मिश्र के टीवी चैनल बगदादिया के पत्रकार जैदी के फेंके जूते से बचते हुए बुश।
पत्रकार जैदी
यह घटना वीडियो में देखिए
ये राष्ट्रपति पद से हटने से पहले उनका आख़िरी इराक़ दौरा था. यहाँ से वो अफ़ग़ानिस्तान पहुँचे हैं. इराक़ी प्रधानमंत्री के साथ उन्होंने नए रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए. इसमें कहा गया है कि अमरीकी सेना वर्ष 2011 तक इराक़ से हट जाएगी. मैंने अपने कार्यकाल में कई बार इस तरह की अजीब घटनाएँ देखी हैं. ये महज ध्यान आकर्षित करने का तरीक़ा था. इससे इराक़ी पत्रकार भी दुखी हैं
जूता फेंकने की घटना उस समय हुई जब जॉर्ज बुश इराक़ी प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी के साथ प्रेस कॉफ़्रेंस कर रहे थे. तभी इराक़ी टेलीविज़न पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी ने गालियाँ देते हुए बुश की ओर एक जूता फेंका. इसके तुरंत बाद ज़ैदी ने दूसरा जूता भी उनकी ओर फेंका लेकिन बुश ने चपलता दिखाई और वो बच गए.
बुश की प्रतिक्रिया
पहला जूता फेंकते समय ज़ैदी ने बुश से कहा, "ये इराक़ी लोगों की ओर से आपको आख़िरी सलाम है." पत्रकार मुंतदार ज़ैदी अल बग़दादिया टीवी के लिए काम करते हैं दूसरा जूता फेंकते समय इराक़ी पत्रकार ने चिल्लाते हुए कहा, "ये इराक़ की विधवाओं, अनाथों और मारे गए सभी लोगों के लिए है." सुरक्षाकर्मियों ने मुंतदार अल ज़ैदी को अपने नियंत्रण में ले लिया. वो मिस्र स्थित चैनल अल बग़दादिया टीवी के लिए काम करते हैं. अरब देशों में किसी को भी जूता दिखाना बेहद अपमानजनक माना जाता है.
हालाँकि जॉर्ज बुश ने कहा कि इसे गंभीरता से नहीं लेना चाहिए. उनका कहना था, "मैंने अपने कार्यकाल में कई बार इस तरह की अजीब घटनाएँ देखी हैं. ये महज ध्यान आकर्षित करने का तरीक़ा था. इससे इराक़ी पत्रकार भी दुखी हैं." इससे पहले जॉर्ज बुश ने कहा कि इराक़ में युद्ध अभी भी ख़त्म नहीं हुआ है और संघर्ष अभी भी जारी रहेगा.
नया सुरक्षा समझौता हुआ.
उन्होंने कहा कि इराक़ की ताज़ा स्थितियाँ ऐसी हैं कि अभी भी वहाँ बहुत कुछ करने की ज़रूरत है. सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर करते हुए राष्ट्रपति बुश ने कहा कि इससे इराक़ को वर्तमान में और फिर भविष्य में भी खुद को मज़बूत स्थिति में बनाए रखने में मदद मिलेगी. अपने अंतिम दौरे पर इराक़ पहुँचे अमरीकी राष्ट्रपति का राजधानी बग़दाद में इराक़ के राष्ट्रपति जलाल तालबानी ने स्वागत किया.
बुश की यात्रा और ताज़ा बयान ऐसे समय में आया है जब एक दिन पहले ही अमरीका के रक्षा मंत्री रॉबर्ट गेट्स ने कहा था कि अमरीकी सैनिकों का इराक़ी मिशन 'आख़िरी चरण' में है. रॉबर्ट गेट्स नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा के मंत्रिमंडल में भी रक्षा मंत्री बने रहेंगे.
Monday, 15 December 2008
Sunday, 7 December 2008
वीपी का जाना
विश्वनाथ प्रताप की राजनीतिक हलके में निंदा भी हुी और प्रशंसा भी। मगर जिन लोगों से उनके आत्मीय संबंध थे और उन्हें वीपी को व्यक्तिगत रूप से करीब से जानने का मौका मिला, वे कुछ अलग ही नजरिया रखते हैं। ऐसे एक वरिष्ठ पत्रकार और जनसत्ता के प्रधान संपादक रह चुके प्रभाष जोशी भी हैं। वीपी के निधन के बाद छपे एक लेख में देखिए उनके उदगार। आइए आप भी वीपी के प्रभाष जोशी की नजरों से जानें। उनके लेख का पीडीएफ देखिए।
अंग्रेजी ही चाहते हैं इंटरनेट यूजर ?
हैदराबाद में इंटरनेट गवर्नेस फोरम में इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं की उपस्थिति पर ही सवाल उठा दिया गया है। यह सवाल एक सर्वे के आधार पर उठाया गया। सर्वे यह किया गया था कि इंटरनेट यूजर किस भाषा के प्रयोग को प्राथमिकता देते हैं ? इसका जवाब आया कि ९९ प्रतिशत यूजर अंग्रेजी चाहते हैं। टेकट्री न्यूज स्टाफ ने यह खबर जारी की है। दो सवाल पूछे गए थे। पहला सवाल था-- कौन सी वह भाषा है जिसे भारतीय सीखना चाहते हैं ? दूसरा सवाल था --- वह कौन सी भाषा है जिसे संपर्क के लिए इंटरनेट पर भारतीय इस्तेमाल करते हैं। यह दूसरा सवाल ही इंटरनेट पर हिंदी समेत भारतीय भाषाओं की नगण्य उपस्थिति की कहानी कहता है। हालांकि दोनों सवालों में जवाब अंग्रेजी ही था।
रेडिफ डाटकाम के सीईओ अजीत बालाकृष्णन ने जो कहा उससे तो भारतीय भाषाओं के यूजर की इंटरनेट पर उपस्थिति और भी शर्मनाक है। बालाकृष्णन ने कहा कि पिठले दस सालों के इंटरनेट यूजर के आंकड़ों को प्रमाण माना जाए तो कहा जा सकता है कि यूजर भारतीय भाषाओं को नहीं चाहते। मालूम हो कि रेडिफ पर ११ भाषाओं में ईमेल की सुविधा उपलब्ध है। और रिपोर्ट के अनुसार ९९ प्रतिशत यूजर अंग्रेजी ईमेल का प्रयोग करते हैं। बालाकृष्णन मानते हैं की भारतीय भाषाओं से संबद्ध यूजर इंटरनेट पर होते हैं मगर उनकी गतिविधियां भाषाई न होकर सिर्फ संदेश भेजने, संगीत डाउनलोड करने, वीडियो या चित्र देखने तक ही सीमित होती है। इनकी गतिविधियां भाषाई लेखन या प्रयोग के स्तर पर नहीं के बराबर है। दस सालों से भाषाई मेल का सुविधा दिए जाने और उस पर भारी-भरकम निवेश के बावजूद बालाकृष्णन अब मानते हैं कि अपने यूजर को ११ भाषाओं में सुविधा मुहैया कराना निरर्थक रहा। फिर भी उन्हें उम्मीद है कि जब इंटरनेट शहरों की सीमा तोड़कर गांवों में पहुंचेगा तो शायद क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग बढ़े।
भाषाई यूजर क्यों मजबूर है अंग्रेजी अपनाने को ?
इस सर्वे से जो तस्वीर सामने आई हो मगर एक बात तो यह साफ है कि भाषाई और उसमें भी हिंदी यूजर की इंटरनेट बेशुमार वृद्धि हुई है। अखबारों के इंटरनेट संस्करण, हिंदी के तमाम पोर्टल, भाषाई पत्र-पत्रिकाएं अब इंटरनेट पर माजूद हैं। बालाकृष्णन साहब से मैं पूछना चाहता हूं कि क्या यह सब इंटरनेट पर भाषागत उपस्थिति के प्रमाण नहीं हैं। बेशक अंग्रेजी की तुलना में कम हैं मगर इतनी निराशाजनक भी स्थिति भी नहीं है जितना उनको दिख रही है। हालांकि कुछ बातें तो सच्चाई से कबूल करने में कोई हर्ज नहीं कि हिंदी में इंटरनेट पर सामग्री इतनी कम उपलब्ध हैकि अंततः अंग्रेजी का ही सहारा लेना पड़ता है। लेकिन बालाकृष्णन खुद अपनी अंतरआत्मा से पूछें कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में इंटरनेट पर मौलिक सामग्री उपलब्ध कराने की कोशिश हो रही है जितनी अंग्रेजी के लिए की जा रही है। अगर नहीं तो सर्वे में संसाधनों को भी सामने रखकर यूजर का प्रतिशत निकाला जाना चाहिए था। ऐसे में इस सर्वें की कितनी प्रमाणिकता मानी जाए।
दूसरा सवाल इंटरनेट पर हिंदी या भाषाई यूजर की मुश्किलों पर गौर न करने का है। अभी कुछ ही साल हुए हैं जब हिंदी समेत दूसरी भारतीय भाषाओँ के लिए इंटरनेट पर सुविधाएं चालू की गईँ। क्या सर्वे में इस बात का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए था। भला हो गूगल का जिसने हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं को इंटरनेट पर फलने-फूलने का तकनीकी साधन मुहैया कराया। हिंदी के पोर्टल वेबदुनिया भारतीय भाषाओँ और हिंदी को इंटरनेट पर और सुगम बना दिया मगर यूनिनागरी के जरिए हिंदी की क्रांति का सेहरा तो गूगल को बांधा जाना चाहिए। चलिए कम से कम गूगल ने तो अभी तक हिंदी या अन्य भारतीय भारतीय भाषाओँ पर अपने प्रयोग को निर्थक प्रयास नहीं बताया है। अब सिफी निराश है तो उसे अपने प्रयासों की फिर से समीक्षा करनी चाहिए।
हिंदी में ईमेल अब भी आसान नहीं
सारे प्रयासों के बावजूद टेढ़ी खीर है हिंदी या भारतीय भाषाओं में मेल लिखना। हालांकि हिंदयुग्म जैसे ब्लाग संचालकों, कई तकनीकी दक्षता हासिल किए ब्लागरों ने लोगों को हिंदी लिखने के लिए खूब मदद की। फोन पर निशुल्क हिंदी लिखना सिखाने का तो हिंदयुग्म ने बीड़ा ही उठा लिया है। हिंदी भारत समूह, हिंदी इंटरनेट समूह, हिंदी भाषा समूह और हजारों हिंदी ब्लाग जैसे प्रयास ने सक्रिय तौर पर हिंदी इंटरनेट यूजर को प्रोत्साहित किया है मगर हिंदी लिखने की तकनीकी समस्या इन्हें रोमन या सीधे अंग्रेजी लिखने पर मजबूर करती रहती है। इस कारण हतोत्साहित लोग भी अंग्रेजी की गणना में शामिल हैं।
रेडिफ डाटकाम के सीईओ अजीत बालाकृष्णन ने जो कहा उससे तो भारतीय भाषाओं के यूजर की इंटरनेट पर उपस्थिति और भी शर्मनाक है। बालाकृष्णन ने कहा कि पिठले दस सालों के इंटरनेट यूजर के आंकड़ों को प्रमाण माना जाए तो कहा जा सकता है कि यूजर भारतीय भाषाओं को नहीं चाहते। मालूम हो कि रेडिफ पर ११ भाषाओं में ईमेल की सुविधा उपलब्ध है। और रिपोर्ट के अनुसार ९९ प्रतिशत यूजर अंग्रेजी ईमेल का प्रयोग करते हैं। बालाकृष्णन मानते हैं की भारतीय भाषाओं से संबद्ध यूजर इंटरनेट पर होते हैं मगर उनकी गतिविधियां भाषाई न होकर सिर्फ संदेश भेजने, संगीत डाउनलोड करने, वीडियो या चित्र देखने तक ही सीमित होती है। इनकी गतिविधियां भाषाई लेखन या प्रयोग के स्तर पर नहीं के बराबर है। दस सालों से भाषाई मेल का सुविधा दिए जाने और उस पर भारी-भरकम निवेश के बावजूद बालाकृष्णन अब मानते हैं कि अपने यूजर को ११ भाषाओं में सुविधा मुहैया कराना निरर्थक रहा। फिर भी उन्हें उम्मीद है कि जब इंटरनेट शहरों की सीमा तोड़कर गांवों में पहुंचेगा तो शायद क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग बढ़े।
भाषाई यूजर क्यों मजबूर है अंग्रेजी अपनाने को ?
इस सर्वे से जो तस्वीर सामने आई हो मगर एक बात तो यह साफ है कि भाषाई और उसमें भी हिंदी यूजर की इंटरनेट बेशुमार वृद्धि हुई है। अखबारों के इंटरनेट संस्करण, हिंदी के तमाम पोर्टल, भाषाई पत्र-पत्रिकाएं अब इंटरनेट पर माजूद हैं। बालाकृष्णन साहब से मैं पूछना चाहता हूं कि क्या यह सब इंटरनेट पर भाषागत उपस्थिति के प्रमाण नहीं हैं। बेशक अंग्रेजी की तुलना में कम हैं मगर इतनी निराशाजनक भी स्थिति भी नहीं है जितना उनको दिख रही है। हालांकि कुछ बातें तो सच्चाई से कबूल करने में कोई हर्ज नहीं कि हिंदी में इंटरनेट पर सामग्री इतनी कम उपलब्ध हैकि अंततः अंग्रेजी का ही सहारा लेना पड़ता है। लेकिन बालाकृष्णन खुद अपनी अंतरआत्मा से पूछें कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में इंटरनेट पर मौलिक सामग्री उपलब्ध कराने की कोशिश हो रही है जितनी अंग्रेजी के लिए की जा रही है। अगर नहीं तो सर्वे में संसाधनों को भी सामने रखकर यूजर का प्रतिशत निकाला जाना चाहिए था। ऐसे में इस सर्वें की कितनी प्रमाणिकता मानी जाए।
दूसरा सवाल इंटरनेट पर हिंदी या भाषाई यूजर की मुश्किलों पर गौर न करने का है। अभी कुछ ही साल हुए हैं जब हिंदी समेत दूसरी भारतीय भाषाओँ के लिए इंटरनेट पर सुविधाएं चालू की गईँ। क्या सर्वे में इस बात का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए था। भला हो गूगल का जिसने हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं को इंटरनेट पर फलने-फूलने का तकनीकी साधन मुहैया कराया। हिंदी के पोर्टल वेबदुनिया भारतीय भाषाओँ और हिंदी को इंटरनेट पर और सुगम बना दिया मगर यूनिनागरी के जरिए हिंदी की क्रांति का सेहरा तो गूगल को बांधा जाना चाहिए। चलिए कम से कम गूगल ने तो अभी तक हिंदी या अन्य भारतीय भारतीय भाषाओँ पर अपने प्रयोग को निर्थक प्रयास नहीं बताया है। अब सिफी निराश है तो उसे अपने प्रयासों की फिर से समीक्षा करनी चाहिए।
हिंदी में ईमेल अब भी आसान नहीं
सारे प्रयासों के बावजूद टेढ़ी खीर है हिंदी या भारतीय भाषाओं में मेल लिखना। हालांकि हिंदयुग्म जैसे ब्लाग संचालकों, कई तकनीकी दक्षता हासिल किए ब्लागरों ने लोगों को हिंदी लिखने के लिए खूब मदद की। फोन पर निशुल्क हिंदी लिखना सिखाने का तो हिंदयुग्म ने बीड़ा ही उठा लिया है। हिंदी भारत समूह, हिंदी इंटरनेट समूह, हिंदी भाषा समूह और हजारों हिंदी ब्लाग जैसे प्रयास ने सक्रिय तौर पर हिंदी इंटरनेट यूजर को प्रोत्साहित किया है मगर हिंदी लिखने की तकनीकी समस्या इन्हें रोमन या सीधे अंग्रेजी लिखने पर मजबूर करती रहती है। इस कारण हतोत्साहित लोग भी अंग्रेजी की गणना में शामिल हैं।
Wednesday, 3 December 2008
भारत को नरेंद्र मोदी ही क्यों चाहिए ?
भारत को नरेंद्र मोदी ही क्यों चाहिए ? इस सवाल पर आपके या किसी राजनैतिक सरोकार रखने वाले व्यक्ति के जवाब जो हों मगर एक पत्रकार सुहेल सेठ ने इसका जवाब अपनी नजर से ढूंढा है। १९ अक्तूबर को मोदी से मुलाकात के बाद उन्होंने जो लेख लिखा उसमें मोदी संहारक नहीं बल्कि भारत के एक संवेदनशील राजनीतिज्ञ नजर आ रहे हैं। सुहेल सेठ वह पत्रकार हैं जिन्होंने मोदी के खिलाफ तबतक खूब लिखा जबतक उनसे मिले नहीं थे। आखिर मोदी में उन्हें क्या दिखा जिसने उनका मोदी के प्रति नजरिया ही बदल दिया ? सुहेल का यह लेख मुझे मेल से मिला है। उसके हिंदी सारसंक्षेप का आप भी अवलोकन कीजिए। हो सकता है कि आपकी राय सुहैल जैसी न हो। तो फिर क्या है आपकी राय यह तो मैं भी जानना चाहूंगा। फिलहाल लेख देखिए---------
भारत को नरेंद्र मोदी ही क्यों चाहिए ?
लेखक----सुहेल सेठ
मैं एक खुलासा करने जा रहा हूं। मैंने शायद मोदी और गोधरा कांड के बाद से मोदी की कारगुजारियों के खिलाफ सबसे ज्यादा लिखा है। मोदी को मैंने आज का हिटलर भी बना दिया। अक्सर अपने लेखों में मैंने यह धारदार तरीके से कहा है कि मोदी का कुकृत्य न सिर्फ उनके लिए बल्कि भारतीय राजनीति के लिए एक कलंक बना रहेगा। मैं तो आज भी मानता हूं कि गुजरात में गोधरा के दंगों में जो कुछ हुआ देश को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। मगर हकीकत यह है कि मोदी ने उस कालचक्र को ही आगे बढ़ा दिया । मोदी को गोधरा दंगों के बाद देश का सबसे सांप्रदायिक राजनीतिज्ञ करार दिया गया मगर यह हैरान कर देने वाली बात है कि धर्मनिरपेक्षता की मसीहा कांग्रेस पर भी १९८४ में वह दंगे कराने का आरोप है जिसमें ३५०० सिख मारे गए थे। जबकि गुजरात के दंगे में इससे तीनगुना कम लोग मारे गए थे। सांप्रदायिकता की किसी व्याख्या से परे हकीकत यह है कि भारतीय राजनीति में मोदी से बेहतर प्रशासक कोई नहीं है।
तीन सप्ताह पहले ( सुहेल सेठ का मूल लेख छपने की तारीख के हिसाब से ) मैं अमदाबाद गया था।
मुझे लगा कि यह मोदी से मिलने का अच्छा मौका है। मैंने एप्वाइंटमेंट मांगा और उसी दिन का समय मिल गया जिस दिन मैं अमदाबाद पहुंचा। सरकारी तामझाम से अलग मेरी मुलाकात मोदी से उनके घर पर ही हुई। वह भी उसी तरह जैसे खुद मोदी अपने घर में दिखते हैं। मोदी का घर और रहनसहन देखकर मैं हतप्रभ था। यह कुछ ऐसा था जिसे मायावती और गांधी के झंडाबरदारों को भी मोदी से सीखना चाहिए।
मोदी के घर में सेवकों की भीड़ नदारद थी। कोई सचिव या सहायक भी मुश्तैद नहीं था। सिर्फ हम दो और एक सेवक था जो हमारे लिए चाय ले आया था। यह मोदी का वह आभामंडल था जिसमें गुजरात का विकास और राज्य के लोगों के जीवन स्तर को बेहतर करने की दृढ़ता दिखाई दे रही थी। सच भी है। आज सिंगापुर में गुजरात का दूध बिकता है। अफगानी खाते हैं गुजराती टमाटर। कनाडा में भरा पड़ा है गुजरात का पैदा किया हुआ आलू। यह सब विकास की हार्दिक कामना व कोशिश के बिना संभव नहीं । मोदी ने संभव कर दिखाया है। इतना ही नहीं साबरमती के तट पर एक ऐसा औद्योगिक शहर बनाया जाना प्रस्तावित है जिसे देखकर दुबा और हांगकांग को भी झेंप महसूस होगी। वह मोदी ही हैं जिसने सभी नदियों को आपस में जोड़ा जिसके कारण अब साबरमती नदी सूखती नहीं।
गुजरात में नैनो
मोदी ने यह भी बताया कि कैसे नैनो परियोजना को गुजरात लाने में उन्होंने उत्सुकता दिखाई। रतन टाटा को प्रभावित करने के लिए उस पहले पारसी पुजारी नवसारी की कथा सुनाई। नवसारी पुजारी पहला पारसी पुजारी था जो गुजरात आया था। उस समय के गुजरात के शासक ने एक गिलास दूध भिजवाकर कहलवाया कि उनके लिे यहां कोी जगह नहीं है। तब पुजारी ने दूध में शक्कर मिलाकर वापस भिजवाया और कहा कि शक्कर में दूध की तरह ही वे स्थानीय लोगों से घुलमिल जाएंगे। इससे गुजरात को फायदा ही होगा। अर्थात वह हर कोशिश मोदी गुजरात के लिए कर रहे हैं जो राज्य को संपन्न और मजबूत बनाए। अपने इसी हौसले के कारण मोदी अब भाजपा का वह तुरुप का पत्ता हैं जिसे आडवाणी के बाद इस्तेमाल किया जाता है।
आतंकवाद के खिलाफ रणनीति
मोदी मानते हैं कि देश के पास आतंकवाद से लड़ने की कोई रणनीति नहीं है। उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने दिल्ली के बम धमाकों के बारे में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और सुरक्षा एजंसियों को आगाह किया था मगर उन्होंने इस सूचना को गंभीरता से नहीं लिया। नतीजा सामने था कि १३ सितंबर को दिल्ली में बम धमाके हुए। आतंकवाद से जूझने की स्पष्ट रणनीति के अभाव में ही हम झेल रहे हैं आतंकवाद। कुल मिलाकर मोदी व्यावसायिक प्रगति के लिए कानून व व्यवस्था को समान तरजीह देते हैं।
काम करने के तरीके और अपनी जिम्मेदारी के प्रति गंभीरता ने साबित कर दिया है कि वे गुजरात के प्रति कितने समर्पित हैं। उनसे मिलने के बाद जब लौटने के लिए कार में बैठा तो अपने ड्राईवर से पूछा कि कैसे हैं नरेंद्र मोदी ? साधारण से उसका जवाब था- मेरे लिए तो भगवान हैं। यह तथ्यगत बात है कि मोदी से पहले गुजरात को पास उतना कुछ नहीं था जो आज है। न रोड था, न बिजली और न मूलभूत ढांचा। आज गुजरात के पास अतिरिक्त बिजली है। गुजरात अब दूसरे राज्यों से ज्यादा उद्योगपतियों को आकर्षित करता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी गुजरात को ही तरजीह देती हैं। यही वह कुछ है जो मोदी ने गुजरात को दिया है और बाकी राज्यों में नहीं है।
जिस कार्यक्रम में मैं गया था वहां लोगों से नरेंद्र मोदी के बारे में पूछा तो जवाब था-- अगर भारत के पास ऐसे पांच नरेंद्र मोदी होते हमारा देश महान हो जाता। अब मुझे भी पक्का भरोसा हो गया था कि सच में भारत को ऐसा ही युगपरिवर्तक नरेंद्र मोदी चाहिए।
भारत को नरेंद्र मोदी ही क्यों चाहिए ?
लेखक----सुहेल सेठ
मैं एक खुलासा करने जा रहा हूं। मैंने शायद मोदी और गोधरा कांड के बाद से मोदी की कारगुजारियों के खिलाफ सबसे ज्यादा लिखा है। मोदी को मैंने आज का हिटलर भी बना दिया। अक्सर अपने लेखों में मैंने यह धारदार तरीके से कहा है कि मोदी का कुकृत्य न सिर्फ उनके लिए बल्कि भारतीय राजनीति के लिए एक कलंक बना रहेगा। मैं तो आज भी मानता हूं कि गुजरात में गोधरा के दंगों में जो कुछ हुआ देश को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। मगर हकीकत यह है कि मोदी ने उस कालचक्र को ही आगे बढ़ा दिया । मोदी को गोधरा दंगों के बाद देश का सबसे सांप्रदायिक राजनीतिज्ञ करार दिया गया मगर यह हैरान कर देने वाली बात है कि धर्मनिरपेक्षता की मसीहा कांग्रेस पर भी १९८४ में वह दंगे कराने का आरोप है जिसमें ३५०० सिख मारे गए थे। जबकि गुजरात के दंगे में इससे तीनगुना कम लोग मारे गए थे। सांप्रदायिकता की किसी व्याख्या से परे हकीकत यह है कि भारतीय राजनीति में मोदी से बेहतर प्रशासक कोई नहीं है।
तीन सप्ताह पहले ( सुहेल सेठ का मूल लेख छपने की तारीख के हिसाब से ) मैं अमदाबाद गया था।
मुझे लगा कि यह मोदी से मिलने का अच्छा मौका है। मैंने एप्वाइंटमेंट मांगा और उसी दिन का समय मिल गया जिस दिन मैं अमदाबाद पहुंचा। सरकारी तामझाम से अलग मेरी मुलाकात मोदी से उनके घर पर ही हुई। वह भी उसी तरह जैसे खुद मोदी अपने घर में दिखते हैं। मोदी का घर और रहनसहन देखकर मैं हतप्रभ था। यह कुछ ऐसा था जिसे मायावती और गांधी के झंडाबरदारों को भी मोदी से सीखना चाहिए।
मोदी के घर में सेवकों की भीड़ नदारद थी। कोई सचिव या सहायक भी मुश्तैद नहीं था। सिर्फ हम दो और एक सेवक था जो हमारे लिए चाय ले आया था। यह मोदी का वह आभामंडल था जिसमें गुजरात का विकास और राज्य के लोगों के जीवन स्तर को बेहतर करने की दृढ़ता दिखाई दे रही थी। सच भी है। आज सिंगापुर में गुजरात का दूध बिकता है। अफगानी खाते हैं गुजराती टमाटर। कनाडा में भरा पड़ा है गुजरात का पैदा किया हुआ आलू। यह सब विकास की हार्दिक कामना व कोशिश के बिना संभव नहीं । मोदी ने संभव कर दिखाया है। इतना ही नहीं साबरमती के तट पर एक ऐसा औद्योगिक शहर बनाया जाना प्रस्तावित है जिसे देखकर दुबा और हांगकांग को भी झेंप महसूस होगी। वह मोदी ही हैं जिसने सभी नदियों को आपस में जोड़ा जिसके कारण अब साबरमती नदी सूखती नहीं।
गुजरात में नैनो
मोदी ने यह भी बताया कि कैसे नैनो परियोजना को गुजरात लाने में उन्होंने उत्सुकता दिखाई। रतन टाटा को प्रभावित करने के लिए उस पहले पारसी पुजारी नवसारी की कथा सुनाई। नवसारी पुजारी पहला पारसी पुजारी था जो गुजरात आया था। उस समय के गुजरात के शासक ने एक गिलास दूध भिजवाकर कहलवाया कि उनके लिे यहां कोी जगह नहीं है। तब पुजारी ने दूध में शक्कर मिलाकर वापस भिजवाया और कहा कि शक्कर में दूध की तरह ही वे स्थानीय लोगों से घुलमिल जाएंगे। इससे गुजरात को फायदा ही होगा। अर्थात वह हर कोशिश मोदी गुजरात के लिए कर रहे हैं जो राज्य को संपन्न और मजबूत बनाए। अपने इसी हौसले के कारण मोदी अब भाजपा का वह तुरुप का पत्ता हैं जिसे आडवाणी के बाद इस्तेमाल किया जाता है।
आतंकवाद के खिलाफ रणनीति
मोदी मानते हैं कि देश के पास आतंकवाद से लड़ने की कोई रणनीति नहीं है। उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने दिल्ली के बम धमाकों के बारे में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और सुरक्षा एजंसियों को आगाह किया था मगर उन्होंने इस सूचना को गंभीरता से नहीं लिया। नतीजा सामने था कि १३ सितंबर को दिल्ली में बम धमाके हुए। आतंकवाद से जूझने की स्पष्ट रणनीति के अभाव में ही हम झेल रहे हैं आतंकवाद। कुल मिलाकर मोदी व्यावसायिक प्रगति के लिए कानून व व्यवस्था को समान तरजीह देते हैं।
काम करने के तरीके और अपनी जिम्मेदारी के प्रति गंभीरता ने साबित कर दिया है कि वे गुजरात के प्रति कितने समर्पित हैं। उनसे मिलने के बाद जब लौटने के लिए कार में बैठा तो अपने ड्राईवर से पूछा कि कैसे हैं नरेंद्र मोदी ? साधारण से उसका जवाब था- मेरे लिए तो भगवान हैं। यह तथ्यगत बात है कि मोदी से पहले गुजरात को पास उतना कुछ नहीं था जो आज है। न रोड था, न बिजली और न मूलभूत ढांचा। आज गुजरात के पास अतिरिक्त बिजली है। गुजरात अब दूसरे राज्यों से ज्यादा उद्योगपतियों को आकर्षित करता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी गुजरात को ही तरजीह देती हैं। यही वह कुछ है जो मोदी ने गुजरात को दिया है और बाकी राज्यों में नहीं है।
जिस कार्यक्रम में मैं गया था वहां लोगों से नरेंद्र मोदी के बारे में पूछा तो जवाब था-- अगर भारत के पास ऐसे पांच नरेंद्र मोदी होते हमारा देश महान हो जाता। अब मुझे भी पक्का भरोसा हो गया था कि सच में भारत को ऐसा ही युगपरिवर्तक नरेंद्र मोदी चाहिए।
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