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जनसत्ता दिल्ली के २७ जुलाई के अंक में पेज छह पर प्रभाष जोशी और सात पर साजिद रशीद व तरूणविजय के लेख एक साथ सरकार के विश्वास मत के संसद में चले ड्रामे के कई रहस्य खोलते हैं। यही प्रश्न मुझे भी उद्देलित कर रहे थे जिन्हें इन प्रबुद्ध लेखकों ने उठाया है। सांसदों की निष्ठा क्यों डोली? सिर्फ परमाणु करार के मुद्दे पर ही वामपंथी समर्थन वापस क्यों लिए? विपक्ष के नेता के तौर पर आडवाणी की खराब भूमिका जैसे सवाल भारतीय राजनीति उस काले पक्ष को सामने लाते हैं जिसमें पाकसाफ के भी दामन दागदार हैं। मैं इन लेखों की यहां ब्लाग में समीक्षा नहीं करना चाहता मगर यह जरूर चाहता हूं कि इन तीन धाराओं के विचारों से आप भी अवगत हों। तरणविजय को तो आप जानते ही हैं। पांचजन्य के संपादक रह चुके हैं जो कि संघ की विचारधारा को सामने लाते हैं। भाजपा या फिर किसी जनविरोधी मुद्दों पर बेबाक लिखने वाले जनसत्ता के संपादक रह चुके प्रभाष जोशी से भी आप अपरिचित नहीं होंगे। इनतीनों लेखकों में से प्रभाष जोशी और साजिद रशीद ने सरकार के उसी विश्वासमत मुद्दे की पेराई की है जिसपर अब भी मंथन चल रहा है। मगर तरणविजय ने ताजा मुद्दे रामसेतु के राम द्वारा तोड़े जाने के विवाद पर विश्वसनीय होकर सफाई पेश करने की कोशिश की है। इन तीनों लेख के पीडीएफ ब्लाग में दिए हैं। इनपर क्लिक करके पढ़ें। सांप्रदायिकता, वामपंथी और सत्ता के मुद्दे पर मैं भी अगले लेख में इनके चेहरे बेनकाब करूंगा।
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