The Big Short: Inside the Doomsday Machine भारत के सभी नागरिकों की पहचान तय करने के लिए जनगणना की प्रक्रिया शुरू हो गई है। मगर इसके बारें में सरकार ने ठीक से प्रचार मुहिम नहीं चलाई है। यह लोगों को ठीक से पता भी नहीं है कि किस आधार पर जनगणना के लिए आपके घर आने वाले जनगणना कर्मचारी यह पहचान करेंगे कि आप वाकई भारत के और जहां रह रहे हैं, वहां के नागरिक हैं। क्या सिर्फ पूछताछ के आधार पर लोगों को दर्ज किया जाएगा? अगर ऐसा है तो सीमाई राज्यों में घुसपैठ कर चुके लोग भी भारतीय नागरिक की सूची में दर्ज हो जाएंगे। कम से कम पश्चिम बंगाल, कश्मीर और असम वगैरह में तो इसे रोक पाना नामुमकिन ही होगा। वोट बैंक की राजनीति के तहत तो विदेशी नागरिकों को यहां पनाह पहले ही मिल चुकी है। इस हाल में विदेशियों को भारत का नागरिक दर्ज होने से रोकने की कोी पुख्ता व्यवस्था कहीं भी नजर नहीं आ रही है। जिन्हें यहां बतौर नागरिक यहां दर्ज होना है, वे ्पनी तैयारी काफी पहले से कर ही रहे होंगे।
दूसरी समस्या भारत के ही उन लोगों की है जो अन्य राज्यों में सपरिवार रह रहे हैं। वहां उनके पहचानपत्र वगैरह भी हैं मगर उनकी स्थाई संपत्ति किसी और राज्य में हैं। जहां स्थाई संपत्ति ( मसलन खेती की जमीन और पुस्तैनी मकान, बाग-बगीचे वगैरह ) है, वहीं के वे मूल निवासी भी हैं। सरकार ने जनगणना के पूर्व सरकार ने ऐसे लोगों के लिए कोई दिशा निर्देश भी जारी नहीं किए हैं। ना ही बाकायदा प्रचार किया है कि ऐसे लोगों को कैसे दर्ज किया जाएगा। यानी जनगणना से पहले इसके प्रति जागरूकता का कोई अभियान ठीक से नहीं चलाया गया। यह अलग बात है कि पार्टियों के लोग सक्रिय हैं मगर वे सिर्फ इस बात के लिए कहीं उनके वोटरों के साथ कोई गड़बड़ी न हो जाए। तो क्या इसी आधार पर सरकार भारत के नागरिकों का सही डाटाबेस तैयार कर पाएगी ? मुझे तो गड़बड़ी की पूरी आशंका नजर आ रही है। जो खुद ही इन सारी बातों के प्रति जागरूक हैं वे तो सबकुछ कर लेंगे मगर क्या भारत की उस सारी जनता से यह अपेक्षा रखना तार्किक होगा, जो इसके कार्यक्रम और जनगणना की महत्ता के बारें में ठीक से जानती तक नहीं है ? अगर नहीं तो इस जनगणना में भी ऐसी खामियां क्यों रहने दी सरकार ने ? कहा जा रहा है कि इसी डाटाबेस पर विकास की सारी योजनाएं भी बनेंगी। तो क्या गलत डाटाबेस पर बनेंगी विकास की योजनाएं ?
भारत जनगणना-2011
बहरहाल आप भी तैयार हो जाइए भारत के राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर में दर्ज होने के लिए क्यों कि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल एक अप्रैल को देश की जनगणना-2011 की प्रक्रिया की विधिवत शुरुआत करेंगी। यह जनगणना दो चरणों में होगी तथा पहली बार राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) भी तैयार किया जाएगा। इसके तहत पहली बार नागरिकों का एक व्यापक पहचान डाटाबेस भी तैयार किया जाएगा।
गृहमंत्री जीके पिल्लई ने बताया कि भारत जनगणना-2011 की प्रक्रिया एक अप्रैल को शुरू होकर एक जून को समाप्त हो जाएगी और यह दो चरणों में होगी। आजादी के बाद की यह 7वीं जनगणना होगी। इसमें 25 लाख कर्मचारी कार्य करेंगे। इसमें देश के सभी 35 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में रहने वाले 1.2 अरब निवासियों को कवर किया जाएगा।
एक अप्रैल को राष्ट्रपति के साथ ही उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी जनगणना फार्म भरेंगे।
उन्होंने कहा कि पहले चरण में एक अप्रैल से सितंबर तक घर घर जाकर सूची तैयार की जाएगी और एनपीआर के लिए आँकड़े एकत्र किए जाएँगे जबकि दूसरा चरण अगले साल 9 फरवरी से 28 फरवरी तक चलेगा।
पिल्लई ने बताया कि 1 से 6 अप्रैल तक जनगणना प्रक्रिया नई (कुछ हिस्सा), प बंगाल, असम, अंडमान-निकोबार द्वीप, गोवा और मेघालय में, 7 से 14 अप्रैल तक केरल, लक्ष्यदीप, उड़ीसा, हिमाचल प्रदेश, सिक्कम में चलाई जाएगी।
उन्होंने कहा कि 15 से 20 अप्रैल तक कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश और चंडीगढ़Click here to see more news from this city में, 21 से 25 अप्रैल तक गुजरात, दादरा और नगर हवेली, दमन और दीव में, 26 से 30 अप्रैल तक त्रिपुरा और आंध्र प्रदेश में, एक से 6 मई तक हरियाणा, छत्तीसगढ, दिल्ली, पंजाब, उत्तराखंड और महाराष्ट्र में, 7 से 14 मई तक मध्य प्रदेश में , 15 से 31 मई तक जम्मू-कश्मीर, मणिपुर, मिजोरम, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में तथा 1 जून को तमिलनाडु, पांडिचेरी , हिमाचल प्रदेश और नागालैंड में होगी।
उन्होंने कहा कि बिहार और झारखंड के बारे में अभी कोई अंतिम फैसला नहीं हुआ है । राज्य सरकारों से संपर्क जारी है।
पिल्लई ने कहा कि इस जनगणना के दौरान देश के सभी 240 जिलों, 5767 तहसीलों, 7742 शहरों, और 6 लाख से अधिक गाँवों को कवर किया जाएगा। इस दौरान करीबन 24 करोड़ घरों का दौरा किया जाएगा और इस प्रक्रिया के दौरान एक अरब 20 करोड़ लोगों की गिनती की जाएगी।
उन्होंने कहा कि इतने बड़े कार्य को पूरा करने के लिए करीबन 25 लाख अधिकारी और कर्मचारी शामिल किए गए हैं।
पिल्लई ने कहा कि भारत-बांग्लादेश सीमा से लगे क्षेत्रों में नियुक्त सभी जिला मजिस्ट्रेटों से कहा गया है कि वे विशेष सतर्कता बरतें क्योंकि हो सकता है कि कुछ लोग सीमा पार से आकर राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) में अपना नाम दर्ज कराने का प्रयास करें।
इसमें 11 हजार 631 मीट्रिक टन कागज लगेगा, 64 करोड सूची पत्र 16 भाषाओं में प्रकाशित किए जाएँगे, 81 लाख नियम पुस्तिकाएँ 18 भाषाओं में तैयार की जाएगी। (भाषा)
Wednesday, 31 March 2010
Tuesday, 23 March 2010
कानू सान्याल ने आत्महत्या कर ली
नक्सली आंदोलन के संस्थापकों में से एक कानू सान्याल का मंगलवार की दोपहर निधन हो गया है. पुलिस के अनुसार उन्होंने आत्महत्या की है.
हालांकि सीपीआई (एमएल) के सचिव सुब्रतो बसु ने बताया कि अभी तक पार्टी की ओर से उनकी आत्महत्या की पु्ष्टि नहीं की जा सकी है.
सुब्रतो बसु ने बताया, "पार्टी महासचिव कानू सान्याल का निधन मंगलवार को दोपहर एक बजे के आसपास सिलिगुड़ी के हातीशिला स्थित पार्टी कार्यालय में हुआ. इसे आत्महत्या कहना जल्दबाज़ी होगा. हम मौके पर पहुंचने के बाद ही इसकी पूरी तरह से पुष्टि कर सकेंगे. आत्महत्या की बात पर पूरी तरह से यकीन नहीं किया जा सकता है."
उन्होंने बताया कि 81 वर्षीय सान्याल को दो वर्ष पहले माइल्ड सेरीब्रल अटैक पड़ा था और तब से वे अस्वस्थ चल रहे थे. कुछ दिनों से वे बीमार भी थे और उन्होंने अस्पताल में भर्ती होने से इनकार कर दिया था। पार्टी की ओर से कोलकाता में जारी बयान में कहा गया है कि अस्वस्थता के बावजूद वो पार्टी की गतिविधियों में यथासंभव सक्रिय रहते थे. पार्टी ने उनके निधन को एक अपूर्णनीय क्षति बताया है.
पश्चिम बंगाल के पुलिस अधिकारी सुरजीत कर पुरकायस्थ ने बताया, ‘‘ नक्सलबाड़ी गांव में कानू का शव उनके घर में रस्सी से लटका हुआ पाया गया. यह आत्महत्या का मामला प्रतीत होता है.’’
माना जा रहा है कि नक्सल आंदोलन की दिशा में आए भटकाव से वो बेहद दुखी थे और कुंठा में जी रहे थे। इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (नॉर्थ बंगाल) केएल तमता ने बताया कि उनके शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया है। काफी समय से वे नक्सली गतिविधियों में शामिल नहीं थे। वर्ष 2006 में सिंगूर आंदोलन में जरूर उनकी उपस्थिति दर्ज की गई थी।
कानू सान्याल भारत में नक्सलवादी आंदोलन के जनक कहे जाते हैं। उनका जन्म 1932 में हुआ था। दार्जीलिंग जिले के कर्सियांग में जन्में कानू सान्याल अपने पांच भाई बहनों में सबसे छोटे थे. पिता आनंद गोविंद सान्याल कर्सियांग के कोर्ट में पदस्थ थे। कानू सान्याल ने कर्सियांग के ही एमई स्कूल से 1946 में मैट्रिक की अपनी पढ़ाई पूरी की. बाद में इंटर की पढाई के लिए उन्होंने जलपाईगुड़ी कॉलेज में दाखिला लिया लेकिन पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी।
उसके बाद उन्हें दार्जीलिंग के ही कलिंगपोंग कोर्ट में राजस्व क्लर्क की नौकरी मिली. कुछ ही दिनों बाद बंगाल के मुख्यमंत्री विधान चंद्र राय को काला झंडा दिखाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में रहते हुए उनकी मुलाकात चारु मजुमदार से हुई। जब कानू सान्याल जेल से बाहर आए तो उन्होंने पूर्णकालिक कार्यकर्ता के बतौर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली. 1964 में पार्टी टूटने के बाद उन्होंने माकपा के साथ रहना पसंद किया। 1967 में कानू सान्याल ने दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी में सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की।
सान्याल ने 1969 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्किस्ट-लेनिन) की स्थापना की थी। सान्याल ने चारू मजूमदार के साथ मिलकर 25 मई 1967 से उत्तरी बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से नक्सली आंदोलन की शुरूआत की थी। उन्होंने पार्वतीपुरम नक्सली मामले में आंध्र प्रदेश की जेल में सात साल काटे। उन्हें इस मामले में सेशन जज ने दोषी ठहराया था। 1970 से 1977 तक वे जेल में रहे।
पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बासु ने कानू सान्याल की रिहाई में मुख्य भूमिका निभाई थी. ज्योति बासु मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के थे लेकिन फिर भी उन्होंने कानू को रिहा करवाया.आगे चलकर सान्याल ने हिंसा के रास्ते की आलोचना की और ओसीसीआर यानी ऑर्गेनाइज़िंग कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरी की स्थापना की.
अपने जीवन के लगभग 14 साल कानू सान्याल ने जेल में गुजारे. इन दिनों वे नक्सलबाड़ी से लगे हुए हाथीघिसा गांव में रह रहे थे। 78 वर्षीय इस अविवाहित नेता को देश में माओवादी संघर्ष को दिशा देने का श्रेय जाता है। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के इस संस्थापक को अपने बुढ़ापे में यह महसूस होने लगा था कि आतंकवाद की अराजकतावादी राह पर चलकर कोई लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता।
नक्सलवादी आंदोलन से दुखी हैं कानू सान्याल
बदल गया है नक्सलबाड़ी का चेहरा
नक्सली आंदोलन में कई अहम मोड़
चारु मजुमदार में उतावलापन था
यह नक्सलवाद नहीं, आतंकवाद है
हालांकि सीपीआई (एमएल) के सचिव सुब्रतो बसु ने बताया कि अभी तक पार्टी की ओर से उनकी आत्महत्या की पु्ष्टि नहीं की जा सकी है.
सुब्रतो बसु ने बताया, "पार्टी महासचिव कानू सान्याल का निधन मंगलवार को दोपहर एक बजे के आसपास सिलिगुड़ी के हातीशिला स्थित पार्टी कार्यालय में हुआ. इसे आत्महत्या कहना जल्दबाज़ी होगा. हम मौके पर पहुंचने के बाद ही इसकी पूरी तरह से पुष्टि कर सकेंगे. आत्महत्या की बात पर पूरी तरह से यकीन नहीं किया जा सकता है."
उन्होंने बताया कि 81 वर्षीय सान्याल को दो वर्ष पहले माइल्ड सेरीब्रल अटैक पड़ा था और तब से वे अस्वस्थ चल रहे थे. कुछ दिनों से वे बीमार भी थे और उन्होंने अस्पताल में भर्ती होने से इनकार कर दिया था। पार्टी की ओर से कोलकाता में जारी बयान में कहा गया है कि अस्वस्थता के बावजूद वो पार्टी की गतिविधियों में यथासंभव सक्रिय रहते थे. पार्टी ने उनके निधन को एक अपूर्णनीय क्षति बताया है.
पश्चिम बंगाल के पुलिस अधिकारी सुरजीत कर पुरकायस्थ ने बताया, ‘‘ नक्सलबाड़ी गांव में कानू का शव उनके घर में रस्सी से लटका हुआ पाया गया. यह आत्महत्या का मामला प्रतीत होता है.’’
माना जा रहा है कि नक्सल आंदोलन की दिशा में आए भटकाव से वो बेहद दुखी थे और कुंठा में जी रहे थे। इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (नॉर्थ बंगाल) केएल तमता ने बताया कि उनके शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया है। काफी समय से वे नक्सली गतिविधियों में शामिल नहीं थे। वर्ष 2006 में सिंगूर आंदोलन में जरूर उनकी उपस्थिति दर्ज की गई थी।
कानू सान्याल भारत में नक्सलवादी आंदोलन के जनक कहे जाते हैं। उनका जन्म 1932 में हुआ था। दार्जीलिंग जिले के कर्सियांग में जन्में कानू सान्याल अपने पांच भाई बहनों में सबसे छोटे थे. पिता आनंद गोविंद सान्याल कर्सियांग के कोर्ट में पदस्थ थे। कानू सान्याल ने कर्सियांग के ही एमई स्कूल से 1946 में मैट्रिक की अपनी पढ़ाई पूरी की. बाद में इंटर की पढाई के लिए उन्होंने जलपाईगुड़ी कॉलेज में दाखिला लिया लेकिन पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी।
उसके बाद उन्हें दार्जीलिंग के ही कलिंगपोंग कोर्ट में राजस्व क्लर्क की नौकरी मिली. कुछ ही दिनों बाद बंगाल के मुख्यमंत्री विधान चंद्र राय को काला झंडा दिखाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में रहते हुए उनकी मुलाकात चारु मजुमदार से हुई। जब कानू सान्याल जेल से बाहर आए तो उन्होंने पूर्णकालिक कार्यकर्ता के बतौर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली. 1964 में पार्टी टूटने के बाद उन्होंने माकपा के साथ रहना पसंद किया। 1967 में कानू सान्याल ने दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी में सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की।
सान्याल ने 1969 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्किस्ट-लेनिन) की स्थापना की थी। सान्याल ने चारू मजूमदार के साथ मिलकर 25 मई 1967 से उत्तरी बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से नक्सली आंदोलन की शुरूआत की थी। उन्होंने पार्वतीपुरम नक्सली मामले में आंध्र प्रदेश की जेल में सात साल काटे। उन्हें इस मामले में सेशन जज ने दोषी ठहराया था। 1970 से 1977 तक वे जेल में रहे।
पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बासु ने कानू सान्याल की रिहाई में मुख्य भूमिका निभाई थी. ज्योति बासु मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के थे लेकिन फिर भी उन्होंने कानू को रिहा करवाया.आगे चलकर सान्याल ने हिंसा के रास्ते की आलोचना की और ओसीसीआर यानी ऑर्गेनाइज़िंग कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरी की स्थापना की.
अपने जीवन के लगभग 14 साल कानू सान्याल ने जेल में गुजारे. इन दिनों वे नक्सलबाड़ी से लगे हुए हाथीघिसा गांव में रह रहे थे। 78 वर्षीय इस अविवाहित नेता को देश में माओवादी संघर्ष को दिशा देने का श्रेय जाता है। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के इस संस्थापक को अपने बुढ़ापे में यह महसूस होने लगा था कि आतंकवाद की अराजकतावादी राह पर चलकर कोई लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता।
नक्सलवादी आंदोलन से दुखी हैं कानू सान्याल
बदल गया है नक्सलबाड़ी का चेहरा
नक्सली आंदोलन में कई अहम मोड़
चारु मजुमदार में उतावलापन था
यह नक्सलवाद नहीं, आतंकवाद है
Monday, 8 March 2010
महिला आरक्षण विरोध की अबूझ पहेली
महिला आरक्षण विधेयक कैसे मुसलमानों और दलितों के अधिकारों को छीनने की साजिश है, यह बात अब विरोध कर रही पार्टियों को अपने वोट बैंक को समझाना होगा। हालांकि जब संसद में सपा प्रमुख मुलायम यादव आज सुबह जा रहे थे तो प्रवेश द्वार के पास ही जमा पत्रकारों ने पूछा था कि- आप क्यों विरोध कर रहे हैं तो उनका जवाब था कि संसद से लौटकर बताउंगा। जब संसद में विरोध करने के बाद बाहर आए तो पहले उन्हें दो टूक शब्दों में वोट बैंक को समझाने की गरज से ही सही वह वजहें गिनानी चाहिए थी, जो विरोध का मूलाधार हैं। मगर ऐसा न करके सिर्फ यही कहा कि कांग्रेस व भाजपा मुसलमानों व दलितों के हितों की अनदेखी कर रहे हैं। इस विरोध में इतना जरूर कहा कि हम समर्थन वापस लेते हैं।
अब दलित और मुसलिम महिलाएं कैसे मान लें कि महिला आरक्षण विधेयक उनके खिलाफ है। और अगर उन्हें समझाने में नाकाम रहे तो तो इन्हें भी पता है कि विरोध की इस अबूझ पहेली का असर उनकी राजनीति पर अवश्य पड़ेगा। इस अबूझ पहेली का खामियाजा पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी वाममोर्चा भुगत चुका है। जब देश में तमाम सवाल ज्वलंत थे तब उनहोंने परमाणु करार जैसे अबूझ विरोध पर सपकार का दामन छोड़ा। जनता समझ नहीं सकी कि गरीबों के मुद्दे पर लड़ने वाली हमारी सरकार कहीं निवेश के लिए खूनखराबें में उलझी है तो कहीं परमाणु करार जैसे अबूझ मुद्दे पर। मुद्दे खराब नहीं थे मगर अपने लोगों को समझा नहीं पाए। अब यही सवाल मुलायम, लालू और शरद यादव तिकड़ी के सामने मुंह बाए खड़ा है। विरोध का जनमत जनता को समझने लायक ठोस तरकों से खड़ा न कर पाए तो पक्का हैं कि अनके पैरों के तले की न सिर्फ जमीन खिसकेगी बल्कि महिला आरक्षण बिल के खलनायक भी बन जाएंगे।
बिल का समर्थन कर रहे दल तो यह जंग आधा जीत चुके हैं। अब बिल रूक भी जाए ( जिसकी संभावना कम ही है ) तो कांग्रेस व भाजपा, नीतिश समेत समर्थक दलों को देश की महिलाओं की सहानुभूति तो मिलेगी ही। दरअसल यह विरोध उस दर्द का है जिसमें पुरुष सांसदों की दादागिरि छिनने वाली है। सामंती ठाटबाट भी छिन जाएगा। रही-सही कसर रोटोशन पूरा कर देगा। जनता के बीच से गायब कहे तो कोई पहचानने वाला भी नहीं रह जाएगा। यानी एक ऐसी प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी जिसमें अपने वजूद के लिए हमेशा मेहनत करते रहना पड़ेगा। क्यों कि आपकी सीट कल किसी महिला की हो जाएगी। तब कहीं और से जीतने के लिए ईमानदार व कामकरने वाले नेता की छवि होनी जरूरी होगी। और यह माहौल जनता व देश दोनों के लिए बेहतर होगा। एक और बात यह है कि मंहगाई के मुद्दे को जानबूझकर पीछे धकेल दिया गया है। और इस साजिश में विरोध कर रहे लोग भी शामिल हैं। जनता को जानबझकर उस मुद्दे से हटाकर इस अबूझ मुद्दे में फंसाया जा रहा है। यानी दोनो तरफ से खलनायक यादव तिकड़ी ही है। अच्छा तो यही होता कि बिल को आने देते और उसको संशोधन में रखकर फिर मंहगाई के मुद्दे को जिंदी रखते । मगर मंहगाई के मुद्दे को दबाने की साजिश में ये भी शामिल हैं। आइए समझने की कोशिश करते हैं कि कैसे विरोध खोखला साबित हो रहा है। और क्या है सच्चाई ?
क्या है सच्चाई ?
महिला आरक्षण विधेयक को लेकर संसद और संप्रग सरकार दोनों ने जहाँ इतिहास में अपनी जगह पक्की कर ली, वहीं सपा और राजद को भी जनता उनके विरोध के लिए याद रखेगी। हालाँकि इन दोनों ही दलों द्वारा इस विधेयक का विरोध कोई नई बात नहीं है। सन 1997 में पहली बार सदन के पटल पर रखे जाने के वक्त से ये पार्टियाँ इसकी मुखालफत कर रही हैं। ऐसे में उनका विधेयक के खिलाफ खड़े रहना किंचित भी विस्मयकारी नहीं है।
अहम सवाल यह है कि विधेयक को लेकर सपा और राजद का विरोध वास्तव में न्यायोचित और तर्कसंगत है? क्या एक-दूसरे को फूटी आँख भी न सुहाने वाले दो सियासी ध्रुव भाजपा और कांग्रेस इस विधेयक के जरिए मुस्लिम और अन्य पिछड़ा वर्ग की महिलाओं को संसद से दूर रखने की साजिश रच रहे हैं? (जैसा कि लालू और मुलायम ने कहा है)
क्या इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद उन सभी वर्गों की महिलाओं का अधिकार छिन जाएगा, जिनकी हिमायत लालू और मुलायम कर रहे हैं?
महिला विधेयक के मौजूदा स्वरूप में तो ऐसी कोई बात नजर नहीं आती। विधेयक समग्र रूप से लोकसभा और राज्य की विधायिकाओं में सभी महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का हक देता है। इसके सीधे मायने हैं कि सियासत में दखल रखने वाली हर महिला उक्त प्रावधान के अंतर्गत अपने अधिकार का इस्तेमाल कर सकती है।
इस तरह देखा जाए तो सरकार और उसका साथ (जो यकीनन काबिले तारीफ है) दे रहे भाजपा और वामपंथी दलों के खिलाफ सपा और राजद का कोई भी आरोप या इस विधेयक को लेकर नाराजगी कहीं ठहर नहीं पाती।
...क्योंकि विधेयक में स्पष्ट रूप से सभी महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। अब यह राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है कि वे किस जाति विशेष या समुदाय की महिलाओं को टिकट देते हैं। इसमें सरकार पर किसी तरह के पक्षपात का सवाल नहीं उठता।
तह तक जाएँ तो पूरा माजरा सिर्फ वोटों की राजनीति का है। जगजाहिर है कि समाजवादी पार्टी और राजद दोनों मुस्लिम और अन्य पिछड़ा वर्ग (यादव, लोधी) की सियासत करते हैं। इनका जनाधार भी इन्हीं दो समुदायों तक सिमटा हुआ है। बिहार में लालू हों या उत्तरप्रदेश में मुलायम, दोनों ही नेता इन्हीं वोटों के इर्द-गिर्द सियासी बिसात बिछाते हैं।
जहाँ तक मुलायम का सवाल है तो वे अमरसिंह के बॉलीवुड प्रेम और कल्याणसिंह की दोस्ती जैसे दो तूफानों से मची तबाही का दर्द भूले नहीं हैं। उपचुनाव में हुई बहू डिंपल यादव की हार ने उन्हें भलीभाँति यह आभास करा दिया है कि समाजवाद छोड़ पूँजीवादी चोगा ओढ़ने और कल्याण से मित्रता गाँठने की कितनी महँगी कीमत उन्होंने चुकाई है।
लोकसभा में केवल (चार सांसद) बुरी तरह मुँह की खाने वाले लालू यादव के लिए भी अब इन्हीं वोट बैंकों का सहारा रह गया है। वैसे भी राहुल गाँधी से 'नेक नीयत' का तमगा हासिल करने वाले नीतीशकुमार के खिलाफ लालू अब तक बिहार में अपनी जमीन खोते ही आए हैं।
सपा और राजद की महिला विधेयक के खिलाफ आलोचना का इसलिए भी कोई महत्व नहीं है, क्योंकि सरकार खुद यह आश्वासन दे चुकी है कि एक बार विधेयक पारित हो जाने दो, इसके अंतर्गत क्या हो सकता है उस पर बाद में विचार कर लेंगे।
सरकार ने यहाँ तक कहा है कि विधेयक के कानून बनने के बाद राज्य सरकारें अपने तईं अलग से कोटे का प्रावधान कर सकती हैं। इसमें कहीं कुछ भी गलत नहीं है।
बहरहाल, महिला विधेयक को लेकर राजद और सपा के इस विरोध में अव्वल तो दम नहीं है। अगर है भी तो सिर्फ इतना कि इसे जरिया बनाकर वे केवल अपने दूर छिटक गए वोटों को दोबारा कबाड़ना चाहते हैं।
अब दलित और मुसलिम महिलाएं कैसे मान लें कि महिला आरक्षण विधेयक उनके खिलाफ है। और अगर उन्हें समझाने में नाकाम रहे तो तो इन्हें भी पता है कि विरोध की इस अबूझ पहेली का असर उनकी राजनीति पर अवश्य पड़ेगा। इस अबूझ पहेली का खामियाजा पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी वाममोर्चा भुगत चुका है। जब देश में तमाम सवाल ज्वलंत थे तब उनहोंने परमाणु करार जैसे अबूझ विरोध पर सपकार का दामन छोड़ा। जनता समझ नहीं सकी कि गरीबों के मुद्दे पर लड़ने वाली हमारी सरकार कहीं निवेश के लिए खूनखराबें में उलझी है तो कहीं परमाणु करार जैसे अबूझ मुद्दे पर। मुद्दे खराब नहीं थे मगर अपने लोगों को समझा नहीं पाए। अब यही सवाल मुलायम, लालू और शरद यादव तिकड़ी के सामने मुंह बाए खड़ा है। विरोध का जनमत जनता को समझने लायक ठोस तरकों से खड़ा न कर पाए तो पक्का हैं कि अनके पैरों के तले की न सिर्फ जमीन खिसकेगी बल्कि महिला आरक्षण बिल के खलनायक भी बन जाएंगे।
बिल का समर्थन कर रहे दल तो यह जंग आधा जीत चुके हैं। अब बिल रूक भी जाए ( जिसकी संभावना कम ही है ) तो कांग्रेस व भाजपा, नीतिश समेत समर्थक दलों को देश की महिलाओं की सहानुभूति तो मिलेगी ही। दरअसल यह विरोध उस दर्द का है जिसमें पुरुष सांसदों की दादागिरि छिनने वाली है। सामंती ठाटबाट भी छिन जाएगा। रही-सही कसर रोटोशन पूरा कर देगा। जनता के बीच से गायब कहे तो कोई पहचानने वाला भी नहीं रह जाएगा। यानी एक ऐसी प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी जिसमें अपने वजूद के लिए हमेशा मेहनत करते रहना पड़ेगा। क्यों कि आपकी सीट कल किसी महिला की हो जाएगी। तब कहीं और से जीतने के लिए ईमानदार व कामकरने वाले नेता की छवि होनी जरूरी होगी। और यह माहौल जनता व देश दोनों के लिए बेहतर होगा। एक और बात यह है कि मंहगाई के मुद्दे को जानबूझकर पीछे धकेल दिया गया है। और इस साजिश में विरोध कर रहे लोग भी शामिल हैं। जनता को जानबझकर उस मुद्दे से हटाकर इस अबूझ मुद्दे में फंसाया जा रहा है। यानी दोनो तरफ से खलनायक यादव तिकड़ी ही है। अच्छा तो यही होता कि बिल को आने देते और उसको संशोधन में रखकर फिर मंहगाई के मुद्दे को जिंदी रखते । मगर मंहगाई के मुद्दे को दबाने की साजिश में ये भी शामिल हैं। आइए समझने की कोशिश करते हैं कि कैसे विरोध खोखला साबित हो रहा है। और क्या है सच्चाई ?
क्या है सच्चाई ?
महिला आरक्षण विधेयक को लेकर संसद और संप्रग सरकार दोनों ने जहाँ इतिहास में अपनी जगह पक्की कर ली, वहीं सपा और राजद को भी जनता उनके विरोध के लिए याद रखेगी। हालाँकि इन दोनों ही दलों द्वारा इस विधेयक का विरोध कोई नई बात नहीं है। सन 1997 में पहली बार सदन के पटल पर रखे जाने के वक्त से ये पार्टियाँ इसकी मुखालफत कर रही हैं। ऐसे में उनका विधेयक के खिलाफ खड़े रहना किंचित भी विस्मयकारी नहीं है।
अहम सवाल यह है कि विधेयक को लेकर सपा और राजद का विरोध वास्तव में न्यायोचित और तर्कसंगत है? क्या एक-दूसरे को फूटी आँख भी न सुहाने वाले दो सियासी ध्रुव भाजपा और कांग्रेस इस विधेयक के जरिए मुस्लिम और अन्य पिछड़ा वर्ग की महिलाओं को संसद से दूर रखने की साजिश रच रहे हैं? (जैसा कि लालू और मुलायम ने कहा है)
क्या इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद उन सभी वर्गों की महिलाओं का अधिकार छिन जाएगा, जिनकी हिमायत लालू और मुलायम कर रहे हैं?
महिला विधेयक के मौजूदा स्वरूप में तो ऐसी कोई बात नजर नहीं आती। विधेयक समग्र रूप से लोकसभा और राज्य की विधायिकाओं में सभी महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का हक देता है। इसके सीधे मायने हैं कि सियासत में दखल रखने वाली हर महिला उक्त प्रावधान के अंतर्गत अपने अधिकार का इस्तेमाल कर सकती है।
इस तरह देखा जाए तो सरकार और उसका साथ (जो यकीनन काबिले तारीफ है) दे रहे भाजपा और वामपंथी दलों के खिलाफ सपा और राजद का कोई भी आरोप या इस विधेयक को लेकर नाराजगी कहीं ठहर नहीं पाती।
...क्योंकि विधेयक में स्पष्ट रूप से सभी महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। अब यह राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है कि वे किस जाति विशेष या समुदाय की महिलाओं को टिकट देते हैं। इसमें सरकार पर किसी तरह के पक्षपात का सवाल नहीं उठता।
तह तक जाएँ तो पूरा माजरा सिर्फ वोटों की राजनीति का है। जगजाहिर है कि समाजवादी पार्टी और राजद दोनों मुस्लिम और अन्य पिछड़ा वर्ग (यादव, लोधी) की सियासत करते हैं। इनका जनाधार भी इन्हीं दो समुदायों तक सिमटा हुआ है। बिहार में लालू हों या उत्तरप्रदेश में मुलायम, दोनों ही नेता इन्हीं वोटों के इर्द-गिर्द सियासी बिसात बिछाते हैं।
जहाँ तक मुलायम का सवाल है तो वे अमरसिंह के बॉलीवुड प्रेम और कल्याणसिंह की दोस्ती जैसे दो तूफानों से मची तबाही का दर्द भूले नहीं हैं। उपचुनाव में हुई बहू डिंपल यादव की हार ने उन्हें भलीभाँति यह आभास करा दिया है कि समाजवाद छोड़ पूँजीवादी चोगा ओढ़ने और कल्याण से मित्रता गाँठने की कितनी महँगी कीमत उन्होंने चुकाई है।
लोकसभा में केवल (चार सांसद) बुरी तरह मुँह की खाने वाले लालू यादव के लिए भी अब इन्हीं वोट बैंकों का सहारा रह गया है। वैसे भी राहुल गाँधी से 'नेक नीयत' का तमगा हासिल करने वाले नीतीशकुमार के खिलाफ लालू अब तक बिहार में अपनी जमीन खोते ही आए हैं।
सपा और राजद की महिला विधेयक के खिलाफ आलोचना का इसलिए भी कोई महत्व नहीं है, क्योंकि सरकार खुद यह आश्वासन दे चुकी है कि एक बार विधेयक पारित हो जाने दो, इसके अंतर्गत क्या हो सकता है उस पर बाद में विचार कर लेंगे।
सरकार ने यहाँ तक कहा है कि विधेयक के कानून बनने के बाद राज्य सरकारें अपने तईं अलग से कोटे का प्रावधान कर सकती हैं। इसमें कहीं कुछ भी गलत नहीं है।
बहरहाल, महिला विधेयक को लेकर राजद और सपा के इस विरोध में अव्वल तो दम नहीं है। अगर है भी तो सिर्फ इतना कि इसे जरिया बनाकर वे केवल अपने दूर छिटक गए वोटों को दोबारा कबाड़ना चाहते हैं।
Sunday, 7 March 2010
महिला दिवस और महिला आरक्षण
सोमवार ८ मार्च को यानी महिला दिवस के मौके पर देश का उच्च सदन महिला आरक्षण के जरिए तमाम विरोध के बावजूद एक नया इतिहास रचने की दहलीज पर खड़ा है। राजनीतिक विरोध की अपनी गणित और मजबूरियां होती हैं। इसमें जनमत बटोरने और सत्ता लाभ के लिए कभी-कभी सही बातों का सिर्फ इसलिए विरोध किया जाता ताकि उसमें उनका अपना श्रेय भी शामिल रहे और वोटबैंक बचा रहे। बहरहाल राजनीति चाहे जो हो मगर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने इस बार महिला आरक्षण विधेयक की नैया पार लगाने के लिए बाकायदा हिसाब करके पूरी ताकत झोंकने की रणनीति बनाई है। मालूम हो कि दसवीं लोकसभा में महिलाओं की भागीदारी 7 प्रतिशत थी। वहीं, 11वीं में 7.36 प्रतिशत, 12वीं में 8.07, 13वीं में 8.83 प्रतिशत, 14वीं में 8.30 प्रतिशत जबकि 15वीं में 10.12 प्रतिशत रही है लेकिन अब यह आंकड़ा 33 प्रतिशत तक पहुंचने वाला है। महिला आरक्षण के लिए सकारात्मक पहलू यह है कि कांग्रेस को राज्यसभा में दो बड़ी पार्टियों भाजपा और वामदलों का समर्थन हासिल है। वहीं बीजद, असम गण परिषद, नेशनल कॉन्फ्रेंस, तेलुगू देशम, राकांपा, द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस और जद-एस का भी समर्थन हासिल है। आंकड़े कुछ इस प्रकार हैं----।
राज्यसभा
कुल मौजूदा सदस्य: 233
दो-तिहाई: 155
सपोर्ट में: 164 (कांग्रेस 71, बीजेपी 45, लेफ्ट 22, अन्य 26)
जेडीयू के 7 सदस्यों में आमराय नहीं
लोकसभा
कुल मौजूदा सांसद: 544
दो-तिहाई: 363
सपोर्ट में: 410 (कांग्रेस व सहयोगी 244, बीजेपी 116, लेफ्ट 20, अन्य 30)
जेडीयू के 20 सदस्य विभाजित रहेंगे ।
राजनीति की बिसात और महिला आरक्षण बिल
13 साल तक ठंडे बस्ते में रहने के बाद अब महिला आरक्षण बिल के संसद में पास होने
की राह और आसान होती नजर आ रही है। कभी इस विधेयक की खिलाफत करने वाले जेडीयू नेता नीतीश कुमार भी अब सपोर्ट में आ गए हैं। नीतीश के इस कदम से विधेयक का विरोध कर रहे समाजवादी मूल के दलों को भारी झटका लगा है। उधर डीएमके, नैशनल कॉन्फ्रेंस, बीजेडी और अकाली दल ने भी इस विधेयक के समर्थन का ऐलान कर दिया है। इन तीनों के राज्यसभा में नौ एमपी हैं। हर तरफ से मिल रहे अच्छे संकेतों से उत्साहित प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण को एक पड़ाव भर बताते हुए हर क्षेत्र में महिला सशक्तीकरण को यूपीए सरकार का लक्ष्य बताया।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के शताब्दी वर्ष के मौके पर एक सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने कहा कि स्थानीय निकायों में महिला आरक्षण ने जमीनी स्तर पर शासन के स्वरूप को क्रांतिकारी तरीके से बदल दिया है। अब हम संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करने की दिशा में ठोस कदम बढ़ा रहे हैं। नीतीश द्वारा इस विधेयक का समर्थन करने के पीछे बिहार विधानसभा में होने वाले चुनाव को माना जा रहा है। लगता है, नीतीश अपनी सवर्ण विरोधी इमेज से छुटकारा चाहते हैं। यह बिल पास होने पर महिला आरक्षण के साथ पहला चुनाव बिहार में ही होगा। नीतीश के लिए यह बड़ी और नई परीक्षा होगी।
नीतीश का यह सपोर्ट उनकी पार्टी जेडीयू के अध्यक्ष शरद यादव के लिए तगड़े झटके जैसा है। शरद यादव का कहना है कि अगर कांग्रेस और बीजेपी में इस विधेयक के बारे में एक राय है तो वे बिना विप के बिल पास करवाकर दिखाएं? करीब एक दशक पहले नीतीश जब इसी मसले पर बनी संयुक्त संसदीय समिति के सदस्य थे तो उन्होंने बिल के मौजूदा स्वरूप पर असहमति जताई थी। लेकिन अब नीतीश का कहना है कि संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण लागू करने का समय आ गया है। हालांकि उन्होंने पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की अपनी मांग भी बरकरार रखी है। विधेयक पर वोटिंग के दौरान जेडीयू सांसदों का बंटना भी तय माना जा रहा है। जेडीयू के राज्यसभा में 7 और लोकसभा में 20 सदस्य हैं। बिल सोमवार को महिला दिवस पर राज्यसभा में पेश किया जाएगा।
संविधान संशोधन विधेयक होने के कारण महिला आरक्षण बिल का राज्यसभा और लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत से पास होना जरूरी है। इसके बाद, कम से कम आधी विधानसभाओं (15) से दो-तिहाई बहुमत से पास होने के बाद यह कानून बन सकेगा। इसमें हर 10 साल में सीटों का रोटेशन करने का प्रावधान है। इसके पॉजिटिव और नेगेटिव, दोनों पहलू हैं। पॉजिटिव यह कि कोई भी सदस्य अपने निर्वाचन क्षेत्र को अब बपौती नहीं समझ सकता। चुनावी राजनीति में व्यक्ति से ज्यादा राजनीतिक दल का महत्व बढ़ेगा। नेगेटिव पहलू यह है कि निर्वाचन क्षेत्र स्थायी न रहने से कुछ सांसदों की अपने क्षेत्र में लंबे समय के विकास में रुचि कम हो जाएगी।
महिला आरक्षण : कुछ अहम पड़ाव
12 सितंबर,1996 : तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार ने पहली बार महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण संबंधी विधेयक लोकसभा में पेश किया।
9 दिसंबर, 1996 : भाकपा की गीता मुखर्जी की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने महिला आरक्षण पर अपनी रिपोर्ट पेश की। विपक्षी दलों का समर्थन न मिलने की वजह से ११वीं लोकसभा में यह विधेयक पारित नहीं हो पाया।
दिसंबर 1998: 1998 में एनडीए सरकार के दौरान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने महिला आरक्षण से संबंधित विधेयक दोबारा पेश किया। नेताओं कीकम दिलचस्पी के कारण १२वीं लोकसभा में भी यह पारित नहीं हो पाया।
23 दिसंबर, 1999 : लोकसभा में विपक्षी सांसदों ने महिला विधेयक तत्कालीन कानून मंत्री राम जेठमलानी के हाथ से छीन लिया।
जून 2008 : राष्ट्रपति ने 15वीं लोकसभा के गठन पर अपने अभिभाषण में महिला आरक्षण पर मौजूदा यूपीए सरकार की प्रतिबद्धता का जिक्र किया।
फरवरी 2010: कैबिनेट ने नए संशोधन के साथ विधेयक को सहमति प्रदान की।
4 मार्च 2010: कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विधेयक पास करने का आह्वान किया।
8 मार्च 2010 : सरकार अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर इसे राज्यसभा में पुन: पेश करेगी।
राज्यसभा
कुल मौजूदा सदस्य: 233
दो-तिहाई: 155
सपोर्ट में: 164 (कांग्रेस 71, बीजेपी 45, लेफ्ट 22, अन्य 26)
जेडीयू के 7 सदस्यों में आमराय नहीं
लोकसभा
कुल मौजूदा सांसद: 544
दो-तिहाई: 363
सपोर्ट में: 410 (कांग्रेस व सहयोगी 244, बीजेपी 116, लेफ्ट 20, अन्य 30)
जेडीयू के 20 सदस्य विभाजित रहेंगे ।
राजनीति की बिसात और महिला आरक्षण बिल
13 साल तक ठंडे बस्ते में रहने के बाद अब महिला आरक्षण बिल के संसद में पास होने
की राह और आसान होती नजर आ रही है। कभी इस विधेयक की खिलाफत करने वाले जेडीयू नेता नीतीश कुमार भी अब सपोर्ट में आ गए हैं। नीतीश के इस कदम से विधेयक का विरोध कर रहे समाजवादी मूल के दलों को भारी झटका लगा है। उधर डीएमके, नैशनल कॉन्फ्रेंस, बीजेडी और अकाली दल ने भी इस विधेयक के समर्थन का ऐलान कर दिया है। इन तीनों के राज्यसभा में नौ एमपी हैं। हर तरफ से मिल रहे अच्छे संकेतों से उत्साहित प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण को एक पड़ाव भर बताते हुए हर क्षेत्र में महिला सशक्तीकरण को यूपीए सरकार का लक्ष्य बताया।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के शताब्दी वर्ष के मौके पर एक सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने कहा कि स्थानीय निकायों में महिला आरक्षण ने जमीनी स्तर पर शासन के स्वरूप को क्रांतिकारी तरीके से बदल दिया है। अब हम संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करने की दिशा में ठोस कदम बढ़ा रहे हैं। नीतीश द्वारा इस विधेयक का समर्थन करने के पीछे बिहार विधानसभा में होने वाले चुनाव को माना जा रहा है। लगता है, नीतीश अपनी सवर्ण विरोधी इमेज से छुटकारा चाहते हैं। यह बिल पास होने पर महिला आरक्षण के साथ पहला चुनाव बिहार में ही होगा। नीतीश के लिए यह बड़ी और नई परीक्षा होगी।
नीतीश का यह सपोर्ट उनकी पार्टी जेडीयू के अध्यक्ष शरद यादव के लिए तगड़े झटके जैसा है। शरद यादव का कहना है कि अगर कांग्रेस और बीजेपी में इस विधेयक के बारे में एक राय है तो वे बिना विप के बिल पास करवाकर दिखाएं? करीब एक दशक पहले नीतीश जब इसी मसले पर बनी संयुक्त संसदीय समिति के सदस्य थे तो उन्होंने बिल के मौजूदा स्वरूप पर असहमति जताई थी। लेकिन अब नीतीश का कहना है कि संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण लागू करने का समय आ गया है। हालांकि उन्होंने पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण की अपनी मांग भी बरकरार रखी है। विधेयक पर वोटिंग के दौरान जेडीयू सांसदों का बंटना भी तय माना जा रहा है। जेडीयू के राज्यसभा में 7 और लोकसभा में 20 सदस्य हैं। बिल सोमवार को महिला दिवस पर राज्यसभा में पेश किया जाएगा।
संविधान संशोधन विधेयक होने के कारण महिला आरक्षण बिल का राज्यसभा और लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत से पास होना जरूरी है। इसके बाद, कम से कम आधी विधानसभाओं (15) से दो-तिहाई बहुमत से पास होने के बाद यह कानून बन सकेगा। इसमें हर 10 साल में सीटों का रोटेशन करने का प्रावधान है। इसके पॉजिटिव और नेगेटिव, दोनों पहलू हैं। पॉजिटिव यह कि कोई भी सदस्य अपने निर्वाचन क्षेत्र को अब बपौती नहीं समझ सकता। चुनावी राजनीति में व्यक्ति से ज्यादा राजनीतिक दल का महत्व बढ़ेगा। नेगेटिव पहलू यह है कि निर्वाचन क्षेत्र स्थायी न रहने से कुछ सांसदों की अपने क्षेत्र में लंबे समय के विकास में रुचि कम हो जाएगी।
महिला आरक्षण : कुछ अहम पड़ाव
12 सितंबर,1996 : तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार ने पहली बार महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण संबंधी विधेयक लोकसभा में पेश किया।
9 दिसंबर, 1996 : भाकपा की गीता मुखर्जी की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने महिला आरक्षण पर अपनी रिपोर्ट पेश की। विपक्षी दलों का समर्थन न मिलने की वजह से ११वीं लोकसभा में यह विधेयक पारित नहीं हो पाया।
दिसंबर 1998: 1998 में एनडीए सरकार के दौरान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने महिला आरक्षण से संबंधित विधेयक दोबारा पेश किया। नेताओं कीकम दिलचस्पी के कारण १२वीं लोकसभा में भी यह पारित नहीं हो पाया।
23 दिसंबर, 1999 : लोकसभा में विपक्षी सांसदों ने महिला विधेयक तत्कालीन कानून मंत्री राम जेठमलानी के हाथ से छीन लिया।
जून 2008 : राष्ट्रपति ने 15वीं लोकसभा के गठन पर अपने अभिभाषण में महिला आरक्षण पर मौजूदा यूपीए सरकार की प्रतिबद्धता का जिक्र किया।
फरवरी 2010: कैबिनेट ने नए संशोधन के साथ विधेयक को सहमति प्रदान की।
4 मार्च 2010: कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विधेयक पास करने का आह्वान किया।
8 मार्च 2010 : सरकार अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर इसे राज्यसभा में पुन: पेश करेगी।
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