सारे समाचार माध्यमों को बंद कराकर चीन तिब्बत में क्या कर रहा है यह पूरी दुनिया को कुछ भी नहीं पता। तिब्बती भारत के कई शहरों में अपनी आजादी के लिए और चीन के दमनचक्र के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। अगर तिब्बत में शांति कायम रखना चीन का अंदरूनी मामला है तो पूरी दुनिया को भी यह जानने का हक है कि तिब्बत में चीन आखिर कर क्या रहा है ? क्या निरंकुशता से तिब्बतियों को कुचल देने को ही चीन तिब्बत में शांति का रास्ता मानता है? या फिर विरोधियों का खात्मा करके दिखाना चाहता है कि तिब्बत में कोई विरोध नहीं कर रहा है, वहां शांति है। अगर चीन लोकतंत्र पर विश्वास रखता है तो दुनिया की पूरी मीडिया को ल्हासा के प्रेस कांफ्रेंस में क्यों नहीं बुलाया? और कुछ चुने लोगों को बुलाया तो उन्हें हकीकत बता रहे भिक्षुओं को पूरी बात क्यों नहीं सुनने दिया। आखिर कौन झूठ बोल रहा है? चीन या चीन के दमन से त्रस्त तिब्बती भिक्षु ? तिब्बत में चीन की मंशा पर यह वह सवाल है जिसका जवाब चीन अगर देना चाहता है तो तिब्बत के दरवाजे मीडिया के लिए खोल दे। मीडिया और तिब्बती दोनों को सेना के बूटों तले इसी तरह रौंदता रहा तो मानवाधिकारों का सवाल तो उठेगा ही। अगर चीन इसी मानवी दुनिया का हिस्सा है तो फिर वह कैसे तिब्बत का हाल जानने से मीडिया को मना कर सकता है। जाहिर है चीन के इरादे नेक नहीं हैं। संभव है पत्रकारों के सामने आकर विरोध जताए भिक्षुओं को भी सेना मार डाले। जब इतनी सी बात चीन बर्दास्त नहीं कर पाया तो तिब्बत की आजादी के सवाल पर बात कैसे करेगा। जबकि खुद दलाई लामा बात करने को तैयार हैं। चीन के खौफनाक इरादे का एक नमूना यह पत्रकार वार्ता थी जिसे अपनी मर्जीं से रोक दिया गया। क्या हुआ था उस वक्त यह जानने के लिए याहू जागरण की यह खबर अवश्य पढिए।
तिब्बती मठ ने चीन को झूठा बताया
Mar 27, 02:42 pm
बीजिंग। तिब्बत की राजधानी ल्हासा के एक प्रमुख मठ में चीन प्रशासन की ओर से आयोजित विशेष संवाददाता सम्मेलन के दौरान तिब्बती भिक्षुओं के समूह ने आकर कहा कि सरकार क्षेत्र में दो हफ्ते से ज्यादा अर्से से व्याप्त असंतोष के बारे में झूठ बोल रही है। यह जानकारी प्रत्यक्षदर्शियों ने दी।
प्रशासन की ओर से कल कुछ चुनींदा विदेशी और चीन के पत्रकारों को ल्हासा के तीन दिन के सरकारी दौरे पर लाया गया था। प्रशासन यह संकेत देना चाहता था कि तिब्बत में हालात सामान्य हैं जहां गत 14 मार्च से चीन विरोधी हिंसा के कारण अस्थिरता का माहौल बना हुआ है।
जोखांग मठ में संवाददाता सम्मेलन चल ही रहा था कि तभी तिब्बती भिक्षुओं का एक समूह वहां आ पहुंचा। यूएसए टूडे के एक संवाददाता केल्लुम मैकलॉड ने बताया कि करीब 30 भिक्षुओं ने वहां आकर कहा कि इन पर यकीन मत करो, ये आपके साथ चालबाजी कर रहे हैं। ये लोग झूठ बोल रहे हैं। कुछ भिक्षुओं ने कहा कि उन्हें गत 10 मार्च से जोखांग मठ से बाहर नहीं निकलने दिया जा रहा।
ताइवान के ईटीटीवी के कैमरामैन वांग शे नैन ने बताया कि यह घटनाक्रम करीब 15 मिनट तक चला। उसके बाद पुलिसकर्मी उन भिक्षुओं को पत्रकारों से दूर मठ के दूसरी ओर ले गए।
वांग ने बताया कि यह पता नहीं चल सका कि बाद में उन भिक्षुओं के साथ क्या सुलूक किया गया। पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों ने संवाददाताओं के नोट्स या फिल्में जब्त नहीं की लेकिन उनसे वहां से चलने कहा। उन्होंने कहा कि यहां समय पूरा हो गया अब दूसरी जगह जाने का समय आ गया है। चीन सरकार द्वारा विदेशी पत्रकारों के लिए आयोजित दौरे में रायटर को आमंत्रित नहीं किया गया था। चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ ने केवल इतनी खबर दी है कि मीडिया दौरे में कुछ भिक्षुओं ने बाधा पहुंचाई, लेकिन जल्द ही स्थिति संभल गई और तिब्बत में भी हालात तेजी से सामान्य हो रहे हैं। इन भिक्षुओं को तिब्बत में लामा के नाम से जाना जाता है।
अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने कल चीन के राष्ट्रपति से दलाईलामा से बातचीत करने का अनुरोध किया था, लेकिन चीनी राष्ट्रपति का कहना है कि दलाईलामा को तिब्बत और ताइवान की आजादी के समर्थन जताना छोड़ना होगा तथा ओलंपिक खेलों में बाधा डालने के लिए की जा रही हिंसा को बढ़ावा देना रोकना होगा।
दलाईलामा तिब्बत में जारी असंतोष के पीछे अपना हाथ होने संबंधी चीन इन आरोपों को गलत ठहराते रहे हैं। उन्होंने आज एक टेलिविजन चैनल से बातचीत में कहा कि ओलंपिक खेल चीन उसके यहां के मानवाधिकारों का रिकार्ड याद दिलाने का अवसर है। उन्होंने कहा कि ओलंपिक खेलों का अच्छा मेजबान बनने के लिए चीन को मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता का अपना रिकार्ड सुधारना होगा। शुक्र वार को प्रसारित होने वाले इस साक्षात्कार में दलाईलामा ने कहा है कि यह बहुत ही तर्कसंगत और जायज बात है। चीन ने तिब्बत क्षेत्र में व्याप्त असंतोष पर काबू पाने के लिए वहां काफी तादाद में सुरक्षाकर्मी तैनात किए हैं। ह्यूमन राइट्स वाच के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद को तिब्बत में मानवाधिकारों की स्थिति में सुधार लाना चाहिए। संगठन के बयान में कहा गया है कि वहां के मसले को सुलझाना परिषद का अधिकार ही नहीं दायित्व भी है।
Thursday, 27 March 2008
Thursday, 20 March 2008
अब इस चमन में तुम्हारा गुजारा नहीं !
साढ़े सात महीने नजरबंद रहने के बाद बांग्लादेश की विवादित लेखिका तस्लीमा नसरीन बुधवार को भारत छोड़कर विदेश चली गईं। यह बात कोई मायने नहीं रखती कि वह कहां गईं और कहां रहेंगी। मगर यह बात काबिले गौर है कि एक धर्म निरपेक्ष देश से कट्टरपंथियों के दबाव में उन्हें देश छोड़ना पड़ा। तस्लीमा ने सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा जताते हुए कहा कि भारत की सरकार धार्मिक कट्टरपंथियों की तरह बर्ताव कर रही है।
हीथ्रो एयरपोर्ट से पीटीआई से बातचीत में तसलीमा ने अपने ठिकाने के बारे में कुछ भी नहीं बताया। उन्होंने कहा कि मैं अपनी सुरक्षा से समझौता नहीं करना चाहती हूं। अगर मैं अपने गंतव्य के बारे में कुछ बताती हूं तो इससे मेरी सुरक्षा से समझौता होगा। मेरा चेहरा अब जाना-पहचाना हो गया है और मैं धार्मिक कट्टरपंथियों का निशाना बन सकती हूं।
उल्लेखनीय है कि पिछले महीने ही तसलीमा का वीजा छह महीने के लिए बढ़ा दिया गया था। बहरहाल, उन्होंने यह आरोप लगाया कि कोलकाता से जब मुझे दिल्ली लाया गया तो पिछले चार महीनों में मेरे मानवाधिकारों का हनन हुआ। उन्होंने कहा कि इस दौरान में जिस विषम मानसिक परिस्थितियों से गुजरी उसके बारे में बोलने में मुझे झिझक नहीं होगी। बड़े ही रुंधे गले से उन्होंने कहा कि मुझे काफी तनाव में रखा गया, लेकिन मैं कुछ बोल नहीं सकती थी क्योंकि मैं उनकी निगरानी में थी। मुझे इस बात का भी भय था कि वे मुझे यातना दे सकते हैं। सरकार धार्मिक कट्टरपंथियों से कम नहीं है। उन्होंने कहा कि दिल्ली में मुझे जहां रखा गया था मैं लगातार उसे 'यातना गृह' कहती आ रही हूं। बाद में मुझे यह अहसास हुआ कि यह 'यातना गृह' नहीं, बल्कि 'मौत का घर' है। विवादास्पद लेखिका ने बताया कि पिछले चार महीनों के दौरान अत्यधिक तनाव के कारण मुझे भारत छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। साथ ही उन्होंने इस बात की इच्छा भी जताई मई में पंचायत चुनावों के बाद मैं कोलकाता वापस जाना चाहूंगी।
उन्होंने कहा कि मुझे हार्ट डिजीज है और आंखों में भी कुछ समस्या है। मेरा उचित इलाज नहीं किया गया। मेरे मन में हमेशा के लिए अपनी आंखों की रोशनी खोने का भी डर समा गया। भारत सरकार के दबाव के कारण जब मेरा ब्लड प्रेशर अनियंत्रित होने लगा तो भी सुरक्षा कारणों से मुझे किसी स्पेशलिस्ट से मिलने की भी इजाजत नहीं दी गई। तसलीमा ने बताया कि बुनियादी सुविधाओं से वंचित गरीब बच्चों के लिए मैंनेजीवन पर्यन्त काम किया है और कर रही हूं, लेकिन जिस देश को मैं अपना देश मानती हूं उसने मेरे मानवधिकारों का हनन किया। जब उनसे यह सवाल किया गया कि क्या वह अपने इस कड़वे अनुभव को कलमबंद करेंगी तो उन्होंने इसका जवाब हां में दिया।
सरकार को आड़े हाथों लेते हुए उन्होंने कहा कि देश छोड़ने के लिए सरकार ने मुझ पर मानसिक रूप से काफी दबाव, लेकिन मैंने घुटने नहीं टेके। इसके बाद उन्होंने मेरे स्वास्थ्य को प्रभावित करने का हथकंडा अपनाया। इसमें वे सफल भी हुए। इसके बाद मेरे पास देश छोड़ने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था। मैंने मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और ज्योति बसु को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि मुझे कोलकाता में रहने की इजाजत दी जाए, लेकिन मेरे पत्रों का कोई जवाब नहीं मिल पाया।
वामपंथी चाहते हैं मैं भारत छोड़ दूं - तस्लीमा
सीएनएन आईबीएन को दिए इंटरव्यू में तस्लीमा ने स्वास्थ्य कारणों के साथ यह भी कहा कि वामपंथी पश्चिम बंगाल में होने वाले पंचायत चुनाव में मुसलमान वोटरों को नाराज नहीं रखना चाहते। मालूम हो कि कोलकाता में कट्टरपंथियों के भारी विरोध और तोड़ -फोड़ के बाद वाममोर्चा ने तस्लीमा को कोलकाता से चले जाने को कहा था। और तभी से तस्लीमा दिल्ली में अज्ञात जगह पर नजरबंद थीं। कुछ ज्यादा ही स्पष्ट करते हुए तस्लीमा ने कहा कि जब पंचायत चुनाव खत्म हो जाएंगे तो वे निश्चित तौर पर कोलकाता लौटेंगी। तस्लीमा ने कहा कि उनसे कहा गया है कि जब पंचायत चुनाव में राजनैतिक दल मुसलमानों के वोट हासिल कर जीत जाएंगी तो उन्हें कोलकाता लौटने की इजाजत दी जाएगी। उम्मीद जाहिर की कि दो या तीन महीने बाद उनहें कोलकाता में रहने की इजाजत दी जाएगी क्यों कि मेरा सब कुछ वहीं है।
तस्लीमा ने दिल्ली में नजरबंदी को मौत का चैंम्बर कहा। जिसमें मौत के सन्नाटे जैसी हालत में रहना मुश्किल था। उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि वे मेरे दिल और दिमाग दोनों को मार देने की साजिश कर रहे थे। हालाकि भारत के गृह मंत्रालय ने इस आरोप को खारिज कर दिया है कि देश छोड़ने के लिए तस्लीमा को मजबूर किया गया। यह भी कहा कि एम्स के अच्छे डाक्टरों को उपलब्ध कराया गया। यह जरूर है कि सुरक्षा कारणों से उन्हें कहीं जाने की इजाजत नहीं थी। मालूम हो कि नवंबर २००७ से तस्लीमा दिल्ली में रखी गईं थीं।
तस्लीमा १९९४ से निर्वासन का जीवन जी रही हैं। इसी साल गिरफ्तारी से बचने के लिए उन्होंने बांग्लादेश छोड़ा था। करीब १३ साल तक निर्वासन में रहीं। हालांकि वे अभी भी बांग्लादेश की नागरिक हैं मगर बाद की किसी सरकार ने जानबूझकर तस्लीमा के स्वदेश वापसी की पहल नहीं की। अंशकालिक वीजा के आधार तस्लीमा अभी भारत में रह रही थीं। उन्होंने भारत सरकार से नागरिकता भी मांगी थी मगर उनकी अर्जी मानी नहीं गई। वे अब बांग्लादेश भी नहीं लौट सकतीं क्यों कि उनके पास नतो बांग्लादेश का पासपोर्ट है और न वीजा। फिलहाल उनके पास स्वीडन का पासपोर्ट है।
वे जीत गए मगर धर्मनिरपेक्ष भारत हार गया ?
अगर तस्लीमा के विरोध के तह में जाएं तो उनसे मुसलमान इसलिए नाराज हैं क्यों कि उन्होंने अपनी आत्मकथा द्विखंडिता में कुछ इस्लाम विरोधी टिप्पणियां की हैं। एक लेखक अपने विचार व्यक्त करने के लिए आजाद होता भी है और तस्लीमा ने वही किया। इसके बावजूद तस्लीमा ने हालात से समझौता करने के लिे वह भी किया जो आजाद खयाल और क्रांतिकारी विचार रखने वाले लेखक के लिए शर्म की बात होती है। जब दिल्ली में नजरबंद थीं तो उन्हें सलाह दी गई कि वे उपन्यास का विवादित अंश हटा दें और तस्लीमा ने वह भी किया। माफी मांगने का और क्या तरीका हो सकता है। अपने ही विचारों से पीछे हटना वह बिना किसी ठोस तर्क के। यह करके भी तस्लीमा को वह राह नहीं मिली जिसकी उनको इस धर्मनिरपेक्ष सरकार से अपेक्षा थी। तब इसे क्या माना जाए ? यही न कि कट्टरपंथी अपने फतवे का अमल चाहते हैं यानी तस्लीमा की मौत। पन्ने निकालने से संतुष्ट नहीं हुए और हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकार कट्रपंथियों के आगे हार गई। अंततः तस्लीमा को कट्टरपंथियों की मर्जी का शिकार और सरकार को भी वोट की खातिर बेबश होना पड़ा। तस्लीमा का विरोध कट्टरपंथियों ने किया और वोट की राजनीति में वे जीत गए मगर धर्मनिरपेक्ष भारत हार गया। इतना ही नही कोलकाता के प्रति जो लगाव तस्लीमा दर्शाती हैं उससे तो यह भी लगता है कि अगर कोलकाता नहीं लौट पाईं तो एक लेखिका तस्लीमा इसके बिना जिंदा भी कैसे रह पाएगी।
मेरी भी सलाह है कि आप भारत छोड़ ही दो। ऐसे आशियाने का क्या ठिकाना जो अपने सिद्धांतों की भी राजनीतिक फायदे के लिए बलि चढ़ा दे। कहीं और बस जाओ तस्लीमा। कट्टरपंथियों के इस चमन में अब तुम्हारा गुजारा नहीं। पर लिखना मत छोड़ना।
Tuesday, 18 March 2008
सास्कृतिक एकता के युगपुरूष चैतन्य
पश्चिम बंगाल के नदिया जिले के नवद्वीप में चैतन्य महाप्रभु का मंदिर जर्जर हालत में पड़ा हुआ है। हालांकि वहीं पास में इस्कान के कृष्ण भक्तों ने नवद्वीप के मायापुर में विशाल मंदिर बनाया है मगर भगवान कृष्ण के अवतार माने जाने वाले चैतन्य महाप्रभु की लीला भुमि उपेक्षित व जर्जर अवस्था में है। यह नदिया जिले के नवद्वीप में मौजूदा मायापुर के इस्कान मंदिर से दूर पोरा मातला नदी के उस पार अवस्थित है। चैतन्य महाप्रभु १६वीं शताब्दी के ऐसे कालपुरुष थे जिन्होंने भक्ति के माध्यम समाज से को जागृत किया। भक्तिकाल के समाजसुधारकों में चैतन्य का नाम अग्रणी है। कुसंस्कार और आडंबर के खोल में बंद हो रहे भारत में भक्ति से एकता का अलख जगाया चैतन्य ने। इनकी भक्ति भावना ने पूरे देश में एकता की वह लहर पैदा की जो किसी सांस्कृतिक क्रांति से ही संभव थी। कृष्ण भक्त होकर भी चैतन्य ने किसी संप्रदाय को भड़काने का कोई काम नहीं किया। मगर यह विडंबना ही समझिए कि पुरी में विरोधी तत्वों ने उनके साथ घात किया। यह किंवदंती बंगाल में उनके साथ जुड़ी है कि कुछ कुसंस्कारी पंडों ने अपने स्वार्थ के लिए इस संत को गायब कर दिया। कुछ हद तक इसे सही माना जाए तो संभव है कि आडंबर तोड़कर भक्ति जगाने वाले चैतन्य से धर्म का धंधा करने वालों को अवश्य जलन व परेशानी हुई होगी। जनश्रुति है कि चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते-करते जगन्नाथ मंदिर की भीड़ में अदृश्य हो जाते है। एक अन्य जनश्रुति है कि महाप्रभु जगन्नाथपुरी स्थित गोपीनाथ मंदिर में कृष्ण की प्रतिमा में विलीन हो जाते है। महाप्रभु के अदृश्य अथवा विलीन होने की घटना सन् 1534 ई. की है। उस समय महाप्रभु की आयु 48 वर्ष थी।
जो हो मगर कृष्ण भक्ति से भारत में एकता का अलख जगाने वाले चैतन्य की अमिट छाप आज भी बंगाल सहित पूरे देश में विराजमान है। राजनैतिक और सामाजिक तौर पर डावाडोल हो रहे तत्कालीन भारत को इस युगपुरुष चैतन्य महाप्रभु की जरूरत थी। आइए उनके पावन जीवन की कथा जानने की कोशिश करते हैं।
चैतन्य महाप्रभु के बचपन का नाम विश्वंभर था। लोग इन्हें निमाई नाम से भी पुकारते थे। पिता पण्डित जगन्नाथ मिश्र तथा माता शची देवी की ये दसवीं संतान थे। प्रथम आठ कन्या संतानें शैशवावस्था में ही कालकवलित हो गई थीं तथा नवां पुत्र विश्वरूप युवावस्था में ही संन्यास में दीक्षित हो गया था। बचपन में निमाई नटखट व हठी थे। हर बात में रोना तथा गाना सुनाने पर चुप हो जाना उनकी आदत सी थी। शुक्लवर्ण( गौरांग)निमाई आस-पास के लोगों में 'गौरहरि' (गोरे कृष्ण) के नाम से विख्यात थे।
श्रीकृष्ण चैतन्यदेव का पृथ्वी पर अवतरण विक्रम संवत् 1542 के फाल्गुन मास की पूíणमा को संध्याकाल में चन्द्र-ग्रहण के समय सिंह-लग्न में बंगाल के नवद्वीप नामक ग्राम में भगवन्नाम-संकीर्तन की महिमा स्थापित करने के लिए हुआ था। इनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ तथा माता का नाम शची देवी था।
पतितपावनी गंगा के तट पर स्थित नवद्वीप में श्रीचैतन्य महाप्रभु के जन्म के समय चन्द्रमा को ग्रहण लगने के कारण बहुत से लोग शुद्धि की कामना से श्रीहरि का नाम लेते हुए गंगा-स्नान करने जा रहे थे। पण्डितों ने जन्मकुण्डली के ग्रहों की समीक्षा तथा जन्म के समय उपस्थित उपर्युक्त शकुन का फलादेश करते हुए यह भविष्यवाणी की-'इस बालक ने जन्म लेते ही सबसे श्रीहरिनाम का कीर्तन कराया है अत: यह स्वयं अतुलनीय भगवन्नाम-प्रचारक होगा।'
वैष्णव इन्हे भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मानते है। प्राचीन ग्रंथों में इस संदर्भ में कुछ शास्त्रीय प्रमाण भी उपलब्ध होते है। देवीपुराण- भगवन्नाम ही सब कुछ है। इस सिद्धांत को प्रकाशित करने के लिए श्रीकृष्ण भगवान 'श्रीकृष्ण चैतन्य' नाम से प्रकट होंगे। गंगा के किनारे नवद्वीप ग्राम में वे ब्राह्मण के घर में जन्म लेंगे। जीवों के कल्याणार्थ भक्ति-योग को प्रकाशित करने हेतु स्वयं श्रीकृष्ण ही संन्यासी वेश में 'श्रीचैतन्य' नाम से अवतरित होंगे। गरुड़पुराण- कलियुग के प्रथम चरण में श्रीजगन्नाथजी के समीप भगवान श्रीकृष्ण गौर-रूप में गंगाजी के किनारे परम दयालु कीर्तन करने वाले 'गौराङ्ग' नाम से प्रकट होंगे। मत्स्यपुराण-कलियुग में गंगाजी के तट पर श्रीहरि दयालु कीर्तनशील गौर-रूप धारण करेंगे। ब्रह्मयामल- कलियुग की शुरुआत में हरिनाम का प्रचार करने के लिए जनार्दन शची देवी के गर्भ से नवद्वीप में प्रकट होंगे। वस्तुत: जीवों की मुक्ति और भगवन्नाम के प्रसार हेतु श्रीकृष्ण का ही 'चैतन्य' नाम से आविर्भाव होगा।
कालक्रम में यज्ञोपवीत, तदनंतर विधिवत अध्ययन प्रारंभ हुआ। गंगादास गुरु थे। निमाई अति कुशाग्र एवं प्रखर बुद्धि के थे। व्याकरण, अलंकार, तंत्रशास्त्र, न्यायशास्त्र का गहन अध्ययन किया। 16 वर्ष की आयु में निमाई का अध्ययन पूर्ण हो गया। इसी बीच पिताश्री का लोकान्तरण। शिखरस्थ विद्वान् के रूप में चतुर्दिक् निमाई की ख्याति होने लगी। अब वे निमाई से आचार्य विश्वम्भर मिश्र नाम से विख्यात हो गए। द्रव्यार्जन हेतु अध्यापन कार्य अपनाया। मुकुन्द संजय नामक एक धनाढ्य ब्राह्मण के चण्डीमण्डप में विद्यालय का शुभारम्भ हुआ।
विद्वत्परिषद द्वारा आचार्य मिश्र को 'विद्यासागर' की उपाधि प्रदान की गई। इस समय इनकी आयु 22 वर्ष थी। आचार्य मिश्र वैवाहिक सूत्र में आबद्ध हुए। पत्नी का नाम लक्ष्मी था। दुर्योग से सर्पदंश से पत्नी की अकाल मृत्यु हो गई। पंडित विश्वंभर को शास्त्रार्थ में विशेष आनन्द आता था। एक घटना से उनके पाण्डित्य गर्व में विशेष उछाल आया। आचार्य केशव नाम के एक विद्वान् का नवद्वीप में आगमन हुआ। शास्त्रार्थ में वे दिग्विजयी के रूप में विख्यात थे। आचार्य केशव एवं आचार्य मिश्र के बीच वाग्युद्ध प्रारंभ होता है। आचार्य केशव कुछ स्वरचित श्लोक सुनाते है। आचार्य मिश्र इन श्लोकों में अलंकार दोष निकालते है। आचार्य केशव शास्त्रार्थ में परास्त हो जाते हैं। इस घटना के उपरान्त आचार्य विश्वंभर मिश्र का सारस्वत-यश आकाश की ऊंचाइयां छूने लगता है।
प्रथम पत्नी के देहांत के उपरान्त आचार्य मिश्र का दूसरा विवाह विष्णुप्रिया नामक अनिंद्य सुन्दरी, दिव्यानन, सर्वगुणसम्पन्न बाला से हुआ। वह प्रसिद्ध विद्वान् आचार्य सनातन मिश्र की पुत्री थीं। आचार्य विश्वम्भर मिश्र पत्नी के प्रति पूर्णतया उदासीन थे। पिता के श्राद्ध हेतु आचार्य मिश्र गया तीर्थ की यात्रा पर गए। गया में विष्णुपदी मंदिर में वे नृत्योन्माद की स्थिति में, भावोल्लास की चरमावस्था में आ गए। किसी तरह उन्हे नवद्वीप लाया जाता है। यहां पत्नी विष्णुप्रिया भी उन्हे उन्माद से विरत करने में अक्षम हुई। स्वामी ईश्वर पुरी के उपदेश से वे कृष्ण भक्ति की ओर आकर्षित हुए। 24 वर्ष की आयु में आचार्य मिश्र स्वामी केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेते है। स्वामी केशव भारती भी आचार्य मिश्र को कृष्ण भक्ति की ओर प्रेरित करते है।
गया से लौटने के उपरान्त आचार्य मिश्र के विरोधी उन्हे 'सिरफिरा', 'पागल' जैसे विशेषणों से विभूषित करते है। दूसरी ओर कुछ लोगों की ऐसी मान्यता थी कि आचार्य मिश्र को कृष्णदर्शन हो चुका है। आचार्य विश्वंभर मिश्र कालक्रम में चैतन्य महाप्रभु हो जाते हैं; गौरांग महाप्रभु हो जाते है; गौरहरि हो जाते है। अध्यापनकार्य से वे पूर्णतया विरत हो जाते है। कृष्ण-विरह में अहर्निश आंसू बहाते है। 'हरिबोल', 'हरिबोल' कहते हुए दोनों हाथ ऊपर उठाकर नाचते है। उनके छात्र जब उनके पास अध्ययन हेतु आते है तो उन्हे कुछ बताने के स्थान पर वे कृष्ण-चेतना में खो जाते है।
विक्रम संवत् 1566 में मात्र 24 वर्ष की अवस्था में श्रीचैतन्य महाप्रभु ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके संन्यास ले लिया। इनके गुरु का नाम श्रीकेशव भारती था। संन्यास लेने के उपरान्त श्रीगौरांग(श्रीचैतन्य) महाप्रभु जब पुरी पहुंचे तो वहां जगन्नाथजी का दर्शन करके वे इतना आत्मविभोर हो गए कि प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य व कीर्तन करते हुए मन्दिर में मूíच्छत हो गए। संयोगवश वहां प्रकाण्ड पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य उपस्थित थे। वे महाप्रभु की अपूर्व प्रेम-भक्ति से प्रभावित होकर उन्हे अपने घर ले गए। वहां शास्त्र-चर्चा होने पर जब सार्वभौम अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने लगे, तब श्रीगौर ने ज्ञान के ऊपर भक्ति की महत्ता स्थापित करके उन्हे अपने षड्भुजरूप का दर्शन कराया। सार्वभौम गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और वह अन्त समय तक उनके साथ रहे। पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य ने जिन 100 श्लोकों से श्रीगौर की स्तुति की थी, वह रचना 'चैतन्यशतक' नाम से विख्यात है। श्रीगौरांग अवतार की श्रेष्ठता के प्रतिपादक अनेक ग्रन्थ है। इनमें 'श्रीचैतन्यचरितामृत', 'श्रीचैतन्यभागवत', 'श्रीचैतन्यमंगल', 'अमिय निमाइचरित' आदि विशेष रूप से पठनीय है। महाप्रभु की स्तुति में अनेक महाकाव्य भी लिखे गए है। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने 32 अक्षरों वाले तारकब्रह्म हरिनाम महामन्त्र को कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
विक्रम संवत् 1572 में विजयादशमी के दिन चैतन्य महाप्रभु ने श्रीवृन्दावनधाम के निमित्त पुरी से प्रस्थान किया। श्रीगौरांग सड़क को छोड़कर निर्जन वन के मार्ग से चले। हिंसक पशुओं से भरे जंगल में महाप्रभु 'श्रीकृष्ण' नाम का उच्चारण करते हुए निर्भय होकर जा रहे थे। पशु-पक्षी प्रभु के नाम-संकीर्तन से उन्मत्त होकर उनके साथ ही नृत्य करने लगते थे। एक बार श्रीचैतन्यदेव का पैर रास्ते में सोते हुए बाघ पर पड़ गया। महाप्रभु ने 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण' नाम-मन्त्र बोला। बाघ उठकर 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण' कहकर नाचने लगा। एक दिन गौरांग प्रभु नदी में स्नान कर रहे थे कि मतवाले जंगली हाथियों का एक झुंड वहां आ गया। महाप्रभु ने 'कृष्ण-कृष्ण' कहकर उन पर जल के छींटे मारे तो वे सब हाथी भी भगवन्नाम बोलते हुए नृत्य करने लगे। सार्वभौम भट्टाचार्य श्रीचैतन्यदेव की ये अलौकिक लीलाएं देखकर आश्चर्यचकित हो उठे। काíतक पूíणमा को श्रीमहाप्रभु वृन्दावन पहुंचे। वहां आज भी प्रतिवर्ष काíतक पूíणमा को श्रीचैतन्यदेव का 'वृन्दावन-आगमनोत्सव' मनाया जाता है। वृन्दावन के माहात्म्य को उजागर करने तथा इस परमपावन तीर्थ को उसके वर्तमान स्वरूप तक ले जाने का बहुत कुछ श्रेय श्रीचैतन्य महाप्रभु के शिष्यों को ही जाता है।
कृष्ण-चेतना से आप्लावित चैतन्य महाप्रभु सम्पूर्ण भारत की यात्रा करते है। उनका सम्पूर्ण जीवन कृष्णमय हो जाता है। वे स्वयं कृष्ण हो जाते है। अंतत: महाप्रभु के मन में बालकृष्ण की लीला-भूमि मथुरा वृंदावन-यात्रा की इच्छा बलवती होती है। निकल पड़ते है वे अकेले ही जगन्नाथपुरी से। नदी, पर्वत, वन, गाँव लाँघते काशी पहुँचते है। यहाँ वे मणिकर्णिका घाट के पास प्रवास करते है। देवदर्शन करते है। काशी से प्रयाग। प्रयाग में त्रिवेणी पर स्नान। प्रयाग से मथुरा-वृंदावन। यहाँ कृष्ण प्रेमोन्माद में नाचते-गाते है। मथुरा-वृंदावन की मिट्टी में लोटते-पोटते है। फिर लौटते है, अपनी लीलाभूमि जगन्नाथपुरी में। कृष्ण नाम-संकीर्तन का उपदेश करते हुए भक्तों से कहते है, 'कलिकाल में कृष्ण नामोच्चारण के अतिरिक्त मुक्ति का और कोई मार्ग नहीं है'।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्। कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।
आजादी के लिए लहूलुहान तिब्बत !
मध्य एशिया का इतिहास ही आक्रमणकारियों का इतिहास रहा है। इन हमले से बचने के लिए तो चीनी शासकों को चारो तरफ दीवार ही खड़ी करनी पड़ी। जो आज की ऐतिहासिक चीन की दीवार कही जाती है। मगर ये हूण, शक, यवन ज्यादा देर तक कहीं इस इलाके में टिक नहीं पाए। इन आक्रांताओं में चंगेज खान, कुबलई खान और बाद में मुगल शासकों के शासन तक तैमूर लंग और नादिरशाह ने जो तबाही मचाई उसे इतिहास कैसे भुला सकता है। उनकी क्रूरता के किस्से आज भी रोंगटे खड़ कर देते हैं। मगर इन्हीं आक्रांताओं ने इतिहास के कुछ ऐसे उलटफेर भी किए जो आज भी कुछ देशों की संप्रभुता के लिए समस्या बने हुए हैं। गोबी के रेगिस्तान को लांघते हुए जब इनके जाबांज काफिले गुजरते थे तो भारत के परमप्रतापी गुप्त साम्राज्य तक के परखचे उड़ा देते थे। कहते हैं कि नेपोलियन बोनापार्ट ने पूरे यूरोप के नक्शे को समेट दिया था क्यों उसके अभियानों के बाद यूरोप का नक्शा ही बदल जाता था। इसी तरह एशिया के भूगोल को इन आक्रांताओं ने भी बदल दिया। उन्हीं कुछ बदलावों से अभिशिप्त देशों में से एक तिब्बत भी है जो आज भी आजादी के लिए तरस रहा है। दुनिया की छत कहा जाने वाला यही तिब्बत बार-बार अपनी आजादी के सवाल को लेकर खड़ा होता है और कुचल दिया जाता है। अब यह चीन अधिकृत क्षेत्र है जिसे चीन ने स्वायत्त का दर्जा दे रखा है मगर तिब्बतियों को शायद यह चीन की गुलामी रास नही आती। हालांकि तिब्बत की चीन द्वारा निर्वासित की जा चुकी सरकार के राष्ट्राध्यक्ष दलाई लामा और खुद भारत सरकार राजनैतिक और कूटनीतिक कारणों से तिब्बत का चीन स्वायत्तशासी मान चुके हैं। तो फिर बार-बार आजादी का सवाल उठाकर क्यों पद्दलित होते रहते हैं तिब्बती ? क्या तिब्बत आजाद देश रहा है ? आइए मौजूदा घटनाक्रम के बहाने इतिहास के कुछ उन तथ्यों को जानने की कोशिश करते हैं जो इन तिब्बतियों को आजादी के लिए उठ खड़े होने को प्रेरित करते रहते हैं।
आजाद रहा है तिब्बत ?
चीन तिब्बत को कभी आजाद देश की श्रेणी में रखा ही नहीं। उसका कहना है कि तिब्बत हमेशा से चीन का अभिन्न अंग रहा है। इसके ठीक विपरीत तिब्बत की आजादी के समर्थक मानते हैं कि करीब १३०० सालों के इतिहास में तिब्बत चीन से अलग एक आजाद देश रहा है। इस तर्क के पक्ष में तिब्बत की आजादी के समर्थक कहते हैं कि सन् ८२१ में दो सौ सालों की लंबी लड़ाई के बाद चीन और तिब्बत के बीच एक शांति समझौता हुआ था। इसका विवरण तीन प्रस्तर स्तंभ लेखों में उपलब्ध है। इनमें से एक स्तंभ लेख तिब्बत की राजधानी ल्हासा के कैथड्रल के सामने आज भी मौजूद है। इस लेख में संधि के अनुसार दोनों की सीमाएं तय की गईं हैं और तिब्बत व चीन दोनों को एक दूसरे पर हमला न करने की बात कही गई है। यह उम्मीद भी जाहिर की गई है कि इस समझौते के बाद तिब्बत के लोग तिब्बत में और चीन के लोग चीन में खुश रहेंगे। दोनों के इस समझौते का साक्षी सूरज. चांद, ग्रह, तारे एक संत और तीन ज्वेल को रखा गया है। इस शांति समझौते का उल्लेख करने वाले तीनों प्रस्तर स्तंभ लेखों में से एक चीन के राजमहल के सामने, दूसरा दोनों देशों की सीमा पर और तीसरा ल्हासा में है।
१३वीं और १४वीं शताब्दी में तिब्बत और चीन दोनों पर मंगोलों का आधिपत्य हो गया। इसी मंगोल साम्राज्य को एक देश मानकर या इसी मंगोल प्रभुत्व को आधार मानकर चीन कहता है कि तिब्बत आजाद नहीं बल्कि चीन का अभिन्न अंग है। जबकि मंगोलों का ाधिपत्य दोनों ने मान लिया था। तिब्बत को आजाद देश मानने वालों का कहना है कि पूर्व मध्यकाल के विश्व इतिहास में महान पराक्रमी मंगोल शासक कुबलई खान और उसके उत्तराधिकारियों ने पूरे एशिया पर आधिपत्य कायम कर लिया था। तो क्या पूरा एशिया चीनियों का है? तिब्बत की आजादी के समर्थकों का यह भी कहना है कि मंगोलों और तिब्बतियों व चीनियों के संबंधों की भी पड़ताल की जानी चाहिए। उनके मुताबिक तिब्बत पर मंगोलों का आधिपत्य कुबलई खान के चीन अभियान के पहले ही हो गया था। इतना ही नहीं चीन के आजाद होने से कई दशक पहले ही तिब्बत पूरी तरह आजाद भी हो गया था।
मंगोल शासकों ने बौद्ध धर्म को अपना लिया इस कारण उनमें सहअस्तित्व की पंथिक प्रणाली चो-योन का प्रदुर्भाव हुआ। इस कारण तिब्बती मंगोलों के प्रति प्रतिबद्ध रहे। इसके ठीक उलट मंगोलों के चीन पर आधिपत्य की प्रकृति अलग बताई जाती है। मंगोलों के आधिपत्य में तबतक चीन रहा जबतक १४वीं सदी के आखिर में खुद मंगोलों का पतन नहीं हो गया जबकि तिब्बत के शासक तिब्बती हा रहे।
इस के बाद १६३९ में दलाई लामा ने संबंध कायम रखने की चो-योन प्रणाली के तहत शासक मंचू से भी सबंध कायम रखा। मंचू वह शासक था जिसने १६४४ में चीन को जीती था और क्विंग वंश की स्थापना की। मंचू शासकों का १९वीं शताब्दी तक तिब्बत में प्रभाव रहा और तिब्बत भी मंचू साम्राज्य के नाम से जाना जाता था। बाद में मंचू साम्राज्य इतना क्षीण हो गया कि १८४२ और १८५६ के नेपाली गोरखा अभियान के खिलाफ तिब्बतियों की मदद के भी लायक नहीं रह गया। बिना मंचू शासकों की मदद के ही तिब्बतियों ने गोरखाओं से मुकाबला किया जो द्विपक्षीय संधि के बाद लड़ाई खत्म हो पाई। इसके बाद चो-योन संबंध और मंचू वंश दोनों का पतन १९११ में हो गया। तिब्बत इसके बाद ही १९१२ में औपचारिक तौरपर पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न राज्य बन गया और तिब्बत की आजादी १९४९ तक कायम रही। इसके बाद १९४९ में चीन के कम्युनिस्ट शासकों ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। १९९१ में संयुक्त राष्ट्र ने एक अधिनियम पास करके तिब्बत और इससे जुड़े चीनी आधिपत्य वाले सिचुआन, यूनान, गंशू, क्विंघाई को मिलाकर एक अधिकृत देश का दर्जा दे दिया।
पचास साल से ज्यादा हो गए, जब तिब्बत नामक स्वतंत्र राष्ट्र पर साम्यवादी चीन ने कब्जा कर लिया। इन पांच-छह दशकों में चीनियों ने दलाई लामा को तिब्बत छोड़ने के लिए मजबूर किया, तिब्बत में हान जाति के चीनियों को बसाने की कोशिश की और अब वहां रेलवे लाइन बिछाकर उसे पूरी तरह चीन का अटूट अंग बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
साम्यवादी कूट-भाषा में उसे ‘स्वायत्त प्रदेश’ कहा जाता है। यहां स्व का अर्थ तिब्बत नहीं, चीन है। चीन के इस अधिकार को तिब्बती लोग बिलकुल नहीं मानते। तिब्बत में रहने वाले तिब्बती चीन को साम्राज्यवादी आक्रांता देश मानते हैं। तिब्बतियों और चीनियों के बीच गहरा अविश्वास है। हालांकि तिब्बती भारतीयों और भारत के प्रति बहुत उत्साही दिखाई पड़ते हैं, लेकिन चीन के बारे में या तो चुप रहते हैं या दबी जुबान में अपनी घुटन निकालने की कोशिश करते हैं। तिब्बत उनका अपना देश है, लेकिन उन्हें वहां गुलामों की तरह रहना पड़ता है। तिब्बत का आर्थिक विकास तो निश्चय ही हुआ है, लेकिन शक्ति और संपदा के असली मालिक चीनी ही हैं। उनके रहन-सहन और तौर-तरीकों ने साधारण तिब्बतियों के हृदय में गहरी ईष्र्या का स्थायीभाव उत्पन्न कर दिया है। यही ईष्र्या ल्हासा में फूट पड़ी है।
चीनी सरकार की सबसे बड़ी चिंता यह है कि तिब्बत के बाहर अन्य प्रदेशों में रहने वाले तिब्बतियों ने भी जबरदस्त प्रदर्शन किए हैं। दिल्ली, काठमांडू, न्यूयॉर्क, लंदन आदि शहरों में भी प्रदर्शन हो रहे हैं। एक तरफ ये प्रदर्शन हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ चीनी सरकार ओलिंपिक खेलों की तैयारी कर रही है। ओलिंपिक की मशाल वह एवरेस्ट पर्वत पर ले जाना चाहती है। वह तिब्बत होकर ही जाएगी। उसे चिंता है कि अगर तिब्बत को लेकर कोहराम मच गया, तो कहीं ओलिंपिक खेल ही स्थगित न हो जाएं। ओलिंपिक के बहाने उसे अपने महाशक्ति रूप को प्रचारित करने का जो मौका मिलेगा, वह तिब्बतियों के कारण हाथ से जाता रहेगा।
चीन का आरोप है कि ल्हासा में हो रहे उत्पात की जड़ भारत में है। धर्मशाला में बैठी दलाई लामा की प्रवासी सरकार तिब्बतियों को हिंसा पर उतारू कर रही है। यह आरोप निराधार है, क्योंकि दलाई लामा ने हिंसा का स्पष्ट विरोध किया है। 1989 के बाद से तिब्बत में हुई ये सबसे बड़ी हिंसक घटना है. 1959 में चीनी शासन के ख़िलाफ़ हुए संघर्ष की बरसी पर सोमवार को शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरु हुए थे लेकिन शुक्रवार को हिंसा भड़क उठी.
चीन के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों के दौरान कम से कम 80 लोग मारे गए हैं. निर्वासित सरकार के अधिकारियों ने कहा है कि की सूत्रों से मृतकों की संख्या की पुष्टि हुई है. चीन के मुताबिक मरने वालों की संख्या 10 है.
वहीं तिब्बत के निर्वासित सरकार के प्रमुख और आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने आशंका जताई है कि यदि चीन अपनी नीति नहीं बदलता है तो तिब्बत में और मौतें हो सकती हैं. इस बीच चीन के नियंत्रण वाले तिब्बत की राजधानी ल्हासा में चीनी सेना ने अपना नियंत्रण बढ़ा दिया है और सूनी सड़कों पर सैनिक बख़्तरबंद गाड़ियों के साथ गश्त लगा रहे हैं. अमरीका, रूस, फ्रांस सहित दुनिया के कई देशों ने चीन से संयम बरतने की अपील की है.
चीन ने तिब्बत में विदेशियों के प्रवेश पर लगाई रोक
चीन ने तिब्बत में विदेशी नागरिकों के प्रवेश पर रोक लगा दी है और वहां रह रहे पर्यटकों से चले जाने को कहा है। तिब्बत की राजधानी में शासन के खिलाफ और स्वतंत्रता के समर्थन में पिछले 2 दशक में भड़की सबसे बड़ी हिंसा के बाद चीन ने यह कदम उठाया है। हिंसा में अब तक 10 लोगों की मौत हो चुकी है। लोकल अफसरों के मुताबिक ल्हासा में पिछले सप्ताह भड़की हिंसा के बाद तिब्बत के क्षेत्रीय प्रशासन ने सुरक्षा के मद्देनजर विदेशियों के पर्यटन संबंधी सभी आवेदन फिलहाल रद्द कर दिए हैं। विदेशी मामलों के क्षेत्रीय कार्यालय के निदेशक जु जियान्हवा का हवाला देते हुए शिन्हुवा न्यूज एजेंसी ने बताया है कि स्थानीय प्रशासन की मदद से 20 विदेशी पर्यटकों को तिब्बत से निकाला जा चुका है। ल्हासा पुलिस के मुताबिक, 3 जापानी पर्यटकों सहित 580 लोगों का बचाव किया गया है। चीनी सुरक्षा बल ल्हासा पर कड़ी नजर रखे हुए है। शुक्रवार को फैली हिंसा और लोगों के मारे जाने के बाद रविवार तक और लोगों के मारे जाने की कोई खबर नहीं थी। गौरतलब के 57 वर्ष के चीनी शासन के खिलाफ तिब्बत की आजादी के लिए चल रहे आंदोलन की 49वीं बरसी के मौके पर बौद्ध भिक्षुओं ने विरोध,प्रदर्शन शुरू किया था।
दलाई लामा पर दोष
चीन ने ल्हासा की घटनाओं के लिए दलाई लामा को ज़िम्मेदार ठहराया है.दलाई लामा ने प्रदर्शनों को तिब्ब्तियों के असंतोष का प्रतीक बताया है .चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि ये प्रदर्शन 'पूर्वनियोजित' थे और इसके पीछे दलाई लामा हैं.लेकिन दलाई लामा के प्रवक्ता चाइम आर छोयकयापा ने दिल्ली में इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज कर दिया है.
उनका कहना है कि चीन सरकार तिब्बतियों की समस्या को बंदूक से नहीं सुलझा सकती और उसे तिब्बतियों का मन पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. उधर तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा है कि ल्हासा की स्थिति को लेकर वो गंभीर रूप से चिंतित हैं. दलाई लामा ने एक प्रेस वक्तव्य जारी करके चीन से माँग की है वह ल्हासा में बर्बर तरीके से बलप्रयोग करना बंद करे. उन्होंने कहा है कि तिब्बतियों ने जो प्रदर्शन किए हैं वो चीनी शासन के ख़िलाफ़ लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का प्रतीक हैं.
भारत का रुख़
ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत सरकार की ओर से जारी बयान में चीन के बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ भी नहीं कहा गया है.दरअसल, भारत के साथ दुविधा यह है कि मानवाधिकार और अन्य पहलुओं पर भारत तिब्बत की निर्वासित सरकार से सहमत है. यही वजह है कि पिछले कुछ दशकों से तिब्बत की निर्वासित सरकार को भारत ने अपने पास शरण दे रखी है. पर इस शर्त पर कि उनकी ओर से कोई भी राजनीतिक गतिविधि नहीं की जाएगी.
ऐसे में जहाँ भारत तिब्बतियों के देश में हो रहे प्रदर्शनों को अनुमति नहीं दे रहा है वहीं चीन से सुधरते संबंधों को ध्यान में रखते हुए बहुत संभलकर बोल रहा है.
तिब्बत में पिछले 20 बरसों के दौरान हिंसा की यह सबसे बड़ी घटना बताई जा रही है. चीन ने ल्हासा की घटनाओं के लिए दलाई लामा को ज़िम्मेदार ठहराया है. चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि ये प्रदर्शन 'पूर्वनियोजित' थे और इसके पीछे दलाई लामा हैं. लेकिन तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा है कि ल्हासा की स्थिति को लेकर वो गंभीर रूप से चिंतित हैं. दलाई लामा ने एक प्रेस वक्तव्य जारी करके चीन से माँग की है वह ल्हासा में बर्बर तरीके से बलप्रयोग करना बंद करे. उन्होंने कहा है कि तिब्बतियों ने जो प्रदर्शन किए हैं वो चीनी शासन के ख़िलाफ़ लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का प्रतीक हैं.
तिब्बत की बदलती तस्वीर
चीन ने पिछले साल ही बीजिंग को रेललाईन के ज़रिए तिब्बत की राजधानी ल्हासा से जोड़ दिया था. इस रेलसंपर्क ने दुनिया की छत कहे जाने वाले तिब्बत पर गहरा असर डालना शुरू कर दिया है. इस रेल संपर्क ने जहां तिब्बत को चीन की मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया है तो वहीं इसकी वजह से तिब्बत में बढ़ रहे चीनी दख़ल पर कई तरह की आशंकाएं भी जताई जा रही है. इस रेल से तिब्बती लोगों के जनजीवन में काफ़ी फ़र्क आया है, साथ ही तिब्बत में नये विचार पहुँच रहे हैं. व्यापार शुरू हुआ है, किसानों को नई तकनीक और यहाँ की कला और संस्कृति को नए बाज़ार मिल रहे हैं. वो फल-फूल रहे हैं."
चीन ने बौद्ध धर्म अनुयायी तिब्बती लोगों की स्वतंत्रता की कोशिशों को 1951 में कुचलने की कोशिश ज़रूर की पर अब भी यहां तिब्बत के सर्वोच्च धार्मिक नेता दलाई लामा की छाप मिटी नहीं है.चीनी आक्रमण के बाद तिब्बत के चौदहवें दलाईलामा शरणार्थी के रूप में भारत आ गए थे जो आज भी चीन की आंखों की किरकिरी बने हुए हैं. ल्हासा स्थित दलाईलामा के आवास पोटाला महल में 13वें दलाईलामा तक की चर्चा होती है. मौज़ूदा दलाईलामा की चर्चा कोई नहीं करता. यहां चीनी सरकार की सख़्त नज़र रहती है.
तिब्बतियों में भारत के प्रति एक अलग तरह का प्रेम है. काफ़ी संख्या में लोग भारत से शिक्षा ले कर लौटे हैं. वे भारत को अपना दोस्त और हिमायती मानते हैं. ल्हासा के बाखोर बाज़ार की दुकानों में हिंदी गाने सुनाई देते हैं. ब्यूटी पार्लरों में बालीवुड अभिनेत्री ऐश्वर्या रॉय समेत फ़िल्मी हस्तियों के पोस्टर नज़र आते हैं. यहां के राष्ट्रीय टेलीविज़न में हिंदी धारावाहिकों को तिब्बती भाषा में दिखाया जाता है.
Sunday, 16 March 2008
11 अंकों का होगा मोबाइल नंबर !
उपभोक्ता का मोबाइल नंबर अब 11 अंकों का होगा। केंद्र सरकार के इस निर्णय के तहत दूरसंचार विभाग ने बीएसएनएल सहित सभी टेलीकाम आपरेटरों को नई व्यवस्था के लिए तकनीकी प्रबंध करने के निर्देश दिए हैं। नये मोबाइल नंबर 9 के स्थान पर 90 से शुरू होंगे। इस समय मोबाइल नंबर में दस अंक होते हैं। देश में मोबाइल कनेक्शनों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी व नंबर पोर्टबिलिटी [एक आरपेटर से दूसरे आपरेटर जाने पर नंबर वही] योजना के कारण मोबाइल नंबर में 11 अंक करने का फैसला किया गया है।
दस अंकों के मोबाइल नंबर में प्रथम 9 अंक के स्थान पर 90 लग जाएगा। 90 लग जाने से उपभोक्ता का मोबाइल नंबर 11 अंकों का हो जाएगा। वर्तमान में यदि किसी उपभोक्ता का मोबाइल नंबर 9415012345 है तो नया परिवर्तित नम्बर 90415012345 हो जाएगा। अन्य टेलीकाम आपरेटरों के मोबाइल नंबर भी लेवल-90 से शुरू होंगे। बीएसएनएल ने 11 अंकों के मोबाइल नंबर के लिए आज तकनीकी प्रबंध पूरे कर लिये हैं। नई व्यवस्था को मई तक लागू करने की योजना है।
मोबाइल में टचस्क्रीन
मोबाइल उद्योग में जिस तरह से नित नई प्रौद्योगिकी आ रही है उसके मद्देनजर वह दिन दूर नहीं लगता जब कीपैड की जगह सिर्फ टचस्क्रीन का वक्त आ जाए। यानी मोबाइल धारक के लिए इच्छित फीचर के लिए कीपैड की जरूरत नहीं रह जाएगी और उसे सिर्फ अपने मोबाइल को छूना भर होगा। उद्योग जगत के विशेषज्ञों की माने तो हैंडसेट निर्माता अब टच मोशन शेक और यहां तक कि रोटेशन आदि सुविधाओं वाले डिवाइस पेश करने की योजना में हैं। ऐसे में कीपैड या बटन की बात दूर हो जाएगी। हाल ही में आयोजित 'मोबाइल एशिया 2008' का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आने वाले कुछ वर्षो में इस उद्योग में टचस्क्रीन डिवाइसेज ही केंद्र में होंगे। मोबाइल एशिया में विभिन्न कंपनियों ने अपने नवीनतम एवं प्रस्तावित उत्पादों को पेश किया था।
दस अंकों के मोबाइल नंबर में प्रथम 9 अंक के स्थान पर 90 लग जाएगा। 90 लग जाने से उपभोक्ता का मोबाइल नंबर 11 अंकों का हो जाएगा। वर्तमान में यदि किसी उपभोक्ता का मोबाइल नंबर 9415012345 है तो नया परिवर्तित नम्बर 90415012345 हो जाएगा। अन्य टेलीकाम आपरेटरों के मोबाइल नंबर भी लेवल-90 से शुरू होंगे। बीएसएनएल ने 11 अंकों के मोबाइल नंबर के लिए आज तकनीकी प्रबंध पूरे कर लिये हैं। नई व्यवस्था को मई तक लागू करने की योजना है।
मोबाइल में टचस्क्रीन
मोबाइल उद्योग में जिस तरह से नित नई प्रौद्योगिकी आ रही है उसके मद्देनजर वह दिन दूर नहीं लगता जब कीपैड की जगह सिर्फ टचस्क्रीन का वक्त आ जाए। यानी मोबाइल धारक के लिए इच्छित फीचर के लिए कीपैड की जरूरत नहीं रह जाएगी और उसे सिर्फ अपने मोबाइल को छूना भर होगा। उद्योग जगत के विशेषज्ञों की माने तो हैंडसेट निर्माता अब टच मोशन शेक और यहां तक कि रोटेशन आदि सुविधाओं वाले डिवाइस पेश करने की योजना में हैं। ऐसे में कीपैड या बटन की बात दूर हो जाएगी। हाल ही में आयोजित 'मोबाइल एशिया 2008' का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आने वाले कुछ वर्षो में इस उद्योग में टचस्क्रीन डिवाइसेज ही केंद्र में होंगे। मोबाइल एशिया में विभिन्न कंपनियों ने अपने नवीनतम एवं प्रस्तावित उत्पादों को पेश किया था।
सावधान ब्लागर्स, जेल भी हो सकती !
हिंदी ब्लागर्स की दुनिया का अभी इतना विस्तार तो नहीं हुआ है मगर इनके तेवर ऐसे हैं कि संबद्ध लोगों को अब ब्लागरों से भी परेशानी होने लगी है। शायद अखबारों व दूसरे समाचार माध्यमों पर तो सत्ता, धन और अपराध के बाहुबली बड़ी आसानी से नजर रख सकते हैं मगर ब्लागरों की आजाद अभिव्यक्ति को रोकना तब तक आसान नहीं होगा जब तक शासन पूरी ब्लागिंग ही न रोक दे। एक विषय पर जहां कुछ गिने चुने अखबार व समाचार माध्यम खबरें छाप सकतें हैं वहीं मिनटों में लाखों ब्लागर्स सारी दुनिया में किसी भी विषय पर अपने विचार पहुंचा सकते हैं। ब्लागर्स के लिए यही बात अच्छी भी है और बुरी भी। बुरी इस लिए कि राजनीति व सत्ता के माफिया तत्व कभी नहीं चाहेंगे कि उनकी हकीकत लोगों को पता लगे। सफेदपोश बनकर जीने की आदत जो हो गई है। इस लिए हे ब्लागर्स बंधु सावधान तो रहो ही क्यों कि आपको भी सउदी अरब के ब्लागर्स फौद अल-फरहान की तरह जेल हो सकती है।
इंटरनेट के फैलते जाल से दुनिया भर में ब्लागर समुदाय का जन्म हुआ, लेकिन सऊदी अरब के ब्लागर्स के लिए दूसरों तक अपनी बात पहुंचाना जान का जोखिम उठाने के बराबर है। समाचार एजेंसी डीपीए ने जेद्दाह से खबर दी है कि 32 वर्षीय फौद अल-फरहान के हवाले से बताया कि पेशे से तकनीकी विशेषज्ञ और मानवाधिकार कार्यकर्ता फौद ब्लाग लिखने के जुर्म में पिछले तीन महीने से कारावास में है। (http://in.jagran.yahoo.com/news/international/crime/3_24_4271492.html )
फौद के अनुसार बिना किसी पुख्ता सबूत के और बिना कारण बताए उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी से ठीक पहले अपने ब्लाग पर उन्होंने सऊदी अरब के उन दबंग व्यक्तित्वों के बारे में लिखा था जो उन्हे बेहद नापसंद है। इनमें अरबपति राजकुमार वालिद बिन तलाल और कई नामी मौलवियों के नाम शामिल थे। सऊदी अरब में ब्लागर्स की इस गिरफ्तारी के खिलाफ बहुत सी आवाजें उठ रही है। ब्लागर्स पर चलाए जा रहे न्यायिक मामलों के बावजूद उनके परिवार वाले और मानवाधिकार संगठन इस मनमानी का डट कर मुकाबला कर रहे है।
अभी पिछले दिनों मैंने पाकिस्तानी ब्लागरों की अहमियत के बारे में छापा था कि कैसे पाकिस्तानी ब्लागर्स राष्ट्रपति चुनने में अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं और नोटिस भी ली जा रही है। यह पाकिस्तान में लोकतंत्र की लहर का दौर था। लेकिन इसके पहले भी जब पाकिस्तान में इमरजेंसी लगी थी तो पाकिस्तानी ब्लागरों ने ही मुशर्रफ की पोल जम कर खोली। दरअसल ब्लागर्स मूलतः आजादखयाल होता है। खेमे में बंटे और पिट्ठू बन चुके समाचार माध्यमों से उबकर ऐसे ब्लागर लिखना ही इसलिए शुरू करता है क्यों कि यहां किसी तथाकथित संपादक का अंकुश नहीं होता। ब्लागर्स की यही आजादी खटकती है लोगों को। फोद को भी इसी आजाद होकर लिखने का खामियाजा भुगतना पड़ा है।
विचारकों, लेखकों के एकमुश्त समूहबद्ध हो चुके ब्लागरों को अब यह भी सोचना पड़ेगा कि फासीवादी लोग क्या अभिव्यक्ति का यह मंच भी उनसे छीन लेंगें ?
इंटरनेट के फैलते जाल से दुनिया भर में ब्लागर समुदाय का जन्म हुआ, लेकिन सऊदी अरब के ब्लागर्स के लिए दूसरों तक अपनी बात पहुंचाना जान का जोखिम उठाने के बराबर है। समाचार एजेंसी डीपीए ने जेद्दाह से खबर दी है कि 32 वर्षीय फौद अल-फरहान के हवाले से बताया कि पेशे से तकनीकी विशेषज्ञ और मानवाधिकार कार्यकर्ता फौद ब्लाग लिखने के जुर्म में पिछले तीन महीने से कारावास में है। (http://in.jagran.yahoo.com/news/international/crime/3_24_4271492.html )
फौद के अनुसार बिना किसी पुख्ता सबूत के और बिना कारण बताए उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी से ठीक पहले अपने ब्लाग पर उन्होंने सऊदी अरब के उन दबंग व्यक्तित्वों के बारे में लिखा था जो उन्हे बेहद नापसंद है। इनमें अरबपति राजकुमार वालिद बिन तलाल और कई नामी मौलवियों के नाम शामिल थे। सऊदी अरब में ब्लागर्स की इस गिरफ्तारी के खिलाफ बहुत सी आवाजें उठ रही है। ब्लागर्स पर चलाए जा रहे न्यायिक मामलों के बावजूद उनके परिवार वाले और मानवाधिकार संगठन इस मनमानी का डट कर मुकाबला कर रहे है।
अभी पिछले दिनों मैंने पाकिस्तानी ब्लागरों की अहमियत के बारे में छापा था कि कैसे पाकिस्तानी ब्लागर्स राष्ट्रपति चुनने में अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं और नोटिस भी ली जा रही है। यह पाकिस्तान में लोकतंत्र की लहर का दौर था। लेकिन इसके पहले भी जब पाकिस्तान में इमरजेंसी लगी थी तो पाकिस्तानी ब्लागरों ने ही मुशर्रफ की पोल जम कर खोली। दरअसल ब्लागर्स मूलतः आजादखयाल होता है। खेमे में बंटे और पिट्ठू बन चुके समाचार माध्यमों से उबकर ऐसे ब्लागर लिखना ही इसलिए शुरू करता है क्यों कि यहां किसी तथाकथित संपादक का अंकुश नहीं होता। ब्लागर्स की यही आजादी खटकती है लोगों को। फोद को भी इसी आजाद होकर लिखने का खामियाजा भुगतना पड़ा है।
विचारकों, लेखकों के एकमुश्त समूहबद्ध हो चुके ब्लागरों को अब यह भी सोचना पड़ेगा कि फासीवादी लोग क्या अभिव्यक्ति का यह मंच भी उनसे छीन लेंगें ?
Friday, 7 March 2008
मराठी गौरव कौन है ? शिवाजी या बाल ठाकरे !
अराजक राजनीति से सत्ता तो हासिल होती है मगर इसके शिकार लोगों के उजड़े जीवन की भरपाई कैसे होगी? इसका जवाब भी वही राजनेता दे सकते हैं जो देश को जाति, धर्म जैसे घृणित सांचे में ढाल रहे हैं। इसी गंदी राजनीति के उत्पाद बाल ठाकरे या राज ठाकरे तो मराठियों के मसीहा हो गए हैं मगर पुणे में भूजा बेचकर जीवन बसर करने वाले किसुन और उसके बाल-बच्चों पर तो दुख का पहाड़ टूट पड़ा है। पुणे में राज ठाकरे के गैर मराठी लोगों के खिलाफ भड़काऊ बयान के बाद उनके उन्मादी समर्थकों ने किसुन के दोनों हाथ काट डाले। अगर किसुन के दुख से दुखित होकर बिहार के सांसद प्रभुनाथ सिंह संसद में मराठियों को संवेदनाहीन कह दिया तो मराठी अस्मिता वाले शिवसेना नेता बालठाकरे इतना तिलमिला गए कि अपने मुखपत्र सामना में बिहारियों के खिलाफ गाली बककर अपनी मराठी संवेदनशीलता का परिचय दिया। क्या बाल ठाकरे किसुन के साथ हुए अत्याचार को मराठी गौरव समझते हैं? अगर यही मराठी गौरव है तो इतिहास में दर्ज शिवाजी समेत तमाम देशभक्त मराठी जाबांजों को क्या कहेंगे? आखिर कौन मराठी गौरव है ? बालठाकरेजी आप या शिवाजी ? मैं तो शिवाजी को ही मानता हूं जिन्होंने देश को मराठी और गैरमराठी में बांटकर नहीं देखा। उन्हें युद्धबंदी गौहरबानों भी सम्मान के लायक लगी।
बालठाकरेजी आपके इस असंवेदनशील कारनामे का एक और उदाहरण देखिए। मैंने एक लेख लिखा कि -क्या उजड़ी हुई मुंबई का सपना देख रहे हैं बालठाकरे (http://chintan.mywebdunia.com/2008/03/06/1204814812869.html )। इस लेख में मैंने आपके साथ उस व्यवस्था को दोषी माना जिसके कारण भारत की राजनीति इतनी गंदी हो गई है कि आप या राजठाकरे जैसे शक्तिमान शिवसैनिक को इतना पतित होना पड़ रहा है। इस गंदी राजनीति के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है ? यह सवाल उठाया तो आपसे प्रभावित एक महोदय ने अपनी टिप्पणी में बाकायदा यह धमकी दे डाली-----
Re: उजड़ी हुई मुंबई का सपना देख रहे हैं बाल ठाकरे !
Anonymous (yadav_99@hotmail.com/78.89.0.15) द्वारा 6 मार्च, 2008 10:50:48 PM IST पर टिप्पणी #
मुम्बे मए आ कर बात करो तो मजा है. बिहार मे रह कर कय बात करते हो.
यह प्रकाश में आई एक बानगी है। हकीकत में स्थिति इससे भी खराब है। यह जहर भी आपही फैला रहे हैं ठाकरेजी। मुंबई और बालीवुड को मराठी और गैरमराठी में विभाजित करके कैसे खुद को शिव सैनिक कह पाएंगे? दर्द अपने दिया है तो दवा भी आपको ही देनी पड़ेगी अन्यथा महान देशभक्त शिवाजी के वंशज शायद आपको भी माफ नहीं कर पाएंगे। अब किसुन को उसके दुख से कौन उबारेगा। या फिर यह कौन गारंटी देगा कि दूसरे किसुन के साथ यह नहीं होगा। अगर यह जहर दुर्भाग्यवश जहरबाद हो गया तो देश को कैसे बचाइएगा ?
यह है किसुन की दास्तां। जागरण डॉट काम के सौजन्य से पढ़िए। अगर आपके कलेजे में इंसान का दिल होगा तो आप भी इस कृत्य को जघन्य मानेंगे।
किशुन को मिली बिहारी होने की सजा
Mar 07, 05:37 pm
सिवान।मैं रोज की तरह भुजा बेच कर रात को करीब 10 बजे फुटपाथ पर ही सोने चला गया। अभी मेरी आंख लगी ही थी कि मनसे के सैकड़ों कार्यकर्ता मुझे घेर कर पिटने लगे, मैं उनके पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाने लगा, बावजूद मेरी लात-घूसों से पिटाई होती रही और मैं बेहोश हो गया। दूसरे दिन जब मुझे होश आया तो मैंने खुद को अस्पताल में पाया। मेरे दोनों हाथ मनसे कार्यकर्ताओं ने काट लिए थे और मेरे हाथों पर पट्टियां बंधी थीं।
यह दर्दनाक दास्तां उस गरीब किशुन का है, जिसे बिहारी होने की इतनी बड़ी सजा दी गई है। पिछले दिनों राज ठाकरे व उसके समर्थकों द्वारा उत्तर भारतीयों पर बरपाए गए कहर का शिकार हुआ किशुन। मनसे कार्यकर्ताओं ने निर्ममतापूर्वक उसके दोनों हाथ काट कर दरिंदगी का परिचय दिया है। बिहार के सिवान जिले के रघुनाथपुर थाना क्षेत्र के दुदही गांव निवासी किशुन सिंह की गलती सिर्फ इतनी है कि वह पिछले 10 वर्र्षो से अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए महाराष्ट्र के पुणे में भुजा बेचता था। दिनभर भुजा बेच कर रात में फुटपाथ पर ही सो कर जिंदगी गुजारने वाले किशुन को क्या पता था कि उसे इसकी कीमत अपने दोनों हाथ गवां कर चुकानी पड़ेगी। घर लौटे किशुन के चेहरे पर मनसे कार्यकर्ताओं का खौफ इस कदर गहरा गया है कि आज भी वह किसी अंजान व्यक्ति को देख कर कांप जाता है।
सिवान के सदर अस्पताल में अपना इलाज करवा रहा किशुन को इस बात की चिंता सता रही है कि वह अपनी 12 वर्षीय बिटिया रंजीता का हाथ कैसे पीला करेगा। साथ ही उस आठ वर्षीय पुत्र और उसकी पत्नी का क्या होगा। इस परिवार का भरण-पोषण कैसे होगा।
दूसरी तरफ स्थानीय मीडिया में इससे संबंधित खबरें आने के बाद महाराजगंज के सांसद प्रभुनाथ सिंह ने इस मामले को संसद में उठाया। इस मामले पर संज्ञान लेते हुए महाराष्ट्र सरकार ने बृहस्पतिवार को पुणे के एसीपी संग्राम सिंह एवं इंसपेक्टर शिंदे को सिवान भेजा। महाराष्ट्र पुलिस का यह दल पीड़ित किशुन से दिन भर पूछताछ करता रहा। पूछताछ के क्रम में उसकी वीडियोग्राफी भी करवाई गई। बाद में उसकी इंजुरी रिपोर्ट लेकर टीम महाराष्ट्र रवाना हो गई। इस संबंध में जब एसीपी संग्राम सिंह से बात की गई तो उन्होंने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया।
उधर, पुणे की अपराध शाखा ने शुक्रवार को सिवान के सीएस को पत्र भेज कर किशुन की इंजुरी रिपोर्ट मांगी है। पत्र के मिलते ही सीएस सिवान डा. योगेंद्र रजक ने एक मेडिकल टीम बनाकर किशुन की गहन जांच शुरू कर दी है। इस घटना की जहां सभी राजनीतिक दलों ने निंदा की है, वहीं स्थानीय बार एसोसिएशन ने राज ठाकरे व उसके अज्ञात समर्थकों के खिलाफ अदालत में मुकदमा कायम कराया है।
बालठाकरेजी आपके इस असंवेदनशील कारनामे का एक और उदाहरण देखिए। मैंने एक लेख लिखा कि -क्या उजड़ी हुई मुंबई का सपना देख रहे हैं बालठाकरे (http://chintan.mywebdunia.com/2008/03/06/1204814812869.html )। इस लेख में मैंने आपके साथ उस व्यवस्था को दोषी माना जिसके कारण भारत की राजनीति इतनी गंदी हो गई है कि आप या राजठाकरे जैसे शक्तिमान शिवसैनिक को इतना पतित होना पड़ रहा है। इस गंदी राजनीति के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है ? यह सवाल उठाया तो आपसे प्रभावित एक महोदय ने अपनी टिप्पणी में बाकायदा यह धमकी दे डाली-----
Re: उजड़ी हुई मुंबई का सपना देख रहे हैं बाल ठाकरे !
Anonymous (yadav_99@hotmail.com/78.89.0.15) द्वारा 6 मार्च, 2008 10:50:48 PM IST पर टिप्पणी #
मुम्बे मए आ कर बात करो तो मजा है. बिहार मे रह कर कय बात करते हो.
यह प्रकाश में आई एक बानगी है। हकीकत में स्थिति इससे भी खराब है। यह जहर भी आपही फैला रहे हैं ठाकरेजी। मुंबई और बालीवुड को मराठी और गैरमराठी में विभाजित करके कैसे खुद को शिव सैनिक कह पाएंगे? दर्द अपने दिया है तो दवा भी आपको ही देनी पड़ेगी अन्यथा महान देशभक्त शिवाजी के वंशज शायद आपको भी माफ नहीं कर पाएंगे। अब किसुन को उसके दुख से कौन उबारेगा। या फिर यह कौन गारंटी देगा कि दूसरे किसुन के साथ यह नहीं होगा। अगर यह जहर दुर्भाग्यवश जहरबाद हो गया तो देश को कैसे बचाइएगा ?
यह है किसुन की दास्तां। जागरण डॉट काम के सौजन्य से पढ़िए। अगर आपके कलेजे में इंसान का दिल होगा तो आप भी इस कृत्य को जघन्य मानेंगे।
किशुन को मिली बिहारी होने की सजा
Mar 07, 05:37 pm
सिवान।मैं रोज की तरह भुजा बेच कर रात को करीब 10 बजे फुटपाथ पर ही सोने चला गया। अभी मेरी आंख लगी ही थी कि मनसे के सैकड़ों कार्यकर्ता मुझे घेर कर पिटने लगे, मैं उनके पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाने लगा, बावजूद मेरी लात-घूसों से पिटाई होती रही और मैं बेहोश हो गया। दूसरे दिन जब मुझे होश आया तो मैंने खुद को अस्पताल में पाया। मेरे दोनों हाथ मनसे कार्यकर्ताओं ने काट लिए थे और मेरे हाथों पर पट्टियां बंधी थीं।
यह दर्दनाक दास्तां उस गरीब किशुन का है, जिसे बिहारी होने की इतनी बड़ी सजा दी गई है। पिछले दिनों राज ठाकरे व उसके समर्थकों द्वारा उत्तर भारतीयों पर बरपाए गए कहर का शिकार हुआ किशुन। मनसे कार्यकर्ताओं ने निर्ममतापूर्वक उसके दोनों हाथ काट कर दरिंदगी का परिचय दिया है। बिहार के सिवान जिले के रघुनाथपुर थाना क्षेत्र के दुदही गांव निवासी किशुन सिंह की गलती सिर्फ इतनी है कि वह पिछले 10 वर्र्षो से अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए महाराष्ट्र के पुणे में भुजा बेचता था। दिनभर भुजा बेच कर रात में फुटपाथ पर ही सो कर जिंदगी गुजारने वाले किशुन को क्या पता था कि उसे इसकी कीमत अपने दोनों हाथ गवां कर चुकानी पड़ेगी। घर लौटे किशुन के चेहरे पर मनसे कार्यकर्ताओं का खौफ इस कदर गहरा गया है कि आज भी वह किसी अंजान व्यक्ति को देख कर कांप जाता है।
सिवान के सदर अस्पताल में अपना इलाज करवा रहा किशुन को इस बात की चिंता सता रही है कि वह अपनी 12 वर्षीय बिटिया रंजीता का हाथ कैसे पीला करेगा। साथ ही उस आठ वर्षीय पुत्र और उसकी पत्नी का क्या होगा। इस परिवार का भरण-पोषण कैसे होगा।
दूसरी तरफ स्थानीय मीडिया में इससे संबंधित खबरें आने के बाद महाराजगंज के सांसद प्रभुनाथ सिंह ने इस मामले को संसद में उठाया। इस मामले पर संज्ञान लेते हुए महाराष्ट्र सरकार ने बृहस्पतिवार को पुणे के एसीपी संग्राम सिंह एवं इंसपेक्टर शिंदे को सिवान भेजा। महाराष्ट्र पुलिस का यह दल पीड़ित किशुन से दिन भर पूछताछ करता रहा। पूछताछ के क्रम में उसकी वीडियोग्राफी भी करवाई गई। बाद में उसकी इंजुरी रिपोर्ट लेकर टीम महाराष्ट्र रवाना हो गई। इस संबंध में जब एसीपी संग्राम सिंह से बात की गई तो उन्होंने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया।
उधर, पुणे की अपराध शाखा ने शुक्रवार को सिवान के सीएस को पत्र भेज कर किशुन की इंजुरी रिपोर्ट मांगी है। पत्र के मिलते ही सीएस सिवान डा. योगेंद्र रजक ने एक मेडिकल टीम बनाकर किशुन की गहन जांच शुरू कर दी है। इस घटना की जहां सभी राजनीतिक दलों ने निंदा की है, वहीं स्थानीय बार एसोसिएशन ने राज ठाकरे व उसके अज्ञात समर्थकों के खिलाफ अदालत में मुकदमा कायम कराया है।
Thursday, 6 March 2008
उजड़ी हुई मुंबई का सपना देख रहे हैं बाल ठाकरे !
क्या मुंबई में अब सिर्फ मराठी, कोलकाता में बंगाली, केरल में मलयाली, आंध्र प्रदेश में तेलगू, तमिलनाडु में तमिल, असम में असमिया, पंजाब, हरियाणा में पंजाबी व जाट और राजस्थान में मारवाड़ी या दूसरे राज्यों उसके बहुसंख्यक रहेंगे ? सत्ता के लिए देश का यह बंटवारा राजनीति की दुकान खोलकर बैठे जो लोग कर रहे हैं क्या उन्हें पता है कि अगर देश ही नहीं रहेगा तो वे खुद कैसे बंचेंगे। क्या देश की जातिवादी राजनीति कर रहे राजनेताओं को अपनी जाति का देश बनाना है ? बालठाकरे और राजठाकरे को देखकर तो ऐसा ही लगता है। सांप्रदायिक बयानों से राज ठाकरे को जो राजनैतिक फायदा मिलने वाला है उससे डरकर अब उनके चाचा बाल ठाकरे दो कदम आगे बढ़कर हिंदी भाषियों को गाली दे डाली। शिवसेना के मुखपत्र सामना के संपादकीय में छिनाल औरतों की तरह बिहारियों को गरियाया है। अगर आप मराठी समझते हैं तो इस लिंक http://www.saamana.com/ पर जाकर उनके दुर्वचन पढ़ सकते हैं।
कुछ हिंदी पोर्टलो ने भी इसका सार छापा है। जो नीचे उनके लिंक के साथ दिया है। मराठी न जानने वाले इस हिंदी तर्जुमा को पढ़कर बाल ठाकरे का वह संपादकीय पढ़ सकते हैं जिस पर खुद ठाकरे को तो फक्र होगा मगर पूरे देश को ऐसे राजनीतिज्ञों पर शर्म आ रही है। जिस औकात की बात कर रहे हैं उस पर अगर देश का सारा हिदी भाषी उतर आए तो बाल ठाकरे को मुंबई में भी मुंह छिपाने की जगह नहीं मिलेगी। यह अलग बात है कि बेशर्म राजनीति कर रहे उनकी तरह के दूसरे दल और नेता ऐसे मौके पर ठाकरे के सहोदर भाई निकल आएँगे। राष्ट्रीय दलों का देश के पैमाने पर क्षेत्रीय दलों के सामने कमजोर पड़ना और बदले में की जा रही ओछी राजनीति ने देश को ऐसे चौराहे पर ला खड़ा किया हैं जहां राष्ट्रीय कानून के होते हुए भी राष्ट्रीयता की धज्जियां उड़ाई जा रही है। अब बालठाकरे जैसे राजनीति के घटिया उत्पाद को नहीं बल्कि मौजूदा दौर की राजनीति के उन दलालों को दोषी मानें जिन्होंने कभी यह सोचा ही नहीं कि हिंदुस्तान की एकता को चुनौती देने के खिलाफ कड़े कानून बनाए जाने चाहिए जिससे ऐसे तत्व कभी सिर ही नहीं उठा सकें। आखिर इस देश में बार-बार दंगे होते हैं, कभी असम तो कभी पंजाब या दक्षिण भारतीय, पूर्वोत्तर राज्यों में राष्ट्रविरोधी गतिविधियां पनपती हैं मगर इसे रोकने की जगह बड़े या क्षेत्रीय दल सिर्फ राजनीतिक लाभ उठाने की संभावनाएं तलाशते नजर आते हैं।
मलेशिया जैसा देश भी आज भारत के सामने बढ़ी आर्थिक ताकत इस लिए है क्यों कि वहां किसी को राष्ट्रीय अस्मिता के साथ खिलवाड़ की छूट नहीं है। वहां ऐसे कानून हैं जो किसी को भी राष्ट्रविरोधी होने से पहले सौ बार सोचने पर मजबूर कर देते हैं। क्या भारत को ऐसे कानून पर विचार नहीं करना चाहिए। आखिर यहां भी तो ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि इन आंदेलनों ने देश के विकास को प्रभावित किया है।
पश्चिम बंगाल में कभी मारवाड़ियों पर टिप्पणी की जाती है तो असम से बंगालियों को खदेड़ा जाता है। बंगाल में हिंदी माध्यम से पढ़ रहे छात्रों को हिंदी में प्रश्नपत्र सिर्फ इस लिए नहीं दिए जाते हैं कि इससे बंगाली मानसिकता को सरकार भुनाती है। सुनील गंगोपाध्याय जैसे बांग्ला के प्रचंड विद्वान-साहित्यकार हिंदी भाषियों को सरेआम खदेड़ने की बात करते हैं। दक्षिण में हिंदी व हिंदी भाषियों का विरोध जगजाहिर है। पंजाब और असम में सरेआम हिंदी भाषी मजदूरों को वहां के जातीय संगठन मार डालते हैं। लोग भागने और दरबदर होने को मजबूर होते रहते हैं। महाराष्ट्र से बांग्लादेशी के नाम पर बंगालियों को खदेड़ा जाता है और उन पर अत्याचार किया जाता है। यानी किसी जिम्मेदार दल या राजनीतिज्ञ को और कितने उदाहरण चाहिए जिसके आधार राष्ट्रविरोधी गतिविधियों पर अंकुश के कारगर व कड़े नियम बना सके। क्या मानकर चला जाए कि एकछत्र भारत की अब किसी दल को जरूरत नहीं। शायद ऐसा ही लगता है। सभी राजनीतिक अवसरवादिता का रोटी सेंक रहे हैं। आखिर हो क्यों नहीं? यहीं क्षेत्रीय दल तो सरकारें चलवा रहे हैं और सत्ता के भागीदार हैं जो अपने राज्यों में राष्ट्रीयता की जगह क्षेत्रीयता के बल पर खड़े हैं।
एक अंधे मोड़ पर आकर खड़ा हो गया है आज का क्षेत्रीय व सांप्रदायिक ताकत के आगे बेबश हो चुका भारत। हमारे जैसे नागरिक तो अब इस बात पर अफसोस करने लगे हैं कि इस भारत माता की रक्षा के लिए जो जवान सीमा पर अपना खून बहा रहे हैं उन्हें भी हम शर्मसार कर रहे हैं। इन राजनीतिज्ञों की तरह अगर वह जवान अपने बंगाल, पंजाब या हिंदी क्षेत्र के लड़ने लगे तो आप बेशर्म सत्ता के दलाल किस मुंह से रोकेंगे ? क्या जवाब देंगे ? मराठा जवान जिस देश भक्ति के लिए विख्यात है, उसे भी आप शर्मसार कर रहे हैं ठाकरेजी। गोबर और गोबर के कीड़े वे सभी हैं जो आप जैसी सोच रखते हैं।
रही आपके इन कारनामों के बाद मुंबई के भविष्य की बात तो यह मत भूलिए कि मुंबई अपनी बदौलत कुछ है। दुनिया के लिए बालीवुड को जाना पहचाना नाम आपने नहीं दिया है। यह पूरे भारतीय समाज की समग्र कोशिश का नतीजा है। मत भूलिए कि मुख्यधारा से कटकर आप जैसी क्षेत्रीय राजनीति करने वाले दलों ने कोलकाता जैसे संपन्न और खुशहाल शहर को खंडहर बना दिया है। आज वहां नए सिरे से संवारने की कोशिश की जा रही मगर संशय है कि क्षेत्रीय राजनीति का पिशाच फिर कोलकाता को उद्योग व सामाजिक समरसता का मान हासिल करने देगा। संभव है राज ठाकरे की तरह आप भी हिंदी भाषियों पर हमला करवाएं मगर लाख टके की बात भी सुन लीजिए---- क्या आप भी उजड़ी हुई मुंबई का सपना देख रहे हैं?
बाल ठाकरे के अक्षम्य अपराध के ताजा दस्तावेज
एक बिहारी, सौ बीमारी: बाल ठाकरे
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/2838853.cms
महाराष्ट्र में क्षेत्रवाद को लेकर बयानबाजी का सिलसिला फिलहाल खत्म होता नहीं दिख रहा। पिछले दिनों महाराष्ट्र में क्षेत्रवाद और भाषावाद की कवायद शुरु की थी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने , अब शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे भी इसी मंत्र का जाप कर रहे हैं। ठाकरे ने पार्टी के मुखपत्र सामना में अपने संपादकीय में बिहार के सांसदों पर हमला बोला है और बिहार के लोगों के बारे में अपशब्द भी कहे हैं।
दरअसल बिहार के एम.पी. ने इस क्षेत्रवाद के विरोध में संसद में काफी हंगामा खड़ा किया , जिसपर बाल ठाकरे ने अपनी प्रतिक्रिया जताते हुए कहा , ' पूरे देश में बिहार के बारे में कैसा बोला जाता है , यह मैं बताता हूं। दरअसल बिहारियों का भेजा ही सड़ा हुआ है। '
उन्होंने कहा कि पूरे हिंदीभाषियों को बिहारियों की वजह से तकलीफ होती है। पिछले दिनों मुंबई में बिहारियों के खिलाफ हुई हिंसा के मामलों पर पर्दा डालते हुए उन्होंने कहा , ' यहां एक दो लोगों को मारा, तो न्यूज चैनलों ने बेवजह का शोर-शराबा किया। बिहारी तो जिस थाली में खाते हैं , उसी में थूकते हैं। '
संसद में हंगामा करने वाले सांसदों पर आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा , ' बुझी हुई आग को फिर से हवा देने की कोशिश कर रहे हैं ये बिहारी सांसद। ' ठाकरे ने यह भी कहा कि कुछ दिन पहले बिहारी सांस्कृतिक संगठनों ने लालू छाप नेताओं को पत्र भी लिखा था कि हमें मुंबई में कोई तकलीफ नहीं है और आप यहां शक्ति प्रदर्शन कर के हमारे मामले में टांग न अड़ाएं।
समय-समय पर हिंदुत्व का नारा बुलंद करने वाले बाल ठाकरे ने बिहारियों के विरोध में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि , ' बिहारी गोबर खाते हैं। आखिर वह गोबर के कीड़े हैं और गोबर में ही खुश रहेंगे। '
उन्होंने जेडीयू नेता प्रभुनाथ सिंह के उस बयान पर भी टिप्पणी की जिसमें उन्होंने कहा था कि हम गंगा के किनारे रहते हैं और इसलिए हमारी बोली भी मीठी है। ठाकरे ने इस पर कहा कि , ' हमें पता है कि बिहार में भ्रष्टाचार और रक्त की गंगा बहती है। राम तेरी गंगा मैली हो गई है। बिहार नरक पुरी है। वहां के राजनेता पशुओं का चारा भी खा जाते हैं। '
शिवसेना सुप्रीमो ने बिहारियों के खिलाफ अपनी बयानबाजी का बचाव भी किया है। उन्होंने कहा कि पंजाब में भी बिहारियों को पसंद नहीं किया जाता और उन्हें लेकर पंजाब में इन दिनों एक एसएमएस भी चला हुआ है कि बिहारी भगाओ , पंजाब बचाओ। संपादकीय में यह एसएमएस भी छपा है -
' एक बिहारी , सौ बीमारी
दो बिहारी , लड़ाई की तैयारी
तीन बिहारी , ट्रेन हमारी
पांच बिहारी , सरकार हमारी
चक दे फट्टे
बिहारी भगाओ , पंजाब बचाओ
बिहार के सांसद गोबर के कीड़े: ठाकरे
http://www.bhaskar.com/2008/03/05/0803051340_bal_thakery.html
मुम्बई. शिवसेना सुप्रिमो बाल ठाकरे ने पार्टी के मुखपत्र सामना में छपे संपादकीय में एक बार फिर क्षेत्रवाद की गंदी राजनीति का नमूना पेश किया है। बाल ठाकरे ने अपने लेख में बिहारी सांसदों को जमकर लथाड़ा है। उन्होंने बिहार के सांसदो को गोबर के कीड़े के खिताब से नवाजा है। उन्होंने कहा कि बिहार के नेताओं का दिमाग सड़ गया है और उनके सड़े दिमाग का नमूमा हमें संसद में देखने को मिला है।
बाल ठाकरे ने लिखा है कि बिहार में भ्रष्टाचार की गंगा बह रही है। उनका कहना है कि हमें बिहार के सांसदों से किसी भी तरह की सीख लेने की कोई जरुरत नहीं है क्योकि ज्यादातर बिहारी नेता गुंडे है। इतना ही नहीं उन्होंने बिहार के महराजगंज से सांसद सिंह को 'हत्यारा' बताते हुए लिखा है कि 'उनकी जगह जेल में है लेकिन वह संसद में हैं।' संपादकीय में राजद प्रमुख लालू प्रसाद के खिलाफ भी कुछ टिप्पणी किया है
बाल ठाकरे के इस संपादकीय का बिहारी सांसदों ने खुलकर विरोध किया। बिहार के सांसदों की आलोचना करते हुए संपादकीय लिखे जाने का मुद्दा बुधवार को लोकसभा में उठा और कुछ सदस्यों ने समाचारपत्र के संपादक के खिलाफ कार्रवाई किए जाने की मांग की। कुछ सांसदों ने तो बाल ठाकरे पर मोका का कानून लगाने की भी मांग की है।लालू यादव ने कहा कि बाल ठाकरे सठ्ठीयां गए हैं इसलिए उलजलूल बातें कर रहे हैं।
वहीं महाराष्ट्र के राज्यपाल कृष्णा ने कहा कि इस मामले में राज्य सरकार को तुरंत कार्यवाही करनी चाहिए। वहीं इस मामले में भाजपा के नेताओं ने गोलमोल रुख अपना रखा है। वे इस मामले में कुछ भी कहने से बच रहे हैं।
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