Monday 20 October 2008

मीडिया पर भी लगा आर्थिक मंदी का ग्रहण

विश्व आर्थिक मंदी का अमेरिकी माडिया पर भी असर पड़ने लगा है। इस कारण यह आशंका जताई जा रही है कि इनके साझा उपक्रम जो भारत और बाकी दुनिया में हैं, उनको भी ग्रहण लगने वाला है। शेयर बाजार में आए भूचाल ने तो पूरी दुनिया की वित्तीय व्यवस्था की नींव हिलाकर रख दी है। जेट का भारी भरकम छटनी ने तो नौकरीपेशा लोगों को संकते में डाल दिया था। इन्फारमेशन टेक्नालाजी पर भी आशंकाओं के बादल छाए हुए हैं। भारी खर्च करके और कर्ज लेकर पढ़ रहे छात्रों का भविष्य भी इस कारण अधर में लटक सकता है। इन सब आशंकाओं के बीच अब मीडिया पर भी तलवार लटक गई है। अमेरिकी मीडिया और समाचार एजंसी पर निर्भर या उसके साथ साझा उपक्रम वाले भारतीय माडिया संस्थानों को भी बचाव की मुद्रा में अब आना होगा क्यों कि दुनिया की सबसे बड़ी समाचार एजंसी एसोसिएटेड प्रेस ( एपी ) पर अमेरिका समेत दुनिया में आई आर्थिक मंदी का असर पड़ने लगा है।

यह वही समाचार एजंसी है जिसने १३७ साल पहले कोलंबस के लेख और चित्रों को छापा था। इस समाचार एजंसी से अमेरिका के दर्जनों बड़े अखबारों और दुनिया के तमाम अखबारों को रोजाना समाचार मुहैया होती है। मगर अब इसपर आर्थिक मंदी का ग्रहण लग गया है। इसी शुक्रवार को खर्चों में कटौती के प्रस्ताव के विरोध में सदस्य अखबारों ने इसने अपनी डिस्पैच सेवा को आर्थिक कारणों से रोकने का गंभीर फैसला ले लिया। एपी के परिवर्तनों के विरोध में कई बड़े-छोटे अखबार खड़े हो गए हैं । इनमें ट्रिब्यून जैसे बड़े नेटवर्क वाले अखबार भी हैं। इसने एसोसिएशन से हटने तक की धमकी दे दी है। हालांकि उसने यह भी कहा कि खर्चे में कटौती किए जाने की जरूरत है। लासएंजिलिस टाइम्स और शिकागो ट्रिब्यून ने भी उसकी हां में हां मिलाई है।
छोटे अखबारों ने एपी के खर्चे में कटौती के फैसले की घोर निंदा की है। इनका आरोप है कि एपी जितना डिस्पैच के एवज में वसूलता है, उसे हम बर्दास्त नहीं कर सकते। उल्टे आरोप भी लगाया कि जितनी हमें जरूरत होती है उससे कम ही मुहैया कराता है। इतना ही नहीं हमारे साथ प्रतिस्पर्धी जैसा बर्ताव भी करता है। यह सबकुछ देखकर लगता है कि वे यह भूल ही गए हैं कि वे हमारी सेवा के लिए ही हैं।
उधर एपी का कहना है कि वह अपने १४०० अखबार सदस्यों का पैसा बचाना चाहता है। इसी के मद्देनजर एपी ने नए परिवर्तन और खर्चे में कटौती की योजना बनाई है। एपी का कहना है कि इन परिवर्तनों से सदस्यों का ही फायदा होगा। एपी की कार्यकारी संपादक कैथलीन कैरोल का दावा है कि कम ही अखबारों ने कटौती और परिवर्तनों की योजना का विरोध किया है। यह विरोध भी गलतफहमी और उन अखबारों के अपने वित्तीय संकट के कारण है। कैथलीन का कहना है कि अनुबंध के मुताबिक डिस्पैच रोकने से पहले सदस्य अखबारों को दो साल की नोटिस देनी होती है। इस हिसाब से भी जो एपी से अलग होना चाहते हैं उन्हें कम से कम २०१० तक इंतजार करना पड़ेगा। कैथलीन ने इस विरोध के पीछे दबाव डालकर दर कम कराने की साजिश है।
एपी के इस संकट की वजह अमेरिकी अखबारों का वित्तीय संकट है। पिछले दो सालों में विग्यापनों से इनकी कमाई २५ प्रतिशत घटी है। इसके ठीक उलट एपी का पिछले साल मुनाफा ८१ प्रतिशत यानी २४ मिलियन डालर से ७१० मिलियन बढ़ा। जबकि यह एक गैरमुनाफा वाली कंपनी है। खुद एपी ने यह आंकड़ा अपने सदस्यों को जारी किया है।

अब सदस्यों के अलग होने की कवायद ने दुनिया की समाचार संकलन करने वाली सबसे बड़ी कंपनी एपी के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। करीब १०० देशों में इसके तीन हजार पत्रकार कार्यरत हैं। जिस दिन से एपी से समाचार मिलने बंद हो जाएंगे उस दिन से अमेरिकी अखबार दुबले हो जाएंगे। १६२ साल पहले गठित एपी एकमात्र अखबारों का संगठन है जो सदस्यों का स्वामित्व व बोर्ड में वोट का अधिकार देता है। एपी के रिपोर्टर ब्रेकिंग न्यूज अपने सदस्य अखबारों से लेते हैं और इसे दूसरे सदस्यों को देते हैं। अब इन्हीं सदस्यों का मानना है कि एपी का खर्च उनपर भारी पड़ रहा है। स्टार ट्रिब्यून के संपादज नैन्सी बर्न्स का कहना है कि वे एपी को एक मिलियन डालन देते हैं जो कि न्यूजरूम में १० से १२ रिपोर्टर के खर्च के बराबर है। तमाम अखबारों के संपादकों का कहना है कि वे दूसरी समाचार एजंसियों जैसे-रायटर या ब्लूमबर्ग न्यूज से सामग्री लेने पर विचार कर रहे हैं। हालांकि उनका भी मानना है कि एपी के फोटो का कोई विकल्प नहीं है।

सवाल यह उठता है कि अमेरिकी माडिया में एपी से उठा यह बवंडर क्या भारतीय मीडिया को प्रभावित करेगा ? विदेशी निवेश पर चल रहे भारतीय अखबारों व टीवी की उल्टी गिनती अब शुरू होने वाली है। एपी जैसा विशाल संगठन अपने खर्चे समेटने लगा है तो उसपर आधारित बाकी दुनिया की मीडिया को भी धक्के तो लगेंगे ही। यह अलग बात है कि भारत की तमाम मीडिया ऐसी भी है जो अपने बलबूते चल रही हैं। शायद उन्हें कम संकट झेलना पड़े मगर विदेशी निवेश वाले संस्थान बवंडर में घिरने वाले हैं।

खबर स्रोत--इस खबर को PoliticalForum@googlegroups.com पर Lone Wolf (phoenixx6@gmail.com )ने RICHARD PÉREZ-PEÑA के लेख को इस समूह को १९ अक्तूबर को फारवर्ड किया है। पोलिटिकल फोरम के सदस्य पलाश विश्वास ने यह मेल मुझे भेजा था। www.PoliticalForum.com पर भी यह खबर पढ़ी जा सकती है। इसी मूल अंग्रेजी का सार-संक्षेप भारतीय संदर्भ में विश्लेषण के साथ हिंदी में मैंने यहां दिया है। मान्धाता

4 comments:

Gyan Darpan said...

आर्थिक मंदी का असर तो सब जगह अपनी उपस्थिति दिखायेगा ही |

BrijmohanShrivastava said...

दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं /दीवाली आपको मंगलमय हो /सुख समृद्धि की बृद्धि हो /आपके साहित्य सृजन को देश -विदेश के साहित्यकारों द्वारा सराहा जावे /आप साहित्य सृजन की तपश्चर्या कर सरस्वत्याराधन करते रहें /आपकी रचनाएं जन मानस के अन्तकरण को झंकृत करती रहे और उनके अंतर्मन में स्थान बनाती रहें /आपकी काव्य संरचना बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय हो ,लोक कल्याण व राष्ट्रहित में हो यही प्रार्थना में ईश्वर से करता हूँ

प्रदीप said...

इस मंदी के दौरान क्या कम्पनियाँ छटनी करके मंदी से उबार जायेंगी? छटनी के अलावा और भी उपाय हैं जिनको अपनाकर उद्योग जगत मंदी का सामना आसानी से कर सकता है.

मेरे ब्लॉग पर सभी का स्वागत है.....

Dr Mandhata Singh said...

Pradeep Jee सरकारी मदद लूटने और इसी बहाने कुछ कर्मचारियों से छुट्टी पाने का इससे अच्छा और क्या बहाना हो सकता है। उपाय तो सचमुच बहुतेरे हैं।

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