी काली कमाई होती थी जिसे धर्म-कर्म के नाम पर खर्च करते। उनके जीवन का यह नियम बन गया था कि इंसान जो भी कमाता है उसका कुछ हिस्सा प्रभु के श्रीचरणों में अर्पित करना आवश्यक है। मैं अपने ननिहाल मनिहारी के पास  मलिकपूरा इंटरकालेज में पढ़ाई से लेकर  वाराणसी के उदयप्रताप कालेज से बीए की पढ़ाई अथवा काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी से एमए, पीएचडी करने तक पिताजी के पास हर छुट्टियों में जाया करता था। उनकी आस्था, पूजा व धर्मानुशासन संबंधी जिन बातों का मैं जिक्र मैं यहां कर रहा हूं, उन्हें बातचीत में या मरीजों समझाने के क्रम में उनके ही मुंह से मैंने भी सुनी है।
     मुझे उनकी बातें इतनी सुलझी लगती थीं कि उससे प्रभावित होकर मैंने उन्हें फुर्सत में लिखने का भी आग्रह किया था मगर वह फुर्सत पिताजी को कभी नहीं मिली। शायद इसी कारण मैंने उनकी आवाज को टेप कर लेने का निश्चय कर लिया।   मेरी शादी में मुझे एक टेपरिकार्डर मिला था। मैंने उसी टेपरिकार्डर को सुबह चार बजे के आसपास चालू करके पिताजी के खाट के पास रख दिया था। पिताजी की नियमित आदत थी कि कंठस्थ कर चुके रामचरित मानस की चौपाईंयां  सुबह चार बजे से गाने लगते थे। नित्यक्रिया से पहले बिस्तर पर सोए हुए ही एक घंटे का यह उनका नियमित कार्यक्रम था। मेरे पास आज भी वह रिकार्डेड कैसेट है। इसे सीडी या पेनड्राइव में रखने के उपाय ढूंढ रहा हूं। क्यों कि कैसेट में प्ले करना अब संभव नहीं और वह खराब भी हो सकता है। मेरे पास उनकी यही आवाज और उनके सिखाए मंत्र सुरक्षित हैं।

 यहां उनके धर्मभाव को इसलिए विस्तार से बता रहा ताकि उनके इस मर्म को समझा जा सके कि उन्होंने अपनी पोथी अयोध्या में सरयू में ही क्यों प्रवाहित करवाई।

  पिताजी की आस्था का अयोध्या या रामनवमी से गहरा नाता है। वे अपनी हर मुश्किलें जब खुद सुलझा नहीं पाते थे तो सिर्फ व सिर्फ भगवान श्रीराम की शरण लेते थे। ऐसा वे खुद हम लोगों से भी कहते थे। अक्सर गोस्वामी तुलसी दास की इन लाइनों को दुहराते थे…. होइहैंं वही जो राम रचि राखा……..। इसका अर्थ यह नहीं कि वे कर्म में विश्वास नहीं करते थे। कर्मयोगी थे मगर अपनी आस्था को आत्मबल संतुलन के लिए वह मानसिक औजार मानते थे जो उन्हें तात्कालिक समाधान देकर मानसिक परेशानियों से निजात दिलाता था। मुझे याद है कि वे किसी समस्या पर सोचते-सोचते गंभीर होने की बजाए अचानक प्रसन्न मुखमुद्रा में आ जाते थे और जिस चौकी या खाट पर बैठे रहते थे, उसी पर उंगुलियां ऐसे चलाने लगते थे जैसे कोई प्रसन्न होकर तबले पर थाप दे रहा हो। यह संकेत होता था कि उन्होंने अपनी समस्या का या तो समाधान खोज लिया है या फिर फिलहाल उसे ईश्वर पर छोड़ दिया है।

  यहां प्रसंगवश यह भी कहना चाहूंगा कि अगर आपकी आस्था कर्मकांड व अज्ञानता से परे आध्यात्मिक है तो निश्चित ही आप कई रोगों ,परेशानियों से निजात पा सकते हैं। डिप्रेशन, तनाव जैसी बीमारियों से आप बिना किसी दवा के मुक्त रहेंगे। तनाव दूर करने के लिए तो ध्यान करने की सलाह दी ही जाती है। यह ध्यान तबतक संभव नहीं है जबतक आप मन को एकाग्र करना नहीं सीखेंगे। अगर आस्था है तो ध्यानमुद्रा में जाना आसान हो जाएगा। हमारे धर्म-दर्शन की यह बड़ी देन है। पिताजी धर्मशास्त्र के ज्ञाता भी थे।

  4 मार्च 1995 को जब उन्होंने इस संसार को अलविदा कहा तब के बाद यही रामनवमी आनेवाली थी। खुद अयोध्या जा नहीं सकते थे और उन्हें यह ईश्वरीय संकेत मिल चुका था कि अब इस शरीर को छोड़ने से पहले अपनी पवित्र पोथी को अयोध्या के सरयू तट पर प्रवाहित करवा दें। शायद यह उनके प्रयाण की सांकेतिक तैयारी थी। खुद नहीं तो अपनी पोथी के जरिए ही उस अयोध्या से  एकाकार हो चुके थे जहां उनका मन बसता था। आप चाहें तो संयोग कह लें मगर मैं इसे अपने पिता के अपने ईष्ट से मिलन की घटना मानता हूं। उनके लिए शायद यही मोक्ष का रास्ता था। इसी से उनके मन को शांति मिली और शरीर भी शांत हो गया।

Thursday 6 March 2014

धैर्य की कठिन परीक्षा थी जलकर खाक हुआ दवाखाना व उसपर आश्रित जीविका को संभालना


( श्रद्धांजलि भाग-2 ..आज भी खोजता हूं उस वटवृक्ष की छाया )


     यह मेरे बचपन के उस हिस्से की बात है जब मैं स्कूल जाना शुरू नहीं किया था और तब मां और पूरा परिवार गदाईपुर में ही पुस्तैनी मकान में रहता था। इसी मकान के बड़े हिस्से में मेरे काका ( परमहंस सिंह जिन्हें हम गुल्ली काका  कहते थे, इनकी कोई संतान नहीं थी। काफी पहले काकी का इंतकाल हो गया था।), चाचा, चाची ,  व उनके बेटे सुभाष भईया, विजय भईया व प्रेम भईया रहते थे। इनके हिस्से का प्रवेश द्वार दक्षिण व पश्चिम दोनों तरफ था। दरअसल पूरा घर तीन हिस्से में बांटा गया था जिसमें से दो हिस्सा काका व चाचा का था और एक हिस्सा पिताजी को मिला था। यह सिर्फ घर, खेत-जमीन व संपत्ति का बंटवारा था मगर परिवार के सर्वमान्य मुखिया पिताजी ही थे। बड़े भईया हों या छोटे भईया विजय सभी पिताजी के सानिध्य को पसंद करते थे। सभी भाईयों की शादी की बात हो या अन्य समस्या पिताजी के ही सामने सबकुछ रखा जाता था। यह भी विचित्र बात थी कि अलग होते हुए भी निर्विकार भाव से पिताजी बड़े होने की भूमिका निभा रहे थे। उनकी इस भूमिका को हम लोगों ने काफी बड़े होकर भी देखा। यह था उनके विलक्षण व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्णपहलू ।
    पश्चिमी-उत्तरी कोने में हमारे घर का हिस्सा था। पश्चिम की तरफ हमारा दरवाजा था। उधर ही पिताजी की घोड़ी का अस्तबल व खाने का हौदा नीम के पेड़ के नीचे था। ईधर ही हम लोग दरवाजे पर खेलते थे। गदाईपुर गांव ( उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के तरवां ब्लाक के पास गाजीपुर व आजमगढ़ सीमा का वह गांव जिसकी आबादी गाजीपुर में मगर गांव के तमाम लोगों की खेती की जमीन आजमगढ़ में थी ) के पूरब तरफ एक विशाल मैदान और पोखरा था। पोखरा तो आज भी है मगर मैदान अतिक्रमण की भेट चढ़ गया है। पोखरे के उत्तरी -पश्चिमी कोने पर पिताजी का बड़ा सा दवाखाना था जहां आयुर्वेदिक दवाओं का भंडार था। यह सिर्फ दवाखाना नहीं था। इसमें पिताजी की बहुमूल्य आध्यात्मिक पुस्तकें व दवा बनाने के निमित्त बहुमूल्य जड़ी-बूटियों का इतना भंडार था कि महीनों तक हजारों रोगियों को रोग के हिसाब से हर तरह की दवाएं बनाई जा सकें। पिताजी की खासियत यह थी कि जो भी दवाएं मरीजों को देते थे उनका निर्माण इसी दवाखाने में खुद करते थे। अर्थात आयुर्वेदिक फार्मेसी के साथ यह वह चैम्बर भी था जहां रोगियों के इलाज के लिए पिताजी बैठा करते थे। दवाखाना के साथ पिताजी के लिए यह एक ऐसा सामुदायिक केंद्र था जहां अध्यात्म व भक्ति चर्चा भी प्रमुखता से होती थी। वर्षों की तपस्या के बाद उन्होंने इसे खड़ा किया था। इसमें इतनी इफरात जगह थी कि पिताजी के अतिथिगण भी अक्सर शरण लेते थे। हम लोग इसे बाबूजी की कुटिया और गांव के लोग बैद भईया का दवाखाना कहते थे। सचमुच में वहां बैठना इतना मनोरम लगता था जैसे पंचवटी में बैठे हों। दरअसल अब समझ में आता है कि पिताजी को ऐसी कुटिया बनाने की प्रेरणा रामचरित मानस में वर्णित राम के वनवास के दौरान कई जगहों पर बनी कुटिया से मिली होगी। इस परमपावन जगह को भी लोगों की नजर लग गई।
  हम लोग मनिहारी गए हुए थे। वहीं सूचना मिली कि पिताजी का दवाखाना जल गया और कुछ भी नहीं बचा। दरअसल हुआ यह कि दवाखाना के बगल में जो विशाल खाली जगह थी , उसमें गांव का खलिहान होता था। फसलें काटकर वहां रखी जाती थी फिर मड़ाई वगैरह करके अनाज निकालकर घर ले जाया जाता था। तब मड़ाई के आज जैसे आधुनिक साधन नहीं थे। महीनों तक खलिहान पड़ा रहता था। इसी खलिहान में अरहर के डंठे को सूखने के लिए दवाखाने के पिछवाड़े दीवाल के सहारे खड़ा किया गया था। गांव में अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में घूम रहे विजयी चाचा ने किसी वजह से खलिहान में आग लगा दी। आरोप विजई चाचा पर लगा था। यह विजई चाचा मेरे गांव के काफी शिक्षित व्यक्ति थे मगर किसी वजह से उनका दिमाग फेल हो गया था। इस कारण यत्र-तत्र घूमते रहते थे। किसी विषय पर बहस में लोग उनसे टकराने से बचतेथे। एक बार का बात है कि हमलोग मौसम पर बात कर रहे थे। मैंने कह दिया कि अभी जो तूफान व बारिश हुई है वह एक साइक्लोनिक डिस्टर्बेंस था। चाचा वहां से गुजर रहे थे। ठिठककर रुक गए। मुझसे् ही पूछा कि साइक्लोनिक डिस्टर्बेंस क्या होता है । मुझे इतनी गहरी जानकारी नहीं थी। अब चाचा ने अंगरेजी में इसकी व्य़ाख्या शुरू कर दी। सभी की बोलती बंद थी। चाचा बड़े विद्वान थे मगर विक्षिप्तता ने उन्हें नकारा बना दिया था। कहते हैं कि चाचा ने ही जानबूझकर आग लगाई थी।
          बहरहाल दवाखाना जलने की कहानी बता रहा था। आग लगने का जब तक लोगों को पता चलता पूरा खलिहान धू-धू कर जलने लगा। सूख चुकी अरहर की डंठलों से तो ऐसी लपटें उठीं कि सारा दवाखाना पलभर में आग की लपटों में घिर गया। कुछ भी नहीं बचाया जा सका। नतो खलिहान में ऱखीं सालभर की कमाई की फसलें और नही बाबूजी के अरमानों की कुटिया । कुछ घंटों में चारो तरफ राख ही राख था। यह विवरण बाद में जैसा मैंने सुना था, वैसा ही वर्णित किया है। पिताजी के लिए दवाखाना जलने के बाद तो जीवन नए सिरे से शुरू करने जैसा था। किसी से कोई गिला शिकवा नहीं। उन्होंने जल चुके दवाखाने की जगह उस घर में मरीजों को देखना शुरू किया जहां हमलोग रहते थे। सबकुछ जो घटा उसे ईश्वर की मर्जी और नए सिरे से जीवन संघर्ष को ईश्वर का आदेश मानकर जब चलना शुरू किया तो पीछे मुड़कर भी नहीं देखा। निर्विकार भाव से मरीजों को देखते हुए संतों का सा जीवन जीने लगे। पूजापाठ फिर जनसेवा। कई बार सुना कि कई गरीब मरीज दवा व फीस देने के काबिल नहीं मगर उन्हें इलाज की जरूरत थी। पिताजी ने उनसे कुछ नहीं मांगा। खेतों व बगीचों से कुछ जड़ी बूटियां खोजकर लाने को कहते और खल-मूसर देकर उससे ही दवा बनवाते थे। वही दवा उसे दे देते। ऐसी जीवन शैली व धैर्य ने ही उनको लोगों से अलग मुकाम दिया। गृहस्थ जीवन में भी निर्विकार संन्यासियों का सा धैर्य था उनमें। जो कुछ था उसे ईश्वर की कृपा मानते थे। आज बस इतना ही। उनके व्यक्तित्व के एक और पहलू पर फिर कुछ लिखूंगा।


Tuesday 4 March 2014

आज भी खोजता हूं उस वटवृक्ष की छाया



श्रद्धांजलि उस पिता को जो मेरे 
आध्यात्मिक गुरु भी थे
५२ साल का हो गया हूं। 19 साल होगए पिताजी को गुजरे। आज भी जब भी मुश्किल में होता हूं और आसपास कुछ भी नजर नहीं आता तो आकुल मन उस पिता को खोजने लगता है जिसका सिर्फ होना ही मेरी ताकत थी। ऐसा आत्मविश्वास जो मुझे कठिन हालातों में भी टूटने नहीं देता था। दरअसल मेरे पिता मेरे आध्यात्मिक गुरू थे। बहुत छोटा था तो मां के साथ ननिहाल रहने लगा था। ऐसे में जब स्कूल बंद होते थे और गर्मी की छुट्टियां होती थी तो मां मुझे पिताजी के पास मेरे गांव गदाईपुर भेज देती थी। जब से मां ननिहाल की संपत्ति की देखभाल के लिए मनिहारी चली गईं थी तब से गदाईपुर को पिताजी ने आश्रम बना दिया था। खुद खाना बनाना। सादगी का जीवन। साधु सन्यासियों का आना-जाना , यह सब बेहद अनुशासित व नियमबद्ध था। पिताजी मशहूर वैद्य थे। काशी से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि तो ली ही थी साथ ही काशी नरेश ने उन्हें उनकी काबिलियत के लिए वैद्य शिरोमणि उपाधि से नवाजा था। सुबह सात बजे से दिनभर मरीज पिताजी के दवाखाने पर आते रहते थे। पिताजी इन मरीजों को दवा के साथ नसीहत भी देते रहते थे। दरअसल पिताजी किसी गुरुकुल के आचार्य जैसा जीवन तो जी रहे थे मगर अपनी पूरी गृहस्थी भी गदाईपुर से लेकर मनिहारी तक संभाल रखी थी। इसीलिए हमलोगों का दो घर हो गया था और कभी भी दोनों जगह आना-जाना करना पड़ता था।

      अभी मैं पिताजी की पुण्यतिथि ( 4 मार्च-1995) पर श्रद्धांजलि  देने के बहाने उन्हें याद कर रहा हूं ,इसलिए उन्हीं तक सीमित होकर कुछ बातें करना चाहूंगा। श्रद्धांजलि के इसक्रम में पारिवारिक विवरण व दूसरी स्मृतियों को बाद में रखूंगा।
  भगवान राम के अनन्य भक्त पिताजी का बाद का जीवन भी बनवास या वानप्रस्थ जैसा ही रहा। मैं जब गर्मी की छुट्टियों में गदाईपुर पहुंचता था तो पिताजी की हर शाम और राममय हो जाती थी। होता यह था कि शाम को संध्या भजन के बाद हमलोगों की मंडली जिसमें अक्सर रामबदन बाबा, कभी-कभी मेरे घर पधारे साधु सन्यासी व दूसरे लोग एक साथ बैठते थे। मैं सस्वर रामचरित मानस का पाठ करता था और पिताजी उसकी भक्तिमय व्याख्या करते थे। यह क्रम जबतक मैं गदाईपुर में रहता था तब तक चलता था। यही वह बड़ी वजह थी जिसके कारण पिताजी मुझसे बेहद खुश रहते थे। मुझे संध्या करने को भी बैठाते थे। बड़ी कोशिश से कई मंत्रों को याद करके मैं भी संध्या करता था मगर मेरा चंचल बालमन इसे ज्यादा स्वीकार नहीं कर पाया। अक्सर संध्या के समय गायब हो जाता। पिताजी ने कारण पूछा तो बड़ी सहजता से कह दिया कि मन नहीं लगता। लेकिन मन में आस्था का भाव कम नहीं था। दिनभर कल्याण व दूसरी धार्मिक कहानियां पढ़ता रहता था। बड़े फक्र के साथ कह सकता हूं कि मेरे आज के आध्यात्मिक ज्ञान का वही आधार बना।
  मैं पिताजी को अपना आध्यात्मिक गुरू मानता हूं तो इसकी वजह भी यही है कि धर्म, अनुशासन व सनातनी संस्कार मुझे उनसे ही मिले हैं। पिताजी के 4 मार्च 1995 को जब गुजरने की खबर मिली तो मैं उस वक्त कोलकाता में था। आफिस के मेरे वरिष्ठ सहयोगी अनिल त्रिवेदी ने दोपहर में मेरे घर आकर सूचना दी कि आफिस में फोन आया था- आपके पिताजी नहीं रहे। मेरे उपर वज्र टूट पड़ा। क्यों कि मैंने सोचा था कि पिताजी को घर में भजन वगैरह सुनने व टीवी पर आने वाले रामायण के कैसेट लेकर पूरा रामायण दिखाउंगा। मेरे सपने तो टूटे ही,  साथ ही लगा जैसे मैं एकदम अकेला हो गया हूं। घर में सभी को खाना खा लेने का इंतजार करने लगा मगर मेरा धैर्य डोल रहा था। कंबल में मुंह ढककर फफक- फफक कर रोया मगर पत्नी व बच्चों को तबतक नहीं बताया जबतक वे खाना नहीं खा लिए। बच्चे बेहद छोटे थे और सबसे छोटा विष्णु तो कुछ महीने का ही था। दुख असह्य था। उसी पीड़ा के साथ घर को रवाना हुआ मगर मेरे लिेए यह एक और पीड़ादायी रहा कि मैं अपने आध्यात्मिक गुरू और पिता की न तो शवयात्रा में शामिल हो सका और नही उनके अंतिम दर्शन कर पाया। यह पीड़ा मेरे अंतर्मन में इतनी घर कर चुकी है कि मैं चाहकर भी भुला नहीं पाता हूं। जब पुण्यतिथि आती है तो आंखे उसी बोधिवृक्ष को खोजने लगती है।
आज जब पुण्यतिथि की पूर्व संध्या पर आफिस में काम खत्म करने के बाद श्रद्धांजलि देने बैठा हूं तो मन बोझिल हो चला है। अब और कुछ कह सकने की स्थिति मे नहीं हूं मगर  पिताको श्रद्धांजलि के इस क्रम में लिखना जारी रखूंगा।………………...

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