१८ अप्रैल २०११ से छह चरणों में पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव होने हैं। चुनाव के लिहाज से पश्चिम बंगाल की फिजा अलग ही होती है। ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस की वाममोर्चा को सत्ता से बेदखल की मुहिम ने माहौल को और गरमा दिया है। १९७७ से लगातार तीन दशक से अधिक समय से पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज कम्युनिष्ट सरकार की नींव पिछले पंचायत , लोकसभा और कोलकाता नगर निगम व नगरपालिका चुनावों में हिल चुकी है। अब विधानसभा चुनावों पर भारत समेत पूरी दुनिया की नजर है। कौतूहल भरी इस दिलचस्प लड़ाई का बिगुल बज चुका है। मैं भी अपने ब्लाग के माध्यम से आपको इस जंग से रूबरू कराना चाहता हूं। निरपेक्ष भाव से इस महाभारत की कथा सुनाऊंगा। रखिए मेरे ब्लाग के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव-२०११ धारावाहिक की हर कड़ी पर नजर। ब्लाग नियंत्रक - डा.मान्धाता सिंह |
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धर्मतला में मतुआ महासंघ की महारैली में जुटे नेता। इसमें सभी दलों के नेता मसलन वाममोर्चा के गौतम देव, कांग्रेस के मानस भुइंया व तृणमूल के पार्थ चटर्जी एक मंच पर थे।
ठाकुरनगर में अपने घर के दरवाज पर बैठीं बड़ोमां।
राजनीति में संगठित समुदायों के मह्त्व का आकलन सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि विगत की दशकों से जाति या सामुदायिक आधारों से चुनावों से दूर रहने वाले पश्चिम बंगाल में भी इस बार सामुदायिक छाया में चुनाव होने जा रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बांग्लादेश से बंगाल में आकर बसा मतुआ संप्रदाय है। इनकी राजनीतिक हलकों में गूंज २००६ से ही सुनाई देने लगी थी, जो २००९ के लोकसभा चुनावों में वामपंथियों समेत सभी को अपने दर पर मत्था टेकने को मजबूर कर दिया। इतना ही नहीं जब मतुआ ने अपनी नागरिकता समेत कई मांगों के लिए कोलकाता में महारैली की तो उसके मंच पर वह दृश्य भी दिखा जो इसके पहले असंभव सा लगता था। मतुआ के मंच पर वाममोर्चा , कांग्रेस, तृणमूल समेत कई विरोधी दलों ने एक साथ अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। इसके बाद से उनकी मदद के एलान की सभी में होड़ भी मच गई। और हो भी क्यों नहीं ? बंगाल में रह रहे सवा करोड़ मतुआ तो राजनीति किसी भी धारा को बदल देने की औकात जो रखते हैं। जो हाल तक वाममोर्चा के परंपरागत वोट थे मगर जब नाराज हुए तो इन्हें तृणमूल की ममता बनर्जी ने लपक लिया। मतुआ की नाराजगी का खामियाजा भुगत चुके वाममोर्चा ने इनका मानमनौव्वल अपने काबिल नेता और राज्य के आवास मंत्री गौतम देव को इस काम में लगाकर कर रहा है। ममता भी इनके वोट पाने का दावा कर रही हैं। मतुआ अभी खामोस हैं मगर उनके वोट किसका बेड़ा पार करंगे यह तो चुनाव बाद ही पता चलेगा। शायद ये भी हवा का रुख भांपने में लगे हैं। फिलहाल तो मतुआ को महिमामंडित किया जा रहा है। उनपर एक फिल्म बनाए जोने का पोस्टर भी दमदमकैंट समेत तमाम जगहों पर लग चुके हैं। मुक्ति प्रोडक्शन की इस फिल्म को मतुआ संप्रदाय की बड़ो मां वीणापाणि देवी का आशीर्वाद भी प्राप्त है। बांग्लाभाषा की इस फिल्म का नाम है- पूर्ण ब्रह्म श्री श्री श्री हरिचंद। हरिचंद ठाकुर ही इस मतुआ संप्रदाय के संस्थापक थे। आगे हम इस पर विस्तार से आपको बताने वाले हैं कि मतुआ आखिर कौन हैं और बंगाल की राजनीति में कैसे इनकी वजह से भूचाल सा आ गया है।
मतुआ का वर्चस्व
पश्चिम बंगाल की राजनीति पर २००६ के विधानसभा चुनावों के बाद से मतुआ का वर्चस्व दिखने लगा है। इसके पहले बेहद गरीब लोगों के इस संप्रदाय का वोट एकतरफा वाममोर्चा को जाता था। मगर लगातार उपेक्षा ने मतुआ को ममता की शरण में जाने पर मजबूर कर दिया। अपनी नागरिकता के सवाल पर तो इनकी नाराजगी थी ही मगर सामुदायिक विकास में भी उपेक्षा से उपजी नाराजगी को ममता ने भांप लिया। इनकी तरफ से इनकी मांगों को उठाने के साथ ही बतौर रेलमंत्री तमाम सहायता देने का भी एलान कर दिया। नतीजा सामने था। पश्चिमबंगाल की राजनीति में इनके ममता को समर्थन ने भूचाल खड़ा कर दिया। मतुआ ने वह कर दिखाया जो वाममोर्चा के ३५ सालों के शासन में कभी नहीं हुआ। इसके बाद से ही मतुआ के समर्थन और ममता के वाममोर्चा के खिलाफ नन्दीग्राम, सिंगुर, लालगढ़ जैसे आंदोलनों ने पश्चिम बंगाल के पूरे राजनीतिक परिदृश्य को ही बदल दिया। कहा जा रहा है कि कम्युनिष्ट सत्ता के लालदुर्ग में तृणमूल की घुसपैठ ने पश्चिम बंगाल में 35 सालों बाद परिवर्तन की लहर पैदा कर दी है। अब २०११ के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में इन्हीं मतुआ, आदिवासी और वाममोर्चा से नाराज मुसलमान मतदाताओं ने सत्ता के नए समीकरण की लकीर खींच दी है। जंग छिड़ गई है। बेसुध वाममोर्चा भी अब सावधान है। मतुआ को मनाने की कोशिश के साथ मुसलमानों और मेदिनीपुर (लालगढ़ ) के आदिवासियों तक पुनः अपनी पैठ बनाई है। लेकिन गलतियां सुधारने में वाममोर्चा से देरी की चूक हो गई है। अब तो 35 सालों की सत्ता के मद से हुई गलतियों से बंगाल के अवाम की नाराजगी ही अब ममता की ताकत बन चुकी है और उसमें सबसे बड़ी ताकत सवा करोड़ की तादाद वाले मतुआ ही होंगे।
कौन हैं मतुआ ?
१९ शताब्दी के मध्य में वर्तमान बांग्लादेश के फरीदपुर राज्य के गोपालगंज में हरीचंद नें मतुआ संप्रदाय की स्थापना की थी। ठाकुर हरिचंद (१८१२-१८७८) और उनके पुत्र गुरूचंद (१८४७-१९३७ ) दोनों बांग्लादेश में समाज सुधारक थे। इनके उत्तराधिकारी बंगाल के विभाजन के बाद बांग्लादेश के फरीदपुर, खुलना समेत कई राज्यों से १९४८ के बाद से भारत के विभिन्न राज्यों खासतौर पर राज्य पश्चिम बंगाल में आए और अब ये संगठित तौर पर भारत में रह रहे हैं। भारत-बांग्लादेश सीमा से सटा पश्चिमबंगाल राज्य का एक शहर है बनगांव। इसी बनगांव के पास है मतुआ का मुख्यालय है- ठाकुरनगर। कोलकाता से करीब ७५ किलोमीटर की दूरी पर है यह ठाकुरनगर। यहीं पर हर साल २४ मार्च को मतुआ संप्रदाय का मेला लगता है। इसे बारूनि मेला कहते हैं। इस मेले को मतुआ महासंघ के संश्थापक हरिचंद ने बांग्लादेश गोपारगंज के अपने गांव ओराकांडी में शुरू किया था। अब यह १९४८ के बाद से पश्चिम बंगाल के ठाकुरनगर में लगता है।
हालही में ममता बनर्जीं ने मतुआ संप्रदाय की सुविधा के मद्देनजर ठाकुरनगर रेलवे स्टेशन का निर्माण करवाया है। मतुआ लोगों का मुख्यालय इस रेलवे स्टेशन से तीन किलोमीटर दूर पड़ता है। यहीं एक बड़े घर में रहती हैं मतुआ संप्रदाय की मुखिया वीणापाणि देवी यानी बड़ोमां। मतुआ संप्रदाय ( मतुआ महासंघ ) की स्थापना इनके ही पति के परदादा हरिचंद ठाकुर ने मौजूदा बांग्लादेश फरीदपुर के गोपालगंज में की थी। भारत में इस संप्रदाय के ज्यादातर लोग बांग्लादेश से आए हैं। कहते हैं कि गोपालगंज के इस ब्राह्मण ने जीवनभर पिछड़ी जातियों, जनजातियों की भलाई के लिए लड़ाई लड़ी। मतुआ महासंघ जनजातियों व पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करता है। इनमें ज्यादातर बांग्लादेश से विस्थापित होकर भारत में आकर बसे लोग हैं। क्या मतुआ हिंदू या मुस्लिम संप्रदाय की तरह कोई संप्रदाय है ? शायद नहीं। मतुआ महासंघ भी एक धर्म है मगर इनके भगवान गुरू हरिचंद हैं और इनकी संघ को दी गई शिक्षाओं को ही मतुआ महासंघ मानता है। यह संघ वह आंदोलन है जो समाज के दबे-कुचले तबके के उत्थान के लिए काम करता है। हरिचंद ने अपने महासंघ के लोगों को लोगों से स्नेह, एक दूसरे के प्रति सहनशीलता, स्त्री-पुरूष में समानता, जाति आधारित भेदभाव को न मानने के साथ लालची न होंने की शिक्षा दी। विश्वास व समर्पण का भाव रखने वाले मतुआ किसी वौदिक कर्मकांड को नहीं मानते।
अभी महासंघ की सर्वेसर्वा प्रमथ रंजन विश्वास की पत्नी वीणापाणि देवी यानी बड़ो मां हैं। प्रमथरंजन १३ मार्च १९४८ को ठाकुरनगर आए और एक छोटा सा घर बनाकर रहने लगे। वे कोलकाता हाईकोर्ट में बैरिस्टर थे। उन्होंने स्थानीय जमीदार जगतकुमारी दासी से जंगल व जमीन खरीद ली। सही मायने में प्रमथ रंजन ने ही मतुआ महासंघ को संगठित किया। वे १९३७ में विधानसभा चुनाव जीते और १९६२ में विधानचंद राय की सरकार में जनजातीय विकास राज्य मंत्री भी रहे। १९६७ में नवद्वीप से कांग्रेस के सांसद भी हुए मगर कुछ मतभेद के कारण पार्टी छोड़ दी।
मतुआ महासंघ का पश्चिम बंगाल के सभी जिलों में ५०० लोगों का पंजीकृत समूह है और सभी समूहों का एक मुखिया है जिसे दलपति कहते हैं। इन दलपतियों की अपने समूह पर बेहद मजबूत पकड़ होती है। इसी कारण इनके निर्देश पर वोट भी एकतरफा पड़ते हैं। इसी कारण मतुआ पर ममता की इनायत इतनी हुई कि मतुआ के पुरखों के नाम पर मेट्रो स्टेशन व रेलवे स्टेशन के नाम रखने का एलान कर दिया है। सियालदह बनगाव सेक्शन में ठाकुरनगर और चांदपाड़ा के बीच मतुआधाम हाल्ट स्टेशन और बड़ो मां बीणापाणि देबी के पति स्व.पीआर ठाकुर के नाम पर बनगांव सेक्शन में ही मसलन्दपुर से स्वरूप नगर तक रेललाइन बिछाने का भी ममता एलान कर चुकी हैं।
कामनासागर है इनका पवित्र तीर्थ
पश्चिम बंगाल के उत्तर २४ परगना जिले में बनगांव के पास ठाकुरनगर में हरिचंद गुरूचंद ठाकुर मंदिर है। इसी मंदिर से लगा एक तालाब है, जिसे मतुआ लोग कामनासागर कहते हैं। हर साल २४ मार्च को यहां एक सालाना मेला लगता है। यह उत्सव सप्ताह भर चलता है। इस मेला को बारुनि मेला कहते हैं। लाखों मतुआ श्रद्धालु इस कामनासागर में स्नान करते हैं। एक सप्ताह बाद बाकी संप्रदायों के लोगों को भी इस मेले में शामिल होने की इजाजत मिल जाती है। इस मेले में मतुआ संप्रदाय के महाराष्ट्र, उत्तर पूर्वी राज्यों, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरांचल और उत्तरप्रदेश से लोग आते हैं। भारत के आजाद होने से पहले यह मेला मौजूदा बांग्लादेश के गोपालपुर में हरिचंद गुरूचंद ठाकुर के जन्मस्थान औराकांडी में लगता था। अब इसका केंद्र भारत के पश्चिमबंगाल राज्य के ठाकुरनगर में है।
तृणमूल और माकपा में मतुआ को अपनी ओर खींचने की जंग
पूर्वी पाकिस्तान से पलायन कर कई चरणों में बंगाल पहुंचते रहे हिंदु समुदाय की समस्यायें उनके पलायन के इतिहास जितनी ही पुरानी हैं लेकिन अब लगता है समय बदलने वाला है। मंगलवार २८ दिसंबर २०१० को मतुआ महासंघ ने कोलकाता में नागरिकता के सवाल पर विशाल रैली की। अपने सभामंच पर सभी प्रमुख दलों के नेताओं को एक साथ लाकर खड़ा करते हुए वह मिसाल पेश की जो अब तक पश्चिम बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य में कभी देखने को नहीं मिला। सभा में सभी प्रमुख दल के नेताओं ने एक स्वर में समुदाय के उत्थान के लिये सक्रियता दिखाने का आह्वान किया। सभा में मौजूद आवास मंत्री गौतम देव ने महासंघ के नेताओं को विशेष पर धन्यवाद किया और कहा कि उन्होंने जो किया है वह कम बड़ी बात नहीं। देव ने समुदाय के कल्याण के लिये सर्वदलीय कमेटी के गठन का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि माकपा इस बारे में पहल करने को तैयार है अन्य दल भी इस बारे में सकारात्मक कदम उठायें। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मानस भुइयां ने आवास मंत्री के सुझाव का स्वागत किया। भुइयां ने कहा कि जनवरी के मध्य में प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह,यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी के अलावा गृहमंत्री पी चिदम्बर से वे व्यक्तिगत तौर पर मुलाकात कर नागरिकता कानून में दुबारा संसोधन की अपील करेंगे। केन्द्रीय जहाजरानी राज्य मंत्री मुकुल राय ने कहा कि नागरिकता से वंचित समुदाय के लोगों के हित में कानून का संसोधन होना चाहिये। सभा को प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष तथागत राय ने भी संबोधित किया। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश से उत्पीड़ित होकर आये हिंदुओं को पूरा अधिकार मिलना चाहिये। केन्द्र व राज्य सरकारों को इस बारे में तत्काल आवश्यक कार्रवाई करनी होगी। मतुआ महासंघ की सभा में हजारों की संख्या में समर्थक मौजूद थे।
नागरिकता कानून में संशोधन चाहते हैं मतुआ
राज्य में करीब डेढ़ करोड़ की आबादी वाले मतुआ समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले महासंघ की मांग है कि 2003 के भारतीय नागरिकता कानून में हुए संशोधन का दुबारा संशोधन किया जाय। उनकी नजर में २००३ के कानून में संशोधन के बाद से ही समुदाय के लोगों को घुसपैठिये की नजर से देखा जाने लगा है। जो लोग नागरिकता प्राप्त करने से वंचित रह गये है कानूनी जटिलताओं के चलते उनके लिये नयी नागरिकता प्राप्त करना मुश्किल हो गया है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भंट्टाचार्य ने भी इस बारे में केन्द्र से बात करने का आश्वासन दिया है। महासंघ की धर्मतल्ला में हुई सभा में प्रमुख नेत्री वीणापाणि ठाकुरमां ने भी कानून में दोबारा संशोधन की मांग की। महासंघ से जुड़े प्रमुख नेताओं के अनुसार 2003 का कानूनी संशोधन काफी जटिलताओं से भरा है। इसकी एक धारा में कहा गया है कि जब तक माता और पिता दोनो भारत के वैध नागरिक न हों तब तक उसके बेटे या बेटी को देश की नागरिकता नहीं मिल सकती। 1971 में बांग्लादेश युद्ध के बाद पलायन भारत आये अनेक हिंदुओं को अभी तक देश की नागरिकता नहीं मिल सकी है। १९७२ में हुए इंदिरा-मुजीब समझौते के अनुसार जो लोग १९७१ तक बांग्लादेश से भारत आए हैं , सिर्फ वहीं लोग भारत की नागरिकता हासिल कर सकते हैं।
राज्य सरकार ने अपने प्रभाव को बनाए रखने की दिशा में एक और कदम उठाते हुए मतुआ आंदोलन के संस्थापक हरिचंद और गुरूच्द ठाकुर के नाम पर पुरस्कार दिए जाने का भी एलान कर दिया है। इतना ही नहीं वाममोर्चा सरकार के आवास मंत्नी गौतम देब ने मतुआ ट्रस्ट के लिए राजारहाट में २० कट्ठा जमीन भी दे दी है। यह जमीन सौंपे जाने के मौके पर मतुआ संप्रदाय के करीब चार हजार समर्थक मौजूद थे। यह जमीन मतुआ रिसर्च फाउंडेशन के लिए सौंपते हुए बड़ी साफगोई से गौतम देब ने स्वीकार किया कि वे इसके पहले वे मतुआ लोगों और उनके ३०० साल के इतिहास के बारे में कुछ नहीं जानते थे। उन्होंने कहा कि राज्य के शिक्षा मंत्री कांति विश्वास और माकपा के वरिष्ठ नेता विमान बोस से इनके बारे में जानकारी मिली। उन्होंने कहा कि यह राजनीति की बात नहीं है बल्कि मतुआ संप्रदाय की मदद करके हम गर्व महसूस कर रहे हैं। वैसे भी हमें इनका शतप्रतिशत समर्थन मिलता रहा है। दरअसल वाममोर्चा २००६ के चुनाव और २००९ के आम चुनाव में मतुआ संप्रदाय के तृणमूल की ओर झुक जाने से चिंतित है। ममता बनर्जी ने भी व्यक्तिगत तौर पर मतुआ महासंघ की प्रमुख बड़ोमां वीणापाणि से आशीर्वाद हासिल कर वाममोर्चा खेमे में खलबली मचा चुकी हैं। यहां बता दें कि करीब पांच करोड़ मतुआ सिर्फ बड़ोमां के इशारे पर चलते हैं। इनके लिए बड़ोमां का आदेश ही कानून है। करीब ७४ विधानसभा क्षेत्रों में जीत-हार कराने का दम रखने वाले मतुआ की वाममोर्चा से नाराजगी ने ममता को राजनौतिक तौर पर शक्तिशाली बना दिया है। यह बात वाममोर्चा को काफी देर से तब समझ में आई जब नगरपालिका, लोकसभा चुनावों में वाममोर्चा की जमान ही खिसक गई। यह बात यहां मैं इसलिए बता रहा हूं ताकि यह स्पष्ट हो सके कि मतुआ बंगाल की राजनीति में कितना दखल दे सकते हैं और ममता व वाममोर्चा दोनों को क्यों इनकी जीहजूरी करनी पड़ रही है।
वाममोर्चा से मतुआ महासंघ की नाराजगी को ममता २००६ के विधानसभा और २००९ के लोकसभा चुनावों में भुना लिया। इससे पहले वाममोर्चा का यह अभेद्य वोट बैंक था। वाममोर्चा के इस वोटबैंक में पहली सेंध तृणमूल ने २००६ के चुनावों में लगाई। अब २०११ के विधानसभा चुनावों में ममता और वाममोर्चा दोनों की इस वोटबैंक पर नजर है। ७४ विधानसभाओँ में जीत दिलाने का माद्दा रखने वाला करीब सवा करोड़ की आबादी वाला मतुआ महासंघ भी इस बार अपनी अहमियत समझ रहा है। यह तो २००९ के लोकसभा चुनावों में ही समझ में आ गया था जब माकपा की वृंदा कारत, माकपा के राज्य सचिव विमान बोस, फारवर्ड ब्लाक प्रमुख अशोक घोष और तत्कालीन खेलमंत्री सुभाष चक्रवर्ती बड़ो मां से आशीर्वाद लेने ठाकुरनगर पहुंच गए थे। यह अलग बात हैं कि तब महासंघ की संरक्षक बन चुकी ममता को ही आशीर्वाद मिला और संसदीय सीटें ममता की झोली में चली गईं। इसके बाद से ममता निरंतर मतुआ महासंघ को अपने पक्ष करने का प्रयास कर रही हैं।
ममता ने यह राजनीतिक खेल मतुआ महासंघ के विकास का एलान करके शुरू किया। मतुआ के महापुरुषों हरिचंद, इनके पुत्र गुरूचंद और पोता प्रमथरंजन के नाम पर रेलवे स्टेशनों के नाम का एलान कर दिया। इतना ही नहीं मतुआ संप्रदाय के ठाकुरनगर स्थित पवित्र तालाब कामनासागर के जीर्णोद्धार के लिए ३३ लाख रुपए दिए। पास में एक रेलवे अस्पताल और स्पोर्टस स्टेडियम बनवाने के लिए भी ६० लाख देने का वायदा किया। इसके एवज में बड़ोमां ने ममता बनर्जी को मतुआ संप्रदाय का मुख्य संरक्षक बना दिया। यही पर वोममोर्चा को ममता का खेल समझने में देर हो गई। मगर देर से ही सही वाममोर्चा ने अपने आवास मंत्री गौतम देब को मतुआ महासंघ को प्रभावित करने में लगा दिया। अब दमदम सीट से गौतम देब चुनाव भी लड़ रहे हैं। इस इलाके में भी मतुआ के वोट निर्णायक होंगे।
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