Sunday 5 September 2010

प्रेमानन्द घोष फिर चुने गए कोलकाता प्रेस क्लब के अध्यक्ष

 
कोलकाता प्रेस क्लब के अभी ४ सितंबर को संपन्न हुए चुनाव में पिछले साल के अध्यक्ष रहे वर्तमान बांग्ला दैनिक के पत्रकार प्रेमानन्द घोष ने अपनी लोकप्रियता बरकरार रखी है। उनकी कार्यकारिणी के ज्यादातर पत्रकार चुनाव जीत गए हैं। इस बार बांग्ला दैनिक वर्तमान के प्रेमानन्द घोष ( अध्यक्ष ), आकाशवाणी के अशोक तरु चक्रवर्ती और स्वतंत्र पत्रकार स्यामल राय ( दोनों उपाध्यक्ष ), बांग्ला दैनिक आनन्दबाजार के काजी गुलाम सिद्दिकी ( सचिव ), आनन्द बाजार समूह के अंग्रेजी दैनिक टेलीग्रीफ के देवाशीष चट्टोपाध्याय ( सहसचिव ), कोलकाता के स्थानीय टीवी सीटीवीएन के काजी फजले इलाही ( कोषाध्यक्ष ) जीते हैं। यह प्रेमानन्द की पिछले साल की ही कार्यकारिणी है सिर्फ उपाध्यक्ष पद पर बदलाव हुए हैं।

फेरबदल ज्यादा कार्यकारी सदस्यों के चयन में हुआ है। इस बार कोलकाता के प्रमुख हिंदी अखबारों में से वह कोई भी हिंदी पत्रकार अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाया है जो पिछली बार जीता था। कहा जा रहा है कि इस बार इनमें से कुछ एक को अपनी हार का आभास पहले ही हो गया था। इस लिए इस बार चुनाव मैदान को उन्होंने पहले ही पीठ दिखा दी। पिछली बार के कार्यकारी सदस्य रहे दैनिक जागरण के अरविंद दूबे इस बार उपाध्यक्ष के लिए पर्चा भरे थे मगर जीत हासिल नहीं हो पाई। राजस्थान पत्रिका के कृष्णदास पार्थ कोषाध्यक्ष पद के लिए खड़े थे मगर नतीजे में उन्हें भी हार का ही मुंह देखना पड़ा। ताजा खबर टीवी चैनल से जुड़े पवन बजाज तो कार्यकारी सदस्यता भी हासिल नहीं कर पाए। कुल मिलाकर प्रेस क्लब में निरंतर सक्रिय दिखने वाले प्रमुख स्थानीय हिंदी अखबारों प्रभात खबर, राजस्थान पत्रिका, सन्मार्ग, विश्वमित्र, छपते-छपते, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, भारत मित्र, जनसत्ता के पत्रकार अपनी वह उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाए, जिसकी कि इनसे उम्मीद थी।

ऐसा क्यों हुआ ? इस सवाल का सीधा जवाब किसी के पास नहीं है। दबी जुबान से सभी कह रहे हैं कि हिंदी के पत्रकार कोलकाता प्रेस क्लब में बेहतर सामंजस्य नहीं बना पाए। अगल-थलग पड़ गए। जिसका असर वोट पर पड़ा। यह सही भी है कि चुनाव लड़ने के लिए पहले स्तरीय होना आवश्यक होता है। बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू प्रेस के बीच समरसता बनाकर ही चुनाव जीता जा सकता है। इस समरसता का कोलकाता प्रेस क्लब में सबसे बड़ा उदाहरण एक ही दिखता है। वह हैं- राज मिठोलिया। हिंदुस्तान दैनिक से जुडे़ रहे राज मिठोलिया ने २००४-०५ में कोलकाता प्रेस क्लब के अध्यक्ष पद पर आसीन होकर यह साबित कर दिया कि सभी प्रेस के साथ समरसता बनाकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जा सकती है। राज मिठोलिया इस मायने में इतिहास रच चुके हैं। हिंदी प्रेस का कोई पत्रकार पहली बार कोलकाता प्रेस क्लब का अध्यक्ष बना। उनके बाद से शायद यह समरसता की कड़ी कहीं से बिखरने लगी है। और यह कोलकाता के हिंदी प्रेस के लिए चिंता और आत्ममूल्यांकन का विषय बनना चाहिए।

एक और बात यहां गौर फरमाने लायक है कि रात दस बजे घोषित हुए नतीजे की ज्यादातर हिंदी अखबारों ने खबर भी नहीं छापी। जबकि प्रेस क्लब से संबंधित खबरें इन अखबारों में छपती रहती हैं। यह अलग बात है कि कोलकाता के हिंदी पत्रकारों में मायूसी छाई हुई है। हालांकि अपुष्ट खबरों के मुताबिक हिंदी के कुछ पत्रकार इस बार चुनाव लड़ रहे लोगों की हार से खुश हैं और आरोप लगा रहे हैं कि काम नहीं करने वाले तो हारेंगे ही।

६० साल पहले जब कोलकाता प्रेस क्लब की नींव पड़ी थी तो इसका एक मकसद पत्रकारों के बीच सामाजिक संपर्क बढ़ाना भी था। पेशागत समस्याओं का मिलजुलकर निवारण और भाईचारा भी मकसद था। इसका निर्वाह भी बखूबी हो रहा है। फिर हिंदी प्रेस अचानक अलग-थलग कैसे पड़ गया ? निश्चित तौर पर हिंदी प्रेस की यह अपनी कमियां हैं और आने वाले समय में इस पर गौर फरमाना जरूरी होगा।

इस बार के चुने गए कार्यकारी सदस्य हैं - आजतक हिंदी टीवी के अंशु चक्रवर्ती, बांग्ला दैनिक गणशक्ति के प्रसन्न भट्टाचार्य, एनई बांग्ला टीवी के देवाशीष सेनगुप्त, अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाईम्स के मनोतोष चक्रवर्ती, हिंदी दैनिक दैनिक जागरण के प्रदीप पाल, साकाल बेला से सुगता बनर्जी, बांग्ला दैनिक प्रतिदिन के सुप्रीमो बंद्योपाध्याय, बांग्ला न्यूज चैनल २४ घंटा के तन्मय प्रमाणिक और आकाश बांग्ला टीवी के त्रिदीव चटर्जी ।

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