'खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो जब तोप मुक़ाबिल हो, अख़बार निकालो'। ये पंक्तियां आज भले ही बेमानी प्रतीत होती हों पर एक समय था जब यह पत्रकारिता की बाइबिल समझी जाती थीं। तब पत्रकारिता को एक प्रोफ़ेशन नहीं मिशन समझा जाता था और जिसके उद्वेग से उद्वेलित हो संपूर्ण देश व समाज एक दिशा में बहता चला जाता था। जैसे-जैसे तकनीकी विकास होते गए, नित्य नए आयाम बनते-बिगड़ते रहे और धीरे-धीरे पत्रकारिता का स्वरूप परिवर्तित होता चला गया। आज हम सूचना क्रांति के दौर से गुज़र रहे हैं. एक ऐसे वैश्विक समाज में अपना अस्तित्व गढ़ने और तराशने का मिथक प्रयास कर रहे हैं जहां सूचना ही शक्ति है. बल्कि यूं कहें कि जो सूचना का जल्दी-से-जल्दी अधिकारी होता है वही सही मायने में शक्ति संपन्न है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. पीठिका प्रारंभ में पत्रकारिता के रूप में केवल और केवल लेखन माध्यम का वर्चस्व था, फिर श्रव्य माध्यम और दृश्य-श्रव्य माध्यमों का आगमन हुआ और उसके बाद तकनीकी विकास के सापेक्ष इंटरनेट पत्रकारिता पुष्पित-पल्लवित होती हुई सफलता के सोपान चढ़ती चली गई. पत्रकारिता का प्रकाशन के साथ शुरू हुआ सफ़र, प्रसारण के चरम पर पहुंचा. आज 'ब्रॉडकास्टिंग' की दुनिया 'वेबकास्टिंग' के दौर में पहुंच गई है. यह सारी उपलब्धियां नई तकनीकों के आविष्कार और उनके अनुप्रयोगों का परिणाम ही तो हैं. नई तकनीक के विकास और विस्तार ने पत्रकारिता के क्षेत्र में जहां एक ओर कई सहज व सुलभ साधन उपलब्ध कराए, जिनसे ख़बरों के द्रुतगामी एवं विश्वसनीय प्रकाशन-प्रसारण का मार्ग प्रशस्त हुआ, वहीं दूसरी ओर पत्रकारिता के समक्ष कई नई चुनौतियों को भी खड़ा कर दिया. तकनीकी क्षमता के सापेक्ष ख़बरों को सटीक रूप से समग्रता के साथ पाठकों-दर्शकों अथवा श्रोताओं के समक्ष रख पाना आज पत्रकारिता की सबसे बड़ी चुनौती बन गई है. अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा समाचार पत्र हों या समाचार चैनल या कोई अन्य माध्यम, सभी अपने पाठकों तक एक नई और एक्सक्लूसिव ख़बर के साथ अपनी पहुंच बनाना चाहते हैं और यही कारण है कि आज की पत्रकारिता सनसनीखेज पत्रकारिता का पर्याय बनकर रह गई है. समाचार माध्यम ऊल-जलूल ख़बरें परोस रहे हैं. एक ही ख़बर को बार-बार प्रसारित करना समाचार चैनलों की मजबूरी बन चुकी है. समाचार पत्रों की प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए और चैनलों की टीआरपी रेटिंग में बढ़ोत्तरी के लिए स्टिंग ऑपरेशन जैसे प्रयास भी किए जा रहे हैं. वर्तमान में पत्रकारिता की चुनौतियां उसकी स्वयं की समस्याएं बन चुकी हैं जिसका निदान यदि जल्द ही न किया गया तो पत्रकारिता एक ऐसी व्यूह रचना में उलझ कर रह जाएगी जिसे भेद पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव होगा. इससे पहले कि तकनीकी दक्षता के बल पर सफलता के मिथ्या अभिमान से ग्रसित पत्रकारिता, व्यावसायिक व्योम में कहीं खो जाए, आवश्यकता है एक ऐसे तारे की जो इस तिमिर में उसे उचित मार्ग का ज्ञान करा पाए. इन दिनों भारत में 1857 के गदर की 150वीं सालगिरह मनाई जा रही है. संयोग है इसी मौक़े पर एक किताब आई जो उसी क्रांति के इलाके में एक और क्राँति की आहट सुना रही है. इस इलाक़े को हिंदी में गंगा घाटी और अंग्रेज़ी में काउबेल्ट या हिंदी हार्टलैंड कहा जाता है. नक्शे पर हम इसे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान मान सकते हैं. ‘हेडलाइंस फ्राम हिंदी हार्टलैंड’ नाम की इस किताब की लेखिका शैवंती नाइनन ने पाँच साल तक खोजबीन करके इस क्राँति के बीजों को चुना है. पिछले दिनों दिल्ली के हैबीटाट सेंटर में नेताओं और पत्रकारों ने इन किताब पर चर्चा की. जाने-माने चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव ने संचालक की भूमिका में क्राँति के कारणों और परिणामों को रेखांकित किया. उन्होंने किताब और अपने हवाले से बताया कि हिंदी भाषी राज्यों में पिछले 10 वर्षों में हिंदी अख़बारों का वर्चस्व कायम हो गया है. देश के पहले पाँच अख़बारों में हर साल 2-3 अख़बार हिंदी के होते हैं. इनमें दैनिक भास्कर, जागरण, अमर उजाला और पंजाब केसरी का नाम लिया जा सकता है. इन अख़बारों ने दिल्ली से निकलने वाले तथाकथित राष्ट्रीय समाचार पत्रों को उन्हीं के किले में ध्वस्त कर दिया है. यह काम सीधे हमले से नहीं सेंध लगाकर किया गया है. यह सेंध मध्य युगीन इतिहास की तर्ज़ पर राजधानी को चारों तरफ से घेरकर कमजोर चौकियों को भेदकर किया गया है. 'प्रेस और नोट' बताया गया कि दैनिक भास्कर ने बिना दिल्ली में संस्करण निकाले हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश के चुनींदा ज़िलों से कुल मिलाकर 37 संस्करणों के ज़रिए इस काम को सरअंजाम दिया है. अख़बार के समूह संपादक श्रवण गर्ग के मुताबिक इन संस्करणों की कुल दैनिक बिक्री 40 लाख प्रतियाँ और जिनके तीन करोड़ पाठक हैं. इससे मिलते जुलते दावे अन्य दैनिकों के भी हैं. अख़बारों ने ख़बरों का इतना स्थानीयकरण कर दिया है कि उसमें निहित स्वार्थों की बू आती है दिग्विजय सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री इसी मंच पर बैठे दो नेता सचिन पायलट और दिग्विजय सिंह इन आंकड़ों से प्रभावित नहीं थे. उनका कहना था कि एक ही ज़िले से निकलने वाले तीन समाचार पत्र एक ही ज़िले की तीन भिन्न तस्वीरें पेश करते हैं. इससे नेता और प्रशासन भ्रमित हो जाता है. दिग्विजय सिंह ने शिकायत की, "अख़बारों ने ख़बरों का इतना स्थानीयकरण कर दिया है कि उसमें निहित स्वार्थों की बू आती है." नेताओं ने राजनीति का स्थानीकरण कर दिया है. पत्रकार तो उसी तस्वीर को प्रस्तुत करेगा जो नज़र आएगी जवाब में भास्कर के श्रवण गर्ग बोले, "नेताओं ने राजनीति का स्थानीकरण कर दिया है. पत्रकार तो उसी तस्वीर को प्रस्तुत करेगा जो नज़र आएगी." दिग्विजय सिंह ने हाल के उत्तरप्रदेश चुनाव अभियान के अपने अनुभवों के आधार पर बताया कि अब ख़बरें पत्रकारों की जेब गर्म करके छपती हैं. सचिन पायलट ने हामी भरी कि स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं की छपास इतनी बढ़ गई है कि उसने अख़बार वालों की भूख बढ़ा दी है. संचालक योगेंद्र यादव भी उससे सहमत थे कि अब प्रेस नोट का अर्थ प्रेस और साथ में नोट हो गया है. हिंदी ऑनलुकर की भाषा सिंह ने दर्शकों के बीच से पूछा कि स्ट्रिंगर के नोट देखने वालों को अख़बार मालिकों के सौदों के नोट दिखाई नहीं देते? शैवंती नाइनन ने अपनी किताब में इन सब बातों को विस्तार से खोला है. उनका कहना है कि हिंदी अख़बारों ने राष्ट्रीय मिथक को तोड़कर समाचारों को बेहद स्थानीय बना दिया है. इसके चलते आंचलिकता बाईपास हो गई है. योगेंद्र यादव ने समापन करते हुए कहा कि यही तो क्राँति है जिसे सुरेंद्र प्रताप सिंह ने 1995 में हिंदी पत्रकारिता का स्वर्णिम काल कहा था. हालाँकि जनसत्ता के सलाहकार संपादक प्रभाष जोशी इसे लुगदी पत्रकारिता कहते हैं. चिंता कुछ भी कहिए बुद्धिजीवियों की चिंता स्वाभाविक है. आज मीडिया की भाषा हिंदी हो गई है. अंग्रेज़ी के शीर्ष दैनिक अपने शीर्षक में हिंदी का छौंक लगाते हैं. विज्ञापनों की भाषा हिंदी है. अंग्रेज़ी टीवी चैनलों के मुकाबले हिंदी चैनलों के दर्शक कई गुना ज़्यादा है. जनसंपर्क एजेंसियों को अपनी विज्ञप्ति हिंदी में देनी पड़ रही है. हिंदी का अख़बार भास्कर हिंदी के चैनल ज़ी के साथ मिलकर मुंबई से अंग्रेज़ी दैनिक डीएनए निकाल कर टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स को चुनौती दे रहा है. बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कंपनियाँ अपने उपभोक्ता उत्पादों को लेकर छह लाख 78 हज़ार गाँवों को अपना निशाना बना रही है. ऐसे में अख़बार को गाँव तक पहुँचने से कौन रोक सकता है. और वह अख़बार अंग्रेज़ी का अख़बार नहीं हो सकता. रही बात विश्वसनीयता और भ्रष्टाचार की. पत्रकार समाज का उतना ही हिस्सा है जितना कि डॉक्टर, वकील या इंजिनियर. वह उतना ही ईमानदार या भ्रष्ट है जितना कोई और वर्ग. उसे भी जीवन में वही सब चाहिए जो किसी और पेशेवर को. यदि देश का सबसे बड़ा अख़बार अपने को उत्पाद और अपने पाठक को उपभोक्ता घोषित करता है तो बेचारा पत्रकार भी तो उसी बाजार समीकरण का हिस्सा हुआ ना. पत्रकारिता की कालजयी परंपरा हिंदी की समाचार पत्रकारिता का शुभारंभ 19वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में माना जाता है जब आज के कोलकाता और तबके कलकत्ता नगर से ‘उदंत मार्तण्ड’ नामक साप्ताहिक पत्र निकाला गया था. इस पत्र के शीर्षक का ही अर्थ था-चढ़ता हुआ सूर्य! लेकिन इसके प्रकाशन से पत्रकारिता की परंपरा की विधिवत शुरूआत नहीं हो सकी. यह हिंदी भाषा के निर्माण और संक्रमण का काल था. वाक्य विन्यास में क्रिया पदों के इस्तेमाल का स्थान तो तब तक तय हो चुका था पर भाषा का स्वरूप सुनिश्चित नहीं हुआ था. उत्तर भारत में तब मूल रूप से चार बोलियाँ जिन्हें मातृभाषा कहना चाहिए, प्रचलित थीं. वे थीं, हरियाणी, राजस्थानी, कौरवी (खड़ी बोली का क्षेत्र) और ब्रज (और सेनी का क्षेत्र). भाषा का स्वरूप सुनिश्चित तो कभी नहीं हो पाता पर जन समागम और स्थानीय काम धंधों तथा क्षेत्रीय व्यापार के साथ ही उसके शब्दों का स्थिरीकरण होने लगता है. भरतेंदु युग हिंदी पत्रकारिता के इतिहास की गौरवपूर्ण अध्याय है. इसकी पीठिका में ही हिंदी पत्रकारिता के प्राणतत्व को पहचाना जा सकता है. भाषा की इसी स्थिति के कारण लेखन और पत्रकारिता की विधाएँ प्रतीक्षारत रहती हैं. यही हिंदी पत्रकारिता के साथ भी हुआ. पर यह पत्रकारिता का शून्य काल नहीं है. सन् 1880 से लेकर, सदी के अंत तक लखनऊ, प्रयाग, मिर्जापुर, वृंदावन, मुंबई, कोलकाता जैसे दूरदराज क्षेत्रों से पत्र निकलते रहे. भारतेंदु युग 19वीं सदी के उत्तरकाल में इतिहास प्रसिद्ध भारतेंदु युग का समारंभ हुआ. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का शुभारंभ ‘हरिश्चंद्र पत्रिका’ और ‘कवि वचन सुधा’ से किया. यह हमारी हिंदी पत्रकारिता के इतिहास की गौरवपूर्ण अध्याय है. इसकी पीठिका में ही हिंदी पत्रकारिता के प्राणतत्व को पहचाना जा सकता है. हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में हुई क्रांति की दृष्टि से यदि देखा जाए तो वर्ष 1900 सबसे महत्वपूर्ण वर्ष है. 20वीं सदी का आगाज़ ही पत्रकारिता से होता है. यह हिंदी पत्रकारिता के स्वर्णिम युग का उद्घाटन वर्ष है. सन्1900 में इंडियन प्रेस इलाहाबाद से ‘सरस्वती’ का और उसी वर्ष छत्तीसगढ़ प्रदेश के बिलासपुर-रायपुर से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन शुरू होता है. ‘सरस्वती’ के ख्यात संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के संपादक पंडित माधवराव सप्रे थे. कभी-कभी प्रवृति की विशिष्टता के कारण इस नए दौर को मात्र साहित्यिक पत्रकारिता पर केंद्रित मान लिया जाता है, पर सच्चाई यह है कि बहुमुखी सांस्कृतिक नवजागरण का यह समुन्नत काल है. इसमें सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, वैज्ञानिक और राजनीतिक लेखन की परंपरा का श्रीगणेश होता है. इस दौर में साहित्यिक लेखन और पत्रकारिता के सरोकारों को अलगाया नहीं जा सकता. अंग़्रेजों की दासता में बरबादी और अपमान झेलते भारत की दुर्दशा के कारणों की पहचान भारतेंदु काल से ही शुरू हो गई थी, इसे राजनीतिक और सांस्कृतिक सरोकारों से लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गहराई से जोड़ दिया. भूमिगत पत्रकारिता सांस्कृतिक जागरण, राजनीतिक चेतना, साहित्यिक सरोकार और दमन का प्रतिकार इन चार पहियों के रथ पर हिंदी पत्रकारिता अग्रसर हुईं. माधवराव सप्रे ने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को ‘हिंद केसरी’ के रूप में छापना शुरू किया. अंग़्रेजों की दासता में बरबादी और अपमान झेलते भारत की दुर्दशा के कारणों की पहचान भारतेंदु काल से ही शुरू हो गई थी, इसे राजनीतिक और सांस्कृतिक सरोकारों से लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गहराई से जोड़ दिया. यहां बंगाल और पंजाब के क्रांतिकारियों के प्रयासों को अनदेखा नहीं किया जा सकता. उनकी पत्रकारिता का रूप अख़बारों या पत्रिका का नहीं था. वे भूमिगत रहकर पर्चे, पैंफलेट और पत्रक निकालते थे. दिल्ली असेंबली में गिरफ्तार होने से पहले अमर शहीद भगत सिंह ने जो पर्चा फेंका था, वह किस अख़बार से कम था! भूमिगत पत्रकारिता की इस अनियतकालीन परंपरा को इतिहास में शामिल किया जाना ज़रूरी है. भूमिगत परंपरा के क्रम में भूमिपर पत्रकारिता के सबसे सशक्त उदाहरण के रूप में मध्यप्रदेश क्षेत्र से ‘कर्मवीर’ सामने आया. इसके यशस्वी संपादक थे स्वतंतत्रता सेनानी और हिंदी के राष्ट्र कवि माखनलाल चतुर्वेदी. भूमिपर जो पत्रकारिता शुरू हुई उसे दमन, तथाकथित क़ानून, मुचलकों, जब्ती, जमानतों का सामना करना पड़ा. गाँधी जी की राजनीतिक प्रणाली ने कुछ भी भूमिगत नहीं रहने दिया. पत्रकारिता ने इस साहस को अपने प्राणतत्व के रूप में मंजूर किया. इसका ज्वलंत उदाहरण बना गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’अख़बार. यह कानपुर से छपता था. इसी परंपरा में वाराणसी से बाबूराव विष्णु पराड़कर ने ‘दैनिक आज’ निकाला और आगरा से पालीवाल जी ने ‘सैनिक’. हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रेमचंद, निराला, बनारसीदास चतुर्वेदी, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, शिवपूजन सहाय आदि की उपस्थिति ‘जागरण’, ‘हंस’, ‘माधुरी’, ‘अभ्युदय’, ‘मतवाला’, ‘विशाल भारत’ आदि के रूप में दर्ज है. और फिर है ‘चाँद’ की पत्रकारिता और उसका फाँसी अंक, जो सन् 1947 की आज़ादी के साथ संबद्ध है. 15 अगस्त 1947 को आज़ाद होते ही पूरे भारत की सोच का पूरा परिदृश्य ही बदल गया, जो होना ही था. आज़ादी के समाप्त हुए संघर्ष ने नव-जागरण और नव-निर्माण की दिशा पकड़ी. ज़ाहिर है कि पत्रकारिता को ही यह चुनौती स्वीकार करनी थी. हिंदी पत्रकारिता ने इस दायित्व को बखूबी संभाला और स्वतंत्रता संग्राम के समय जो सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आदि तमाम सवाल उठे थे, उन्हें अपनी सभ्यता, परंपरा और आधुनिकता के परिप्रेक्ष में चिंतन का केंद्र बनाया. दैनिक पत्रकारिता के क्षेत्र में तो क्रांति हुई. सदियों पहले मनु का वर्णवादी संविधान सामने आया था. स्वतंत्र भारत की संविधान सभा ने भारतीय सभ्यता के इतिहास में जो दूसरा संविधान बनाया और जो विधिवत रूप से सन् 1951 में पारित हुआ, वह हिंदी पत्रकारिता की आधारशिला बना. विभिन्न प्रदेशों से निकले अख़बार छोटे और व्यक्तिगत प्रयासों से लेकर बड़े संस्थागत और संस्थान केंद्रित अख़बारों ने जन्म लिया. सबके नाम गिनाने की जगह तो यहाँ नहीं है पर भारतीय भाषाओं के साथ ही हिंदी में भारत, अमृत पत्रिका, आज, अभ्युदय, चेतना, जनसत्ता, भास्कर, जागरण, हिंदुस्तान, नवजीवन, नवभारत टाइम्स, लोकसत्ता, प्रहरी, जनचेतना आदि-आदि लगभग 50 महत्वपूर्ण दैनिक पत्र हिंदी के विभिन्न प्रदेशों से निकलने लगे. इनके अलावा साप्ताहिक और पाक्षिक टेबलॉइड समाचारपत्रों ने भी अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज की. भारतीय गणतंत्र ने जो मूल्य और आदर्श अपने लिए अंगीकार किए थे, पत्रकारिता ने उन्हें ही उठाया और प्रस्थापित किया. हिंदी पत्रकारिता के एक सबसे उज्ज्वल पक्ष का आकलन अभी तक नहीं हुआ है. वह है भारत के 556 स्वतंत्र सामंती राज्यों और रियासतों के भारतीय गणतंत्र में विलीन होने का प्रकरण. इनमें से अधिकांश रियासतें उत्तर भारत में थीं. आज़ादी के तत्काल बाद उनके विलीनीकरण का जो जनसंघर्ष चला था. उस संघर्षशील हिंदी पत्रकारिता के अध्याय की अवधि चाहे कितनी ही कम क्यों न हो पर पत्रकारिता के इतिहास में जनाकांक्षी लोकतांत्रिक दायित्व को निभाने की ऐसी ज्वलंत मिसाल और किसी भाषा में कम ही मिलेगी. भारतीय लोकतंत्र के मूल्यों, पद्धति और प्रणाली को पुख्ता करने में प्रजामंडलों की प्रारंभिक दौर की पत्रकारिता ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई है. सांस्कृतिक पत्रकारिता साहित्यिक और सांस्कृतिक पत्रकारिता का एक बिल्कुल नया युग आज़ादी के बाद ही शुरू हुआ. अब परतंत्रता के दौर की बाधाएं नहीं थीं और इस तरह की पत्रकारिता की पुष्ट परंपरा मौजूद थी ही पर वह विरलता अब समाप्त हुई थी. ‘दिनमान’ जैसी समाचार-संस्कृति की सप्ताहिकी ने तो नया इतिहास ही रच दिया. इसके यशस्वी संपादक हिंदी साहित्य के पुरोधा अज्ञेय जी थे और यह आकास्मिक नहीं था कि इसमें श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, मनोहरश्याम जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, नंदन आदि जैसे साहित्यकार शामिल थे. उधर जोशी बंधुओं के बाद डॉ धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’, मनोहर श्याम जोशी और हिमांशु जोशी ने बाँकेबिहारी भटनागर के बाद ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के ज़रिए पत्रकारिता के नए कीर्तिमान स्थापित कर दिए थे. प्रेमचंद्र के पुत्र श्रीपतराय ने ‘कहानी’ और छोटे पुत्र अमृतराय ने ‘हंस’ का पुनर्प्रकाशनन शुरू किया और दक्षिण भारत के हैदराबाद से बद्री विशाल पित्ती ने ‘कल्पना’ निकाली. कोलकाता से भारतीय ज्ञानपीठ के लक्ष्मीचंद्र जैन, शरद देवड़ा का ‘ज्ञानोदय’ आया. पटना के ‘पाटल’ और उदयराज सिंह-रामवृक्ष बेनीपुरी की ‘नई धारा’ निकली. मध्य प्रदेश जबलपुर से हरिशंकर परसाई ने ‘वसुधा’ का और राजस्थान अजमेर से प्रकाश जैन और मनमोहिनी ने ‘लहर’ का प्रकाशन शुरू किया. ‘नई कहानियाँ’ और ‘सारिका’, ‘सर्वोत्तम’, ‘नवयुग’, ‘हिंदी ब्लिट्ज’ और डॉ महावीर अधिकारी के ‘करंट साप्ताहिक’ जैसे पत्रकारिता के नए प्रतिमान स्थापित हुए. पूरा हिंदी प्रदेश पत्रकारिता की प्रयोगशीलता का पर्याय बन गया. पत्रकारिता की नई पीढ़ी इसी का नतीजा था कि हिंदी पत्रकारिता की एकदम नई पीढ़ी के सुरेंद्र प्रताप सिंह, सुदीप, उदयन शर्मा जैसे युवा पत्रकारों ने कोलकाता से ‘रविवार’जैसे प्रखर समाचार साप्ताहिक की शुरुआत की थी. और आगे चलकर इन्हीं युवाओं में से सुरेंद्र प्रताप सिंह ने चैनल पत्रकारिता ‘आज तक’ की कंप्यूटरीकृत नींव रखी थी. सरकारी संस्थानों की पत्रिकाओं ने विशेषतः अपने-अपने वैज्ञानिक विषयों को अपना लक्ष्य बनाया. चंदामामा जैसी प्रख्यात बाल पत्रिका का संपादन बालशौरि रेड्डी ने चेन्नई से शुरू किया और सिनेमा पर केंद्रित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ आ गई. लघु पत्रिकाओं का तो आंदोलन ही चल पडा. इनके बिना वैचारिक और परिवर्तनकामी पत्रकारिता की कल्पना ही नहीं की जा सकती. ज्ञान रंजन की ‘पहल’ पत्रिका इसमें अग्रणी है और सार्थक वैचारिक जनवादी पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘तदभव’, ‘उदभावना’, ‘अभिनव कदम’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘शेष’ जैसी 300 पत्रिकाएं मौजूद हैं और फिर कंप्यूटरीकृत तकनीकों से लैस ‘इंडिया टुडे’ और ‘आउटलुक’ जैसे समाचार साप्ताहिक तो हैं ही. और फिर राजेंद्र यादव के ‘हंस’ के अलावा ‘कथादेश’, वागार्थ’, ‘नया ज्ञानोदय’ आदि ने वैचारिक लोकतंत्र के उन्नायक और संरक्षण की शर्ते पूरी की हैं. समाचारों का फ़ुटपाथीकरण भारत में पिछले एक वर्ष में समाचार चैनलों ने समाचार का रंग ही बदल दिया है जब हिंदी में पत्रिकाएँ खत्म हो रही थीं, तब अचानक ऐसी पत्रिकाओं की बाढ़ आई जिनकी शुरूआत 'मनोहर कहानियाँ' ने की थी.'मनोहर कहानियाँ', 'सच्ची कहानियाँ' जैसी पत्रिकाओ से फुटपाथ अटे पड़े रहते थे, अभी भी शायद यह थोड़ा बहुत चल रहा है. लेकिन ऐसा लग रहा है कि उन्हें निकालने वाले बेरोज़गार नहीं हुए, वे सारे टीवी समाचार चैनलों में चले गए, या यह कहें कि वह जज़्बा ख़त्म नहीं हुआ, वह फ़ुटपाथ से उठकर तमाम अपने भोंडे रंगो, बदबू आदि के साथ टीवी समाचार चैनलों में चला गया. अब अगर हम कोई भी टीवी समाचार चैनल खोले तो ऐसा लगता है जैसे 'मनोहर कहानियाँ' और 'सच्ची कहानियाँ' खोल कर बैठे हैं. अपराध और सेक्स की सनसनीखेज़ दस्तावेज सारे समाचार चैनल 'एफ़आईआर', 'क्राइम फाइल',' क्राइम रिपोर्टर' और न जाने क्या-क्या नामों के कार्यक्रम पेश करते हैं. ये सभी अपनी भाषा और प्रस्तुति में फ़ुटपाथी साहित्य को मात करते हैं, बल्कि सुना जा रहा है कि इस सफलता से खुश होकर एक दृश्य मीडिया समूह अपराध समाचारों का एक पूरा अलग चैनल ही शुरू करने जा रही है. प्रिंट मीडिया एक बुढ़ाते बड़े भाई की तरह पीछे-पीछे घिसट रहा है. मीडिया और अपराध अगर अपराध न हों तो मीडिया वाले ऐसा शून्य महसूस करेंगे जैसा पहली प्रेमिका के जाने के बाद होता है हम लोग राजनीति, फ़िल्म, व्यापार आदि से अपराध के संबंधों पर बड़ी चर्चा करते रहते हैं लेकिन मीडिया और अपराध के हम-संबंध पर चर्चा नहीं होती. अगर अपराध न हों तो मीडिया वाले ऐसा शून्य महसूस करेंगे जैसा पहली प्रेमिका के जाने के बाद होता है और अगर सेक्स परोसने पर पाबंदी लग जाए तो कई चैनलों और पत्र पत्रिकाओं को उस तरह कोरे पन्ने छोड़ने पड़ेंगे जैसे आपातकाल में सेंसरशिप के ख़िलाफ़ कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने किया था. अपराध और सैक्स परोसने के कई फायदे हैं. एक तो ख़ुद को भी मजा आता है सनसनी और गुदगुदाहट से. हमारे मार्केटिंग वाले भी खुश रहते हैं क्योंकि आपराधिक मार्केंटिंग वालों का विश्वास है कि जितना घटिया माल, उतना बेचना आसान. मार्केटिंग वालों की खुशी में पत्रकारों की खुशी हैं क्योंकि आजकल वे ही माई बाप है. आसानी सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि अपराध और सेक्स परोसने में अक़्ल का इस्तेमाल बिलकुल नहीं करना पड़ता है और सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि अपराध और सेक्स परोसने में अक़्ल का इस्तेमाल बिलकुल नहीं करना पड़ता है, जिसकी बेहद कमी मीडिया में खास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में है. सुना है कि कई चैनल 30-40 आई क्यू से ज़्यादा वाले लोगों को नौकरी नहीं देते. अपराध और सेक्स बेचने पर जब कोई आ जाए तो इसका मतलब है कि उसका दिमाग़ दिवालिया हो का है, उसके पास सोचने को कुछ नहीं बचा है, इसीलिए वह सबसे आसान विकल्प पर आ चुका है. फिर सेक्स और अपराध बेचकर नैतिक दिखा जा सकता है, क्योंकि बेचने का एंगल तो वहीं होता है -छी-छी देखिए कितना गंदा है. फ़िलहाल मामला फुटपाथ के स्तर पर चल रहा है. और ज़ीने पर जाएगा तब क्या होगा पता नहीं, लेकिन वहाँ भी कुछ तो भाई लोग तलाश ही लेंगे. क्या टीवी से सुकून आया? समाचार और मनोरंजन का यह माध्यम अब स्थाई रूप से हमारी ज़िंदगी में आ चुका है. टीवी पर आई बड़ी से बड़ी ख़बर भी वैसी सूचना नहीं दे पाती, जो अख़बारों के ज़रिए मिलती है अब इसे अपने जीवन से निकालना और हटाना तो दूर की बात, इसे कुछ घंटों तक 'ऑफ़' रखना भी असंभव होता जा रहा है. टीवी पर चलती-फिरती तस्वीरों का नशा ऐसा चढ़ता है कि इसके 'ऑफ़' होते ही कुछ छूट जाने का ख़तरा होता है. दुनिया भर की अच्छी-बुरी ख़बरें बस एक बटन दबाते ही हमारी आँखों के सामने नाचने लगती हैं. लेकिन क्या इससे हमारी ज़िंदगी में सुकून आया है? मेरा जवाब होगा – नहीं आया है. टीवी देखते हुए हम उत्तेजित और प्रभावित होते हैं. इस उत्तेजना और प्रभाव की अप्रत्यक्ष मानसिक प्रतिक्रिया को हम समझ नहीं पाते. धीरे-धीरे हम टीवी से चिपक जाते हैं. मनोरंजन, समाचार और ज्ञान देने में टीवी की भूमिका फ़िल्म, अख़बार और पुस्तकों से कम है. सतही समाचार यह एक ऐसा माध्यम है, जिसे पलटकर या दोबारा नहीं देखा जा सकता. इसमें आँखों के सामने से जो एक बार निकल गया, वह कुछ बिंबों में थोड़ी देर के लिए दिमाग़ में टिकता हैं. जैसे ही दूसेर दृश्य आँखों के सामने से गुज़रते हैं, वैसे ही पुराने बिंब धूमिल हो जाते हैं. यही कारण है कि टीवी पर आई बड़ी से बड़ी ख़बर भी वैसी सूचना नहीं दे पाती, जो अख़बारों के ज़रिए मिलती है. मुझे लगता है कि टीवी पर तात्कालिकता अधिक महत्वपूर्ण होती है. सबसे पहले और तुरंत आने की होड़ में ख़बरों की सतह पर ही टीवी के कैमरे पैन होते हैं और टीवी रिपोर्टर समाचार की सतह ही दिखाते और बताते रहते हैं. न तो ख़बरों की गहराई में वे हमें ले जाते हैं और न उसके आगे-पीछे के कारण और प्रभाव के बारे में बताते हैं. छोटी ख़बरों तक में 'लाइव' या आँखों देखा हाल की सनसनी तो रहती है, पर अगले दिन तक उसका असर ग़ायब हो जाता है. कहते हैं कि भरोसे पर ही दुनिया टिकी है और समाचार माध्यम भी. दरअसल पाठकगण, श्रोतागण, दर्शकगण किसी सूचना या समाचार के लिए समाचार माध्यम की ओर लपकते हैं. लाजिमी है कि वे भरोसे का समाचार या सूचना चाहते हैं. ज़्यादा दिन नहीं हुए जब भारत के राष्ट्रपति रहे केआर नारायणन की मौत की ख़बर को टीवी चैनलों ने उनके देहावसान के पूर्व ही प्रसारित कर दिया. ऐसी घटनाओं से इन समाचार माध्यमों के प्रति लोगों का भरोसा डिगता है. आज की दुनिया ग्लोबल हो चुकी है. किसी भी सूचना या समाचार को ज़्यादा देर तक लोगों के सामने आने से रोका नहीं जा सकता और ग़लत समाचार तो प्रसारित किया ही नहीं जा सकता. अगर करते हैं तो उसकी पोल-पट्टी तुरंत खुल जाएगी. इराक युद्ध के समय यह कहा गया था कि वहां ऐसा हो रहा है, वैसा हो रहा है पर बाद में ये समाचार आए कि वो सच नहीं था. इतना अवश्य कहा जा सकता है कि मीडिया लोगों की आँखों में धूल नहीं झोंक सकता. ग़लतियां स्टोरी प्लांट करना भी ख़तरे से खाली नहीं होता. आपको याद होगा कि अरसे पहले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज में सैकड़ों लोगों(एक समुदाय विशेष के) के मारे जाने की ख़बर कुछेक अख़बारों ने प्रमुखता से लगा दी थी पर ख़बर सही नहीं थी. इस ख़बर ने कुछ ऐसा असर किया कि अलीगढ़ से रांची तक दसियों जगह दंगे भड़क उठे. दरअसल, मीडिया से दर्शकों-पाठकों-श्रोताओं की पहली अपेक्षा सूचना पाने की होती है, सनसनी पाने की नहीं. सिनेमा आदि के कुछेक हवा-हवाई गॉसिप को वह भले पचा लें पर गंभीरता और विश्वसनीयता के दायरे से बाहर जाने वाली सूचनाओं को वह समझ लेता है. ऐसे में मीडिया की विश्वसनीयता गिरती है. गुजरात दंगों के समय भी कुछेक अख़बारों की भूमिका ने पाठकों और लाखों लोगों के भरोसे और विश्वास का कत्ल किया था. भरोसा सवाल सिर्फ़ एक या दो अख़बारों या चैनलों द्वारा ऐसा किये जाने का नहीं है, सवाल है समूचे मीडिया की विश्वसनीयता का. आज लोगों को आप बेवकूफ़ न तो समझ सकते हैं और न ही बना सकते हैं. टीआरपी या व्यवसायिकता चाहे जो नाच नचावे पर अपनी विश्वसनीयता का ख़्याल रखना चाहिए. ऐसा भी नहीं है कि मीडिया ने भरोसा नहीं दिया या दिखाया है. हालिया चर्चित जेसिका लाल का प्रसंग लें. मीडिया ने जिस तरह की एक्टिविज़्म इस मामले में दिखाई और जनता ने भी जितनी सक्रियता दिखाई, उससे लगता है कि भरोसे नाम की कोई चीज़ भी होती है और मीडिया इसे स्थापित करने में लगा हुआ है.
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