Wednesday 30 January 2008

नैनो का तरकश

टाटा की नैनो कार जब तक लोग चलाने न लगें कयासों का दौर भी जारी रहेगा। मैं कुछ ऐसे कार्टूनों को आपके सामने पेश कर रहा हूं जो इसी कयासबाजी का नतीजी है। आप खुद अवलोकन करें।--










Tuesday 29 January 2008

आज का क्षत्रिय

यदस्य क्षत्रियासूते, तस्य कालो यमागतः ।
ऊपर जो सूक्ति आप देख रहे हैं, यह बिल्कुल आज के क्षत्रिय के लिए अपील है। इसका अर्थ बदलते परिवेश में लें तो समाचीन यह है कि अगर बदले नहीं तो अब बदल जाओ। हे क्षत्रिय पुत्रों यह जो समय है, यह उनका वरण करेगा जो समय के साथ चलेंगे। किसी और शहर की फिलहाल बात नहीं कर पा रहा हूं क्यों कि कोलकाता के क्षत्रिय समाज को ही कुछ नजदीक से देख पाया हूं। हर साल के आखिर में या फिर कोई उपयुक्त दिन को तलाशकर सालाना आयोजन किया जाता है। इसमें शामिल होते हैं काफी तादाद में क्षत्रिय समाज के लोग और बिरादरी भोज का भी लुत्फ उठाते हैं। और इसके बाद पूरे साल की सामाजिक गतिविधियां लगभग नहीं के बराबर कही जा सकती है। आयोजन में बड़े-बड़े वायदे और शिकायतें भी वरिष्ठ क्षत्रिय वक्ताओं के जोशीले भाषण में दर्ज होती हैं। अपने समाज के उन्नतोमुखी लोगों को सम्मानित भी किया जाता है और यह वर्षों से किया जा रहा है। इस समाज की थोड़ी बहुत गतिविधियां फिर गंगासागर मेले के मौके पर भी दिखती है। कोलकाता जैसी जगह में जहां हिंदीभाषी कुछ उपेक्षित महसूस करते हैं, भोजपुरी, क्षत्रिय या फिर दूसरे तमाम समाजों की गंगासागर के मौके पर गतिविधियां काबिले तारीफ हैं। हम अभी सिर्फ कोलकाता के क्षत्रिय समाज की बात कर रहे हैं इस लिए उनपर ही केंद्रित होकर यह कहना चाहते हैं कि क्षत्रियों आप से हम और भी अपेक्षा रखते हैं। ऐसा नहीं कि आर्थिक तौर पर किसी समाज से आप कमजोर हैं फिर ठोस सामाजिक कार्यों में आप की भूमिका इतनी सिमटी हुई क्यों है कि आपके पास इसी शहर के मारवाड़ी समाज वगैरह की तरह न कोई स्कूल-कालेज है और न अस्पताल। इतना ही नहीं दहेज नामक राक्षस से अपने समाज को उबारने की कोई ठोस गतिविधि भी नहीं दिखाई देती। कम से कम डेढ़ दशक से तो मैं यही देख रहा हूं।

काशीपुर क्षत्रिय समाज कोलकाता ने ( क्षत्रिय समाज की स्थानीय यूनिट जिसके संरक्षक श्री दुर्गादत्त सिंह हैं ) दो साल पहले एक डायरेक्टरी बनवाई थी। मगर इसमें ठोस कामयाबी शायद नहीं मिल पाई। कुल मिलाकर बस छिटपुट प्रयास होते दिखे। यानी कोलकाता के संजीदगी से काम कर रहे दूसरे समाजों के मुकाबले काफी फिसड्डी रहा इनका प्रयास।
फिलहाल बंगाल के स्तर पर लें या कोलकाता के स्तर पर क्षत्रिय समाज पूरी तरह बिखरा हुआ है। कहीं साल्टलेक में तो कहीं गारुलिया, काशीपुर, कोन्ननगर ( इसके संरक्षक श्री देवेंद्र सिंह हैं), मेदिनीपुर वगैरह की ईकाइयां स्थानीय शक्तिशाली लोगों की मुट्ठी में बंद है । अभी तक यह एकछत्र लोकतात्रिक स्वरूप भी नहीं अख्तियार कर सका है। ऐसे में समाज सेवा से तो सभी घटक कोसों दूर दिखते हैं। एक धड़े ( आरके सिंह गुट ) ने तो एक पत्र स्वाभिमान का प्रकाशन भी शुरू किया मगर शायद वह भी अनियमित हो गया। अब वे इसकी जगह पत्रिका के प्रकाशन का मन बना रहे हैं। उधर काशीपुर में श्री दारोगा सिंह ने अलग गुट बना लिया है। फिर भी कुल मिलाकर नौ दिन चले अढ़ाई कोस की गति से भी नहीं चल पा रहा है कोलकाता का क्षत्रिय समाज।
ऐसे ही आज के क्षत्रिय और उनके समाज का वह काल आ गया है जब वह अपने घमंड के खोल से बाहर निकलकर सामाजिकता के आज के नियम को मानें। अगर आप खुद को नहीं बदलोगे तो समाज को क्या दिशा दे पाएंगे। क्या अपने समाज से आपको लगाव नहीं ? अगर है तो कृपया इस समाज की सोच को बदल डालें और ऐसी राह पर ले जाएं जहां आपका मुकाबला आपसे भी बेहद संगठित और प्रगतिशील समाजों से है। राजनीति को परे रखकर समाज की चिंता करें।
इस अपील का मकसद देश व दुनिया के क्षत्रिय समाज के लोगों को एक मंच पर लाना है। बदलते परिवेश में इस समाज के प्रबुद्ध लोगों के विचार, अपील और समाज के विविध आयोजनों से आपको अवगत कराने के इस नए तरीके से आपको जोड़ना चाहता हूं। पुरानी लीक पर चलकर कोई समाज प्रगति नहीं कर सकता उसे समय के साथ बदलना होगा। सोच बदलनी होगी और जातीय घमंड की जगह विनम्र मगर सक्षम क्षत्रिय की भूमिका में खुद को ढालना होगा। बेशक इतिहास के किसी दौर में हम सिर्फ रक्षक की भूमिका में थे। देश और समाज व संस्कृति की रक्षा के लिए खून बहाया मगर आज के क्षत्रिय की भूमिका बदल गई है। नए युग के वह परिवर्तन जरूरी है जिससे आज के क्षत्रिय का तालमेल बना रहे और समाज व देश की प्रगति के हम काम आएं । इसी संकल्प के साथ आप इस मंच से जुड़ें। इसके दो तरीके हैं। पहला जो कंप्यूटर का इस्तेमाल करते हैं और अपने विचार हिंदी में इस ब्लाग पर लिखना चाहते हैं वे नीचे दिए मेल पर अपने विचार हमें मेल करें। हम आपको ब्लाग पर प्रकाशित करेंगे। संभव हुआ तो सीधे ब्लाग पर लिखने का आपको अधिकार प्रदान किया जाएगा। दूसरा तरीका है कि आप इस ब्लाग को देखते रहें और जिस लेख पर आप को टिप्पणी करनी हो, तो अवश्य करें। लोग भी आप की टिप्पणी से लाभान्वित होंगे। सूचना क्रांति के नए हथियार इंटरनेट पर आकर वैश्विक स्तर पर अपने संदेश लोगों तक पहुंचाएं। मुहिम छेड़ें कि आज का क्षत्रिय फिर जाग उठे। हम आपके साथ हैं।
अपनी बात कहने के लिए हमें मेल करें-- drmandhata@gmail.com

Thursday 17 January 2008

पत्रकार ने माँगी राष्ट्रपति से मौत !


पत्रकार शीलेश की जुबानी उनकी कहानी जानने के लिए यहां क्लिक करिए। और उनसे ही जानिए उनका हाल।

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के एक पत्रकार ने सरकार के नागरिक उड्डयन विभाग के आला अफसरों से त्रस्त होकर राष्ट्रपति से आगामी 26 जनवरी, 2008 तक परिवार सहित इच्छामृत्यु की अनुमति माँगी है, ताकि गणतंत्र दिवस के पवित्र दिन वह सुकून के साथ सपरिवार अपनी जान दे सके। मनोरमा कंपाउंड, सिंधुनगर (लखनऊ) निवासी पत्रकार शीलेश त्रिपाठी ने महामहिम राष्ट्रपति को गत 28 दिसंबर को पत्र लिखकर बताया है कि उसने वर्ष 2003 में राज्य के नागरिक उड्डयन विभाग में कथित देशद्रोह और भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों के खिलाफ पत्रिका 'प्रेडीकेट मीडिया' में अभिलेखीय साक्ष्य सहित समाचार प्रकाशित किया था, जिसके बाद विभाग के आला अधिकारियों ने संगठित होकर अपने प्रभाव व धन-बल के बल पर शासन, प्रशासन एवं अन्य अधिकारियों से साँठगाँठ कर पत्रकार एवं उसके परिवार के लोगों का उत्पीड़न शुरू कर दिया। उल्लेखनीय है कि राजकीय उड्डयन विभाग का यह अधिकारी अब सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान है।

त्रिपाठी ने अपने पत्र में लिखा है कि सरकार के उच्चाधिकारियों ने पुलिस एवं माफियाओं से भी उसे परेशान कराना शुरू किया और गलत तरीके से उसके ऊपर कानपुर जिले में मुकदमे दर्ज कराकर एकपक्षीय कार्रवाई कराते हुए मानवाधिकारों का हनन कर पुलिस के माध्यम से वह लोग प्रताड़ित करा रहे हैं। इन्हीं अधिकारियों के इशारे पर पिछले दिनों उसे पकड़वाकर जेल भिजवाया गया। अब इस पत्रकार का कहना है कि अब उसको सपरिवार जान से खत्म करने का प्रयास किया जा रहा है।

राष्ट्रपति को भेजे पत्र में त्रिपाठी ने लिखा है कि वह न्याय पाने की आशा में लखनऊ, कानपुर की जिला अदालतों एवं उच्च न्यायालय की इलाहाबाद एवं लखनऊ खंडपीठ में भी गया किन्तु उसे न्याय नहीं मिला।

त्रिपाठी का कहना है कि जबसे उसने राज्य के नागरिक उड्डयन विभाग से संबंधित समाचार छापा एवं विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की जाँच हेतु सीबीआई को प्रमाण सहित अभिलेख प्रेषित किए तभी से उसके एवं परिवार के लोगों का लगातार पुलिस, माफियाओं, शासन, प्रशासन के अधिकारियों द्वारा उत्पीड़न कराया जा रहा है। शीलेश ने आशंका व्यक्त की है कि यह लोग किसी भी क्षण किसी घटना या दुर्घटना की आड़ लेकर उसे एवं उसके परिवार के लोगों की हत्या अवश्य करा देंगे।

शीलेश ने पत्र में लिखा है कि वह एवं उसका परिवार तड़प-तड़पकर मरना नही चाहता। उसने न्यायहित में राष्ट्रपति से अपील की है कि वह दया करते हुए उसे एवं उसके परिवार के लोगों को ससम्मान सुकून से प्राण त्यागने हेतु इच्छामृत्यु की अनुमति प्रदान करने की कृपा करें।

त्रिपाठी ने लिखा है कि वह एक देशभक्त तथा भारतीय लोकतांत्रिक गणराज्य के संविधान एवं न्यायपालिका में पूर्ण आस्था और श्रद्धा रखने वाला नागरिक एवं पत्रकार है। उसके परिवार के लोग आत्महत्या करने का विधिविरुद्ध आपराधिक कृत्य नहीं करना चाहते, इसलिए उसे एवं उसके परिवार के लोगों को 26 जनवरी तक दया करते हुए विधिसम्मत तरीके से इच्छामृत्यु की अनुमति दी जाए।शीलेश त्रिपाठी ने यह भी लिखा कि वह और उसके परिवार के लोग 26 जनवरी के पवित्र दिवस को सुकून के साथ सपरिवार प्राणोत्सर्ग को तैयार हैं।
( लखनऊ से अरविन्द शुक्ला, गुरूवार, 17 जनवरी 2008. वेबदुनिया ने इस खबर को छापी है। )

गांव को गांव ही रहने दो यारों


जब भी गांवों की बात चलती है तो कहा जाता है कि भारत की न सिर्फ अस्सी प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है बल्कि इस देश की आत्मा भी गांव ही हैं। फक्र से यह सब किछ कहा जाता है मगर इन गांवों के विकास पर आजादी के बाद से उतना भी ध्यान नहीं दिया गया जितने से भारत विकसित व सुविधासंपन्न गांवों का देश कहा जा सके। गुजरात या फिर कुछेक और राज्यों को छोड़ दें तो जरूरत भर को बिजली और पानी भी मयस्सर नहीं है गांवों को। किसान बदहाल और खुदकशी करने को लाचार हैं।
भारत की ग्रामीण आबादी जो सुदूर गांवों में रहती है आज की सूचना क्रांति से कोसों दूर है। शाम होते ही छा जाता है घुप्प अंधेरा। खेत-खलिहान से लेकर घर तक पसरे सियाह अंधेरे को चीरने के लिए रियायती मिट्टी का तेल भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाते हैं ऐसे ग्राम्यवासी। बीमार होजाएं तो जिले या किसी बड़े कस्बे से पहले कोई डाक्टर ही नहीं मिलता। डाक्टर कहीं दूर उपलब्ध भी होतो वहां तक समय से पहुंचना भी टेढ़ी खीर होती है उन लोगों के लिए। सरकारी आंकड़ों में गांवों की सुविधाओं को देखें तो सचमुच लगता है किकाफी बदल गए हैं भारत के गांव। यह अलग बात है कि चुनाव जीतने का नया हथकंडा अब गांव और किसान ही बन गया है। यानी राजनीति और बाजारवाद के निशाने पर भारत के वह गांव भी हैं जो अब तक अपनी ही लयताल में विकास के लिए आजादी के बाद से सरकार की ओर हर चुनाव में आशा की नजर से देखते हैं। यह अलग बात है कि हर बार उन्हे निराशा ही हाथ लगती है।
हम यहां सरकारी आंकड़ों में विकसित व सुविधासंपन्न हो चुके गांवों का दुखड़ा नहीं रो रहे हैं बल्कि भारत के उन गांवों की बात कर रहा हूं जो भारत के अंधाधुंध शहरीकरण में कहीं खो गए हैं। पंजाब, हरियाणा के किसानों को छोड़ दें तो बाकी देश के छोटे किसान और कम आय वाले ग्रामीणों की दशा में कोई खास सुधार नहीं आया है। ऐसे गांवों के लोगों की मानें तो उनसे बेहतर तो शहर में सामान्य नौकरी पेशा है। यानी भारत का यह ग्रामदेवता और हमारा अन्नदाता अपनी खेती से बेहतर मामूली नौकरीपेशा वाले को मानता है। ऐसी हीनता की स्थिति उस भारत के छोटे और मझोले किसानों व ग्रामीणों के लिए क्यों पैदा हुई जहां जुमला है कि--उत्तम खेती, मध्यम बान। निषिध चाकरी भीख निदान।। या भी कभी सम्मान से हमारे कवि लिख गए-- हे ग्राम देवता नमस्कार। साने चांदी से नहीं किन्तु तुमने मिट्टी से किया प्यार।। आखिर इस ग्राम देवता या उत्तम खेती वालों का आजाद भारत में क्या हश्र हो रहा है। बड़े किसान नतो गांवों की पहचान हैं और नही सही अर्थों में किसान ही हैं। वे कृषि के व्यापारी हैं। यानी व्यवसायी किसान हैं। इनसे बाजार जिंदा रह सकता है हमारा वह गांव नहीं जहां भारत की आत्मा रहती है। जिनके लिए हमारा लोकगायक भी कहता है--- दिया बरे ला किसान के अंगनवां में------।
कृषि का आधुनिकीकरण और औद्योगिक क्रांति बदलते समय की मांग है मगर क्या भारत की आत्मा को ही इसके लिए मार डालेंगे ? पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार दलील दे रही है कि सिर्फ खेती से ही गांव और किसानों का विकास नहीं होगा। औद्योगिकीकरण ( वहां इसे शिल्पायन कहते हैं ) अब अपरिहार्य है। कोई उनसे यह पूछे कि अपनी जमीन को अपनी जान से ज्यादा समझने वाले किसानों और उनकी उपजाऊ जमीन को बर्बाद करके आप किस भारत का निर्माण करना चाहते हैं। सिर्फ सत्ता की ताकत के बदौलत सिंगुर और नंदीग्राम या फिर देश में कहीं भी किसानों और गांवों की शांति छीनना कितना न्यायोचित है। मायावती का नजरिया इस मामले में बेहतर समझा जा सकता है जिन्होंने गंगा एक्सप्रेसवे परियोजना के लिए किसी उपजाऊ जमीन को न लेने सख्त हिदायत दी है।
अगर पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार के नजरिए से गांवों व किसानों का विकास करना है तो वह दिन भी दूर नहीं होगा जब भारत के पारंपरिक गांव व किसान किसी संग्रहालय की बाजारू प्रदर्शनी बन जाएंगे। कर्नाटक में बंगलूर से थोड़ी दूर हैसरगाटा में तो यह अभिनव प्रयोग शुरू भी हो गया है। यहां एक ऐसे कृत्रिम गांव का निर्माण किया गया है जहां शहरी बाबुओं को पारंपरिक गांव का सारा नजारा उपलब्ध होगा। बस इसके लिए आपको रोज छह हजार रुपए चुकाने होंगे। क्या विकास की दुहाई देकर हम ऐसे ही भविष्य के भारत का निर्माण करने में जुटे हैं ? कम से कम मैं इस नजरिए का विरोधी हूं क्यों कि मैं भी ग्रामीण परिवेश वाले छोटे व पारंपरिक किसान का बेटा हूं। विकास का भी पक्षधर हूं मगर कृषि के विकास का। हमें गांवों में चौबीस घंटे बिजली चाहिए। शिक्षा व स्वास्थ्य की वह सारी सुविधाएं चाहिए जो किसी मामूली से शहर को भी उपलब्ध है। आखिर गांवों को विकास के स्तर पर शहरों से पीछे क्यों रखा जाता है। इसी देश के गुजरात में के गांव तो शहरों के सात कदम मिलाकर चल रहे हैं तो क्या वहीं के पारंपरिक गांव देश के नक्शे से मिट रहे हैं। बिल्कुल नहीं। पंजाब, हरियाणा के संपन्न गांव खेती के बल पर ही शहरों से आगे हैं। आखिर वह दिन कब आएगा जब लोग शहर की जगह गांवों में ही रहने का विकल्प चुनेंगे और गांवों की आबादी का शहरों की ओर पलायन रुकेगा। ताकि किसी कृत्रिम हैसरगाटा की जगह हम सचमुच के खुशहाल गांवों वाले भारत को बचा पाएं।

गांव को गांव ही रहने दो यारों



जब भी गांवों की बात चलती है तो कहा जाता है कि भारत की न सिर्फ अस्सी प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है बल्कि इस देश की आत्मा भी गांव ही हैं। फक्र से यह सब किछ कहा जाता है मगर इन गांवों के विकास पर आजादी के बाद से उतना भी ध्यान नहीं दिया गया जितने से भारत विकसित व सुविधासंपन्न गांवों का देश कहा जा सके। गुजरात या फिर कुछेक और राज्यों को छोड़ दें तो जरूरत भर को बिजली और पानी भी मयस्सर नहीं है गांवों को। किसान बदहाल और खुदकशी करने को लाचार हैं।
भारत की ग्रामीण आबादी जो सुदूर गांवों में रहती है आज की सूचना क्रांति से कोसों दूर है। शाम होते ही छा जाता है घुप्प अंधेरा। खेत-खलिहान से लेकर घर तक पसरे सियाह अंधेरे को चीरने के लिए रियायती मिट्टी का तेल भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाते हैं ऐसे ग्राम्यवासी। बीमार होजाएं तो जिले या किसी बड़े कस्बे से पहले कोई डाक्टर ही नहीं मिलता। डाक्टर कहीं दूर उपलब्ध भी होतो वहां तक समय से पहुंचना भी टेढ़ी खीर होती है उन लोगों के लिए। सरकारी आंकड़ों में गांवों की सुविधाओं को देखें तो सचमुच लगता है किकाफी बदल गए हैं भारत के गांव। यह अलग बात है कि चुनाव जीतने का नया हथकंडा अब गांव और किसान ही बन गया है। यानी राजनीति और बाजारवाद के निशाने पर भारत के वह गांव भी हैं जो अब तक अपनी ही लयताल में विकास के लिए आजादी के बाद से सरकार की ओर हर चुनाव में आशा की नजर से देखते हैं। यह अलग बात है कि हर बार उन्हे निराशा ही हाथ लगती है।
हम यहां सरकारी आंकड़ों में विकसित व सुविधासंपन्न हो चुके गांवों का दुखड़ा नहीं रो रहे हैं बल्कि भारत के उन गांवों की बात कर रहा हूं जो भारत के अंधाधुंध शहरीकरण में कहीं खो गए हैं। पंजाब, हरियाणा के किसानों को छोड़ दें तो बाकी देश के छोटे किसान और कम आय वाले ग्रामीणों की दशा में कोई खास सुधार नहीं आया है। ऐसे गांवों के लोगों की मानें तो उनसे बेहतर तो शहर में सामान्य नौकरी पेशा है। यानी भारत का यह ग्रामदेवता और हमारा अन्नदाता अपनी खेती से बेहतर मामूली नौकरीपेशा वाले को मानता है। ऐसी हीनता की स्थिति उस भारत के छोटे और मझोले किसानों व ग्रामीणों के लिए क्यों पैदा हुई जहां जुमला है कि--उत्तम खेती, मध्यम बान। निषिध चाकरी भीख निदान।। या भी कभी सम्मान से हमारे कवि लिख गए-- हे ग्राम देवता नमस्कार। साने चांदी से नहीं किन्तु तुमने मिट्टी से किया प्यार।। आखिर इस ग्राम देवता या उत्तम खेती वालों का आजाद भारत में क्या हश्र हो रहा है। बड़े किसान नतो गांवों की पहचान हैं और नही सही अर्थों में किसान ही हैं। वे कृषि के व्यापारी हैं। यानी व्यवसायी किसान हैं। इनसे बाजार जिंदा रह सकता है हमारा वह गांव नहीं जहां भारत की आत्मा रहती है। जिनके लिए हमारा लोकगायक भी कहता है--- दिया बरे ला किसान के अंगनवां में------।
कृषि का आधुनिकीकरण और औद्योगिक क्रांति बदलते समय की मांग है मगर क्या भारत की आत्मा को ही इसके लिए मार डालेंगे ? पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार दलील दे रही है कि सिर्फ खेती से ही गांव और किसानों का विकास नहीं होगा। औद्योगिकीकरण ( वहां इसे शिल्पायन कहते हैं ) अब अपरिहार्य है। कोई उनसे यह पूछे कि अपनी जमीन को अपनी जान से ज्यादा समझने वाले किसानों और उनकी उपजाऊ जमीन को बर्बाद करके आप किस भारत का निर्माण करना चाहते हैं। सिर्फ सत्ता की ताकत के बदौलत सिंगुर और नंदीग्राम या फिर देश में कहीं भी किसानों और गांवों की शांति छीनना कितना न्यायोचित है। मायावती का नजरिया इस मामले में बेहतर समझा जा सकता है जिन्होंने गंगा एक्सप्रेसवे परियोजना के लिए किसी उपजाऊ जमीन को न लेने सख्त हिदायत दी है।
अगर पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार के नजरिए से गांवों व किसानों का विकास करना है तो वह दिन भी दूर नहीं होगा जब भारत के पारंपरिक गांव व किसान किसी संग्रहालय की बाजारू प्रदर्शनी बन जाएंगे। कर्नाटक में बंगलूर से थोड़ी दूर हैसरगाटा में तो यह अभिनव प्रयोग शुरू भी हो गया है। यहां एक ऐसे कृत्रिम गांव का निर्माण किया गया है जहां शहरी बाबुओं को पारंपरिक गांव का सारा नजारा उपलब्ध होगा। बस इसके लिए आपको रोज छह हजार रुपए चुकाने होंगे। क्या विकास की दुहाई देकर हम ऐसे ही भविष्य के भारत का निर्माण करने में जुटे हैं ? कम से कम मैं इस नजरिए का विरोधी हूं क्यों कि मैं भी ग्रामीण परिवेश वाले छोटे व पारंपरिक किसान का बेटा हूं। विकास का भी पक्षधर हूं मगर कृषि के विकास का। हमें गांवों में चौबीस घंटे बिजली चाहिए। शिक्षा व स्वास्थ्य की वह सारी सुविधाएं चाहिए जो किसी मामूली से शहर को भी उपलब्ध है। आखिर गांवों को विकास के स्तर पर शहरों से पीछे क्यों रखा जाता है। इसी देश के गुजरात में के गांव तो शहरों के सात कदम मिलाकर चल रहे हैं तो क्या वहीं के पारंपरिक गांव देश के नक्शे से मिट रहे हैं। बिल्कुल नहीं। पंजाब, हरियाणा के संपन्न गांव खेती के बल पर ही शहरों से आगे हैं। आखिर वह दिन कब आएगा जब लोग शहर की जगह गांवों में ही रहने का विकल्प चुनेंगे और गांवों की आबादी का शहरों की ओर पलायन रुकेगा। ताकि किसी कृत्रिम हैसरगाटा की जगह हम सचमुच के खुशहाल गांवों वाले भारत को बचा पाएं।

Tuesday 15 January 2008

प. बंगाल में बर्डफ्लू फैला


केंद्र सरकार ने पश्चिम बंगाल के दो जिलों में बर्डफ्लू फैलने की पुष्टि कर दी है। इससे पहले सोमवार को राज्य सरकार ने बर्डफ्लू को लेकर अलर्ट जारी किया था। आधिकारिक सूत्रों ने कहा कि राज्य के बीरभूम व दक्षिण दिनाजपुर से लिए गए सैंपल पाजिटिव पाए गए हैं। सैंपल परीक्षण के लिए पशु रोग प्रयोगशाला [भोपाल] भेजे गए थे, जहां मृत पक्षियों में एवियन फ्लूएंजा होने की पुष्टि की गई जिसे बर्डफ्लू के नाम से जाना जाता है। सूत्रों ने बताया कि सैंपल को पुणे स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट आफ वायरोलाजी भी भेजा गया है। राज्य के इन दोनों जिले में केंद्र ने एहतियात के तौर पर पोल्ट्री फार्म चलाने पर रोक लगा दी है।
बर्ड फ़्लू की पुष्टि होने के बीच अधिकारियों ने राज्य के बीरभूम ज़िले के दो गाँवों मारग्राम-एक और मारग्रम-दो में पाँच किलोमीटर के घेरे के अंदर हज़ारों मुर्गियों को मारने का काम शुरू कर दिया है. मारग्राम में एक हफ़्ते के भीतर क़रीब दस हज़ार मुर्गियाँ मार दी गई है. इस बीच पॉल्ट्री फॉर्म से लिए गए नमूनों को जाँच के लिए भोपाल भेजा गया था. केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव नरेश दयाल ने कहा है, "हम कह सकते हैं कि पश्चिम बंगाल के बीरभूम और दक्षिण दिनाजपुर ज़िले में बर्ड फ़्लू फैल गया है. इससे निबटने के लिए युद्ध स्तर पर कार्रवाई की जाएगी." पश्चिम बंगाल सरकार ने बांग्लादेश की सीमा से सटे राज्य के ज़िलों में बांग्लादेश से मुर्गियों के आयात पर पाबंदी लगा दी है. पश्चिम बंगाल के पशुपालन मंत्री अनीस उर रहमान ने बीबीसी को बताया, "पिछले वर्ष बांग्लादेश में फैले बर्ड फ़्लू को ध्यान में रखते हुए हमने यह क़दम उठाया है." केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव, नरेश दयाल ने कहा है कि बर्ड फ़्लू को रोकने के लिए बड़ी मात्रा में तामीफ्लू दवा राज्य में भेजी गई है. केंद्रीय पशुपालन विभाग ने राज्य सरकार को कंट्रोल रूम स्थापित करने को कहा है. साथ ही संयुक्त सचिव एबी नेगी को स्थिति पर नज़र रखने और मुर्गियों को मारने की निगरानी के लिए कोलकाता भेजा गया है.आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि हालात की समीक्षा करने के लिए रामपुर हाट उप मंडल के तमाम प्रमंडल विकास अधिकारियों [बीडीओ] की एक बैठक बुलाई गई है।
इस बीच अनाधिकारिक रिपोर्टो में बताया गया है कि अब तक क्षेत्र में कम से कम बीस हजार मुर्गियों की मौत हो चुकी है। जिला मजिस्ट्रेट तपन शोम ने बताया कि मुर्गियों की इन मौतों के मद्देनजर राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने भी 12 दल गठित किए हैं। केंद्र के पशु चिकित्सा विभाग के सहायक निदेशक ए बी नेगी ने जिले के रामपुर हाट उपमंडल का दौरा किया था। इस बीच एहतियाती कदम उठाते हुए मानव बर्डफ्लू के किसी संभावित मामले के इलाज के लिए रामपुर हाट जिला अस्पताल में एक आइसोलेशन वार्ड बनाया गया है।

कुछ और ज़िलों में बर्ड फ़्लू की आशंका
पश्चिम बंगाल के कुछ और ज़िलों में बर्ड फ़्लू फैलने की सूचना मिल रही है. इस बीच केंद्र ने राज्य सरकार से कहा है कि वो इस बीमारी को रोकने के लिए कड़े क़दम उठाए.
केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने गुरुवार को कहा, "हमने पश्चिम बंगाल सरकार से हर शहर और हर गाँव में एहतियाती क़दम उठाने को कहा है."

उन्होंने कहा कि इस बीमारी का भारत के घरेलू पॉल्ट्री बाज़ार पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा है.
इस बीच कोलकाता स्थित बीबीसी संवाददाता सुबीर भौमिक के मुताबिक पश्चिम बंगाल के दो और ज़िलों में बर्ड फ़्लू फैलने की सूचना मिल रही है. अधिकारियों का कहना है कि उन्हें दक्षिण चौबीस परगना और बर्धवान ज़िले के आसनसोल से मुर्गियों के मरने की रिपोर्ट मिली है.इससे पहले पश्चिम बंगाल के पशुपालन मंत्री अनिसुर रहमान ने बताया कि बीरभूम, दक्षिण दिनाजपुर और मुर्शिदाबाद में बर्ड फ़्लू से 55 हज़ार से ज़्यादा पक्षियों की मौत हो गई.
उन्होंने बीबीसी से कहा कि राज्य सरकार बीमारी के फ़ैलने की ख़बरों से चिंतित है.

मुर्गी मारने का विरोध

बर्ड फ़्लू से सबसे ज़्यादा प्रभावित बीरभूम ज़िले में स्वास्थ्यकर्मी मुर्गियों को मारने का काम कर रहे हैं लेकिन उन्हें स्थानीय लोगों से विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है.

बीरभूम के मरग्राम में स्वास्थ्यकर्मी बिप्लव सेन ने कहा, "गाँव वाले मुर्गियों की तस्करी दूसरे इलाक़ों में कर रहे हैं. हमें सभी पॉल्ट्री फॉर्म तक पहुँचने में दिक्कत हो रही है."

पशुपालन कमिश्नर शांतनु बंदोपाध्याय ने बताया कि विरोध के कारण ही अब तक सिर्फ़ कुछ हज़ार मुर्गियाँ ही मारी गई हैं.

हालाँकि उन्होंने गुरुवार से इस काम में तेजी लाने की बात कही.अभी तक राज्य के किसी हिस्से से किसी व्यक्ति के बर्ड फ़्लू के वायरस से संक्रमित होने की सूचना नहीं है.(बीबीसी )

उधर, नई दिल्ली में केंद्रीय कृषि एवं खाद्य मंत्री शरद पवार ने साफ किया कि भारत से पोल्ट्री प्रॉडक्ट्स के निर्यात पर रोक के लिए अभी वर्ल्ड ऑर्गनाइजेशन ऑफ एनिमल हेल्थ की ओर से कोई अडवाइजरी नहीं मिली है। तब तक एहतियातन केंद्र सरकार ने पश्चिम बंगाल से पोल्ट्री प्रॉडक्ट की आवाजाही और कारोबार पर रोक लगा दी है। केंद्रीय पर्यटन मंत्री अंबिका सोनी ने बर्ड फ्लू से टूरिजम प्रभावित होने की आशंकाओं को खारिज किया। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल सरकार समेत अन्य सभी सरकारों ने इस बीमारी की रोकथाम के लिए प्रभावी कदम उठाए हैं।
पड़ोसी राज्य भी सतर्क
बंगाल की सीमा से सटे पूर्वोत्तर राज्यों, बिहार, झारखंड और उड़ीसा ने भी सतर्कता बढ़ा दी है। पूर्वोत्तर राज्यों ने बंगाल से सटी सीमा को सील कर दिया, ताकि बर्ड फ्लू प्रभावित पक्षियों की आवाजाही रोकी जा सके। इन सभी राज्यों की सीमा या तो प. बंगाल से सटी है या फिर बांग्लादेश से। सभी चेक पॉइंट को अलर्ट पर रखा गया है। बीरभूम से सटे झारखंड के पाकुड़ जिला प्रशासन ने पश्चिम बंगाल से चिकन इम्पोर्ट पर बैन लगा दिया है। बिहार सरकार ने राज्य के सभी जिलों को सतर्क करते हुए दूसरे राज्यों से पोल्ट्री प्रॉडक्ट्स लाने और ले जाने में ऐहतियात बरतने के निदेर्श दिए हैं।


नेपाल में बर्ड फ्लू की चेतावनी


हाल ही में पश्चिम बंगाल में बर्ड फ्लू के मामलों को देखते हुए नेपाल सरकार ने इस बीमारी से संबंधित नयी चेतावनी जारी की है और लोगों को भारत व अन्य देशों से अंडे चिकन अथवा अन्य पक्षी संबंधित सामान आयात नहीं करने को कहा गया है।

नेपाल सरकार के स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी नोटिस में जनता से भारत एवं अन्य देशों से किसी भी प्रकार के मुर्गे अंडे अथवा अन्य पक्षी संबंधित वस्तुएं नहीं मँगाने को कहा गया है।

इलाके में किसी भी पक्षी की अप्राकृतिक मौत के मामले की सूचना स्वास्थ्य केंद्र को देने और तमाम तरह की एहतियात अपनाने की बात कही गई है।

नेपाल में अब तक बर्ड फ्लू का कोई मामला प्रकाश में नहीं आया है और लोगों से इस मामले में अतिरिक्त सावधानी बरतने को कहा गया है। (काठमांडो (भाषा) , गुरूवार, 17 जनवरी 2008)

क्या है बर्ड फ्लू
यह चिड़ियों से मनुष्यों में आता है और खतरनाक बीमारी का रूप धारण कर लेता है। इस रोग के यों तो 15 वायरस हैं लेकिन सभी मनुष्यों के लिए खतरनाक नहीं होते। जो मनुष्य के लिए सबसे खतरनाक होता है वह है -एच5एन1 यह वायरस भी अपने अंदर बदलाव लाता है पिछले सात सालों में इसमें परिवर्तन आया है।

कैसे फैलता है

पक्षियों से फैलता है। प्रवासी पक्षी भी बर्ड फ्लू के वायरसों को अपने साथ ले जाते हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि यह चिड़िया भी इसकी शिकार बने। मुर्गियों में यह वायरस आसानी से पकड़ लेता है। इनके संपर्क में रहने से वायरस सांस के जरिए मनुष्य में पहुंचते हैं।

क्या है लक्षण - संक्रमित व्यक्ति को खांसी, जुकाम और छाती में दर्द रहता है लेकिन कई बार यह संक्रमण इतना ज्यादा होता है कि मनुष्य की जान भी ले लेता है।
क्या मुर्गी का मांस सुरक्षित है - अभी तक मांस खाने से बर्ड फ्लू फैलने का मामला सामने नहीं आया लेकिन विशेषज्ञ इन संभावनाओं से इनकार भी नहीं करते। हां, इतना जरूर है कि मांस को अच्छी तरह से पका लेना चाहिए।

क्या हैं नए शोध-
* वैज्ञानिकों ने स्विटजरलैंड की प्रयोगशाला चूहों पर एच5एन1 वायरस के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। इन प्रयोगों से बर्ड फ्लू पर काबू करने का रास्ता खुल सकता है।
* अमेरिकी दवा कंपनी और इंडोनेशियाई सरकार ऐसा टीका विकसित करने की दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है लेकिन अभी थोड़ समय लग सकता है।
* फ्रांस के वैज्ञानिकों ने बर्ड फ्लू के वायरस फैलने की मैकेनिज्म समझने में सफलता हासिल कर ली है। यदि इन शोधों को विस्तार दिया जा सका तो अन्य असाध्य बीमारियों को समझने में भी सफलता मिल सकती है।

वैज्ञानिक क्यों घबराए हैं - अभी बर्ड फ्लू के वायरस चिड़ियों से मनुष्यों में फैलने के पुख्ता प्रमाण हैं। इसका वायरस अपनी प्रकृति बदलने में माहिर होता है। वैज्ञानिकों को डर है कि कहीं वायरस की प्रकृति ऐसी न हो जाए कि यह मनुष्यों से मनुष्यों में फैलने लगे। ऐसी स्थिति में एक नई महामारी दुनिया को हिला सकती है।

ऐसे हुआ संक्रमण
* विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक वर्ष 2003 से अब तक एशिया में 91 लोग बर्ड फ्लू से मारे गए हैं।
* बर्ड फ्लू का वायरस भारत में सर्वप्रथम 2002 में पहुंचा।
* किंग्स इंस्टिट्यूट ऑफ प्रीवेन्टिव मेडिसीन, चेन्नई के वैज्ञानिक ने शहर के निकट तीन पोल्ट्री फार्म में कार्यरत श्रमिकों की जांच में इसके वायरस पाए थे।
* महाराष्ट्र में विदर्भ के 19 गांव बर्ड फ्लू की चपेट में आए।
* उस समय दहशत के कारण लोगों ने चिकन से परहेज शुरू कर दिया था और इसके दाम बहुत ज्यादा गिर गए थे।
* महाराष्ट्र के पुणे और गुजरात के कुछ हिस्सों में भी बर्ड फ्लू की खबरें आई थीं।

बर्ड फ्लू- नवीनतम स्थिति
19/12/2007

111 देशों के प्रतिनिधि दिसंबर के पहले हफ्ते में बर्ड फ्लू से मुकाबला करने में हुई प्रगति और इंसान में फ्लू की महामारी फैलने की तैयारी का आकलन करने के लिए नई दिल्ली, भारत में मिले । इस प्रयास का नेतृत्व कर रहे दो जन स्वास्थ्य अधिकारियों ने वॉशिंगटन में एक न्यूज़ ब्रीफिंग में सम्मेलन के परिणामों का संक्षिप्त विवरण दिया । जैसा कि फेथ लेपीडस ने बताया, उन्होंने प्रगति होने की जानकारी दी पर कहा कि अभी लंबा रास्ता तय करना होगा ।
1996 में एशिया में बर्ड फ्लू के विषाणु का पहली बार निदान होने के बाद से करीब 60 देशों में लाखों संक्रमित पक्षियों का विनाश हो चुका है । तथाकथित एच5एन1 विषाणु से संक्रमित होने के बाद 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है ।
राष्ट्र संघ के एवियन एंड ह्यूमन इनफ्लूएंजा के लिए वरिष्ठ समन्वयक डेविड नाबारो के अनुसार, बर्ड फ्लू ऐसी समस्या है, जो आने वाले कुछ वर्षों तक हमारे लिए बनी रहेगी । परंतु श्री नाबारो ने 146 देशों से एच5एन1 विषाणु के प्रसार के आंकड़ों का उल्लेख करते हुए आशावादी होने पर जोर दिया ।
पहली बात तो यह है कि 2004 और 2007 के बीच स्थिति बदल गई है, जिस दर से नए देश एच5एन1 से प्रभावित हो रहे हैं, उसमें कमी आई है, मानवीय मामलों की संख्या कम हुई है और मानवीय मौतें भी कम हो गई हैं । इसलिए व्यापक महामारी विज्ञान से संबंधित प्रमाण से संकेत मिला है कि एच5एन1 विषाणु की स्थिति कम-से-कम इतनी गंभीर हीं है ।
परंतु कम-से-कम 6 देशों में यह विषाणु अब भी फैल रहा है और बर्मा तथा पाकिस्तान में मानवीय संक्रमण और मौत की नई खबरें (16 दिसंबर) मिली हैं । वॉशिंगटन ब्रीफिंग में श्री नाबारो ने एच5एन1 को नियंत्रण में रखने के लिए ध्यान केंद्रित करने, अनुदान देने और राजनीतिक इच्छाशक्ति बनाए रखने के महत्व पर जोर दिया । और जॉन लेंग ने, जो अमेरिकी सरकार के एवियन इनफ्लूएंजा प्रोग्राम के अध्यक्ष हैं, पत्रकारों को बताया कि बर्ड फ्लू को रोकने का वैश्विक अभियान व्यक्तिगत मामलों से निपटने से आगे तक जाता है ।
हम, जहां तक संभव होता है, पशु चिकित्सा के क्षेत्र में और मानवीय स्वास्थ्य के क्षेत्र में निरीक्षण का स्तर बढ़ाकर, पशु चिकित्सकों और महामारी वैज्ञानिकों को प्रशिक्षित करके, प्रयोगशालाएँ आदि बनाकर दीर्घकालिक क्षमता का निर्माण करने का प्रयास कर रहे हैं । और श्री लेंग ने कहा कि बर्ड फ्लू पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का समग्र जन-स्वास्थ्य की तैयारी पर सकारात्मक असर पड़ा है । अगर कोई ऐसी नई बीमारी होती, जो कल ही उभरी होती, लेकिन एच5एन1 से पूरी तरह अलग होती, हो सकता है कि कुछ ऐसी बीमारी होती, जिसमें इंसान से इंसान को संक्रमित करने की प्रभावशाली क्षमता होती तो इसका मुकाबला करने का सर्वोत्तम उपाय इसी तरह के नेटवर्क बनाना होता, जो अब एवियन और पेंडमिक इनफ्लूएंजा के खतरों से निपटने के लिए बनाए जा रहे हैं ।
श्री लेंग ने सरकारों में और उनके बीच भी ऐसे नेटवर्क बनाने के महत्व पर जोर दिया । उन्होंने महामारी से निपटने के लिए वॉशिंगटन के समग्र रवैये का उल्लेख किया । श्री लेंग ने कहा कि इसमें सरकार की हर एजेंसी शामिल है, केवल जन-स्वास्थ्य के लिए जिम्मेदार एजेंसियां ही शामिल नहीं हैं ।
एक गंभीर महामारी में हर एक को शामिल होना पड़ेगा । इसमें ऐसी कठिनाइयां आ सकती हैं कि जब आप एटीएम मशीन पर जाएं और उसमें पैसा इसलिए न भरा गया हो क्योंकि बीमारी की वजह से लोग काम पर न आए हों और इसमें पैसा न भर सके हों । इससे हमारी वित्तीय प्रणालियां प्रभावित होंगी, इससे इंटरनेट प्रभावित होगा । हो सकता है कि हर कोई कुछ समय के लिए काम पर न जाकर घर पर रह जाएं और इंटरनेट का इस्तेमाल करे । ऐसी बहुत सारी जटिलताएं हो सकती हैं, जो स्वास्थ्य और मानवीय सेवा विभाग के कार्य क्षेत्र से बाहर हों या विश्व स्वास्थ्य संगठन के क्षेत्र से बाहर हों । इसलिए हालांकि यह मानवीय स्वास्थ्य का खतरा है, पर अगर महामारी फैलती है तो इस पर सचमुच व्यापक तालमेल की जरूरत पड़ेगी । इसमें सब कुछ शामिल होगा । और राष्ट्र संघ के डेविड नाबारो ने कहा कि चूंकि एवियन फ्लू महामारी का प्रभाव इतना व्यापक होगा, इसलिए स्थानीय समुदायों, नागरिक संगठनों और सार्वजनिक सुविधाओं को भी इसकी तैयारी करने में भूमिका निभानी होगी । ये सूक्ष्म जीवाणु हैं, खासकर वे जीवाणु जो पशु जगत से आते हैं- मानवता के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक हैं और यहां तक कि उसके अस्तित्व के लिए भी निश्चय ही खतरा हैं । बर्ड फ्लू से मुकाबला करने के वैश्विक प्रयासों पर चर्चा काहिरा में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में जारी रहेगी, जो अक्टूबर में होगा । (वायस औफ़ अमेरिका ▪ Hindi)

Friday 11 January 2008

पचास रुपए रोज में दुनिया की सबसे सस्ती कार ‘नैनो’


आप रोजाना पचास रुपए चुकाकर दुनिया की सबसे सस्ती कार ‘नैनो’ को अपने घर ले जा सकेंगे। एक लाख रुपए की डीलर प्राइस पर (जो टैक्स मिलाकर 1.20 लाख तक पड़ेगी) मिलने वाली यह कार मारुति- 800 से लंबाई में 8 फीसदी छोटी होगी, लेकिन भीतर 21 फीसदी ज्यादा जगह होगी। टाटा समूह के चेयरमैन रतन टाटा के शब्दों में नैनो का एवरेज 20 किमी प्रति लीटर होगा।
चार साल पहले टाटा ने छोटी कार बनाने का सपना देखा। बढ़ती लागत व विरोध की सारी बाधाओं को पार करते हुए गुरुवार को नई दिल्ली आटो एक्सपो में कार पेश करते हुए रतन टाटा भावुक हो गए। उन्होंने कहा कि यह देश के लिए गौरव के क्षण हैं, यह कार देश की तकनीकी और उद्यम क्षमता का सबूत है।


कीमत:


टाटा ने कहा कि उन्हें नहीं मालूम कि कब तक कंपनी यह कीमत बरकरार रख पाएगी, जिसकी उम्मीद की जा रही है। ‘चार साल पहले परियोजना पर काम शुरू किया था, इस बीच लागत काफी बढ़ गई है, फिर भी वादा तो आखिर वादा है।’

टाटा ने कहा कि उन्होंने कभी नहीं कहा था कि कार एक लाख रुपए की होगी, यह मीडिया ने कहा और इस चुनौती को कंपनी ने स्वीकार किया।

मेकमैन मोटर्स, भोपाल के निदेशक प्रगति अग्रवाल का गणित है कि जो व्यक्ति 50 रुपए रोज किस्त चुका सकता है, वह इस कार को घर ले जा सकता है। उनके मुताबिक यह कार तकरीबन 1.20 लाख रुपए में पड़ेगी, जिसकी मासिक किस्त 1600-1700 रुपए प्रति माह आनी चाहिए।

सस्ती कार के बाद सस्ता जल शोधक (वाटर प्यूरिफायर) लाने का सपना देखने वाले रतन टाटा ने सभी प्रतिस्पर्धी कंपनियों से कहा कि संघर्ष करना है तो बाजार में करें।

1. चार सीट वाली नैनो को आप 50 रुपए रोज की किस्त चुकाकर इस्तेमाल कर सकते हैं। इसकी मासिक किस्त करीब 1600 रुपए प्रति माह होगी।
2. पेट्रोल गाड़ी पर ढाई रुपए प्रति किलोमीटर का खर्च आएगा। हाईवे पर कंपनी एक लीटर में 26 किमी तक की उम्मीद कर रही है।
3. अगस्त के अंतिम सप्ताह में कार की बुकिंग शुरू हो जाएगी। अक्टूबर माह में कार सड़कों पर दिखाई देने लगेगी।
4. उत्तरांचल व पश्चिम बंगाल सहित 3-4 स्थानों पर यह कार बनाई जाएगी। सिंगुर कारखाने पर 1000 करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे।
5. टैक्सी आपरेटरों ने इंडिका की बुकिंग रोककर नैनो का इंतजार शुरू कर दिया है। इसमें पूंजी भी कम लगेगी और चलाने का खर्च भी कम होगा।(भास्कर नेटवर्क)

टाटा कार प्रोजेक्ट के विरोध प्रदर्शन

हुगली। दिल्ली में गुरुवार को टाटा मोटर्स ने अपनी लखटकिया कार का लोकार्पण किया। वहीं इस कार के निर्माण स्थल सिंगुर में लोगों ने लकड़ी की कार बनाई और उसमें आग लगाकर इसका विरोध जताया। कृषि जमीन रक्षा कमेटी के बैनर तले हुए इस प्रदर्शन के दौरान तृणमूल कांग्रेस और जनता दल (एस) के भी नेता मौजूद थे। दोपहर बाद तीन बजे के करीब कृषि जमीन रक्षा कमेटी के संयोजक बेचाराम मन्ना के नेतृत्व में सिंगुर थाने के समक्ष सैकड़ों किसान व कमेटी के सदस्य उपस्थित हुए। इसके बाद इलाके में टाटा मोटर्स का कारखाना लगाए जाने के विरुद्ध धरना-प्रदर्शन किया। तकरीबन एक घंटे तक चले प्रदर्शन के बाद कमेटी के सदस्यों ने लकड़ी की कार में आग लगाकर विरोध जताया।

कमेटी के संयोजक मन्ना ने कहा कि आज जो दिल्ली में टाटा मोटर्स द्वारा लखटकिया कार का लोकार्पण किया गया है, उसके विरोध में यह कार्यक्रम आयोजित किया गया। उन्होंने कहा कि टाटा मोटर्स जो भी कर ले सिंगुर में टाटा का संयंत्र बनने नहीं देंगे, क्योंकि यहां लोगों को खेती के लिए जमीन चाहिए। मन्ना ने कहा कि जब से राज्य सरकार ने इलाके की जमीन का अधिग्रहण किया है, तब से कई किसान परिवार आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। प्रदर्शन के दौरान आसपास पुलिस बल को तैनात किया गया था। इस मौके पर प्रदेश युवा तृणमूल के अध्यक्ष मदन मित्रा, स्थानीय विधायक रत्‍‌ना नाग डे, जनता दल के प्रदेश अध्यक्ष श्याम बिहारी सिंह के अलावा कई नेता उपस्थित थे। धरना के बाद कमेटी की ओर से जुलूस निकाला गया। इसके अलावा इस परियोजना में रात्रि गार्ड के रूप में अनुबंध पर नियुक्त छंटनीग्रस्त मजदूरों के एक समूह ने भी यहां प्रदर्शन किया।

पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास निगम के एक अधिकारी ने बताया कि इस समूह में करीब 130 प्रदर्शनकारी शामिल थे। हालांकि, वरिष्ठ अधिकारी द्वारा किसी अन्य कार्य में इन लोगों को नियुक्त किए जाने का आश्वासन दिए जाने के बाद सभी शांत हो गए।

Wednesday 9 January 2008

पतितों को क्यों नहीं दिखता गंदा होता गंगाजल !



गंगा नदी गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक पूरे भारत के सारे तीर्थों को जोड़ती है। इसका पवित्र जल न सिर्फ गहरी आस्था का द्योतक है बल्कि कृषि और जनजीवन का प्राणाधार भी है। कई मैदानी नदियों का जलस्रोत भी गंगा नदी है। निर्मल जल के प्रवाह में जिन पापियों के पाप धुल रहे हैं उन्हीं ने इस पतितपावनी गंगा को कलषित करने की भी ठान रखी है। वैसे तो पूरे प्रवाह मार्ग में इतनी बेशुमार गंदगी इस निर्मल जल में प्रवाहित की जा रही जिसने इस पवित्र जल को पीने लायक भी नहीं छोड़ा है। काशी जैसे पवित्र तीर्थ में गंगाजल निर्मल नहीं रह गया है। मकर संक्रांति के पावन मौके पर बरबस यह चिंता सताने लगी है कि क्या अब दुर्लभ हो जाएगा गंगा का निर्मल-पावन जल?
मकर-संक्रांति के दिन गंगा-स्नान तथा गंगातट पर दान की विशेष महिमा है। अपने किनारों पर संस्कृतियों का पोषण करने वाली पतित-पावनी नदी गंगा को भारत वासी मां की तरह पूजतेहैं। लेकिन आज यही मां के बेटे पवित्र गंगा को इतना प्रदूषित कर दिए हैं कि खुद ही उसमें डुबकी लगाने से परहेज करने लगे हैं। गंगा का ऐसा ही कुछ हाल है धार्मिक नगरी वाराणसी में। यहां गंगा की इतने बुरे हाल की कल्पना शायद ही कभी किसी ने की होगी। आज हालत यह है कि यहां लोग पापों को नष्ट करने वाली नदी होने की सदियों पुरानी आस्था के विपरीत उसकी धारा में डुबकी लगाने से भी कतराने लगे हैं। काशी के गंगा घाट पर रहने वाले पंडों व नाविकों की माने तो गंगा की वाराणसी में यही दुर्दशा हो गई है। वाराणसी में गंगा का पानी प्रदूषण से काला पड गया है। अनेक गंदे नालों का पानी गंगा में सीधे गिर रहा है। हाल यह है कि गंगा का जल पीने तो दूर नहाने लायक भी नहीं बचा है। प्रदूषण की वजह से मोक्षदायिनीगंगा को हाथ जोड प्रणाम कर वापस लौट जाते हैं। गंदगी को देखकर वे नहाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

वाराणसी के प्रसिद्ध दशाश्वमेधघाट पर एक बडे नाले से शहर का हजारों लीटर गंदा पानी गंगा में गिरते हुए कभी भी देखा जा सकता है। गंगा में व्याप्त प्रदूषण के चलते ज्यादातर लोगों विशेषकर स्थानीय निवासियों ने स्नान करना बंद कर दिया है। बाहर से आने वाले ऐसे लोग जिन्हें इस गंदगी के बारे में सही जानकारी नहीं है वे अलबत्ता दो चार डुबकी लगा लेते हैं। गंगा का प्रदूषण लोगों के इस नदी के प्रति लगाव पर भारी पड रहा है। अपनी खूबसूरती के लिए विख्यात वाराणसी के ज्यादातर घाटों पर सूनापन छाने लगा है। अगर यही हाल रहा तो हमारे सामने रोजी-रोटी की समस्या पैदा हो जाएगी।गंगा में प्रदूषण दूर करने के नाम पर करोडों रुपये बहाए जाने के बावजूद गंगा के पानी में सुधार आने के बजाय वह और ज्यादा प्रदूषित हो गया है।
ज्ञातव्य है कि राजघाट से लेकर असीघाट तक पांच हजार से ज्यादा पंडों की कमाई इन्हीं घाटों पर आने वाले यजमानों से हो रही है। गंगा घाटों पर स्नान के लिए बहुत कम लोग आते हैं, लेकिन शाम को गंगा तट पर सैर के लिए लोगों की भीड जरूर एकत्र होती है। अगर गंगा की यहीं स्थिति रही तो कुछ दिनों के बाद गंगा के ऐतिहासिक घाट बेकार हो जाएंगे। गंगा के किनारे मलमूत्र त्याग करना, साबुन लगाकर कपडे धोना और नहाने जैसे वर्जित कार्य भी अब बेधडक होने लगे हैं। गंगा में बढ रहे प्रदूषण के लिए शासन व प्रशासन से ज्यादा जिम्मेदार स्थानीय लोग हैं। लोगों द्वारा पूजा पाठ की सारी सामग्री पॉलीथीनमें भरकर गंगा में डाल दी जाती है जो बाद में सडकर दुर्र्गधफैलाती है।
इस नदी के किनारे पर स्थित दो श्मशानोंसे निकली राख व कोयले के निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं है जिसकी वजह से उसे भी गंगा में ही डाल दिया जाता है। उत्तरवाहिनी गंगा के बहाव के लिए वाराणसी में राम नगर के पास बन रहे दूसरे पुल की वजह से समस्या पैदा हो गई है। इस पुल के खंभों से टकराकर गंगा की धारा में परिवर्तन आ रहा है। गंगा की रेत घाटों की तरफ आ रही है जिससे नदी की गहराई कम होती जा रही है। बाढ के उतरने के बाद गंगा के घाटों पर हजारों टन मिट्टी जमा हो जाती है एवं नगर निगमकर्मीपंप लगा कर इस मिट्टी को धो देते हैं। यह मिट्टी फिर से गंगा में पहुंच जाती है और बहने के बजाय नीचे जमा हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप गंगा की गहराई प्रतिवर्ष कम होती जा रही है। स्थिति तो यह है कि कई घाटों को गंगा छोड चुकी है। वहां अब केवल मिट्टी का ढेर ही दिखाई देता है।

अब इतनी प्रदूषित हो चुकी पतितपावनी गंगा को धरती पर लाने की पौराणिक कथा भी आप जानते ही होंगे। यह सोचकर भगीरथ ने गंगा को धरती पर नहीं लाया होगा कि कभी जिसके जल से सगरपुत्र तर गए आज उस जल को प्रदूषण के कारण दूर से ही प्रणाम करके लौट जाने की नौबत आगई है। बहरहाल आइए आपको अब गंगा अवतरण की वह कथा बताते हैं जिसे विश्वामित्र ने भगवान राम को सुनाया था। बाल्मिकि रामायण में भी यह वर्णित है।


गंगा के पृथ्वी पर अवतरण की कथा

मिथकों के अनुसार ब्रह्मा ने विष्णु के पैर के पसीनों की बूँदों से गंगा का निर्माण किया। त्रिमूर्ति के दो सदस्यों के स्पर्श की वजह से यह पवित्र समझा गया। जबकि ऋषि विश्वामित्र ने गंगा अवतरण की इस कथा को इस तरह सुनाया है। "पर्वतराज हिमालय की अत्यंत रूपवती, लावण्यमयी एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएँ थीं। सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना इन कन्याओं की माता थीं। हिमालय की बड़ी पुत्री का नाम गंगा तथा छोटी पुत्री का नाम उमा था। गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवी गुणों से सम्पन्न थी। वह किसी बन्धन को स्वीकार न कर मनमाने मार्गों का अनुसरण करती थी। उसकी इस प्रतिभा से प्रभावित होकर देवता लोग विश्व के क्याण की दृष्टि से उसे हिमालय से माँग कर ले गये। पर्वतराज की दूसरी कन्या उमा बड़ी तपस्विनी थी। उसने कठोर एवं असाधारण तपस्या करके महादेव जी को वर के रूप में प्राप्त किया।"
विश्वामित्र के इतना कहने पर राम ने कहा, "गे भगवन्! जब गंगा को देवता लोग सुरलोक ले गये तो वह पृथ्वी पर कैसे अवतरित हुई और गंगा को त्रिपथगा क्यों कहते हैं?" इस पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, "महादेव जी का विवाह तो उमा के साथ हो गया था किन्तु सौ वर्ष तक भी उनके किसी सन्तान की उत्पत्ति नहीं हुई। एक बार महादेव जी के मन में सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया। जब उनके इस विचार की सूच瓥ना ब्रह्मा जी सहित देवताओं को मिली तो वे विचार करने लगे कि शिव जी के सन्तान के तेज को कौन सम्भाल सकेगा? उन्होंने अपनी इस शंका को शिव जी के सम्मुख प्रस्तुत किया। उनके कहने पर अग्नि ने यह भार ग्रहण किया और परिणामस्वरूप अग्नि के समान महान तेजस्वी स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ। देवताओं के इस षड़यंत्र से उमा के सन्तान होने में बाधा पड़ी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि भविष्य में वे कभी पिता नहीं बन सकेंगे। इस बीच सुरलोक में विचरण करती हुई गंगा से उमा की भेंट हुई। गंगा ने उमा से कहा कि मुझे सुरलोक में विचरण करत हुये बहुत दिन हो गये हैं। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर विचरण करूँ। उमा ने गंगा आश्वासन दिया कि वे इसके लिये कोई प्रबन्ध करने का प्रयत्न करेंगी।

"वत्स राम! तुम्हारी ही अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। सगर की पटरानी केशिनी विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी। केशिनी सुन्दर, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी। सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति थी जो राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी। दोनों रानियों को लेकर महाराज सगर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में जाकर पुत्र प्राप्ति के लिये तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें वर दिया कि तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी। दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी के साठ हजार पुत्र होंगे। कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें। केशिनी ने एक पुत्र की कामना की और गरुड़ की बहन सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की।




उचित समय पर रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकल जिसे फोड़ने पर छोटे छोटे साठ हजार पुत्र निकले। उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया। कालचक्र बीतता गया और सभी राजकुमार युवा हो गये। सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर उन्हें डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था। इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। असमंजस के अंशुमान नाम का एक पुत्र था। अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया।
राम ने ऋषि विश्वामित्र से कहा, "गुरुदेव! मेरी रुचि अपने पूर्वज सगर की यज्ञ गाथा को विस्तारपूर्वक सुनने में है। अतः कृपा करके इस वृतान्त को पूरा पूरा सुनाइये।" राम के इस तरह कहने पर ऋषि विश्वामित्र प्रसन्न होकर कहने लगे, " राजा सगर ने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरी भरी भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे पीछे भेज दिया। यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने एक राक्षस का रूप धारण करके उस घोड़े को चुरा लिया। घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ। पूरी पृथ्वी में खोजने पर भी जब घोड़ा नहीं मिला तो, इस आशंका से कि किसीने घोड़े को तहखाने में न छुपा रखा हो, सगर के पुत्रों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया। उनके इस कार्य से असंख्य भूमितल निवासी प्राणी मारे गये। खोदते खोदते वे पाताल तक जा पहुँचे। उनके इस नृशंस कृत्य की देवताओं ने ब्रह्मा जी से शिकायत की तो ब्रह्मा जी ने कहा कि ये राजकुमार क्रोध एवं मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं। पृथ्वी की रक्षा कर दायित्व कपिल पर है इसलिये वे इस विषय में कुछ न कुछ अवश्य करेंगे। पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब घोड़ा और उसको चुराने वाला चोर नहीं मिला तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी। रुष्ट होकर सगर ने आदेश दिया कि घोड़े को पाताल में जाकर ढूढो। पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे सनातन वसुदेव कपिल के आश्रम में पहुँच गये। उन्होंने देखा कपिलदेव आँखें बन्द किये बैठे हैं और उन्हीं के पास यज्ञ का वह घोड़ा बँधा हुआ है। उन्होंने कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उनके लिये अनेक दुर्वचन कहे और उन्हें मारने के लिये दौड़े। सगर के इन कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई। उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के उन सब पुत्रों को भस्म कर दिया।
"जब महाराज सगर को बहुत दिनों तक अपने पुत्रों की सूचना नहीं मिली तो उन्होंने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिये आदेश दिया। वीर अंशुमान शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर उसी मार्ग से पाताल की ओर चल पड़ा जिसे उसके चाचाओं ने बनाया था। मार्ग में जो भी पूजनीय ऋषि मुनि मिले उनका यथोचित सम्मान करके अपने लक्ष्य के विषय में पूछता हुआ उस स्थान तक पहुँच गया जहाँ पर उसके चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था। अपने चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों को देखकर उसे बहुत दुःख हुआ। उसने उनका तर्पण करने के लिये जलाशय की खोज की किन्तु उसे कहीं जलाशय दिखाई नहीं पड़ा। तभी उसकी दृष्टि अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी। उन्हें सादर प्रणाम करके अंशुमान ने पूछा कि बाबाजी! मैं इनका तर्पण करना चाहता हूँ। पास में यदि कोई सरोवर हो तो कृपा करके उसका पता बताएं। यदि आप इनकी मृत्यु के विषय में कुछ जानते हैं तो वह भी मुझे बताने की कृपा करें। गरुड़ जी ने बताया कि किस प्रकार उसके चाचाओं ने कपिल मुनि के साथ उद्दण्ड व्यवहार किया था जिसके कारण कपिल मुनि ने उन सबको भस्म कर दिया। इसके पश्चात् गरुड जी ने अंशुमान से कहा कि ये सब अलौकिक शक्ति वाले दिव्य पुरुष के द्वारा भस्म किये गये हैं अतः लौकिक जल से तर्पण करने से इनका उद्धार नहीं होगा, केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करने पर इनका उद्धार सम्भव है। अब तुम घोड़े को लेकर वापस चले जाओ जिससे कि तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो सके। गरुड़ जी की आज्ञानुसार अंशुमान वापस अयोध्या पहुँचे और अपने पितामह को सारा वृतान्त सुनाया। महाराज सगर ने दुःखी मन से यज्ञ पूरा किया। वे अपने पुत्रों के उद्धार करने के लिये गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे पर ऐसा करने के लिये उन्हें कोई भी युक्ति न सूझी।"
सगर के पुत्रो की आत्माएँ भूत बनकर विचरने लगे क्योंकि उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया था। सगर के पुत्र अंशुमान ने आत्माओं की मुक्ति का असफल प्रयास किया और बाद में अंशुमान के पुत्र दिलीप ने भी। भगीरथ राजा दिलीप की दूसरी पत्नी के पुत्र थे । उन्होंने अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार किया । उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रण किया जिससे उनके संस्कार का राख स्वर्ग में जा सके।
भगीरथ ने ब्रह्माकी घोर तपस्या की ताकि गंगा को पृथ्वी पर लाया जा सके। ब्रह्मा प्रसन्न हुये और गंगा को पृथ्वी पर भेजने के लिये तैयार हुये और गंगा को पृथ्वी पर और उसके बाद पाताल में जाने का आदेश दिया ताकि सगर के पुत्रों के आत्माओं की मुक्ति संभव हो सके। गंगा को यह आदेश अपमानजनक लगा और उन्होंने समूची पृथ्वी को बहा देने का निश्चय किया, स्थिति भाँप कर भगीरथ ने शिव से प्राथना की और शिव गंगा के रास्ते में आ गये।
गंगा जब वेग में पृथ्वी की ओर चली तो शिव ने अपनी जटाओं में उसे स्थान देकर उसका वेग कम किया। शिव के स्पर्श से गंगा और भी पावन हो गयी और पृथ्वी वासियों के लिये बहुत ही श्रद्धा का केन्द्र बन गयीं। पुराणों के अनुसार स्वर्ग में गंगा को मन्दाकिनी और पाताल में भागीरथी कहते हैं।

कहते हैं कि मकर संक्रांति के दिन ही गंगा सागर में जाकर मिली और वर्तमान पश्चिम बंगाल का सागर द्वीप इन्हीं कारणों पवित्र तीर्थ बन गया। सागरद्वीप पर आज भी मकरसंक्राति को लगता है गंगासागर मेला और गंगा व सागर के इस पावन संगम पर लोग डुबकी लगाकर अपने कई जन्मों के पाप से मुक्त हो जाते हैं।

Tuesday 8 January 2008

खिचड़ी इस बार १५ को क्यों मनाएं ?



मकर संक्रांति

सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करना 'मकर संक्रांति' कहलाता है। इस दिन सूर्यदेव उत्तारायण होकर विशेष फलदायक हो जाते है। शास्त्रों में उत्तारायण की अवधि को देवताओं का दिन बताया गया है। इस दृष्टि से मकर-संक्रांति देवताओं का प्रभातकाल सिद्ध होती है। मकर-संक्रांति के पुण्यकाल में स्नान-दान, जप-होम आदि करने का बड़ा महत्व है। ऐसी मान्यता है कि इस संक्रांति के पुण्यकाल में किया गया दान दाता को सौगुना होकर प्राप्त होता है।
निरयण दृक्पक्षीय पंचांग-गणित के अनुसार इस वर्ष सूर्य का मकर राशि में प्रवेश 14 जनवरी को पूरा दिन बीत जाने के बाद 14/15 जनवरी को मध्यरात्रि में 0.09 बजे होगा। अत: इस साल 14 जनवरी को सूर्य के धनु राशि में बने रहने के कारण इस दिन मकर-संक्राति का पर्व मनाना संभव नहीं है। 14 जनवरी को रात बीत जाने के बाद 15 तारीख लग जाने पर सूर्य का मकर राशि में भारतीय समयानुसार 0.09 बजे प्रवेश होगा अतएव मकर-संक्रांति का पुण्यकाल 15 जनवरी को प्रात: सूर्योदय से सायं 4.09 बजे तक रहेगा।
मकर-संक्रांति के दिन गंगा-स्नान तथा गंगातट पर दान की विशेष महिमा है। तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में मकर-संक्रांति में दिन पर्व-स्नान हेतु लाखों श्रद्धालु आते है। इसके अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी लोग किसी पवित्र नदी, सरोवर अथवा कुण्ड में स्नान करते है। उत्तर प्रदेश में मकर-संक्रांति के दिन खिचड़ी का दान एवं खिचड़ी खाने की प्रथा है। इस कारण यहां यह महापर्व 'खिचड़ी' के नाम से जाना जाता है। मकर-संक्रांति को 'तिल-संक्रांति' भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें तिल से बने पदार्थो का भी दान किया जाता है। बंगाल में इस संक्रांति के दिन स्नान करके तिल का दान करने की परंपरा है। असम में इस दिन 'बिहू' त्योहार मनाया जाता है। दक्षिण भारत में 'पोंगल' का पर्व भी सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर होता है। वहां इस दिन तिल, चावल, दाल की खिचड़ी बनाई जाती है। नई फसल के अन्न से बने भोज्य पदार्थ भगवान् को अर्पण करके किसान अच्छे कृषि-उत्पादन हेतु अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। तमिल पंचांग में नया वर्ष मकर-संक्रांति से शुरू होता है।
महाराष्ट्र में विवाहित स्त्रियां शादी के बाद पहली मकर-संक्रांति पड़ने पर तेल, कपास, नमक आदि वस्तुएं सुहागिनों को प्रदान करती है। राजस्थान में महिलाएं तिल के लड्डूं और घेवर के साथ रुपया रखकर वायन के रूप में उसे अपनी सास को चरणस्पर्श करके देती है। इसके अलावा किसी वस्तु-विशेष को चौदह की संख्या में संकल्प करके चौदह ब्राह्मणों को दान देने का भी रिवाज है। इस प्रकार यह संक्रांति एक विशेष त्योहार के रूप में देश के विभिन्न अंचलों में विविध प्रकार से मनाई जाती है। गुजरात-महाराष्ट्र में मकर-संक्रांति के दिन खेल-प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है। पंजाब, जम्मू-कश्मीर में मकर संक्रांति की पूर्वसंध्या को 'लोहड़ी' के नाम से बड़े उल्लासपूर्वक मनाया जाता है।
सूर्य के मकर राशि में प्रवेश कर जाने पर धनु मास समाप्त हो जाता है। इससे मांगलिक कार्यो पर लगा मासव्यापी प्रतिबंध दूर हो जाता है। मकर राशि में सूर्य की स्थिति में तीर्थराज प्रयाग के त्रिवेणी-संगम में स्नान करने तथा संगम-क्षेत्र में वास करने से 'कल्पवास' का फल प्राप्त होता है। इसी कारण मकरस्थ सूर्य में संत-महात्मा और आस्थावान लोग प्रयागराज अवश्य पहुंचते है-माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
सनातन धर्म के अनुसार जिन लोगों को स्वर्ग की कामना हो, उन्हे माघ मास में मकर राशि के सूर्य की स्थिति के समय अपने नगर अथवा ग्राम के समीप स्थिति नदी, सरोवर अथवा कुण्ड में सूर्योदय से पूर्व स्नान अवश्य करना चाहिए-
स्वर्गलोके चिरं वासो येषां मनसि वर्तते। यत्र क्वापि जले तैस्तु स्नातव्यं मृगभास्करे॥
सूर्य की मकर राशिगत स्थिति में माघ की तरह पौष मास में भी स्नान-दान किया जा सकता है। वस्तुत: हमारे सभी पर्व आध्यात्मिक भावना से ओत-प्रोत है। उनसे भारतीय संस्कृति को नई दिशा और नूतन शक्ति मिलती है। जरूरत है पर्व में छुपे आध्यात्मिक संदेश को समझने की, जिसको आत्मसात किए बिना पर्व को मनाना केवल लकीर का फकीर बनना ही साबित होगा।

पहली बार 15 जनवरी को मकर राशि में सूरज

इस बार मकर संक्रांति 15 जनवरी को होगी। सुनने में भले ही यह अजीब लगे, लेकिन वर्ष 2008 में ऐसा ही हो रहा है। पंद्रह जनवरी को हो रही मकर संक्रांति को लेकर ज्योतिषियों और लोगों में हलचल शुरू हो गई है। ज्योतिषियों का कहना है कि शास्त्रों में 14 जनवरी को ही मकर संक्रांति होने का कोई उल्लेख नहीं है। यह सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के साथ जुड़ा हुआ पर्व है। पिछली शताब्दियों में सूर्य का मकर राशि में प्रवेश अलग-अलग तारीखों में होता रहा है लेकिन 19वीं-20वीं शताब्दी के बाद यह पहला मौका है जब सूर्य 15 जनवरी को मकर राशि में प्रवेश कर रहा है। इस बार 14 जनवरी को अर्धरात्रि बाद 12 बजकर 9 मिनट पर सूर्य मकर राशि में प्रवेश करेगा। तब तक तारीख बदलकर 15 जनवरी हो जाएगी। मकर संक्रांति का पुण्यकाल तो 15 जनवरी को बीते सालों में कई बार आया है लेकिन 15 जनवरी को सूर्य का मकर राशि में प्रवेश पहली बार हो रहा है। इसका पुण्यकाल 15 जनवरी को शाम 4 बजकर 9 मिनट तक रहेगा। मकर संक्रांति की तारीख बदलने से इस दिन होने वाले धार्मिक आयोजन और दान-पुण्य भी 15 जनवरी को ही किए जाने चाहिए। 14 जनवरी को सूर्यास्त के एक घंटे 12 मिनट बाद यदि सूर्य मकर राशि में प्रवेश करे तो पुण्य काल 15 जनवरी को आता है। ऐसा पिछले सालों में कई बार हो चुका है।
क्यों आई 15 को मकर संक्रांति : पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए प्रति वर्ष 55 विकला या 72 से 90 सालों में एक अंश पीछे रह जाती है। इससे सूर्य मकर राशि में एक दिन देरी से प्रवेश करता है। करीब 17 सौ साल पहले 22 दिसंबर को मकर संक्रांति मानी जाती थी। इसके बाद पृथ्वी के घूमने की गति में 72 से 90 सालों में एक अंश का अंतर आता गया और मकर राशि में सूर्य के प्रवेश करने की तिथि उसी अनुरूप बढ़ती गई।
14 व 15 का संक्रमण काल चल रहा है : वर्ष 1927 से पहले मकर संक्रांति 13 जनवरी को हुआ करती थी। इसके बाद और बीसवीं सदी तक मकर संक्रांति 14 जनवरी को आने लगी थी। अब वर्ष 2086 के बाद मकर संक्रांति पूर्ण रूप से 15 जनवरी को आने लगेगी। वर्तमान में 14 जनवरी और 15 जनवरी को मकर संक्रांति आने का संक्रमण काल चलेगा। इसमें कुछ सालों में तो 15 जनवरी को और कुछ सालों में 14 जनवरी को मकर संक्रांति रहेगी। इस सदी के अंत तक मकर संक्रांति 15 जनवरी को होने लगेगी। इसके बाद 22वीं सदी में 15 जनवरी और 16 जनवरी का संक्रमण काल चलेगा।
मकर संक्रांति 15 को कब-कब : वर्ष 2008, 2012, 2020, 2024, 2040, 2047, 2048
पुण्य काल 15 को कब-कब : वर्ष 2011, 2022, 2027, 2030, 2032, 2035, 2038, 2043

मकर संक्रांति इस प्रकार रही

सन 290- 22 दिसंबर
16वीं-17वीं शताब्दी- 9 व 10 जनवरी
17वीं व 18वीं शताब्दी - 11 व 12 जनवरी
19वीं व 20वीं शताब्दी - 13 व 14 जनवरी
20वीं व 21 वीं शताब्दी - 13, 14 व 15 जनवरी
21वीं व 22वीं शताब्दी - 14, 15 व 16 जनवरी

Monday 7 January 2008

हर धर्म का मूल : सात महापाप और महापुण्य

दुनिया के सभी धर्म चाहे वह हिंदू, बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम या यहूदी हो सभी ने सात्विक आचरण पर जोर दिया। जब पहले से प्रचलित धर्म के अनुयायी लंपट और पथभ्रष्ट हो गए तो उसकी जगह ने धर्म ने लोगों को सही आचरण सात्विक जीवन का संदेश दिया। भारत के इतिहास में भक्ति आंदोलन ने ऐसी ही भूमिका निभाई। छठीं शताब्दी ईसापूर्व में बौद्ध और तदुपरान्त जैन धर्म ने इसी कारण लोगों को राह दिखाई। और जब इन धर्मों में आडंबर और पाखंड का बोलबाला हुआ तो फिर हिंदू धर्म ने जगह बना ली। प्राचीन भारत में आमजीवन की सात्विकता के संदेश के बल पर ही लोगं ने इन धर्मों को अपनाया। मध्यकाल में इस्लाम ने अपने अनुयायी शासकों की बदौलत जगह बनाई। ईसाई मिशनरियों ने भी भारत में अपने विजेता शासकों के पीछे ही रहकर जड़ जमा ली। इन सभी का इस तरह आगमन और अपने समर्थक बनाना नहीं बल्कि सभी धर्मों का पाप, पुण्य और सद्आचरण जैसी बातों में एकरूप होना महत्वपूर्ण है। यहां इन धर्मों की महानता के बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहता हूं बल्कि हाल में चर्चित हुए सात किस्म के महापाप की पश्चिमी जगत में चर्चा के बारे में आपका ध्यान खींचना चाहता हूं। इन सात महापापों की बीबीसी हिंदी सेवा और यहीं से लेकर वेबदुनिया ने चर्चा की है। दरअसल दुनिया के सात आश्चर्यों की तरह ये सात महापाप और सात महापुण्य ही वह मूल तत्व हैं जो युगों से प्रचलित धर्मों के आधार रहे हैं। धर्मों के विस्तृत उपदेशों के ये वह सूक्ष्म तत्व हैं जो सामान्य जीवन के लिए बेहद आवश्यक हैं। देखिए कैसे हैं ये सात महापाप और सात महापुण्य--------------।

सात महापाप और सात महापुण्य

आप में से अकसर लोगों ने दुनिया के सात आश्चर्य के बारे में सुना पढ़ा और देखा होगा इन अजूबों में अब भारत का ताजमहल भी शामिल है, लेकिन क्या आप सात महापाप के बारे में भी जानते हैं? अंग्रेज़ी में इन्हें सेवेन डेडली सिंस (Seven deadly sins) या कैपिटल वाइसेज़ (Capital vices) या कारडिनल सिंस (Cardinal sins) भी कहा जाता है. जब से मनुष्य ने होश संभाला है तभी से उनमें पाप-पुण्य, भलाई-बुराई, नैतिक-अनैतिक जैसे आध्यात्मिक विचार मौजूद हैं. सारे धर्म और हर क्षेत्र में इसका प्रचलन किसी न किसी रूप में ज़रूर है. यह सेवेन डेडली सिंस (Seven deadly sins) या कैपिटल वाइसेज़ (Capital vices) या कारडिनल सिंस (Cardinal sins) इस प्रकार हैं:
लस्ट (Lust)
ग्लूटनी (Gluttony)
ग्रीड (Greed)
स्लौथ (Sloth)
रैथ (Wrath)
एनवी (Envy)
प्राइड (Pride)


यह सारे शब्द भाववाचक संज्ञा (Abstract Noun) के रूप हैं लेकिन इनमें से कई का प्रयोग क्रिया और विशेषण के रूप में भी होता है. अगर इन्हें ग़ौर से देखें तो पता चलता है कि इन सारे महापाप की हर जगह भरमार है और हम में से हर एक इसमें से किसी न किसी पाप से ग्रसित है. पुराने ज़माने में इन सब को बड़े पाप में शामिल किया जाता था और उनसे बचने की शिक्षा दी जाती थी. पुराने ज़माने में ईसाई धर्म में इन सबको घोर पाप की सूची में रखा गया था क्यों की इनकी वजह से मनुष्य सदा के लिए दोषित ठहरा दिया जाता था और फिर बिना कंफ़ेशन के मुक्ति का कोई चारा नहीं था.
लस्ट (Lust) यानी उत्कंठा, लालसा, कामुकता, कामवासना (Intense or unrestrained sexual craving) यह मनुष्य को दंडनिय अपराध की ओर ले जाते हैं और इनसे समाज में कई प्रकार की बुराईयां फैलती हैं. विशेषण में इसे लस्टफुल (lustful) कहते हैं
ग्लूटनी (Gluttony) यानी पेटूपन. इसे भी सात महापापों में रखा गया है. जी हां दुनिया भर में तेज़ी से फैलने वाले मोटापे को देखें तो यह सही लगता है की पेटूपन बुरी चीज़ हैं और हर ज़माने में पेटूपन की निंदा हुई है और इसका मज़ाक़ उड़ाया गया है. ठूंस कर खाने को महा पाप में इस लिए रखा गया है कि एक तो इसमें अधिक खाने की लालसा है और दूसरे यह ज़रूरतमंदों के खाने में हस्तक्षेप का कारण है.
मध्यकाल में लोगों ने इसे विस्तार से देखा और इसके लक्षण में छह बातें बताईं जिनसे पेटूपन साबित होता है. वह इस प्रकार हैं.eating too soon
eating too expensively
eating too much
eating too eagerly
eating too daintily
eating too fervently

ग्रीड (Greed) यानी लालच, लोभ. यह भी लस्ट और ग्लूटनी की तरह है और इसमें में अत्यधिक प्रलोभन होता है. चर्च ने इसे सात महापाप की सूची में अलग से इस लिए रखा है कि इस से धन-दौलत की लालच शामिल है (An excessive desire to acquire or possess more than what one needs or deserves, especially with respect to material wealth)

स्लौथ (Sloth) यानी आलस्य, सुस्ती और काहिली (Aversion to work or exertion; laziness; indolence). पहले स्लौथ का अर्थ होता था उदास रहना, ख़ुशी न मनाना और इसे महापाप में इसलिए रखा गया था कि इस से ख़ुदा की दी हुई चीज़ से परहेज़ करना. इस अर्थ का पर्याय आज melancholy, apathy, depression, और joylessness होगा. बाद में इसे इसलिए पाप में शामिल रखा गया क्योंकि इस की वजह से आदमी अपनी योग्यता और क्षमता का प्रयोग नहीं करता है.

रैथ (Wrath) ग़ुस्सा, क्रोध, आक्रोश. इसे नफ़रत और ग़ुस्से का मिला जुला रूप कहा जा सकता है जिस में आकर कोई कुछ भी कर जाता है. यह सात महापाप में अकेला पाप है जिसमें हो सकता है कि आपका अपना स्वार्थ शामिल न हो (Forceful, often vindictive anger)
एनवी (Envy) यानी ईर्ष्या, डाह, जलन, हसद. यह ग्रीड यानी लालच से इस अर्थ में अलग है कि ग्रीड में धन-दौलत ही शामिल है जबकि यह उसका व्यापक रूप है. यह महापाप इस लिए है कि कोई गुण किसी में देख कर उसे अपने में चाहना और दूसरे की अच्छी चीज़ को देख न पाना.
प्राइड (Pride) यानी घमंड, अहंकार, अभिमान को सातों माहापाप में सबसे बुरा पाप समझा जाता है और किसी भी धर्म में इसकी कठोर निंदा और भर्त्सना की गई है. इसे सारे पाप की जड़ समझा जाता क्योंकि सारे पाप इसी के पेट से निकलते हैं. इसमें ख़ुद को सबसे महान समझना और ख़ुद से अत्यधिक प्रेम शामिल है.
अंग्रेज़ी के सुप्रसिद्ध नाटककार क्रिस्टोफ़र मारलो ने अपने नाटक डॉ. फ़ॉस्टस में इन सारे पापों का व्यक्तियों के रूप में चित्रण किया है. उनके नाटक में यह सारे महापाप इस क्रम pride, greed, envy, wrath, gluttony, sloth, lust में आते हैं.
सात अजूबों के साथ सात महापाप सात और महापुण्य भी देख लें. यह इस प्रकार हैं.

सात महापाप

लस्ट (Lust)
ग्लूटनी (Gluttony)
ग्रीड (Greed)
स्लौथ (Sloth)
रैथ (Wrath)
एनवी (Envy)
प्राइड (Pride)

सात महापुण्य

Chastity पाकीज़गी, विशुद्धता
Temperance आत्म संयम, परहेज़
Charity यानी दान, उदारता,
Diligence यानी परिश्रमी,
Forgiveness यानी क्षमा, माफ़ी
Kindness यानी रहम, दया,
Humility विनम्रता, दीनता, विनय

इन सात महापाप और सात महापुण्य में ही समाहित हैं सारे धर्म। अगर धर्मों के पूजा पाखंड को छोड़कर सिर्फ उन चीजों को चुना जाए जो जीवन के लिए अनिवार्य होते हैं तो वे यही सात पुण्य और पाप हैं। शायद कोई प्रगतिशील धर्म की कल्पना की जाए जिसमें किसी ईश्वर व उससे जुड़े चमत्कार व पूजापाठ जैसी चीज न हो तो वह प्रगतिशील धर्म इन्हीं सात वर्ज्य तत्वों के इर्दगिर्द होगा। इस नए पंथ में किसी किस्म की सांप्रदायिकता की कोई गुंजाइश भी नहीं होगी। क्या हम कभी ऐसी दुनियां बना पाएंगे?

हर धर्म का मूल : सात महापाप और महापुण्य !

दुनिया के सभी धर्म चाहे वह हिंदू, बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम या यहूदी हो सभी ने सात्विक आचरण पर जोर दिया। जब पहले से प्रचलित धर्म के अनुयायी लंपट और पथभ्रष्ट हो गए तो उसकी जगह ने धर्म ने लोगों को सही आचरण सात्विक जीवन का संदेश दिया। भारत के इतिहास में भक्ति आंदोलन ने ऐसी ही भूमिका निभाई। छठीं शताब्दी ईसापूर्व में बौद्ध और तदुपरान्त जैन धर्म ने इसी कारण लोगों को राह दिखाई। और जब इन धर्मों में आडंबर और पाखंड का बोलबाला हुआ तो फिर हिंदू धर्म ने जगह बना ली। प्राचीन भारत में आमजीवन की सात्विकता के संदेश के बल पर ही लोगं ने इन धर्मों को अपनाया। मध्यकाल में इस्लाम ने अपने अनुयायी शासकों की बदौलत जगह बनाई। ईसाई मिशनरियों ने भी भारत में अपने विजेता शासकों के पीछे ही रहकर जड़ जमा ली। इन सभी का इस तरह आगमन और अपने समर्थक बनाना नहीं बल्कि सभी धर्मों का पाप, पुण्य और सद्आचरण जैसी बातों में एकरूप होना महत्वपूर्ण है। यहां इन धर्मों की महानता के बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहता हूं बल्कि हाल में चर्चित हुए सात किस्म के महापाप की पश्चिमी जगत में चर्चा के बारे में आपका ध्यान खींचना चाहता हूं। इन सात महापापों की बीबीसी हिंदी सेवा और यहीं से लेकर वेबदुनिया ने चर्चा की है। दरअसल दुनिया के सात आश्चर्यों की तरह ये सात महापाप और सात महापुण्य ही वह मूल तत्व हैं जो युगों से प्रचलित धर्मों के आधार रहे हैं। धर्मों के विस्तृत उपदेशों के ये वह सूक्ष्म तत्व हैं जो सामान्य जीवन के लिए बेहद आवश्यक हैं। देखिए कैसे हैं ये सात महापाप और सात महापुण्य--------------।

सात महापाप और सात महापुण्य

आप में से अकसर लोगों ने दुनिया के सात आश्चर्य के बारे में सुना पढ़ा और देखा होगा इन अजूबों में अब भारत का ताजमहल भी शामिल है, लेकिन क्या आप सात महापाप के बारे में भी जानते हैं? अंग्रेज़ी में इन्हें सेवेन डेडली सिंस (Seven deadly sins) या कैपिटल वाइसेज़ (Capital vices) या कारडिनल सिंस (Cardinal sins) भी कहा जाता है. जब से मनुष्य ने होश संभाला है तभी से उनमें पाप-पुण्य, भलाई-बुराई, नैतिक-अनैतिक जैसे आध्यात्मिक विचार मौजूद हैं. सारे धर्म और हर क्षेत्र में इसका प्रचलन किसी न किसी रूप में ज़रूर है. यह सेवेन डेडली सिंस (Seven deadly sins) या कैपिटल वाइसेज़ (Capital vices) या कारडिनल सिंस (Cardinal sins) इस प्रकार हैं:
लस्ट (Lust)
ग्लूटनी (Gluttony)
ग्रीड (Greed)
स्लौथ (Sloth)
रैथ (Wrath)
एनवी (Envy)
प्राइड (Pride)


यह सारे शब्द भाववाचक संज्ञा (Abstract Noun) के रूप हैं लेकिन इनमें से कई का प्रयोग क्रिया और विशेषण के रूप में भी होता है. अगर इन्हें ग़ौर से देखें तो पता चलता है कि इन सारे महापाप की हर जगह भरमार है और हम में से हर एक इसमें से किसी न किसी पाप से ग्रसित है. पुराने ज़माने में इन सब को बड़े पाप में शामिल किया जाता था और उनसे बचने की शिक्षा दी जाती थी. पुराने ज़माने में ईसाई धर्म में इन सबको घोर पाप की सूची में रखा गया था क्यों की इनकी वजह से मनुष्य सदा के लिए दोषित ठहरा दिया जाता था और फिर बिना कंफ़ेशन के मुक्ति का कोई चारा नहीं था.
लस्ट (Lust) यानी उत्कंठा, लालसा, कामुकता, कामवासना (Intense or unrestrained sexual craving) यह मनुष्य को दंडनिय अपराध की ओर ले जाते हैं और इनसे समाज में कई प्रकार की बुराईयां फैलती हैं. विशेषण में इसे लस्टफुल (lustful) कहते हैं
ग्लूटनी (Gluttony) यानी पेटूपन. इसे भी सात महापापों में रखा गया है. जी हां दुनिया भर में तेज़ी से फैलने वाले मोटापे को देखें तो यह सही लगता है की पेटूपन बुरी चीज़ हैं और हर ज़माने में पेटूपन की निंदा हुई है और इसका मज़ाक़ उड़ाया गया है. ठूंस कर खाने को महा पाप में इस लिए रखा गया है कि एक तो इसमें अधिक खाने की लालसा है और दूसरे यह ज़रूरतमंदों के खाने में हस्तक्षेप का कारण है.
मध्यकाल में लोगों ने इसे विस्तार से देखा और इसके लक्षण में छह बातें बताईं जिनसे पेटूपन साबित होता है. वह इस प्रकार हैं.eating too soon
eating too expensively
eating too much
eating too eagerly
eating too daintily
eating too fervently

ग्रीड (Greed) यानी लालच, लोभ. यह भी लस्ट और ग्लूटनी की तरह है और इसमें में अत्यधिक प्रलोभन होता है. चर्च ने इसे सात महापाप की सूची में अलग से इस लिए रखा है कि इस से धन-दौलत की लालच शामिल है (An excessive desire to acquire or possess more than what one needs or deserves, especially with respect to material wealth)

स्लौथ (Sloth) यानी आलस्य, सुस्ती और काहिली (Aversion to work or exertion; laziness; indolence). पहले स्लौथ का अर्थ होता था उदास रहना, ख़ुशी न मनाना और इसे महापाप में इसलिए रखा गया था कि इस से ख़ुदा की दी हुई चीज़ से परहेज़ करना. इस अर्थ का पर्याय आज melancholy, apathy, depression, और joylessness होगा. बाद में इसे इसलिए पाप में शामिल रखा गया क्योंकि इस की वजह से आदमी अपनी योग्यता और क्षमता का प्रयोग नहीं करता है.

रैथ (Wrath) ग़ुस्सा, क्रोध, आक्रोश. इसे नफ़रत और ग़ुस्से का मिला जुला रूप कहा जा सकता है जिस में आकर कोई कुछ भी कर जाता है. यह सात महापाप में अकेला पाप है जिसमें हो सकता है कि आपका अपना स्वार्थ शामिल न हो (Forceful, often vindictive anger)
एनवी (Envy) यानी ईर्ष्या, डाह, जलन, हसद. यह ग्रीड यानी लालच से इस अर्थ में अलग है कि ग्रीड में धन-दौलत ही शामिल है जबकि यह उसका व्यापक रूप है. यह महापाप इस लिए है कि कोई गुण किसी में देख कर उसे अपने में चाहना और दूसरे की अच्छी चीज़ को देख न पाना.
प्राइड (Pride) यानी घमंड, अहंकार, अभिमान को सातों माहापाप में सबसे बुरा पाप समझा जाता है और किसी भी धर्म में इसकी कठोर निंदा और भर्त्सना की गई है. इसे सारे पाप की जड़ समझा जाता क्योंकि सारे पाप इसी के पेट से निकलते हैं. इसमें ख़ुद को सबसे महान समझना और ख़ुद से अत्यधिक प्रेम शामिल है.
अंग्रेज़ी के सुप्रसिद्ध नाटककार क्रिस्टोफ़र मारलो ने अपने नाटक डॉ. फ़ॉस्टस में इन सारे पापों का व्यक्तियों के रूप में चित्रण किया है. उनके नाटक में यह सारे महापाप इस क्रम pride, greed, envy, wrath, gluttony, sloth, lust में आते हैं.
सात अजूबों के साथ सात महापाप सात और महापुण्य भी देख लें. यह इस प्रकार हैं.

सात महापाप

लस्ट (Lust)
ग्लूटनी (Gluttony)
ग्रीड (Greed)
स्लौथ (Sloth)
रैथ (Wrath)
एनवी (Envy)
प्राइड (Pride)

सात महापुण्य

Chastity पाकीज़गी, विशुद्धता
Temperance आत्म संयम, परहेज़
Charity यानी दान, उदारता,
Diligence यानी परिश्रमी,
Forgiveness यानी क्षमा, माफ़ी
Kindness यानी रहम, दया,
Humility विनम्रता, दीनता, विनय

इन सात महापाप और सात महापुण्य में ही समाहित हैं सारे धर्म। अगर धर्मों के पूजा पाखंड को छोड़कर सिर्फ उन चीजों को चुना जाए जो जीवन के लिए अनिवार्य होते हैं तो वे यही सात पुण्य और पाप हैं। शायद कोई प्रगतिशील धर्म की कल्पना की जाए जिसमें किसी ईश्वर व उससे जुड़े चमत्कार व पूजापाठ जैसी चीज न हो तो वह प्रगतिशील धर्म इन्हीं सात वर्ज्य तत्वों के इर्दगिर्द होगा। इस नए पंथ में किसी किस्म की सांप्रदायिकता की कोई गुंजाइश भी नहीं होगी। क्या हम कभी ऐसी दुनियां बना पाएंगे?

Sunday 6 January 2008

पार्टीबाजों, इस विद्यालय से सीखो !

पश्चिम बंगाल में एक ऐसा स्कूल भी है जहां पढ़ाई-लिखाई की शुरुआत किसी प्रार्थना से नहीं बल्कि उस दिन के ताजा समाचार वाले अखबार के वाचन से होती है। रोज सुबह एक छात्र या कोई छात्रा अखबार की खबरें पढ़ते हैं और सभी शिक्षक व छात्र ध्यान से खबरें सुनते हैं। इस प्रक्रिया के पूरा होने पर ही कक्षाएं शुरू की जाती हैं। इस अनोखे स्कूल का यह रिवाज पूरे राज्य या शायद पूरे देश में नायाब व इकलौता है। राज्य के बर्दवान जिले के कालना अनुमंडल के इस सिमलन अन्नपूर्णा काली विद्या मंदिर की स्थापना १९३३ में हुई थी लेकिन अखबार पढ़कर पढ़ाई रिवाज १९५७ में शुरू हुआ था। स्कूल के तत्कालीन प्रधानाध्यापक गौरीशंकर सिकदर ने यह परंपरा डाली थी जो आज भी जारी है। यह खबर जनसत्ता ( कोलकाता संस्करण ) में ४ जनवरी के अंक में छपी है।
मौजूदा प्रधानाध्यापक देवनाथ सिकदर हैं। फिलहाल यहां १२०० विद्यार्थी हैं। इतने बड़े विद्यालय में यह रिवाज शुरू करने के पीछे तर्क यह है कि उस वक्त विद्यालय के ३०-४० किलोमाटर के दायरे में अधिकतर लोगों के घर में न तो रेडियो उपलब्ध था न ही अखबार। हालांकि आज भी इस इलाके को औसतन गरीब ही बताया जाता है। ऐसे हालात में इस रिवाज के शुरू करने का मकसद देश-विदेश की खबरों से छात्रों को अवगत कराना था। ताज्जुब यह है कि पूरे राज्य में प्रार्थना सभा विद्यालयों में अनिवार्य है मगर इस स्कूल ने सरकारी आदेश को तब भी नहीं माना और आज भी नहीं मानता। आज के वाममोर्चा सरकार के शासन में तो प्रार्थना न किए जाने पर भले आपत्ति न दर्ज कराई जाए मगर उस दौर में आजादी मिलने के बाद तो विद्यालयों में प्रार्थना लगभग अनिवार्य ही थी। मगर इस विद्यालय ने जो रास्ता अपनाया है उसका न तो आज कोई विरोध कर रहा है और न तब ही किसी ने किया। आज सभी अभिभावक भी इस अनोखे रिवाज से खुश ही हैं।
इस रिवाज को इतनी लोकप्रियता और पहचान क्यों मिली ? जबकि इसे प्रार्थना के बाद भी करके पढ़ाई शुरू की जा सकती थी मगर यह सवाल भी शायद किसी ने नहीं उठाया। अगर कुछ विरोध अगर हुआ तो वह प्रभावहीन इस लिए भी हो गया होगा क्यों कि तब लोग भी चाहते रहे होंगे कि उनके बच्चे देशकाल की घटनाओं से वाकिफ रहें। प्रधानाध्यापक का तो कहना है कि स्कूल का मकसद यह है कि बच्चे घर जाकर इन खबरों पर अपने माता-पिता से चर्चा करें।
तब और आज के हालात और अखबारों के मिजाज में काफी बदलाव आए हैं मगर रिवाज विना विरोध के जारी है तो निश्चित ही सराहनीय है क्यों कि आज के बंगाल का माहौल बेहद राजनीतिक खेमेबाजी वाला है। ऐसे में स्कूल प्रबंधन का सामंजस्य बैठाना भी काबिले तारीफ है।
हाल ही में आंदोलित हो चुके बंगाल के कई इलाकों ने विचारों के स्तर पर और भी ज्यादा कड़वाहट पैदा किया है। स्कूल में सभी विचार वाले घरों से बच्चे पढ़ने आते हैं मगर यह स्कूल प्रबंधन की बाजीगरी है कि इस रिवाज से सभी अभिभावक भी सहमत और खुश हैं।
क्या बंगाल के विकास के मुद्दे पर राजनीति छोड़कर सभी दल आपस में ऐसी सद्भावना दिखा सकते हैं? शायद नहीं, क्यों कि विकास नहीं बल्कि दलीय बर्चस्व व इलाका दखल जैसे घृणित कार्य को नैतिक मान बैठे हैं ये दल?
पश्चिम बंगाल के सभी दलों को आपस में लड़ना छोड़कर इस विद्यालय से सबक लेनी चाहिए। जब एक विद्यालय तमाम मतभेदों के बीच अपनी अनोखा रिवाज कायम रख सकता है तो विकास के नाम पर बंगाल की राजनीति करने वालों को लोगों को खेमों में बांटने का क्या हक है?

पार्टीबाजों, इस विद्यालय से सीखो !

पश्चिम बंगाल में एक ऐसा स्कूल भी है जहां पढ़ाई-लिखाई की शुरुआत किसी प्रार्थना से नहीं बल्कि उस दिन के ताजा समाचार वाले अखबार के वाचन से होती है। रोज सुबह एक छात्र या कोई छात्रा अखबार की खबरें पढ़ते हैं और सभी शिक्षक व छात्र ध्यान से खबरें सुनते हैं। इस प्रक्रिया के पूरा होने पर ही कक्षाएं शुरू की जाती हैं। इस अनोखे स्कूल का यह रिवाज पूरे राज्य या शायद पूरे देश में नायाब व इकलौता है। राज्य के बर्दवान जिले के कालना अनुमंडल के इस सिमलन अन्नपूर्णा काली विद्या मंदिर की स्थापना १९३३ में हुई थी लेकिन अखबार पढ़कर पढ़ाई रिवाज १९५७ में शुरू हुआ था। स्कूल के तत्कालीन प्रधानाध्यापक गौरीशंकर सिकदर ने यह परंपरा डाली थी जो आज भी जारी है। यह खबर जनसत्ता ( कोलकाता संस्करण ) में ४ जनवरी के अंक में छपी है।
मौजूदा प्रधानाध्यापक देवनाथ सिकदर हैं। फिलहाल यहां १२०० विद्यार्थी हैं। इतने बड़े विद्यालय में यह रिवाज शुरू करने के पीछे तर्क यह है कि उस वक्त विद्यालय के ३०-४० किलोमाटर के दायरे में अधिकतर लोगों के घर में न तो रेडियो उपलब्ध था न ही अखबार। हालांकि आज भी इस इलाके को औसतन गरीब ही बताया जाता है। ऐसे हालात में इस रिवाज के शुरू करने का मकसद देश-विदेश की खबरों से छात्रों को अवगत कराना था। ताज्जुब यह है कि पूरे राज्य में प्रार्थना सभा विद्यालयों में अनिवार्य है मगर इस स्कूल ने सरकारी आदेश को तब भी नहीं माना और आज भी नहीं मानता। आज के वाममोर्चा सरकार के शासन में तो प्रार्थना न किए जाने पर भले आपत्ति न दर्ज कराई जाए मगर उस दौर में आजादी मिलने के बाद तो विद्यालयों में प्रार्थना लगभग अनिवार्य ही थी। मगर इस विद्यालय ने जो रास्ता अपनाया है उसका न तो आज कोई विरोध कर रहा है और न तब ही किसी ने किया। आज सभी अभिभावक भी इस अनोखे रिवाज से खुश ही हैं।
इस रिवाज को इतनी लोकप्रियता और पहचान क्यों मिली ? जबकि इसे प्रार्थना के बाद भी करके पढ़ाई शुरू की जा सकती थी मगर यह सवाल भी शायद किसी ने नहीं उठाया। अगर कुछ विरोध अगर हुआ तो वह प्रभावहीन इस लिए भी हो गया होगा क्यों कि तब लोग भी चाहते रहे होंगे कि उनके बच्चे देशकाल की घटनाओं से वाकिफ रहें। प्रधानाध्यापक का तो कहना है कि स्कूल का मकसद यह है कि बच्चे घर जाकर इन खबरों पर अपने माता-पिता से चर्चा करें।
तब और आज के हालात और अखबारों के मिजाज में काफी बदलाव आए हैं मगर रिवाज विना विरोध के जारी है तो निश्चित ही सराहनीय है क्यों कि आज के बंगाल का माहौल बेहद राजनीतिक खेमेबाजी वाला है। ऐसे में स्कूल प्रबंधन का सामंजस्य बैठाना भी काबिले तारीफ है।
हाल ही में आंदोलित हो चुके बंगाल के कई इलाकों ने विचारों के स्तर पर और भी ज्यादा कड़वाहट पैदा किया है। स्कूल में सभी विचार वाले घरों से बच्चे पढ़ने आते हैं मगर यह स्कूल प्रबंधन की बाजीगरी है कि इस रिवाज से सभी अभिभावक भी सहमत और खुश हैं।
क्या बंगाल के विकास के मुद्दे पर राजनीति छोड़कर सभी दल आपस में ऐसी सद्भावना दिखा सकते हैं? शायद नहीं, क्यों कि विकास नहीं बल्कि दलीय बर्चस्व व इलाका दखल जैसे घृणित कार्य को नैतिक मान बैठे हैं ये दल?
पश्चिम बंगाल के सभी दलों को आपस में लड़ना छोड़कर इस विद्यालय से सबक लेनी चाहिए। जब एक विद्यालय तमाम मतभेदों के बीच अपनी अनोखा रिवाज कायम रख सकता है तो विकास के नाम पर बंगाल की राजनीति करने वालों को लोगों को खेमों में बांटने का क्या हक है?

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