Wednesday, 17 June 2009

लालगढ़- नंदीग्राम के बाद अब एक और खूनी जंग की आशंका


सिंगुर और नंदीग्राम में सरकार का विपक्ष ने जमीन अधिग्रहण के कारण जो विरोध किया था उसे रोकने में सरकार ने सख्ती का जो रवैया अपनाया था उसकी चरम परिणति भारी पैमानों पर खूनखराबे में बदल गई। दोनों तरफ इलाके में दबदबा कायम रखने की छिड़ी जंग में ताकतवर माकपा ने नंदीग्राम से अंततः विरोधिओं को खदेड़ दिया। सिंगुर में ममता बनर्जी ने सरकार व टाटा के खिलाफ जो जंग छेड़ी उसमें भी खूनखराबा तो हुआ ही, नैनो जैसा उद्योग भी पश्चिम बंगाल के हाथ से निकल गया। सरकार की हर मामले को ताकत से निबटाने की प्रवृत्ति का नतीजा यह रहा कि लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल में ३२ सालों से सत्तासीन माकपा को अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा। यह सब ताकत के आगे उभरे उस जनविरोध का नतीजी था वाममोर्चा सरकार के जिद के कारण पैदा हुआ था। यानी जनता में यह विरोध विपक्ष ने नहीं बल्कि खुद वाममोर्चा सरकार और पार्टी के तानाशाह रवैए ने पैदा किया। कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंककर पीता है। अब लालगढ़ की समस्या में एक बार फिर वाममोर्चा सरकार फिर फंस गई है। तब कांग्रेस साथ थी मगर अब कांग्रेस भी तृणमूल के साथ खड़ी हो गई है।
लालगढ़ की हालत बदतर है और पूरे इलाके पर सरकार से नाराज आदिवासियों की मदद से माओवादियों का कब्जा है। माकपा के लोग दिन दहाड़े मारे जा रहे हैं। सरकार चाहकर भी कारवाई नहीं कर पा रही है क्यों कि उसे डर है कि अपने कार्यकर्ताओं को बचाने की कार्रवाई में कहीं फिर कोई नंदीग्राम या सिंगुर के हालात पैदा हो जाएं और विपक्ष इसका राजनीतिर फायदा उठा ले। २९ नगरपालिकाओं के लिए २८ जून को होने वाले चुनाव ने और भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। अब तो इस बेसब्री का बांध भी टूट कहा है। माकपा के राज्य सचिव विमान बोस ने तो स्पष्ट तौरपर कहा है कि सरकार लालगढ़ में कार्रवाई करे। केंद्र ने भी राज्यसरकार के पाले में गेंद डाल दिया है। केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने कहा है कि उस इलाके में अमन कायम रखना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। कुल मिलाकर लालगढ़ के मुद्दे पर केंद्र भी मदद तो दे रहा है मगर चाहता है कि माओवादियों के खिलाफ जंग राज्य सरकार छेड़े। अब अगर सरकार कार्रवाई की जाती है तो माओवादियों से खूनी जंग लड़नी होगी और इसमें हजारों आदिवासी भी मारे जाएंगे। यह इस लिए भी क्यों कि माओवादी आदिवासियों को आगे करके जंग लड़ रहे हैं। सामने से कारिवाई होगी तो भी आदिवासी मारे जाएंगे और आदिवासी पीछे लौटे तो भी मारे जाएंगे। दोनों सूरत में दोषी सरकार ही होगी। शायद यही वजह है कि लालगढ़ में कुछ करने से हिचक रही है सरकार। इस खेल में कांग्रेस और तृणमूल तमाशाई बनकर उस वक्त का इंतजार कर रहे हैं जब व्यापक पैमाने पर हिंसा हो और सरकार को इसका जिम्मेदार ठहराकर राजनीतिक लाभ उठाया जा सके। अकेली पड़ी माकपा की गति सांप-छंछूदर की हो गई है। इलाके से माकपाइयों की उस ताकत को भी माओवादियों रणनीतिक तौरकर नष्ट कर दिया है। मारे जाने के भय से सभी नेता इलाका छोड़कर पहले ही भाग चुके हैं। अगर कुशल रणनीति और राजनीति का परिचय इस बार माकपा ने नहीं दिया तो मुसलमानों के बाद पूरे राज्य में उसका आदिवासी वोट बैंक भी धराशायी हो जाएगा। जाहिर है ताकत के इस्तेमाल से हर हाल में माकपा को बचना होगा। इस समस्या की कुछ अहम खबरों के अलावा आइए यह भी जानें कि क्यों ऐसा हुआ और अब क्या हो रहा है ?


'पश्चिम बंगाल की सरकार में मतभेद'

भारत के गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा है कि पश्चिम बंगाल के लालगढ़ इलाक़े में हो रही हिंसा की रोकथाम के लिए कार्रवाई करने के बारे में राज्य सरकार में मतभेद हैं.उनका कहना है. कि हिंसा का सामना करने के लिए पर्याप्त संख्या में केंद्रीय अर्धसैनिक बल उपलब्ध हैं. दिल्ली में पत्रकारों से बातचीत करते हुए गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा, "ऐसा प्रतीत होता है कि (पश्चिम बंगाल) सरकार का एक पक्ष कार्रवाई करना चाहता है लेकिन सरकार में दूसरा पक्ष ऐसा करने के नतीजों के बारे में चिंतित है. समाचार एजेंसियों के अनुसार उनका कहना था, "ये फ़ैसला मुख्यमंत्री को करना है. उन्हें अपने सुरक्षा बल प्रभावित क्षेत्र में भेजने चाहिए और उस इलाक़े पर नियंत्रम कायम करना चाहिए जो मार्क्सवादियों के प्रभाव में है. केंद्रीय अर्धसैनिक बल पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हैं और वे राज्य पुलिस को सहयोग और सहायता देंगे."
उधर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी नेता सीताराम येचुरी ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि केंद्र को प्रभावित इलाक़े में रह रहे लोगों की मदद करनी चाहिए और कुछ हद तक मदद मिली शुरु हो गई है. उनका कहना था कि ऐसा इसलिए ज़रूरी है क्योंकि भारत को सबसे बड़ी आंतरिक चुनौती माओवादियों से ही मिल रही है. ग़ौरतलब है कि इससे पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पश्चिम बंगाल की सरकार को हिदायत दी थी कि वह 'अपने सुरक्षा बलों की पूरी ताकत उस इलाक़े में झोंक दे क्योंकि क़ानून व्यवस्था कायम करना राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी है.'

सीपीएम के छह कार्यकर्ताओं की हत्या
पश्चिम बंगाल के लालगढ़ इलाक़े में संदिग्ध माओवादी विद्रोहियों ने सत्तारुढ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के छह कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी है.पार्टी के छह अन्य कार्यकर्ता अभी लापता बताए जा रहे हैं. उधर विद्रोहियों की मदद से गाँव वालों ने सड़कों पर जाम लगा दिया है, जिससे सुरक्षा बल उस क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पा रहे हैं. आदिवासियों के प्रभाव वाला लालगढ़ क्षेत्र पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर ज़िले में है और वहाँ पर पिछले साल नवंबर महीने से ही माओवादी विद्रोहियों का नियंत्रण रहा है.

पिछले कुछ दिनों में विद्रोहियों की मदद से गाँव वालों ने उस क्षेत्र में और ज़्यादा गाँवों पर क़ब्ज़ा कर लिया है. साथ ही उन्होंने माकपा के कार्यालयों को आग लगा दी और उन्हें ध्वस्त कर दिया. मंगलवार सुबह संदिग्ध माओवादियों ने माकपा के तीन कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी थी. वे तीनों माओवादी एक मोटर साइकिल पर वहाँ पहुँचे थे और उन्होंने उन लोगों पर गोलियाँ चला दी थीं. पुलिस के अनुसार उस समय वे तीनों कार्यकर्ता वहाँ एक चाय की दुकान पर थे.
लालगढ़ में माओवादियों ने अब सड़कों पर गश्त शुरू कर दी है गाँव वालों ने पेड़ काटकर लालगढ़ की ओर जाने वाले आठ रास्तों पर रुकावटें खड़ी कर दी हैं, जिससे सुरक्षा बल वहाँ नहीं पहुँच सकें.इसके बाद ख़बरें हैं कि पश्चिम बंगाल सरकार ने एक हज़ार और अर्द्धसैनिक बलों की माँग की है जिससे वे लालगढ़ पर क़ब्ज़ा कर सकें.सैनिक वहाँ पहुँचने भी लगे हैं मगर अभी ये अस्पष्ट है कि वे उस क्षेत्र में प्रवेश कब करेंगे.
ख़बरों के अनुसार पुलिस के उस क्षेत्र से जाने के बाद से ही वहाँ सशस्त्र विद्रोही सड़कों पर गश्त लगा रहे हैं.कोलकाता में मौजूद बीबीसी संवाददाता अमिताभ भट्टासाली का कहना है कि सैकड़ों की संख्या में माकपा कार्यकर्ता लालगढ़ क्षेत्र छोड़कर भाग गए हैं. माओवादियों ने इसे पश्चिम बंगाल का पहला 'आज़ाद क्षेत्र' बताया है.

असंतोष
लालगढ़ क्षेत्र में माकपा का अंतिम गढ़ है धरमपुर जहाँ पुलिस की एक चौकी पर आग लगा दी गई और माओवादियों ने एक स्थानीय कम्युनिस्ट नेता का घर गिरा दिया. लालगढ़ में कई महीनों से असंतोष रहा है.वहाँ हिंसा पिछले साल नवंबर में तब शुरू हुई थी जब पुलिस ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य की हत्या की कोशिश के आरोप में कुछ स्थानीय लोगों को गिरफ़्तार किया था. उस समय मुख्यमंत्री संदिग्ध माओवादियों के एक हमले में बाल-बाल बचे थे.उसके बाद गिरफ़्तारियों का विरोध करने के लिए 'पीपुल्स कमेटी अगेंस्ट पुलिस एट्रोसिटीज़' यानी पीसीपीए नाम से एक संगठन बना था. उन लोगों ने हिंसक प्रदर्शन और स्थानीय पुलिस के विरुद्ध हमले किए हैं.
उसी समय से लालगढ़ क्षेत्र में पुलिस और प्रशासन का नियंत्रण लगभग नहीं के बराबर रहा है. हाल के आम चुनाव के समय तो वहाँ पर मतदान केंद्र भी नहीं बनाए जा सके थे. यहाँ सीपीएम और माओवादियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई चलती रही है लेकिन पिछले कुछ सालों में माओवादियों का दखल बढ़ा है.
पश्चिम बंगाल के लालगढ़ और सालबोनी इलाक़े में हथियारों से लैस 'माओवादियों' और आदिवासियों ने लगभग पच्चीस गाँवों पर नियंत्रण कर लिया है.पश्चिमी मिदनापुर के इन इलाक़ों से आंदोलन कर रहे लोगों ने पुलिस को खदेड़ दिया है और वे अर्धसैनिक बलों को भी वहाँ नहीं घुसने दे रहे हैं. इन लोगों ने पश्चिम बंगाल में सत्तारुढ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपएम) के दफ़्तरों को निशाना बनाया और सीपीएम के कार्यकर्ता इलाक़े से भागने को मजबूर हो गए.
माओवादियों का दावा है कि पश्चिम बंगाल में यह उनका पहला 'आज़ाद क्षेत्र' बन गया है. स्थानीय आदिवासी 'पीपुल्स कमेटी अगेंस्ट पुलिस एट्रोसिटीज़' यानी पीसीएपीए के बैनर तले सीपीएम का विरोध कर रहे हैं.सीपीएम के एक नेता ने बताया, "माओवादियों ने सोमवार को धरमपुर गाँव में उत्पात मचाया और हमारे एक कार्यालय में आग लगा दी. तीन या चार लोग मारे गए हैं और छह से ज़्यादा लापता हैं." धरमपुर में सीपीएम का नियंत्रण रहा है जबकि आस-पास के बाक़ी गाँवों पर पिछले नवंबर से ही माओवादियों का नियंत्रण रहा है.

समस्या की जड़

पिछले साल नवंबर में ही पुलिस ने राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य की हत्या करने के प्रयास के आरोप में कुछ स्थानीय लोगों को गिरफ़्तार किया था. लोगों ने सीपीएम कार्यालय में आग लगा दी तब एक बारूदी सुरंग के हमले में बुद्धदेब बाल-बाल बचे थे. लेकिन गिरफ़्तारियों के विरोध में उस इलाक़े में पीसीपीए का गठन हुआ.स्थानीय लोगों की मदद से माओवादियों ने इस इलाक़े में पुलिस और प्रशासन के लोगों को आने की मनाही कर दी.
लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग भी वहाँ मतदान केंद्र बनाने में विफ़ल रहा और इलाक़े से बाहर मतदान केंद्र बनाए गए. यहां सीपीएम और माओवादियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई चलती रही है लेकिन पिछले कुछ सालों में माओवादियों का दखल बढ़ा है.एक वरिष्ठ माओवादी नेता ने कहा, "हम स्थानीय गांव वालों की मदद से बांधों, नहरों और सड़कों का निर्माण कर रहे हैं. हम स्वास्थ्य शिविर भी चला रहे हैं. सरकार ने यहां विकास का कोई काम नहीं किया है. इसलिए हमें ये ज़िम्मेदारी लेनी पड़ी." पश्चिम बंगाल में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) प्रतिबंधित संगठन नहीं है और सत्तारूढ़ सीपीएम कहता रहा है कि वो माओवादियों का मुक़ाबला राजनीतिक स्तर पर करेंगे. (खबरस्रोत- बीबीसी, गूगल व एजंसियों की खबर )

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