( श्रद्धांजलि भाग-2 ..आज भी खोजता हूं उस वटवृक्ष की छाया )
यह मेरे बचपन के उस हिस्से की बात है जब मैं स्कूल जाना शुरू नहीं किया था और तब मां और पूरा परिवार गदाईपुर में ही पुस्तैनी मकान में रहता था। इसी मकान के बड़े हिस्से में मेरे काका ( परमहंस सिंह जिन्हें हम गुल्ली काका कहते थे, इनकी कोई संतान नहीं थी। काफी पहले काकी का इंतकाल हो गया था।), चाचा, चाची , व उनके बेटे सुभाष भईया, विजय भईया व प्रेम भईया रहते थे। इनके हिस्से का प्रवेश द्वार दक्षिण व पश्चिम दोनों तरफ था। दरअसल पूरा घर तीन हिस्से में बांटा गया था जिसमें से दो हिस्सा काका व चाचा का था और एक हिस्सा पिताजी को मिला था। यह सिर्फ घर, खेत-जमीन व संपत्ति का बंटवारा था मगर परिवार के सर्वमान्य मुखिया पिताजी ही थे। बड़े भईया हों या छोटे भईया विजय सभी पिताजी के सानिध्य को पसंद करते थे। सभी भाईयों की शादी की बात हो या अन्य समस्या पिताजी के ही सामने सबकुछ रखा जाता था। यह भी विचित्र बात थी कि अलग होते हुए भी निर्विकार भाव से पिताजी बड़े होने की भूमिका निभा रहे थे। उनकी इस भूमिका को हम लोगों ने काफी बड़े होकर भी देखा। यह था उनके विलक्षण व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्णपहलू ।
पश्चिमी-उत्तरी कोने में हमारे घर का हिस्सा था। पश्चिम की तरफ हमारा दरवाजा था। उधर ही पिताजी की घोड़ी का अस्तबल व खाने का हौदा नीम के पेड़ के नीचे था। ईधर ही हम लोग दरवाजे पर खेलते थे। गदाईपुर गांव ( उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के तरवां ब्लाक के पास गाजीपुर व आजमगढ़ सीमा का वह गांव जिसकी आबादी गाजीपुर में मगर गांव के तमाम लोगों की खेती की जमीन आजमगढ़ में थी ) के पूरब तरफ एक विशाल मैदान और पोखरा था। पोखरा तो आज भी है मगर मैदान अतिक्रमण की भेट चढ़ गया है। पोखरे के उत्तरी -पश्चिमी कोने पर पिताजी का बड़ा सा दवाखाना था जहां आयुर्वेदिक दवाओं का भंडार था। यह सिर्फ दवाखाना नहीं था। इसमें पिताजी की बहुमूल्य आध्यात्मिक पुस्तकें व दवा बनाने के निमित्त बहुमूल्य जड़ी-बूटियों का इतना भंडार था कि महीनों तक हजारों रोगियों को रोग के हिसाब से हर तरह की दवाएं बनाई जा सकें। पिताजी की खासियत यह थी कि जो भी दवाएं मरीजों को देते थे उनका निर्माण इसी दवाखाने में खुद करते थे। अर्थात आयुर्वेदिक फार्मेसी के साथ यह वह चैम्बर भी था जहां रोगियों के इलाज के लिए पिताजी बैठा करते थे। दवाखाना के साथ पिताजी के लिए यह एक ऐसा सामुदायिक केंद्र था जहां अध्यात्म व भक्ति चर्चा भी प्रमुखता से होती थी। वर्षों की तपस्या के बाद उन्होंने इसे खड़ा किया था। इसमें इतनी इफरात जगह थी कि पिताजी के अतिथिगण भी अक्सर शरण लेते थे। हम लोग इसे बाबूजी की कुटिया और गांव के लोग बैद भईया का दवाखाना कहते थे। सचमुच में वहां बैठना इतना मनोरम लगता था जैसे पंचवटी में बैठे हों। दरअसल अब समझ में आता है कि पिताजी को ऐसी कुटिया बनाने की प्रेरणा रामचरित मानस में वर्णित राम के वनवास के दौरान कई जगहों पर बनी कुटिया से मिली होगी। इस परमपावन जगह को भी लोगों की नजर लग गई।
हम लोग मनिहारी गए हुए थे। वहीं सूचना मिली कि पिताजी का दवाखाना जल गया और कुछ भी नहीं बचा। दरअसल हुआ यह कि दवाखाना के बगल में जो विशाल खाली जगह थी , उसमें गांव का खलिहान होता था। फसलें काटकर वहां रखी जाती थी फिर मड़ाई वगैरह करके अनाज निकालकर घर ले जाया जाता था। तब मड़ाई के आज जैसे आधुनिक साधन नहीं थे। महीनों तक खलिहान पड़ा रहता था। इसी खलिहान में अरहर के डंठे को सूखने के लिए दवाखाने के पिछवाड़े दीवाल के सहारे खड़ा किया गया था। गांव में अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में घूम रहे विजयी चाचा ने किसी वजह से खलिहान में आग लगा दी। आरोप विजई चाचा पर लगा था। यह विजई चाचा मेरे गांव के काफी शिक्षित व्यक्ति थे मगर किसी वजह से उनका दिमाग फेल हो गया था। इस कारण यत्र-तत्र घूमते रहते थे। किसी विषय पर बहस में लोग उनसे टकराने से बचतेथे। एक बार का बात है कि हमलोग मौसम पर बात कर रहे थे। मैंने कह दिया कि अभी जो तूफान व बारिश हुई है वह एक साइक्लोनिक डिस्टर्बेंस था। चाचा वहां से गुजर रहे थे। ठिठककर रुक गए। मुझसे् ही पूछा कि साइक्लोनिक डिस्टर्बेंस क्या होता है । मुझे इतनी गहरी जानकारी नहीं थी। अब चाचा ने अंगरेजी में इसकी व्य़ाख्या शुरू कर दी। सभी की बोलती बंद थी। चाचा बड़े विद्वान थे मगर विक्षिप्तता ने उन्हें नकारा बना दिया था। कहते हैं कि चाचा ने ही जानबूझकर आग लगाई थी।
बहरहाल दवाखाना जलने की कहानी बता रहा था। आग लगने का जब तक लोगों को पता चलता पूरा खलिहान धू-धू कर जलने लगा। सूख चुकी अरहर की डंठलों से तो ऐसी लपटें उठीं कि सारा दवाखाना पलभर में आग की लपटों में घिर गया। कुछ भी नहीं बचाया जा सका। नतो खलिहान में ऱखीं सालभर की कमाई की फसलें और नही बाबूजी के अरमानों की कुटिया । कुछ घंटों में चारो तरफ राख ही राख था। यह विवरण बाद में जैसा मैंने सुना था, वैसा ही वर्णित किया है। पिताजी के लिए दवाखाना जलने के बाद तो जीवन नए सिरे से शुरू करने जैसा था। किसी से कोई गिला शिकवा नहीं। उन्होंने जल चुके दवाखाने की जगह उस घर में मरीजों को देखना शुरू किया जहां हमलोग रहते थे। सबकुछ जो घटा उसे ईश्वर की मर्जी और नए सिरे से जीवन संघर्ष को ईश्वर का आदेश मानकर जब चलना शुरू किया तो पीछे मुड़कर भी नहीं देखा। निर्विकार भाव से मरीजों को देखते हुए संतों का सा जीवन जीने लगे। पूजापाठ फिर जनसेवा। कई बार सुना कि कई गरीब मरीज दवा व फीस देने के काबिल नहीं मगर उन्हें इलाज की जरूरत थी। पिताजी ने उनसे कुछ नहीं मांगा। खेतों व बगीचों से कुछ जड़ी बूटियां खोजकर लाने को कहते और खल-मूसर देकर उससे ही दवा बनवाते थे। वही दवा उसे दे देते। ऐसी जीवन शैली व धैर्य ने ही उनको लोगों से अलग मुकाम दिया। गृहस्थ जीवन में भी निर्विकार संन्यासियों का सा धैर्य था उनमें। जो कुछ था उसे ईश्वर की कृपा मानते थे। आज बस इतना ही। उनके व्यक्तित्व के एक और पहलू पर फिर कुछ लिखूंगा।
1 comment:
मांधाता जी, पिताजी को श्रद्धांजलि देने का यह प्रयास काबिले तारीख है। इसे इमानदारी से श्रृंखलाबद्ध करिए। आगे चलकर बड़ी कामयाब चीज बनेगी। शुभकामनाएं....पिताजी को श्रद्धासुमन अर्पित करता हूं। वैद्यजी के दर्शन का लाभ मुझे भी मिला था। संभव है आगे की आपकी किसी श्रृंखला में मैं भी अल्प योगदान देने का प्रयास करुंगा। फिर धन्यवाद....
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