Tuesday 4 March 2014

आज भी खोजता हूं उस वटवृक्ष की छाया



श्रद्धांजलि उस पिता को जो मेरे 
आध्यात्मिक गुरु भी थे
५२ साल का हो गया हूं। 19 साल होगए पिताजी को गुजरे। आज भी जब भी मुश्किल में होता हूं और आसपास कुछ भी नजर नहीं आता तो आकुल मन उस पिता को खोजने लगता है जिसका सिर्फ होना ही मेरी ताकत थी। ऐसा आत्मविश्वास जो मुझे कठिन हालातों में भी टूटने नहीं देता था। दरअसल मेरे पिता मेरे आध्यात्मिक गुरू थे। बहुत छोटा था तो मां के साथ ननिहाल रहने लगा था। ऐसे में जब स्कूल बंद होते थे और गर्मी की छुट्टियां होती थी तो मां मुझे पिताजी के पास मेरे गांव गदाईपुर भेज देती थी। जब से मां ननिहाल की संपत्ति की देखभाल के लिए मनिहारी चली गईं थी तब से गदाईपुर को पिताजी ने आश्रम बना दिया था। खुद खाना बनाना। सादगी का जीवन। साधु सन्यासियों का आना-जाना , यह सब बेहद अनुशासित व नियमबद्ध था। पिताजी मशहूर वैद्य थे। काशी से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि तो ली ही थी साथ ही काशी नरेश ने उन्हें उनकी काबिलियत के लिए वैद्य शिरोमणि उपाधि से नवाजा था। सुबह सात बजे से दिनभर मरीज पिताजी के दवाखाने पर आते रहते थे। पिताजी इन मरीजों को दवा के साथ नसीहत भी देते रहते थे। दरअसल पिताजी किसी गुरुकुल के आचार्य जैसा जीवन तो जी रहे थे मगर अपनी पूरी गृहस्थी भी गदाईपुर से लेकर मनिहारी तक संभाल रखी थी। इसीलिए हमलोगों का दो घर हो गया था और कभी भी दोनों जगह आना-जाना करना पड़ता था।

      अभी मैं पिताजी की पुण्यतिथि ( 4 मार्च-1995) पर श्रद्धांजलि  देने के बहाने उन्हें याद कर रहा हूं ,इसलिए उन्हीं तक सीमित होकर कुछ बातें करना चाहूंगा। श्रद्धांजलि के इसक्रम में पारिवारिक विवरण व दूसरी स्मृतियों को बाद में रखूंगा।
  भगवान राम के अनन्य भक्त पिताजी का बाद का जीवन भी बनवास या वानप्रस्थ जैसा ही रहा। मैं जब गर्मी की छुट्टियों में गदाईपुर पहुंचता था तो पिताजी की हर शाम और राममय हो जाती थी। होता यह था कि शाम को संध्या भजन के बाद हमलोगों की मंडली जिसमें अक्सर रामबदन बाबा, कभी-कभी मेरे घर पधारे साधु सन्यासी व दूसरे लोग एक साथ बैठते थे। मैं सस्वर रामचरित मानस का पाठ करता था और पिताजी उसकी भक्तिमय व्याख्या करते थे। यह क्रम जबतक मैं गदाईपुर में रहता था तब तक चलता था। यही वह बड़ी वजह थी जिसके कारण पिताजी मुझसे बेहद खुश रहते थे। मुझे संध्या करने को भी बैठाते थे। बड़ी कोशिश से कई मंत्रों को याद करके मैं भी संध्या करता था मगर मेरा चंचल बालमन इसे ज्यादा स्वीकार नहीं कर पाया। अक्सर संध्या के समय गायब हो जाता। पिताजी ने कारण पूछा तो बड़ी सहजता से कह दिया कि मन नहीं लगता। लेकिन मन में आस्था का भाव कम नहीं था। दिनभर कल्याण व दूसरी धार्मिक कहानियां पढ़ता रहता था। बड़े फक्र के साथ कह सकता हूं कि मेरे आज के आध्यात्मिक ज्ञान का वही आधार बना।
  मैं पिताजी को अपना आध्यात्मिक गुरू मानता हूं तो इसकी वजह भी यही है कि धर्म, अनुशासन व सनातनी संस्कार मुझे उनसे ही मिले हैं। पिताजी के 4 मार्च 1995 को जब गुजरने की खबर मिली तो मैं उस वक्त कोलकाता में था। आफिस के मेरे वरिष्ठ सहयोगी अनिल त्रिवेदी ने दोपहर में मेरे घर आकर सूचना दी कि आफिस में फोन आया था- आपके पिताजी नहीं रहे। मेरे उपर वज्र टूट पड़ा। क्यों कि मैंने सोचा था कि पिताजी को घर में भजन वगैरह सुनने व टीवी पर आने वाले रामायण के कैसेट लेकर पूरा रामायण दिखाउंगा। मेरे सपने तो टूटे ही,  साथ ही लगा जैसे मैं एकदम अकेला हो गया हूं। घर में सभी को खाना खा लेने का इंतजार करने लगा मगर मेरा धैर्य डोल रहा था। कंबल में मुंह ढककर फफक- फफक कर रोया मगर पत्नी व बच्चों को तबतक नहीं बताया जबतक वे खाना नहीं खा लिए। बच्चे बेहद छोटे थे और सबसे छोटा विष्णु तो कुछ महीने का ही था। दुख असह्य था। उसी पीड़ा के साथ घर को रवाना हुआ मगर मेरे लिेए यह एक और पीड़ादायी रहा कि मैं अपने आध्यात्मिक गुरू और पिता की न तो शवयात्रा में शामिल हो सका और नही उनके अंतिम दर्शन कर पाया। यह पीड़ा मेरे अंतर्मन में इतनी घर कर चुकी है कि मैं चाहकर भी भुला नहीं पाता हूं। जब पुण्यतिथि आती है तो आंखे उसी बोधिवृक्ष को खोजने लगती है।
आज जब पुण्यतिथि की पूर्व संध्या पर आफिस में काम खत्म करने के बाद श्रद्धांजलि देने बैठा हूं तो मन बोझिल हो चला है। अब और कुछ कह सकने की स्थिति मे नहीं हूं मगर  पिताको श्रद्धांजलि के इस क्रम में लिखना जारी रखूंगा।………………...

4 comments:

Ajit Singh said...
This comment has been removed by the author.
Ajit Singh said...
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Ajit Singh said...

After reading about Nanajee my eyes are full of tears and we missed him a lot. i was present with him on 4thMarch 1995 he was recitation some mantras when he was about to die and when he was about to fall i ran and holded him i still remember that day.

Ajit Singh said...

After reading about Nanajee my eyes are full of tears and we missed him a lot. i was present with him on 4thMarch 1995 he was recitation some mantras when he was about to die and when he was about to fall i ran and holded him i still remember that day.

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