Monday, 8 March 2010

महिला आरक्षण विरोध की अबूझ पहेली

  महिला आरक्षण विधेयक कैसे मुसलमानों और दलितों के अधिकारों को छीनने की साजिश है, यह बात अब विरोध कर रही पार्टियों को अपने वोट बैंक को समझाना होगा। हालांकि जब संसद में सपा प्रमुख मुलायम यादव आज सुबह जा रहे थे तो प्रवेश द्वार के पास ही जमा पत्रकारों ने पूछा था कि- आप क्यों विरोध कर रहे हैं तो उनका जवाब था कि  संसद से लौटकर बताउंगा। जब संसद में विरोध करने के बाद बाहर आए तो पहले उन्हें दो टूक शब्दों में  वोट बैंक को समझाने की गरज से ही सही वह वजहें गिनानी चाहिए थी, जो विरोध का मूलाधार हैं। मगर ऐसा न करके सिर्फ यही कहा कि कांग्रेस व भाजपा मुसलमानों व दलितों के हितों की अनदेखी कर रहे हैं। इस विरोध में इतना जरूर कहा कि हम समर्थन वापस लेते हैं।
    अब दलित और मुसलिम महिलाएं कैसे मान लें कि महिला आरक्षण विधेयक उनके खिलाफ है। और अगर उन्हें समझाने में  नाकाम रहे तो तो इन्हें भी पता है कि विरोध की इस अबूझ पहेली का असर उनकी राजनीति पर अवश्य पड़ेगा। इस अबूझ पहेली का खामियाजा पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी वाममोर्चा भुगत चुका है। जब देश में तमाम सवाल ज्वलंत थे तब उनहोंने परमाणु करार जैसे अबूझ विरोध पर सपकार का दामन छोड़ा। जनता समझ नहीं सकी कि गरीबों के मुद्दे पर लड़ने वाली हमारी सरकार कहीं निवेश के लिए खूनखराबें में उलझी है तो कहीं परमाणु करार जैसे अबूझ मुद्दे पर। मुद्दे खराब नहीं थे मगर अपने लोगों को समझा नहीं पाए। अब यही सवाल मुलायम, लालू और शरद यादव तिकड़ी के सामने मुंह बाए खड़ा है। विरोध का जनमत जनता को समझने लायक ठोस तरकों से खड़ा न कर पाए तो पक्का हैं कि अनके पैरों के तले की न सिर्फ जमीन खिसकेगी बल्कि महिला आरक्षण बिल के खलनायक भी बन जाएंगे।

बिल का समर्थन कर रहे दल तो यह जंग आधा जीत चुके हैं। अब बिल रूक भी जाए ( जिसकी संभावना कम ही है ) तो कांग्रेस व भाजपा, नीतिश समेत समर्थक दलों को देश की महिलाओं की सहानुभूति तो मिलेगी ही। दरअसल यह विरोध उस दर्द का है जिसमें पुरुष सांसदों की दादागिरि छिनने वाली है। सामंती ठाटबाट भी छिन जाएगा। रही-सही कसर रोटोशन पूरा कर देगा। जनता के बीच से गायब कहे तो कोई पहचानने वाला भी नहीं रह जाएगा। यानी एक ऐसी प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी जिसमें अपने वजूद के लिए हमेशा मेहनत करते रहना पड़ेगा। क्यों कि आपकी सीट कल किसी महिला की हो जाएगी। तब कहीं और से जीतने के लिए ईमानदार व कामकरने वाले नेता की छवि होनी जरूरी होगी। और यह माहौल जनता व देश दोनों के लिए बेहतर होगा। एक और बात यह है कि मंहगाई के मुद्दे को जानबूझकर पीछे धकेल दिया गया है। और इस साजिश में विरोध कर रहे लोग भी शामिल हैं। जनता को जानबझकर उस मुद्दे से हटाकर इस अबूझ मुद्दे में फंसाया जा रहा है। यानी दोनो तरफ से खलनायक यादव तिकड़ी ही है। अच्छा तो यही होता कि बिल को आने देते और उसको संशोधन में रखकर फिर मंहगाई के मुद्दे को जिंदी रखते । मगर मंहगाई के मुद्दे को दबाने की साजिश में ये भी शामिल हैं। आइए समझने की कोशिश करते हैं कि कैसे विरोध खोखला साबित हो रहा है। और क्या है सच्चाई ?

क्या है सच्चाई ?

महिला आरक्षण विधेयक को लेकर संसद और संप्रग सरकार दोनों ने जहाँ इतिहास में अपनी जगह पक्की कर ली, वहीं सपा और राजद को भी जनता उनके विरोध के लिए याद रखेगी। हालाँकि इन दोनों ही दलों द्वारा इस विधेयक का विरोध कोई नई बात नहीं है। सन 1997 में पहली बार सदन के पटल पर रखे जाने के वक्त से ये पार्टियाँ इसकी मुखालफत कर रही हैं। ऐसे में उनका विधेयक के खिलाफ खड़े रहना किंचित भी विस्मयकारी नहीं है।

अहम सवाल यह है कि विधेयक को लेकर सपा और राजद का विरोध वास्तव में न्यायोचित और तर्कसंगत है? क्या एक-दूसरे को फूटी आँख भी न सुहाने वाले दो सियासी ध्रुव भाजपा और कांग्रेस इस विधेयक के जरिए मुस्लिम और अन्य पिछड़ा वर्ग की महिलाओं को संसद से दूर रखने की साजिश रच रहे हैं? (जैसा कि लालू और मुलायम ने कहा है)

क्या इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद उन सभी वर्गों की महिलाओं का अधिकार छिन जाएगा, जिनकी हिमायत लालू और मुलायम कर रहे हैं?

महिला विधेयक के मौजूदा स्वरूप में तो ऐसी कोई बात नजर नहीं आती। विधेयक समग्र रूप से लोकसभा और राज्य की विधायिकाओं में सभी महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का हक देता है। इसके सीधे मायने हैं कि सियासत में दखल रखने वाली हर महिला उक्त प्रावधान के अंतर्गत अपने अधिकार का इस्तेमाल कर सकती है।

इस तरह देखा जाए तो सरकार और उसका साथ (जो यकीनन काबिले तारीफ है) दे रहे भाजपा और वामपंथी दलों के खिलाफ सपा और राजद का कोई भी आरोप या इस विधेयक को लेकर नाराजगी कहीं ठहर नहीं पाती।

...क्योंकि विधेयक में स्पष्ट रूप से सभी महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। अब यह राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है कि वे किस जाति विशेष या समुदाय की महिलाओं को टिकट देते हैं। इसमें सरकार पर किसी तरह के पक्षपात का सवाल नहीं उठता।

तह तक जाएँ तो पूरा माजरा सिर्फ वोटों की राजनीति का है। जगजाहिर है कि समाजवादी पार्टी और राजद दोनों मुस्लिम और अन्य पिछड़ा वर्ग (यादव, लोधी) की सियासत करते हैं। इनका जनाधार भी इन्हीं दो समुदायों तक सिमटा हुआ है। बिहार में लालू हों या उत्तरप्रदेश में मुलायम, दोनों ही नेता इन्हीं वोटों के इर्द-गिर्द सियासी बिसात बिछाते हैं।
जहाँ तक मुलायम का सवाल है तो वे अमरसिंह के बॉलीवुड प्रेम और कल्याणसिंह की दोस्ती जैसे दो तूफानों से मची तबाही का दर्द भूले नहीं हैं। उपचुनाव में हुई बहू डिंपल यादव की हार ने उन्हें भलीभाँति यह आभास करा दिया है कि समाजवाद छोड़ पूँजीवादी चोगा ओढ़ने और कल्याण से मित्रता गाँठने की कितनी महँगी कीमत उन्होंने चुकाई है।



लोकसभा में केवल (चार सांसद) बुरी तरह मुँह की खाने वाले लालू यादव के लिए भी अब इन्हीं वोट बैंकों का सहारा रह गया है। वैसे भी राहुल गाँधी से 'नेक नीयत' का तमगा हासिल करने वाले नीतीशकुमार के खिलाफ लालू अब तक बिहार में अपनी जमीन खोते ही आए हैं।

सपा और राजद की महिला विधेयक के खिलाफ आलोचना का इसलिए भी कोई महत्व नहीं है, क्योंकि सरकार खुद यह आश्वासन दे चुकी है कि एक बार विधेयक पारित हो जाने दो, इसके अंतर्गत क्या हो सकता है उस पर बाद में विचार कर लेंगे।

सरकार ने यहाँ तक कहा है कि विधेयक के कानून बनने के बाद राज्य सरकारें अपने तईं अलग से कोटे का प्रावधान कर सकती हैं। इसमें कहीं कुछ भी गलत नहीं है।

बहरहाल, महिला विधेयक को लेकर राजद और सपा के इस विरोध में अव्वल तो दम नहीं है। अगर है भी तो सिर्फ इतना कि इसे जरिया बनाकर वे केवल अपने दूर छिटक गए वोटों को दोबारा कबाड़ना चाहते हैं।

No comments:

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...