बिहार में वोट पड़ने शुरू हो गए हैं। पहले चरण में तीन बजे तक ५५ फीसद वोट पड़े। यह आंकड़ा किसी परिवर्तन या वर्तमान नीतीश सरकार की फिर वापसी का संकेत है कि नहीं मगर इस चुनाव ने यह बहस जरूर चला दी है कि बिहार कितना बदला ? प्राचीन भारत में सुशासन और मजबूत सत्ता का पर्याय था बिहार। अजातशत्रु, बिम्बिसार, सम्राट अशोक का पाटलिपुत्र इतिहास के अनेक दौर से होकर लालू और नीतीश तक पहुंचा है। आम लोगों से जानने की कोशिश करिए तो एक बात पर सहमति दिखती है कि बिहार अब बदलाव के रास्ते पर है। यह बदलाव क्या सिर्फ राजनीतिक बदलाव है या बिहार फिर शक्तिशाली और सुविकसित मगध बनने की ओर है। इसका आकलन तो वह जनता ही कर पाएगी जो वोट दे रही है मगर यह तय है कि अगर नीतीश के कार्यकाल में लोगों को विकास व बदलाव भाया है तो नतीजे भी वैसे ही आएंगे। जो भी हो मगर बदलते बिहार को फिर तलाश है एक सम्राट अशोक की।
आज यक़ीन करना मुश्किल लगता है कि 1952 तक बिहार देश का सबसे सुशासित राज्य था और इसी बिहार में, जो 270 ईसा पूर्व में मगध था, सम्राट अशोक ने प्रशासन प्रणाली एक ढाँचा विकसित किया था. आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह बहस चल रही है कि क्या सम्राट अशोक ने ही आधुनिक खुली अर्थव्यवस्था की नींव रखी थी. लेकिन यह विडंबना है कि समकालीन राजनीति में उसी बिहार का उल्लेख सबसे अराजक राज्य के रुप में होता है. इसी बिहार ने आज़ादी के बाद का देश का अकेला जनआंदोलन खड़ा किया लेकिन यही बिहार ग़रीबी और कुपोषण से लेकर राजनीति के अपराधीकरण तक के लिए बदनाम भी सबसे अधिक हुआ. हाल के दिनों में आंकड़ो ने बिहार के बदलने के संकेत दिए हैं लेकिन ज़मीनी स्थिति कितनी बदली है यह अभी अस्पष्ट है.
कांग्रेस का दबदबा
बिहार विधानसभा ने लगातार अस्थिर सरकारों का दौर भी देखा है. अन्य उत्तर भारतीय राज्यों की तरह ही बिहार भी लंबे समय तक कांग्रेस के प्रभाव में रहा है. वर्ष 1946 में श्रीकृष्ण सिन्हा ने मुख्यमंत्री का पद संभाला तो वे वर्ष 1961 तक लगातार इस पद पर बने रहे. चार छोटे ग़ैर कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल को छोड़ दें तो 1946 से वर्ष 1990 तक राज्य में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ही सत्तारुढ़ रही. पहली बार पाँच मार्च 1967 से लेकर 28 जनवरी 1968 तक महामाया प्रसाद सिन्हा के मुख्यमंत्रित्व काल में जनक्रांति दल का शासन रहा. इसके बाद 22 जून 1969 से लेकर चार जुलाई 1969 तक कांग्रेस के ही एक धड़े कांग्रेस (ओ) का शासन रहा और भोला पासवान शास्त्री ने मुख्यमंत्री का पद संभाला.
22 दिसंबर 1970 से दो जून 1971 तक सोशलिस्ट पार्टी के लिए कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री रहे और फिर 24 जून 1977 से 17 फ़रवरी 1980 तक कर्पूरी ठाकुर और रामसुंदर दास के मुख्यमंत्रित्व काल में जनता पार्टी का शासन रहा. बिहार को राजनीतिक रुप से काफ़ी जागरुक माना जाता है, लेकिन यह राजनीतिक रुप से सबसे अस्थिर राज्यों में से भी रहा है.
शायद यही वजह है कि वर्ष 1961 में श्रीकृष्ण सिन्हा के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद 1990 तक क़रीब तीस सालों में 23 बार मुख्यमंत्री बदले और पाँच बार राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा. संगठन के स्तर पर कांग्रेस पार्टी राज्य स्तर पर कमज़ोर होती रही और केंद्रीय नेतृत्व हावी होता चला गया. लेकिन साफ़ दिखता है कि बिहार की राजनीतिक लगाम उसके हाथों से भी फिसलती रही. जिन तीस सालों में 23 मुख्यमंत्री बदले उनमें से 17 कांग्रेस के थे.
संपूर्ण क्रांति आंदोलन
1973 में गुजरात में मेस के बिल को लेकर शुरु हुआ छात्रों का आंदोलन जब 1974 में बिहार पहुँचा तो वह नागरिक समस्याओं का आंदोलन था. लेकिन धीरे-धीरे इसका स्वरुप व्यापक हो गया. शैक्षिक स्तर में गिरावट, महंगाई, बेकारी, शासकीय अराजकता और राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण के मुद्दों पर शुरु हुआ यह आंदोलन सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नतृत्व में एक देशव्यापी आंदोलन बन गया.
चंद्रशेखर, मोहन धारिया, हेमवती नंदन बहुगुणा, जगजीवन राम, रामधन और रामकृष्ण हेगड़े जैसे दिग्गज नेता कांग्रेस से अलग होकर जेपी के साथ आ गए. इस आंदोलन का असर इतना गहरा था कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को इससे ख़तरा महसूस होने लगा और कहा जाता है कि 26 जून, 1975 को जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाने की घोषणा की तो उसके पीछे संपूर्ण क्रांति आंदोलन एक बड़ा कारण था. इसके बाद जनता पार्टी की सरकार आई लेकिन वह अपने ही अंतर्विरोधों की वजह से जल्दी ही गिर गई. बिहार में भी उसका यही हश्र हुआ.
लालू से नीतीश तक
लालू और नीतीश कुमार की राजनीतिक बुनियाद एक ही है. जेपी के आंदोलन ने बिहार में एक नए नेतृत्व को जन्म दिया. लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार उसी की उपज थे. ये नई पीढ़ी राममनोहर लोहिया और जेपी के प्रभाव में जाति तोड़ो आंदोलन की हामी थी. अस्सी के दशक के अंत आते-आते तक उनकी विचारधारा बदलने लगी थी.
वर्ष 1989 में जब केंद्र में वीपी सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में जनता दल सरकार ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया तो बिहार के नेता लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान उसके सबसे बड़े समर्थकों में से थे. इसके बाद बिहार में लालू प्रसाद यादव का उदय हुआ. वीपी सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की वजह से बिहार में जनता दल को जीत मिली और लालू प्रसाद यादव 10 मार्च 1990 को मुख्यमंत्री बने. लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों की वजह से 25 जुलाई 1997 को उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा.
इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री के पद पर बिठा दिया जो छह मार्च 2005 तक लगातार मुख्यमंत्री बनी रहीं. इस बीच राज्य में कांग्रेस एक तरह से हाशिए पर ही चली गई और भाजपा कभी भी ऐसी स्थिति में नहीं आ सकी कि वह अपने बलबूते पर सरकार का गठन कर सके. लालू-राबड़ी के तीन कार्यकालों के बाद बिहार में एक परिवर्तन आया और राष्ट्रीय जनता दल को हार का सामना करना पड़ा.
त्रिशंकु विधानसभा उभरी. लालू प्रसाद के पुराने गुरु जॉर्ज फ़र्नांडिस के साथ उनके पुराने साथी नीतीश कुमार ने जनता दल (यूनाइटेड) बनाकर सत्ता परिवर्तन किया. हालांकि नीतीश को सरकार बनाने के लिए मशक्कत करनी पड़ी. सात मार्च से 24 नवंबर, 2005 तक राज्य में राष्ट्रपति शासन रहा फिर नीतीश कुमार ने 24 नवंबर, 2005 को भाजपा के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री का पद संभाला. उन्होंने बिहार को राजनीति के अपराधीकरण से मुक्ति दिलाने और विकास के रास्ते पर चलाने का वादा किया. और अब २०१० के बिहार विधानसभा चुनाव में वोट भी उसी वादे को पूरा करने के एवज में मांग रहे हैं।