मदरसों को बदलने की कोशिश की जा रही है। मदरसे काफी पुराने पाठ्यक्रम और इस्लामी शिक्षा पद्धति पर ही चल रहे थे।पिछले कुछ समय से मदरसों की भूमिका को लेकर लगातार बहस होती रही है, मदरसों पर चरमपंथ को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं। पाकिस्तान की लाल मस्जिद के मदरसे के छात्रों और सैनिकों के बीच टकराव के बाद यह बहस एक बार फिर तेज़ हुई। मालूम हो कि राजेंद्र सच्चर कमिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा के अवसरों से वंचित हैं।
अब उत्तर प्रदेश सरकार ने जहां नया पाठ्यक्रम नए सत्र से लागू करने का फैसला किया है वहीं पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने मदरसों की पढ़ाई को आज की जरूरतों के हिसाब से बदलना तय किया है।और भी राज्यों के मदरसों में तकनीकी शिक्षा की पहल की जा रही है। भारत सरकार ने मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए एक क़ानून बनाने का प्रस्ताव रखा है जिसका उद्देश्य पाठ्यक्रम और पढ़ाई की व्यवस्था को बेहतर बनाना बताया जा रहा है। सरकार मदरसों को सीबीएसई की तरह केंद्रीय मदरसा बोर्ड के तहत लाने के लिए एक क़ानून पारित करना चाहती है। सरकार का कहना है कि इससे मदरसों की पढ़ाई को आधुनिक और उपयोगी बनाया जा सकेगा ।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित कई लोग इस नए क़ानून की पुरज़ोर हिमायत कर रहे हैं, वहीं इसका विरोध करने वाले भी हैं मगर कुछ मुसलमान धार्मिक नेताओं का कहना है कि धार्मिक अध्ययन के केंद्र मदरसों के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप अनुचित है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की राय
हाल ही में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की हुई बैठक में बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना राबे हसनी नदवी ने कहा कि मदरसों में सरकारी हस्तेक्षेप कुबूल नहीं किया जाएगा। दरअसल मौलाना का ये रूख इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि केंद्रीय सरकार मदरसों के लिए केंद्रीय मदरसा बोर्ड बनाने की तैयारी में है। मौलाना ने कहा कि केंद्रीय मदरसा बोर्ड के प्रस्ताव को हम दोनों शैक्षिक संस्थाओं के लिए हानिकारक मानते हैं। उन्होंने कहा कि मदरसों के जरिए इस्लाम की शिक्षा दी जाती है। इस वजह से उसमें हम किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं चाहते। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने प्रस्तावित सांप्रदायिक हिंसा विरोधी बिल पर असहमति जताई है। बोर्ड के प्रवक्ता अब्र्दुरहीम कुरैशी ने कहा कि प्रस्तावित बिल में पीडित लोगों में पीडित लोगों के लिए राहत और फिर से बात नहीं की गई है। पुलिस अपनी जिम्मेदारी सही ढंग से नहीं निभाती है और ऐसे में दंगे के दौरान बेकसूर लोग फंसते है। उन्होंने ये भी कहा कि लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट में तत्कालीन केंद्र सरकार के बारे में कुछ नहीं कहा गया है जिस पर बोर्ड को सख्त ऐतराज है। जिन लोगों को अयोध्या विध्वंस के लिए जिम्मेदार माना गया है उनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए।
उत्तरप्रदेश ने मदरसों के मुगलकालीन पाठ्यक्रम को अलविदा कहा
उत्तर प्रदेश के मदरसे अब कुरआन हदीस और दीगर इस्लामी शिक्षा तक सीमित नहीं रहेंगे। उत्तर प्रदेश अरबी फारसी मदरसा बोर्ड ने दीनी मकतबों के पाठ्यक्रमों को पुनरीक्षण कर संशोधित पाठ्यक्रम लागू करने का फैसला किया है। नये मदरसों में अध्ययनरत छात्र माध्यमिक (आलिया) एवं उच्च शिक्षा (उच्चतर आलिया) स्तर पर सामान्य हिन्दी, अंग्रेजी, कम्प्यूटर, भूगोल, सामाजिक विज्ञान एवं टाइपिंग सहित आधुनिक विषयों का अनिवार्य रूप से अध्ययन करेंगे। शासन ने प्रदेश के लगभग तीन हजार से अधिक मदरसों के लिए संशोधित पाठ्यक्रमों की सूची जारी कर दी है।
मदरसा बोर्ड के रजिस्ट्रार असलम जावेद द्वारा 16 जून को अनुमोदित नये पाठ्यक्रम को अनुदानित एवं गैर अनुदानित मान्यता प्राप्त मदरसों में लागू करने का निर्देश दिया है। मदरसा बोर्ड ने बदले हुए पाठ्यक्रम की जानकारी प्रदेश के समस्त अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारियों को उपलब्ध करा दी है। इस नये फरमान से वर्ष 1917 में स्थापित मदरसों में अब मुगलिया पाठ्यक्रमों की विदाई तय है। मदरसा वसीयतुल उलूम के सचिव मौलाना अहमद मकीन का कहना है कि अधिकतर मदरसों में चल रहा पाठ्यक्रम मुगल शासन के मुल्ला निजामउद्दीन का बनाया हुआ है। इसे दर्स निजामी कहते हैं। अब तक चल रहा था मदरसों को यह मुगलकालीन पाठ्यक्रम।
उत्तर प्रदेश अरबी फारसी मदरसा बोर्ड ने सत्र 2010-11 से दीनी मकतबों में पढ़ाए जाने वाले निसाब में परिवर्तन की पहल तेज कर दी है। हालांकि दर्स आलिया के अंतर्गत मदरसों के पाठ्यक्रम में संशोधन करने की शुरुआत वर्ष 2001 में ही की गई थी। 16 जून को 2010 को संशोधित पाठ्यक्रम पर अंतिम मुहर लगाई गई। नये सत्र से मदरसा बोर्ड के मुंशी और मौलवी स्तर के पाठ्यक्रम एवं इनकी अवधि बदल जायेगी। ( इस खबर को विस्तार से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttarpradesh/4_1_6639172_1.html
पश्चिम बंगाल में अब अंग्रेजी माध्यम मदरसे
http://thatshindi.oneindia.in/news/2009/10/16/bengalmadarsaadas.html
पश्चिम बंगाल के मदरसों में जल्द ही शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी कर दिया जाएगा। पश्चिम बंगाल सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री अब्दुस सत्तार ने कहा है कि इसी शैक्षिक सत्र ( सत्र २००९ ) में दस मदरसों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी कर दिया जाएगा. आने वाले कुछ वर्षों में बाकी के 566 मदरसों में इसे लागू किया जाएगा। इन मदरसों में 70 इसी वर्ष से शुरू किए गए हैं जिनमें 34 सिर्फ़ लड़कियों के लिए हैं। यह बात उन्होंने बीबीसी के संवाददाता सुबीर भौमिक से बातचीत में पिछले साल ( शुक्रवार, अक्तूबर 16, 2009 ) कही थी।
सत्तार, जो ख़ुद एक मदरसा में शिक्षक रह चुके हैं, का कहना था कि धार्मिक स्कूलों के पाठ्यक्रम में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया कुछ महीनों से जारी है. पश्चिम बंगाल के मदरसों में आधुनिक विज्ञान और गणित की पढ़ाई पहले की शुरू की जा चुकी है। सत्तार का कहना था कि अमरीका और पाकिस्तान से विशेषज्ञों का दल मदरसों में आए इस बदलाव का अध्ययन कर चुके हैं। इस बदलाव को यहां का मदरसा बोर्ड मानने को तैयार है। पश्चिम बंगाल में मदरसा शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन सोहराब हुसैन की माने तो अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई किए बिना हमारे बच्चों को बेहतरीन शिक्षा नहीं मिल सकती है। आठ करोड़ की जनसंख्या वाले पश्चिम बंगाल में 26 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है जिनमें ज्यादातर ग़रीब किसान या छोटे कारोबारी है जो अपने बच्चों को मदरसों में ही पढ़ने भेज सकते हैं।
मदरसे का इतिहास
http://dialogueindia.in/magazine/article/maradrson-ki-shiksha
मदरसा अरबी भाषा का शब्द है एवं इसका अर्थ है शिक्षा का स्थान। इस्लाम धर्म एवं दर्शन की उच्च शिक्षा देने वाली शिक्षण संस्थाएं भी मदरसा ही कहलाती है। वास्तव में मदरसों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा देने वाले मदरसों को मक़तब कहते है। यहाँ इस्लाम धर्म का प्रारंभिक ज्ञान कराया जाता है। मध्यम श्रेणी के मदरसों में अरबी भाषा में कुरान एवं इसकी व्याख्या, हदीस इत्यादि पढ़ाई जाती है। इससे भी आगे उच्च श्रेणी के मदरसे होते हैं जिन्हें मदरसा आलिया भी कहते हैं। इनके अध्ययन का स्तर बी.ए. तथा एम.ए. के स्तर का होता है। इनमें अरबी भाषा का साहित्य, इस्लामी दर्शन, यूनानी विज्ञान इत्यादि विषयों का अध्ययन होता है। इन उच्च शिक्षा संस्थानों का पाठ्यक्रम दार्से-निजामी कहलाता है। इसे मुल्ला निजामी नाम के विद्वान ने अठारहवीं शताब्दी में बनाया था एवं ये आज भी वैसा ही चल रहा है। उदारवादी एवं कट्टरपंथी मुसलमानों में इस मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है कि क्या इस पाठ्यक्रम को ज्यों का त्यों जारी रखा जाये या परिर्वितत कर दिया जाये।
शुरुआत हजरत मुहम्मद से
मदरसों की शुरुआत हजरत मुहम्मद से ही मानी जाती है। उन्होंने अपनी मस्जिद में मदरसों की स्थापना की थी एवं वे वहाँ इस्लाम के सिद्वांत एवं कुरान जिस रूप में वह उन पर आयद होती थी, पढ़ाया करते थे। विधिवत रूप से मदरसों की स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में बग़दाद में हुई। लगभग इसी समय इजिप्ट में अल-अजहर नामक मदरसा प्रारम्भ हुआ जो अब विश्व विख्यात इस्लामिक विश्वविद्यालय बन चुका है।
भारतवर्ष में मदरसों की शुरुआत
भारतवर्ष में मदरसों की शुरुआत मुस्लिम बादशाहों के समय से ही हो गई थी। सन् 1206 में जब दिल्ली मे मुस्लिम सुल्तानों के शासन की स्थापना हुई तभी मदरसे भी स्थापित किये गये। प्रारम्भ में इनकी शिक्षा का ढांचा इस प्रकार का रखा गया ताकि शासन के विभिन्न पदों के लिए प्रशिक्षित व्यक्ति मिल सकें। धीरे-धीरे मुसलमान शासकों की अनुकम्पा से मदरसे सम्पूर्ण उत्तर भारत में स्थापित हो गये। अकबर के शासन काल में फतेहउल्ला नामक विद्वान मदरसों की शिक्षा का प्रमुख था एवं उसने पाठ्क्रम में भूगोल, ज्योतिष, भौतिक शास्त्र, दर्शन शास्त्र इत्यादि विषय शामिल कराये। किन्तु औरंगजेब के काल में यह सब बदल दिया गया। उसने इस्लामी विद्वानों की एक टीम बनाकर इस्लामी कानूनों का एक वृहद संग्रह तैयार कराया जिसे फतवा-ए-आलमगीरी कहा गया। लखनऊ में उसने मुल्ला निजामुद्दीन को एक बड़ी इमारत दान दे दी जिसमें एक मदरसा स्थापित किया गया जो फिरंगी महल नाम से आज भी प्रसिद्घ है।
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात् भारतवर्ष से मुस्लिम हुकुमत खत्म हो गई एवं उलेमाओं को यह डर सताने लगा कि अंग्रेजों के प्रभाव एवं नई शिक्षा प्रणाली के कारण साधारण मुसलमानों में इस्लाम का प्रभाव कम हो जायेगा। अत: उन्होंने 1866 में देवबंद में दारुल उलूम की नींव डाली। उसके पश्चात् लखनऊ में नदावत-अल-उलेमा नाम का एक और मदरसा प्रारंभ हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में देवबंद का दारुल उलूम एवं लखनऊ के फिरंगी महल तथा नदावत-उल-उलेमा इस्लामी शिक्षा एवं अरबी-फारसी परम्पराओं के प्रमुख केंद्र बन गये। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अत्यंत वफादार एक अन्य मुस्लिम विद्वान सर सैयद अहमद खान ने 1873 में अलीगढ़ में मदसरातुल उलूम प्रारंभ किया जो बाद में मोहमडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज एवं तत्पश्चात् अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बन गया। सर सैयद अहमद खान का मुसलमानों की शिक्षा के विषय में देवबंदियों से विपरीत विचार था। सर सैयद मुसलमानों की शिक्षा को केवल कुरान, हदीस एवं अरबी भाषा तक सीमित नहीं रखना चाहते थे। उन्होंने अलीगढ़ विश्वद्यिालय के पाठ्यक्रम में समस्त आधुनिक पाठ्यक्रमों को सम्मिलित कराया किन्तु एक बिन्दु पर ये दोनों समान विचार रखते थे एवं वह है मुसलमानों की अलग पहचान। यह विचार ही आगे चलकर द्विराष्ट्र के सिद्घांत का जनक बना जिसकी परिणति देश के विभाजन के रूप में हुई।
आजाद भारत के मदरसे
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बनाये गये संविधन में अल्पसंख्यकों की शिक्षा संस्थाओं को विशेष सुविधाएं दी गईं अत: मदरसों की संख्या में विस्तार हुआ। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता काजी मुहम्मद अब्दुल अब्बासी ने सन् 1959 उत्तर प्रदेश में दीनी तालिमी काउंसिल की स्थापना की जिसका उद्देश्य प्रत्येक मुसलमान बालक को प्राइमरी शिक्षा के स्तर पर इस्लाम की बुनियादी शिक्षा देना था। अब्बासी का विचार था कि सरकारी स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा हिन्दू धर्म पर आधरित है एवं इस्लामी परम्पराओं के विरूद्घ है। काउंसिल मदरसों के लिए कोई सरकारी मदद लेने के भी खिलाफ थी।
गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार असम में 721 मदरसों में 120000, गुजरात में 1825 मदरसों में 120000 छात्र, कर्नाटक में 961 मदरसों में 84864, केरल में 9975 मदरसों में 738000, मध्य प्रदेश में 6000 मदरसों में 400000 एवं राजस्थान में 1780 मदरसों में 25800 छात्र शिक्षा पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में 15000 मकतब एवं 18000 मदरसे तथा बिहार में 3500 मदरसे कार्य कर रहे हैं। अन्य राज्यों की स्थिति भी इसी प्रकार हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार कुल मुस्लिम बच्चों में से चार प्रतिशत ही मदरसों में जाते हैं जबकि कुछ अन्य अनुमानों के अनुसार यह संख्या पच्चीस से तीस प्रतिशत तक है।
सवालों के घेरे में मदरसों की पुरानी शिक्षा पद्धति
मदरसों में जो पाठ्यक्रम लागू किया जाता है वह सैकड़ों वर्ष पुराना है। उसका सम्बन्ध अरब एवं फारस में प्रचलित उस समय की शिक्षा प्रणाली से है। आज भी मदरसों में यही समझा जाता है कि संसार का समस्त ज्ञान अरबी, फारसी के साहित्य में सिमटा हुआ है एवं उससे बाहर निकल कर कुछ भी पढऩे या समझने की आवश्यकता नहीं हैं। इन मदरसों के चलाने वालों ने इस तरफ कभी भी ध्यान नहीं दिया कि शिक्षा का एक उद्देश्य तालिब इल्म को रोजगार मुहैया कराना भी है। प्रसिद्घ विद्वान वहीदुद्दीन खान ने एक स्थान पर लिखा है कि यद्यपि भारतवर्ष में लाखों मदरसे शिक्षा देने के काम में लगे है किन्तु उन्होंने मुस्लिम बच्चों में कभी भी एक विस्तृत दृष्टिकोण विकसित करने का प्रयत्न नहीं किया। प्रसिद्घ लेखिका शीबा असलम फहमी ने मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा को मुसलमानों में गरीबी पनपाने वाली वजूहात में से एक वजह कहा है।
ईसाई समाज अपने स्कूल में ईसाई धर्म की शिक्षा के साथ गणित, साइंस, समाजयात, भाषाएं, कला, संगीत सभी कुछ पढ़ाता है और मिशनरी स्कूलों में अपने बच्चे भेजने के लिए हिन्दू- मुसलमान सभी लालायित रहते हैं। सिक्ख समाज ने भी इसी तरह के उम्दा, सापफ-सुथरे और आधुनिक स्कूल खोल कर अपने धर्म को तरक्की की राह का रोड़ा नहीं बनाया। यह सवाल उठाकर शीबा के कहना है कि हमारे आलिमों का क्या बिगड़ जाता अगर मुसलमान समाज भी अपने दीन की तालीम को तरक्क़ी से जोड़ कर एक ऐसा निजाम पैदा करता जो कि रोजगार और खुशहाली लाता? 21वीं सदी में भी भारतीय मुसलमान के सामने वह सामान्य लक्ष्य नहीं रहे जो उसे इस युग में जी रहे आम आदमी की पहचान दें। अगर बांग्लादेश जैसे छोटे और नये राष्ट्र में जीव-वैज्ञानिक, भूगर्भ-वैज्ञानिक, कृषि-वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, व्यवसायिक विशेषज्ञ, कानूनदां, इतिहासकार, गणितज्ञ आदि हर विशेषज्ञ मुसलमान ही होता है तो फिर भारत में क्यों नहीं हो सकता ? शीबा कहतीं हैं कि- '' विज्ञान-तकनीक से इन्सान को जो राहतें मिलती है उससे एक उपभोक्ता के तौर पर मौलाना परहेज नहीं करते। इंजीनियरिंग, चिकित्सा, आधुनिक कृषि, मोटर-ट्रेन-हवाई जहाज, फोन, टी.वी. इन्टरनेट, कम्प्यूटर, फ्रिज, वाशिंग मशीन, ए.सी. या स्वचालित हथियार जैसे किसी भी आधुनिक यंत्र या सहूलत से दूरी न रखने वाले मौलाना, अपने युवाओं को इन नई खोजों, अविष्कारों में नहीं लगाते। इल्म से होने वाली इन तरक्किय़ों में मुस्लिम समाज का योगदान नहीं के बराबर है जबकि मुसलमान इन सहूलियत के दुनिया में दूसरे नम्बर के उपभोक्ता हैं।"
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