छह चरणों में पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव के पहले चरण का मतदान सोमवार यानी १८ अप्रैल को होने जा रहा है। इस चरण के माहौल की झलक के साथ अब हर चरण के मतदान से पहले हाजिर होता रहूंगा। चुनाव के लिहाज से पश्चिम बंगाल की फिजा अलग ही होती है। ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस की वाममोर्चा को सत्ता से बेदखल की मुहिम ने माहौल को और गरमा दिया है। १९७७ से लगातार तीन दशक से अधिक समय से पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज कम्युनिष्ट सरकार की नींव पिछले पंचायत , लोकसभा और कोलकाता नगर निगम व नगरपालिका चुनावों में हिल चुकी है। अब विधानसभा चुनावों पर भारत समेत पूरी दुनिया की नजर है। कौतूहल भरी इस दिलचस्प लड़ाई का बिगुल बज चुका है। मैं भी अपने ब्लाग के माध्यम से आपको इस जंग से रूबरू कराना चाहता हूं। निरपेक्ष भाव से इस महाभारत की कथा सुनाऊंगा। रखिए मेरे ब्लाग के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव-२०११ धारावाहिक की हर कड़ी पर नजर। ब्लाग नियंत्रक - डा.मान्धाता सिंह |
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कई घटनाक्रमों के साए में सोमवार १८ अप्रैल को पश्चिम बंगाल के उत्तरबंगाल में वोट पड़ेंगे। मतदान से ठीक एक दिन पहले तृणमूल नेता व जहाजरानी मंत्री मुकुलराय का बेटा शुभ्रांशु राय को चुनाव अधिकारियों पर हमला करने के आरोप में नैहाटी इलाके से ममता की चुनावी सभा होने के बाद सभास्थल से गिरफ्तार कर लिया गया। शुभ्रांशु बीजपुर से तृणमूल का उम्मीदवार भी है। इस बड़ी घटना के अलावा दमदम सीट से वाममोर्चा उम्मीदवार व राज्य के आवास मंत्री गौतम ने ममता पर उम्मीदवारों के बीच ३४ करोड़ से अधिक कालाधन बांटने का आरोप लगाया है। जब मुकुल राय ने इसे गलत बताते हुए मानहानि का दावा करने की बात कही तो गौतम देव ने चुनौती दी कि हिम्मत हो तो ममता मानहानि का दावा करें। गौतम ने इस आरोप के पुख्ता सबूत होने का दावा किया। इन दोनों घटनाओं ने उत्तरबंगाल में मतदान से ठीक एक दिन पहले वाममोर्चा में जहां उत्साह भर दिया है वहीं तृणमूल को पशोपेश में डाल दिया है। उत्तरपबंगाल वैसे तो कांग्रोस का गढ़ है मगर विधानसभा चुनावों में वहां वाममोर्चा ही भारी पड़ता रहा है। मालदा इलाके में तो गनीखान परिवार में मतभेद काग्रेस का खासा नुकसान कर चुका है। उत्तरबंगाल में काग्रेस व तृणमूल गठबंधन उम्मीदवार के साथ इनके विद्रोही भी नुकसान पहुंचाने को तैयार खड़े हैं। ऐसे में इन दो बड़ी घटनाओं ने और असमंजस पैदा कर दिया है। क्या सचमुच इन आरोपों से तृणमूल व कांग्रेस के मतदाता दिग्भ्रमित होंगे ? यह तो मतदाता ही जाने मगर परिवरिवर्तन की जो लहर बंगाल में है उसे इस तरह की घटनाएं शायद ही रोक पाएं। कल के मतदान को तो फिलहाल यह प्रभावित करने वाला नहीं दिखता मगर मुद्दा इसी तरह गरम रहा तो कोलकाता और उत्तर २४ परगना के मतदान पर शायद कुछ असर दिखा पाए।
पर्वतीय उत्तरी इलाके दार्जीलिंग से लेकर मालदा जिले तक चुनाव प्रचार अभियान के दौरान राजनीति के बड़े दिग्गजों जैसे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, पार्टी महासचिव राहुल गांधी, केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी एवं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, नितिन गडकरी और अरुण जेटली ने अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए चुनाव प्रचार किया। वाम मोर्चा के अध्यक्ष एवं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के राज्य सचिव बिमान बोस, माकपा पॉलित ब्यूरो सदस्य सीताराम येचुरी तथा तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने छह जिलों में चुनाव प्रचार कर मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किया।
10 मंत्रियों के भाग्य का फैसला
पश्चिम बंगाल के छह जिलों के 54 विधानसभा क्षेत्रों में होने वाले प्रथम चरण के चुनाव में 97.42 लाख मतदाता अपना वोट देंगे। यहां पर मुख्य लड़ाई माकपा की अगुवाई में वाम मोर्चा और तृणमूल-कांग्रेस गठबंधन के बीच है। प्रथम चरण के इस चुनाव से राज्य के 10 मंत्रियों के भाग्य का फैसला तय होगा। पहले चरण के मतदान में माकपा के 32, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के दो, फॉरवार्ड ब्लॉक के 10, रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी (आरएसपी) के नौ, सोशलिस्ट पार्टी के एक, तृणमूल कांग्रेस के 26, कांग्रेस के 27, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के एक तथा भाजपा के 49 उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला होना है।
इन 54 सीटों पर कुल 364 उम्मीदवार भाग्य आजमा रहे हैं। शांतिपूर्ण, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव सुनिश्चत करने के लिए सुरक्षा के कड़े प्रावधान किए गए हैं। राज्य के जिन जिलों में चुनाव होना है उनमें-कूच बिहार, जलपाईगुड़ी, दार्जीलिंग, उत्तरी दिनाजपुर, दक्षिण दिनाजपुर और मालदा शामिल है। इसके लिए 12,133 मतदान केंद्र बनाए गए हैं। मुख्य निर्वाचन अधिकारी सुनील कुमार गुप्ता ने बताया कि सुरक्षा बल विभिन्न इलाकों में पहुंच चुके हैं। राज्यों और अंतरराष्ट्रीय सीमा को सील कर दिया गया है। उन्होंने बताया कि दार्जीलिंग और कलिमपोंग के सुदूरवर्ती इलाकों के लिए मतदानकर्मी शनिवार को ही रवाना हो गए थे।
सत्ता में लंबे समय तक बना रहना ही सबसे बड़ी कमज़ोरी
सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी के लिए सत्ता में एक लंबे समय तक बना रहना ही उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी कही जा रही है। पश्चिम बंगाल में 21 जून, 1977 को लेफ़्ट फ्रंट ने सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ली थी और सत्ता में लगतार बने रहते हुए इसे 34 साल पूरे होने को आ गए हैं। इस उपलब्धि के साथ ही पश्चिम बंगाल में लेफ़्ट फ्रंट की सरकार ने लोकतांत्रिक तरीक़े से सत्ता में बनी रहने वाली सबसे लम्बी कम्युनिस्ट सरकार का रिकार्ड भी बनाया है। लेकिन आगामी चुनावों में इसी बात को इस पार्टी की सबसे बड़ी कमज़ोरी भी बताया जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों की मानी जाए तो पूरे राज्य में एक सत्ता विरोधी लहर दौड़ रही जो सत्ताधारी सीपीआई-एम की गले की फाँस बन गई है। हालांकि मार्क्सवादी नेताओं ने 2009 के लोक सभा चुनावों में मिले करारे झटके के बाद इस लहर का रुख़ मोड़ने की कोशिश की है पर इसे 'देर से जागने वाला' क़दम बताया जा रहा है।
सत्ताधारी पार्टी के समक्ष मुस्लिम मतदाताओं को अपने ख़ेमे में बनाए रखना एक बड़ी चुनौती बन कर उभरा है।
पिछले चुनावी नतीजों और अल्पसंख्यक बहुल इलाक़ों का आंकलन करने के बाद पता चलता है कि कुल 294 सीटों में से 75 से 77 सीटें ऐसी हैं जहां उन्हीं की जीत की संभावना हैं जिन्हें मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन मिलेगा। इन चुनावों में ऐसा भी कहा जा रहा है कि एक लंबे समय तक लेफ़्ट का समर्थन करते रहने के बाद अब ज़्यादातर मुस्लिम मतदाताओं ने अपना समर्थन बंद कर दिया है।
पर्वतीय उत्तरी इलाके दार्जीलिंग से लेकर मालदा जिले तक चुनाव प्रचार अभियान के दौरान राजनीति के बड़े दिग्गजों जैसे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, पार्टी महासचिव राहुल गांधी, केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी एवं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, नितिन गडकरी और अरुण जेटली ने अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के लिए चुनाव प्रचार किया। वाम मोर्चा के अध्यक्ष एवं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के राज्य सचिव बिमान बोस, माकपा पॉलित ब्यूरो सदस्य सीताराम येचुरी तथा तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने छह जिलों में चुनाव प्रचार कर मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किया।
10 मंत्रियों के भाग्य का फैसला
पश्चिम बंगाल के छह जिलों के 54 विधानसभा क्षेत्रों में होने वाले प्रथम चरण के चुनाव में 97.42 लाख मतदाता अपना वोट देंगे। यहां पर मुख्य लड़ाई माकपा की अगुवाई में वाम मोर्चा और तृणमूल-कांग्रेस गठबंधन के बीच है। प्रथम चरण के इस चुनाव से राज्य के 10 मंत्रियों के भाग्य का फैसला तय होगा। पहले चरण के मतदान में माकपा के 32, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के दो, फॉरवार्ड ब्लॉक के 10, रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी (आरएसपी) के नौ, सोशलिस्ट पार्टी के एक, तृणमूल कांग्रेस के 26, कांग्रेस के 27, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के एक तथा भाजपा के 49 उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला होना है।
इन 54 सीटों पर कुल 364 उम्मीदवार भाग्य आजमा रहे हैं। शांतिपूर्ण, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव सुनिश्चत करने के लिए सुरक्षा के कड़े प्रावधान किए गए हैं। राज्य के जिन जिलों में चुनाव होना है उनमें-कूच बिहार, जलपाईगुड़ी, दार्जीलिंग, उत्तरी दिनाजपुर, दक्षिण दिनाजपुर और मालदा शामिल है। इसके लिए 12,133 मतदान केंद्र बनाए गए हैं। मुख्य निर्वाचन अधिकारी सुनील कुमार गुप्ता ने बताया कि सुरक्षा बल विभिन्न इलाकों में पहुंच चुके हैं। राज्यों और अंतरराष्ट्रीय सीमा को सील कर दिया गया है। उन्होंने बताया कि दार्जीलिंग और कलिमपोंग के सुदूरवर्ती इलाकों के लिए मतदानकर्मी शनिवार को ही रवाना हो गए थे।
सत्ता में लंबे समय तक बना रहना ही सबसे बड़ी कमज़ोरी
सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी के लिए सत्ता में एक लंबे समय तक बना रहना ही उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी कही जा रही है। पश्चिम बंगाल में 21 जून, 1977 को लेफ़्ट फ्रंट ने सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ली थी और सत्ता में लगतार बने रहते हुए इसे 34 साल पूरे होने को आ गए हैं। इस उपलब्धि के साथ ही पश्चिम बंगाल में लेफ़्ट फ्रंट की सरकार ने लोकतांत्रिक तरीक़े से सत्ता में बनी रहने वाली सबसे लम्बी कम्युनिस्ट सरकार का रिकार्ड भी बनाया है। लेकिन आगामी चुनावों में इसी बात को इस पार्टी की सबसे बड़ी कमज़ोरी भी बताया जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों की मानी जाए तो पूरे राज्य में एक सत्ता विरोधी लहर दौड़ रही जो सत्ताधारी सीपीआई-एम की गले की फाँस बन गई है। हालांकि मार्क्सवादी नेताओं ने 2009 के लोक सभा चुनावों में मिले करारे झटके के बाद इस लहर का रुख़ मोड़ने की कोशिश की है पर इसे 'देर से जागने वाला' क़दम बताया जा रहा है।
सत्ताधारी पार्टी के समक्ष मुस्लिम मतदाताओं को अपने ख़ेमे में बनाए रखना एक बड़ी चुनौती बन कर उभरा है।
पिछले चुनावी नतीजों और अल्पसंख्यक बहुल इलाक़ों का आंकलन करने के बाद पता चलता है कि कुल 294 सीटों में से 75 से 77 सीटें ऐसी हैं जहां उन्हीं की जीत की संभावना हैं जिन्हें मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन मिलेगा। इन चुनावों में ऐसा भी कहा जा रहा है कि एक लंबे समय तक लेफ़्ट का समर्थन करते रहने के बाद अब ज़्यादातर मुस्लिम मतदाताओं ने अपना समर्थन बंद कर दिया है।