Wednesday 9 February 2011

बदल रही है सागरद्वीप की फिजा !



चित्र में बाएं से प्रभात खबर के अखिलेश, दैनिक जागरण के अरविंद दूबे, जनसत्ता के डा. मान्धाता सिंह, राजस्थान पत्रिका के प्रभात गुप्ता और जनसत्ता के जयनारायण प्रसाद। पीछे दिख रहा है निर्माणाधीन शिविर स्थल। हमारे सामने की तरफ समुद्र और पीछे की तरफ कपिलमुनि का मंदिर व मेला स्थल है। दूसरी फोटो में पीछे दिख रही हैं समुद्र की लहरे।
 ६  जनवरी २०११ को १६ साल बाद पत्रकार मित्रों ( जयनारायण प्रसाद, अरविंद दूबे व कोलकाता के बांग्ला, हिंदी व अंग्रेजी के पत्रकारों )  के साथ दूसरी बार गंगासागर गया था। पश्चिम बंगाल सरकार का सूचना विभाग गंगासागर मेले की पूर्व तैयारियों की देने के लिए हर साल पत्रकारों को गंगासागर ले जाता है। सागरद्वीप पर १४ जनवरी को मकर संक्रांति के मौके पर पुण्यस्नान के लिए लाखों तीर्थयात्री आते हैं। इस बार सागरद्वीप पूरी तरह से बदला हुआ दिखा। सागरद्वीप की बेतहासा बढ़ी आबादी ने बाजार को भी फैलने में सहयोग दिया। १६ साल पहले सागरद्वीप में कहीं-कहीं या कहें बेहद कम आबादी थी मगर इस बार जब से बस सागरद्वीप की ओर दौड़ने लगी तब से रास्तें में बाजार ही बाजार दिखाई दिए। इतना ही नहीं बाजार और सड़क के किनारे के गांवों में खपरैल या छत वाले जायादातर मकानों पर सोलर पैनल लगे दिखे। सागरद्वीप में बिजली इसी से प्राप्त होती है।इसी सोलर बिजली के कारण इन घरों पर डिस एंटिना भी लगे हुए दिखे। अभी तक  बिजली के खंभे नहीं पहुंच पाए हैं। यह जरूर है २०११-१२ तक सागद्वीप तक भी बिजली पहुंच जाएगी। हमने कचूबेड़िया तट से सागर को जोड़ने वाले मीलों लंबी नदी में बनाए जा चुके कई बिजली के खंभे देखे। अब महज दो तीन और बनना बाकी था। यानी जल्दी सही सागरद्वीप भी बिजली की रोशनी में रोशन हो जाएगा। हो सकता है कि आनेवाले दोतीन सालों में इसी नदी पर (हारवुड़ प्वाइंट पर ) पुल भी बन जाए। फिलहाल अभी तो हमें लांच से इसे पार करने में घंटे भर लगे। अफसोस होता है कि गंगासागर जैसे महत्वपूर्ण व इतने बड़े तीर्थ तक जाने के लिए सरकारें माकूल इंतजाम तक नहीं कर पाईं हैं। जबकि यहां आने वाले लाखों तीर्थयात्रियों से आम भाड़े से कई गुना भाड़ा वसूला जाता है। मसलन जो लांच आम दिनों में सिर्फ छह रुपए लेते हैं वहीं लांच का किराया तीर्थयात्रियों के लिए ४० रुपए हो जाता है। बहरहाल आने वाले दिनों में सागरद्वीप अब कोई बियावान जंगल नहीं रह जाएगा और न ही कोई कष्टसाध्य तीर्थ रह जाएगा। गंगासागर के बार में मान्यता थी कि वहां से कम ही लोग वापस लौट पाते हैं। कहावत भी है कि- सभी तीर्थ बार-बार, गंगासागर एक बार। पर अब यह मिथ आपको टूटता नजर आएगा। बड़ी ही मनोरम स्थल है गंगासागर। मैं तो कहूंगा कि आप भी जरूर जाइए एक बार गंगासागर।

दुःस्वप्न सी लगती है वह यात्रा

१६ साल पहले गंगासागर से जुड़ी एक घटना तो मुझे जीवनभर याद रहेगी। इस घटना से शायद आपको भी अंदाजा हो जाएगा कि तमाम व्यवस्था के बावजूद तबतक तो बहुत कष्टसाध्य थी गंगासागर की यात्रा। १३ जनवरी १९९४ की रात में आमतीर्थयात्रियों की तरह कोलकाता के दमदम कैंट इलाके से गंगासागर जाने वाली एक बस से हम सात लोग रवाना हुए। मैं, मेरी मां, मेरे मित्र अनिल त्रिवेदी व उनकी मां, मेरे मित्र अभय सिंह उनकी मां व पत्नी सभी बेहद उत्साहित से इस यात्रा की शुरुआत से। मगर यात्रा के मध्य से ही कष्ट के संकेत मिलने लगे थे। रात दो बजे बस जब हारवुड़ प्वाइंट की तरफ बढ़ रही थी तभी हमारी बस को पुलिसवालों के निर्देश पर नामखाना की तरफ मोड़ दिया गया। आपको बता दें कि हारवुड प्वाइंट ही वह जगह है जहां से गंगासागर जाना सुरक्षित और आसान है। इसी हारवुड प्वाइंट से ही सागरद्वीप के लिए पुल बनाए जाने की बात कही जा रही है। ममता बनर्जी ने तो इस पुल के बनवाने का वायदा भी किया है। नामखाना से गंगासागर का रास्ता खतरनाक माना जाता है। लांच जब नामखाना से सागरद्वीप की ओर बढ़ता है तो घंटों दूर-दूर तक सिर्फ अथाह सागर दिखता है। हिंदमहासागर के पास से गुजरते हुए रोमाच के साथ भय भी लगता है।

बहरहाल हमारी बस नामखाना तो पहुंच नहीं सकी। लापरवाही से ज्यादा तीर्थयात्रियों को इस तरफ भेज देने से बस ने हमें काफी हगले उतार दिया। तब सुबह के चार बजे थे। तीन बूढ़ी माताओं के साथ हम भी लांच पकड़ने के लिए कतारबद्ध हो गए। सोचे थे कि घंटे भर में लाच मिल जाएगी। मगर हमारा अंदाजा गलत निकला। शौच, दातून, नाश्ता की तो सोच भी नहीं सकते थे। खड़े-खड़े बुरी तरह से थक गए। हमारा धैर्य भी जवाब दे गया था। लांच तक पहुंचने तक ११ बज गए। नजदीक हुंचे तो देखा कि जमीन से करीब पंद्रह फुट उंची सीढ़ी पर चढ़कर लांच पर जाना होगा। बहरहाल मैं सबसे पीछे रहकर अपने मित्रों अनिलजी व अभयजी के साथ अपनी व उनकी माताओं को लांच पर चढ़ने में मदद की। सभी ऊपर चढ़ चुके थे अब सिर्फ मैं बाकी था और मेरे पीछे भारी भीड़ धक्का-मुक्की कर रही थी। जल्दी से सीढ़ियां चढ़ रहा था। जब आखिरी सिरे पर था तभी पार फिसल गया और मैं नीचे गिरने ही वाला थी तभी मुझे पकड़ने के लिए उपर खड़े अभय सिंह ने मेरा दाहिना हाथ पकड़ लिया। दो मिनट के लिए मेरे हाथ पैर सुन्न हो गए। बहरहाल अभयजी व दूसरे लोगों ने मुझे खींचकर लांच पर चढ़ा लिया। मैं इतना डर गया था कि करीब डेढ़ घंटे तक मारे डर के कांपता रहा। सीढ़ी से गिरने का वह दृश्य आज भी जब मेरे आंखों के सामने आता है तो मेरी रुह कांप जाती है। दरअसल नामखाना में लांच पर चढ़ने के लिए जेटी ही नहीं थी। ज्वार खत्म होने के बाद लांच पर चढ़ना सामान्य लोगों के लिए बेहद खतरनाक हो जाता है। समुद्र में जब ज्वार होता है तो पानी १०-१५ मीटर ऊंचा होकर करार तक चला जाता है। उस समय तो आप लांच पर आसानी से चढ़ सकते हैं मगर भाटा होने पर लांच तट से काफी दूर ही रह जाता है जहां से लांच पर चढ़ने के लिए सीढ़ी लगानी पड़ती है। अब ऐसी अव्यवस्था वाली जगह पर प्रशासन ने भारी तादाद में तीर्थयात्रियों को भेज दिया था। इसके ठीक विपरीत हारवुड प्वाइंट पर बहुत जेटी बनीं हैं जहां से लांच पर जाना आसान होता हैं। इसके अलावा हारवुड प्वाइंट में नौसेना के तटरक्षक होते हैं। इस लिए भी भय की कोई बात नहीं होती। नामखाना आज भी सागरद्वीप के लिए कष्टसाध्य रास्ता है।

एक और घटना आज भी मेरे मन में सिहरन पैदा करती रहती है। दरअसल जिस लांच से हम सागरद्वीप पहुंचे थे, वह मां अभया लांच थी। यहीं लांच रात को लौटते वक्त दुर्घनाग्रस्त हो गया। नामखाना के रास्ते पर सागर में चलने वाले इस रूट पर रात में लांच चलाने के कोई माकूल इंतजाम नहीं थे। फिर तो दुर्घटना होनी ही थी। रात में सागरद्वीप से तीर्थयात्रियों को लेकर वहीं मां अभया लांच लौट रही थी। अंधेरा और सिगनल का सही इंतजाम नहीं होने के कारण सागरद्वीप की ओर जारही एक दूसरी लांच ने मां अभया लांच को टक्कर मार दी। मां अभया के दो टुकड़े हो गए। इस भयानक हादसे में मां अभया पर सवार ज्यादातर तीर्थयात्रियों की मौत हो गई। इस इलाके में निगरानी का कोई इंतजाम नहीं होने किसी को बचाना संभव नहीं था। यह हादसा अगर हारवुड प्वाइंट पर होता तो नौसेना के तटरक्षक ज्यादातर को बचा लेते। अव्वल तो यह है कि हारवुड इलाके में हादसा होता ही नहीं। सवाल यह उठता है कि जहां सुरक्षा के इतजाम नहीं वहां से इतनी भारी तादाद में तीर्थयात्रियों को प्रशासन भेजता ही क्यों है ?

हमें जब इस घटना की सूचना सुबह सागरद्वीप में मिली तो हमें भी काठ मार गया। अगर हमारे साथ ऐसा होता हम क्या करते ? शाम को हम भी लौटने की योजना बना रहे थे। मगर बसवालों की वजह से सुबह जाना तय किया था। अगर रात में लौटते तो हम भी उसी मां अभया में होते जिसकी सागर में जलसमाधि बन गई। हम बच गए मगर सागरद्वीप की वह यात्रा एक दुःस्वप्न की तरह लगती है।

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

दुरूह यात्राओं के लिये व्यवस्थाओं का होना बहुत आवश्यक है। रोमांच का आनन्द सावधानी के साथ ही आता है।

Rahul Singh said...

रोमांचकारी, लेकिन चिंताकारक.

Zeon said...

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