वैश्वीकरण की आंधी में आम आदमी का अस्तित्त्व खतरे में पड़ गया है। अमरीकी अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफ़ेसर जोसेफ़ स्टिग्लिज़ ने चेतावनी दी है कि वैश्वीकरण के कारण भारत जैसे देशों में सार्वजनिक सेवाओं को नुकसान पहुँच सकता है. प्रोफ़ेसर जोसेफ़ स्टिग्लिज़ ने बीबीसी से बातचीत में कहा ,"वैश्वीकरण की वजह से करों में कमी आती है जो कि सरकारी धन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है. जब धन की कमी होगी तो इसका ख़र्च भी आम लोगों पर नहीं हो सकेगा".
प्रोफ़ेसर जोसेफ़ स्टिग्लिज़ ने कहा "वैश्वीकरण ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन विकास में इसकी भूमिका को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है".
उनका कहना था, "आंतरिक राजनीतिक नीति में किए गए परिवर्तन के कारण ही भारत में विकास संभव हुआ है. जहाँ पहले यह नीति कारोबार के अनुकूल नहीं थी वह बाद में काफ़ी अनुकूल बनाई गई".
प्रोफ़ेसर जोसेफ़ ने कहा कि भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में किए गए निवेश से भी काफ़ी कुछ प्राप्त हुआ है जिसने सूचना तकनीक के क्षेत्र में क्रांति के लिए मार्ग प्रशस्त किया है.
उम्मीद की जा रही है कि सूचना तकनीक क्षेत्र में कारोबार इस वर्ष 36 अरब डॉलर तक पहुँच जाने की संभावना है. यह क्षेत्र 28 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है और निर्यात में इसकी भागीदारी लगभग 64 प्रतिशत तक है.
प्रोफ़ेसर जोसेफ़ ने कहा कि आर्थिक उदारवाद की नीतियों का उलटा असर कपास की खेती करने वालों पर पड़ा है और क़र्ज़ के बोझ से दबे किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हुए हैं.
पूंजी बाज़ार को अधिक उदार बनाने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर उलटा असर पड़ सकता है
उन्होंने चेतावनी दी कि पूंजी क्षेत्र को ज़यादा उदार बनाने का उलटा असर भारत की अर्थव्यवसथा पर पड़ सकता है. स्टिग्लिज़ ने कहा कि भारत अपने कृषि क्षेत्र को व्यवस्थित करने में कामयाब नहीं रहा है, अधिकांश क्षेत्रों में आज भी पानी एक महंगी चीज़ है और यह आसानी से उपलब्ध नहीं है.
उन्होंने डेनमार्क का उदाहरण दिया जहाँ कृषि आधारित अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक संतुलित रही है.
उन्होंने कहा "भारत कृषि, सेवा और उत्पाद क्षेत्र में आपसी सामंजस्य बना कर विकास को संतुलित कर सकता है". इन सब बातों के बावजूद प्रोफ़ेसर जेसेफ़ स्टिग्लिज़ मानते हैं कि चीन और भारत जैसे देश भविष्य में भी काफ़ी अच्छा करते रहेंगे. भारत के लिए लोकतंत्र को एक महत्वपूर्ण और मज़बूत पूंजी क़रार दिया। उन्होंने कहा कि भारत को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्रों में और निवेश करने की ज़रूरत है.
सुपरिचित उद्योगपति और ब्रिटिश सांसद लॉर्ड स्वराज पॉल का कहना है कि भारत का विकास तब तक सार्थक नहीं हो सकता जब तक ग़रीबों को इसका लाभ न मिले. आपकी बात बीबीसी के साथ कार्यक्रम में श्रोताओं के सवालों के जवाब देते हुए लॉर्ड पॉल ने कहा कि भारत को दो क्षेत्रों में विशेष ध्यान देना होगा, एक शिक्षा और दूसरा स्वास्थ्य. उन्होंने कहा कि विकास में तेज़ी लाने के लिए भारत के सभी लोगों को एक साथ प्रयास करना होगा और अपने सोचने का तरीक़ा बदलना होगा.
सवाल के जवाब में स्वराज पॉल ने कहा भारत के लिए निर्माण उद्योग बहुत ज़रुरी है.
उन्होंने कहा, "मैं बरसों से मानता रहा हूँ कि निर्माण यानी मैनुफ़ैक्चरिंग उद्योग को आगे बढ़ाया जाना चाहिए क्योंकि इसी के सहारे भारत चीन से मुक़ाबला कर सकता है." उनका कहना था कि निर्माण उद्योग को सूचना प्रोद्योगिकी की तुलना में इसलिए भी प्राथमिकता देनी चाहिए क्योंकि इसमें स्थाई रोज़गार पैदा करने की क्षमता अधिक है. उन्होंने कहा, "भारत सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आगे बढ़ सका क्योंकि इस पर सरकारी नियंत्रण नहीं था और यदि सरकार इसे समझ पाती तो यह क्षेत्र भी आगे नहीं बढ़ पाता." उद्योगपति पॉल ने कहा कि इससे यह भी समझ में आता है कि सरकारों को नियंत्रण कम करना चाहिए.
स्वराज पॉल ने कहा कि सरकार को और लोगों को अपना नज़रिया बदलने की ज़रूरत है.
विदेशी निवेश के लिए अच्छा भविष्य बताते हुए उन्होंने कहा कि सरकार को यह कहना बंद करना होगा कि यदि भारत में उद्योग लगाना है तो एक भारतीय पार्टनर ढूँढ़ना होगा.
मेरी राय में भारत के पास ज्ञान और तकनीक की कमी नहीं है लेकिन भारतीयों की दिक्क़त यह है कि वे इस पर विदेशी लेबल लगाए बिना इसे तरजीह नहीं उन्होंने ब्रिटेन का उदाहरण देते हुए कहा कि वहाँ यदि कोई विदेशी उद्योगपति उद्योग लगाता है तो उसे ब्रिटिश उद्योगपति कहा जाता है न कि विदेशी उद्योगपति.
कहा कि भारत को भ्रष्टाचार कम करना होगा और इसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ सरकार पर नहीं है क्योंकि भ्रष्ट सिर्फ़ सरकार नहीं है, वे लोग भी हैं जो काम करवाने के लिए पैसा देते हैं.
स्वराज पॉल का कहना था कि विकास में हर व्यक्ति को साथ लेना होगा और ग़रीबों को भी प्राथमिकता देनी होगी. उन्होंने कहा, "यदि ग़रीबों को साथ नहीं लिया जाएगा तो आम चाहे जितनी तरक़्की करते रहिए उसका मज़ा नहीं आने वाला."
एक सवाल के जवाब में उन्होंने इस धारणा को ग़लत बताया कि भारत के पास तकनीक नहीं है.
उन्होंने कहा, "मेरी राय में भारत के पास ज्ञान और तकनीक की कमी नहीं है लेकिन भारतीयों की दिक्क़त यह है कि वे इस पर विदेशी लेबल लगाए बिना इसे तरजीह नहीं देते."
उन्होंने कहा कि लोगों को अपनी तकनीक़ को भी इज़्ज़त देना सीखना होगा.
भारतीय राजनीति में आज वामपंथी दल अचानक केंद्रीय भूमिका में आ गए हैं. बीते काफ़ी समय से हावी जाति और धर्म जैसे भावनात्मक मुद्दों का गुबार छंटते ही ऐसा हुआ है.
अचरज नहीं कि वे इस भूमिका के लिए तैयार नहीं लगते और कुल मिलाकर वे कभी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर या भूमंडलीकरण के विरोध के नाम पर “शोषित” हो रहे हैं.
ख़ुद उनकी निष्ठा, अभी तक सामान्य राजनीतिक गिरावटों से दूर रहने की उनकी काबिलियत या फिर भावनात्मक मुद्दे की जगह एक अर्थ में पूर्ण राजनीति करने की ज़िद जैसे उनके गुण अपनी जगह हैं और उनका आदर किया जाना चाहिए. जब कुल वामपंथी राजनीति का मतलब उदारीकरण-भूमंडलीकरण के हर अच्छे-बुरे क़दम का अंध विरोध हो जाए या फिर धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कुछ भी करने वालों की राजनीति का समर्थन करना बन जाए तो मुश्किल हो जाती है.
आज वामपंथी दलों का काफी कुछ मतलब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) हो गया है जिसकी दो राज्यों में सरकारें हैं और जो कुल चुने हुए वामपंथी जनप्रतिनिधियों (सांसदों और विधायकों) में दो तिहाई से ज़्यादा हिस्सा रखती है.
वामपंथी दलों की नीतियों पर भी माकपा की साफ़ पकड़ दिखती है पूरा का पूरा वाममोर्चा अपनी राजनीति और कार्यनीति में जिन मात्र दो बिंदुओं पर सिमट आया है. भाजपा विरोध के नाम पर बाक़ी किसी को भी समर्थन करना और उदारीकरण-भूमंडलीकरण के नाम पर उठने वाले हर क़दम का विरोध करना. इनमें से पहली रणनीति ने खुद उनका और मुल्क़ का कितना नुक़सान किया है, इस विस्तार में जाने की फ़िलहाल ज़रूरत नहीं है.
इधर उदारीकरण का उनका विरोध भी बहुत कुछ कर्मकांड बन कर रह गया है.
केंद्र में शासन कर रहे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में वे भागीदार नहीं हैं पर केंद्र सरकार को वे एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर समर्थन दे रहे हैं.
यह अच्छी बात है और वामपंथी दलों के समर्थन में इससे भी अच्छी बात है कि वे इसकी कोई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष क़ीमत नहीं वसूल रहे हैं.
वे किसी व्यावसायिक लाँबी की पिछले दरवाजे से वकालत करते हों, यह बात सोची भी नहीं जा सकती. जबकि आज की भारतीय और विश्व राजनीति में ऐसी लॉबिंग एक सच्चाई है.
पर जब यह ईमानदारी और ऐसा अंध समर्थन (भाजपा को सत्ता से दूर रखने के उद्देश्य से) एक कर्मकांड का रूप ले ले तो यह न सिर्फ़ दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि राजनीति के लिए भी नुक़सानदेह है.
पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने भी भूमंडलीकरण-उदारीकरण की असफलताओं को, गाँव-देहात-पिछड़े इलाक़ों-बेरोजगारों की सुध न लेने को मुद्दा बनाया था.
कांग्रेस के अंदर भी भूमंडलीकरण विरोधी लॉबी है. पर सत्ता में आने के बाद उसने अपने सुर बदले हैं और उदारीकरण के जनक डॉ मनमोहन सिंह को सरकार की बागडोर पकड़ाकर स्पष्ट संकेत भी दे दिए हैं.
वामपंथी दलों को तब मनमोहन-चिदंबरम की जोड़ी के चुनाव पर आपत्ति नहीं हुई. उनको प्रधानमंत्री-वित्त मंत्री बनाने में कुछ गड़बड़ नहीं दिखी, पर उनके हर क़दम में गड़बड़ दिखने लगी है.
उदारीकरण के फैसलों के लिए जो स्थितियाँ जबावदेह थीं उनके लिए वामपंथी राजनीति और नीतियाँ एक हद तक जिम्मेदार हैं.
और आम वामपंथी दल जो कर रहे हैं, उनसे यही बात सामने आ रही है कि इन नीतियों का कोई विकल्प नहीं है.
अगर आज आप किसी क्षेत्र में विदेशी पूँजी निवेश की सीमा 25 फीसदी रखना ठीक मानते हैं तो कल 49 फीसदी और परसों 74 फीसदी भी ठीक मान लेंगे, यह साफ़ लगता है.
असल में मार्क्सवाद या पूरा का पूरा वामपंथी आंदोलन विकास के जिस मॉडल को आज भी मानता है उसकी कुल दिशा भूमंडलीकरण वाली मौजूदा दिशा से बहुत अलग नहीं है. उसमें सिर्फ़ निजी स्वामित्व हो या सरकार या उसके बहाने पार्टी का इसमें फर्क़ है.
जब सरकार या पार्टी के संचालन वाला मॉडल सारी दुनिया में निजी संचालन की तुलना में असफल हो गया है तो उसकी वकालत का कोई मतलब नहीं बचता है.
और भारी तकनीक, बड़े पूँजीनिवेश का मॉडल चलना है तो ग़रीब मुल्कों के पास दूसरा विकल्प ही नहीं है.
स्वयं वामपंथी प्रभाव ने भी सार्वजनिक क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को जिस हालत में पहुँचाया उसने भी उदारीकरण की ज़रूरत बनाई. अब भूमंडलीकरण और उसके नतीज़ों को लेकर बहस की जा सकती है.
बीते समय के कोटा-परमिट राज तथा लालफीताशाही की समाप्ति ज़रूरी थी इस पर कोई बहस नहीं हो सकती.
वामपंथी दलों की केंद्रीय भूमिका स्वयं उनके लिए कई तरह की मुश्किलें ला रही है.
ऐसा सिर्फ़ आर्थिक नीतियों के मामले में नहीं है - ऐसा कुल राजनीति और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के मामले में भी है.
वामपंथी दलों को अपनी इस भूमिका से आगे और मुश्किलें पेश आएँगी.
उन्हें पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में उसी कांग्रेस से लड़ना है जिसे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वे समर्थन दे रहे हैं.
1 comment:
जिन्दा लोगों की तलाश! मर्जी आपकी, आग्रह हमारा!!
काले अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष को आगे बढाने के लिये, यह टिप्पणी प्रदर्शित होती रहे, आपका इतना सहयोग मिल सके तो भी कम नहीं होगा।
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उक्त शीर्षक पढकर अटपटा जरूर लग रहा होगा, लेकिन सच में इस देश को कुछ जिन्दा लोगों की तलाश है। सागर की तलाश में हम सिर्फ सिर्फ बूंद मात्र हैं, लेकिन सागर बूंद को नकार नहीं सकता। बूंद के बिना सागर को कोई फर्क नहीं पडता हो, लेकिन बूंद का सागर के बिना कोई अस्तित्व नहीं है।
आग्रह है कि बूंद से सागर में मिलन की दुरूह राह में आप सहित प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति का सहयोग जरूरी है। यदि यह टिप्पणी प्रदर्शित होगी तो निश्चय ही विचार की यात्रा में आप भी सारथी बन जायेंगे।
हम ऐसे कुछ जिन्दा लोगों की तलाश में हैं, जिनके दिल में भगत सिंह जैसा जज्बा तो हो, लेकिन इस जज्बे की आग से अपने आपको जलने से बचाने की समझ भी हो, क्योंकि जोश में भगत सिंह ने यही नासमझी की थी। जिसका दुःख आने वाली पीढियों को सदैव सताता रहेगा। गौरे अंग्रेजों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, असफाकउल्लाह खाँ, चन्द्र शेखर आजाद जैसे असंख्य आजादी के दीवानों की भांति अलख जगाने वाले समर्पित और जिन्दादिल लोगों की आज के काले अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से लडने हेतु तलाश है।
इस देश में कानून का संरक्षण प्राप्त गुण्डों का राज कायम हो चुका है। सरकार द्वारा देश का विकास एवं उत्थान करने व जवाबदेह प्रशासनिक ढांचा खडा करने के लिये, हमसे हजारों तरीकों से टेक्स वूसला जाता है, लेकिन राजनेताओं के साथ-साथ अफसरशाही ने इस देश को खोखला और लोकतन्त्र को पंगु बना दिया गया है।
अफसर, जिन्हें संविधान में लोक सेवक (जनता के नौकर) कहा गया है, हकीकत में जनता के स्वामी बन बैठे हैं। सरकारी धन को डकारना और जनता पर अत्याचार करना इन्होंने कानूनी अधिकार समझ लिया है। कुछ स्वार्थी लोग इनका साथ देकर देश की अस्सी प्रतिशत जनता का कदम-कदम पर शोषण एवं तिरस्कार कर रहे हैं।
अतः हमें समझना होगा कि आज देश में भूख, चोरी, डकैती, मिलावट, जासूसी, नक्सलवाद, कालाबाजारी, मंहगाई आदि जो कुछ भी गैर-कानूनी ताण्डव हो रहा है, उसका सबसे बडा कारण है, भ्रष्ट एवं बेलगाम अफसरशाही द्वारा सत्ता का मनमाना दुरुपयोग करके भी कानून के शिकंजे बच निकलना।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह के आदर्शों को सामने रखकर 1993 में स्थापित-ष्भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थानष् (बास)-के 17 राज्यों में सेवारत 4300 से अधिक रजिस्टर्ड आजीवन सदस्यों की ओर से दूसरा सवाल-
सरकारी कुर्सी पर बैठकर, भेदभाव, मनमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और गैर-कानूनी काम करने वाले लोक सेवकों को भारतीय दण्ड विधानों के तहत कठोर सजा नहीं मिलने के कारण आम व्यक्ति की प्रगति में रुकावट एवं देश की एकता, शान्ति, सम्प्रभुता और धर्म-निरपेक्षता को लगातार खतरा पैदा हो रहा है! हम हमारे इन नौकरों (लोक सेवकों) को यों हीं कब तक सहते रहेंगे?
जो भी व्यक्ति स्वेच्छा से इस जनान्दोलन से जुडना चाहें, उसका स्वागत है और निःशुल्क सदस्यता फार्म प्राप्ति हेतु लिखें :-
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय अध्यक्ष
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय
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फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8) मो. 098285-02666
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