Tuesday, 26 May 2009

बंगाल को छीन लेने की राजनीतिक होड़








पश्चिम बंगाल आइला के तांडव के बाद तृणमूल और वाममोर्चा सरकार दोनों में जनता से सहानुभूति बटोरने की होड़ लग गई है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य जामतला समेत कई ग्रामीण इलाकों में पीड़ितों से हालचाल पूछते नजर आए तो ममता बनर्जी सुंदरवन इलाके के दौरे पर निकल गईं। उन्होंने नामखाना इलाके में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। एक को अपनी खिसकती जमीन खोजनी है तो दूसरे को अपने जनाधार का वह दायरा ढूंढना है जहां से सत्ता की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। ऐसा मौका ३२ साल बाद विपक्ष के हाथ लगा है जब जनता पश्चिम बंगाल में परिवर्तन के मूड में है। इस बात की गंभीरता को महसूस करते हुए ममता बनर्जी रेल मंत्रालय का कार्यभार संभालने की औपचारिकता पूरा करने दिल्ली तक नहीं जा पाईं। सियालदह स्टेशन स्थित बीसी राय इंस्टीट्यूट में ही रेलमंत्रालय की जिम्मेदारी ओढ़कर पहुंच गईं जनता जनार्दन के दरबार में। सबसे बड़ी बात काबिले गौर है कि कोलकाता महानगर की तबाही इन दोनों को ग्रामीण इलाकों से अहम नहीं लगी जहां तमाम सारे इलाकों में सारे दिन की मसक्कत के बाद भी अंधेरा होने तक बिजली बहाल नहीं हो पाई
थी। जाहिक है कि कोलकाता महानगर से २०० किलोमाटर की परिधि से बाहर वामपंथी राजनीति को धकेलने के बाद तृणमूल अब बंगाल के उन गांवों को जीतना चाहती हैं जहां इस लोकसभी चुनाव में सेंध नहीं लगा पाईं। जबकि वाममोर्चा सरकार के मुख्यमंत्री बुद्धदेव जनता के घावों पर मरहम लगाने के साथ यह भरोसा दिला रहे हैं कि- हमें न बिसारिए, हम ही हैं आप के सुखदुख के साथी। जनता पता नहीं क्या समझेगी और वक्त आने पर किसे अपना समझेगी मगर इतनी सी बात तो समझ में आ रही है कि मामूली सी चोट देकर जनता ने खुद को दोनों का जनार्दन बना लिया है। वरना इसी बंगाल में ३२ साल के शासन ने वाममोर्चा में इतना घमंड पैदा कर दिया था कि कभी किसी नीतिगत मुद्दे पर विपक्ष से राय तक की जरूरत नहीं समझी जाती थी और फैसले इकतरफा लिए जाते थे। भूमि अधिग्रहण व बंगाल के औद्योगिकीकरण में माकपा के इसी एकतरफा रवैए ने विपक्ष के उस जिन्न को पैदा कर लिया है जो मुमकिन है कि उससे सत्ता भी छीन ले। बंगाल किसके आधीन सुखी है और सुखी रहेगा, यह सवाल तो विधानसभा चुनाव होने तक सवाल ही बना रहेगा मगर चुनाव बाद विचारमंथन को बैठी उस माकपा को अपनी गलतियां साफ नजर आनी चाहिए जिसे सिंगुर और नंदीग्राम के ममता के आंदोलन में अपने घटक भाइयों की सलाह तक नागवार गुजरती थी। लोकतंत्र में ताकत का घमंड तभी तक कायम रहता है जब तक जनता भीरु बनकर सिर पर बैठाए रखती है। राजनीति की दुनिया वोलों तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि यही जनता बास्तील की जेल तोड़ सकती है और अंग्रेजों को वापस उनके देश भेज सकती है। पश्चिम बंगाल की जनता को नागवार गुजरने वाले बयानों से तार-तार करने वाले विमान बोस और बिनय कोनार या फिर दखल की लड़ाई घोषित करने वाले बुद्धदेव या अपनी सरकार व पार्टी को ऐसे संवेदनशील मौके पर चाणक्य की तरह सही सलाह न दे पाने वाले प्रकाश करात को जनता की इस ताकत का क्या अंदाजा नहीं था ? दखल की लड़ाई में अपनी ही जनता के भक्षक बन बैठे थे यो लोग। क्या इस निरीह जनता की ताकत नहीं मालूम थी ? अगर सचमुच नहीं थी, तो संभल जाओ दंभ में जीने वालों। अब जनता ने अपनी ताकत का न सिर्फ एहसास करा दिया है बल्कि उसने अपना वह नायक भी खोजना शुरू कर दिया है जो उसे संत्रास की जिंदगी से मुक्ति दिलाए।

1 comment:

दिनेशराय द्विवेदी said...

यदि जनता को अपनी ताकत का अहसास है तो यह बहुत अच्छी खबर है।

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