Friday, 29 August 2008

कोशी का प्रलय








मैं मुरलीगंज का रहने वाला हूं। मेरी बूढ़ी मां, मेरी बहन जिसकी गोंद में नवजात शिशु है, दो दिन से बिना कुछ खाए मेरे घर के छत पर पड़े हैं। नाववाले गांव के पास आकर भी उन्हें वहां से निकालने को राजी नहीं हुए। मैं यहां दूसरी नाव की तलाश में आया हूं ताकि अपने परिवार को बचा सकूं।....... इतना कहते-कहते एक नौजवान फफक कर रो पड़ता है। तभी माइक थमा दी जाती है एक महिला को जो अपने तीन छोटे-छोटे बच्चों को लेकर यत्र-तत्र भटक रही है। जिस जगह पर ये लभी लोग जुटे हैं वह एक उंची जगह है और सुदूर इलाके से यहां पहुंचकर लोग बेचैन हैं कि उनके परिजन कैसे होंगे। इन्हीं में एक शख्स पतरहा के थे। इन्होंने बताया कि उनके गांव में एक छत पर चार सौ के करीब लोग हैं। वहां चार लोगों की मौत हो चुकी है और उनके शव वहीं पड़े हुए हैं। अब उनसे कोई संपर्क नहीं हो पारहा है। किसी हाजी की छत पर जमा इन लोगों को भी बचाने की गुहार माइक थामकर इस मौलाना ने भी लगाई।
ये सभी हिंदी समाचार चैनल स्टार न्यूज के संवाददाता के इर्दगिर्द जमा हैं। संवाददाता इनकी बात सीधे रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव और बिहार के आपदा प्रबंधन मंत्री नीतिश मिश्र से करवा रहा है। लोग यह सोचकर कि, सीधे मंत्री से गुहार लगाने पर शायद मौत के मुंह में खड़े उनके परिजनें को जीवन मिल जाए, वहां जमा हैं। एक बूढ़ा शख्स लपक कर संवाददाता के पैर पकड़ लेता है और अपने उन परिजनों को बचाने की मिन्नतें करता है जिन्होंने फोन करके इस शख्स से कहा कि ये आखिरी बातचीत है। अब हम लोगों की बिदाई होने वाली है। यानी अगर उन्हें बचाया नहीं गया तो किसी भी क्षण मौत के मुंह में जा सकते हैं। इन सबकी गुहार के बाद जब संवाददाता बोलने को मुखातिब हुआ तो वह भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं रहा। शायद आप भी यह देख रहे होते तो आपकी भी जुबां पर दर्द के ताल लग जाते। यह कोशी के प्रलय का छोटा सा दृश्य था। पूरी तस्वार कितनी भयावह है इसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं। यहां पूछा गया कि आपको खाने के पैकेट तो मिल पारहे हैं तो लगभग गुस्से में तमतमाते हुए एक नौजवान ने कहा कि हम दस दिन बिना खाए रह सकते हैं मगर हमें अभी ज्यादा से ज्यादा नावें चाहिए जिससे पानी में फंसे लोगों को निकाला जा सके। दरअसल इन कई लोगों ने शिकायत की कि नाववाले उनसे तीन हजार और पांच हजार पैसा मांग रहे है जबकि उनके पास कुछ नहीं बचा। वे सिर्फ जान बचाना चाहते हैं। आपदा प्रबंधन मंत्री ने भी माना कि नाववालों की बदमाशी की शिकायतें उन तक भी पहुंच रही हैं। ये नावें प्राइवेट नावें हैं।

इनकी त्रासदी यह भी है कि मौत सामने मुंह बाए खड़ी है फिर भी घर छोड़कर नहीं जा पा रहे हैं क्यों कि एक तो नावें उपलब्ध नहीं हैं और दूसरे लोग लूटपाट भी कर रहे हैं। खाली घरों के सामान व सामान के साथ जा रहे लोगों के सामान वगैरह लूट ले रहे हैं। यह शिकायत यहां पहुंचे कई लोगों ने की। इनकी मुसीबत तो देखिए कि कोशी इनसे जीने का अधिकार छीन रही है और जान बचाकर किसी तरह भागे भी तो बदमाशों व उचक्कों से भी नहीं बच पारहे हैं।

फिलहाल तो कोशी का यही प्रलय झेल रहा है बिहार। खौफ में गुजर रही हैं रातें और दिन भर अपने परिजनें को तलाशने के लिए दर -दर भटक रहे हैं उत्तर बिहार के २५ लाख लोग। कहा जा रहा है कि बाढ़ घट भी जाए तो इन लोगों को कम से कम दो साल तक कैंप में ही गुजारने होंगे। क्यों कि इस तबाही के बाद पुनर्वास में इतने समय तो लग ही जाएंगे।


साठ साल से चली आ रही है तबाही

बाढ की यह तबाही तो बिहार साठ साल से झेल रहा है मगर तीस वर्षो के दौरान 1978, 1987, 1998, 2004 और 2007 नदियों से होने वाली व्यापक विनाशलीला वाले साल रहे। पिछले दस साल के आंकड़े बताते हैं कि 2005-06 को छोड़ दिया जाए तो लगभग हर साल इन इलाकों ने बाढ़ की तबाही झेली है और बर्बादी को जीया है। 1998 में बाढ़ की तबाही जुलाई के पहले हफ्ते ही शुरू हो गई थी। भारी बारिश से उत्तर बिहार से होकर गुजरने वाली लगभग सभी नदियों बूढ़ी गंडक, बागमती, अधवारा व कोसी ने जगह-जगह बांधों को तोड़ दिया था और भारी तबाही मचाई थी। इस प्रलय में 318 लोग काल-कवलित हो गए। नदियों का कहर अगले साल 1999 में भी जारी रहा।इस वर्ष अक्टूबर में अप्रत्याशित तौर पर भारी बारिश ने नदियों का मिजाज कुछ ऐसा बिगाड़ा कि उनके जलस्तर ने 1987 के रिकार्ड को भी तोड़ दिया। कमला बलान तो झंझारपुर [मधुबनी] रेलवे ब्रिज को पार कर गई थी। वर्ष 2000 के जुलाई में दो दफे भारी बारिश के बाद कमला बलान और भुतही बलान बौखलाई तो अगस्त में कोसी ने तबाही मचाई। इस बाढ़ में करीब 13 हजार गांव डूबे। साल 2001 में नेपाल जलग्रहण क्षेत्र में भारी बारिश के बाद कोसी ने जहां अपना पश्चिमी तटबंध तोड़ दिया, वहीं भुतही बलान ने दायां तटबंध तोड़ा। बागमती और बूढ़ी गंडक के बाएं तटबंध में कई जगह दरारें पड़ गई। 2002 भी बाढ़ की भीषण तबाही का ही गवाह बना। इस साल कमला बलान का बायां तथा खिरोई का दायां तटबंध टूटने से करीब 500 लोग मारे गए। 2003 में भागलपुर में 1978 की बाढ़ का रिकार्ड टूटा। इसी साल पटना के गांधीघाट के पास गंगा ने 1994 का रिकार्ड तोड़ा। 2004 की जुलाई में उत्तर बिहार में हुई भारी बारिश ने न केवल पिछले तीन साल का रिकार्ड तोड़ा, बल्कि इससे उफनाई नदियों की बाढ़ 1987 की तबाही से भी आगे निकल गई। 2005 और 2006 में स्थिति सामान्य रही। पर, 2007 में उत्तर बिहार में लगभग सभी नदियां लाल निशान को पार कर गई। विभिन्य स्थानों पर 28 तटबंध टूटे। बूढ़ी गंडक और बागमती के जल ग्रहण क्षेत्र में जुलाई और अगस्त महीने के दौरान लगातार बारिश होती रही। इससे लगातार जलस्तर बढ़ता रहा। पूरा उत्तर बिहार बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुआ। करीब 800 लोग मारे गए, जिनमें सर्वाधिक 140 लोग दरभंगा में मरे। साठ साल से चली आ रही तबाही का यह खेल इस साल भी कुछ ऐसी ही दास्तां छोड़ जाएगा।

बिहार का शोक कोसी और नेपाल

नेपाल से निकलकर उत्तर बिहार होते हुए गंगा में मिलकर बंगाल की खाड़ी में समाने वाली कोसी को बिहार का शोक यूं ही नहीं कहा जाता। जानकारों की मानें तो कोसी के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र [हिमालय] में प्राकृतिक और अन्य कारणों के चलते जमीन की ऊपरी परत अपनी जगह से हटती है और भूस्खलन के कारण मैदानी इलाके को हर साल बाढ़ से रूबरू होना पड़ता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि हिमालय की ऊपरी पहाड़ी इलाके से निकलने के कारण बारिश के मौसम में इस नदी का बहाव सामान्य से अठारह गुना तेज हो जाता है। ऐसे में यह सामान्य है कि नदी अपने साथ मिंट्टी की ऊपरी परत गाद के रूप में लेकर आए। मैदानी इलाके में बहाव की गति कम होने पर यह नदी की सतह पर जमा होने लगती है और उथला होने के कारण नदी का जलस्तर स्वाभाविक रूप से बढ़ने लगता है। नदी के मार्ग बदलने का बड़ा कारण यह गाद ही है। पिछले सौ साल में ही नदी 200 किलोमीटर की लंबाई में अपना रास्ता बदल चुकी है।
नेपाल के सहयोग के बिना कोसी के कहर को कम करना संभव नहीं, इसलिए दोनों देशों के बीच 25 अप्रैल 1954 को एक समझौता हुआ, जिसके तहत दोनों देशों ने नेपाली क्षेत्र में हनुमाननगर के पास नदी पर बांध बनाने की योजना बनाई थी। इस समझौते पर भारत की ओर से प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और नेपाल की ओर से तत्कालीन नरेश के प्रतिनिधि मात्रिका प्रसाद कोइराला [गिरिजा प्रसाद कोइराला के बड़े भाई] ने हस्ताक्षर किए थे। समझौते का उद्देश्य प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ को रोकना, जगह-जगह छोटे-छोटे बांधों का निर्माण करना और पनबिजली उत्पादित करने के साथ-साथ इलाके में कृषि को बढ़ावा देना था। इस समझौते के तहत कोसी बैराज बना। इसके बाद भी दोनों देशों ने संयुक्त प्रयास से कई बांधों का निर्माण किया। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि इन बांधों के निर्माण से भी बाढ़ से होने वाली तबाही नहीं रुकी।
नेपाल में बाढ़ के लिए वहां अब भारत को जिम्मेदार ठहराया जाता है तो इस इलाके में बाढ़ के लिए दोषारोपण नेपाल पर होता है। नेपाल का कहना है कि भारत ने नेपाल सीमा पर जिन ग्यारह बांधों का निर्माण कराया है उसमें आठ में नेपाल की सलाह नहीं ली गई। साथ ही अंतरराष्ट्रीय मानकों का भी ख्याल नहीं रखा गया। दूसरी ओर भारत का कहना है कि नेपाल हमेशा समझौैते का उल्लंघन कर बैराज के जरिए अतिरिक्त पानी छोड़ देता है जिससे यहां तबाही बढ़ जाती है। इन सबके इतर दोनों देशों में बांधों का विरोध पर्यावरणविद से लेकर आम लोग तक करते हैं। उनके मुताबिक उत्तरी बिहार और नेपाल का दक्षिणी हिस्सा भूकंप जोन में हैं। बाढ़ रोकने के लिए अगर यहां बांध बनाए गए तो भूकंप आने की स्थिति में बांधों को संभाले रखना असंभव है और तब जो तबाही होगी उसका आकलन सामान्य परिस्थितियों में नहीं किया जा सकता। भूकंप की स्थिति में संपूर्ण उत्तरी बिहार और खासतौर पर मधुबनी, दरभंगा, पूर्णिया और सहरसा जिले जलमग्न हो सकते हैं। बांधों के खिलाफ एक तर्क और है कि चाहे ये जितने मजबूत बनाए जाएं, इनका टूटना या क्षतिग्रस्त होना तयशुदा है। पर्यावरणविद बांधों का इसी आधार पर विरोध करते हैं, लेकिन राजनीतिक दल अपने हित में विशेषज्ञों की अनदेखी कर मनमर्जी वाले स्थान पर बांधों का निर्माण करा देते हैं और जिससे इनकी सुरक्षा को लेकर हरदम संशय बना रहता है। इस बार कहा जा रहा है कि नेपाल में माओवादियों ने तटबंध की मरम्मत में अड़ंगा लगाया अन्यथा बांध को बचाया जा सकता था।

राष्ट्रीय आपदा घोषित

कोसी नदी के तटबंध टूटने से इस बाढ़ से कोई 25 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। बाढ़ से कुल 15 ज़िले प्रभावित हुए हैं। 900 गांवों में बाढ़ का कहर है। नेपाल में तेज बारिश ने कोसी में उफान ला दी है, जिस वजह से उत्तरी बिहार के मधेपुरा, सुपौल, अररिया और पूर्णिया के नए इलाकों में पानी भर गया है। कोसी में नेपाल से एक लाख क्यूसेक पानी छोड़ा गया है और बिहार सरकार को आशंका है कि आने वाले दिनों में नौ लाख क्यूसेक पानी छोड़ा जा सकता है। नेपाल में तटबंध टूटने के बाद कोसी नदी ने 1922 की धारा पर दोबारा बहना शुरू कर दिया है, जिस वजह से इतने बड़े स्तर पर नुकसान हो रहा है। राहत और बचाव कार्य के लिए सेना को बुला लिया गया है।
बिहार में आई बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा करार देते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने २८ अगस्त को बचाव और राहत कार्य के लिए 1,000 करोड़ रुपये और मौजूदा स्थितियों से निपटने के लिए 1.25 लाख टन अनाज की फौरी सहायता देने की घोषणा की। संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ राज्य के सबसे अधिक प्रभावित चार जिलों (सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा ) के हवाई सर्वेक्षण के बाद प्रधानमंत्री ने बिहार को इस स्थिति से निपटने के लिए हरसंभव मदद करने का आश्वासन दिया। मनमोहन सिंह और सोनिया के साथ गृहमंत्री शिवराज पाटिल और लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी मौजूद थे।

Thursday, 28 August 2008

जीने का अधिकार छीन रही है कोशी


मैं मुरलीगंज का रहने वाला हूं। मेरी बूढ़ी मां, मेरी बहन जिसकी गोंद में नवजात शिशु है, दो दिन से बिना कुछ खाए मेरे घर के छत पर पड़े हैं। नाववाले गांव के पास आकर भी उन्हें वहां से निकालने को राजी नहीं हुए। मैं यहां दूसरी नाव की तलाश में आया हूं ताकि अपने परिवार को बचा सकूं।....... इतना कहते-कहते एक नौजवान फफक कर रो पड़ता है। तभी माइक थमा दी जाती है एक महिला को जो अपने तीन छोटे-छोटे बच्चों को लेकर यत्र-तत्र भटक रही है। जिस जगह पर ये लभी लोग जुटे हैं वह एक उंची जगह है और सुदूर इलाके से यहां पहुंचकर लोग बेचैन हैं कि उनके परिजन कैसे होंगे। इन्हीं में एक शख्स पतरहा के थे। इन्होंने बताया कि उनके गांव में एक छत पर चार सौ के करीब लोग हैं। वहां चार लोगों की मौत हो चुकी है और उनके शव वहीं पड़े हुए हैं। अब उनसे कोई संपर्क नहीं हो पारहा है। किसी हाजी की छत पर जमा इन लोगों को भी बचाने की गुहार माइक थामकर इस मौलाना ने भी लगाई।

ये सभी हिंदी समाचार चैनल स्टार न्यूज के संवाददाता के इर्दगिर्द जमा हैं। संवाददाता इनकी बात सीधे रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव और बिहार के आपदा प्रबंधन मंत्री नीतिश मिश्र से करवा रहा है। लोग यह सोचकर कि, सीधे मंत्री से गुहार लगाने पर शायद मौत के मुंह में खड़े उनके परिजनें को जीवन मिल जाए, वहां जमा हैं। एक बूढ़ा शख्स लपक कर संवाददाता के पैर पकड़ लेता है और अपने उन परिजनों को बचाने की मिन्नतें करता है जिन्होंने फोन करके इस शख्स से कहा कि ये आखिरी बातचीत है। अब हम लोगों की बिदाई होने वाली है। यानी अगर उन्हें बचाया नहीं गया तो किसी भी क्षण मौत के मुंह में जा सकते हैं। इन सबकी गुहार के बाद जब संवाददाता बोलने को मुखातिब हुआ तो वह भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं रहा। शायद आप भी यह देख रहे होते तो आपकी भी जुबां पर दर्द के ताल लग जाते। यह कोशी के प्रलय का छोटा सा दृश्य था। पूरी तस्वार कितनी भयावह है इसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं।

यहां पूछा गया कि आपको खाने के पैकेट तो मिल पारहे हैं तो लगभग गुस्से में तमतमाते हुए एक नौजवान ने कहा कि हम दस दिन बिना खाए रह सकते हैं मगर हमें अभी ज्यादा से ज्यादा नावें चाहिए जिससे पानी में फंसे लोगों को निकाला जा सके। दरअसल इन कई लोगों ने शिकायत की कि नाववाले उनसे तीन हजार और पांच हजार पैसा मांग रहे है जबकि उनके पास कुछ नहीं बचा। वे सिर्फ जान बचाना चाहते हैं। आपदा प्रबंधन मंत्री ने भी माना कि नाववालों की बदमाशी की शिकायतें उन तक भी पहुंच रही हैं। ये नावें प्राइवेट नावें हैं।

इनकी त्रासदी यह भी है कि मौत सामने मुंह बाए खड़ी है फिर भी घर छोड़कर नहीं जा पा रहे हैं क्यों कि एक तो नावें उपलब्ध नहीं हैं और दूसरे लोग लूटपाट भी कर रहे हैं। खाली घरों के सामान व सामान के साथ जा रहे लोगों के सामान वगैरह लूट ले रहे हैं। यह शिकायत यहां पहुंचे कई लोगों ने की। इनकी मुसीबत तो देखिए कि कोशी इनसे जीने का अधिकार छीन रही है और जान बचाकर किसी तरह भागे भी तो बदमाशों व उचक्कों से भी नहीं बच पारहे हैं।

फिलहाल तो कोशी का यही प्रलय झेल रहा है बिहार। खौफ में गुजर रही हैं रातें और दिन भर अपने परिजनें को तलाशने के लिए दर -दर भटक रहे हैं उत्तर बिहार के २५ लाख लोग। कहा जा रहा है कि बाढ़ घट भी जाए तो इन लोगों को कम से कम दो साल तक कैंप में ही गुजारने होंगे। क्यों कि इस तबाही के बाद पुनर्वास में इतने समय तो लग ही जाएंगे।



साठ साल से चली आ रही है तबाही

बाढ की यह तबाही तो बिहार साठ साल से झेल रहा है मगर तीस वर्षो के दौरान 1978, 1987, 1998, 2004 और 2007 नदियों से होने वाली व्यापक विनाशलीला वाले साल रहे। पिछले दस साल के आंकड़े बताते हैं कि 2005-06 को छोड़ दिया जाए तो लगभग हर साल इन इलाकों ने बाढ़ की तबाही झेली है और बर्बादी को जीया है। 1998 में बाढ़ की तबाही जुलाई के पहले हफ्ते ही शुरू हो गई थी। भारी बारिश से उत्तर बिहार से होकर गुजरने वाली लगभग सभी नदियों बूढ़ी गंडक, बागमती, अधवारा व कोसी ने जगह-जगह बांधों को तोड़ दिया था और भारी तबाही मचाई थी। इस प्रलय में 318 लोग काल-कवलित हो गए। नदियों का कहर अगले साल 1999 में भी जारी रहा।इस वर्ष अक्टूबर में अप्रत्याशित तौर पर भारी बारिश ने नदियों का मिजाज कुछ ऐसा बिगाड़ा कि उनके जलस्तर ने 1987 के रिकार्ड को भी तोड़ दिया। कमला बलान तो झंझारपुर [मधुबनी] रेलवे ब्रिज को पार कर गई थी। वर्ष 2000 के जुलाई में दो दफे भारी बारिश के बाद कमला बलान और भुतही बलान बौखलाई तो अगस्त में कोसी ने तबाही मचाई। इस बाढ़ में करीब 13 हजार गांव डूबे। साल 2001 में नेपाल जलग्रहण क्षेत्र में भारी बारिश के बाद कोसी ने जहां अपना पश्चिमी तटबंध तोड़ दिया, वहीं भुतही बलान ने दायां तटबंध तोड़ा। बागमती और बूढ़ी गंडक के बाएं तटबंध में कई जगह दरारें पड़ गई। 2002 भी बाढ़ की भीषण तबाही का ही गवाह बना। इस साल कमला बलान का बायां तथा खिरोई का दायां तटबंध टूटने से करीब 500 लोग मारे गए। 2003 में भागलपुर में 1978 की बाढ़ का रिकार्ड टूटा। इसी साल पटना के गांधीघाट के पास गंगा ने 1994 का रिकार्ड तोड़ा। 2004 की जुलाई में उत्तर बिहार में हुई भारी बारिश ने न केवल पिछले तीन साल का रिकार्ड तोड़ा, बल्कि इससे उफनाई नदियों की बाढ़ 1987 की तबाही से भी आगे निकल गई। 2005 और 2006 में स्थिति सामान्य रही। पर, 2007 में उत्तर बिहार में लगभग सभी नदियां लाल निशान को पार कर गई। विभिन्य स्थानों पर 28 तटबंध टूटे। बूढ़ी गंडक और बागमती के जल ग्रहण क्षेत्र में जुलाई और अगस्त महीने के दौरान लगातार बारिश होती रही। इससे लगातार जलस्तर बढ़ता रहा। पूरा उत्तर बिहार बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुआ। करीब 800 लोग मारे गए, जिनमें सर्वाधिक 140 लोग दरभंगा में मरे। साठ साल से चली आ रही तबाही का यह खेल इस साल भी कुछ ऐसी ही दास्तां छोड़ जाएगा।

बिहार का शोक कोसी और नेपाल

नेपाल से निकलकर उत्तर बिहार होते हुए गंगा में मिलकर बंगाल की खाड़ी में समाने वाली कोसी को बिहार का शोक यूं ही नहीं कहा जाता। जानकारों की मानें तो कोसी के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र [हिमालय] में प्राकृतिक और अन्य कारणों के चलते जमीन की ऊपरी परत अपनी जगह से हटती है और भूस्खलन के कारण मैदानी इलाके को हर साल बाढ़ से रूबरू होना पड़ता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि हिमालय की ऊपरी पहाड़ी इलाके से निकलने के कारण बारिश के मौसम में इस नदी का बहाव सामान्य से अठारह गुना तेज हो जाता है। ऐसे में यह सामान्य है कि नदी अपने साथ मिंट्टी की ऊपरी परत गाद के रूप में लेकर आए। मैदानी इलाके में बहाव की गति कम होने पर यह नदी की सतह पर जमा होने लगती है और उथला होने के कारण नदी का जलस्तर स्वाभाविक रूप से बढ़ने लगता है। नदी के मार्ग बदलने का बड़ा कारण यह गाद ही है। पिछले सौ साल में ही नदी 200 किलोमीटर की लंबाई में अपना रास्ता बदल चुकी है।
नेपाल के सहयोग के बिना कोसी के कहर को कम करना संभव नहीं, इसलिए दोनों देशों के बीच 25 अप्रैल 1954 को एक समझौता हुआ, जिसके तहत दोनों देशों ने नेपाली क्षेत्र में हनुमाननगर के पास नदी पर बांध बनाने की योजना बनाई थी। इस समझौते पर भारत की ओर से प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और नेपाल की ओर से तत्कालीन नरेश के प्रतिनिधि मात्रिका प्रसाद कोइराला [गिरिजा प्रसाद कोइराला के बड़े भाई] ने हस्ताक्षर किए थे। समझौते का उद्देश्य प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ को रोकना, जगह-जगह छोटे-छोटे बांधों का निर्माण करना और पनबिजली उत्पादित करने के साथ-साथ इलाके में कृषि को बढ़ावा देना था। इस समझौते के तहत कोसी बैराज बना। इसके बाद भी दोनों देशों ने संयुक्त प्रयास से कई बांधों का निर्माण किया। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि इन बांधों के निर्माण से भी बाढ़ से होने वाली तबाही नहीं रुकी।

नेपाल में बाढ़ के लिए वहां अब भारत को जिम्मेदार ठहराया जाता है तो इस इलाके में बाढ़ के लिए दोषारोपण नेपाल पर होता है। नेपाल का कहना है कि भारत ने नेपाल सीमा पर जिन ग्यारह बांधों का निर्माण कराया है उसमें आठ में नेपाल की सलाह नहीं ली गई। साथ ही अंतरराष्ट्रीय मानकों का भी ख्याल नहीं रखा गया। दूसरी ओर भारत का कहना है कि नेपाल हमेशा समझौैते का उल्लंघन कर बैराज के जरिए अतिरिक्त पानी छोड़ देता है जिससे यहां तबाही बढ़ जाती है। इन सबके इतर दोनों देशों में बांधों का विरोध पर्यावरणविद से लेकर आम लोग तक करते हैं। उनके मुताबिक उत्तरी बिहार और नेपाल का दक्षिणी हिस्सा भूकंप जोन में हैं। बाढ़ रोकने के लिए अगर यहां बांध बनाए गए तो भूकंप आने की स्थिति में बांधों को संभाले रखना असंभव है और तब जो तबाही होगी उसका आकलन सामान्य परिस्थितियों में नहीं किया जा सकता। भूकंप की स्थिति में संपूर्ण उत्तरी बिहार और खासतौर पर मधुबनी, दरभंगा, पूर्णिया और सहरसा जिले जलमग्न हो सकते हैं। बांधों के खिलाफ एक तर्क और है कि चाहे ये जितने मजबूत बनाए जाएं, इनका टूटना या क्षतिग्रस्त होना तयशुदा है। पर्यावरणविद बांधों का इसी आधार पर विरोध करते हैं, लेकिन राजनीतिक दल अपने हित में विशेषज्ञों की अनदेखी कर मनमर्जी वाले स्थान पर बांधों का निर्माण करा देते हैं और जिससे इनकी सुरक्षा को लेकर हरदम संशय बना रहता है। इस बार कहा जा रहा है कि नेपाल में माओवादियों ने तटबंध की मरम्मत में अड़ंगा लगाया अन्यथा बांध को बचाया जा सकता था।

राष्ट्रीय आपदा घोषित

कोसी नदी के तटबंध टूटने से इस बाढ़ से कोई 25 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। बाढ़ से कुल 15 ज़िले प्रभावित हुए हैं। 900 गांवों में बाढ़ का कहर है। नेपाल में तेज बारिश ने कोसी में उफान ला दी है, जिस वजह से उत्तरी बिहार के मधेपुरा, सुपौल, अररिया और पूर्णिया के नए इलाकों में पानी भर गया है। कोसी में नेपाल से एक लाख क्यूसेक पानी छोड़ा गया है और बिहार सरकार को आशंका है कि आने वाले दिनों में नौ लाख क्यूसेक पानी छोड़ा जा सकता है। नेपाल में तटबंध टूटने के बाद कोसी नदी ने 1922 की धारा पर दोबारा बहना शुरू कर दिया है, जिस वजह से इतने बड़े स्तर पर नुकसान हो रहा है। राहत और बचाव कार्य के लिए सेना को बुला लिया गया है।

बिहार में आई बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा करार देते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने २८ अगस्त को बचाव और राहत कार्य के लिए 1,000 करोड़ रुपये और मौजूदा स्थितियों से निपटने के लिए 1.25 लाख टन अनाज की फौरी सहायता देने की घोषणा की। संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ राज्य के सबसे अधिक प्रभावित चार जिलों (सुपौल, सहरसा, अररिया और मधेपुरा ) के हवाई सर्वेक्षण के बाद प्रधानमंत्री ने बिहार को इस स्थिति से निपटने के लिए हरसंभव मदद करने का आश्वासन दिया। मनमोहन सिंह और सोनिया के साथ गृहमंत्री शिवराज पाटिल और लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी मौजूद थे।

Monday, 25 August 2008

वोट और सत्ता के चक्रव्यूह में फँसी हिंदी

दुनियां में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी तीसरे नंबर पर है मगर भारत में ही उसकी दुर्दशा किसी से छुपी नहीं है। राजभाषा होने के कारण इसके नाम पर सरकारी अनुदानों और बजट की लूटखसोट तो खूब होती मगर विकास का ग्राफ निरंतर नीचे ही गिरता जा रहा है। हिंदी दिवस मनाकर हिंदी में काम करने के लच्छेदार भाषण दिए जाते हैं। हिंदी अधिकारी, जिन्हें अधिकार के साथ हिंदी के साथ नाइंसाफी करने का लाइसेंस मिला है, ही इतने सचेत नहीं हैं कि हिंदी का कल्याण हो सके। कुछ अड़चनों का रोना रोकर अपनी जिम्मेदारी निभाने की बात समझा दी जाती है।

अंग्रेजी माध्यम से बच्चों को पढ़ाना शौक और शान है। अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी ही क्या किसी अन्य भारतीय भाषा में पढ़ने वाले बच्चे दोयम समझे जाते हैं। अभी कुछ दिन पहले बनारस के पास अपने गांव मैं गया था। पता चला कि वहां तमाम कानवेंट स्कूल खुल गए हैं। गांव का सरकारी प्राइमरी स्कूल, जिसमें खांटी हिंदी में पढ़ाई होती, अब वीरान सा दिखता है। लोगों का तर्क है कि आगे जाकर नौकरी तो अंग्रेजी पढ़नेवालों को मिलती है तो फि हम हिंदी में ही पढ़कर क्या करेंगे। यह चिंताजनक है और देश की शिक्षा व्यवस्था की गंभीर खामी भी है।जब गोजगार हासिल करने की बुनियादी जरूरतों में परिवर्तन हो रहा है तो बेसिक शिक्षा प्रणाली में भी वही परिवर्तन कब लाए जाएंगे। सही यह है कि वोट के चक्रव्यूह में फंसी भारतीय राजनीति हिंदी को न तो छोड़ पा रही है नही पूरी तरह से आत्मसात ही कर पा रही है।

इसी राजनीतिक पैंतरेबाजी के कारण तो हिंदी पूरी तरह से अभी भी पूरे देश की संपर्क भाषा नहीं बन पाई है। अब वैश्वीकरण की आंधी में अंग्रेजी ही शिक्षा व बोलचाल का भाषा बन गई है। हिदी जैसा संकट दूसरी हिंदी भाषाओं के सामने भी मुंह बाए खड़ा है मगर अहिंदी क्षेत्रों में अपनी भाषा के प्रति क्षेत्रीय राजनीति के कारण थोड़ी जागरूकता है। तभी तो पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में अंग्रेजी को प्राथमिक शिक्षा में तरजीह दी जाने लगी है। दक्षिण के राज्य तो इसमें सबसे आगे हैं। कुल मिलाकर हिंदी हासिए पर जा रही है।

अब तो हिंदी की और भी शामत आने वाली है। नामवर सिंह जैसे हिंदी के नामचीन साहित्यकार तक स्थानीय बोलियों में शिक्षा की वकालत करने लगे हैं। ( देखिए संलग्न पीडीएफ- रजनी सिसोदिया का २७ जुलाई को जनसत्ता में छपा लेख -- जब माझी नाव डुबोए ) अगर सचमुच ऐसा हो जाता है तो सोचिये कि जिन राज्यों में अब तक हिंदी ही प्रमुख भाषा थी वहीं से भी उसे बेदखल होना पड़ेगा। यह हिंदी का उज्ज्वल भविष्य देखने वालों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। अगर यही हाल रहा तो आंकड़ों में हिंदी कब तक पूरी दुनिया में दूलरे नंबर की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा रह जाएगी। क्या रोजी रोटी भी दे सकेगी हिंदी ? सरकारी ठेके पर कब तलक चलेगी हिंदी ? देश की अनिवार्य संपर्क व शिक्षा की भाषा कब बनपाएगी हिंदी। आ रहा है हिंदी दिवस मनाने का दिन। आप भी हिंदी के इन ठेकेदारों से यही सवाल पूछिए।

विश्व की दस प्रमुख भाषाएं

१- चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। मंदरीन में हलो को नि हाओ कहा जाता है। यह शब्द आसानी से लिख दिया मगर उच्चारण तो सीखना पड़ेगा।
२-अंग्रेजी बोलने वाले पूरी दुनिया में ५०८ मिलियन हैं और यह विश्व की दूसरे नंबर की भाषा है। दुनिया की सबसे लोकप्रिय भाषा भी अंग्रेजी ही है। मूलतः यह अमेरिका आस्ट्रेलिया, इग्लैंड, जिम्बाब्वे, कैरेबियन, हांगकांग, दक्षिण अफ्रीका और कनाडा में बोली जाती है। हलो अंग्रेजी का ही शब्द है।
३- भारत की राजभाषा हिंदी को बोलने वाले पूरी दुनियां में ४९७ मिलियन हैं। इनमें कई बोलियां भी हैं जो हिंदी ही हैं। ऐसा माना जा रहा है कि बढ़ती आबादी के हिसाब से भारत कभी चीन को पछाड़ सकता है। इस हालत में नंबर एक पर काबिज चीनी भाषा मंदरीन को हिंदी पीछे छोड़ देगी। फिलहाल हिंदी अभी विश्व की तीसरे नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी में हलो को नमस्ते कहते है।
४- स्पेनी भाषा बोलने वालों की तादाद ३९२ मिलियन है। यह दक्षिणी अमेरिकी और मध्य अमेरिकी देशों के अलावा स्पेन और क्यूबा वगैरह में बोली जाती है। अंग्रेजी के तमाम शब्द मसलन टारनाडो, बोनान्जा वगैरह स्पेनी भाषा ले लिए गए हैं। स्पेनी में हलो को होला कहते हैं।
५- रूसी बोलने वाले दुनियाभर में २७७ मिलियन हैं। और यह दुनियां की पांचवें नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। संयुक्तराष्ट्र की मान्यता प्राप्त छह भाषाओं में से एक है। यह रूस के अलावा बेलारूस, कजाकस्तान वगैरह में बोली जाती है। रूसी में हलो को जेद्रावस्तूवूइते कहा जाता है।
६-दुनिया की पुरानी भाषाओं में से एक अरबी भाषा बोलने वाले २४६ मिलियन लोग हैं। सऊदू अरब, कुवैत, इराक, सीरिया, जार्डन, लेबनान, मिस्र में इसके बोलने वाले हैं। इसके अलावा मुसलमानों के धार्मिक ग्रन्थ कुरान की भाणा होने के कारण दूसरे देशों में भी अरबी बोली और समझी जाती है। १९७४ में संयुक्त राष्ट्र ने भी अरबी को मान्यता प्रदान कर दी। अरबी में हलो को अलसलामवालेकुम कहा जाता है।
७- पूरी दुनिया में २११ मिलियन लोग बांग्ला भाषा बोलते हैं। यह दुनिया की सातवें नंबर की भाषा है। इनमें से १२० मिलियन लोग तो बांग्लादेश में ही रहते है। चारो तरफ से भारत से घिरा हुआ है बांग्लादेश । बांग्ला बोलने वालों की बाकी जमात भारत के पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व पूर्वी भारत के असम वगैरह में भी है। बांग्ला में हलो को एईजे कहा जाता है।
८- १२वीं शताब्दी बहुत कम लोगों के बीच बोली जानेवाली भाषा पुर्तगीज आज १९१ मिलियन लोगों की दुनिया का आठवें नंबर की भाषा है। स्पेन से आजाद होने के बाद पुर्तगाल ने पूरी दुनिया में अपने उपनिवेशों का विस्तार किया। वास्कोडिगामा से आप भी परिचित होंगे जिसने भारत की खोज की। फिलहाल ब्राजील, मकाउ, अंगोला, वेनेजुएला और मोजांबिक में इस भाषा के बोलने वाले ज्यादा है। पुर्तगीज में हलो को बोमदिया कहते हैं।
९- मलय-इंडोनेशियन दुनिया की नौंवें नंबर की भाषा है। दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी के लिहाज से मलेशिया का छठां नंबर है। मलय-इंडोनेशियिन मलेशिया और इंडोनेशिया दोनों में बोली जाती है। १३००० द्वीपों में अवस्थित मलेशिया और इन्डोनेशिया की भाषा एक ही मूल भाषा से विकसित हुई है। इंडोनेशियन में हलो को सेलामतपागी कहा जाता है।
१०- फ्रेंच यानी फ्रांसीसी १२९ मिलियन लोग बोलते हैं। इस लिहाज से यह दुनियां में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में दसवें नंबर पर है। यह फ्रांस के अलावा बेल्जियम, कनाडा, रवांडा, कैमरून और हैती में बोली जाती है। फ्रेंच में हलो को बोनजूर कहते हैं।

वादा आज तक पूरा नहीं हो पाया
"संविधान के अनुसार २६ जनवरी १९६५ से भारतीय संघ की राजभाषा देव नागरी लिपि में हिन्दी हो गई है और सरकारी कामकाज के लिए हिन्दी अंतरराष्टीय अंकों का प्रयोग होगा |" इस देश के संविधान ने इस देश की आत्मा अर्थात "हिन्दी" से एक वादा किया था और वह आज तक पूरा नहीं हो पाया और हिन्दी अपने इस अधिकार के लिए आज तक संविधान के सामने अपने हाथ फैला ये आंसू बहा रही है | क्या वास्तव में हिन्दी इतनी बुरी है कि हम उसे अपनाना नहीं चाहते ? ( विजयराज चौहान (गजब) chauhan.vijayraj@gmail.com के प्रकाशित उपन्यास "भारत/INDIA" के पेज १५६-१५८ ( http://hindibharat.wordpress.com/2008/08/10/11/ )
पर उपन्यास के पात्र इसी तरह से चिंता जाहिर करते हैं। मुख्य पात्र भारत द्वारा गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर स्कूल समारोह में हिंदी के संदर्भ में ये बातें कही जातीं है।

आगे इस उपन्यास के पात्र यह भी कहते हैं कि---
नहीं वह इतनी बुरी चीज नहीं है | वह इस दुनिया कि सबसे अधिक बोली जाने वाली तीसरे नम्बर कि भाषा है। इसकी महत्ता को भारत के अनेक महापुरुषों ने भी स्वीकार किया है।

इसकी इस महत्ता को देखकर ही एक ऐसे व्यक्ति "अमीर खुसरो" जिसकी मूल भाषा अरबी ,फारसी और उर्दू थी उसने कहा था ---

"मैं हिन्दुस्तान कि तूती हूँ ,यदि तुम वास्तव में मुझे जानना चाहते हो हिन्दवी(हिन्दी) में पूछो में तुम्हें अनुपम बातें बता सकता हूँ "

हिन्दी का महत्व समझते हुए ही उर्दू के एक शायर मुहम्मद इकबाल ने बड़े गर्व से कहा था कि --

"हिन्दी है हम वतन है हिन्दोंस्ता हमारा |"

हिन्दी के इसी महत्व को जान कर भारत के एक युगपुरूष महर्षि दया-नंद सरस्वती जिनकी मूल भाषा गुजराती थी, ने कहा था ---

"हिन्दी के द्वारा ही भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। "

लौह पुरुष सरदार वल्बभाई पटेल ने और आजादी के बाद कहा था ---

"हिन्दी अब सारे राष्ट्र की भाषा बन गई है इसके अध्ययन एवं इसे सर्वोतम बनाने में हमें गर्व होना चाहिए |"

गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर ने जिनकी मूल भाषा बांग्ला थी | उन्होंने कहा था कि ---

"यदि हम प्रत्येक भारतीय नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते है तो हमें राष्ट्र भाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश में सबसे बड़े भूभाग में बोली जाती है और वों भाषा हिन्दी है |"

नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने और कहा था कि ---

"हिन्दी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है |"

तस्वीर का दूसरा पहलू
आज हिंदी देश को जोड़ने की बजाए विरोध की भाषा बन गई है। राजनीति ने इसे उस मुकाम पर खड़ा कर दिया है जहां अहिंदी क्षेत्रों में हिंदी विरोध पर ही पूरी राजनीति टिक रई है। पूरे भारत को एक भाषा से जोड़ने की आजाद भारत की कोशिश अब राजनीतिक विरोध के कारण कहने को त्रिभाषा फार्मूले में तब्दील हो गई है मगर अप्रत्क्ष तौर पर सभी जगह हिंदी का विरोध ही दिखता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि हिंदी राज्य स्तर पर हिंदी को सर्वमान्य का सम्मान नहीं मिल पाया है। जिस देश में प्राथमिक शिक्षा तक का भी राछ्ट्रीयकरण सिर्फ हिंदी को अपनाने के विरोध के कारण नहीं हो पाया तो उस देश की एकता का सूत्र कैसे बन सकती है हिंदी। अब वैश्वीकरण के दौर में कम से कम शिक्षा के स्तर पर अंग्रेजी ज्यादा कामयाब होती दिख रही है। कानून हिंदी को सब दर्जा हासिल है मगर व्यवहारिक स्तर पर सिर्फ उपेक्षा ही हिंदी के हाथ लगी है। क्षेत्रीय राजनीति का बोलबाला होने के बाद से तो बोलचाल व शिक्षा सभी के स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं को मिली तरजीह ने एक राष्ट्र-एक भाषा की योजना को धूल में मिला दिया है। अगर हिंदी को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अपनाया नहीं गया तो निश्चित तौर पर इसकी जगह अंग्रेजी ले लेगी और तब क्षेत्रीय भाषाओँ के भी वजूद का संकट खड़ा हो जाएगा। अगर हिंदी बचती है तो क्षेत्रीय भाषाओं का भी वजूद बच पाएगा अन्यथा अंग्रेजी इन सभी को निगल जाएगी। और अंग्रेजी ने तो अब शिक्षा और रोजगार के जरिए यह करना शुरू भी कर दिया है।

वोट और सत्ता के चक्रव्यूह में फँसी हिंदी

दुनियां में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी तीसरे नंबर पर है मगर भारत में ही उसकी दुर्दशा किसी से छुपी नहीं है। राजभाषा होने के कारण इसके नाम पर सरकारी अनुदानों और बजट की लूटखसोट तो खूब होती मगर विकास का ग्राफ निरंतर नीचे ही गिरता जा रहा है। हिंदी दिवस मनाकर हिंदी में काम करने के लच्छेदार भाषण दिए जाते हैं। हिंदी अधिकारी, जिन्हें अधिकार के साथ हिंदी के साथ नाइंसाफी करने का लाइसेंस मिला है, ही इतने सचेत नहीं हैं कि हिंदी का कल्याण हो सके। कुछ अड़चनों का रोना रोकर अपनी जिम्मेदारी निभाने की बात समझा दी जाती है।

अंग्रेजी माध्यम से बच्चों को पढ़ाना शौक और शान है। अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी ही क्या किसी अन्य भारतीय भाषा में पढ़ने वाले बच्चे दोयम समझे जाते हैं। अभी कुछ दिन पहले बनारस के पास अपने गांव मैं गया था। पता चला कि वहां तमाम कानवेंट स्कूल खुल गए हैं। गांव का सरकारी प्राइमरी स्कूल, जिसमें खांटी हिंदी में पढ़ाई होती, अब वीरान सा दिखता है। लोगों का तर्क है कि आगे जाकर नौकरी तो अंग्रेजी पढ़नेवालों को मिलती है तो फि हम हिंदी में ही पढ़कर क्या करेंगे। यह चिंताजनक है और देश की शिक्षा व्यवस्था की गंभीर खामी भी है।जब गोजगार हासिल करने की बुनियादी जरूरतों में परिवर्तन हो रहा है तो बेसिक शिक्षा प्रणाली में भी वही परिवर्तन कब लाए जाएंगे। सही यह है कि वोट के चक्रव्यूह में फंसी भारतीय राजनीति हिंदी को न तो छोड़ पा रही है नही पूरी तरह से आत्मसात ही कर पा रही है।

इसी राजनीतिक पैंतरेबाजी के कारण तो हिंदी पूरी तरह से अभी भी पूरे देश की संपर्क भाषा नहीं बन पाई है। अब वैश्वीकरण की आंधी में अंग्रेजी ही शिक्षा व बोलचाल का भाषा बन गई है। हिदी जैसा संकट दूसरी हिंदी भाषाओं के सामने भी मुंह बाए खड़ा है मगर अहिंदी क्षेत्रों में अपनी भाषा के प्रति क्षेत्रीय राजनीति के कारण थोड़ी जागरूकता है। तभी तो पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में अंग्रेजी को प्राथमिक शिक्षा में तरजीह दी जाने लगी है। दक्षिण के राज्य तो इसमें सबसे आगे हैं। कुल मिलाकर हिंदी हासिए पर जा रही है।

अब तो हिंदी की और भी शामत आने वाली है। नामवर सिंह जैसे हिंदी के नामचीन साहित्यकार तक स्थानीय बोलियों में शिक्षा की वकालत करने लगे हैं। ( देखिए संलग्न पीडीएफ- रजनी सिसोदिया का २७ जुलाई को जनसत्ता में छपा लेख -- जब माझी नाव डुबोए ) अगर सचमुच ऐसा हो जाता है तो सोचिये कि जिन राज्यों में अब तक हिंदी ही प्रमुख भाषा थी वहीं से भी उसे बेदखल होना पड़ेगा। यह हिंदी का उज्ज्वल भविष्य देखने वालों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। अगर यही हाल रहा तो आंकड़ों में हिंदी कब तक पूरी दुनिया में दूलरे नंबर की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा रह जाएगी। क्या रोजी रोटी भी दे सकेगी हिंदी ? सरकारी ठेके पर कब तलक चलेगी हिंदी ? देश की अनिवार्य संपर्क व शिक्षा की भाषा कब बनपाएगी हिंदी। आ रहा है हिंदी दिवस मनाने का दिन। आप भी हिंदी के इन ठेकेदारों से यही सवाल पूछिए।

विश्व की दस प्रमुख भाषाएं

१- चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। मंदरीन में हलो को नि हाओ कहा जाता है। यह शब्द आसानी से लिख दिया मगर उच्चारण तो सीखना पड़ेगा।
२-अंग्रेजी बोलने वाले पूरी दुनिया में ५०८ मिलियन हैं और यह विश्व की दूसरे नंबर की भाषा है। दुनिया की सबसे लोकप्रिय भाषा भी अंग्रेजी ही है। मूलतः यह अमेरिका आस्ट्रेलिया, इग्लैंड, जिम्बाब्वे, कैरेबियन, हांगकांग, दक्षिण अफ्रीका और कनाडा में बोली जाती है। हलो अंग्रेजी का ही शब्द है।
३- भारत की राजभाषा हिंदी को बोलने वाले पूरी दुनियां में ४९७ मिलियन हैं। इनमें कई बोलियां भी हैं जो हिंदी ही हैं। ऐसा माना जा रहा है कि बढ़ती आबादी के हिसाब से भारत कभी चीन को पछाड़ सकता है। इस हालत में नंबर एक पर काबिज चीनी भाषा मंदरीन को हिंदी पीछे छोड़ देगी। फिलहाल हिंदी अभी विश्व की तीसरे नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी में हलो को नमस्ते कहते है।
४- स्पेनी भाषा बोलने वालों की तादाद ३९२ मिलियन है। यह दक्षिणी अमेरिकी और मध्य अमेरिकी देशों के अलावा स्पेन और क्यूबा वगैरह में बोली जाती है। अंग्रेजी के तमाम शब्द मसलन टारनाडो, बोनान्जा वगैरह स्पेनी भाषा ले लिए गए हैं। स्पेनी में हलो को होला कहते हैं।
५- रूसी बोलने वाले दुनियाभर में २७७ मिलियन हैं। और यह दुनियां की पांचवें नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। संयुक्तराष्ट्र की मान्यता प्राप्त छह भाषाओं में से एक है। यह रूस के अलावा बेलारूस, कजाकस्तान वगैरह में बोली जाती है। रूसी में हलो को जेद्रावस्तूवूइते कहा जाता है।
६-दुनिया की पुरानी भाषाओं में से एक अरबी भाषा बोलने वाले २४६ मिलियन लोग हैं। सऊदू अरब, कुवैत, इराक, सीरिया, जार्डन, लेबनान, मिस्र में इसके बोलने वाले हैं। इसके अलावा मुसलमानों के धार्मिक ग्रन्थ कुरान की भाणा होने के कारण दूसरे देशों में भी अरबी बोली और समझी जाती है। १९७४ में संयुक्त राष्ट्र ने भी अरबी को मान्यता प्रदान कर दी। अरबी में हलो को अलसलामवालेकुम कहा जाता है।
७- पूरी दुनिया में २११ मिलियन लोग बांग्ला भाषा बोलते हैं। यह दुनिया की सातवें नंबर की भाषा है। इनमें से १२० मिलियन लोग तो बांग्लादेश में ही रहते है। चारो तरफ से भारत से घिरा हुआ है बांग्लादेश । बांग्ला बोलने वालों की बाकी जमात भारत के पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व पूर्वी भारत के असम वगैरह में भी है। बांग्ला में हलो को एईजे कहा जाता है।
८- १२वीं शताब्दी बहुत कम लोगों के बीच बोली जानेवाली भाषा पुर्तगीज आज १९१ मिलियन लोगों की दुनिया का आठवें नंबर की भाषा है। स्पेन से आजाद होने के बाद पुर्तगाल ने पूरी दुनिया में अपने उपनिवेशों का विस्तार किया। वास्कोडिगामा से आप भी परिचित होंगे जिसने भारत की खोज की। फिलहाल ब्राजील, मकाउ, अंगोला, वेनेजुएला और मोजांबिक में इस भाषा के बोलने वाले ज्यादा है। पुर्तगीज में हलो को बोमदिया कहते हैं।
९- मलय-इंडोनेशियन दुनिया की नौंवें नंबर की भाषा है। दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी के लिहाज से मलेशिया का छठां नंबर है। मलय-इंडोनेशियिन मलेशिया और इंडोनेशिया दोनों में बोली जाती है। १३००० द्वीपों में अवस्थित मलेशिया और इन्डोनेशिया की भाषा एक ही मूल भाषा से विकसित हुई है। इंडोनेशियन में हलो को सेलामतपागी कहा जाता है।
१०- फ्रेंच यानी फ्रांसीसी १२९ मिलियन लोग बोलते हैं। इस लिहाज से यह दुनियां में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में दसवें नंबर पर है। यह फ्रांस के अलावा बेल्जियम, कनाडा, रवांडा, कैमरून और हैती में बोली जाती है। फ्रेंच में हलो को बोनजूर कहते हैं।

वादा आज तक पूरा नहीं हो पाया
"संविधान के अनुसार २६ जनवरी १९६५ से भारतीय संघ की राजभाषा देव नागरी लिपि में हिन्दी हो गई है और सरकारी कामकाज के लिए हिन्दी अंतरराष्टीय अंकों का प्रयोग होगा |" इस देश के संविधान ने इस देश की आत्मा अर्थात "हिन्दी" से एक वादा किया था और वह आज तक पूरा नहीं हो पाया और हिन्दी अपने इस अधिकार के लिए आज तक संविधान के सामने अपने हाथ फैला ये आंसू बहा रही है | क्या वास्तव में हिन्दी इतनी बुरी है कि हम उसे अपनाना नहीं चाहते ? ( विजयराज चौहान (गजब) chauhan.vijayraj@gmail.com के प्रकाशित उपन्यास "भारत/INDIA" के पेज १५६-१५८ ( http://hindibharat.wordpress.com/2008/08/10/11/ )
पर उपन्यास के पात्र इसी तरह से चिंता जाहिर करते हैं। मुख्य पात्र भारत द्वारा गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर स्कूल समारोह में हिंदी के संदर्भ में ये बातें कही जातीं है।

आगे इस उपन्यास के पात्र यह भी कहते हैं कि---
नहीं वह इतनी बुरी चीज नहीं है | वह इस दुनिया कि सबसे अधिक बोली जाने वाली तीसरे नम्बर कि भाषा है। इसकी महत्ता को भारत के अनेक महापुरुषों ने भी स्वीकार किया है।

इसकी इस महत्ता को देखकर ही एक ऐसे व्यक्ति "अमीर खुसरो" जिसकी मूल भाषा अरबी ,फारसी और उर्दू थी उसने कहा था ---

"मैं हिन्दुस्तान कि तूती हूँ ,यदि तुम वास्तव में मुझे जानना चाहते हो हिन्दवी(हिन्दी) में पूछो में तुम्हें अनुपम बातें बता सकता हूँ "

हिन्दी का महत्व समझते हुए ही उर्दू के एक शायर मुहम्मद इकबाल ने बड़े गर्व से कहा था कि --

"हिन्दी है हम वतन है हिन्दोंस्ता हमारा |"

हिन्दी के इसी महत्व को जान कर भारत के एक युगपुरूष महर्षि दया-नंद सरस्वती जिनकी मूल भाषा गुजराती थी, ने कहा था ---

"हिन्दी के द्वारा ही भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। "

लौह पुरुष सरदार वल्बभाई पटेल ने और आजादी के बाद कहा था ---

"हिन्दी अब सारे राष्ट्र की भाषा बन गई है इसके अध्ययन एवं इसे सर्वोतम बनाने में हमें गर्व होना चाहिए |"

गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर ने जिनकी मूल भाषा बांग्ला थी | उन्होंने कहा था कि ---

"यदि हम प्रत्येक भारतीय नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते है तो हमें राष्ट्र भाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश में सबसे बड़े भूभाग में बोली जाती है और वों भाषा हिन्दी है |"

नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने और कहा था कि ---

"हिन्दी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है |"

तस्वीर का दूसरा पहलू
आज हिंदी देश को जोड़ने की बजाए विरोध की भाषा बन गई है। राजनीति ने इसे उस मुकाम पर खड़ा कर दिया है जहां अहिंदी क्षेत्रों में हिंदी विरोध पर ही पूरी राजनीति टिक रई है। पूरे भारत को एक भाषा से जोड़ने की आजाद भारत की कोशिश अब राजनीतिक विरोध के कारण कहने को त्रिभाषा फार्मूले में तब्दील हो गई है मगर अप्रत्क्ष तौर पर सभी जगह हिंदी का विरोध ही दिखता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि हिंदी राज्य स्तर पर हिंदी को सर्वमान्य का सम्मान नहीं मिल पाया है। जिस देश में प्राथमिक शिक्षा तक का भी राछ्ट्रीयकरण सिर्फ हिंदी को अपनाने के विरोध के कारण नहीं हो पाया तो उस देश की एकता का सूत्र कैसे बन सकती है हिंदी। अब वैश्वीकरण के दौर में कम से कम शिक्षा के स्तर पर अंग्रेजी ज्यादा कामयाब होती दिख रही है। कानून हिंदी को सब दर्जा हासिल है मगर व्यवहारिक स्तर पर सिर्फ उपेक्षा ही हिंदी के हाथ लगी है। क्षेत्रीय राजनीति का बोलबाला होने के बाद से तो बोलचाल व शिक्षा सभी के स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं को मिली तरजीह ने एक राष्ट्र-एक भाषा की योजना को धूल में मिला दिया है। अगर हिंदी को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अपनाया नहीं गया तो निश्चित तौर पर इसकी जगह अंग्रेजी ले लेगी और तब क्षेत्रीय भाषाओँ के भी वजूद का संकट खड़ा हो जाएगा। अगर हिंदी बचती है तो क्षेत्रीय भाषाओं का भी वजूद बच पाएगा अन्यथा अंग्रेजी इन सभी को निगल जाएगी। और अंग्रेजी ने तो अब शिक्षा और रोजगार के जरिए यह करना शुरू भी कर दिया है।

Wednesday, 13 August 2008

कश्मीर संकट - अमरनाथ की जमीन के बहाने

जब कश्मीर में शुरुआती झगड़े हुए तभी मैंने इसी ब्लाग में लिखे लेख ( इसी देश के हैं अमरनाथ तीर्थयात्री ) में आशंका जताई थी कि अमरनाथ के तार्थयात्रियों के लिए जमीन देना और वापस लेना जानबूझकर खेला गया सियासी खेल है। अमरनाथ की जमीन तो बहाना है । दरअसल इसी बहाने कश्मीर केलोगों में अलगाववाद की भावनाओं को भड़काना है। और अब कुछ राजनीतिक दल और कश्मीर के अलगाववादी एक ही सुर में बोल रहे हैं। सज्जाद लोन ने तो शांति के लिए कश्मीर को बाकायदा तीन हिस्सों में बांटने की दलील पेश कर दी । अब इसके बाद से कश्मीर की हालत और बिगड़ गई है।

एनडीटीवी के मुकाबला कार्यक्रम में संचालक दिवांग ने पूछा था कि कैसे कश्मीर में शांति संभव है। ठीक इसी तरह के बयान लगभग धमकी के अंदाज में महबूबा मुफ्ती ने एनडीटीवी के चक्रव्यूह में कहा कि समस्या का हल नहीं निकला तो कश्मीर के कई टुकड़े हो जाएंगे। इस कार्यक्रम में महबूबा से विजय त्रिवेदी बात कर रहे थे। बंद के कारण कश्मीर का जो ब्लाकेड हुआ है उससे महबूबा काफी नाराज दिख रही थीं। साफ-साफ कहा कि हम पाकिस्तान से अपनी जरूरत का सामान मंगाने पर मजबूर हो जाएंगे। और वहीं किया जिसकी धमकी महबूबा ने दी थी। हुरियत नेता शेख अजीज के साथ घाटी के लोग और व्यापारियों का जत्था पाक अधिकृत कश्मीर के मुजफ्फराबाद की और कूच कर गया जिसे रोकने के लिए पुलिस और सेना ने फायरिंग की जिसमें १५ लोग मारे गए। इन प्रदर्शनों में अब तक २२ लोग मारे जा चुके हैं। यही तो चाहते हैं कश्मीर के उग्रवादी और उनसे सुर मिला रहे राजनीतिक दल। कशमीर की जनता जितनी भड़केगी वे उतनी ही सहानुभूति बटोरेंगे। दरअसल यह जानबूझकर कश्मीर को बांटने की साजिश रची गई है। तभी तो कुरान लेकर विरोध प्रदर्शन किए जा रहे हैं।
घाटी के अलगाववादी समर्थक मुसलमानों और सत्तालोलुप राजनैतिक दलों ने इस संकट में एक राजनीतिक अवसर देखा और जम्मू- श्रीनगर राजमार्ग के बदले मुज़फ़्फ़राबाद रोड खोलने और उसी रास्ते से कारोबार करने की धमकी दी। इस संघर्ष के कारण राज्य की स्थिति 1990 से भी ख़राब हो गई है. वर्ष 1990 में पहले हिंसा शुरू हुई और उसके बाद जनप्रदर्शन, मगर इस वक़्त बंदूक़ ख़ामोश है और कश्मीरी अलगाववादी संगठन प्रदर्शन की ओट में स्वतंत्रता का आंदोलन चला रहे हैं. दरअसल कश्मीर के उग्रवादी नहीं चाहते हैं कि कश्मीर में बाहर के लोगों का ज्यादा आना-जाना हो। इससे उनकी गतिविधियों पर अंकुश लगेगा। कश्मीर में उग्रवादियों के आधिपत्य का खामियाजा पूरा राज्य भुगत रहा है। कश्मीर का विकास रुका हुआ है।

कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने जब कश्मीर के पर्यटन के विकास के निमित्त होटल व अन्य सुविधाओं के विकास के लिए लीज पर जमीन देने की घोषणा की तो इसी तरह का विरोध हुआ जो आज श्राइन बोर्ड को जमीन देने के सवाल पर हो रहा है। तब शेख अब्दुल्ला को कश्मीर विरोधी करार दिया गया था जबकि यह वह रास्ता था जहां से कश्मीर का बड़े पैमाने पर विकास होने वाला था। कश्मीर भले गरीब रहे मगर पूरी तरह से मुस्लिम आबादी वाला बना रहे की मानसिकता हर बार ऐसे रोड़ खड़ा करती है जिससे लगता है कि कश्मीर भारत का राज्य ही नहीं है। दरअसल कश्मीर को ऐसे विशेष राज्य का दर्जा हासिल है जहां की जमीन कोई बाहरी नहीं खरीद सकता न ही स्थाई तौर पर इस्तेमाल कर सकता है। यह राज्यों के गठन के समय की गई वह भारी भूल थी जिसका नतीजा आज सामने है।
जबसे कश्मीर में उग्रवाद भड़का है तब से पूरे कश्मीर में भारत विरोधी ताकतें बंदूकों के बल पर वहां की जनता का भयादोहन कर रहीं हैं। यह बात स्थानीय लोगों के मन में बैठा दी गई है कि भारत सरकार उनका हित नहीं चाहती है। अभी कश्मीर में विरोध प्रदर्शन के बाद केंद्र या भारत सरकार के प्रति अविश्वाश की बात महबूबा मुफ्ती भी कर रही हैं । यह सब सिर्फ इस लिए ताकि देश के दूसरे भागों के लोगों की यहां कश्मीर में गतिविधि न बढ़े। अगर दूसरी आबादी का यहां आना जाना शुरू हो जाएगा तो देर सबेर यहां की जनता उनकी झूठ को पहचान जाए और विकास के उस रास्ते की हामी भर दे जिसे शेख अब्दुल्ला ने शुरू किया था। इसमें कश्मीर का विकास तो होगा, लोग संपन्न् और खुशहाल भी होंगे मगर उग्रवादियों को कश्मीर छोड़ना भी पड़ेगा। तब भारत विरोध पर टिकी पाकिस्तान की राजनीति को भी धक्का लगेगा। इसे न तो पाकिस्तान की आईएसआई बर्दास्त करेगी और न कश्मीर में पनाह लिए उनके उग्रवादी। इसके खिलाफ संत्रास में दबी कश्मीर की जनता क्या बोलेगी जब इस राज्य के नेता ही उग्रवादियों के सुर में सुर मिलाकर बोल रहे हैं। कौन नहीं चाहता कि कश्मीर में अमन चैन हो और विकास की वह बयार बहे जिसमें कश्मीरी भी खुशहाल हो। ऐसा कश्मीर के भारत की मुख्य धारा से जुड़ने से ही संभव है। जबकि उग्रवादी और उनके पिट्ठू कश्मीर को भारत की मुख्य धारा से अलग-थलग रखना चाहते हैं। इसी मकसद को अंजाम देने के लिए अमरनाथ यात्रियों को दी जाने वाली जमीन का बहाना ढूंढ लिया है।
अमरनाथ श्राइन बोर्ड एक ऐसा बहाना है जिसकी आड़ में कश्मीर को हिंदू मुस्लिम खेमे में बांटना आसान हो गया है। विरोध करो नहीं तो कश्मीर में हिंदू बस जाएंगे जैसे भयादोहन के अवसर मिल गए हैं। उग्रवाद की बजाए कश्मीरी जनता को इस तरह बरगलाकर काम करना अब ज्यादा आसान हो गया है। इससे कश्मीरी जनता में अपने आप विद्रोह पनपेगा। एक साल के भीतर कश्मीर में होने वाले चुनाव ने उग्रवादियों और उनकी आड़ में बहुसंख्यक कश्मीरी मुसलमान जनता का वोट हासिल करने की चाहत रखने वाले दलों को और करीब ला दिया है। यह खतरनाक खेल महबूबा जैसी नेता भी खेल रही हैं।

जम्मू-कश्मीर में हालात बिगड़े, 15 की मौत
(देखे बीबीसी का यह समाचार--- http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2008/08/080812_kashmir_curfew_lastrites.shtml )
भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर की पुलिस के अनुसार मंगलवार को कश्मीर घाटी के विभिन्न इलाक़ों में हिंसक भीड़ पर हुई पुलिस फ़ायरिंग में कम से कम तेरह लोगों की मौत हुई है. कई अन्य लोग घायल हुए हैं.जबकि सोमवार की फ़ायरिंग में घायल हुए लोगों में से दो की मंगलवार को मौत हो गई. सोमवार से लेकर अब तक कश्मीर घाटी में प्रदर्शनाकरियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच झड़पों में 22 लोग मारे जा चुके हैं. उधर जम्मू में मंगलवार को भड़के सांप्रदायिक दंगों के दौरान हुए विस्फोट में दो व्यक्ति की मौत हुई है और इसके बाद किश्तवाड़ के इलाक़े में सेना तैनात कर दी गई है. कश्मीर घाटी के सभी शहरों में कर्फ़्यू लगा दिया गया है और ख़बरें हैं कि घाटी के विभिन्न हिस्से में लोग प्रदर्शन कर रहे हैं. कश्मीर घाटी में लोग वरिष्ठ हुर्रियत नेता शेख़ अब्दुल अज़ीज़ की मौत के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं. सोमवार को मुज़फ़्फ़राबाद मार्च करने की कोशिश कर रहे लोगों पर सेना की फ़ायरिंग में हुर्रियत नेता अज़ीज़ सहित सात लोगों की मौत हो गई थी और पूरी घाटी में तनाव फैल गया था. सोमवार रात से ही फ़ायरिंग का विरोध करते हुए हज़ारों लोग ग़ाजीगुंड, अनंतनाग और गंदरबल क्षेत्रों में सड़कों पर उतर आए थे. उधर पाकिस्तान ने सोमवार की इस घटना की निंदा की है और पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने शेख़ अज़ीज़ की मृत्यु पर अफ़सोस ज़ाहिर किया. पाकिस्तान ने फ़ायरिंग की घटना को 'नाजायज़ और ज़रूरत से ज़्यादा बल का इस्तेमाल' बताया है. भारत प्रशासित कश्मीर की स्थिति पर पाकिस्तान के बयान को गंभीरता से लेते हुए भारत ने कहा है कि इससे शांति वार्ता प्रभावित हो सकती है. भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नवतेज सरना ने कहा, "मैंने जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर पाकिस्तानी विदेश मंत्री और उनके मंत्रालय के प्रवक्ता के बयानों को देखा है. ये सीधे-सीधे भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है." उनका कहना था, "इस तरह के बयानों से जम्मू-कश्मीर में स्थिति सुधारने में मदद नहीं मिलती और ना ही इससे द्विपक्षीय शांति वार्ता को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी." विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने स्पष्ट कहा कि आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का असर शांति वार्ता पर पड़ सकता है.


किश्तवाड़ में सांप्रदायिक झड़पें

दूसरी ओर जम्मू में बीबीसी संवाददाता बीनू जोशी के अनुसार वहाँ प्रदर्शनों का दौर जारी है और वहाँ कम से कम एक व्यक्ति की मौत हुई है और दर्जन भर अन्य लोग घायल हुए हैं. पुलिस का कहना है कि यह मौत किश्तवाड़ में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हुई झड़पों के कारण हुई है. प्रशासन ने जम्मू में कर्फ़्यू में दिन भर की छूट दी है. जम्मू में राजौरी में भी कर्फ़्यू में ढील दी गई है. लेकिन किश्तवाड़ में कर्फ़्यू दोबारा लागू कर दिया गया है. पुलिस का कहना है कि किश्तवाड़ में हिंदू और मुसलमान दोनों कर्फ़्यू का उल्लंघन करते हुए सड़कों पर उतर आए और उन्होंने एक दूसरे की संपत्तियों को नुक़सान पहुँचाया. अधिकारियों का कहना है कि इसी बीच किसी ने भीड़ के बीच एक बम फेंक दिया जिससे एक व्यक्ति की मौत हो गई. उनके अनुसार इसके बाद सुरक्षाबलों ने फ़ायरिंग करके भीड़ को तितरबितर किया और उसे नियंत्रित किया. लेफ़्टिनेंट कर्नल एसडी गोस्वामी के अनुसार किश्तवाड़ में सेना को तैनात किया गया है. बीबीसी संवाददाता का कहना है कि इसके अलावा जम्मू के शेष इलाक़े में तनावपूर्ण शांति है.

बातचीत बेनतीजा

इस बीच दिल्ली में सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल की एक बैठक गृहमंत्रलय में हुई है.इस बैठक में सिवाय इस बात के कोई नतीजा नहीं निकल सका कि और बातचीत करनी चाहिए. माना जा रहा है कि अब प्रधानमंत्री एक और बैठक बुला सकते हैं जिसमें जम्मू के नेताओं के अलावा कश्मीरी नेताओं को भी आमंत्रित किया जा सकता है. महत्वपूर्ण है कि हाल में भारतीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल के नेतृत्व में एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल जम्मू-कश्मीर गया था जिसका मकसद अमरनाथ संघर्ष समिति के साथ बातचीत कर जम्मू में चल रहे आंदोलन का समाधान खोजना था.
तीस से ज़्यादा राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक संगठनों की अमरनाथ संघर्ष समिति की माँग है कि अमरनाथ मंदिर बोर्ड को ज़मीन दी जाए और अमरनाथ यात्रा का प्रबंधन सरकार की जगह फिर से अमरनाथ मंदिर बोर्ड संभाले.
हालाँकि सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की संघर्ष समिति के लोगों से बातचीत हुई लेकिन उसका कोई हल नहीं निकल पाया था और जम्मू क्षेत्र में आंदोलन अब भी जारी है. उधर गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने भारत प्रशासित कश्मीर के व्यापारियों से अपील की थी कि वे जम्मू में जारी आंदोलन के कारण वैकल्पिक रास्ता खोजने के लिए मार्च न करें.

Saturday, 2 August 2008

सुगर को घटने ही नहीं देता है तनाव

तनाव आपके ब्लड सुगर को बढ़ा देता है। अगर आप मधुमेह रोगी हैं तो सावधान हो जाएं क्यों कि आप विभिन्न प्रयासों से मधुमेह को नियंत्रित तो करते हैं मगर तनाव आपको ऐसा करने नहीं देगा। मतलब ब्लड सुगर बढ़ाने में तनाव महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हम आप सामान्यतया पांच किस्म के तनाव के शिकार होते हैं। ये हैं- भावनात्मक, भौतिक, पेशागत, जीवन के प्रति अपनी प्रतिक्रियाएं वगैरह। ये सभी फिजियोलाजिकल ( शारीरिक क्रियाओं से संबंधित ) तनाव पैदा करते हैं। इनसे उत्पन्न तनावों से ब्लड सुगर का लेवेल नसिर्फ बढ़ जाता है बल्कि गंभीर बीमारियों को भी साथ लाते हैं। एमस्टरडम के शोध करने वालोंविशेषग्यों एक अध्ययन के बाद सुझाया है कि ब्लड सुगर नियंत्रण का खुशहाल रहने से गंभीर संबंध है। अर्थात खुश और बेहतर जीवन जीने वाले ब्लड सुगर को अच्छी तरह नियंत्रित कर सकते हैं।
आइए जानने की कोशिश करते हैं कि कैसे तनाव ब्लड सुगर को बढ़ाता है और गंभीर बीमारियों को दावत देता है।
जब तनाव हद की सामा पार कर जाता है तो इसके कारण एक खास किस्म का हारमोन पैदा होता है। इसे कोर्टिसोल कहते हैं। यह सीधे इनसुलिन पर हमला करता है और नतीजे में रक्त में सुगर की मात्रा को बढ़ा देता है। यह बड़ा लड़ाकू हारमोन होता है। इसे फाइट या फ्लाइट हारमोन भी कहते हैं। जिसका अर्थ है कि जितना ज्यादा आप तनाव पालेंगे उतना ही अधिक क्रिस्टोल पैदा होगा। जब हमारा शरीर ज्यादा क्रिस्टोल पैदा कर देता है तो यह यह शरार के प्रति इन्सुलिन की संवेदनशीलता को घटा देता है। इन्सुलिन का यह दुश्मन क्रिस्टोल शरीर में स्थित ग्लूकोज इतना कठोर बना देता है जिससे शरीर की कोशिकाएं इस सुगर को ग्रहण नहीं कर पाती हैं। इसके बाद यह बचा ग्लूकोज रक्त में मिलकर सुगर की मात्रा को बढ़ा देता है। अर्थात यह आसानी से समझ में ाने वाली बात है कि तनाव किस तरह ब्लड सुगर को बढ़ा देता है। अगर तनावग्रस्त व्यक्ति मधुमेह रोगी है तो तनाव उसके लिए बड़ी समस्या ला सकती है। क्यों कि सुगर के कारण उसे तनाव विरासत में मिली रहती है। रोज का तनाव हो तो निश्चित ही सुगर लेवेल को ठीक रखना मुश्किल हो जाएगा। क्यों कि इससे पैदा हुआ क्रिस्टोल हारमोन रक्त में सुगर को बढ़ाता ही रहेगा।
तनावरहित जीवन मधुमेह के रोगी के स्वस्थ जीवन का मूलमंत्र है। तनाव से बचेंगे तो सुगर नियंत्रित रहेगा या फि सुगर को कड़ाई से नियंत्रित रखेंगे तो तनाव भी दूर रहेगा। दोनों ही स्थितियों में सुधार होगा और आप स्वस्थ महसूस करेंगे। अपनी दिनचर्या व जीवनशैली को तनाव मुक्त रखकर सुगर पर आसानी से नियंत्रण पाया जा सकता है। अध्ययनों से साबित हो चुका है कि तनाव मुक्त रहकर सुगर को नियंत्रित रखा जा सकता है। तनाव से निजात के लिए सामान्यतया निम्न उपायों की मदद ली जा सकती है।-----
१- गहरी सांस लें, सांस को रोकें और फिर धीरे-धीरे छोड़ें।
२-खुली जगह में नियमित टहलें।
३-व्यायाम करें।
४-प्राकृतिक जगहों की सैर करें।
५-सकारात्मक नजरिया बनाए रखें।
६- अपना मूड ठीक करने के लिए कैफीन व निकोटीन वाले पदार्थ, शराब व सुगर के सेवन से बचें।
७- खुद के मन की शांन्ति के लिए खुद ही रास्ता तलाशें। संतुलित व शांत रहने की तकनीक तलाशें और उसे आजमाएं।


इन सबके बाद अगर आपका ब्लड सुगर अनियंत्रित है तो बेहतर होगा कि अपने स्वास्थ्य को सुधारने और तनाव से मुक्ति पर पूरा ध्यान दें।
( यह जानकारी मुझे मेल से जूलिया हन्फ ने भेजी है। जूलिया सुगर सेसंबंधित समस्याओं के स्थायी इलाज का भी दावा करती हैं। अपनी साइट में बड़े विस्तार से कई चरणों इलाज की प्रकिया भी दी हैं। इनका कहना है कि सुगर की जटिलताओं पर वे बराबर अध्ययन बी करती रहती हैं। इन्हों ने इस साइट (http://www.melabic.com/ ) में एक दवा भी सुझाई है। इस दवा का नाम मेलाबिक है। साइट में जाकर आप भी विस्तार से जान सकते हैं कि सुगर व इसके इलाज की कितनी इनको महारत हासिल है। सुगर की आम दवाओं से होने वाली हानियों को भी बड़े विस्तार से बताती हैं। तनाव दूर कर तीन चरणों में आपको स्वस्थ कर देने का नुस्खा है इनके पास। उनके ही शब्दों में देखिए-
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बेहतर होगा इनकी साइट में जाकर खुद जानें दावे में कितना दम है।


गुड़मार के पत्ते। इनके खाने से मीठापन गायब हो जाता है।


यही है जूलिया हन्फ की मेलाबिक दवा।

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