नक्सली आंदोलन के संस्थापकों में से एक कानू सान्याल का मंगलवार की दोपहर निधन हो गया है. पुलिस के अनुसार उन्होंने आत्महत्या की है.
हालांकि सीपीआई (एमएल) के सचिव सुब्रतो बसु ने बताया कि अभी तक पार्टी की ओर से उनकी आत्महत्या की पु्ष्टि नहीं की जा सकी है.
सुब्रतो बसु ने बताया, "पार्टी महासचिव कानू सान्याल का निधन मंगलवार को दोपहर एक बजे के आसपास सिलिगुड़ी के हातीशिला स्थित पार्टी कार्यालय में हुआ. इसे आत्महत्या कहना जल्दबाज़ी होगा. हम मौके पर पहुंचने के बाद ही इसकी पूरी तरह से पुष्टि कर सकेंगे. आत्महत्या की बात पर पूरी तरह से यकीन नहीं किया जा सकता है."
उन्होंने बताया कि 81 वर्षीय सान्याल को दो वर्ष पहले माइल्ड सेरीब्रल अटैक पड़ा था और तब से वे अस्वस्थ चल रहे थे. कुछ दिनों से वे बीमार भी थे और उन्होंने अस्पताल में भर्ती होने से इनकार कर दिया था। पार्टी की ओर से कोलकाता में जारी बयान में कहा गया है कि अस्वस्थता के बावजूद वो पार्टी की गतिविधियों में यथासंभव सक्रिय रहते थे. पार्टी ने उनके निधन को एक अपूर्णनीय क्षति बताया है.
पश्चिम बंगाल के पुलिस अधिकारी सुरजीत कर पुरकायस्थ ने बताया, ‘‘ नक्सलबाड़ी गांव में कानू का शव उनके घर में रस्सी से लटका हुआ पाया गया. यह आत्महत्या का मामला प्रतीत होता है.’’
माना जा रहा है कि नक्सल आंदोलन की दिशा में आए भटकाव से वो बेहद दुखी थे और कुंठा में जी रहे थे। इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस (नॉर्थ बंगाल) केएल तमता ने बताया कि उनके शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया है। काफी समय से वे नक्सली गतिविधियों में शामिल नहीं थे। वर्ष 2006 में सिंगूर आंदोलन में जरूर उनकी उपस्थिति दर्ज की गई थी।
कानू सान्याल भारत में नक्सलवादी आंदोलन के जनक कहे जाते हैं। उनका जन्म 1932 में हुआ था। दार्जीलिंग जिले के कर्सियांग में जन्में कानू सान्याल अपने पांच भाई बहनों में सबसे छोटे थे. पिता आनंद गोविंद सान्याल कर्सियांग के कोर्ट में पदस्थ थे। कानू सान्याल ने कर्सियांग के ही एमई स्कूल से 1946 में मैट्रिक की अपनी पढ़ाई पूरी की. बाद में इंटर की पढाई के लिए उन्होंने जलपाईगुड़ी कॉलेज में दाखिला लिया लेकिन पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी।
उसके बाद उन्हें दार्जीलिंग के ही कलिंगपोंग कोर्ट में राजस्व क्लर्क की नौकरी मिली. कुछ ही दिनों बाद बंगाल के मुख्यमंत्री विधान चंद्र राय को काला झंडा दिखाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में रहते हुए उनकी मुलाकात चारु मजुमदार से हुई। जब कानू सान्याल जेल से बाहर आए तो उन्होंने पूर्णकालिक कार्यकर्ता के बतौर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली. 1964 में पार्टी टूटने के बाद उन्होंने माकपा के साथ रहना पसंद किया। 1967 में कानू सान्याल ने दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी में सशस्त्र आंदोलन की अगुवाई की।
सान्याल ने 1969 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्किस्ट-लेनिन) की स्थापना की थी। सान्याल ने चारू मजूमदार के साथ मिलकर 25 मई 1967 से उत्तरी बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से नक्सली आंदोलन की शुरूआत की थी। उन्होंने पार्वतीपुरम नक्सली मामले में आंध्र प्रदेश की जेल में सात साल काटे। उन्हें इस मामले में सेशन जज ने दोषी ठहराया था। 1970 से 1977 तक वे जेल में रहे।
पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बासु ने कानू सान्याल की रिहाई में मुख्य भूमिका निभाई थी. ज्योति बासु मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के थे लेकिन फिर भी उन्होंने कानू को रिहा करवाया.आगे चलकर सान्याल ने हिंसा के रास्ते की आलोचना की और ओसीसीआर यानी ऑर्गेनाइज़िंग कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरी की स्थापना की.
अपने जीवन के लगभग 14 साल कानू सान्याल ने जेल में गुजारे. इन दिनों वे नक्सलबाड़ी से लगे हुए हाथीघिसा गांव में रह रहे थे। 78 वर्षीय इस अविवाहित नेता को देश में माओवादी संघर्ष को दिशा देने का श्रेय जाता है। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के इस संस्थापक को अपने बुढ़ापे में यह महसूस होने लगा था कि आतंकवाद की अराजकतावादी राह पर चलकर कोई लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता।
नक्सलवादी आंदोलन से दुखी हैं कानू सान्याल
बदल गया है नक्सलबाड़ी का चेहरा
नक्सली आंदोलन में कई अहम मोड़
चारु मजुमदार में उतावलापन था
यह नक्सलवाद नहीं, आतंकवाद है
4 comments:
जिस तरह नक्सलवादी आतंकवादी बन गये हैं, जन सामान्य की हत्या कर रहे हैं, अपने घर पैसों से भर रहे हैं एसे में कनु सान्याल के सामने इसके अलावा क्या विकल्प था...
ठीक कह रहे हैं। मगर इतने दृढ़ विचारों वाले कानू सान्याल का अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या करना समझ से परे है।
अफसोसजनक ....और क्या कर सकते थे..इन हालातों में...पर यकीन नही होता.
कानू सान्याल के सम्पूर्ण जीवन की सच्चाई यही है कि - "कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के इस संस्थापक को अपने बुढ़ापे में यह महसूस होने लगा था कि आतंकवाद की अराजकतावादी राह पर चलकर कोई लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता।"
उनकी यह सोच ही उन्हे एसा विचारक और क्रांतिकारी सिद्ध करती है जो दूरद्रष्टा तो था और अपनी गलतियों को स्वीकारने में भी दिलेर रहा। सोच जज्बे और अपने सिद्धांत के प्रति समर्पण के लिये उन्हे हमेशा याद किया जायेगा।
श्रद्धांजलि।
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