Wednesday 27 February 2013

सचमुच अद्भुत है सूरजकुंड मेला




 

     बचपन की यादें जेहन में उस वक्त ताजा हो गई जब बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के मेरे मित्र सुरेंद्र प्रसाद सिंह ने मेला चलने को कहा। मैं संयोग से फरवरी में ही कोलकाता से दिल्ली पांच फरवरी को पहुंचा था। चार की रात को बारिश व ओलावृष्टि दिल्ली की ठंड को मेरे लिए असहनीय बना दिया था। मैं भी उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले का ही रहने वाला हूं जहां  दिल्ली जैसी ही ठंड पड़ती है मगर पिछले बीस सालों से कोलकाता में रहते हुए इतनी ठंड से पाला नहीं पड़ा था। जाहिर है आदत बदल गई तो ठंड  सताएगी ही।
   ठंड को अपनी आदत बनाने की कोशिश के साथ अपने काम में लग गया था तभी मेले के समापन के दिन  यानी १५ फरवरी बसंतपंचमी को अचानक मैं , सुरेंद्र व बहन कुसुम और भांजी पम्मी के साथ सूरजकुंड मेला पहुंच गया। इसके ठीक एक दिन पहले बनारस से दिल्ली पहुंचे मेरे भांजे डा. विजयकुमार सिंह ने मेले से ही मुझे फोन किया कि वे मेला में आए हुए हैं। फोन पर मेले का विवरण भी दिया। अब तक तो मेला जाने की सोचा भी नहीं था। शायद मैं वक्त निकाल भी नहीं पाता अगर मेरा मित्र सुरेंद्र कुछ युक्ति नहीं लगाता। दरअसल मेरी बेटी अरुणा अपोलो के हास्पीटल एडमिनिस्ट्रेशन कांटैक्ट प्रोग्राम के सिलसिले में मेरे साथ दिल्ली आई थी और रोज सुबह मैं उसे लेकर अपोलो चला जाता था। ऐसे में मैं सोच भी नहीं पा रहा था कि मैं मेला ही क्या, दिल्ली में किसी से मिलने भी जा पाता। इसके पीछे दिल्ली में लड़कियों व महिलाओं पर हो रहे हमले का खौफ था। मेरी बेटी किसी भी तरह से अकेले जाने को तैयार नहीं थी मगर सुरेंद्र ने उसे समझाया और  अकेले अपोलो जाने की उसमें हिम्मत पैदा कर दी। सुरेंद्र की यही युक्ति उस दिन काम आयी। मेले जाने की ईच्छा डा. विजय कुमार ने जगाई और इसे अंजाम दिया मेरे मित्र सुरेंद्र ने जब मुझे फोन किया था तब डां. विजय कुमार सिंह मेले में अपनी पत्नी डा. शीला सिंह, साली मुन्नी व उनके परिवार के साथ थे। कभी मैं, सुरेंद्र, डा. विजय कुमार और डा. शीला सिंह काशी हिंदू विश्वविद्यालय में शिक्षा के क्रम में साथ ही थे। अब हम अलग-अलग शहरों में अपनी आजाविका से जुड़े हैं। मैं कोलकाता इंडियन एक्सप्रेस में तो सुरेंद्र दिल्ली में दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो में और डा. शीला सिंह  व डा. विजय कुमार सिंह बनारस में हैं। प्रसंगवश यह विवरण इसलिए भी दे रहा था  क्यों कि मेले ने हमें इस प्रसंग से जोड़ा है।
  सुना था कि अंतरराष्ट्रीय स्तर का होता है सूरजकुंड का हस्तशिल्प मेला। मगर जब मेला परिसर में दाखिल हुआ तो दुनिया के सबसे बड़े  सूरजकुंड मेले को उम्मीद से कहीं अधिक पाया। हरियाणा के फरीदाबाद जिले में १९८१ से शुरू हुआ इस बार का यह 27वां आयोजन था। हरियाणा पर्यटन विभाग की ओर से आयोजित एक फरवरी को शुरू हुए 15 दिवसीय इस मेले का विषय कर्नाटक राज्य था। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने इस मेले का उदघाटन 2 फरवरी 2013 को किया। इस मेले में भारत की समृद्ध कला और सांस्कृतिक विरासत का अद्भुत नजारा था। सूरजकुंड मेला के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि इसमें सभी सार्क देशो ने हिस्सा लिया।

    दिल्ली-फरीदाबाद मार्ग स्थित सूरजकुंड में प्रतिवर्ष लगने वाले हस्तशिल्प मेले में समापन के दिन तक इसबार लगभग ११ लाख दर्शक पहुंचे। मेला क्षेत्र 40 एकड़ में फैला हुआ है। अरावली पर्वतमाला की तराई में विशाल तालाब सूरजकुंड का निर्माण 10वीं शताब्दी में तोमर वंश के राजा सूरजपाल ने करवाया था। तालाब के चारों ओर ईंट से बनी पक्की सीढ़ियां हैं। इसी तालाब के समीप विस्तृत मैदान में अंतरराष्ट्रीय हस्तशिल्प मेले का आयोजन होता है। लोगों की मान्यता है कि इस तालाब में नहाने से रोगों से छुटकारा मिलता है मगर मुझे मेले में ऐसा कुछ देखने-सुनने को नहीं मिला।
     पश्चिम बंगाल और असम के बांस और बेंत की वस्तुएं, पूर्वोत्तर राज्यों के वस्त्र, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश से लोहे व अन्य धातु की वस्तुएं, उड़ीसा एवं तमिलनाडु के अनोखे हस्तशिल्प, मध्य प्रदेश, गुजरात, पंजाब और कश्मीर के आकर्षक परिधान और शिल्प, सिक्किम की थंका चित्रकला, मुरादाबाद के पीतल के बर्तन और शो पीस, दक्षिण भारत के रोजवुड और चंदन की लकड़ी के हस्तशिल्प भी यहां प्रदर्शित थे।
श्रीलंका के बने मुखौटे का जादू पर्यटकों के सिर चढ़कर बोला। शेखावटी गेट से नीचे उतरते ही वहा लगे सार्क देशों के स्टॉलों पर भीड़ ज्यादा थी। कलाकृतियों को देखते ही खुद-ब-खुद पांव ठहर जाते हैं। श्रीलंका में हर घर के बाहर मुखौटे लगाने का दस्तूर है। भारत में गांव व शहरों में भी घर के बाहर विभिन्न तरह के मुखौटे देख सकते हैं। श्रीलंका के शिल्पकारों का दावा कि मुखौटे सुख-समृद्धि के वाहक हैं। बुरी नजर से भी बचाता है यह मुखौटा। दावा है कि इससे कई बीमारियां नहीं होती हैं। जिस घर में लगा होता है। वहां सुख व समृद्धि का वास होता है। मुखौटों को ईश्वर का प्रतीक माना जाता है। यह मुखौटे श्रीलंका की संस्कृति की पहचान बने हैं। इसे न केवल श्रीलंका बल्कि विदेशों में भी पहचान मिली है। मुखौटों को ईश्वर का ही अवतार माना जाता है। ये मुखौटे 150 रुपए से 10 हजार रुपए तक के थे

    यहां अनेक राज्यों के खास व्यंजनों के साथ ही विदेशी खानपान का स्वाद भी उपलब्ध था। मेला परिसर में चौपाल और नाट्यशाला नामक खुले मंच पर सारे दिन विभिन्न राज्यों के लोक कलाकार अपनी अनूठी प्रस्तुतियों से समा बांधते हैं। मेले में रोज शाम के समय विशेष सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। दर्शक भगोरिया डांस, बीन डांस, बिहू, भांगड़ा, चरकुला डांस, कालबेलिया नृत्य, पंथी नृत्य, संबलपुरी नृत्य और सिद्घी गोमा नृत्य आदि का आनंद लेते हैं। विदेशों की सांस्कृतिक मंडलियां भी प्रस्तुति देती हैं।
    इस वर्ष मेले में 9 अफ्रीकी देश, तीन यूरेशियाई देश व 6 सार्क देशों के अलावा थाइलैंड व पेरू ने भी अपने शिल्प उत्पादों और कलाकृतियों के साथ अपने देश की संस्कृति का प्रदर्शन किया। 1200 से अधिक शिल्पकारों व 600 से अधिक कलाकारों ने भाग लिया। गुजरात ,असम, हरियाणा के कलाकारों ने मन मोहा। गिनी के कलाकारों ने भी मनोहारी नृत्य प्रस्तुत किया। इसमें मृदंग और बांसुरी वादन का समावेश था। कांगो के कलाकारों ने गांगुलीस नृत्य की प्रस्तुति की। कर्नाटक के कलाकारों ने अपने नृत्य से ऐसा समां बांधा कि दर्शक मंत्रमुग्ध हो गए। समापन के दिन हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुडा व अन्य अतिथियों की मौजूदगी में होटल राजहंस में इन सभी कलाकारों की प्रस्तुति दर्शनीय थी।
विशेष सुरक्षा इंतजाम
    इस अंतरराष्ट्रीय मेले की सुरक्षा व्यवस्था व्यवस्था काफी बेहतर दिखी। मेले की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए इस बार मेला परिसर को सात भागों में विभाजित किया गया । मेला परिसर में 150 नाइट विजन कैमरे लगे थे। बेहतर नियंत्रण का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मेला परिसर में सुरक्षा ड्यूटी पर करीब 1200 पुलिस अधिकारी एवं कर्मचारी तैनात थे। परिसर में 8 पिकेट्स और 8 बुलेट प्रूफ मचान बनाए गए थे। साथ ही करीब 150 सीसी टीवी कैमरे लगाए गए हैं। पांच प्रवेश द्वार बनाए गए थे। इस बार अलग-अलग करीब 14 पार्किंग स्थल थे।

बारिश व ओलावृष्टि ने डाला खलल
चार फरवरी सोमवार की रात हुई मूसलाधार बारिश व ओलावृष्टि ने शिल्पकारों और पर्यटन निगम पर वज्रपात किया। हालत ऐसी कि मेला परिसर में जगह-जगह कीचड़ और पानी भर गया। भारी बारिश के चलते 27वां अंतरराष्ट्रीय सूरजकुंड मेला दो दिन तक बुरी तरह प्रभावित हुआ। चौपालों पर एक भी कार्यक्रम नहीं हो सका। कई देशों से आए शिल्पकारों का सामान भी बारिश की भेंट चढ़ गया। करीब पांच करोड़ रुपए के सामान का नुकसान होने का अनुमान है। खराब मौसम के चलते फीडर ब्रेकडाउन होने से 12 घंटे तक बिजली गुल रही। पूरे दिन सफाई कर्मचारी मेला परिसर से पानी निकालने की कवायद में लगे रहे। सोमवार की रात शिल्पकारों ने जागकर काटी। मगर इसके बाद काफी अच्छा मौसम रहा।  मेला समापन के दो दिन बाद ही फिर बारिश हुई। बहरहाल मेरे लिए मेला घूमना अविस्मरणीय रहा।

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

रंग बिरंगी संस्कृति का प्रतिरूप है यह मेला, सुन्दर चित्र।

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