Tuesday, 2 November 2010

आप तो अलगाववादियों की भाषा बोल रही हैं अरुन्धतीजी !


बयान देना दिलीप पडगावकर से सीखिए


   कश्मीर पर अरुन्धती का यह नजरिया नया नहीं है। मीडिया में कई बार यह बातें आईँ है। ताज्जुब यह है कि यह चर्चा का विषय तब बना जब पिछले दिनों दिल्ली में कॉलिशन ऑफ सिविल सोसायटीज की ओर से - मुरझाता कश्मीर: आजादी या गुलामी, विषय पर आयोजित सेमिनार में कहा की कश्मीर भारत का अभिन्न अंग कभी नहीं रहा ।
   उन्होंने कश्मीरी लोगों के लिए आत्म निर्णय के अधिकार की वकालत करते हुए कहा कि 1947 में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का स्थान भारतीय उपनिवेशवाद ने ले लिया था, जिससे लोग आज भी गुलामी में हैं। 21 अक्टूबर को 'आजदी एकमात्र विकल्प' विषय पर सेमिनार में गिलानी के साथ अरुंधति रॉय और माओवादी नेता वारा वारा राव भी मंच पर थे और भाषण भी दिया था। उनके भाषण के दौरान काफी हंगामा हुआ था और कश्मीरी पंडितों ने हुर्रियत नेता अली शाह गिलानी गिलानी की तरफ जूता भी फेंका था।

  आपको याद दिला दें कि पाकिस्तान भी, जो कि आजादी के बाद से कश्मीर में अशांति फैलाने में लगा है, कश्मीर में जनमत संग्रह ( वही आत्मनिर्णय ) की वकालत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर करता रहा है। पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी संयुक्त राष्ट्र महासभा के वार्षिक अधिवेशन में भाषण के दौरान, कश्मीर विवाद को सुलझाने के लिए संयुक्त राष्ट्र से जनमत संग्रह कराए जाने की अपील दोहरा चुके हैं।



कौन हैं अरुन्धती राय ?

  अरुन्धती रॉय का जन्म 24 नवंबर, 1961 को असम में हुआ था। इनकी माँ केरल की इसाई और पिता बंगाली हिन्दू हैं। इनकी पहली पुस्तक "गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स" काफी मशहूर हुई और 1997 मे बुकर पुरस्कार से नवाजी गयी है। भारतीय लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधती रॉय और पेप्सिको की प्रमुख इंद्रा नूई का नाम दुनिया की 30 अति प्रेरक महिलाओं की सूची में दर्ज है। इस सूची में मदर टेरेसा और अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के नाम भी शामिल हैं। इस सूची में अरुन्धती रॉय तीसरे स्थान पर हैं तो नूई 10वें स्थान पर। 30 प्रेरक महिलाओं की सूची फोर्ब्स वूमेन नामक टीवी शो की मेजबान ओपरा विन्फ्रे द्वारा तैयार की गई है।

सिर्फ एक उपन्यास लिखनेवाली अरुंधती राय अब निबंध लेखक और टिप्पणीकार के रूप में भारत-प्रसिद्ध हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उनके प्रशंसकों की कमी नहीं है। उन्हें एक तरह से ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ कहा जा सकता है। अरुंधती राय ने ‘कॉमरेडों के साथ घूमते हुए’ रिपोर्ट लिखी, तो देश भर में तहलका मच गया। अरुंधती राय ने मुंबई की एक जनसभा में माओवादी हिंसा का समर्थन किया, तो शोर मच गया कि वे हिंसा के पक्ष में हैं। अरुंधती राय ने कहा कि माओवाद का समर्थन करने के लिए सरकार उन्हें जेल भेजना चाहती है, तो वे इसके लिए पूरी तरह तैयार हैं। वे मलयाली हैं, पर मलयालम में नहीं लिखतीं। छत्तीसगढ़ के आदिवासियों या लालगढ़ के आदिवासियों के लिए आवाज उठाती हैं मगर यह बताने के लिए उनकी समझ की भाषा हिंदी तक का इस्तेमाल नहीं करतीं। अंग्रेजी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जो भले इन्हें ( गरीबों, आदिवासियों को ) समझ में नआए मगर अरुन्धती को ग्लोबल पहचान अवश्य दिलाती है। बुकर सम्मान की दहलीज पर इसी अंग्रेजी की बदैलत पहुंचीं। शोहरत मिली और कद इतना बड़ा हो गया कि भारत की राष्ट्रीयता पर ही सवाल खड़ा कर दिया। इतिहास उठाकर देखा जाए तो अरुन्धती की परिभाषा के दायरे में कम ही ऐसे राज्य होंगे जिसे भारत का अभिन्न अंग माना जाएगा।



इतिहास को झुठलाने की साजिश

   हमें जिस भारत का इतिहास पढ़ाया जाता है उसमें छठी शताब्दी ईसापूर्व में तो भारत चौदह महाजनपदों में विभाजित था। हर महाजनपद स्वतंत्र था। शक्तिशाली मगध या लिच्छवि के शासकों ने एकीकरण किया और इस क्रम को सम्राट कनिष्क, सम्राट अशोक से लेकर गुप्त राजाओं ने प्राचीन भारत को एक विराट राज्य का दर्जा दिया। इतिहास के इन्हीं दौर से गुजरता हुआ भारत या हिंदुस्तान मुगलों व अंग्रेजों के परचम तले एक ऐसे देश में बदल गया जिसकी आजादी के लिए पूरे देश के लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी। तब सभी इसी देश को अपना देश मानते थे। इस देश को बांटना अंग्रेजों ने शुरू किया और आजादी हासिल होने तक पाकिस्तान नामक देश अस्तित्व में आगया। अंग्रेजों ने जो अशांति विभाजन से पैदा की उसकी ज्वाला आज भी भारत को जला रही है।

इतिहास में यहां फिर से झांककर सिर्फ यह बताना चाहरहा हूं कि दुनिया में जितने भी देश हैं उनको एक देश का पहचान ऐसे ही दौर से गुजरकर हुई है। तो क्या लोग उन देशों में लोग गुलामी की जिंदगी जी रहे हैं। भारत के जिस भी हिस्से में अलगाववाद भड़का है वह सब आजाद होना चाहते हैं। अरुन्धती को चाहिए कि उन सब के लिए जंग लड़ें। सिर्फ कश्मीरी अलगाववादियों ही नहीं बल्कि खालिस्तान, बोडोलैंड, कामतापुरी, मणिपुर लिबरेशन फ्रंट, नगा विद्रोही,, आमरा बांगाली सभी की आजादी की जंग अरुन्धती को लड़नी चाहिए। आखिर जिन राज्यों के लिए ये विद्रोही लड़ रहे हैं वे भी इसी परिभाषा के तहत भारत के अभिन्न अंग नहीं ही माने जा सकते। ये सभी कभी रियासते थीं।


अभिव्यक्ति की जगह

   मैं ऐसा कहकर अरुन्धती की अभिव्यक्ति पर किसी प्रतिबंध की वकालत नहीं कर रहा हूं। अपने देश व समाज की बेहतरी के लिए आवाज उठाना भी गलत नहीं है मगर वह अभिव्यक्ति, जो देश को तोड़ती हो या फिर देश की अलगाववादियों की भाषा बोलती हो, शायद देश के किसी भी ऐसे नागरिक को प्रिय नहीं लगेगी जो अपने देश से प्यार करता होगा। शायद देशभक्त कश्मीरी भी नहीं । यहां अरुन्धती की अभिव्यक्ति की तुलना दिलीप पड़गावकर से करना चाहूंगा। पडगावकर ने वकालत की है कि कश्मीर का समाधान पाकिस्तान को साथ लिए बिना संभव नहीं। दिलीप ने कश्मीर के समाधान में देश को तोड़ने वाली कोई बात नहीं कही है। उन्होंने शिमला समझोते का मान रखा है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि कश्मीर विवाद को अंतरराष्ट्रीय रूप न देकर, अन्य विवादों की तरह आपसी बातचीत से सुलझाया जाएगा। तो पाकिस्तान को बातचीत में शामिल करना कोई विवाद का विषय नहीं है। मगर अरुन्धती की भाषा अलगाववादियों की ही है।

आइए पहले शिमला समझौते पर एक नजर डालते हैं------।



शिमला समझौता
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A4%BE_%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%9D%E0%A5%8C%E0%A4%A4%E0%A4%BE
  १९७२ में भारत-पाक युद्ध के बाद भारत के शिमला में एक संधि पर हस्ताक्षर हुए. इसे शिमला समझौता कहते हैं. इसमें भारत की तरफ से इंदिरा गांधी और पाकिस्तान की तरफ से जुल्फिकार अली भुट्टो शामिल थे। जुलफिकार अली भुट्टो ने 20 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति का पदभार संभाला। उन्हें विरासत में एक टूटा हुआ पाकिस्तान मिला। सत्ता सभांलते ही भुट्टो ने यह वादा किया कि वह शीघ्र ही बांग्लादेश को फिर से पाकिस्तान में शामिल करवा लेंगे। पाकिस्तानी सेना के अनेक अधिकारियों को, देश की पराजय के लिए उत्तरदायी मान कर, बरखास्त कर दिया गया था।

   कई महीने तक चलने वाली राजनीतिक-स्तर की बातचीत के बाद जून १९७२ के अंत में शिमला में भारत-पाकिस्तान शिखर बैठक हुई। इंदिरा गांधी और भुट्टो ने, अपने उच्चस्तरीय मंत्रियों और अधिकारियों के साथ, उन सभी विषयों पर चर्चा कह जो 1971 के युद्ध से उत्पन्न हुए थे। साथ ही उन्होंने दोनों देशों के अन्य प्रश्नों पर भी बातचीत की। इन में कुछ प्रमुख विषय थे, युद्ध बंदियों की अदला-बदली, पाकिस्तान द्वारा बांग्लादेश को मान्यता का प्रश्न, भारत और पाकिस्तान के राजनयिक संबंधों को सामान्य बनाना, व्यापार फिर से शुरू करना और कश्मीर में नियंत्रण रेखा स्थापित करना। लम्बी बातचीत के बाद भुट्टो इस बात के लिए सहमत हुए कि भारत-पाकिस्तान संबंधों को केवल द्विपक्षीय बातचीत से तय किया जाएगा। शिमला समझौते के अंत में एक समझौते पर इंदिरा गांधी और भुट्टो ने हस्ताक्षर किए।

इनमें यह प्रावधान किया गया कि दोनों देश अपने संघर्ष और विवाद समाप्त करने का प्रयास करेंगे, और यह वचन दिया गया कि उप-महाद्वीप में स्थाई मित्रता के लिए कार्य किया जाएगा। इन उद्देश्यों के लिए इंदिरा गांधी और भुट्टो ने यह तय किया कि दोनों देश सभी विवादों और समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान के लिए सीधी बातचीत करेंगे और स्थिति में एकतरफा कार्यवाही करके कोई परिवर्तन नहीं करेंगे। वे एक दूसरे के विरूद्घ न तो बल प्रयोग करेंगे, न प्रादेशिक अखण्डता की अवेहलना करेंगे और न एक दूसरे की राजनीतिक स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप करेंगे। दोनों ही सरकारें एक दूसरे देश के विरूद्घ प्रचार को रोकेंगी और समाचारों को प्रोत्साहन देंगी जिनसे संबंधों मेंमित्रता का विकास हो। दोनों देशों के संबंधों को सामान्य बनान के लिए : सभी संचार संबंध फिर से स्थापित किए जाएंगे । आवागमन की सुविधाएं दी जाएंगी ताकि दोनों देशों के लोग असानी से आ-जा सकें और घनिष्ठ संबंध स्थापित कर सकें। जहां तक संभव होगा व्यापार और आर्थिक सहयोग शीघ्र ही फिर से स्थापित किए जाएंगे। विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में आपसी आदान-प्रदान को प्रोत्साहन दिया जाएगा। स्थाई शांतिं के हित में दोनों सरकारें इस बात के लिए सहमत हुई कि 1 भारत और पाकिस्तान दोनों की सेनाएं अपने-अपने प्रदेशों में वापस चली जाएंगी।

दोनों देशों ने 17 सितम्बर 1971 की युद्ध विराम रेखा को नियंत्रण रेखा के रूप में मान्यता दी और यह तय हुआ कि इस समझौते के बीस दिन के अंदर सेनाएं अपनी-अपनी सीमा से पीछे चली जाएंगी। यह तय किया गया कि भविष्य में दोनों सरकारों के अध्यक्ष मिलते रहेंगे और इस बीच अपने संबंध सामान्य बनाने के लिए दोनों देशों के अधिकारी बातचीत करते रहेंगे। भारत में शिमला समझौते के आलोचकों ने कहा कि यह समझौख्ता तो उएके प्रकार से सामने भारत का समर्पण था क्योंकि भारत की सेनाओं ने पाकिस्तान के जिन प्रदेशों पर अधिकार किया था अब उन्हें छोड़ना पड़ा। परंतु शिमला समझौते का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि दोनों देशों ने अपने विवादों को आपसी बातचीत से निपटाने का निर्णय किया। इसका यह अर्थ हुआ कि कश्मीर विवाद को अंतरराष्ट्रीय रूप न देकर, अन्य विवादों की तरह आपसी बातचीत से सुलझाया जाएगा।



तो क्या समझें अरुन्धती के बयान को ?

जहां तक मेरा ख्याल है कि बेहद गरीब व असहाय लोगों की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाली अरुन्धती राय का खयाल अंग्रेजों जैसा ही है। देश को तोड़कर ही उन्हें कश्मीर समस्या का समाधान दिखता है। कश्मीर को तो भारत से अलग-थलग पाकिस्तान भी देखना चाहता है। जनमत संग्रह की बात तो इसी लिए पाकिस्तान उठाता है। फिर यह कौन सा समाधान खोजा अरुन्धती ने ? फिलहाल तो केंद्र सरकार भी भड़काऊ भाषण के आरोप में हुर्रियत नेता गिलानी और अरुन्धती राय पर केस दर्ज कराया है। यहां यह ध्यान देने की बात है कि सरकार या किसी अन्य ने दिलीप पडगावकर पर कोई मामला दर्ज नहीं कराया है क्योंकि पडगावकर ने देश तोड़ने वाला कोई बयान नहीं दिया है। कश्मीर समस्या का हल वे भी तलाश रहे हैं मगर अरन्धती की तरह भावावेश में नहीं बल्कि कानून के दायरे में रहकर बयान दिया है। इससे साफ समझा जा सकता है कि विश्व क्षितिज पर सितारा बनकर चमक रहीं अरुन्धती अपने ही देश के लोगों की भावनों को समझने में भारी भूल कर बैठी हैं। अरुन्धती की अलगाववादी भाषा किसी के भी गले नहीं उतरी है।

अब कुछ उन खबरों पर गौर फरमाएं जो काफी पहले अरुन्धती ने कश्मीर पर कहा है-------।

१- सच नहीं लिखूंगी तो मर जाऊंगी: अरुंधती राय
http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_5216912/
जागरण के पत्रकार अशोक चौधरी ने गोरखपुर में अरुन्धती से बात की थी। यहां सिर्फ वही प्रश्न ले रहा हूं जो कश्मीर पर पूछा गया था। इस बातचीत में उन्होंने कहा है कि सच नहीं लिखूंगी तो मर जाऊंगी। पूरा विवरण लिंक से पढ़िए। यहां देखिए कश्मीर पर अरुन्धती का जवाब------

प्रश्न:अभी आपने कश्मीर पर जो लिखा है, उस पर तमाम बहसें हो रही हैं। इस पर आपकी कोई टिप्पणी।

उत्तर: देखिए, कश्मीर मसला वहां की आम आवाम की आजादी के प्रश्न से जुड़ा है। पहले चरण में जब कश्मीर के चुनाव की हालत का जायजा लीजिये। वहां कुल आबादी थी 30 हजार जिसमें मतदाता थे 15 हजार। इन मतदाताओं पर फौज तैनात थी 60 हजार। यानी एक मतदाता पर 4 फौजी। कश्मीर की आवाम आजादी के लिए लाखों की तादाद में जुट सकती है लेकिन चुनाव में नहीं जुटी। अगर कश्मीर की सही हालत जाननी है तो फौज हटाकर चुनाव कराकर देख लें।

२-ईराक जैसा है कश्मीर – अरुंधती
http://www.network6.in/2010/10/25/%E0%A4%88%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95-%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A5%88-%E0%A4%95%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%B0-%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%A7/
   यह भी एक इंटरव्यू है। इसमें अरन्धती कहती हैं कि भारत और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर अनवरत प्रोपोगंडा कर रहे हैं। दोनों कश्मीर को एक समस्या मानकर शेष दुनिया के सामने प्रदर्शित करते हैं
लेकिन दोनों के लिए कश्मीर एक समस्या नहीं अपितु एक समाधान है जैसा कि आप जानते हैं कश्मीर वो जगह है जहाँ ये दोनों गन्दी राजनीति कर रहे हैं ,वजह साफ़ है कि वो इन्हें सुलझाना नहीं चाहते हैं । ( पूरा इंटरव्यू लिंक से पढ़िए। यहां संक्षिप्त विवरण सिर्फ कश्मीर का दे रहा हूं )।

सवाल--अरुंधती अमेरिकी जनता भारत की जिस जगह बारे में जो सबसे ज्यादा जाना चाहती है वो है कश्मीर ,जिसे हम स्वेटर भी कहते हैं क्या आप हमें बता सकती हैं कि कश्मीर के मौजूदा हालत को वहाँ के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में हम कैसे देखें ?

अरुंधती रॉय -जैसा कि आप जानते हैं वो आजादी के बाद भारत और पकिस्तान के मध्य अधुरा छोड़ा गया एक सवाल है ,ये अंग्रेजों द्वारा भारत को दिया गया उपनिवेशिक तोहफा है ,जैसा कि आप जानते हैं जब अंग्रेज हिंदुस्तान से जाने लगे तो उन्होंने कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बींच फेंक दिया ,विभाजन से पहले कश्मीर एक स्वतंत्र राज्य हुआ करता था , जिसमे मुसलमानों की बहुलता थी लेकिन जिन पर एक हिन्दू राजा का शासन था ,विभाजन के बाद हिंदुस्तान और पाकिस्तान में तक़रीबन एक लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई
उस वक्त हैरत अंगेज तौर पर कश्मीर में शांति थी ,लेकिन जब स्वतंत्र राज्यों को हिंदुस्तान और पाकिस्तान में सम्मिलित होने के लिए कहा गया ,तो राजा कोई फैसला नहीं ले सके ,जिसका फायदा उठाते हुए पाकिस्तानी सेना कश्मीर में घुसपैठ करने लगी ,राजा भागकर जम्मू आ गए और हिंदुस्तान को खुद पर और कश्मीरियों पर शासन करने का अधिकार सौंप दिया
उसके बाद से ही कश्मीर की जनता आजादी की लड़ाई खुदमुख्तारी के मसले पर लड़ाई लड़ रही है ,१९८९ में जब इस लड़ाई ने विद्रोह का रूप धारण कर लिया तो इन्डियन मिलिट्री द्वारा बेहद क्रूरता के साथ उस विद्रोह का दमन कर दिया गया ,अगर आज देखा जाए तो अमेरिकी सेना ईराक में जो कर रही है वही भारत सरकार कश्मीर में कर रही है
सेना के द्वारा उन्होंने समूचे कश्मीर को अपने कब्जे में कर रखा है इसे हम मार्शल ला कह सकते हैं


सवाल--मुझे याद पड़ता है जब ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ रहे थे तब उन्होंने एक साक्षात्कार में कश्मीर के मुद्दे पर कहा था कि ये एक ज्वलंत मुद्दा है और हमें भारत और पाकिस्तान के साथ मिलकर इसे सुलझाना होगा ,क्या आप इसे गंभीर समस्या मानती हैं और आप क्या सोचती है इसका क्या समाधान होना चाहिए?

अरुंधती राय -जैसा कि आप जानते हैं भारत और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर अनवरत प्रोपोगंडा कर रहे हैं ,दोनों कश्मीर को एक समस्या मानकर शेष दुनिया के सामने प्रदर्शित करते हैं
लेकिन दोनों के लिए कश्मीर एक समस्या नहीं अपितु एक समाधान है ,जैसा कि आप जानते हैं कश्मीर वो जगह है जहाँ ये दोनों गन्दी राजनीति कर रहे हैं ,वजह साफ़ है कि वो इन्हें सुलझाना नहीं चाहते हैं क्यूंकि जब कभी इन दोनों देशों में कोई अंदरूनी समस्या उठ खड़ी होती है तो वो कश्मीर के मुद्दे को उछलकर अपने अपने देश की जनता का ध्यान मुख्य समस्याओं से हटा सकते हैं
मेरा मानना है कि ये दोनों ही देश इस समस्या को सुलझाने वाले नहीं है ,जिसका खामियाजा कश्मीर की जनता भुगत रही है ,जिसके बारे में बहुत सारे झूठ बोले जा चुके है


३- अरुंधती राय और उनका क्रांति का कैरीकेचर
http://www.jlsindia.org/nayapath/latest/arundhati_rajendra_sharma.htm

माओवादियों पर अरुंधती राय के नजरिए के लिए यह लेख पढ़ें ।

४-कश्मीर मामले में एक श्वेत पत्र प्रकाशित किये जाने की जरूरत
http://www.swatantravaarttha.com/editorial/article-6227


अब अरुन्धती का भाषण देखिए------

कश्मीर पर अरुंधती राय का सनसनीखेज़ बयान

http://www.mediapassion.co.in/Breakingnews.asp?Details=3188
सुप्रसिद्ध लेखिका अरुंधती राय ने रविवार को कॉलिशन ऑफ सिविल सोसायटीज की ओर से मुरझाता कश्मीर: आजादी या गुलामी विषय पर आयोजित सेमिनार में कहा की कश्मीर भारत का अभिन्न अंग कभी नहीं रहा । उन्होंने कश्मीरी लोगों के लिए आत्म निर्णय के अधिकार की वकालत करते हुए कहा कि 1947 में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का स्थान भारतीय उपनिवेशवाद ने ले लिया था, जिससे लोग आज भी गुलामी में हैं। ज्ञात हो कुछ दिनों से कश्मीर का मुद्दा विभिन्न कारणों से गर्म है, पहला वहा जारी हिंसा दूसरा, लोगो के उकसाने वाले बयानों से । उल्लेखनीय है कश्मीर मुद्दे का समाधान पाकिस्तान को वार्ता में शामिल किए बिना संभव नहीं होने की टिप्पणी कश्मीर भेजे गए प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य दिलीप पडगांवकर ने भी की है। पडगांवकर व अरुन्धती दोनों अपने बयान पर कायम हैं।

प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका अरुंधती राय ने सेमिनार में कहा की साम्राज्यवादी औपनिवेश को जगह तेजी से कॉर्पोरेट औपनिवेश आ रहा है। कश्मीरी लोगों को तय करना होगा कि क्या वे भारतीय दमन की जगह भावी स्थानीय कॉर्पोरेट दमन चाहते हैं । उन्होंने कहा की कश्मीरी लोगो के कारण ही बाकि के भारतीयों को पता चल रहा है की वे कितनी परेशानी में है। उन्होंने कहा की आपको तय करना होगा की, जब आपको अपना भविष्य तय करने की अनुमति दी जाएगी तो आप किस तरह का समाज चाहते हो ।
इस सेमिनार में अरुंधती रॉय के अलावा मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नौलखा और दिल्ली के मजदूर यूनियन नेता अशिम रॉय ने भी अपने विचार रखे और आजादी के लिए कश्मीरी लोगों के संघर्ष का समर्थन किया । जम्मू कश्मीर कोएलिशन ऑफ सिविल सोसायटी की तरफ से कराए गए इस सेमिनार में कोई मुख्यधारा या अलगाववादी राजनेता मौजूद नहीं था ।

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

असत्य को सत्य सत्यापित करने का हठ जब अपने मरने से जोड़ दिया जाये तो उस हठ में कुछ भी शेष नहीं रहता है।

MARCH said...

अरून्धती आप बस एक लेखिका हैं, बिना सोंचे मुद्दों पर बयान देने से बचें।
इसी मुद्दे पर मेरे विचार जानने के लिए क्लिक करें:
http://strnzr.blogspot.com/2010/10/get-well-soon-arundhati-roy.html

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