Tuesday, 24 August 2010
कलाई पर राखी के बदले मौत मिली इस बदनसीब भाई को !
राखी का पर्व हर भाई-बहने के लिए अहम होता है। बहने उम्मीद करती हैं कि उसका भाई कम से कम राखी बंधवाने तो जरूर ही आएगा। मगर यह नसीब की ही बात है कि किसी को यह पर्व तमाम खुशियां लेकर आता है तो किसी भाई-बहन को यह खुशी नसीब तो होती नहीं उल्टे नियति उन्हें गम के अंधेरे में धकेल देती है। आप राखी की खुशिया मना रहे हैं तो एक कष्ट और करिए। एक उस भाई के लिए अपनी आंखों में दो बूंद आंसू भर लीजिए जिसे अपनी कलाई पर राखी तो नसीब नहीं हुई, बदले में मौत मिली। वह सिर्फ इस कारण कि वह अपनी राखी बंधवाने कोलकाता से अपने गांव बिहार जाना चाहता था मगर उसके दुकान मालिक ने पीटकर मार डाला।
राखी उत्सव के मौके पर बहन से राखी बंधवाने के लिए एक पान की दुकान में काम करने वाला विक्रम घर जाना चाहता था। दुकान का मालिक उसके छुट्टी देने के लिए तैयार नहीं था। उसने छुट्टी की बात सुन कर किशोर को जमकर पीटा। इससे चौदह वर्षीय किशोर की मौत हो गई। पश्चिम बंगाल के हावड़ा स्टेशन के पास गोलाबाड़ी थाना इलाके में 56 नंबर बस स्टैंड के नजदीक यह घटना हुई। यहां बबलू चौरसिया की पान की दुकान में विक्रम राम (14) काम करता था। उसने बिहार स्थित अपने गांव जाने के लिए छुट्टी मांगी थी। बीते तीन महीनों से विक्रम को छुट्टी नहीं दी गई थी। रविवार की रात से ही वह राखी के लिए गांव जाने की जिद कर रहा था। मकान मालिक ने उसकी लाख मिन्नतों के बादजूद छुट्टी देने से साफ मना कर दिया। पुलिस व स्थानीय लोगों की मानें तो विक्रम ने यह तय कर लिया था कि मालिक उसे छुट्टी नहीं देगा तो वह बहन से राखी बंधवाने के लिए नौकरी छोड़ देगा। एक मामूली नौकर यह इस हिमाकत बबलू चौरसिया से बर्दाश्त नहीं हुई। नौकरी छोड़कर घर जाने की खबर मिलते ही चौरसिया ने उसे जमकर पीटना शुरू कर दिया। मार खाकर किशोर बेहोश होकर वहीं गिर गया।
स्थानीय लोगों ने देखा कि विक्रम खून से लथपथ है और उलटी कर रहा है। वह एक दुकान के सामने पड़ा था। इसके कुछ ही देर बाद वह बेहोश हो गया। बेहोशी की हालत में उसे स्थानीय लोग हावड़ा के सदर अस्पताल ले गए जहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। तीन महीने से वह पान की दुकान पर काम करता था। पुलिस ने बबलू को गिरफ्तार कर लिया है। पुलिस सूत्रों का कहना है कि चौरसिया दुकान पर काम करने वाले बच्चों को पीटता रहता था। हावड़ा के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक एसके जैन ने बताया कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट मिलने के बाद मौत का कारण पता चल सकेगा। गिरफ्तारी के बाद दुकान के मालिक ने पुलिस को बताया कि उसने पिटाई नहीं की। किशोर बीमार था, हालत बिगड़ने के बाद उसे अस्पताल में भर्ती किया गया था। और वहीं उसकी मौत हो गई।
कोलकाता के स्थानीय सांध्य बांग्ला अखबारों ने यह खबर छापी है। मामला पुलिस के हवाले है। हो सकता है दुकानदार दोषी पाया जाए और उसे हवालात की हवा खानी पड़े मगर इससे क्या उस बहन कोई दिलासा मिल पाएगी जिसका भाई अब कभी भी राखी बंधवाने नही आ सकेगा। क्या बीती होगी उस बहन और विक्रम के मां-बाप पर जब उन्हें इस मार्मिक हादसे की खबर मिली होगी । यह सिर्फ विक्रम की कहानी नहीं है। बिहार के गरीब घरों के लड़के पश्चिम बंगाल ही नहीं दिल्ली, मुंबई व पंजाब और गुजरात में काम पर जाते हैं और वहीं फंसकर रह जाते हैं। अधिकतर का जीवन तो नारकीय हो जाता है।
हमारे सांसद अपने वेतन पर तो इतना होहल्ला मचाते हैं। चार दिन तक कैबिनेट को इसे राष्ट्रीय संकट जैसे मसले की तरह हल करना पड़ा। क्या हमारे जनप्रतिनिधि देश की ऐसी तमाम समस्याओं से जूझ रही देश की मजबूर और गरीब जनता की खोजखबर लेकर उनके लिए होहल्ला मचाते हैं ? शायद कम ही। तब तो मेरा दावा है कि इस देश के गरीब ऐसे ही मुफलिसी और गुलामी में पिसते रहेंगे। जागो भारत, जागो।
Saturday, 21 August 2010
परमाणु दायित्व विधेयक विरोध के नाटक का पटाक्षेप कर अपने वेतन के लिए हंगामा करते रहे सांसद
१८ अगस्त को मैंने इसी ब्लाग में लिखा था कि संसद में विरोध का नाटक हो रहा है। ( देखिए- कहीं यह विरोध का नाटक जनता को फिर निराश न कर दे ) उस नाटक का आज चरमोत्कर्ष संसद में दिखा। दरअसल आज संसद में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक तो सासंदों का वेतन बढ़ाया गया और दूसरी तरफ परमाणु दायित्व विधेयक में संशोधन को हरी झंडी दिखाई गई। अब परमाणु दायित्व विधेयक के कानून बन जाने की बाधा भी खत्म हो गई है।इस बार संसद को ठप कर देने वाला हंगामा सांसदों के वेतन के मुद्दे पर हुआ। मगर परमाणु दायित्व विधेयक पर विरोध एक उपबंध में एंड शब्द के हटाने तक सीमित रहा। वह विरोध भी सिर्फ वामपंथी व भाजपा सासंदों ने किया। यानी कल तक मोदी को क्लीनचिट देने का आरोप लगाकर इस बिल के मसौदे को पारित कराने में भाजपा और कांग्रेस की सौदेबाजी बताने वाले सांसद ( लालू, मुलायम वगैरह ) आज संसद में सिर्फ अपने वेतन पर ही चिंतित दिखे।
१८ अगस्त को मैंने इसी ब्लाग में विरोध का नाटक लेख में यह बात कहकर यह स्पष्ट करने की कोशिश की थी कि इन दलों ने परमाणु दायित्व विधेयक को गलत तो बताया मगर देश के सामने वह ठोस तर्क नहीं रखे जिसके कारण जनता को समझ में आए कि यह देश के लिए खतरनाक विधेयक है। फिर भी संसद को १८ अगस्त को तीव्र विरोध करके चलने नहीं दिया। आज जब उसमें संशोधन को मंजूरी दी गई तो इन सांसदों को देश और खुद के हित में से अपना हित जरूरी लगा। लगना भी चाहिए मगर जिस मुद्दे को देशहित का मानते हैं उस मुद्दे पर संसद और देश की जनता को गुमराह क्यों किया ? कायदे से आज जब संशोधन विधेयक को मंजूरी दी जा रही थी तब परमाणु दायित्व विधेयक का विरोध कर रहे दलों को फिर सदन नहीं चलने देना चाहिए था या फिर सदन से उठकर चले जाना चाहिए था। सरकार को यह जताना जरूरी था कि- जब आप विपक्ष की बात नहीं सुनेंगे तो हम सदन में बैठकर क्या करेंगे ? वैसे भी इन सांसदों ने और भी दूसरी नौटंकी की। समानांतर सरकार का स्वांग रचा। जब ऐसा कर रहे थे तब पत्रकारों को सदन से हटा दिया ।यानी जनप्रतिनिधि होने का दायित्व तो निभाया नहीं उल्टे जनता को गुमराह किया ? अब इनकी मंशा पर कौन सवाल उठाएगा। एक उदाहरण के तौर पर लें तो पत्रकारों के वेतन के लिए गठित वेतन आयोग तो वेतन में किसी सुधार की सिफारिश देने में वर्षों लगा देता है और उसको लागू होने तक इन सिफारिशों के कोई मायने नहीं रह जाते। यहां बिना किसा आयोग के सांसदों ने महज दो दिन में अपनी तनख्वाह बढ़वा ली। मीडिया का तो जानबूझकर उदाहरण दिया क्यों कि वेतन संस्तुति का यह भी एक मामला है। अगर वेतन का ही मामला संसद में मुद्दा बनता था तो सांसदों को अपने साथ उदाहरण में मीडिया समेत तमाम वेतनमानों की लटकी संस्तुतियों का मामला भी उठाना चाहिए था।
सासंदजी अगर वेतन की गुहार लगाकर आप जनसेवक जनप्रतिनिधि कहला सकते हैं तो देश के बाकी वेतनभोगी क्यों नहीं ? जरूरतें बड़ी हों या छोटी, जरूरतें तो सभी को बेहाल कर रही हैं। क्या इस मुद्दे पर बाकी लोगों के लिए आप जनप्रतिनिधि नहीं हैं ? आपके संसद में कुछ भी कहने या करने की तार्किकता की कसौटी जो भी हो मगर सिर्फ स्वकेंद्रित तो नहीं ही होनी चाहिए।अगर इस वेतनमान को अमेरिकी सांसदों के वेतन की तुलना में नहीं के बराबर मानते हैं तो मीडिया समेत बाकी के बारे में भी तो सोचिए। बहरहाल कैबिनेट ने आप सांसदों की सैलरी में बढ़ोतरी को भी मंजूरी दे दी है। यह 300% की बढ़ोतरी हुई है। यानी सांसदों का वेतन 16 हजार रुपये से बढ़ाकर 50 हजार रुपये कर दिया है फिर भी मांग है कि इसे 80 हजार किया जाए। अब आप ही अपने तार्किक विरोध को कितना तार्किक मान सकते हां जबकि आज ही कैबिनेट ने उस न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल को भी अपनी मंजूरी दे दी । जिसको आप बेहद खतरनाक बता रहे थे। बीजेपी की आपत्ति पर न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल में कुछ संशोधन किया गया। कैबिनेट ने शुक्रवार को विवादास्पद परमाणु दायित्व विधेयक के मसौदे को मंजूरी दे दी जिसमें विपक्षी दलों की चिंताओं को दूर करने वाले प्रावधानों को शामिल करने का प्रयास किया गया है। इससे अब संसद के मौजूदा सत्र में ही इस विधेयक के पारित हो जाने का रास्ता साफ हो गया है।
एंड शब्द का टोटका
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में दो उपबंधों को जोड़ने के लिए अंतिम समय में इस्तेमाल एंड शब्द को वाम दलों और भाजपा की आपत्ति के बाद निकाल दिया गया है। विधेयक पर आम सहमति निर्मित करने की संभावनाओं को तब झटका लगा जब वाम दलों ने 'एंड' का जिक्र होने के मुद्दे पर सरकार की आलोचना की। वाम दलों का दावा है कि दो उपबंधों के बीच शब्द एंड का जिक्र होने से हादसा होने की स्थिति में परमाणु उपकरण के विदेशी आपूर्तिकर्ताओं का दायित्व कुछ कम हो जाता है। भाजपा ने भी वाम दलों की ही तरह यह मुद्दा सरकार के समक्ष उठाया। विपक्षी दलों को आशंका थी कि इस शब्द के इस्तेमाल से परमाणु उपकरण के विदेशी आपूर्तिकर्ताओं का दायित्व कुछ कम हो जाएगा।
बढ़ी सैलरी से नाखुश सांसदों का हंगामा.और ज्यादा वेतन की मांग
सांसदों की वेतन वृद्धि के मुद्दे पर जब सदन में "सांसदों का अपमान बंद करो" और "संसदीय समिति की रिपोर्ट को लागू करो" जैसे नारे गूंजने लगे तो स्पीकर मीरा कुमार को सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी. समाजवादी पार्टी, बीएसपी, जेडी (यू), शिवसेना और अकाली दल के सदस्यों ने संसद में हंगामा किया। आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव और समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव समेत कई सदस्यों ने इस पर संसद में जमकर हंगामा किया। इससे लोकसभा की कार्यवाही दोपहर तक स्थगित करनी पड़ी। इसके बाद लालू - मुलायम दोबारा सैलरी में बढ़ोतरी को लेकर संसद में धरने पर बैठ गए।
हंगामे के कारण पहली बार संसद को दोपहर तक के लिए स्थगित किया गया. प्रश्नकाल के दौरान सासंद अपनी सीटों से उठ कर कहने लगे कि सरकार ने सांसदों का अपमान किया है क्योंकि संसदीय समिति की रिपोर्ट में उनके वेतन को बढ़ाकर 80.001 रुपये प्रति महीने करने की सिफारिश है। यानी सरकारी अधिकारियों को मिलने वाले वेतन से एक रुपया ज्यादा. सांसद चाहते हैं कि सरकार इस रिपोर्ट की सिफारिश के आधार पर ही उनका वेतन बढ़ाए। इससे पहले शुक्रवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उस विधेयक को पारित कर दिया, जिसमें सांसदों के मूल भत्ते को 16 हजार रुपये से बढ़ाकर 50 हजार रुपये करने का प्रावधान है।
कई सरकारी अफसरों के वेतन के मुकाबले सांसदों को मिलने वाले 16 हजार रुपये काफी कम हैं। इससे भारत के विभिन्न राजकीय अंगों, मसलन पुलिस सेवा में वेतन की संरचना के सिलसिले में कई बुनियादी सवाल उभरते हैं। यह भी कि वेतन संरचना के साथ भ्रष्टाचार का क्या संबंध है. दूसरी ओर, एकबारगी 300 फीसदी की वृद्धि की आलोचना भी बेमानी नहीं है। कई हलकों में यह भी पूछा जा रहा है कि अन्य क्षेत्रों की तरह क्या सांसदों के भत्ते में भी नियमित वृद्धि नहीं हो सकती है।
इस वृद्धि के लिए सरकार को 1 अरब 42 करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने पड़ेंगे. बहरहाल, महंगाई भत्ता बढ़ाने और उनके लिए प्रति वर्ष मुफ़्त हवाई उड़ानों की संख्या 35 से बढ़ाकर 50 करने की मांग को ठुकरा दिया गया है। सांसदों के भत्ते के सवाल पर बने पैनल ने सांसदों के कार्यालय संबंधी खर्चों के लिए भत्ते को 14 हजार रुपये से बढ़ाकर 44 हजार करने का सुझाव दिया था। सरकार ने फिलहाल इसे 20 हजार करने का निर्णय लिया है। मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों ने इस विधेयक पर आपत्ति जताई थी। लोकसभा में राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी सहित विपक्ष के कुछ सदस्यों ने काफ़ी शोरगुल किया था। सिर्फ़ वामपंथी दल सांसदों के भत्ते में वृद्धि का विरोध कर रहे हैं।
१८ अगस्त को मैंने इसी ब्लाग में विरोध का नाटक लेख में यह बात कहकर यह स्पष्ट करने की कोशिश की थी कि इन दलों ने परमाणु दायित्व विधेयक को गलत तो बताया मगर देश के सामने वह ठोस तर्क नहीं रखे जिसके कारण जनता को समझ में आए कि यह देश के लिए खतरनाक विधेयक है। फिर भी संसद को १८ अगस्त को तीव्र विरोध करके चलने नहीं दिया। आज जब उसमें संशोधन को मंजूरी दी गई तो इन सांसदों को देश और खुद के हित में से अपना हित जरूरी लगा। लगना भी चाहिए मगर जिस मुद्दे को देशहित का मानते हैं उस मुद्दे पर संसद और देश की जनता को गुमराह क्यों किया ? कायदे से आज जब संशोधन विधेयक को मंजूरी दी जा रही थी तब परमाणु दायित्व विधेयक का विरोध कर रहे दलों को फिर सदन नहीं चलने देना चाहिए था या फिर सदन से उठकर चले जाना चाहिए था। सरकार को यह जताना जरूरी था कि- जब आप विपक्ष की बात नहीं सुनेंगे तो हम सदन में बैठकर क्या करेंगे ? वैसे भी इन सांसदों ने और भी दूसरी नौटंकी की। समानांतर सरकार का स्वांग रचा। जब ऐसा कर रहे थे तब पत्रकारों को सदन से हटा दिया ।यानी जनप्रतिनिधि होने का दायित्व तो निभाया नहीं उल्टे जनता को गुमराह किया ? अब इनकी मंशा पर कौन सवाल उठाएगा। एक उदाहरण के तौर पर लें तो पत्रकारों के वेतन के लिए गठित वेतन आयोग तो वेतन में किसी सुधार की सिफारिश देने में वर्षों लगा देता है और उसको लागू होने तक इन सिफारिशों के कोई मायने नहीं रह जाते। यहां बिना किसा आयोग के सांसदों ने महज दो दिन में अपनी तनख्वाह बढ़वा ली। मीडिया का तो जानबूझकर उदाहरण दिया क्यों कि वेतन संस्तुति का यह भी एक मामला है। अगर वेतन का ही मामला संसद में मुद्दा बनता था तो सांसदों को अपने साथ उदाहरण में मीडिया समेत तमाम वेतनमानों की लटकी संस्तुतियों का मामला भी उठाना चाहिए था।
सासंदजी अगर वेतन की गुहार लगाकर आप जनसेवक जनप्रतिनिधि कहला सकते हैं तो देश के बाकी वेतनभोगी क्यों नहीं ? जरूरतें बड़ी हों या छोटी, जरूरतें तो सभी को बेहाल कर रही हैं। क्या इस मुद्दे पर बाकी लोगों के लिए आप जनप्रतिनिधि नहीं हैं ? आपके संसद में कुछ भी कहने या करने की तार्किकता की कसौटी जो भी हो मगर सिर्फ स्वकेंद्रित तो नहीं ही होनी चाहिए।अगर इस वेतनमान को अमेरिकी सांसदों के वेतन की तुलना में नहीं के बराबर मानते हैं तो मीडिया समेत बाकी के बारे में भी तो सोचिए। बहरहाल कैबिनेट ने आप सांसदों की सैलरी में बढ़ोतरी को भी मंजूरी दे दी है। यह 300% की बढ़ोतरी हुई है। यानी सांसदों का वेतन 16 हजार रुपये से बढ़ाकर 50 हजार रुपये कर दिया है फिर भी मांग है कि इसे 80 हजार किया जाए। अब आप ही अपने तार्किक विरोध को कितना तार्किक मान सकते हां जबकि आज ही कैबिनेट ने उस न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल को भी अपनी मंजूरी दे दी । जिसको आप बेहद खतरनाक बता रहे थे। बीजेपी की आपत्ति पर न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल में कुछ संशोधन किया गया। कैबिनेट ने शुक्रवार को विवादास्पद परमाणु दायित्व विधेयक के मसौदे को मंजूरी दे दी जिसमें विपक्षी दलों की चिंताओं को दूर करने वाले प्रावधानों को शामिल करने का प्रयास किया गया है। इससे अब संसद के मौजूदा सत्र में ही इस विधेयक के पारित हो जाने का रास्ता साफ हो गया है।
एंड शब्द का टोटका
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में दो उपबंधों को जोड़ने के लिए अंतिम समय में इस्तेमाल एंड शब्द को वाम दलों और भाजपा की आपत्ति के बाद निकाल दिया गया है। विधेयक पर आम सहमति निर्मित करने की संभावनाओं को तब झटका लगा जब वाम दलों ने 'एंड' का जिक्र होने के मुद्दे पर सरकार की आलोचना की। वाम दलों का दावा है कि दो उपबंधों के बीच शब्द एंड का जिक्र होने से हादसा होने की स्थिति में परमाणु उपकरण के विदेशी आपूर्तिकर्ताओं का दायित्व कुछ कम हो जाता है। भाजपा ने भी वाम दलों की ही तरह यह मुद्दा सरकार के समक्ष उठाया। विपक्षी दलों को आशंका थी कि इस शब्द के इस्तेमाल से परमाणु उपकरण के विदेशी आपूर्तिकर्ताओं का दायित्व कुछ कम हो जाएगा।
बढ़ी सैलरी से नाखुश सांसदों का हंगामा.और ज्यादा वेतन की मांग
सांसदों की वेतन वृद्धि के मुद्दे पर जब सदन में "सांसदों का अपमान बंद करो" और "संसदीय समिति की रिपोर्ट को लागू करो" जैसे नारे गूंजने लगे तो स्पीकर मीरा कुमार को सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी. समाजवादी पार्टी, बीएसपी, जेडी (यू), शिवसेना और अकाली दल के सदस्यों ने संसद में हंगामा किया। आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव और समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव समेत कई सदस्यों ने इस पर संसद में जमकर हंगामा किया। इससे लोकसभा की कार्यवाही दोपहर तक स्थगित करनी पड़ी। इसके बाद लालू - मुलायम दोबारा सैलरी में बढ़ोतरी को लेकर संसद में धरने पर बैठ गए।
हंगामे के कारण पहली बार संसद को दोपहर तक के लिए स्थगित किया गया. प्रश्नकाल के दौरान सासंद अपनी सीटों से उठ कर कहने लगे कि सरकार ने सांसदों का अपमान किया है क्योंकि संसदीय समिति की रिपोर्ट में उनके वेतन को बढ़ाकर 80.001 रुपये प्रति महीने करने की सिफारिश है। यानी सरकारी अधिकारियों को मिलने वाले वेतन से एक रुपया ज्यादा. सांसद चाहते हैं कि सरकार इस रिपोर्ट की सिफारिश के आधार पर ही उनका वेतन बढ़ाए। इससे पहले शुक्रवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उस विधेयक को पारित कर दिया, जिसमें सांसदों के मूल भत्ते को 16 हजार रुपये से बढ़ाकर 50 हजार रुपये करने का प्रावधान है।
कई सरकारी अफसरों के वेतन के मुकाबले सांसदों को मिलने वाले 16 हजार रुपये काफी कम हैं। इससे भारत के विभिन्न राजकीय अंगों, मसलन पुलिस सेवा में वेतन की संरचना के सिलसिले में कई बुनियादी सवाल उभरते हैं। यह भी कि वेतन संरचना के साथ भ्रष्टाचार का क्या संबंध है. दूसरी ओर, एकबारगी 300 फीसदी की वृद्धि की आलोचना भी बेमानी नहीं है। कई हलकों में यह भी पूछा जा रहा है कि अन्य क्षेत्रों की तरह क्या सांसदों के भत्ते में भी नियमित वृद्धि नहीं हो सकती है।
इस वृद्धि के लिए सरकार को 1 अरब 42 करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने पड़ेंगे. बहरहाल, महंगाई भत्ता बढ़ाने और उनके लिए प्रति वर्ष मुफ़्त हवाई उड़ानों की संख्या 35 से बढ़ाकर 50 करने की मांग को ठुकरा दिया गया है। सांसदों के भत्ते के सवाल पर बने पैनल ने सांसदों के कार्यालय संबंधी खर्चों के लिए भत्ते को 14 हजार रुपये से बढ़ाकर 44 हजार करने का सुझाव दिया था। सरकार ने फिलहाल इसे 20 हजार करने का निर्णय लिया है। मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों ने इस विधेयक पर आपत्ति जताई थी। लोकसभा में राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी सहित विपक्ष के कुछ सदस्यों ने काफ़ी शोरगुल किया था। सिर्फ़ वामपंथी दल सांसदों के भत्ते में वृद्धि का विरोध कर रहे हैं।
Wednesday, 18 August 2010
यह विरोध का नाटक कहीं जनता को निराश न कर दे ?
ठोस विरोध या तकनीकी तौरपर किसी जनहित के मुद्दे पर तार्किकता के अभाव में परमाणु दायित्व विधेयक अमलीजामा पहनाने की यूपीए सरकार की रणनीति सफल हो गई है। अब भाजपा समेत तमाम दलों के तैयार हो जाने से इस विधेयक के पास हो जाने का रास्ता साफ हो गया है। यह वहीं विधेयक है जिसके मुद्दे पर वामपंथी दलों ने केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। आज भी लालू, मुलायम समेत वामपंथी दलों के सांसद हंगामा किए और संसद नहीं चलने दी। क्या इसे विरोध का सिर्फ नाटक समझा जाना चाहिए ? जनता को समझने लायक तर्क चाहिए। इसी तर्क के अभाव में पश्चिम बंगाल में जनता को वाममोर्चा यह समझा नहीं पाई कि इस परमाणु विधेयक से जनता को क्या नुकसान हैं ? नतीजा यह कि बंगाल की जनता के बीच यह चुनावी मुद्दा तक नहीं बन सका और संसदीय चुनावों में वाममोर्चा को करारा झटका लगा।
पहले संसद में महिला विधेयक पर कुतर्क का हंगामा और इसके बाद बुधवार ( 18 अगस्त ) को परमाणु विधेयक पर जनता के समझ में आने लायक किसी ठोस दलील के अभाव में विरोध की सारी रणनीति के फेल हो जाने को किस नजरिए से देखा जाना चाहिए ? इसमें किसी दल को राजनीतिक फायदा हुआ तो किसी को नुकसान मगर देश की जनता सिर्फ गुमराह होती रही। बिहार और बंगाल को विधानसभा चुनाव सामने हैं। अगर ऐसे मौकों पर जनता को उसके हक की बात बतानें में विरोध कर रहे लोग नाकाम रहे तो इसके मतलब भी साफ हैं। या तो यह विरोध का नाटक है और देश की जनता को गुमराह किया जा रहा है या फिर यह विरोध के लायक कारगर व जनता के समझ में आने लायक मुद्दा ही नहीं ढूंढ पाए विरोध करने वाले। इसमें मुझे नाटक वाली बात ज्यादा सही लगती है। नेता या राजनैतिक दल भले कुछ कहें पर इस पूरे नाटक को टीवी और समाचार माध्यमों से अवगत होने वाली जनता भी अपने हित खोजती है। और वह जब निराश होती है तो बड़ी से बड़ी सत्ता को भी बिखरने में देर नहीं लगती। देखिए कहीं यह परमाणु विधेयक के विरोध का नाटक भी जनता को निराश न कर दे। अगर ऐसा होगा तो इस निराश जनता से क्या कहकर वोट मांगने जाएंगे ? और यह भी सच है कि विरोध में आपकी हार उस जनता को निराश तो करेगी ही जो आपसे बड़ी उम्मीद लगाए बैठी है। संभल जाइए, क्यों कि सामने अब किसानों का भी मुद्दा है। अपने वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर जो एकजुटता संसद में दिखा रहे हैं वही देशहित में भी दिखाइए। आइए अब समझने की कोशिश करते हैं कि परमाणु दायित्व विधेयक क्या है ? और विरोध के मुद्दे क्या हैं ?
परमाणु दायित्व विधेयक -2010
परमाणु दायित्व विधेयक -2010 ऐसा क़ानून बनाने का रास्ता है जिससे किसी भी असैन्य परमाणु संयंत्र में दुर्घटना होने की स्थिति में संयंत्र के संचालक का उत्तरदायित्व तय किया जा सके. इस क़ानून के ज़रिए दुर्घटना से प्रभावित लोगों को क्षतिपूर्ति या मुआवज़ा मिल सकेगा। अमरीका और भारत के बीच अक्तूबर 2008 में असैन्य परमाणु समझौता पूरा हुआ। इस समझौते को ऐतिहासिक कहा गया था क्योंकि इससे परमाणु तकनीक के आदान-प्रदान में भारत का तीन दशक से चला आ रहा कूटनीतिक वनवास ख़त्म होना था। इस समझौते के बाद अमरीका और अन्य परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों से भारत को तकनीक और परमाणु सामग्री की आपूर्ति तब शुरु हो सकेगी जब वह परमाणु दायित्व विधेयक के ज़रिए एक क़ानून बना लेगा। इस विधेयक के आरंभिक प्रारुप में प्रावधान किया गया है कि क्षतिपूर्ति या मुआवज़े के दावों के भुगतान के लिए परमाणु क्षति दावा आयोग का गठन किया जाएगा। विशेष क्षेत्रों के लिए एक या अधिक दावा आयुक्तों की नियुक्ति की जा सकती है। इन दावा आयुक्तों के पास दीवानी अदालतों के अधिकार होंगे।
क्या है विवाद?
इस विधेयक पर विपक्षी दलों ने कई आपत्तियाँ दर्ज की थीं जिसके बाद इसे सरकार ने टाल दिया था और इसे संसद की स्थाई समिति को भेज दिया गया था. अब स्थाई समिति ने अपनी सिफ़ारिशें संसद को दे दी हैं। एक विवाद मुआवज़े की राशि को लेकर था. पहले इसके लिए विधेयक में संचालक को अधिकतम 500 करोड़ रुपयों का मुआवज़ा देने का प्रावधान था लेकिन भारतीय जनता पार्टी की आपत्ति के बाद सरकार ने इसे तीन गुना करके 1500 करोड़ रुपए करने को मंज़ूरी दे दी है। कहा गया है कि सरकार ने कहा है कि वह समय समय पर इस राशि की समीक्षा करेगी और इस तरह से मुआवज़े की कोई अधिकतम सीमा स्थाई रुप से तय नहीं होगी. दूसरा विवाद मुआवज़े के लिए दावा करने की समय सीमा को लेकर था. अब सरकार ने दावा करने की समय सीमा को 10 वर्षों से बढ़ाकर 20 वर्ष करने का निर्णय लिया है। तीसरा विवाद असैन्य परमाणु क्षेत्र में निजी कंपनियों को प्रवेश देने को लेकर था. कहा जा रहा है कि सरकार ने अब यह मान लिया है कि फ़िलहाल असैन्य परमाणु क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए नहीं खोला जाएगा और सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम ही इस क्षेत्र में कार्य करेंगे। विवाद का चौथा विषय परमाणु आपूर्तिकर्ताओं को परिवहन के दौरान या इसके बाद होने वाली दुर्घटनाओं को लिए जवाबदेह ठहराने को लेकर है। विधेयक का जो प्रारूप है वह आपूर्तिकर्ताओं को जवाबदेह नहीं ठहराता. आख़िरी विवाद का विषय अंतरराष्ट्रीय संधि, कन्वेंशन फॉर सप्लीमेंटरी कंपनसेशन (सीएससी) पर हस्ताक्षर करने को लेकर है. यूपीए सरकार ने अमरीका को पहले ही यह आश्वासन दे दिया है कि वह इस संधि पर हस्ताक्षर करेगा लेकिन वामपंथी दल इसका विरोध कर रहे हैं।
क्या है सीएमसी पर हस्ताक्षर करने का मतलब
सीएमसी एक अंतरराष्ट्रीय संधि है जिस पर हस्ताक्षर करने का मतलब यह होगा कि किसी भी दुर्घटना की स्थिति में दावाकर्ता सिर्फ़ अपने देश में मुआवज़े का मुक़दमा कर सकेगा। यानी किसी दुर्घटना की स्थिति में दावाकर्ता को किसी अन्य देश की अदालत में जाने का अधिकार नहीं होगा. वैसे यह संधि थोड़ी विवादास्पद है, क्योंकि इसमें जो प्रावधान हैं, उसकी कोई कानूनी अनिवार्यता नहीं है. उल्लेखनीय है कि सीएसई पर वर्ष 1997 में हस्ताक्षर हुए हैं लेकिन दस साल से भी अधिक समय बीत जाने के बाद इस पर अब तक अमल नहीं हो पाया है।
क्या इसकी कोई समय सीमा है?
यह भारत का अंदरूनी मामला है कि वह परमाणु दायित्व विधेयक को कब संसद से पारित करता है और कब इसे क़ानून का रुप दिया जा सकेगा। लेकिन यह तय है कि असैन्य परमाणु समझौते के तहत परमाणु तकनीक और सामग्री मिलना तभी शुरु हो सकेगा जब यह क़ानून लागू हो जाएगा। लेकिन ऐसा दिखता है कि भारत सरकार नवंबर से पहले इसे क़ानून का रुप देना चाहती ताकि जब अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत के दौरे पर आएँ तो भारत पूरी तरह से तैयार रहे।
परमाणु संयंत्रों से निजी कंपनियों को दूर रखने की सिफारिश
परमाणु दायित्व विधेयक पर संसद की स्थाई समिति ने दुर्घटना की स्थिति में मुआवजे की सीमा 500 करो़ड रूपये से बढ़ाकर 1,500 करो़ड रूपये करने और निजी कंपनियों को इस क्षेत्र से दूर रखने की सिफारिश की है। बुधवार को हंगामे के बीच दोनों सदनों में पेश की गई समिति की रिपोर्ट के मुताबिक सरकार या सरकारी कंपनियां ही देश में परमाणु संयंत्रों का संचालन कर सकती हैं। समिति के सुझावों को स्वीकार किए जाने की स्थिति में मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने संबंधित विधेयक का समर्थन करने की बात कही है। ऑपरेटर की परिभाषा में संशोधन कर किसी प्रायवेट ऑपरेटर के इसमें शामिल होने की बीजेपी की आशंका का भी समाधान किया गया है।
संसद में विरोध, हंगामा
रिपोर्ट पर बीजेपी के अलावा एसपी, जेडी (यू), आरजेडी, एमडीएमके, एनसीपी और एनसी ने अपनी सहमति व्यक्त की है, जबकि सीपीआई, मार्क्सवादी पार्टी, फॉरवर्ड ब्लॉक ने अपनी असहमति दर्ज कराई है। वामपंथी दलों का आरोप है कि सरकार राष्ट्रपति ओबामा को तोहफ़ा देने के लिए हड़बड़ी कर रही है। लालू, मुलायम, पासवान और लेफ्ट के नेताओं ने आरोप लगाया कि विवादास्पद परमाणु दायित्व बिल पर समर्थन के एवज में मोदी को सोहराबुद्दीन मामले में क्लीन चिट देने की बीजेपी और कांग्रेस में सौदेबाजी हुई है। राज्यसभामें भी इन पार्टियों के सदस्यों ने परमाणु दायित्व विधेयक पर बीजेपी के समर्थन के बदले मोदी को कथित रूप से क्लीन चिट देने का मुद्दा उठाया।
विवादास्पद परमाणु दायित्व बिल को लेकर संसद में संसदीय समिति की रपट पेश किए जाने के बीच एसपी, आरजेडी, लेफ्ट और एलजेपी जैसे दलों ने बीजेपी-कांग्रेस में डील आरोप लगाते हुए संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही नहीं चलने दी। इन पार्टियों का आरोप है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड मामले में सीबीआई से क्लीन चिट दिलाने के एवज में बीजेपी ने कांग्रेस से सांठगांठ की है। राज्यसभा और लोकसभा दोनों की ही बैठक दो बार के स्थगन के बाद पूरे दिन के लिए स्थगित कर दी गई। विभिन्न देशों के साथ परमाणु समझौतों को अमली जामा पहनाने के लिए लाए जाने वाले इस बिल के बारे में समिति के अध्यक्ष टी. सुब्बीरामी रेडडी ने राज्यसभा में रपट पेश की, जबकि लोकसभा में समिति के सदस्य प्रदीप टम्टा ने यह रपट रखी।
पहले संसद में महिला विधेयक पर कुतर्क का हंगामा और इसके बाद बुधवार ( 18 अगस्त ) को परमाणु विधेयक पर जनता के समझ में आने लायक किसी ठोस दलील के अभाव में विरोध की सारी रणनीति के फेल हो जाने को किस नजरिए से देखा जाना चाहिए ? इसमें किसी दल को राजनीतिक फायदा हुआ तो किसी को नुकसान मगर देश की जनता सिर्फ गुमराह होती रही। बिहार और बंगाल को विधानसभा चुनाव सामने हैं। अगर ऐसे मौकों पर जनता को उसके हक की बात बतानें में विरोध कर रहे लोग नाकाम रहे तो इसके मतलब भी साफ हैं। या तो यह विरोध का नाटक है और देश की जनता को गुमराह किया जा रहा है या फिर यह विरोध के लायक कारगर व जनता के समझ में आने लायक मुद्दा ही नहीं ढूंढ पाए विरोध करने वाले। इसमें मुझे नाटक वाली बात ज्यादा सही लगती है। नेता या राजनैतिक दल भले कुछ कहें पर इस पूरे नाटक को टीवी और समाचार माध्यमों से अवगत होने वाली जनता भी अपने हित खोजती है। और वह जब निराश होती है तो बड़ी से बड़ी सत्ता को भी बिखरने में देर नहीं लगती। देखिए कहीं यह परमाणु विधेयक के विरोध का नाटक भी जनता को निराश न कर दे। अगर ऐसा होगा तो इस निराश जनता से क्या कहकर वोट मांगने जाएंगे ? और यह भी सच है कि विरोध में आपकी हार उस जनता को निराश तो करेगी ही जो आपसे बड़ी उम्मीद लगाए बैठी है। संभल जाइए, क्यों कि सामने अब किसानों का भी मुद्दा है। अपने वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर जो एकजुटता संसद में दिखा रहे हैं वही देशहित में भी दिखाइए। आइए अब समझने की कोशिश करते हैं कि परमाणु दायित्व विधेयक क्या है ? और विरोध के मुद्दे क्या हैं ?
परमाणु दायित्व विधेयक -2010
परमाणु दायित्व विधेयक -2010 ऐसा क़ानून बनाने का रास्ता है जिससे किसी भी असैन्य परमाणु संयंत्र में दुर्घटना होने की स्थिति में संयंत्र के संचालक का उत्तरदायित्व तय किया जा सके. इस क़ानून के ज़रिए दुर्घटना से प्रभावित लोगों को क्षतिपूर्ति या मुआवज़ा मिल सकेगा। अमरीका और भारत के बीच अक्तूबर 2008 में असैन्य परमाणु समझौता पूरा हुआ। इस समझौते को ऐतिहासिक कहा गया था क्योंकि इससे परमाणु तकनीक के आदान-प्रदान में भारत का तीन दशक से चला आ रहा कूटनीतिक वनवास ख़त्म होना था। इस समझौते के बाद अमरीका और अन्य परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों से भारत को तकनीक और परमाणु सामग्री की आपूर्ति तब शुरु हो सकेगी जब वह परमाणु दायित्व विधेयक के ज़रिए एक क़ानून बना लेगा। इस विधेयक के आरंभिक प्रारुप में प्रावधान किया गया है कि क्षतिपूर्ति या मुआवज़े के दावों के भुगतान के लिए परमाणु क्षति दावा आयोग का गठन किया जाएगा। विशेष क्षेत्रों के लिए एक या अधिक दावा आयुक्तों की नियुक्ति की जा सकती है। इन दावा आयुक्तों के पास दीवानी अदालतों के अधिकार होंगे।
क्या है विवाद?
इस विधेयक पर विपक्षी दलों ने कई आपत्तियाँ दर्ज की थीं जिसके बाद इसे सरकार ने टाल दिया था और इसे संसद की स्थाई समिति को भेज दिया गया था. अब स्थाई समिति ने अपनी सिफ़ारिशें संसद को दे दी हैं। एक विवाद मुआवज़े की राशि को लेकर था. पहले इसके लिए विधेयक में संचालक को अधिकतम 500 करोड़ रुपयों का मुआवज़ा देने का प्रावधान था लेकिन भारतीय जनता पार्टी की आपत्ति के बाद सरकार ने इसे तीन गुना करके 1500 करोड़ रुपए करने को मंज़ूरी दे दी है। कहा गया है कि सरकार ने कहा है कि वह समय समय पर इस राशि की समीक्षा करेगी और इस तरह से मुआवज़े की कोई अधिकतम सीमा स्थाई रुप से तय नहीं होगी. दूसरा विवाद मुआवज़े के लिए दावा करने की समय सीमा को लेकर था. अब सरकार ने दावा करने की समय सीमा को 10 वर्षों से बढ़ाकर 20 वर्ष करने का निर्णय लिया है। तीसरा विवाद असैन्य परमाणु क्षेत्र में निजी कंपनियों को प्रवेश देने को लेकर था. कहा जा रहा है कि सरकार ने अब यह मान लिया है कि फ़िलहाल असैन्य परमाणु क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए नहीं खोला जाएगा और सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम ही इस क्षेत्र में कार्य करेंगे। विवाद का चौथा विषय परमाणु आपूर्तिकर्ताओं को परिवहन के दौरान या इसके बाद होने वाली दुर्घटनाओं को लिए जवाबदेह ठहराने को लेकर है। विधेयक का जो प्रारूप है वह आपूर्तिकर्ताओं को जवाबदेह नहीं ठहराता. आख़िरी विवाद का विषय अंतरराष्ट्रीय संधि, कन्वेंशन फॉर सप्लीमेंटरी कंपनसेशन (सीएससी) पर हस्ताक्षर करने को लेकर है. यूपीए सरकार ने अमरीका को पहले ही यह आश्वासन दे दिया है कि वह इस संधि पर हस्ताक्षर करेगा लेकिन वामपंथी दल इसका विरोध कर रहे हैं।
क्या है सीएमसी पर हस्ताक्षर करने का मतलब
सीएमसी एक अंतरराष्ट्रीय संधि है जिस पर हस्ताक्षर करने का मतलब यह होगा कि किसी भी दुर्घटना की स्थिति में दावाकर्ता सिर्फ़ अपने देश में मुआवज़े का मुक़दमा कर सकेगा। यानी किसी दुर्घटना की स्थिति में दावाकर्ता को किसी अन्य देश की अदालत में जाने का अधिकार नहीं होगा. वैसे यह संधि थोड़ी विवादास्पद है, क्योंकि इसमें जो प्रावधान हैं, उसकी कोई कानूनी अनिवार्यता नहीं है. उल्लेखनीय है कि सीएसई पर वर्ष 1997 में हस्ताक्षर हुए हैं लेकिन दस साल से भी अधिक समय बीत जाने के बाद इस पर अब तक अमल नहीं हो पाया है।
क्या इसकी कोई समय सीमा है?
यह भारत का अंदरूनी मामला है कि वह परमाणु दायित्व विधेयक को कब संसद से पारित करता है और कब इसे क़ानून का रुप दिया जा सकेगा। लेकिन यह तय है कि असैन्य परमाणु समझौते के तहत परमाणु तकनीक और सामग्री मिलना तभी शुरु हो सकेगा जब यह क़ानून लागू हो जाएगा। लेकिन ऐसा दिखता है कि भारत सरकार नवंबर से पहले इसे क़ानून का रुप देना चाहती ताकि जब अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत के दौरे पर आएँ तो भारत पूरी तरह से तैयार रहे।
परमाणु संयंत्रों से निजी कंपनियों को दूर रखने की सिफारिश
परमाणु दायित्व विधेयक पर संसद की स्थाई समिति ने दुर्घटना की स्थिति में मुआवजे की सीमा 500 करो़ड रूपये से बढ़ाकर 1,500 करो़ड रूपये करने और निजी कंपनियों को इस क्षेत्र से दूर रखने की सिफारिश की है। बुधवार को हंगामे के बीच दोनों सदनों में पेश की गई समिति की रिपोर्ट के मुताबिक सरकार या सरकारी कंपनियां ही देश में परमाणु संयंत्रों का संचालन कर सकती हैं। समिति के सुझावों को स्वीकार किए जाने की स्थिति में मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने संबंधित विधेयक का समर्थन करने की बात कही है। ऑपरेटर की परिभाषा में संशोधन कर किसी प्रायवेट ऑपरेटर के इसमें शामिल होने की बीजेपी की आशंका का भी समाधान किया गया है।
संसद में विरोध, हंगामा
रिपोर्ट पर बीजेपी के अलावा एसपी, जेडी (यू), आरजेडी, एमडीएमके, एनसीपी और एनसी ने अपनी सहमति व्यक्त की है, जबकि सीपीआई, मार्क्सवादी पार्टी, फॉरवर्ड ब्लॉक ने अपनी असहमति दर्ज कराई है। वामपंथी दलों का आरोप है कि सरकार राष्ट्रपति ओबामा को तोहफ़ा देने के लिए हड़बड़ी कर रही है। लालू, मुलायम, पासवान और लेफ्ट के नेताओं ने आरोप लगाया कि विवादास्पद परमाणु दायित्व बिल पर समर्थन के एवज में मोदी को सोहराबुद्दीन मामले में क्लीन चिट देने की बीजेपी और कांग्रेस में सौदेबाजी हुई है। राज्यसभामें भी इन पार्टियों के सदस्यों ने परमाणु दायित्व विधेयक पर बीजेपी के समर्थन के बदले मोदी को कथित रूप से क्लीन चिट देने का मुद्दा उठाया।
विवादास्पद परमाणु दायित्व बिल को लेकर संसद में संसदीय समिति की रपट पेश किए जाने के बीच एसपी, आरजेडी, लेफ्ट और एलजेपी जैसे दलों ने बीजेपी-कांग्रेस में डील आरोप लगाते हुए संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही नहीं चलने दी। इन पार्टियों का आरोप है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड मामले में सीबीआई से क्लीन चिट दिलाने के एवज में बीजेपी ने कांग्रेस से सांठगांठ की है। राज्यसभा और लोकसभा दोनों की ही बैठक दो बार के स्थगन के बाद पूरे दिन के लिए स्थगित कर दी गई। विभिन्न देशों के साथ परमाणु समझौतों को अमली जामा पहनाने के लिए लाए जाने वाले इस बिल के बारे में समिति के अध्यक्ष टी. सुब्बीरामी रेडडी ने राज्यसभा में रपट पेश की, जबकि लोकसभा में समिति के सदस्य प्रदीप टम्टा ने यह रपट रखी।
Wednesday, 11 August 2010
बदल जाएगा मदरसों का मुगलिया पाठ्यक्रम !
मदरसों को बदलने की कोशिश की जा रही है। मदरसे काफी पुराने पाठ्यक्रम और इस्लामी शिक्षा पद्धति पर ही चल रहे थे।पिछले कुछ समय से मदरसों की भूमिका को लेकर लगातार बहस होती रही है, मदरसों पर चरमपंथ को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं। पाकिस्तान की लाल मस्जिद के मदरसे के छात्रों और सैनिकों के बीच टकराव के बाद यह बहस एक बार फिर तेज़ हुई। मालूम हो कि राजेंद्र सच्चर कमिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा के अवसरों से वंचित हैं।
अब उत्तर प्रदेश सरकार ने जहां नया पाठ्यक्रम नए सत्र से लागू करने का फैसला किया है वहीं पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने मदरसों की पढ़ाई को आज की जरूरतों के हिसाब से बदलना तय किया है।और भी राज्यों के मदरसों में तकनीकी शिक्षा की पहल की जा रही है। भारत सरकार ने मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए एक क़ानून बनाने का प्रस्ताव रखा है जिसका उद्देश्य पाठ्यक्रम और पढ़ाई की व्यवस्था को बेहतर बनाना बताया जा रहा है। सरकार मदरसों को सीबीएसई की तरह केंद्रीय मदरसा बोर्ड के तहत लाने के लिए एक क़ानून पारित करना चाहती है। सरकार का कहना है कि इससे मदरसों की पढ़ाई को आधुनिक और उपयोगी बनाया जा सकेगा ।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित कई लोग इस नए क़ानून की पुरज़ोर हिमायत कर रहे हैं, वहीं इसका विरोध करने वाले भी हैं मगर कुछ मुसलमान धार्मिक नेताओं का कहना है कि धार्मिक अध्ययन के केंद्र मदरसों के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप अनुचित है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की राय
हाल ही में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की हुई बैठक में बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना राबे हसनी नदवी ने कहा कि मदरसों में सरकारी हस्तेक्षेप कुबूल नहीं किया जाएगा। दरअसल मौलाना का ये रूख इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि केंद्रीय सरकार मदरसों के लिए केंद्रीय मदरसा बोर्ड बनाने की तैयारी में है। मौलाना ने कहा कि केंद्रीय मदरसा बोर्ड के प्रस्ताव को हम दोनों शैक्षिक संस्थाओं के लिए हानिकारक मानते हैं। उन्होंने कहा कि मदरसों के जरिए इस्लाम की शिक्षा दी जाती है। इस वजह से उसमें हम किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं चाहते। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने प्रस्तावित सांप्रदायिक हिंसा विरोधी बिल पर असहमति जताई है। बोर्ड के प्रवक्ता अब्र्दुरहीम कुरैशी ने कहा कि प्रस्तावित बिल में पीडित लोगों में पीडित लोगों के लिए राहत और फिर से बात नहीं की गई है। पुलिस अपनी जिम्मेदारी सही ढंग से नहीं निभाती है और ऐसे में दंगे के दौरान बेकसूर लोग फंसते है। उन्होंने ये भी कहा कि लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट में तत्कालीन केंद्र सरकार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है जिस पर बोर्ड को सख्त ऐतराज है। जिन लोगों को अयोध्या विध्वंस के लिए जिम्मेदार माना गया है उनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए।
उत्तरप्रदेश ने मदरसों के मुगलकालीन पाठ्यक्रम को अलविदा कहा
उत्तर प्रदेश के मदरसे अब कुरआन हदीस और दीगर इस्लामी शिक्षा तक सीमित नहीं रहेंगे। उत्तर प्रदेश अरबी फारसी मदरसा बोर्ड ने दीनी मकतबों के पाठ्यक्रमों को पुनरीक्षण कर संशोधित पाठ्यक्रम लागू करने का फैसला किया है। नये मदरसों में अध्ययनरत छात्र माध्यमिक (आलिया) एवं उच्च शिक्षा (उच्चतर आलिया) स्तर पर सामान्य हिन्दी, अंग्रेजी, कम्प्यूटर, भूगोल, सामाजिक विज्ञान एवं टाइपिंग सहित आधुनिक विषयों का अनिवार्य रूप से अध्ययन करेंगे। शासन ने प्रदेश के लगभग तीन हजार से अधिक मदरसों के लिए संशोधित पाठ्यक्रमों की सूची जारी कर दी है।
मदरसा बोर्ड के रजिस्ट्रार असलम जावेद द्वारा 16 जून को अनुमोदित नये पाठ्यक्रम को अनुदानित एवं गैर अनुदानित मान्यता प्राप्त मदरसों में लागू करने का निर्देश दिया है। मदरसा बोर्ड ने बदले हुए पाठ्यक्रम की जानकारी प्रदेश के समस्त अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारियों को उपलब्ध करा दी है। इस नये फरमान से वर्ष 1917 में स्थापित मदरसों में अब मुगलिया पाठ्यक्रमों की विदाई तय है। मदरसा वसीयतुल उलूम के सचिव मौलाना अहमद मकीन का कहना है कि अधिकतर मदरसों में चल रहा पाठ्यक्रम मुगल शासन के मुल्ला निजामउद्दीन का बनाया हुआ है। इसे दर्स निजामी कहते हैं। अब तक चल रहा था मदरसों को यह मुगलकालीन पाठ्यक्रम।
उत्तर प्रदेश अरबी फारसी मदरसा बोर्ड ने सत्र 2010-11 से दीनी मकतबों में पढ़ाए जाने वाले निसाब में परिवर्तन की पहल तेज कर दी है। हालांकि दर्स आलिया के अंतर्गत मदरसों के पाठ्यक्रम में संशोधन करने की शुरुआत वर्ष 2001 में ही की गई थी। 16 जून को 2010 को संशोधित पाठ्यक्रम पर अंतिम मुहर लगाई गई। नये सत्र से मदरसा बोर्ड के मुंशी और मौलवी स्तर के पाठ्यक्रम एवं इनकी अवधि बदल जायेगी। ( इस खबर को विस्तार से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttarpradesh/4_1_6639172_1.html
पश्चिम बंगाल में अब अंग्रेजी माध्यम मदरसे
http://thatshindi.oneindia.in/news/2009/10/16/bengalmadarsaadas.html
पश्चिम बंगाल के मदरसों में जल्द ही शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी कर दिया जाएगा। पश्चिम बंगाल सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री अब्दुस सत्तार ने कहा है कि इसी शैक्षिक सत्र ( सत्र २००९ ) में दस मदरसों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी कर दिया जाएगा. आने वाले कुछ वर्षों में बाकी के 566 मदरसों में इसे लागू किया जाएगा। इन मदरसों में 70 इसी वर्ष से शुरू किए गए हैं जिनमें 34 सिर्फ़ लड़कियों के लिए हैं। यह बात उन्होंने बीबीसी के संवाददाता सुबीर भौमिक से बातचीत में पिछले साल ( शुक्रवार, अक्तूबर 16, 2009 ) कही थी।
सत्तार, जो ख़ुद एक मदरसा में शिक्षक रह चुके हैं, का कहना था कि धार्मिक स्कूलों के पाठ्यक्रम में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया कुछ महीनों से जारी है. पश्चिम बंगाल के मदरसों में आधुनिक विज्ञान और गणित की पढ़ाई पहले की शुरू की जा चुकी है। सत्तार का कहना था कि अमरीका और पाकिस्तान से विशेषज्ञों का दल मदरसों में आए इस बदलाव का अध्ययन कर चुके हैं। इस बदलाव को यहां का मदरसा बोर्ड मानने को तैयार है। पश्चिम बंगाल में मदरसा शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन सोहराब हुसैन की माने तो अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई किए बिना हमारे बच्चों को बेहतरीन शिक्षा नहीं मिल सकती है। आठ करोड़ की जनसंख्या वाले पश्चिम बंगाल में 26 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है जिनमें ज्यादातर ग़रीब किसान या छोटे कारोबारी है जो अपने बच्चों को मदरसों में ही पढ़ने भेज सकते हैं।
मदरसे का इतिहास
http://dialogueindia.in/magazine/article/maradrson-ki-shiksha
मदरसा अरबी भाषा का शब्द है एवं इसका अर्थ है शिक्षा का स्थान। इस्लाम धर्म एवं दर्शन की उच्च शिक्षा देने वाली शिक्षण संस्थाएं भी मदरसा ही कहलाती है। वास्तव में मदरसों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा देने वाले मदरसों को मक़तब कहते है। यहाँ इस्लाम धर्म का प्रारंभिक ज्ञान कराया जाता है। मध्यम श्रेणी के मदरसों में अरबी भाषा में कुरान एवं इसकी व्याख्या, हदीस इत्यादि पढ़ाई जाती है। इससे भी आगे उच्च श्रेणी के मदरसे होते हैं जिन्हें मदरसा आलिया भी कहते हैं। इनके अध्ययन का स्तर बी.ए. तथा एम.ए. के स्तर का होता है। इनमें अरबी भाषा का साहित्य, इस्लामी दर्शन, यूनानी विज्ञान इत्यादि विषयों का अध्ययन होता है। इन उच्च शिक्षा संस्थानों का पाठ्यक्रम दार्से-निजामी कहलाता है। इसे मुल्ला निजामी नाम के विद्वान ने अठारहवीं शताब्दी में बनाया था एवं ये आज भी वैसा ही चल रहा है। उदारवादी एवं कट्टरपंथी मुसलमानों में इस मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है कि क्या इस पाठ्यक्रम को ज्यों का त्यों जारी रखा जाये या परिर्वितत कर दिया जाये।
शुरुआत हजरत मुहम्मद से
मदरसों की शुरुआत हजरत मुहम्मद से ही मानी जाती है। उन्होंने अपनी मस्जिद में मदरसों की स्थापना की थी एवं वे वहाँ इस्लाम के सिद्वांत एवं कुरान जिस रूप में वह उन पर आयद होती थी, पढ़ाया करते थे। विधिवत रूप से मदरसों की स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में बग़दाद में हुई। लगभग इसी समय इजिप्ट में अल-अजहर नामक मदरसा प्रारम्भ हुआ जो अब विश्व विख्यात इस्लामिक विश्वविद्यालय बन चुका है।
भारतवर्ष में मदरसों की शुरुआत
भारतवर्ष में मदरसों की शुरुआत मुस्लिम बादशाहों के समय से ही हो गई थी। सन् 1206 में जब दिल्ली मे मुस्लिम सुल्तानों के शासन की स्थापना हुई तभी मदरसे भी स्थापित किये गये। प्रारम्भ में इनकी शिक्षा का ढांचा इस प्रकार का रखा गया ताकि शासन के विभिन्न पदों के लिए प्रशिक्षित व्यक्ति मिल सकें। धीरे-धीरे मुसलमान शासकों की अनुकम्पा से मदरसे सम्पूर्ण उत्तर भारत में स्थापित हो गये। अकबर के शासन काल में फतेहउल्ला नामक विद्वान मदरसों की शिक्षा का प्रमुख था एवं उसने पाठ्क्रम में भूगोल, ज्योतिष, भौतिक शास्त्र, दर्शन शास्त्र इत्यादि विषय शामिल कराये। किन्तु औरंगजेब के काल में यह सब बदल दिया गया। उसने इस्लामी विद्वानों की एक टीम बनाकर इस्लामी कानूनों का एक वृहद संग्रह तैयार कराया जिसे फतवा-ए-आलमगीरी कहा गया। लखनऊ में उसने मुल्ला निजामुद्दीन को एक बड़ी इमारत दान दे दी जिसमें एक मदरसा स्थापित किया गया जो फिरंगी महल नाम से आज भी प्रसिद्घ है।
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् भारतवर्ष से मुस्लिम हुकुमत खत्म हो गई एवं उलेमाओं को यह डर सताने लगा कि अंग्रेजों के प्रभाव एवं नई शिक्षा प्रणाली के कारण साधारण मुसलमानों में इस्लाम का प्रभाव कम हो जायेगा। अत: उन्होंने 1866 में देवबंद में दारुल उलूम की नींव डाली। उसके पश्चात् लखनऊ में नदावत-अल-उलेमा नाम का एक और मदरसा प्रारंभ हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में देवबंद का दारुल उलूम एवं लखनऊ के फिरंगी महल तथा नदावत-उल-उलेमा इस्लामी शिक्षा एवं अरबी-फारसी परम्पराओं के प्रमुख केंद्र बन गये। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अत्यंत वफादार एक अन्य मुस्लिम विद्वान सर सैयद अहमद खान ने 1873 में अलीगढ़ में मदसरातुल उलूम प्रारंभ किया जो बाद में मोहमडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज एवं तत्पश्चात् अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बन गया। सर सैयद अहमद खान का मुसलमानों की शिक्षा के विषय में देवबंदियों से विपरीत विचार था। सर सैयद मुसलमानों की शिक्षा को केवल कुरान, हदीस एवं अरबी भाषा तक सीमित नहीं रखना चाहते थे। उन्होंने अलीगढ़ विश्वद्यिालय के पाठ्यक्रम में समस्त आधुनिक पाठ्यक्रमों को सम्मिलित कराया किन्तु एक बिन्दु पर ये दोनों समान विचार रखते थे एवं वह है मुसलमानों की अलग पहचान। यह विचार ही आगे चलकर द्विराष्ट्र के सिद्घांत का जनक बना जिसकी परिणति देश के विभाजन के रूप में हुई।
आजाद भारत के मदरसे
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बनाये गये संविधन में अल्पसंख्यकों की शिक्षा संस्थाओं को विशेष सुविधाएं दी गईं अत: मदरसों की संख्या में विस्तार हुआ। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता काजी मुहम्मद अब्दुल अब्बासी ने सन् 1959 उत्तर प्रदेश में दीनी तालिमी काउंसिल की स्थापना की जिसका उद्देश्य प्रत्येक मुसलमान बालक को प्राइमरी शिक्षा के स्तर पर इस्लाम की बुनियादी शिक्षा देना था। अब्बासी का विचार था कि सरकारी स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा हिन्दू धर्म पर आधरित है एवं इस्लामी परम्पराओं के विरूद्घ है। काउंसिल मदरसों के लिए कोई सरकारी मदद लेने के भी खिलाफ थी।
गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार असम में 721 मदरसों में 120000, गुजरात में 1825 मदरसों में 120000 छात्र, कर्नाटक में 961 मदरसों में 84864, केरल में 9975 मदरसों में 738000, मध्य प्रदेश में 6000 मदरसों में 400000 एवं राजस्थान में 1780 मदरसों में 25800 छात्र शिक्षा पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में 15000 मकतब एवं 18000 मदरसे तथा बिहार में 3500 मदरसे कार्य कर रहे हैं। अन्य राज्यों की स्थिति भी इसी प्रकार हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार कुल मुस्लिम बच्चों में से चार प्रतिशत ही मदरसों में जाते हैं जबकि कुछ अन्य अनुमानों के अनुसार यह संख्या पच्चीस से तीस प्रतिशत तक है।
सवालों के घेरे में मदरसों की पुरानी शिक्षा पद्धति
मदरसों में जो पाठ्यक्रम लागू किया जाता है वह सैकड़ों वर्ष पुराना है। उसका सम्बन्ध अरब एवं फारस में प्रचलित उस समय की शिक्षा प्रणाली से है। आज भी मदरसों में यही समझा जाता है कि संसार का समस्त ज्ञान अरबी, फारसी के साहित्य में सिमटा हुआ है एवं उससे बाहर निकल कर कुछ भी पढऩे या समझने की आवश्यकता नहीं हैं। इन मदरसों के चलाने वालों ने इस तरफ कभी भी ध्यान नहीं दिया कि शिक्षा का एक उद्देश्य तालिब इल्म को रोजगार मुहैया कराना भी है। प्रसिद्घ विद्वान वहीदुद्दीन खान ने एक स्थान पर लिखा है कि यद्यपि भारतवर्ष में लाखों मदरसे शिक्षा देने के काम में लगे है किन्तु उन्होंने मुस्लिम बच्चों में कभी भी एक विस्तृत दृष्टिकोण विकसित करने का प्रयत्न नहीं किया। प्रसिद्घ लेखिका शीबा असलम फहमी ने मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा को मुसलमानों में गरीबी पनपाने वाली वजूहात में से एक वजह कहा है।
ईसाई समाज अपने स्कूल में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ गणित, साइंस, समाजयात, भाषाएं, कला, संगीत सभी कुछ पढ़ाता है और मिशनरी स्कूलों में अपने बच्चे भेजने के लिए हिन्दू- मुसलमान सभी लालायित रहते हैं। सिक्ख समाज ने भी इसी तरह के उम्दा, सापफ-सुथरे और आधुनिक स्कूल खोल कर अपने धर्म को तरक्की की राह का रोड़ा नहीं बनाया। यह सवाल उठाकर शीबा के कहना है कि हमारे आलिमों का क्या बिगड़ जाता अगर मुसलमान समाज भी अपने दीन की तालीम को तरक्क़ी से जोड़ कर एक ऐसा निजाम पैदा करता जो कि रोजगार और खुशहाली लाता? 21वीं सदी में भी भारतीय मुसलमान के सामने वह सामान्य लक्ष्य नहीं रहे जो उसे इस युग में जी रहे आम आदमी की पहचान दें। अगर बांग्लादेश जैसे छोटे और नये राष्ट्र में जीव-वैज्ञानिक, भूगर्भ-वैज्ञानिक, कृषि-वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, व्यवसायिक विशेषज्ञ, कानूनदां, इतिहासकार, गणितज्ञ आदि हर विशेषज्ञ मुसलमान ही होता है तो फिर भारत में क्यों नहीं हो सकता ? शीबा कहतीं हैं कि- '' विज्ञान-तकनीक से इन्सान को जो राहतें मिलती है उससे एक उपभोक्ता के तौर पर मौलाना परहेज नहीं करते। इंजीनियरिंग, चिकित्सा, आधुनिक कृषि, मोटर-ट्रेन-हवाई जहाज, फोन, टी.वी. इन्टरनेट, कम्प्यूटर, फ्रिज, वाशिंग मशीन, ए.सी. या स्वचालित हथियार जैसे किसी भी आधुनिक यंत्र या सहूलत से दूरी न रखने वाले मौलाना, अपने युवाओं को इन नई खोजों, अविष्कारों में नहीं लगाते। इल्म से होने वाली इन तरक्किय़ों में मुस्लिम समाज का योगदान नहीं के बराबर है जबकि मुसलमान इन सहूलियत के दुनिया में दूसरे नम्बर के उपभोक्ता हैं।"
अब उत्तर प्रदेश सरकार ने जहां नया पाठ्यक्रम नए सत्र से लागू करने का फैसला किया है वहीं पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने मदरसों की पढ़ाई को आज की जरूरतों के हिसाब से बदलना तय किया है।और भी राज्यों के मदरसों में तकनीकी शिक्षा की पहल की जा रही है। भारत सरकार ने मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए एक क़ानून बनाने का प्रस्ताव रखा है जिसका उद्देश्य पाठ्यक्रम और पढ़ाई की व्यवस्था को बेहतर बनाना बताया जा रहा है। सरकार मदरसों को सीबीएसई की तरह केंद्रीय मदरसा बोर्ड के तहत लाने के लिए एक क़ानून पारित करना चाहती है। सरकार का कहना है कि इससे मदरसों की पढ़ाई को आधुनिक और उपयोगी बनाया जा सकेगा ।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित कई लोग इस नए क़ानून की पुरज़ोर हिमायत कर रहे हैं, वहीं इसका विरोध करने वाले भी हैं मगर कुछ मुसलमान धार्मिक नेताओं का कहना है कि धार्मिक अध्ययन के केंद्र मदरसों के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप अनुचित है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की राय
हाल ही में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की हुई बैठक में बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना राबे हसनी नदवी ने कहा कि मदरसों में सरकारी हस्तेक्षेप कुबूल नहीं किया जाएगा। दरअसल मौलाना का ये रूख इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि केंद्रीय सरकार मदरसों के लिए केंद्रीय मदरसा बोर्ड बनाने की तैयारी में है। मौलाना ने कहा कि केंद्रीय मदरसा बोर्ड के प्रस्ताव को हम दोनों शैक्षिक संस्थाओं के लिए हानिकारक मानते हैं। उन्होंने कहा कि मदरसों के जरिए इस्लाम की शिक्षा दी जाती है। इस वजह से उसमें हम किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं चाहते। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने प्रस्तावित सांप्रदायिक हिंसा विरोधी बिल पर असहमति जताई है। बोर्ड के प्रवक्ता अब्र्दुरहीम कुरैशी ने कहा कि प्रस्तावित बिल में पीडित लोगों में पीडित लोगों के लिए राहत और फिर से बात नहीं की गई है। पुलिस अपनी जिम्मेदारी सही ढंग से नहीं निभाती है और ऐसे में दंगे के दौरान बेकसूर लोग फंसते है। उन्होंने ये भी कहा कि लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट में तत्कालीन केंद्र सरकार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है जिस पर बोर्ड को सख्त ऐतराज है। जिन लोगों को अयोध्या विध्वंस के लिए जिम्मेदार माना गया है उनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए।
उत्तरप्रदेश ने मदरसों के मुगलकालीन पाठ्यक्रम को अलविदा कहा
उत्तर प्रदेश के मदरसे अब कुरआन हदीस और दीगर इस्लामी शिक्षा तक सीमित नहीं रहेंगे। उत्तर प्रदेश अरबी फारसी मदरसा बोर्ड ने दीनी मकतबों के पाठ्यक्रमों को पुनरीक्षण कर संशोधित पाठ्यक्रम लागू करने का फैसला किया है। नये मदरसों में अध्ययनरत छात्र माध्यमिक (आलिया) एवं उच्च शिक्षा (उच्चतर आलिया) स्तर पर सामान्य हिन्दी, अंग्रेजी, कम्प्यूटर, भूगोल, सामाजिक विज्ञान एवं टाइपिंग सहित आधुनिक विषयों का अनिवार्य रूप से अध्ययन करेंगे। शासन ने प्रदेश के लगभग तीन हजार से अधिक मदरसों के लिए संशोधित पाठ्यक्रमों की सूची जारी कर दी है।
मदरसा बोर्ड के रजिस्ट्रार असलम जावेद द्वारा 16 जून को अनुमोदित नये पाठ्यक्रम को अनुदानित एवं गैर अनुदानित मान्यता प्राप्त मदरसों में लागू करने का निर्देश दिया है। मदरसा बोर्ड ने बदले हुए पाठ्यक्रम की जानकारी प्रदेश के समस्त अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारियों को उपलब्ध करा दी है। इस नये फरमान से वर्ष 1917 में स्थापित मदरसों में अब मुगलिया पाठ्यक्रमों की विदाई तय है। मदरसा वसीयतुल उलूम के सचिव मौलाना अहमद मकीन का कहना है कि अधिकतर मदरसों में चल रहा पाठ्यक्रम मुगल शासन के मुल्ला निजामउद्दीन का बनाया हुआ है। इसे दर्स निजामी कहते हैं। अब तक चल रहा था मदरसों को यह मुगलकालीन पाठ्यक्रम।
उत्तर प्रदेश अरबी फारसी मदरसा बोर्ड ने सत्र 2010-11 से दीनी मकतबों में पढ़ाए जाने वाले निसाब में परिवर्तन की पहल तेज कर दी है। हालांकि दर्स आलिया के अंतर्गत मदरसों के पाठ्यक्रम में संशोधन करने की शुरुआत वर्ष 2001 में ही की गई थी। 16 जून को 2010 को संशोधित पाठ्यक्रम पर अंतिम मुहर लगाई गई। नये सत्र से मदरसा बोर्ड के मुंशी और मौलवी स्तर के पाठ्यक्रम एवं इनकी अवधि बदल जायेगी। ( इस खबर को विस्तार से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttarpradesh/4_1_6639172_1.html
पश्चिम बंगाल में अब अंग्रेजी माध्यम मदरसे
http://thatshindi.oneindia.in/news/2009/10/16/bengalmadarsaadas.html
पश्चिम बंगाल के मदरसों में जल्द ही शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी कर दिया जाएगा। पश्चिम बंगाल सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री अब्दुस सत्तार ने कहा है कि इसी शैक्षिक सत्र ( सत्र २००९ ) में दस मदरसों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी कर दिया जाएगा. आने वाले कुछ वर्षों में बाकी के 566 मदरसों में इसे लागू किया जाएगा। इन मदरसों में 70 इसी वर्ष से शुरू किए गए हैं जिनमें 34 सिर्फ़ लड़कियों के लिए हैं। यह बात उन्होंने बीबीसी के संवाददाता सुबीर भौमिक से बातचीत में पिछले साल ( शुक्रवार, अक्तूबर 16, 2009 ) कही थी।
सत्तार, जो ख़ुद एक मदरसा में शिक्षक रह चुके हैं, का कहना था कि धार्मिक स्कूलों के पाठ्यक्रम में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया कुछ महीनों से जारी है. पश्चिम बंगाल के मदरसों में आधुनिक विज्ञान और गणित की पढ़ाई पहले की शुरू की जा चुकी है। सत्तार का कहना था कि अमरीका और पाकिस्तान से विशेषज्ञों का दल मदरसों में आए इस बदलाव का अध्ययन कर चुके हैं। इस बदलाव को यहां का मदरसा बोर्ड मानने को तैयार है। पश्चिम बंगाल में मदरसा शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन सोहराब हुसैन की माने तो अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई किए बिना हमारे बच्चों को बेहतरीन शिक्षा नहीं मिल सकती है। आठ करोड़ की जनसंख्या वाले पश्चिम बंगाल में 26 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है जिनमें ज्यादातर ग़रीब किसान या छोटे कारोबारी है जो अपने बच्चों को मदरसों में ही पढ़ने भेज सकते हैं।
मदरसे का इतिहास
http://dialogueindia.in/magazine/article/maradrson-ki-shiksha
मदरसा अरबी भाषा का शब्द है एवं इसका अर्थ है शिक्षा का स्थान। इस्लाम धर्म एवं दर्शन की उच्च शिक्षा देने वाली शिक्षण संस्थाएं भी मदरसा ही कहलाती है। वास्तव में मदरसों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा देने वाले मदरसों को मक़तब कहते है। यहाँ इस्लाम धर्म का प्रारंभिक ज्ञान कराया जाता है। मध्यम श्रेणी के मदरसों में अरबी भाषा में कुरान एवं इसकी व्याख्या, हदीस इत्यादि पढ़ाई जाती है। इससे भी आगे उच्च श्रेणी के मदरसे होते हैं जिन्हें मदरसा आलिया भी कहते हैं। इनके अध्ययन का स्तर बी.ए. तथा एम.ए. के स्तर का होता है। इनमें अरबी भाषा का साहित्य, इस्लामी दर्शन, यूनानी विज्ञान इत्यादि विषयों का अध्ययन होता है। इन उच्च शिक्षा संस्थानों का पाठ्यक्रम दार्से-निजामी कहलाता है। इसे मुल्ला निजामी नाम के विद्वान ने अठारहवीं शताब्दी में बनाया था एवं ये आज भी वैसा ही चल रहा है। उदारवादी एवं कट्टरपंथी मुसलमानों में इस मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है कि क्या इस पाठ्यक्रम को ज्यों का त्यों जारी रखा जाये या परिर्वितत कर दिया जाये।
शुरुआत हजरत मुहम्मद से
मदरसों की शुरुआत हजरत मुहम्मद से ही मानी जाती है। उन्होंने अपनी मस्जिद में मदरसों की स्थापना की थी एवं वे वहाँ इस्लाम के सिद्वांत एवं कुरान जिस रूप में वह उन पर आयद होती थी, पढ़ाया करते थे। विधिवत रूप से मदरसों की स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में बग़दाद में हुई। लगभग इसी समय इजिप्ट में अल-अजहर नामक मदरसा प्रारम्भ हुआ जो अब विश्व विख्यात इस्लामिक विश्वविद्यालय बन चुका है।
भारतवर्ष में मदरसों की शुरुआत
भारतवर्ष में मदरसों की शुरुआत मुस्लिम बादशाहों के समय से ही हो गई थी। सन् 1206 में जब दिल्ली मे मुस्लिम सुल्तानों के शासन की स्थापना हुई तभी मदरसे भी स्थापित किये गये। प्रारम्भ में इनकी शिक्षा का ढांचा इस प्रकार का रखा गया ताकि शासन के विभिन्न पदों के लिए प्रशिक्षित व्यक्ति मिल सकें। धीरे-धीरे मुसलमान शासकों की अनुकम्पा से मदरसे सम्पूर्ण उत्तर भारत में स्थापित हो गये। अकबर के शासन काल में फतेहउल्ला नामक विद्वान मदरसों की शिक्षा का प्रमुख था एवं उसने पाठ्क्रम में भूगोल, ज्योतिष, भौतिक शास्त्र, दर्शन शास्त्र इत्यादि विषय शामिल कराये। किन्तु औरंगजेब के काल में यह सब बदल दिया गया। उसने इस्लामी विद्वानों की एक टीम बनाकर इस्लामी कानूनों का एक वृहद संग्रह तैयार कराया जिसे फतवा-ए-आलमगीरी कहा गया। लखनऊ में उसने मुल्ला निजामुद्दीन को एक बड़ी इमारत दान दे दी जिसमें एक मदरसा स्थापित किया गया जो फिरंगी महल नाम से आज भी प्रसिद्घ है।
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् भारतवर्ष से मुस्लिम हुकुमत खत्म हो गई एवं उलेमाओं को यह डर सताने लगा कि अंग्रेजों के प्रभाव एवं नई शिक्षा प्रणाली के कारण साधारण मुसलमानों में इस्लाम का प्रभाव कम हो जायेगा। अत: उन्होंने 1866 में देवबंद में दारुल उलूम की नींव डाली। उसके पश्चात् लखनऊ में नदावत-अल-उलेमा नाम का एक और मदरसा प्रारंभ हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में देवबंद का दारुल उलूम एवं लखनऊ के फिरंगी महल तथा नदावत-उल-उलेमा इस्लामी शिक्षा एवं अरबी-फारसी परम्पराओं के प्रमुख केंद्र बन गये। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अत्यंत वफादार एक अन्य मुस्लिम विद्वान सर सैयद अहमद खान ने 1873 में अलीगढ़ में मदसरातुल उलूम प्रारंभ किया जो बाद में मोहमडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज एवं तत्पश्चात् अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बन गया। सर सैयद अहमद खान का मुसलमानों की शिक्षा के विषय में देवबंदियों से विपरीत विचार था। सर सैयद मुसलमानों की शिक्षा को केवल कुरान, हदीस एवं अरबी भाषा तक सीमित नहीं रखना चाहते थे। उन्होंने अलीगढ़ विश्वद्यिालय के पाठ्यक्रम में समस्त आधुनिक पाठ्यक्रमों को सम्मिलित कराया किन्तु एक बिन्दु पर ये दोनों समान विचार रखते थे एवं वह है मुसलमानों की अलग पहचान। यह विचार ही आगे चलकर द्विराष्ट्र के सिद्घांत का जनक बना जिसकी परिणति देश के विभाजन के रूप में हुई।
आजाद भारत के मदरसे
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बनाये गये संविधन में अल्पसंख्यकों की शिक्षा संस्थाओं को विशेष सुविधाएं दी गईं अत: मदरसों की संख्या में विस्तार हुआ। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता काजी मुहम्मद अब्दुल अब्बासी ने सन् 1959 उत्तर प्रदेश में दीनी तालिमी काउंसिल की स्थापना की जिसका उद्देश्य प्रत्येक मुसलमान बालक को प्राइमरी शिक्षा के स्तर पर इस्लाम की बुनियादी शिक्षा देना था। अब्बासी का विचार था कि सरकारी स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा हिन्दू धर्म पर आधरित है एवं इस्लामी परम्पराओं के विरूद्घ है। काउंसिल मदरसों के लिए कोई सरकारी मदद लेने के भी खिलाफ थी।
गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार असम में 721 मदरसों में 120000, गुजरात में 1825 मदरसों में 120000 छात्र, कर्नाटक में 961 मदरसों में 84864, केरल में 9975 मदरसों में 738000, मध्य प्रदेश में 6000 मदरसों में 400000 एवं राजस्थान में 1780 मदरसों में 25800 छात्र शिक्षा पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में 15000 मकतब एवं 18000 मदरसे तथा बिहार में 3500 मदरसे कार्य कर रहे हैं। अन्य राज्यों की स्थिति भी इसी प्रकार हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार कुल मुस्लिम बच्चों में से चार प्रतिशत ही मदरसों में जाते हैं जबकि कुछ अन्य अनुमानों के अनुसार यह संख्या पच्चीस से तीस प्रतिशत तक है।
सवालों के घेरे में मदरसों की पुरानी शिक्षा पद्धति
मदरसों में जो पाठ्यक्रम लागू किया जाता है वह सैकड़ों वर्ष पुराना है। उसका सम्बन्ध अरब एवं फारस में प्रचलित उस समय की शिक्षा प्रणाली से है। आज भी मदरसों में यही समझा जाता है कि संसार का समस्त ज्ञान अरबी, फारसी के साहित्य में सिमटा हुआ है एवं उससे बाहर निकल कर कुछ भी पढऩे या समझने की आवश्यकता नहीं हैं। इन मदरसों के चलाने वालों ने इस तरफ कभी भी ध्यान नहीं दिया कि शिक्षा का एक उद्देश्य तालिब इल्म को रोजगार मुहैया कराना भी है। प्रसिद्घ विद्वान वहीदुद्दीन खान ने एक स्थान पर लिखा है कि यद्यपि भारतवर्ष में लाखों मदरसे शिक्षा देने के काम में लगे है किन्तु उन्होंने मुस्लिम बच्चों में कभी भी एक विस्तृत दृष्टिकोण विकसित करने का प्रयत्न नहीं किया। प्रसिद्घ लेखिका शीबा असलम फहमी ने मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा को मुसलमानों में गरीबी पनपाने वाली वजूहात में से एक वजह कहा है।
ईसाई समाज अपने स्कूल में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ गणित, साइंस, समाजयात, भाषाएं, कला, संगीत सभी कुछ पढ़ाता है और मिशनरी स्कूलों में अपने बच्चे भेजने के लिए हिन्दू- मुसलमान सभी लालायित रहते हैं। सिक्ख समाज ने भी इसी तरह के उम्दा, सापफ-सुथरे और आधुनिक स्कूल खोल कर अपने धर्म को तरक्की की राह का रोड़ा नहीं बनाया। यह सवाल उठाकर शीबा के कहना है कि हमारे आलिमों का क्या बिगड़ जाता अगर मुसलमान समाज भी अपने दीन की तालीम को तरक्क़ी से जोड़ कर एक ऐसा निजाम पैदा करता जो कि रोजगार और खुशहाली लाता? 21वीं सदी में भी भारतीय मुसलमान के सामने वह सामान्य लक्ष्य नहीं रहे जो उसे इस युग में जी रहे आम आदमी की पहचान दें। अगर बांग्लादेश जैसे छोटे और नये राष्ट्र में जीव-वैज्ञानिक, भूगर्भ-वैज्ञानिक, कृषि-वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, व्यवसायिक विशेषज्ञ, कानूनदां, इतिहासकार, गणितज्ञ आदि हर विशेषज्ञ मुसलमान ही होता है तो फिर भारत में क्यों नहीं हो सकता ? शीबा कहतीं हैं कि- '' विज्ञान-तकनीक से इन्सान को जो राहतें मिलती है उससे एक उपभोक्ता के तौर पर मौलाना परहेज नहीं करते। इंजीनियरिंग, चिकित्सा, आधुनिक कृषि, मोटर-ट्रेन-हवाई जहाज, फोन, टी.वी. इन्टरनेट, कम्प्यूटर, फ्रिज, वाशिंग मशीन, ए.सी. या स्वचालित हथियार जैसे किसी भी आधुनिक यंत्र या सहूलत से दूरी न रखने वाले मौलाना, अपने युवाओं को इन नई खोजों, अविष्कारों में नहीं लगाते। इल्म से होने वाली इन तरक्किय़ों में मुस्लिम समाज का योगदान नहीं के बराबर है जबकि मुसलमान इन सहूलियत के दुनिया में दूसरे नम्बर के उपभोक्ता हैं।"
Monday, 9 August 2010
हिंसा व हत्याएं रोकें, बंगाल को शांति की राह दिखाने वाला बनने दीजिए - ममता की माओवादियों से अपील
लालगढ़। पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में आयोजित रैली में रेल मंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार से माओवादियों के ख़िलाफ़ अभियान बंद करने और शांतिपूर्ण तरीके से बातचीत करने को कहा है। बंगाल को पूरे देश के लिए एक राह दिखाने वाला बनने दीजिए। हिंसा और हत्याएं रोकिए।
उनके बयान राजनीतिक रूप से संवेदनशील हैं क्योंकि ममता बनर्जी केंद्र सरकार में मंत्री हैं और केंद्र सरकार ने हाल में माओवादियों के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ा है.ममता बनर्जी ने कहा,''आज से ही शांति प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए. बंगाल इस संबंध में पूरे भारत को रास्ता दिखा सकता है. हिंसा और हत्याएँ बंद होनी चाहिए. यदि आपको मुझसे कोई समस्या है तो मेधा पाटकर और स्वामी अग्निवेश जैसे लोग पहल कर सकते हैं. लेकिन बातचीत शुरू होनी चाहिए.''
ममता ने कहा,''मैं वादा करती हूँ कि जंगलमहल के विकास के लिए जो भी आवश्यक होगा, वो मैं करूंगी. यदि ज़रूरी हुआ तो मैं यहाँ रेलवे फैक्ट्री स्थापित करने पर भी विचार किया जा सकता है.''आज से ही शांति प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए. बंगाल इस संबंध में पूरे भारत को रास्ता दिखा सकता है. हिंसा और हत्याएँ बंद होनी चाहिए. यदि आपको मुझसे कोई समस्या है तो मेधा पाटकर और स्वामी अग्निवेश जैसे लोग पहल कर सकते हैं. लेकिन बातचीत शुरू होनी चाहिए.ग़ौरतलब है कि इस रैली को माओवादियों का 'पूरा समर्थन' हासिल था.
ममता ने कहा कि माओवादी समस्या का हल बातचीत, शांति और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से हो सकता है. उन्होंने कहा, ‘हमें बताइए कि कहां और कब आप बातचीत के लिए बैठना चाहते हैं. हमलोग शांति के लिए बातचीत करना चाहते हैं. हम लोकतंत्र की बहाली और आतंक मुक्त भारत चाहते हैं.’ माकपा पर आतंक से फायदा उठाने का आरोप लगते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं आपलोगों से हाथ जोड़कर कह रही हूं कि अब हत्याओं की राजनीति नहीं की जानी चाहिए. मैं मौत पर राजनीति नहीं चाहती हूं.’ ममता ने कहा, ‘अगर माकपा का आदमी मारा जाता है, वह एक परिवार से ताल्लुक रखता है. अगर एक माओवादी मरता है तो वह भी एक परिवार से संबंध रखता है और अगर तृणमूल का एक आदमी मरता है तो वह भी किसी परिवार का सदस्य होता है.’
माओवाद प्रभावित लालगढ़ में रेल मंत्री ने रैली को संबोधित करते हुए कहा, ‘अगर आप हिंसा और हत्याएं रोकने को तैयार हो जाते हैं तो बातचीत शुरू हो सकती है. संयुक्त अभियान भी वापस ले लेना चाहिए.’ उन्होंने माओवादियों से रेल सेवा बाधित नहीं करने का आग्रह किया और कहा, ‘अगर ट्रेन सेवाएं रोज बाधित की गईं तो मैं काम कैसे करूंगी? कभी कुछ लोग आपके नाम पर यह करते हैं तो कभी आप ऐसा करते हैं.’ इस साल जनवरी में झाड़ग्राम में आयोजित अपनी रैली का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने इलाके में दो ट्रेनें शुरू की हैं.
पीसीपीए नेताओं की गिरफ्तारी
पुलिस ने रैली स्थल के पास से पीसीपीए के चार नेताओं को गिरफ्तार किया। सुशील महतो को पुलिस ने दोबारा गिरफ्तार किया है। पहले वह पुलिस हिरासत से भाग निकला था। तीन दूसरे नेताओं को वसूली के आरोप में पकड़ा गया है। मगर बीबीसी संवाददाता अमिताभ भट्टासाली का कहना है कि पीपीसीए के नेतृत्व में बड़ी संख्या में लोग रैली में आकर शामिल हुए लेकिन भारी पुलिस बल के बावजूद किसी भी नेता को गिरफ़्तार नहीं किया गया. अमिताभ भट्टासाली का कहना है कि वो लालगढ़ रैली में शामिल हुए लगभग 10 से 12 आदिवासियों के जत्थे के साथ काफ़ी दूर तक चले. इनका नेतृत्व पीसीपीए के सचिव मनोज महतो कर रहे थे और उन्होंने कई पुलिस नाकों को पार किया लेकिन पुलिस ने उनसे कुछ नहीं कहा. मनोज महतो का कहना था,''मैं पुलिस को चुनौती देता हूँ कि वो मुझे गिरफ़्तार करे. हमने आदिवासियों को इस रैली में शामिल होने के लिए प्रेरित किया क्योंकि ये राज्य के आतंक के ख़िलाफ़ है। मालूम हो कि पश्चिम बंगाल के पुलिस प्रमुख भूपिंदर सिंह ने घोषणा की थी कि माओवादियों से जुड़े पीपुल्स कमेटी अगेस्ट पुलिस एट्रोसिटीज़ (पीसीपीए) के नेता यदि रैली में दिखाई दिए तो उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाएगा।
राजनीतिक मकसद
जंगलमहल तीन जिलों (पश्चिमी मिदनापुर, बांकुड़ा और पुरुलिया) में फैला पश्चिम बंगाल का वह इलाका है, जो वामपंथियों का गढ़ है और नक्सलियों के प्रभाव में आ चुका है। 2006 के विधानसभा चुनाव में माकपा को इस इलाके की 18 विधानसभा सीटों में से ज्यादातर पर जीत मिली थी। 2009 लोकसभा चुनाव में भी यहां तृणमूल को कामयाबी नहीं मिली थी। इसलिए ममता बनर्जी इस इलाके में अपनी पैठ मजबूत कर आने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहती हैं।
ममता की मजबूती
रैली को नक्सलियों ने पूरा समर्थन दिया है, जो ममता के लिए उत्साहजनक संकेत है। नक्सली नेता किशनजीके अनुसार रैली गैरराजनीतिक है क्योंकि इसे संघर्ष विरोधी मंच के बैनर तले आयोजित किया गयाहै। और इसीलिए नक्सलियों ने इसे समर्थन दिया है।
ममता बनर्जी ने सोमवार को पिछले महीने नक्सलियों के प्रवक्ता चेरुकुरी राजकुमार उर्फ आजाद को मारने के लिए अपनाए गए तरीके की निंदा की। नक्सलियों के प्रभाव वाले पश्चिमी मिदनापुर जिले में एक विशाल रैली में उन्होंने कहा, 'मैं महसूस करती हूं कि जिस तरह आजाद को मारा गया वह ठीक नहीं है।' उन्होंने नक्सलियों के इस आरोप का लगभग समर्थन किया कि आजाद को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया। गौरतलब है कि पुलिस ने दावा किया था कि नक्सलियों के तीसरे नंबर के नेता आजाद की आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले के जंगलों में मुठभेड़ में मौत हो गई। बनर्जी ने कहा कि नक्सलियों और सरकार के बीच वार्ता के मध्यस्थ सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश ने आजाद को वार्ता के लिए तैयार किया था। संत्रास विरोधी फोरम के तहत आयोजित एक गैर राजनीतिक रैली में बनर्जी ने कहा, 'जो हुआ वह ठीक नहीं है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति आजाद ने विश्वास जताया था।'
नक्सल समर्थन जनजातीय संस्था पुलिस संत्रास विरोधी जन समिति (पीसीएपीए) ने इस रैली को समर्थन दिया। इस रैली में स्वामी अग्निवेश, मेधा पाटकर और नक्सल समर्थक लेखिका महाश्वेता देवी जैसे कई सामाजिक कार्यकर्ता उपस्थित थे। केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के दूसरे सबसे बड़े घटक की नेता बनर्जी ने आजाद की मौत पर शोक जताया। स्वामी अग्निवेश ने आजाद के मारे जाने की घटना की न्यायिक जांच की मांग करते हुए आरोप लगाया कि प्रशासन ने अपने संचार माध्यमों का इस्तेमाल करके नक्सली नेता का पता लगाया और उसे मार दिया। वहीं नक्सलियों का कहना है कि आजाद और एक अन्य कार्यकर्ता हेमचंद पांडे को पुलिस ने गत एक जुलाई को नागपुर से उठाया था और अगले दिन आदिलाबाद में मार डाला था। ( साभार-बीबीसी, आजतक, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण व एजंसियां )
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