Wednesday, 30 May 2007

बिहार और उत्तर प्रदेश में एड्स

भारत में एड्स की रोकथाम के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रम नैको की अध्यक्ष सुजाता राव ने चेतावनी दी है कि बिहार और उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में एड्स महामारी का रूप ले सकता है. राव ने कहा कि राज्य सरकारों को एड्स की रोकथाम के लिए क़दम उठाने होंगे.
बीबीसी से बातचीत में सुजाता राव ने कहा कि हाल ही में कराए गए सर्वेक्षण के अनुसार बिहार के दो और उत्तर प्रदेश के चार ज़िलों में बड़ी संख्या में गर्भवती महिलाएँ एड्स की शिकार हैं.
बिहार के दो ज़िले हैं लखीसराय और सहरसा जबकि उत्तर प्रदेश के ज़िलों के नाम अभी नहीं बताए गए हैं। इन ज़िलों में सर्वेक्षण में यह पाया गया कि दस में से एक गर्भवती महिला को एचआईवी संक्रमण है. सुजाता राव ने कहा, "एड्स महामारी रोकने के लिए राज्य सरकारों को कड़े क़दम उठाने होंगे."
सुजाता राव, अध्यक्ष, नैको ने कहा कि जून में इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट सार्वजनिक की जाएगी.
उन्होंने कहा कि इस बार उत्तर प्रदेश और बिहार में व्यापक सर्वे कराए गए थे.
उनका मानना है कि इन दोनों राज्यों की सरकारें इस विषय को गंभीरता से नहीं ले रही हैं.
राव ने कहा कि उत्तर प्रदेश और बिहार में स्थिति उसी तरह है जैसे दस साल पहले एचआईवी की स्थिति आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में थी.
दक्षिण भारतीय राज्यों और उत्तर प्रदेश-बिहार की ज़मीनी हक़ीकत में एक अहम अंतर ये है कि इन राज्यों में स्वास्थ्य सेवाएँ ख़स्ता हाल में हैं.
बिहार में एड्स रोकथाम संस्थान के एक उच्च अधिकारी ने नैको अध्यक्ष के आकलन की पुष्टि करते हुए कहा कि बिहार इस समय महामारी की कगार पर खड़ा है.
उनका कहना है कि राज्य के आठ प्रभावित ज़िलों में अब दो और ज़िले पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण शामिल हो गए हैं.
बिहार में एचआईवी से प्रभावित लोगों की संख्या 2005-07 में 2786 से बढ़कर 2006-07 में 4254 हो गई है.
बिहार और उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बुरी है
राज्य के अधिकारियों का कहना है कि बिहार में एड्स प्रभावितों की संख्या बढ़ने की मुख्य वजह ये है कि हज़ारों की तादाद में यहाँ के पुरुष रोज़गार के लिए गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब जाते हैं.
जब वो अपने घर लौटते हैं तो एड्स की बीमारी फैलती है.
बिहार एड्स नियंत्रण प्राधिकरण के विशाल सिंह का कहना है कि राज्य में बढ़ती एड्स की समस्या को काबू में लाने के लिए यह ज़रूरी है कि गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब की सरकारें अन्य प्रदेशों से वहाँ आए श्रमिकों में एड्स के प्रति जागरूकता पैदा करें.
उत्तर प्रदेश एड्स नियंत्रण प्राधिकरण के डॉ आरपी माथुर भी दूसरे राज्यों में गए प्रदेश के श्रमिकों को एड्स फैलाने का ज़िम्मेदार ठहराते हैं.
उन्होंने कहा कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी और अशिक्षा के चलते एड्स तेज़ी से फैल रहा है.
डॉक्टर माथुर ने कहा कि पिछले वर्षों में यह पाया गया है कि राज्य में एड्स के 60 फ़ीसदी मामले पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए हैं.संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएड्स ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा है कि कुछ भारतीय राज्यों में एड्स संक्रमण की दर तो स्थिर हो गई है लेकिन कई अन्य राज्यों में अभी भी ख़तरा बना हुआ है.इस रिपोर्ट के अनुसार अभी भी गर्भवती महिलाओं को संक्रमण का ख़तरा बहुत अधिक बना हुआ है.
वैसे रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में एचआईवी वायरस से प्रभावित लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है. भारत में 51 लाख लोग एचआईवी वायरस से संक्रमित हैं। यूएनएड्स के अनुसार दक्षिण और पश्चिमी राज्यों तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में संक्रमण की दर में स्थिरता आई है.
लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे ग़रीब और सघन जनसंख्या वाले उत्तरी भारत के राज्यों में गर्भवती महिलाओं में संक्रमण का ख़तरा बहुत अधिक है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि औद्योगिक राज्यों तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र और उत्तर पूर्वी राज्यों नागालैंड और मणिपुर में एक प्रतिशत से अधिक महिलाओं में एड्स के वायरस पाए गए.
यूएनएड्स का कहना है कि इन महिलाओं को वायरस उनके पति से ही मिल रहा है और अब इसका दायरा शहरी इलाक़ों के बाहर भी बढ़ रहा है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि इन पुरुषों को एड्स वेश्याओं से असुरक्षित यौन संबंधों के कारण हुआ है.
वर्ष 2003 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार कर्नाटक की 14 प्रतिशत और आंध्र प्रदेश की 19 प्रतिशत वेश्याओं को एड्स संक्रमित पाया गया.
मैसूर में किए गए एक सर्वेक्षण में 26 प्रतिशत वेश्याओं को एड्स संक्रमित पाया गया. इनमें से 14 प्रतिशत को अपने ग्राहकों के साथ नियमित रुप से कंडोम का प्रयोग करती हैं और 91 प्रतिशत अपने पतियों या साथियों के साथ कभी कंडोम का उपयोग नहीं करतीं.
शिक्षा का लाभ
सोनागाछी में कई संस्थाओं ने गंभीरता से सुरक्षित यौन संबंधों की शिक्षा दी है
कोलकाता के रेड लाइट एरिया में किए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि सुरक्षित यौन संबंध की शिक्षा देने से एचआईवी संक्रमण को कम किया जा सकता है.
सोनागाछी में कंडोम का प्रयोग 85 प्रतिशत बढ़ गया है जिससे 2004 में एड्स संक्रमण की दर 2001 के 11 प्रतिशत की तुलना में घटकर 4 प्रतिशत हो गई.
लेकिन मुंबई में चूंकि इस तरह की शिक्षा नहीं दी गई इसलिए वहाँ वेश्याओं के बीच अभी भी संक्रमण दर 52 प्रतिशत से कम नहीं हुई है.
रिपोर्ट में भारत में भी नशे की लत वालों के बीच इंजेक्शन के ज़रिए और फिर शारीरिक संबंधों के कारण एड्स के बढ़ते ख़तरे को रेखांकित किया गया है.
भारत में एड्स की स्थिति के बारे में विश्व बैंक का अनुमान है कि वर्ष 2005 तक भारत में सबसे ज़्यादा एचआईवी ग्रस्त लोग होंगे.
भारत सरकार और यूएनएड्स का आकलन है कि देश में लगभग पैंतालीस लाख लोग एड्स का शिकार हैं.
एक तरफ़ बीमारी का कष्ट तो दूसरी तरफ़ समाज की ओर से उठती सवालिया निगाहों का दंश, एड्स पीड़ित को भारत में अब भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.
ये आँकड़ा देश की जनसंख्या का एक प्रतिशत से भी कम ही है और शायद यही वजह है कि इतनी बड़ी संख्या में एड्स पीड़ितों के बावजूद देश को कम प्रभावित वाले देशों की श्रेणी में ही रखा गया है.
देश के छह प्रदेशों में इसकी स्थिति ख़ासतौर पर चिंताजनक मानी जाती है. इसमें तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मणिपुर और नगालैंड शामिल हैं.
इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि 1998 में मारे जाने वालों में से एड्स की वजह से दो प्रतिशत लोगों की जान गई थी.
एक अनुमान के अनुसार देश में हर साल लगभग 3,30,000 युवा एड्स का शिकार होते हैं.
भारत में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन की प्रमुख मीनाक्षी दत्ता घोष का कहना है कि इस दिशा में काम किया जा रहा है मगर पुरुषों में कॉन्डम के इस्तेमाल को लेकर अब भी उत्साह नहीं है और सरकार के लिए ये चिंता का विषय भी है.
सरकार ने अब तक तो जागरूकता फैलाने का काम किया है मगर अब सरकार पूरी जानकारी देने की कोशिश में है. इसी तरह ऐंटीरेट्रोवायरल ड्रग्स की ऊँची क़ीमतों को कम कराना भी सरकार की प्राथमिकताओं में से है सुषमा स्वराज भारत में एड्स की कई वजहों में असुरक्षित यौन संबंध एक प्रमुख वजह है. देश के कुल मामलों में से 84 प्रतिशत मामले तो इसी वजह से होते हैं. यौनकर्मियों और उनके ग्राहकों में एड्स की दर काफ़ी ऊँची है.
उसके अलावा संक्रमित सुई का इस्तेमाल करने वालों की संख्या भी कम नहीं है.
लोगों में जागरूकता का अंदाज़ा इसी बात से लगता है कि एक आम ट्रक चालक एचआईवी के बारे में सुनकर पूछता है कि क्या ये किसी नई कंपनी का नाम है?
ट्रक चालकों का एक जगह से दूसरे जगह जाना और उनका असुरक्षित यौन संबंध में लिप्त होना भी एक प्रमुख वजह है। सरकार इस बारे में लोगों को जागरूक करने के साथ ही और क़दम उठाने की दिशा में भी गंभीरता से काम करने का दावा कर रही है.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री सुषमा स्वराज के अनुसार सरकार ने अब तक तो जागरूकता फैलाने का काम किया है मगर अब सरकार पूरी जानकारी देने की कोशिश में है. इसी तरह ऐंटीरेट्रोवायरल ड्रग्स की ऊँची क़ीमतों को कम कराना भी सरकार की प्राथमिकताओं में से है.
मगर सरकार को अभी लोगों में जागरूकता फैलाने वाले कार्यक्रमों को और प्रभावी बनाना होगा.
कॉन्डम के इस्तेमाल को बढ़ावा देना होगा और ग़ैर-सरकारी संगठनों के साथ ही अन्य संगठनों को भी इसमें शामिल करना होगा.
भारत में एड्स की वजह से समाज में व्यक्ति की स्थिति भी इतनी ख़राब हो जाती है कि एक तरफ़ तो वह बीमारी से जूझ रहा होता है और दूसरी तरफ़ वह समाज की हिकारत भरी नज़रें झेल रहा होता है.
उसे न सिर्फ़ समाज बल्कि कभी-कभी तो परिवार से भी उपेक्षा ही मिलती है ऐसे में वह व्यक्ति एक तरह से दोहरी मार ही झेल रहा होता है.
इस बारे में संगठन काम तो कर रहे हैं मगर फिर भी अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी ही है.
एड्स की वजह से दुनिया में हर रोज़ लगभग आठ हज़ार लोग मौत का शिकार हो रहे हैं और इस तरह इसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी समस्या का रूप ले लिया है.
दिसंबर महीने की पहली तारीख़ को विश्व एड्स दिवस के रूप में मनाया जाता है मगर इसके बावजूद जागरूकता की इतनी कमी है कि इसका शिकंजा कसता ही जा रहा है.
दुनिया में जो लगभग चार करोड़ लोग एड्स का शिकार हैं उनके और उनके संबंधियों के लिए तो हर दिन शायद एड्स दिवस ही बन चुका है.
स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि संयुक्त राष्ट्र के अनुसार इसने मानवता के लिए सबसे बड़ी महामारी का रूप ले लिया है.
भारत में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन के आँकड़ों के अनुसार लगभग 45 लाख लोग एड्स का शिकार हो चुके हैं और इससे ज़्यादा मामले सिर्फ़ दक्षिण अफ़्रीका में ही सामने आए हैं। तीन दशक पहले एड्स के बारे में लोगों को पता चला और तब से अब तक लगभग साढ़े छह करोड़ लोग इसका शिकार भी हो चुके हैं। हर मिनट पाँच और हर दिन लगभग 8,000 लोगों की जान ये ले रहा है. पिछले साल लगभग 30 लाख लोग इसकी भेंट चढ़ गए.
अफ़्रीका में एड्स ने महामारी का रूप ले लिया है सहारा से लगे अफ़्रीकी देशों के लिए एड्स ही लोगों की जान लेने वाला सबसे बड़ा कारण है मगर ये सिर्फ़ वहीं तक सीमित नहीं है और अब डर ये बन गया है कि एड्स जल्दी ही एशिया को भी अपनी चपेट में ले लेगा.
स्थिति नियंत्रण से कितनी बाहर है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यदि अफ़्रीका में पूरी क्षमता से भी अभियान चलाया जाए तब भी मौत की दर सिर्फ़ धीमी ही हो पाएगी बंद नहीं.
दुनिया भर के एड्स के मामलों में से लगभग 15 प्रतिशत तो दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में ही हैं.
जिस तरह इसने विकासशील देशों में अपने पैर फैलाए हैं और इसकी वजह से कई मानवीय समस्याओं के साथ ही आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास को भी ख़तरा पैदा हो गया है.
बात सिर्फ़ रोग के फैलने तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके रोगी को समाज में लोगों की नज़रों का जिस तरह सामना करना पड़ता है वह उसे रोज़ एक मौत देता है.
लोगों में जागरूकता भारत जैसे बड़ी जनसंख्या वाले देशों के लिए एक बड़ी चुनौती है.
भारत में एड्सग्रस्त लोगों की संख्या काफ़ी तेज़ी से बढ़ रही है आज भी स्थिति ऐसी है कि कहीं-कहीं तो पढ़े-लिखे डॉक्टर तक एड्स के रोगियों के पास फटकने से घबराते हैं.
लोगों को इतनी छोटी सी बात नहीं मालूम कि वे कॉन्डम के इस्तेमाल से या साफ़-सुथरी सुई के इस्तेमाल से इस भयानक रोग से बच सकते हैं.
युवा पीढ़ी जिस तरह इस रोग का शिकार बन रही है उससे भविष्य काफ़ी ख़तरनाक रुख़ ले सकता है.
अधिकतर 15 से 24 वर्ष की आयु के बीच के लोग इसकी भेंट चढ़ रहे हैं.
सहारा से लगे अफ़्रीकी देशों में तो महिलाएँ और बच्चे ज़्यादातर इससे प्रभावित हैं और वे ही वहाँ के 80 प्रतिशत तक खाद्य उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार हैं. ऐसे में एड्स सिर्फ़ लोगों की जान ही नहीं ले रहा है बल्कि उन्हें खाने से भी महरूम कर रहा है.
वैज्ञानिकों का मानना है कि एचआईवी या एड्स का एक रूप अफ़्रीका की आबादी में क़रीब 60 साल पहले आया था और युद्ध ने इसके फैलने में मदद की थी.
हालांकि एचआईवी का एक ही वायरस माना जाता है लेकिन इसके दो रूप होते है- एचआईवी-1 और एचआईवी-2.
एचआईवी-1 चिम्पैंजी से आया और दुनियाभर में फैला लेकिन एचआईवी-2 बंदरों से आया और सिर्फ़ पश्चिमी अफ़्रीका तक ही सीमित रहा जहाँ क़रीब एक प्रतिशत आबादी इससे संक्रमित है.
युद्ध से फैलाव
अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं की एक टीम ने अनुमान लगाया है कि मानव में एचआईवी-2 सन् 1890 और 1940 के बीच आया था और लगभग उसी समय एचआईवी-1 दुनियाभर में फैलना शुरू हुआ.
शोधकर्ताओं ने अफ़्रीकी देश गिनी-बिसाउ में एचआईवी-2 के फैलने पर शोध किया जिसके बाद उन्होंने पाया कि एचआईवी-2 1960 के दशक में बड़े पैमाने पर फैला.
उस समय ये देश अपनी आज़ादी के लिए पुर्तगाल के साथ लड़ रहा था.
इस लड़ाई में पुर्तगाल के सैनिक एचआईवी-2 से ग्रस्त होने वाले पहले यूरोपीय थे.
शोधकर्ताओं का कहना है कि युद्ध के समय बड़े पैमाने पर एक इंजेक्शन का इस्तेमाल विभिन्न लोगों में किया जाता था जिसने इसके विस्तार में मदद की.
विशेषज्ञों को उम्मीद है कि जितनी जल्दी वे एचआईवी के फैलने के बारे में जानकारी हासिल करेंगे उतनी ही जल्दी वे उससे लड़ने का रास्ता ढूँढ़ सकेंगे.
ये शोध अमरीका में विज्ञान की राष्ट्रीय अकादमी ने प्रकाशित किया गया है.रेट्रोवायरस क्या है? कुछ और ही ऐसे सवालों के जवाब. एचआईवी से जुड़े प्रमुख शब्दों के अर्थ जानने लिए और पढ़ें...
एड्स (अक्वायर्ड इम्यूनोडेफ़िसिएंसी सिंड्रोम)
एचआईवी संक्रमण का सबसे ख़तरनाक परिणाम एड्स है. यह तब होता है जब शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता एकदम ख़त्म हो जाती है.
एड्स ग्रस्त रोगियों को आमतौर पर फेफड़ों, दिमाग़, आँखों और कुछ अन्य अंगों में संक्रमण फैलता है.
इन रोगियों के वज़न में अचानक गिरावट आ जाती है. साथ ही डायरिया और कई तरह के कैंसर भी हो जाते हैं.
ऐंटीबॉडीज़
ऐंटीबॉडीज़ शरीर की प्रतिरोधक क्षमता के ज़रिए उत्सर्जित उस प्रोटीन को कहते हैं जिससे रोगों के संक्रमण से लड़ने में शरीर को मदद मिलती है.
ऐंटीजेन
ऐसी कोई भी बाहरी चीज़ जो शरीर में प्रतिक्रियास्वरूप ऐंटीबॉडीज़ के निर्माण के लिए स्थितियाँ पैदा करे. ये बाहरी चीज़ें वायरस, कीटाणु या प्रोटीन भी हो सकतीं हैं.
ऐंटीरेट्रोवायरल दवाइयाँ
ये वो दवाईयाँ होती हैं जिनके प्रयोग से एचआईवी वायरसों को शरीर के अंदर बढ़ने से रोका जाता है.
सीडीफ़ोरप्लस कोशिका
ये एक ऐसी प्रतिरोधक कोशिका है जो रोगों से लड़ने वाली प्रतिरक्षा प्रणाली की मदद करती है. एचआईवी के संक्रमण से ये कोशिकाएं नष्ट हो जातीं हैं और शरीर की प्रतिक्षा प्रणाली संक्रमण से लड़ने के मामले में कमज़ोर पड़ जाता है. ये रक्त में प्रति घन मिलीमीटर के हिसाब से रहती हैं. किसी स्वस्थ व्यक्ति के रक्त के प्रति घन मिलीमीटर में क़रीब 600 से 1200 कोशिकाएँ रहती हैं. मगर एड्स से प्रभावित रोगियों में इन कोशिकाओं की संख्या 200 से भी कम हो जाती हैं.
कॉंबिनेशन थेरपी
कॉबिनेशन का मतलब होता है मेल या मिलाजुला हुआ. दरअसल दो या अधिक ऐंटीरेट्रोवायरल दवाईयों या उपचारों को अधिक से अधिक प्रभावी परिणाम पाने के उद्देश्य से एक साथ इस्तेमाल में लाने की प्रक्रिया कॉबिनेशन थेरपी कहलाती है.
फ़्यूज़न इन्हीबिटर्स
ये दवाइयों का एक वर्ग है जिसका इस्तेमाल शरीर की कोशिकाओं में एचआईवी के प्रवेश और फैलाव को रोकने के लिए किया जाता है. अब तक सिर्फ़ एक फ्यूज़न इन्हीबिटर उपलब्ध है जिसका नाम फ्यूज़िओन है.
डीएनए
डिऑक्सीराइबोन्यूक्लीक एसिड यानी डीएनए को जीवन की इकाई भी कहते हैं. इनका काम कोशिकाओं के निर्माण में आवश्यक अनुवांशिक सूचनाएं देना है. साथ ही डीएनए का काम ये देखना भी है कि ये कोशिकाएँ अच्छी तरह से काम कर रहीं हैं या नहीं.
एंजाइम्स
एंजाइम्स वो प्रोटीन होते हैं जो एक ख़ास तरह की रासायनिक प्रतिक्रिया में मदद करते हैं.
हाइली ऐक्टीव ऐंटीरेट्रोवायरल थेरपी (हार्ट)
हार्ट तीन या चार अलग-अलग तरह के उपचार के तरीकों का मिलाजुला रूप है. इसे एचआईवी को बढ़ने से रोकने के लिए बहुत ही कारगर माना जाता है. साथ ही ये रोगियों के खून में वायरस को बहुत कम भी कर देता है.
ह्यूमन इम्यूनोडेफ़िसिएंसी वायरस टाइप1 (एचआईवी-1)
ये एक ऐसा वायरस है जो एड्स के सबसे अधिक मामलों के पीछे है. ये वायरस अपने जीन्स को कोशिका में डालकर उसे अपने काम से रोकता है और उसे एक एचआईवी फ़ैक्टरी में तब्दील कर देता है.
ह्यूमन इम्यूनोडेफ़िसिएंसी वायरस टाइप2 (एचआईवी-2)
ये एचआईवी-1 से मिलता जुलता वायरस है जो काफ़ी सक्रियता से एड्स फैलाता है. इसे सबसे पहले पश्चिमी अफ़्रीका में पाया गया.
इम्यून सिस्टम
शरीर में उपस्थित प्रतिरोध क्षमता या रोगों से लड़ने की शरीर की क्षमता को इम्यून सिस्टम कहते हैं.
इंटिग्रेस इंहिबिटर्स
ये दवाइयाँ अभी बन रहीं हैं. इनका इस्तेमाल एचआईवी के इंटिग्रेस एंजाइम को रोकने के लिए किया जाएगा. जब एचआईवी वायरस शरीर की कोशिका में अपने जीन छोड़ती है तब उस प्रक्रिया को रोकने के लिए भी इंटिग्रेस इंहीबिटर्स की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है.
कापोसी सरकोमा
ये एड्स से मिलने जुलने वाला कैंसर की एक किस्म है. ये शरीर पर या मुँह के भीतर गुलाबी और बैंगनी धब्बों के रूप में नज़र आता है. इन धब्बों में ज़रा सा भी दर्द नहीं होता है. ये आँखों में भी हो सकते हैं.
लॉंग टर्म नॉन प्रोग्रेसर
लॉंग टर्म नॉन प्रोगेसर यानी लंबे समय तक कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला दरअसल एड्स के उस रोगी को कहते हैं जो एचआईवी के साथ सात से बारह वर्षों से रह रहा हो और वो भी किसी ऐंटीरेट्रोवायरल चिकित्सा के बिना. ऐसे रोगियों में सीडीफ़ोरप्लस कोशिकाओं की संख्या घटती-बढ़ती नहीं है.
मैक्रोफ़ेज़
ये वो बड़ी कोशिकाएं होतीं हैं जो बिना नष्ट हुए लगातार संक्रमण फैलाने वाले तत्वों से लड़तीं हैं. साथ ही ये दूसरी कोशिकाओं को भी इसी तरह से काम करने के लिए उकसाती हैं.
ऑपरचुनिस्टिक इंफ़ेक्शन
ये संक्रमण उन लोगों को होता है जिनकी रोग से लड़ने की क्षमता में कमी हो जाती है. ये एक ऐसे जीवाणु से होने वाला संक्रमण है जो मज़बूत प्रतिरोध वाले लोगों के शरीर में असर नहीं डाल सकता.
प्रोटीन
प्रोटीन का निर्माण एक या एक से अधिक अमीनो एसिड से होता है. प्रोटीन का इस्तेमाल शरीर की कोशिकाओं, ऊतक और अंगों की संरचना के साथ ही कार्य प्रणाली के निर्धारण में होता है.
प्रोटीज़ इन्हिबिटर्स
ये एंटीरेट्रोवायरल दवाईयों का एक वर्ग है. इसका इस्तेमाल एचआईवी प्रोटीज़ एंज़ाइम को काम करने से रोकने के लिए होता है. ये केमिकल सिज़र्स यानी रासायनिक कैंची की तरह काम करता है जिससे नई बनी प्रोटीन की श्रृंखला तोड़ी जा सके.
रेज़िसटेंस /प्रतिरोध
विशेषज्ञों को इस बात की चिंता है कि एचआईवी पर अब धीरे-धीरे पहले से उपलब्ध दवाइयों का असर नहीं हो रहा है.
रेट्रोवायरस
आरएनए के निर्माण के लिए आनुवांशिक सूचनाएँ देने वाले वायरस के प्रकार को रेट्रोवायरस कहते हैं. एचआईवी एक तरह का रेट्रोवायरस ही है. इसके कुछ प्रकारों से कैंसर भी हो सकता है.
रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज़ इंहिबिटर्स
ये ऐसी दवाइयाँ हैं जो उन एंज़ाइमों को रोकतीं हैं जिनकी मदद से एचआईवी अपनी संख्या को बढ़ाते हैं. ऐंटीरेट्रोवायरल दवाइयों का ये सबसे पुराना वर्ग है और मुख्य रूप से तीन प्रकार का होता है-
न्यूक्लियोसाइड रिवर्स ट्रांस्क्रिप्टेज़ इंहिबिटर्सन्यूक्लियोटाइड रिवर्स ट्रांस्क्रिप्टेज़ इंहिबिटर्स औरनॉन-न्यूक्लियोसाइड रिवर्स ट्रांस्क्रिप्टेज़ इंहिबिटर्सआरएनए
ये ऐसे तत्व होते हैं जिनकी संरचना डीएनए से मिलती जुलती होती है और ये आनुवांशिक सूचनाओं को डीएनए से लेकर शरीर की दूसरी कोशिकाओं तक पहुँचाने का काम करते हैं. ये कोशिका के भीतर होने वाले कुछ रासायनिक समीकरणों को भी नियंत्रित करते हैं.
टी सेल
ये वे श्वेत रक्तकण होते हैं जिनका मुख्य काम शरीर की प्रतिरोध क्षमता में समन्वय बैठाना होता है. ये संक्रमित कोशिका को शरीर की रोग से लड़ने वाली क्षमता का आभास कराता है. सीडीफ़ोरप्लस कोशिकाएँ भी एक तरह की टी सेल ही हैं.
ट्रांसमिशन
ये एक प्रक्रिया है जिसके तहत वायरस एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचते हैं. एचआईवी शरीर के मौजूद तरह-तरह के द्रव्यों ख़ासकर रक्त,वीर्य इत्यादि से एक व्यक्ति से दूसरे तक पहुँच सकता है. एचआईवी फैलने का सबसे आम कारण असुरक्षित यौन संबंध और दवाइयों को शरीर में डालने के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली सुइयाँ हैं. साथ ही किसी एड्स से संक्रमित औरत के शरीर से दूध के ज़रिए उसके बच्चे में एचआईवी पहुँचने का मामला भी बहुतायत में पाया जाता है.
वायरल लोड
रक्त में पाए जाने वाले एचआईवी के अनुपात को वायरल लोड कहते हैं. इसे प्रति मिलीलिटर रक्त प्लाज़्मा में पाए जाने वाले वायरसों की संख्या के हिसाब से देखा जाता है.
बार्सिलोना में जारी अंतरराष्ट्रीय एड्स सम्मेलन में, सोमवार को, एड्स निरोधक टीके और इससे प्रभावित लोगों के लिए एक नई दवाई की घोषणा की गई है.
अमरीकी कंपनी वैक्सजेन का दावा है कि यह टीका अगले पाँच वर्ष में ही उपलब्ध करा दिया जाएगा.
पहले माना जा रहा था कि यह दस वर्ष में तैयार हो पाएगा.
पियो का कहना है राजनीतिज्ञों को इस मामले को गंभीरता से लेना होगा लेकिन संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनएड्स द्वारा आयोजित छह दिन तक चलने वाले इस सम्मेलन में इस तरह के विवरण भी सुने जाएँगे कि अमरीका मे ही एड्स को लेकर जानकारी की कितनी कमी है.
रविवार को सम्मेलन के उदघाटन सत्र में यूएनएड्स के प्रमुख डॉक्टर पीटर पियो ने कहा था कि जो राजनेता इस बीमारी के ख़िलाफ़ मुहिम को गंभीरता से नही लेते हैं उन्हें उनके पदों से हटा दिया जाना चाहिए.
उन्होंने कहा, "हमें उस दिन का इंतज़ार है जब एड्स उन्मूलन का अपना वादा पूरा करने वाले नेताओं में हम अपनी पूरी आस्था प्रकट करेंगे और इसकी अवहेलना करने वालों को हटा दिया जाएगा".
इस सम्मेलन में समृद्ध देशों से यह आह्वान भी किया जाएगा कि वे इस समस्या से निबटने में विकासशील देशों को और सहायता दें.
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि एड्स से लड़ने के लिए प्रतिवर्ष दस अरब डॉलर की ज़रूरत है जबकि इस समय इस मद मे केवल तीन अरब डॉलर ख़र्च किए जाते हैं.
आठ टीकों का परीक्षण
बार्सिलोना में बीबीसी के स्वास्थ्य संवाददाता क्रिस हॉग का कहना है कि इक्कीस वर्ष पहले जब से एड्स के ख़िलाफ़ मुहिम की शुरुआत हुई है, मनुष्यों पर केवल आठ अलग-अलग तरह के टीकों का परीक्षण हो रहा है.
इनमें से अधिकतर प्रारंभिक चरणों में हैं लेकिन वैक्सजेन का कहना है कि उसके उत्पादन पर काम लगभग पूरा हो गया है.
समझा जा रहा है कि यह कंपनी इस सम्मेलन को बताएगी कि इस बारे में वह अगले वर्ष तक किसी नतीजे पर पहुँच जाएगी.
लेकिन लायंसेंस पाने के लिए उसे यह दिखाना ज़रूरी होगा कि यह टीका कम से कम एक तिहाई मरीज़ों पर कारगर साबित हुआ.

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