कहते हैं कि आधी बीमारी की जड़ खराब हाजमा का होना है। अगर खाना ठाक से पचता नहीं और कब्ज की शिकायत है तो मानकर चलिए कि आपने कई रोगों को बुलाना शुरू कर दिया है। इस मायने में मुझे बचपन के कुछ ऐसे मामले याद हैं जो तब तो समझ में नहीं आए मगर आज उन मरीजों का दुख समझ पाया हूं जो रोते हुए मेरे पिताजी के पास आते थे और कहते थे कि उन्हें बचा लीजिए।
पहले बता दूं कि मेरे पिताजी श्री शिवगोबिंद सिंह एक नामी वैद्य थे। उनको काशी नरेश से वैद्य शिरोमणि की उपाधि मिली थी। काशी से ही आयुर्वेदाचार्य की डिग्री लेकर उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ व गाजीपुर जिले की सीमा पर स्थित गांव गदाईपुर में दवाखाना खोली थी। हमलोग पिताजी की मदद में रहते थे क्यों कि दिन भर मरीज आते थे और कुछ दवाएं मरीजों से ही पिताजी बनवाते थे। पहले उन्हें कुछ जड़ी लाने को कहते थे फिर वहीं उससे उनकी दवा बनवाते थे।वैसे तो पिताजी कई रोगों के विशेषग्य थे मगर यहां कब्ज के उन मरीजों की बात कर रहा हूं जिनका दुख तब समझ में नहीं आया था। अफसोस यह है कि पिताजी अब इस दुनिया में नहीं हैं। मगर उनकी उन मरीजों को दी गई नसीहत अब भी कानों में गूंजती है।
अब मैं खुद कब्ज का मरीज हूं तो और भी समझ में आ रहा है कि यह कितना दुखदायी मर्ज है। कोई भी ऐसा मरीज नहीं था जो बाद में लौटकर पिताजी के चरण छूकर यह न कहा हो कि-आपने उन्हें नया जीवन दिया है। कब्ज की इसी महामारी के बारे में वेब दुनिया में एक जगह पढ़ रहा था तो बहुत सारी बातें पिताजी की नसीहतों से मिलती जुलती लगीं। आप भी इसे आजमाएं। यह भी किसी प्राकृतिक चिकित्सा के पक्षधर चिकित्सक की ही सलाह है। पिताजी की दवाएं तो याद नहीं अन्यथा वह भी आप लोगों को बताता। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम उनका अनुगमन नहीं कर पाए। मेरे पिताजी स्पष्ट तौरपर मानते थे कि कुछ ऐसे रोग हैं जिनका समुचित इलाज सिर्फ आयुर्वेद में ही उपलब्ध है। एलोपैथ को रोग दबाने वाला इलाज बताते थे। कब्ज भी इसी तरह का रोग है।
पर्यावरण प्रदूषण के साथ ही मानव नई-नई बीमारियों से जूझने के लिए विवश हुआ है। आधुनिक जीवन शैली के चलते कब्ज नामक बीमारी ने लगभग 50 प्रतिशत से ज्यादा लोगों को येन-केन प्रकारेण अपनी गिरफ्त में ले लिया है।तमाम तरह के चूर्णों के बावजूद राहत की चाहत अपूर्ण ही रह जाती है।
प्रदूषण के इस नवयुग में दवाइयाँ कब्ज से निजात कदापि नहीं दिला सकती हैं। कुछ प्राकृतिक नुस्खे हैं जो कब्ज के रोगियों को शीघ्र राहत दे सकते हैं। आप भी इन्हें आजमा कर देखिए-----
• सुबह-सुबह बिना मुँह (कुल्ला किए बिना) धोए, एक से चार गिलास पानी पीना शुरू करें।
• शौच और मुख मार्जन से निपटकर 5-7 मिनट के लिए कुछ शारीरिक कसरत (शरीर संचालन) करें।
• दोनों समय के भोजन में सलाद (खीरा ककड़ी, गाजर, टमाटर, मूली, पत्ता गोभी, शलजम, प्याज, हरा धनिया) थोड़ी मात्रा में ही सही, अवश्य शामिल करें।
• शाम का भोजन रात में कदापि न लें। याद रखें, आँतें सूर्य की मौजूदगी में ही अपनी गति बरकरार रख पाती हैं। पाचन की क्रिया का आधार ही आँतों की गति है। अत: कोशिश करें कि सूर्यास्त के पूर्व या सूर्यास्त के कुछ समय बाद तक भोजन कर लें। यह असंभव हो तो भोजन में रेशेदार (छिलके वाली मूँग की दाल, भिंडी, गिल्की, पालक, मैथी, पत्ता गोभी, दलिया, सलाद, फल) पदार्थ अवश्य लें और भोजन के पश्चात कम से कम एक किलोमीटर पैदल चलें ताकि आँतें कृत्रिम तरीके से गति को प्राप्त हों।
• रात्रि में सोने से पूर्व यथाशक्ति गरम पानी एक गिलास भरकर (200-250 मिली) अवश्य पिएँ। पानी पीने के पूर्व एक चम्मच खड़ा मैथी दाना (पहले से साफ धुला-सूखा) अवश्य खाएँ।
• रात्रि में 7 से 11 के मध्य धुली हुई मनुक्का किशमिश आधा गिलास पानी में गला दें। गिलास काँच का हो। सुबह मनुक्का को बीज सहित एक-एक कर, खूब चबाकर खा लें और वह पानी पी जाएँ। इसके विकल्प के रूप में दो अंजीर भी- इसी तरह भिगोकर उपयोग किए जा सकते हैं।
• कब्जियत यदि ज्यादा ही कष्टप्रद हो रही हो तो प्रात: बिस्तर छोड़ने से पूर्व लेटे-लेटे ही कल्पना करें कि आपकी आँतों में गति हो रही है और यह गति आँतों में मौजूद मल को लगातार आगे खिसकाती जा रही है। इस कल्पना को कुछ ही दिनों में आप साकार रूप में देख सकेंगे। यह विश्वास कीजिए।
• कब्जियत के लिए दवा के रूप में कुछ लेना चाहें तो आठ परत सूती कपड़े से छाना हुआ 25-40 मिलीमीटर गोमूत्र (देशी गाय का) नियमित रूप से लें। स्वमूत्र भी शर्तिया फायदा करता है या फिर रात में आधा कप चाय में चिकित्सक की सहमति से आवश्यकतानुसार 1 से 5 चम्मच अरंडी का तेल मिलाकर पी जाएँ।
• पेट के बल लेटकर पिंडलियों को ताकत से दबवाएँ। इस हेतु सरसों के तेल का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
• ठोड़ी पर दो से तीन मिनट के लिए अँगूठे से दबाव डालें। ऐसा पाँच मिनट के अंतर से दो-तीन बार करें।
• संभव हो तो योगाचार्य से सीखकर अग्निसार क्रिया या अर्द्ध शंख प्रक्षालन करें।
याद रखिए, शौचालय में बैठकर अखबार-मैग्जिन न पढ़ें, गीत-मोबाइल न सुनें। हमारे मस्तिष्क में शरीर की विभिन्न क्रियाओं के लिए केंद्र (स्विच) हैं। आप गाने सुनेंगे, खबरें पढ़ेंगे तो मस्तिष्क के लिए मल विसर्जन दोयम दर्जे का हो जाएगा और वह खबर आपको लंबी प्रतीक्षा के बाद मिलेगी, जिसके लिए खासतौर पर आप शौचालय आए थे।
गाने और खबरों में तल्लीन मस्तिष्क शायद मल उत्सर्जन के विषय में कुछ इस तरह का संदेश आपको पहुँचाने की कोशिश करेगा- ‘यह क्रिया कतार में है, कृपया प्रतीक्षा कीजिए।‘ या यह भी हो सकता है 30 से 45 मिनट तक अखबार पढ़ने के बाद आँतों से यह संदेश प्राप्त हो। यदि संभव हो तो भारतीय शैली में ही यह क्रिया निपटाएँ, पिंडलियों का दबना और जाँघों का पेट पर दबाव आँतों (डिसेन्डिंग और एसेन्डिंग कोलन) और मलाशय को गति प्रदान करता है।
शौच करते समय दाँतों को परस्पर दबाने (भींचने) से भी पेट की मांसपेशियों में संकुचन होता है, जिससे आँतों पर दबाव पड़ता है। कब्ज नामक असुर आपके कारण ही जन्मा है, इसके वध के लिए दवा अवतरण नहीं स्वयं प्रयास करे तभी इसका मर्दन हो सकेगा, अन्यथा सोचते रह जाएँगे।
Friday, 25 April 2008
Tuesday, 22 April 2008
आखिरी हिंदू राष्ट्र भी मिट गया दुनिया के नक्शे से

भारत का पड़ोसी देश नेपाल सदियों से हिंदू राष्ट्र था मगर दुनिया के नक्शे से अब यह आखिरी हिंदू राष्ट्र भी मिट गया। लिच्छवि, मल्ल और अंततः शाहवंश का आखिरी राजा ज्ञानेन्द्र हिंदू राष्ट्र नेपाल का साक्षी रहा। यहां यह कहना मुनासिब होगा कि ज्ञानेन्द्र की सत्तालोलुपता भी राजशाही के पतन का कारण बनी। ज्ञानेन्द्र प्रशासनिक तौर पर एक कमजोर शासक साबित हुआ जो बदलते नेपाल को भांप नहीं पाया। नतीजे में नेपाल के तेजतर्रार शिक्षक और माओवादी नेता प्रचण्ड ने लंबी लड़ाई के बाद इस राजशाही को पहले बुलेट और फिर बाद में बैलेट (मतपत्र ) से बेदखल कर दिया।
इतिहास साक्षी रहा है कि हर पुरानी व्यवस्था व सत्ता को नई चुनौतियों के सामने झुकना पड़ा है। ऱूढ़ियों में डूबे हिंदू धर्म को पहले बौद्ध और फिर जैनियों ने चुनौती दी। सत्ता, समाज व व्यवस्था सभी कुछ बदल दिया। भक्ति व समाज सुधार आंदोलनों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके बाद मुस्लिम व हिंदू व्वस्था को अपेक्षाकृत प्रगतिशील अंग्रेजों व ईसाई मिशनरियों ने चुनौती दी। धर्म और आस्था पर टिके हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध व जैन मतावलंबियों के बनाए समाज व सिद्धांत को वामपंथी आंदोलनों ने चुनौती दी। इन सभी चुनौतियों ने एक ऐसी अलग दुनिया कायम करदी जिसका लोहा पथभ्रष्ट हो चुके पुराने समाज को भी मानना पड़ा। इन परिवर्तनों से ऐसी नहीं हुआ कि कोई पूरी तरह से मिट गया। सुधारों के जरिए वह भी अपना वजूद कायम रखे हुए है। मगर यह समाज और धर्म पर लागू होता है। किसी अकर्मण्य शासक पर नहीं। नेपाल में जनता ने परिवर्तन का स्वागत किया मगर अकर्मण्य राजशाही मिट गई। जनता की आंखों इसी परिवर्तन की ललक प्रचणड ने देख ली थी।

इसी परिवर्तन की लहर में अब नेपाल भी भारत की तरह गणतंत्र हो जाएगा। जिस किस्म का नेपाल सदियों तक हिदू राष्ट्र रहा वैसा भारत सिर्फ प्राचीन काल में था। वह भी तुर्कों, सल्तनत से लेकर मुगलों के दौर में तो सिर्फ हिंदू रियासतें ही बचीं थीं। यानी भारत एकछत्र हिंदू राषट्र गुप्तवंश के चक्रवर्ती राजा समुद्रगुप्त तक था। सम्राट अशोक ने भी भारत को एकीकृत किया और कुछ मायने में उनके काल में भी भारत हिंदू राष्ट्र रहा। इस प्रक्रिया को वर्धन वंश के प्रतापी शासक हर्षवर्धन ने भी कायम रखा। तब पूरे भारत वर्ष में तमाम हिंदू रियासतें थीं जो आपस में युद्धरत रहा करतीं थीं।उत्तर भारत के प्रतिहार, बंगाल के पाल और दक्षिणके राष्ट्रकूट वंश के राजाओं ने तो विजय अभियान के तहत पूरे भारत वर्ष को ही रौंद दिया। यह सब होते हुए भी १०वीं शताब्दी तक भारत टुकड़ों में हिंदू राष्ट्र ही बना रहा। मराठा हों या फिर मेवाड़ के राजपूत सभी को मुंह की खानी पड़ी। कोई भी नेपाल का पृथ्वीनारायण शाह नहीं बन पाया। नतीजा यह रहा कि मोहम्मद गजनवी के हमले और अंततः दिल्ली में सल्तनत वंश और उसके बाद मुगल सत्ता काबिज होने के बाद से भारत धीरे-धीरे मुस्लिम शासकों के आधीन हो गया।
दक्षिण भारत में पहले चालुक्यों और बाद में विजयनगर साम्राज्य, या फिर प्रतिहार पाल व राष्ट्रकूट वंश और चौहान वंश के राजाओं ने हिंदू सत्ता बनाए रखी। मगर यह सब कुछ वैसे हिंदू शासक नहीं बन पाए जैसा १८वीं शताब्दी में नेपाल के एकीकरण और हिंदू धर्म व संस्कृति के लिए पृथ्वीनारायण शाह ने कर दिखाया। उसने नसिर्फ नेपाल का एकीकरण किया बल्कि एक ऐसे मजबूत हिंदू राष्ट्र नेपाल का निर्माण किया जिसने अपने ताकत के बल पर चीनियों को रोका और अंग्रेजों को भी अपनी ताकत से धूल चटा दी। भारत में हिंदू सत्ता अंग्रेजी शासन के आगे टिक ही नहीं पाई। मगर नेपाल अप्रैल २००८ के पहले तक दुनिया का इकलौता हिंदू राष्ट्र बना रहा। नेपाल के इस उत्थान पतन की कहानी एक ऐसे हिंदू राष्ट्र की कहानी है जो सदियों तक भारत के मनीषियों की तपस्थली रहा है। नेपाल के प्राचीन इतिहास में एक बार झांककर देखें तो वहां नेपाल नहीं भारत भी दिखाई देगा। आदिकालीन नेपाल के साथ माओवादियों के सत्तासीन होने की गाथा नेपाल में ऐतिहासिक परिवर्तन की गाथा है। आइए अवलोकन करें। यहां सबकुछ समेटना संभव नहीं हुआ अतः जो छूटा हुआ लगे उसे मैं आपकी टिप्पणियों खोजूंगा। आइए सफर शुरू करते हैं।

नेपाल का इतिहास
नेपाल एक दक्षिण एशियायी और भारत का पड़ोसी हिमालयी राष्ट्र है। नेपाल के उत्तर में चीन का वह स्वशासित राज्य तिब्बत है जो आजादी के लिए संघर्ष कर रहा है। यानी नेपाल और चीन के बीच अवस्थित है तिब्बत। नेपाल के दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में भारत अवस्थित है। नेपाल मे ८५ प्रतिशत से ज्यादा नागरिक हिन्दू हैं। यह प्रतिशत भारत में हिन्दुओं के आनुपातिक प्रतिशत से भी अधिक है। इस मायने में नेपाल विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू धर्मावलम्बी राष्ट्र भी है। नेपाल भौगोलिक विविधता वाला ऐसा देश हैजहां का तराई इलाका गर्म है तो हिमालय पर्वत की श्रृंखलाओं वाला इलाका बेहद ठंडा भी है। संसार का सबसे ऊंची १४ हिमश्रृंखलाओं में से आठ नेपाल में हैं। नेपाल की राजधानी और सबसे बडा शहर काठमाडौं है। नेपाल के प्रमुख शहर लिलतपुर (पाटन), भक्तपुर,मध्यपुर, कीर्तिपुर, पोखरा, विराटनगर, धरान,भरतपुर, वीरगञ्ज, महेन्द्रनगर,बुटवल,हेटौडा भैरहवा, जनकपुर, नेपालगञ्ज, वीरेन्द्रनगर,त्रिभुवननगर आदि है। आज का नेपाल यही है। आइए प्राचीन नेपाल का अवलोकन करते हैं।
प्राचीन नेपाल-मिथकीय युग
भारत और नेपाल का मिथकीय युग एकसाथ शुरू होता है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार नेपालकी संस्कृति और सभ्यता का इतिहास मनु से आरम्भ माना जा सकता है। मनु ही नेपाल के पहले राजा थे जिन्हों ने सत्ययुग में यहां राज किया। तब नेपाल सत्यभूमि के नाम से जाना जाता था। त्रेतायुग (सिल्वर युग ) में नेपाल को तपोवन तथा द्वापरयुग (ताम्र युग ) में इसे मुक्तिसोपान भी कहा जाता था। कलियुग (लौहयुग ) यानी मौजूदा समय में इसे नेपाल कहा गया। सत्ययुग में सौर्य वंश ने नेपाल की सभ्यता व संस्कृति के विकास में भरपूर योगदान किया। आज का सौर्य कैलेंडर और उस पर आधारित त्योहार इसी वंश की देन हैं।
जंगलों से आच्छादित नेपाल को तत्कालीन तपस्वियों यथा- कण्व, विश्वमित्र, अगत्स्य, वाल्मीकि, याग्यवलक्य व दूसरे रिषियों ने अपनी तपस्थली बना ली थी। भारत के राजा दुष्यंत ने नेपाल के ही कण्व रिषी की पुत्री शकुन्तला से शादी की थी। उसी के पुत्र भरत ने यहां शासन किया। इसी ने उस विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो आज का भारत भी है। भरत के साम्राज्य को महाभारत कहा गया। विभिन्न हिंदू धर्मग्रंथों में नेपाल के बारे में लिखा है। जनकपुर के न्यायप्रिय राजा जनक का भी विवरण इन्हीं ग्रंन्थों में मिलता है। कुछ विचारकों की राय में तो रामायण की रचना यहीं के सप्तगंडकी नदी के तट पर की गई। महर्षि वेदव्यास यहीं पैदा हुए थे। नेपाल के दमौली (व्यास नगर ) में व्यास गुफा है, जो इस अवधारणा को पुष्टि करती है। इसी तरह महाभारत में उल्लिखित महाराज विराट भी नेपाल के विराटनगर के राजा थे। ये सारे तथ्य इस बात के सबत हैं कि मंजूश्री के कांठमांडो घाटी में आने से काफी पहले नेपाल का अश्तित्व था। स्यंभू पुराण में वर्णित है कि चीन से कांठमांडो आकर मंजूश्री ने नागदह नामक विशाल झील के इर्दगिर्द लोगों को बसाया। उसने मंजूपत्तनम नामक शहर बसाया और धर्माकर को राजा बनाया। इसके बाद से नेपाल का इतिहास कांठमांडों के इर्दगिर्द घूमता है। इसके बाद यहां कई राजवंशों ने शासन किया। ये हैं-आहिर या गोपाल, किरात, लिच्छवी, मल्ल और शाह।
नेपाल शब्द की व्युत्पत्ति
"नेपाल" शब्द की उत्त्पत्ति के बारे मे ठोस प्रमाण कुछ नही है, लेकिन एक प्रसिद्ध विश्वास अनुसार यह शब्द ने नामक ऋषि तथा पाल (गुफा) से मिलकर बना है। माना जाता है कि एक समय में बागमती और विष्णुमती नदियों संगमस्थल पर ने ऋषि की तपस्थली थी। ने रिषी ही यहां के राजा के सलाहकार थे। सामान्य तौर पर इस हिमालयी भूभाग पर गोपाल राजवंश का शासन था। इस वंश के लोग नेपा भी कहे जाते थे। इसी नेपा नाम से गोपालवंश शासित भूभाग नेपाल कहा गया।
एक मान्यता यह भी है कि काठमांडो घाटी में रहने वाली नेवर जनजाति के नाम पर नेपाल नाम पड़ा होगा। गंडकी महात्म्य में एक राजा नेपा का उल्लेख है जिसने यहां न सिर्फ शासन किया बल्कि तमामा राज्यों को जीता भी। भगवान शंकर नेपा के आराध्य थे। इसी राजा ने अपने नाम पर इस राज्य का नाम नेपाल रखा।
तिब्बती भाषा में ने का अर्थ होता है घर और पाल का अर्थ होता है ऊन। अर्थात वह इलाका जहां ऊन पाया जाता है। इस ने और पाल से नेपाल बना होगा।जबकि नेवारी भाषा में ने का अर्थ बीच में और पा का अर्थ देश होता है।यानी ऐसा देश जो दो देशों के बीच में अवस्थित हो। भारत और चीन के बीच अवस्थित होने के कारण हा इसका नाम नेपाल पड़ा होगा। इसी तरह लिम्बू बोली में ने को तराई कहा जाता है। काठमांडों भी तराई है इसलिए नेपाल नाम पड़ा होगा।लेप्चा लोगों की बोली में ने का अर्थ पवित्र और पाल का अर्थ गुफा होता है। बौद्धों और हिंदुओं के पवित्र स्थल के कारण यह पवित्र गुफा नेपाल के नाम से जानी गई।
दरअसल तमाम जनश्रुतियां हैं जिनके आधार पर नेपाल शब्द की व्युत्पत्ति मानी जाती है। मगर प्राचीन नेपाल और नेपाल शब्द की इस व्युत्पत्ति के संदर्भ में ठोस लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है क्यों कि तत्कालीन समय में विधिवत इतिहास लिखा भी नहीं गया। बाद के जो साक्ष्य उपलब्ध है उसके ही आधार पर प्राचीन नेपाल और आधुनिक नेपाल की कड़ियां जोड़ने का प्रयास इतिहासकार किए हैं। बदलते नेपाल की तस्वीर इसी आधार पर उकेरी जा सकती है।
नेपाल के प्रमाणिक इतिहास को ऐतिहासिक पर इमारतों, सिक्कों, मंदिरों, देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियों, कलात्मक अभिलेख और तत्कालीन साहित्य और १८०० ईसवी के आसपास के क्रानिकल्स (बस्मावलीज) से ही प्रमाणिक प्रकाश डाला जा सकता है। इनमें से सबसे प्रमाणिक क्रानिकल्स को ब्राह्मणों और बज्रकाचार्य ने संतलित किए हैं। ये राजा द्वारा किए गए धार्मिक कार्यों का विवरण है।
इनमें से एक को राणा बहादुर शाह के समय में बौद्ध भिक्षु पाटन ने लिखा था। डेनियल राइट ने इसका अंग्रेजी में अनवाद किया है। इसमें राजा का इतिहास और कुछ घटनाएं वर्णित हैं मगर इन क्रानिकल्स से सभ्यता, संस्कृति या लोगों के रहन-सहन के बारे में कुछ पता नहीं चलता है।
नेपाल के इतिहास पर प्राचीन काल में हाथों से लिखी गईं पांडुलिपियों से भी प्रकाश डाला गया है। इन पांडुलिपियों (कोलोफोंस) ने समकालीन राजा के विवरण के साथ आखिर पांडुलिपि के लेखक का नाम होता है। इनके अलावा हिंदुओं के प्राचीन धार्मिक ग्रंथों यथा- पुराणों, रामायण और महाभारत इत्यादि में नेपाल के विवरण मिलते हैं। इनकी मदद से भी नेपाल का इतिहास लिखा गया है। मसलन रामायण में नेपाल के जनकपुर के राजा जनक की पुत्री सीता से अयोध्या के राजकुमार राम का विवाह का विवरण है। महाभारत के युद्ध में नेपाल के राजा के भाग लेने का जिक्र भी मिलता है। दमयन्ती के स्वयंबर में नेपाल के राजा ने भाग लिया था। नेपाल के इतिहास के ये सभी लिखित साक्ष्य हैं।
नेपाल का इतिहास लिखने के लिए प्रस्तर और ताम्र अभिलेखों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। ये अभिलेख पांचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच संस्कृत में लिखे गए हैं। इनमें चंगूनारायण के मंदिर से प्राप्त अभिलेख प्रमुख हैं। हालांकि लिच्छवी राजा शिवदेव के बाद के शासकों के अभिलेख अभी तक नहीं मिले हैं। १४वीं शताब्दी से मल्ल राजाओं के शासनकाल के अभिलेख प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। प्राचीन भवन, मंदिर व स्तूप भी प्राचीन नेपाल की कहानी कहते हैं। इनमें चंगूनारायण, पशुपतिनाथ, हनुमान धोका, पाटन का कृष्णमंदिर भक्तपुर का पांचमंजिला न्यातापोल, स्वयंभूनाथ. बौद्धनाथ, महाबौद्ध प्रमुख है। मल्ल राजाओं के बनवाए मंदिर और मूर्तियां ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। विभिन्न जगहों से मिलों सिक्के नेपाल के इतिहास की कड़ी हैं। भारतीय और यूरोपीय इतिहासकारों के विवरणों और ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई से मिले अवशेषों में भी प्राचीन नेपाल दर्ज है। काठमांडों घाटी में नवपाषाण युग के अवशेष पाए गए हैं।

१८वीं शताब्दी से पहले का नेपाल
१८वीं शताब्दी से पहले नेपाल देश काठमांडों घाटी तक सीमित था। यानी काठमांडों का वृहद इतिहास ही नेपाल का इतिहास है। १४वीं शताब्दी के पहले का इतिहास हिंदू महाकाव्यों के अलावा बौद्ध और जैन स्रोंतों पर ज्यादा आधारित है। नेपाल का दस्तावेजी इतिहास लिच्छवी वंश के शासक महादेव ( ४६४ शताब्दी से ५५० ईसवी ) के चंगूनारायण मंदिर से प्राप्त अभिलेख से शुरू माना जा सकता है। लिच्छवियों ने नेपाल में ६३० शाल तक शासन किया। इनका आखिरी शासक था जयकामादेव।
लिच्छिवियों के पतन के बाद १२वीं शताब्दी में अरिमल्ल के राजगद्दी हासिल करने करने के साथ ही मल्ल राजाओं का शासन शुरू होता है जो दो शताब्दियों यानी १४वीं शताब्दी के आखिर तक कायम रहता है। इन्हीं शासकों ने कांतिपुर नामक शहर को बसाया जिसे आज हम काठमांडो के नाम से जानते हैं। इन दो शताब्दियों में महत्वपूर्ण सामाजिक व आर्थिक सुधार किए। पूरे काठमांडो घाटी में संस्कृत भाषा को स्थापित किया। जमीन की पैमाइश के नए पैमाने ईजाद किए। जयसाथीतिमल्ल ने १५वीं शताब्दी के आखिर तक काठमांडो घाटी पर शासन किया। इसके मरने के साथ ही घाटी का यह साम्राज्य १४८४ ईसवी में तीन टुकड़ों- काठमांडो, भक्तपुर और पाटन में विभक्त हो गया। मल्ल राजाओं की शक्ति क्षीण होते ही पृथ्वी नारायण शाह ने काठमांडो घाटी पर हमला किया। इसी शाह वंश ने आगे चलकर नेपाल का एकीकरण किया। मल्ल वंश के आखिरी शासक थे- काठमांडो में जयप्रकाश मल्ल, पाटन में तेज नरसिंह मल्ल और भक्तपुर में रंजीत मल्ल।
शाह राजवंश और नेपाल का एकीकरण
आधुनिक नेपाल के एकीकरण के श्रेय शाहवंश के पृथ्वीनारायण शाह ( १७६९-१७७५ ईसवी ) को जाता है। शाह वंश के संस्थापक द्रव्यशाह ( १५५९-१५७० ईसवी ) के नौंवें उत्तराधिकारी पृथ्वीनारायण अपने पिता नारा भूपाल शाह के बाद उस समय के ताकतवर गोरखा शासन की कमान १७४३ ईसवी में संभाली। जिस तरह भारत और चीन के बीच तिब्बत है उसी तरह काठमांडो और गोरखा के बीच नुवाकोट था।
पृथ्वीनारायण शाह ने अपना विजय अभियान १७४४ ईसवी में नुवाकोट की जीत से शुरू किया। इसके बाद काठमांडों घाटी के उन सभी ठिकानों को अपने कब्जे में ले लिया जो सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण थे। इसके बाद काठमांडो घाटी का संपर्क बाकी दुनिया से कट गया। सन् १७७५ में कुटी दर्रा पर कब्जे के बाद पृथ्वीनारायण ने अंततः काठमांडो घाटी का तिब्बत से व्यापारिक संपर्क भी छिन्नभिन्न कर दिया। अब पृथ्वीनारायण शाह ने घाटी में प्रवेश करके कीर्तिपुर पर हमला कर दिया। अब तक बेखबर सो रहा मल्ल शासक जयप्रकाश मल्ल घबरा गया और ब्रिटिश सेना से मदद मांगी। १७५६ में ईस्ट इंडिया की और से कैप्टेन किंलोच अपने सिपाहियों के लेकर मदद के लिए हाजिर हुआ। पृथ्वीनारायण शाह की सेना ने फिंरंगियों को परास्त जयप्रकाश मल्ल की उम्मीदों को धूल में मिला दिया।
बड़े नाटकीय तरीके से पृथ्वीनारायण शाह ने २५ सितंबर १७६८ को काठमांडो पर तब कब्जा कर लिया जब वहां के लोग इंद्रजात्रा उत्सव मना रहे थे। काठमांडो के लोगों ने तो पृथ्वीनारायण शाह का राजा के तौर पर स्वागत किया मगर जयप्रकाश मल्ल भाग निकला। ुसने पाटन में शरण ली। जब एक सप्ताह बाद पृथ्वीनारायण शाह ने पाटन को कब्जे में ले लिया तो जयप्रकाश मल्ल और पाटन का राजा तेजनरसिंह मल्ल दोनों ने भक्तपुर में शरण ली। भक्तपुर भी नहीं बचा और नेपाल के एकीकरण अभियान में यह भी जीत लिया गया। इस विजय के बाद १६९ में कांठमांडो को आधुनिक नेपाल की राजधानी बना दिया गया। विभिन्न जातियों को राष्ट्रीयता के दायरे में लाने का पृथ्वीनारायण शाह ने वह अभूतपूर्व कार्य किया जिसके चलते एकीकरण के बाद एक छत्र नेपाल राष्ट्र बन पाया। अंग्रेजों के हमले ने इस एकीकृत नेपाल को भारी क्षति पहुंचाई। अंग्रेजों के साथ नेपाल का पश्चिमी तराई खासतौर पर बुटवल और सेवराज को लेकर था। अंग्रेजों ने १८१४ ईसवी में नेपाल के पश्चिमी सीमा पर स्थित नलपानी पर हमला कर दिया। अंग्रेजी सेना भारी पड़ी और नेपाली सेना को महाकाली नदी का पश्चिमी किनारा खाली करना पड़ा। अंग्रेजों के साथ १८१६ ईसवी में सुगौली की संधि करनी पड़ी जिसमें नेपाल की पश्चिमी सीमा महाकाली और मेची नदियों तक सीमित हो गई। इस समय नेपाल पर राजा गिरवान युद्ध विक्रम शाह नेपाल का राजा था। उनके प्रधानमंत्री भीमसेन थापा थे। इस संधि से नेपाल का वह हश्र नहीं हुआ जो भारतीय राजाओं का हुआ। नेपाल और शाहवंश का इस संधि के बाद भी वजूद रहा मगर भारत की रियासतों को एक-एक कर लील गए अंग्रेज और नतीजे में अंततः भारत गुलाम हो गया।
आखिरी हिंदू राष्ट्र और इसकी राजशाही के पतन तक का घटनाचक्र
1768 – गोरखा शासक पृथ्वी नारायन शाह द्वारा काठमांडू को जीत कर एकीकृत राष्ट्र की स्थापना की गई.
1792 – तिब्बत में चीन के हाथों पराजय के बाद नेपाल के विस्तार पर रोक लगी.
1814-1816 – अंग्रेज़ों के साथ युद्ध, जिसकी समाप्ति पर एक संधि हुई जिसमें नेपाल की वर्तमान सीमाओं का निर्धारण हुआ.
1846 – नेपाल का शासन राणाओं के हाथों में चला गया, जिन्होंने राजतंत्र पर प्रधानता हासिल कर देश को दुनिया के बाक़ी हिस्से से अलग कर दिया.
पूर्ण राजतंत्र
1923 – ब्रिटेन के साथ संधि हुई जिसने नेपाल की संप्रभुता को सुदृढ़ किया.
1950 – भारत में स्थित राणा विरोधी शक्तियों ने नेपाल के सम्राट के साथ समझौता हुआ.
1951 – राणा शासन की समाप्ति हुई. राजघराने की श्रेष्ठता फिर से स्थापित हुई और नेपाली कांग्रेस पार्टी के राणा विरोधी विद्रोहियों ने सरकार का गठन किया.
1953 – 29 मई- न्यूज़ीलैंड़ के एडमंड हिलेरी और नेपाल के शेरपा तेनज़िंग एवरेस्ट शिखर पर पहुँचने वाले पहले पर्वतारोही बने.
1955 – नेपाल संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना.
1959 – बहुदलीय संविधान को अपनाया गया.
1960 – नेपाली कांग्रेस पार्टी ने बी.पी. कोइराला के नेतृत्व में चुनाव जीता लेकिन महाराजा महेंद्र सत्ता पर नियंत्रण बना कर पार्टी आधारित राजनीति, संसद और संविधान को स्थगित कर देते हैं.
1962 – नए संविधान के तहत ग़ैर दलीय पंचायत का गठन किया गया. इसमें महाराज को सत्ता पर पूरी तरह से नियंत्रण की शक्ति प्रदान की गई. 1963 में राष्ट्रीय पंचायत के पहले चुनाव हुए.
1972 – महाराजा महेंद्र के निधन के बाद सम्राट बीरेन्द्र ने सत्ता संभाली.
बहुदलीय राजनीति
1980 – बदलावों के लिए हुए आंदोलन के बाद संवैधानिक जनमत संग्रह किया गया. कम बहुमत से वर्तमान पंचायत व्यवस्था को जारी रखने का निर्णय हुआ. नेपाल नेरश राष्ट्रीय सभा के लिए ग़ैर-दलीय आधार पर सीधे चुनावों के लिए सहमत हुए.
1985 – नेपाली कांग्रेस पार्टी ने बहुदलीय व्यवस्था को फिर से लागू करने के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की.
1986 – नए चुनावों का नेपाली कांग्रेस पार्टी ने बहिष्कार किया.
1989 – भारत के साथ व्यापार विवाद के बाद भारत ने द्वारा सीमा की नाकेबंदी की जिससे नेपाल की आर्थिक स्थिति और भी बिगड़ गई.
1990 – प्रजातंत्र के समर्थन में नेपाली कांग्रेस पार्टी और वामपंथी दलों ने आंदोलन की शुरुआत की. धरने प्रदर्शनों को सुरक्षाबलों ने दबाने की कोशिश की जिस दौरान कई लोग मारे जाते हैं और भारी संख्या में लोगों को गिरफ़तार किया जाता है. अतंत महाराज बीरेंद्र दबाव के आगे झुक जाते हैं और नए प्रजातांत्रिक संविधान की रचना के लिए सहमत हो जाते है.
1991 – पहले प्रजातांत्रिक चुनावों में नेपाली कांग्रेस पार्टी की विजय होती है. गिरिजा प्रसाद कोइराला को प्रधानमंत्री बनाया जाता है.
राजनीतिक अस्थिरता
1994 – अविश्वास प्रस्ताव पर कोइराला सरकार की हार हुई और नए चुनावों में कम्युनिस्ट सरकार का गठन किया गया.
1995 – कम्युनिस्ट सरकार का पतन हुआ. कट्टरवादी वामपंथी दल, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने सम्राट को हटाने और जनतांत्रिक राष्ट्र के गठन को लेकर ग्रामीण इलाकों में विद्रोह की शुरुआत की.
1997 – लगातार राजनीतिक अस्थिरता के चलते प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की हार हुई और लोकेन्द्र बहादुर चाँद नए प्रधानमंत्री बनाए गए. लेकिन पार्टी में विभाजन के बाद चाँद पर इस्तीफ़ा देने का दबाव पड़ा और सूर्य बहादुर थापा को नया प्रधानमंत्री बनाया गया.
1998 – पार्टी में विभाजन के चलते थापा को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. गिरिजा प्रसाद कोइराला गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री के रुप में एक बार फिर सत्ता संभालते हैं.
1999 – ताज़ा चुनावों में नेपाली कांग्रेस पार्टी को बहुमत मिलता है और कृष्ण प्रसाद भट्टाराई को नया प्रधानमंत्री बनाया जाता है.
2000 – नेपाली कांग्रेस पार्टी में विद्रोह के बाद प्रधानमंत्री भट्टाराई को इस्तीफ़ा देना पड़ता है. पिछले 10 वर्षों में नवीं बार बनने वाली सरकार के प्रधानमंत्री के रुप में गिरिजा प्रसाद कोइराला एक बार फिर प्रधानमंत्री बनाए जाते हैं.
राजमहल में हत्याएँ
2001 – एक जून – नशे में धुत्त राजकुमार दीपेन्द्र ने महाराज बीरेंद्र, महारानी एश्वर्या और अन्य निकट संबधियों की हत्या की. बाद में राजकुमार दीपेन्द्र ने ख़ुद को भी गोली मार ली.
2001 – चार जून – महल में हुई गोलीबारी के दौरान लगी चोटों की वजह से दो जून को सम्राट बनाए गए राजकुमार दीपेन्द्र की मौत हो गई. मौत के बाद राजकुमार ज्ञानेंद्र को महाराज बनाया गया.
2001 – जुलाई – माओवादी विद्रोही अपने हिंसक आंदोलन को उग्र कर देते हैं. गिरिजा प्रसाद कोईराला ने हिंसा के चलते इस्तीफ़ा दिया. इसके बाद शेरबहादुर देउबा 11 वर्षों में ग्यारहवीं बार बनने वाली सरकार के प्रधानमंत्री बनते हैं.
2001 – जुलाई – देउबा की ओर से विद्रोहियों के साथ शांति की घोषणा की जाती है और युद्ध विराम लागू हो जाता है.
2001 – नवंबर – माओवादियों का कहना कि शांतिवार्ता विफल हो गई है और युद्ध विराम लागू रखने का कोई औचित्य नहीं है. माओवादी, पुलिस और सेना की चौकियों पर सुनियोजित हमले करते हैं.
आपातकाल
2001 – नवंबर – चार दिनों की हिंसा में 100 से भी अधिक लोगों के मारे जाने के बाद, आपातकाल की घोषणा की जाती है. महाराजा ज्ञानेंद्र सेना से माओवादियौं को कुचलने का आदेश देते हैं.
2002 – अप्रैल –हमलों में हज़ारों लोगों के मारे जाने के कई दिनों बाद माओवादी विद्रोही पाँच दिनों की राष्ट्रीय हड़ताल का आह्वान करते है.
2002 – मई – देश के दक्षिण में सेना और विद्रोहियों के बीच तीखी झड़पें होती हैं. माओवादी विद्रोही एक महीने के युद्धविराम की घोषणा करते हैं जिसे सरकार ठुकरा देती है. प्रधानमंत्री देउबा, माओवादियों के विरुद्ध युद्ध में मदद के लिए ब्रिटेन और अन्य देशों का दौरा करते है. अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश 2 करोड़ डॉलर की मदद देने का वायदा करते हैं.
2002 – मई – संसद भंग कर दी जाती है और आपातकाल की समयसीमा बढ़ाए जाने को लेकर उठे राजनीतिक विवाद के बीच नए चुनावों की घोषणा की जाती है. नेपाली कांग्रेस पार्टी द्वारा निष्कासित किए जाने के बाद देउबा अंतरिम सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए आपातकाल के समय को बढ़ा देते है.
2002 – अक्तूबर – माओवादी हिंसा के चलते प्रधानमंत्री देउबा महाराज ज्ञानेंद्र से चुनावों को एक साल आगे खिसकाने के लिए कहते हैं. महाराज देउबा को हटा कर नवंबर में होने वाले चुनावों को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर देते हैं. लोकेन्द्र बहादुर चाँद को नया प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है.
2003 – जनवरी – विद्रोही और सरकार के बीच युद्ध विराम की घोषणा की जाती है.
2003 – मई-जून- लोकेन्द्र बहादुर चाँद प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे देते हैं. महाराज अपने निकट सहयोगी सूर्य बहादुर थापा को नया प्रधानमंत्री बनाते हैं.
शांति संधि की समाप्ति
2003 – अगस्त – माओवादी विद्रोही, सरकार के साथ शांतिवार्ता समाप्त कर सात महीने से चली आ रही शाँति संधि को तोड़ देते हैं. विद्रोही सितंबर में तीन दिनों की आम हड़ताल का आह्वान करते है.
2003 के आख़िरी महीनों से आगे – राजनैतिक गतिरोध के बाद छात्रों-कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच झड़पें, हिंसा फिर से भड़की.
2004 – अप्रैल – नेपाल विश्व व्यापार संघ का सदस्य बनता है.
2004- मई – विपक्षी गुटों के धरने-प्रदर्शनों के बाद राजघराने की ओर से प्रधानमंत्री बनाए गए सूर्य बहादुर थापा इस्तीफ़ा दे देते हैं.
2004 – जून – महाराज ज्ञानेंद्र शेर बहादुर देउबा का फिर से प्रधानमंत्री नियुक्त करते हैं.
2004 – अगस्त - माओवादी काठमांडू की नाकेबंदी कर देते हैं जो एक सप्ताह तक चलती है. इस कारण राजधानी में ज़रूरी चीज़ों की आपूर्ति ठप्प पड़ जाती है.
इराक में 12 नेपाली बधंकों की हत्या के बाद काठमांडू में हिसंक प्रदर्शन होते हैं.
प्रत्यक्ष सत्ता
2005 – 1 फ़रवरी – महाराज ज्ञानेंद्र प्रधानमंत्री देउबा और उनकी सरकार को सत्ता से हटा देते हैं. वो माओवादियों को परास्त करने की बात कह कर आपातकाल की घोषणा कर देते हैं और प्रत्यक्ष रुप से सत्ता संभाल लेते हैं.
2005 – 30 अप्रैल – महाराज आपातकाल समाप्त करने की घोषणा करते हैं.
2005 – जुलाई –भ्रष्टाचार विरोधी राजसी आयोग पूर्व प्रधानमंत्री देउबा को भ्रष्टाचार के आरोप में 2 वर्ष जेल की सज़ा देता है. फ़रवरी 2006 में आयोग के निरस्त होने के बाद देउबा को मुक्त कर दिया जाता है.
2005 – सितंबर – 2003 में शांति वार्ता समाप्त होने के बाद पहली बार माओवादी विद्रोही तीन महीने के एकतरफ़ा युद्ध विराम की घोषणा करते हैं जिसे बाद में बढ़ा कर चार महीने कर दिया जाता है.
2005 – नवंबर – माओवादी विद्रोही और मुख्य विपक्षी पार्टियाँ प्रजातंत्र को बनाए रखने के लिए एक कार्यक्रम पर सहमत होते हैं.
2006 – जनवरी – माओवादी विद्रोही चार महीने से चले आ रहे युद्ध विराम को समाप्त करने की घोषणा करते है.
2006 – अप्रैल – नेपाल में राजघराने के सत्ता पर सीधे नियंत्रण के विरोध में विपक्षी पार्टियों की ओर से हड़तालों और प्रदर्शनों का आह्वान किया जाता है. राजधानी काठमांडू में तीखी झड़पें होती हैं.
2006 – अप्रैल- नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र ने देश की सत्ता जनता को सौंपने की बात कही. राष्ट्र को संबोधन में उन्होंने राजनीतिक दलों से अंतरिम प्रधानमंत्री का नाम सुझाने को कही. लेकिन विपक्षी दलों ने उनके इस प्रस्ताव को नकार दिया है कि वे संयुक्त रुप से एक प्रधानमंत्री चुनकर सरकार का गठन कर लें. सरकार को गठन हुआ जिसमें माओवादी सरकार में शामिल हुए। कई बार चुनाव की तारीखें तय नहीं हो पाईं मगर जो प्रक्रिया शुरू हुई उसके बाद २००७ और अप्रैल २००८ तक पूरी तरह से राजशाही का पतन हो गया। १० अप्रैल २००८ को हुए चुनाव में अप्रत्याशित तौरपर माओवादियों ने जीत दर्ज कर बहुमत हासिल कर लिया है।
संविधान सभा का चुनाव जीत लिया
नेपाल में माओवादियों ने संविधान सभा का चुनाव जीत लिया है. उन्हें लगभग 220 सीटें मिली हैं. हालाँकि ये स्पष्ट बहुमत से कम है. नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) अब नेपाल की नई सरकार में मुख्य भूमिका में होंगे जो देश के लिए नया संविधान तैयार करेगी.नए संविधान के तहत सबसे बड़ा बदलाव होगा 239 वर्षों से चली आ रही राजशाही की समाप्ति. माओवादियों ने कहा है कि वो नई सरकार में सभी दलों को शामिल करना चाहते हैं.
माओवादियों ने अपने नेता पुष्प कमल दहल उर्फ़ प्रचंड को राष्ट्रपति बनाने की योजना बनाई है.
ख़ुद प्रचंड ने गुरुवार को संयुक्त राष्ट्र प्रतिनिधियों के साथ बैठक के बाद कहा, "मैं राष्ट्रपति बनना चाहता हूँ लेकिन संविधान में इस तरह का प्रावधान नहीं है, इसलिए हमें दूसरे दलों के साथ मिल कर किसी तरह का समझौता करना होगा."
राजशाही की समाप्ति
प्रचंड ने कहा कि अब नेपाल में राजशाही के लिए कोई जगह नहीं है. उनका कहना था, "संविधान सभा की पहली बैठक में ही राजशाही ख़त्म करने का फ़ैसला किया जाएगा और इस पर किसी तरह का समझौता नहीं होगा."
601 सदस्यीय संविधान सभा के चुनावों में 240 सीटों पर प्रत्यक्ष चुनाव हुए थे जिनमें माओवादियों को 120 सीटें मिली हैं.
शेष 335 सीटों पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत चुनाव हुए जिनकी मतगणना बुधवार रात ख़त्म हो गई.
चुनाव अधिकारी मत्रिका श्रेष्ठ ने कहा, "माओवादियों को 29 फ़ीसदी से ज़्यादा मत मिले हैं जबकि नेपाली कांग्रेस को लगभग 21 और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड मार्क्सवादी-लेनिनवादी) को लगभग 20 फ़ीसदी मत प्राप्त हुए."
चुनाव आयोग के मुताबिक इस हिसाब से माओवादियों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत 97 सीटें मिलेंगी.
इस तरह माओवादी कुल मिलाकर 217 सीटें जीत चुके हैं जबकि नेपाली कांग्रेस के खाते में 107 सीटें गई हैं. नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) तीसरे पायदान पर हैं. संविधान सभा के 26 सदस्यों को नामित करने का अधिकार नई सरकार को होगा.
नेपाल नीति में बदलाव लाएगा अमेरिका
चुनावों में माओवादियों की निश्चित विजय को ध्यान में रखकर अमेरिका अपनी नेपाल नीति में बदलाव करने पर विचार कर रहा है। नेपाल में अमेरिका की राजदूत नैंसी जे. पावेल ने इस बात का संकेत दिया है।गौरतलब है कि 2003 में अमेरिका ने माओवादियों को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों की सूची में पहली बार शामिल किया था। हालांकि, अमेरिका ने संकेत दिए हैं कि इसकी समीक्षा की जा सकती है। यद्यपि माओवादी 2006 से ही हथियार रखकर गठबंधन सरकार में शामिल हो चुके हैं। पावेल ने नेपाल की संसद के अध्यक्ष सुभाष चंद्र नेमबंग से सोमवार को मुलाकात करके नई सरकार के गठन के संबंध में जानकारी प्राप्त की। अधिकारिक सूत्रों के अनुसार मुलाकात के बाद नेमबंग ने संकेत दिए हैं कि अमेरिका अब अपनी नेपाल नीति को बदल रहा है।
शासन प्रणाली
इस चुनाव मे 240 सीटों पर प्रत्यक्ष चुनाव और 335 सीटों के लिए समानुपातिक पद्धति से चुनाव हुआ है, जिसमें मतदाता को उम्मीदवार को न चुनकर पार्टी को चुनना था. पूरे चुनाव परिणाम आने और गणतंत्र घोषित किए जाने के बाद सबसे बड़ा सवाल होगा कि नेपाल किस शासन की किस प्रणाली को अपनाता है.नेपाल में अमरीका की तरह राष्ट्रपति प्रणाली लागू की जाती है या फिर भारत की तरह सारे कार्यकारी अधिकार प्रधानमंत्री के पास रहते हैं.
हालांकि, माओवादी अपने नेता प्रचंड का नाम नेपाल के भावी राष्ट्रपति के तौर पर पेश कर चुके हैं.
लेकिन खुद प्रचंड का कहना है कि नेपाल क्या प्रणाली अपनाता है वो इसके लिए बहस को तैयार हैं.
वैसे संविधान सभा के बनने के बाद इस नेपाल का संविधान तैयार करने के लिए दो साल का समय होगा और ज़रूरत पड़ने पर इस संविधान सभा का कार्यकाल छह महीने और बढ़ाया जा सकेगा.
Monday, 14 April 2008
नेपाल में रामकथा और रामायण

भारत से हिंदू और बौद्ध पूरे दक्षिणपूर्व एशिया में गए और धर्म व संस्कृति का प्रसार किया। बौद्ध तो भारत से मध्य एशिया में भी छा गए। दसवीं शताब्दी तक मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया जैसे दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में हिंदू राजाओं का शासन था। इंडोनेशिया में तो मजपहित साम्राज्य ने भारतीय संस्कृति व धर्म की ऐसी नींव डाली कि आज मुस्लिम देश होने के बावजूद वहां बाली द्वीप में हिंदू संस्कृति विराजमान है। रामायण की कथा से जुड़े स्थल और मंदिर आज भी हैं। गंगा, जमुना और सरस्वती जैसी पवित्र नदियों के भी वजूद हैं। संस्कृति के इसी विस्तार क्रम में रामायण और महाभारत और पुराण भी इन देशों में प्रेरणास्रोत बने। आज भी कंबोडिया में दुनिया सबसे बड़ा विष्णु मंदिर अंकोरवाट का मंदिर हिंदू संस्कृति के लोगों में रचबस जाने की कहानी कह रहा है। इसी कारण दक्षिण एशिया के तमाम देशों में हिंदुओं के आदर्श व पूज्य भगवान राम की कथा थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ प्रचलित रही है। भारत के पड़ोसी हिंदू देश नेपाल में रामकथा को सर्वोच्च स्थान हासिल है।
नेपाल के राष्ट्रीय अभिलेखागार में वाल्मीकि रामायण की दो प्राचीन पांडुलिपियाँ सुरक्षित हैं। इनमें से एक पांडुलिपि के किष्किंधा कांड की पुष्पिका पर तत्कालीन नेपाल नरेश गांगेय देव और लिपिकार तीरमुक्ति निवासी कायस्थ पंडित गोपति का नाम अंकित है। इसकी तिथि सं. १०७६ तदनुसार १०१९ई. है। दूसरी पांडुलिपि की तिथि नेपाली संवत् ७९५ तदनुसार १६७४-७६ई. है।

नेपाल में रामकथा का विकास मुख्य रुप से वाल्मिकि तथा अध्यात्म रामायण के आधार पर हुआ है। जिस प्रकार भारत की क्षेत्रीय भाषाओं क साथ राष्ट्रभाषा हिंदी में राम कथा पर आधारित अनेकानेक रचनाएँ है, किंतु उनमें गोस्वामी तुलसी दास विरचित रामचरित मानस का सर्वोच्च स्थान है, उसी प्रकार नेपाली काव्य और गद्य साहित्य में भी बहुत सारी रचनाएँ हैं। 'रामकथा की विदेश-यात्रा' के अंतर्गत उनका विस्तृत अध्ययन एवं विश्लेषण हुआ है।
नेपाली साहित्य में भानुभक्त कृत रामायण को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। नेपाल के लोग इसे ही अपना आदि रामायण मानते हैं। यद्यपि भनुभक्त के पूर्व भी नेपाली राम काव्य परंपरा में गुमनी पंत और रघुनाथ भक्त का नाम उल्लेखनीय है। रघुनाथ भक्त कृत रामायण सुंदर कांड की रचना उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुआ था। इसका प्रकाशन नेपाली साहित्य सम्मेलन, दार्जिलिंग द्वारा कविराज दीनानाथ सापकोरा की विस्तृत भूमिका के साथ १९३२ में हुआ।
नेपाली साहित्य के क्षेत्र में प्रथम महाकाव्य रामायण के रचनाकार भानुभक्त का उदय सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है। पूर्व से पश्चिम तक नेपाल का कोई ऐसा गाँव अथवा कस्वा नहीं है जहाँ उनकी रामायण की पहुँच नहीं हो। भानुभक्त कृत रामायण वस्तुत: नेपाल का 'राम चरित मानस' है। भानुभक्त का जन्म पश्चिमी नेपाल में चुँदी-व्याँसी क्षेत्र के रम्घा ग्राम में २९ आसढ़ संवत १८७१ तदनुसार १८१४ई. में हुआ था। संवत् १९१० तदनुसार १८५३ई. में उनकी रामायण पूरी हो गयी थी,२ किंतु एक अन्य स्रोत के अनुसार युद्धकांड और उत्तर कांड की रचना १८५५ई. में हुई थी।
भानुभक्त कृत रामायण की कथा अध्यात्म रामायण पर आधारित है। इसमें उसी की तरह सात कांड हैं, बाल, अयोध्या, अरण्य, किष्किंधा, सुंदर, युद्ध और उत्तर।
बालकांड का आरंभ शिव-पार्वती संवाद से हुआ है। तदुपरांत ब्रह्मादि देवताओं द्वारा पृथ्वी का भारहरण के लिए विष्णु की प्रार्थना की गयी है। पुत्रेष्ठियज्ञ के बाद राम जन्म, बाल लीला, विश्वामित्र आगमन, ताड़का वध, अहिल्योद्धार, धनुष यज्ञ और विवाह के साथ परशुराम प्रसंग रुपायित हुआ है।
अयोध्या कांड में नारद आगमन, राज्याभिषेक की तैयारी, कैकेयी कोप, राम वनवास, गंगावतरण, राम का भारद्वाज और वाल्मीकि से मिलन, सुमंत की अयोध्या वापसी, दशरथ का स्वर्गवास, भरत आगमन, दशरथ की अंत्येष्ठि, भरत काचित्रकूट गमन, गुह और भारद्वाज से भरत की भेंट, राम-भरत मिलन, भरत की अयोध्या वापसी औ राम के अत्रि आश्रम गमन का वर्णन हुआ है।
अरण्यकांड में विराध वध, शरभंग, सुतीक्ष्ण और आगस्तमय से राम की भेंट, पंचवटी निवास, शूपंणखा-विरुपकरण, मारीच वध, सीता हरण और राम विलाप के साथ जटायु, कबंध और शबरी उद्धार की कथा है। किष्किंधा कांड में सुग्रीव मिलन, वालि वध, तारा विलाप, सुग्रीव अभिषेक, क्रिया योग का उपदेश, राम वियोग, लक्ष्मण का किष्किंधा गमन, सीतानवेषण और स्वयंप्रभा आख्यान के उपरांत संपाति की आत्मकथा का उद्घाटन हुआ है।
सुंदर कांड में पवन पुत्र का लंका गमन, रावण-सीता संवाद, सीता से हनुमानकी भेंट, अशोक वाटिका विध्वंस, ब्रह्मपाश, हनुमान-रावण संवाद, लंका दहन, हनुमान से सीता का पुनर्मिलन और हनुमान की वापसी की चर्चा हुई है।
युद्ध कांड में वानरी सेना के साथ राम का लंका प्रयाण, विभीषण शरणागति, सेतुबंध, रावण-शुक संवाद, लक्ष्मण-मूर्च्छा, कालनेमिकपट, लक्ष्मणोद्धार, कुंभकर्ण एवं मेघनाद वध, रावण-यज्ञ विध्वंस, राम-रावण संग्राम, रावण वध, विभीषण का राज्याभिषेक, अग्नि परीक्षा, राम का अयोध्या प्रत्यागमन, भरत मिलन और राम राज्याभिषेक का चित्रण हुआ है।
उत्तरकांड में रावण, वालि एवं सुग्रीव का पूर्व चरित, राम-राज्य, सीता वनवास, राम गीता, लवण वध, अश्वमेघ यज्ञ, सीता का पृथ्वी प्रवेश और राम द्वारा लक्ष्मण के परित्याग के उपरांत उनके महाप्रस्थान के बाद कथा की समाप्ति हुई है।
कुछ समीक्षकों का कहना है कि भानुभक्त कृत रामायण अध्यात्म रामायण का अनुवाद है, किंतु यह यथार्थ नहीं है। तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि भानुभक्त कृत रामायण में कुल १३१७ पद हैं, जबकि अध्यात्म रामायण में ४२६८ श्लोक हैं। अध्यात्म रामायण के आरंभ में मंगल श्लोक के बाद उसके धार्मिक महत्व पर प्रकाश डाला गया है, किंतु भानुभक्त कृत रामायण सीधे शिव-पार्वती संवाद से शुरु हो जाती है। इस रचना में वे आदि से अंत तक अध्यात्म रामायण की कथा का अनुसरण करते प्रतीत होते हैं, किंतु उनके वर्णन में संक्षिप्तता है और यह उनकी अपनी भाषा-शैली में लिखी गयी है। यही उनकी सफलता और लोकप्रियता का आधार है।
भानुभक्त कृत रामायण में अध्यात्म रामायण के उत्तर कांड में वर्णित 'राम गीता' को सम्मिलित नहीं किया गया था। भानुभक्त के मित्र पं. धर्मदत्त ग्यावली को इसकी कमी खटक रही थी। विडंबना यह थी कि उस समय भानुभक्त मृत्यु शय्या पर पड़े थे। वे स्वयं लिख भी नहीं सकते थे। मित्र के अनुरोधपर महाकवि द्वार अभिव्यक्त 'राम गीता' को उनके पुत्र रामकंठ ने लिपिबद्ध किया। इस प्रकार नेपाली भाषा की यह महान रचना पूरी हुई जो कालांतर में संपूर्ण नेपाल वासियों का कंठहार बन गयी।
अब सूरज देवता भी निहार पाएंगे भोले को, काफी बड़ा हो गया काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर

कहते हैं भगवान शिव के त्रिशूल पर बसी है काशी नगरी। इसी काशी नगरी में भोले के मंदिर में किसी पर्व पर दर्शन तो मारामारी करके किसी तरह से भक्त कर लेते थे मगर अपने आराध्य के भजन-कीर्तन में शामिल होना या वहां ध्यान लगाने की ईच्छा मन में लिए ही भीड़ से किसी तरह बाहर निकल आना पड़ता था। मगर अब आप कीर्तन में भी शामिल हो सकते हैं और ध्यान भी लगा सकते हैं। परिसर को अब काफी बड़ा कर दिया गया है और आम दर्शनार्थियों के लिए खोल भी दिया गया है।
वाराणसी के करीब 200 वर्ष प्राचीन विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर के विस्तार के बाद १४ अप्रैल २००८ को पहली बार गर्भगृह में भगवान के 'ज्योतिर्लिंग' पर सूर्य की रोशनी पहुँची और यह छटा देखकर हजारों भक्त भाव विभोर हो गए। वर्ष 1780 में अहिल्याबाई होल्कर द्वारा निर्मित प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर का विस्तार कर दिया गया है। समीप के दो अन्य शिव मंदिरों के परिसरों को समाहित करने के बाद अब इसका क्षेत्र लगभग साढ़े आठ हजार वर्ग फुट हो गया है।
काशी विश्वनाथ मंदिर न्यास के अध्यक्ष एवं वाराणसी के मंडलायुक्त नितिन रमेश गोकर्ण ने मीडिया को बताया कि नए परिसर का निर्माण कार्य प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर की कला एवं स्थापत्य के अनुरुप विशेषज्ञों की राय से पिछले लगभग सात माह से जारी था। इसके लगभग पूर्ण होने पर आज इसे प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर में समाहित कर दिया गया। प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर एवं ताड़केश्वर मंदिर परिसर को अलग करने वाली दीवार को आज जैसे ही हटाया गया काशी विश्वनाथ मंदिर का गर्भगृह सूर्य की रोशनी से नहा गया। इस नयनाभिराम दृश्य को देखकर उपस्थित हजारों भक्त आनंदित हो उठे।
प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर में भगवान विश्वनाथ के गर्भगृह की परिक्रमा के लिए महज दो से तीन फीट का एक गलियारा मौजूद था जिससे भक्तों को परिक्रमा में बहुत कठिनाई होती थी। लेकिन नवनिर्मित परिसर के प्राचीन मंदिर परिसर में समाहित हो जाने के बाद भगवान विश्वनाथ का परिक्रमा स्थल भी वृहद हो गया और प्राचीन मंदिर परिसर में चारों ओर सूर्य की रोशनी आने लगी।
नवनिर्मित परिसर में भगवान विश्वनाथ के गर्भगृह के ठीक सामने एक विशाल भजन मंडप बनाया गया है जहाँ बैठकर भक्तगण काशी विश्वनाथ की आरती कर सकेंगे। प्राचीन परिसर में बहुत कम सँख्या में भक्तगण भगवान विश्वनाथ की आरती में शामिल हो पाते थे। इस परिसर में भजन मंडप के दोनों तरफ पर्याप्त परिक्रमा स्थल छोड़कर विशाल साधना एवं ध्यान स्थल बनाए गए हैं, जिसकी दीवारों पर शिव से जुडे़ पौराणिक आख्यानों को सफेद संगमरमर की दीवारों पर अंकित करने का काम किया जा रहा है।
काशी विश्वनाथ मंदिर न्यास के मुख्य कार्यकारी अधिकारी एसएन त्रिपाठी के मुताबिक नए परिसर का कार्य पूर्ण हो जाने के बाद विश्वनाथ मंदिर परिसर में एक साथ कम से कम 500 से 1000 तक भक्त भगवान शिव के दर्शन और पूजन कर सकेंगे। मंदिर न्यास के अध्यक्ष गोकर्ण ने बताया कि भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शनार्थियों की भारी भीड़ की सुविधा को ध्यान में रख कर ही मंदिर न्यास ने पिछले वर्ष बैठक में परिसर के विस्तार का फैसला किया था।
दो परिवर्तनों ने विश्वनाथ मंदिर में दर्शन और चढ़ावा को सुलभ बना दिया है। पहला यह कि काशी विश्वनाथ के प्रसाद की आनलाइन बुकिंग। इससे दुनिया के किसी कोने में भगवान शिव के भक्तों को दर्शन व प्रसाद आनलाइन उपलब्ध हुआ है। दूसरा परिसर का विस्तार। संकरा होने के कारण सुरक्षा के लिहाज से भी यह मंदिर संदेह के घेरे में आने लगा था खासतौर पर जब से आतंकवादियों के बनारस के संकट मोचन परिसर, कचहरी और कैंट स्टेशन पर हमले के बाद से हर त्यौहारों पर काशी विश्वनाथ मंदिर चिंता का विषय बन जाता है। इसकी एक वजह जगह का संकरा होना भी था। प्रशासन के सुरक्षाबल के जवान भारी तादाद में तैनात करना भी मुश्किल होता था मगर अब इतनी जगह हो गई है कि सुरक्षा के लिहाज से नजर रखना भी आसान हो गया है। मंदिर में भीड़ होनी तो मामूली बात है क्यों कि ऐसा कौन है जो काशी पधारे और भोले बाबा के दर्शन न करे ? तो फिर हर हर महादेव। आप भी दर्शन करिए सूरज देवता की उपस्थिति में आदिदेव महादेव के।,
Thursday, 10 April 2008
गरीब सवर्णों को भी चाहिए आरक्षण
क्या अब केंद्र सरकार सवर्ण गरीबों को भी आरक्षण पर पहल करेगी? सुप्रीमकोर्ट ने बृहस्पतिवार को एक अहम फैसले में केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछडा वर्ग [ओबीसी] के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को मंजूरी दे दी, लेकिन इस वर्ग की क्रीमीलेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर रखने के निर्देश दिए। कोर्ट ने साथ आरक्षण की इस नीति की समय-समय पर समीक्षा करने का भी आदेश दिया। क्रीमी लेयर को परे रखने का फैसला तो स्वागत योग्य है मगर यह न्यायपूर्ण तभी होगा जब सवर्ण गरीबों को भी आरक्षण का लाभ मिले। इस बात को परे रखने के कारण ही मायावती ने सवर्णों के लिए यह मांग रख दी है। चुनाव जीतने के साथ ही उन्होंने सवर्ण गरीबों को आरक्षण का वायदा किया था। अब जबकि केंद्र में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नजर है इस लिए फौरन सवर्णों की मांग रख दी। दलितों की तो वे नेता हैं ही मगर सशक्त तरीके से गरीब सवर्णों के लिए आवाज भी उठा रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले आने के साथ ही उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अन्य पिछड़ा वर्ग को केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण की मंजूरी के सुप्रीमकोर्ट के फैसले का स्वागत किया और कहा कि उच्च वर्ग के गरीब तबके को भी इस प्रकार का लाभ दिया जाना चाहिए। मायावती ने कहा कि अन्य पिछड़ा वर्ग के अधिकांश लोग आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से तरक्की नहीं कर सके हैं, इसलिए उन्हें इस प्रकार के लाभ देने की सख्त आवश्यकता थी और उन्हें आरक्षण का फायदा मिलना ही चाहिए था। मुख्यमंत्री ने कहा कि वह केंद्र सरकार को पत्र लिखकर मांग कर रही हैं कि उच्च वर्ग के गरीब वर्ग को भी उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाए, ताकि उनके बच्चे भी उच्च शिक्षा ग्रहण कर अपना जीवन स्तर सुधारने के साथ-साथ देश की प्रगति में भी सहायक बन सकें। मायावती की यह मांग भले राजनीति के कारण है मगर न्यायसंगत है कि गरीब सवर्णों को भी आरक्षण दे सरकार।
आज मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिलाने वाले 2006 के केंद्रीय शिक्षण संस्थान [प्रवेश में आरक्षण] कानून को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए लंबी बहस के बाद उक्त कानून को वैध ठहराया, लेकिन साथ ही यह भी निर्देश दिया कि यदि आरक्षण का आधार जाति है तो इस वर्ग के सुविधा संपन्न यानी क्रीमीलेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाए। पीठ ने चार एक के बहुमत से उक्त कानून को वैध ठहराया। न्यायमूर्ति दलबीर भंडारी ने इससे असहमति जताई। पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति अरिजित पसायत, न्यायमूर्ति सी के ठक्कर और न्यायमूर्ति आर वी रवींद्रन शामिल हैं।
ओबीसी के आरक्षण में दायर याचिकाओं में सरकारी कदम का जबरदस्त विरोध करते हुए कहा गया था कि पिछड़े वर्गो की पहचान के लिए जाति को शुरुआती बिंदु नहीं माना जा सकता। आरक्षण विरोधी याचिकाओं में क्रीमीलेयर को आरक्षण नीति में शामिल किए जाने का भी विरोध किया गया था। इस फैसले से न्यायालय के 29 मार्च 2007 के अंतरिम आदेश में कानून के कार्यान्वयन पर लगाई गई रोक समाप्त हो जाएगी। फैसले के बाद अब आरक्षण नीति को 2008-09 शैक्षणिक सत्र में लागू किया जा सकेगा।
ओबीसी का आरक्षण सफरनामा
आईआईटी और आईआईएम सहित केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने से संबंधित विवादास्पद कानून की संवैधानिक वैधता को लेकर घटनाक्रम इस प्रकार रहा:-
20 जनवरी 2006: सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े वर्गो तथा अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों को शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश देने के लिए सरकार को विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति देने वाला संवैधानिक [93वां संशोधन] अधिनियम 2005 प्रभाव में आया।
16 मई 2006: सामाजिक न्याय और अधिकारिता मामलों की स्थायी समिति ने अपनी 15वीं रिपोर्ट सौंपी जिसमें कहा गया कि पिछड़े वर्गो के मुद्दे को लेकर कोई जनगणना नहीं कराई गई। इसमें कहा गया कि भारत के महापंजीयक की रिपोर्ट के अनुसार 2001 की जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित आंकड़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
22 मई 2006: अशोक कुमार ठाकुर ने सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर कर अधिनियम 2006 के तहत केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों के दाखिलों में आरक्षण दिए जाने के मामले को चुनौती दी। उस समय अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान [एम्स] में आरक्षण विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था।
27 मई 2006: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उच्च शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण कार्यान्वयन से संबंधित अधिनियम को देखने के लिए एक निगरानी समिति बनाई। समिति ने अपनी रिपोर्ट में सरकार को चेताया कि अधिनियम के कार्यान्वयन से शैक्षणिक योग्यता के साथ समझौता होगा और इससे जनसांख्यिकी आपदा पैदा होगी।
29 मई 2006: सुप्रीमकोर्ट ने याचिका पर केंद्र को नोटिस भेजा।
31 मई 2006: सुप्रीमकोर्ट ने सभी संबंधित नागरिकों को याचिका पर पार्टी बनने की अनुमति दी और उनसे नई याचिका दायर करने को कहा।
1 दिसंबर 2006: मानव संसाधन और विकास मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 186वीं रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश की और कहा कि 1931 के बाद जाति के आधार पर कोई जनगणना नहीं हुई।
1 जनवरी 2007: अधिनियम के कार्यान्वयन को चुनौती देने वाली एक और याचिका सुप्रीमकोर्ट में दायर।
29 मार्च 2007: सुप्रीमकोर्ट ने अधिनियम के कार्यान्वयन को स्थगित करते हुए अंतरिम आदेश दिया।
7 अगस्त 2007: पांच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ ने अधिनियम की वैधता पर फैसला देने के लिए सुनवाई शुरू की।
11 नवंबर 2007: 25 दिन की सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रखा गया।
10 अप्रैल 2008: सुप्रीमकोर्ट ने शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण उपलब्ध कराने वाले केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान [प्रवेश आरक्षण] अधिनियम 2006 की वैधता को बरकरार रखा।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले आने के साथ ही उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अन्य पिछड़ा वर्ग को केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण की मंजूरी के सुप्रीमकोर्ट के फैसले का स्वागत किया और कहा कि उच्च वर्ग के गरीब तबके को भी इस प्रकार का लाभ दिया जाना चाहिए। मायावती ने कहा कि अन्य पिछड़ा वर्ग के अधिकांश लोग आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से तरक्की नहीं कर सके हैं, इसलिए उन्हें इस प्रकार के लाभ देने की सख्त आवश्यकता थी और उन्हें आरक्षण का फायदा मिलना ही चाहिए था। मुख्यमंत्री ने कहा कि वह केंद्र सरकार को पत्र लिखकर मांग कर रही हैं कि उच्च वर्ग के गरीब वर्ग को भी उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाए, ताकि उनके बच्चे भी उच्च शिक्षा ग्रहण कर अपना जीवन स्तर सुधारने के साथ-साथ देश की प्रगति में भी सहायक बन सकें। मायावती की यह मांग भले राजनीति के कारण है मगर न्यायसंगत है कि गरीब सवर्णों को भी आरक्षण दे सरकार।
आज मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिलाने वाले 2006 के केंद्रीय शिक्षण संस्थान [प्रवेश में आरक्षण] कानून को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए लंबी बहस के बाद उक्त कानून को वैध ठहराया, लेकिन साथ ही यह भी निर्देश दिया कि यदि आरक्षण का आधार जाति है तो इस वर्ग के सुविधा संपन्न यानी क्रीमीलेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाए। पीठ ने चार एक के बहुमत से उक्त कानून को वैध ठहराया। न्यायमूर्ति दलबीर भंडारी ने इससे असहमति जताई। पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति अरिजित पसायत, न्यायमूर्ति सी के ठक्कर और न्यायमूर्ति आर वी रवींद्रन शामिल हैं।
ओबीसी के आरक्षण में दायर याचिकाओं में सरकारी कदम का जबरदस्त विरोध करते हुए कहा गया था कि पिछड़े वर्गो की पहचान के लिए जाति को शुरुआती बिंदु नहीं माना जा सकता। आरक्षण विरोधी याचिकाओं में क्रीमीलेयर को आरक्षण नीति में शामिल किए जाने का भी विरोध किया गया था। इस फैसले से न्यायालय के 29 मार्च 2007 के अंतरिम आदेश में कानून के कार्यान्वयन पर लगाई गई रोक समाप्त हो जाएगी। फैसले के बाद अब आरक्षण नीति को 2008-09 शैक्षणिक सत्र में लागू किया जा सकेगा।
ओबीसी का आरक्षण सफरनामा
आईआईटी और आईआईएम सहित केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने से संबंधित विवादास्पद कानून की संवैधानिक वैधता को लेकर घटनाक्रम इस प्रकार रहा:-
20 जनवरी 2006: सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े वर्गो तथा अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों को शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश देने के लिए सरकार को विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति देने वाला संवैधानिक [93वां संशोधन] अधिनियम 2005 प्रभाव में आया।
16 मई 2006: सामाजिक न्याय और अधिकारिता मामलों की स्थायी समिति ने अपनी 15वीं रिपोर्ट सौंपी जिसमें कहा गया कि पिछड़े वर्गो के मुद्दे को लेकर कोई जनगणना नहीं कराई गई। इसमें कहा गया कि भारत के महापंजीयक की रिपोर्ट के अनुसार 2001 की जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित आंकड़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
22 मई 2006: अशोक कुमार ठाकुर ने सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर कर अधिनियम 2006 के तहत केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों के दाखिलों में आरक्षण दिए जाने के मामले को चुनौती दी। उस समय अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान [एम्स] में आरक्षण विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था।
27 मई 2006: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उच्च शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण कार्यान्वयन से संबंधित अधिनियम को देखने के लिए एक निगरानी समिति बनाई। समिति ने अपनी रिपोर्ट में सरकार को चेताया कि अधिनियम के कार्यान्वयन से शैक्षणिक योग्यता के साथ समझौता होगा और इससे जनसांख्यिकी आपदा पैदा होगी।
29 मई 2006: सुप्रीमकोर्ट ने याचिका पर केंद्र को नोटिस भेजा।
31 मई 2006: सुप्रीमकोर्ट ने सभी संबंधित नागरिकों को याचिका पर पार्टी बनने की अनुमति दी और उनसे नई याचिका दायर करने को कहा।
1 दिसंबर 2006: मानव संसाधन और विकास मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 186वीं रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश की और कहा कि 1931 के बाद जाति के आधार पर कोई जनगणना नहीं हुई।
1 जनवरी 2007: अधिनियम के कार्यान्वयन को चुनौती देने वाली एक और याचिका सुप्रीमकोर्ट में दायर।
29 मार्च 2007: सुप्रीमकोर्ट ने अधिनियम के कार्यान्वयन को स्थगित करते हुए अंतरिम आदेश दिया।
7 अगस्त 2007: पांच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ ने अधिनियम की वैधता पर फैसला देने के लिए सुनवाई शुरू की।
11 नवंबर 2007: 25 दिन की सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रखा गया।
10 अप्रैल 2008: सुप्रीमकोर्ट ने शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण उपलब्ध कराने वाले केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान [प्रवेश आरक्षण] अधिनियम 2006 की वैधता को बरकरार रखा।
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