Tuesday 18 March 2008

आजादी के लिए लहूलुहान तिब्बत !


मध्य एशिया का इतिहास ही आक्रमणकारियों का इतिहास रहा है। इन हमले से बचने के लिए तो चीनी शासकों को चारो तरफ दीवार ही खड़ी करनी पड़ी। जो आज की ऐतिहासिक चीन की दीवार कही जाती है। मगर ये हूण, शक, यवन ज्यादा देर तक कहीं इस इलाके में टिक नहीं पाए। इन आक्रांताओं में चंगेज खान, कुबलई खान और बाद में मुगल शासकों के शासन तक तैमूर लंग और नादिरशाह ने जो तबाही मचाई उसे इतिहास कैसे भुला सकता है। उनकी क्रूरता के किस्से आज भी रोंगटे खड़ कर देते हैं। मगर इन्हीं आक्रांताओं ने इतिहास के कुछ ऐसे उलटफेर भी किए जो आज भी कुछ देशों की संप्रभुता के लिए समस्या बने हुए हैं। गोबी के रेगिस्तान को लांघते हुए जब इनके जाबांज काफिले गुजरते थे तो भारत के परमप्रतापी गुप्त साम्राज्य तक के परखचे उड़ा देते थे। कहते हैं कि नेपोलियन बोनापार्ट ने पूरे यूरोप के नक्शे को समेट दिया था क्यों उसके अभियानों के बाद यूरोप का नक्शा ही बदल जाता था। इसी तरह एशिया के भूगोल को इन आक्रांताओं ने भी बदल दिया। उन्हीं कुछ बदलावों से अभिशिप्त देशों में से एक तिब्बत भी है जो आज भी आजादी के लिए तरस रहा है। दुनिया की छत कहा जाने वाला यही तिब्बत बार-बार अपनी आजादी के सवाल को लेकर खड़ा होता है और कुचल दिया जाता है। अब यह चीन अधिकृत क्षेत्र है जिसे चीन ने स्वायत्त का दर्जा दे रखा है मगर तिब्बतियों को शायद यह चीन की गुलामी रास नही आती। हालांकि तिब्बत की चीन द्वारा निर्वासित की जा चुकी सरकार के राष्ट्राध्यक्ष दलाई लामा और खुद भारत सरकार राजनैतिक और कूटनीतिक कारणों से तिब्बत का चीन स्वायत्तशासी मान चुके हैं। तो फिर बार-बार आजादी का सवाल उठाकर क्यों पद्दलित होते रहते हैं तिब्बती ? क्या तिब्बत आजाद देश रहा है ? आइए मौजूदा घटनाक्रम के बहाने इतिहास के कुछ उन तथ्यों को जानने की कोशिश करते हैं जो इन तिब्बतियों को आजादी के लिए उठ खड़े होने को प्रेरित करते रहते हैं।

आजाद रहा है तिब्बत ?

चीन तिब्बत को कभी आजाद देश की श्रेणी में रखा ही नहीं। उसका कहना है कि तिब्बत हमेशा से चीन का अभिन्न अंग रहा है। इसके ठीक विपरीत तिब्बत की आजादी के समर्थक मानते हैं कि करीब १३०० सालों के इतिहास में तिब्बत चीन से अलग एक आजाद देश रहा है। इस तर्क के पक्ष में तिब्बत की आजादी के समर्थक कहते हैं कि सन् ८२१ में दो सौ सालों की लंबी लड़ाई के बाद चीन और तिब्बत के बीच एक शांति समझौता हुआ था। इसका विवरण तीन प्रस्तर स्तंभ लेखों में उपलब्ध है। इनमें से एक स्तंभ लेख तिब्बत की राजधानी ल्हासा के कैथड्रल के सामने आज भी मौजूद है। इस लेख में संधि के अनुसार दोनों की सीमाएं तय की गईं हैं और तिब्बत व चीन दोनों को एक दूसरे पर हमला न करने की बात कही गई है। यह उम्मीद भी जाहिर की गई है कि इस समझौते के बाद तिब्बत के लोग तिब्बत में और चीन के लोग चीन में खुश रहेंगे। दोनों के इस समझौते का साक्षी सूरज. चांद, ग्रह, तारे एक संत और तीन ज्वेल को रखा गया है। इस शांति समझौते का उल्लेख करने वाले तीनों प्रस्तर स्तंभ लेखों में से एक चीन के राजमहल के सामने, दूसरा दोनों देशों की सीमा पर और तीसरा ल्हासा में है।
१३वीं और १४वीं शताब्दी में तिब्बत और चीन दोनों पर मंगोलों का आधिपत्य हो गया। इसी मंगोल साम्राज्य को एक देश मानकर या इसी मंगोल प्रभुत्व को आधार मानकर चीन कहता है कि तिब्बत आजाद नहीं बल्कि चीन का अभिन्न अंग है। जबकि मंगोलों का ाधिपत्य दोनों ने मान लिया था। तिब्बत को आजाद देश मानने वालों का कहना है कि पूर्व मध्यकाल के विश्व इतिहास में महान पराक्रमी मंगोल शासक कुबलई खान और उसके उत्तराधिकारियों ने पूरे एशिया पर आधिपत्य कायम कर लिया था। तो क्या पूरा एशिया चीनियों का है? तिब्बत की आजादी के समर्थकों का यह भी कहना है कि मंगोलों और तिब्बतियों व चीनियों के संबंधों की भी पड़ताल की जानी चाहिए। उनके मुताबिक तिब्बत पर मंगोलों का आधिपत्य कुबलई खान के चीन अभियान के पहले ही हो गया था। इतना ही नहीं चीन के आजाद होने से कई दशक पहले ही तिब्बत पूरी तरह आजाद भी हो गया था।
मंगोल शासकों ने बौद्ध धर्म को अपना लिया इस कारण उनमें सहअस्तित्व की पंथिक प्रणाली चो-योन का प्रदुर्भाव हुआ। इस कारण तिब्बती मंगोलों के प्रति प्रतिबद्ध रहे। इसके ठीक उलट मंगोलों के चीन पर आधिपत्य की प्रकृति अलग बताई जाती है। मंगोलों के आधिपत्य में तबतक चीन रहा जबतक १४वीं सदी के आखिर में खुद मंगोलों का पतन नहीं हो गया जबकि तिब्बत के शासक तिब्बती हा रहे।
इस के बाद १६३९ में दलाई लामा ने संबंध कायम रखने की चो-योन प्रणाली के तहत शासक मंचू से भी सबंध कायम रखा। मंचू वह शासक था जिसने १६४४ में चीन को जीती था और क्विंग वंश की स्थापना की। मंचू शासकों का १९वीं शताब्दी तक तिब्बत में प्रभाव रहा और तिब्बत भी मंचू साम्राज्य के नाम से जाना जाता था। बाद में मंचू साम्राज्य इतना क्षीण हो गया कि १८४२ और १८५६ के नेपाली गोरखा अभियान के खिलाफ तिब्बतियों की मदद के भी लायक नहीं रह गया। बिना मंचू शासकों की मदद के ही तिब्बतियों ने गोरखाओं से मुकाबला किया जो द्विपक्षीय संधि के बाद लड़ाई खत्म हो पाई। इसके बाद चो-योन संबंध और मंचू वंश दोनों का पतन १९११ में हो गया। तिब्बत इसके बाद ही १९१२ में औपचारिक तौरपर पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न राज्य बन गया और तिब्बत की आजादी १९४९ तक कायम रही। इसके बाद १९४९ में चीन के कम्युनिस्ट शासकों ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। १९९१ में संयुक्त राष्ट्र ने एक अधिनियम पास करके तिब्बत और इससे जुड़े चीनी आधिपत्य वाले सिचुआन, यूनान, गंशू, क्विंघाई को मिलाकर एक अधिकृत देश का दर्जा दे दिया।
पचास साल से ज्यादा हो गए, जब तिब्बत नामक स्वतंत्र राष्ट्र पर साम्यवादी चीन ने कब्जा कर लिया। इन पांच-छह दशकों में चीनियों ने दलाई लामा को तिब्बत छोड़ने के लिए मजबूर किया, तिब्बत में हान जाति के चीनियों को बसाने की कोशिश की और अब वहां रेलवे लाइन बिछाकर उसे पूरी तरह चीन का अटूट अंग बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
साम्यवादी कूट-भाषा में उसे ‘स्वायत्त प्रदेश’ कहा जाता है। यहां स्व का अर्थ तिब्बत नहीं, चीन है। चीन के इस अधिकार को तिब्बती लोग बिलकुल नहीं मानते। तिब्बत में रहने वाले तिब्बती चीन को साम्राज्यवादी आक्रांता देश मानते हैं। तिब्बतियों और चीनियों के बीच गहरा अविश्वास है। हालांकि तिब्बती भारतीयों और भारत के प्रति बहुत उत्साही दिखाई पड़ते हैं, लेकिन चीन के बारे में या तो चुप रहते हैं या दबी जुबान में अपनी घुटन निकालने की कोशिश करते हैं। तिब्बत उनका अपना देश है, लेकिन उन्हें वहां गुलामों की तरह रहना पड़ता है। तिब्बत का आर्थिक विकास तो निश्चय ही हुआ है, लेकिन शक्ति और संपदा के असली मालिक चीनी ही हैं। उनके रहन-सहन और तौर-तरीकों ने साधारण तिब्बतियों के हृदय में गहरी ईष्र्या का स्थायीभाव उत्पन्न कर दिया है। यही ईष्र्या ल्हासा में फूट पड़ी है।

चीनी सरकार की सबसे बड़ी चिंता यह है कि तिब्बत के बाहर अन्य प्रदेशों में रहने वाले तिब्बतियों ने भी जबरदस्त प्रदर्शन किए हैं। दिल्ली, काठमांडू, न्यूयॉर्क, लंदन आदि शहरों में भी प्रदर्शन हो रहे हैं। एक तरफ ये प्रदर्शन हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ चीनी सरकार ओलिंपिक खेलों की तैयारी कर रही है। ओलिंपिक की मशाल वह एवरेस्ट पर्वत पर ले जाना चाहती है। वह तिब्बत होकर ही जाएगी। उसे चिंता है कि अगर तिब्बत को लेकर कोहराम मच गया, तो कहीं ओलिंपिक खेल ही स्थगित न हो जाएं। ओलिंपिक के बहाने उसे अपने महाशक्ति रूप को प्रचारित करने का जो मौका मिलेगा, वह तिब्बतियों के कारण हाथ से जाता रहेगा।

चीन का आरोप है कि ल्हासा में हो रहे उत्पात की जड़ भारत में है। धर्मशाला में बैठी दलाई लामा की प्रवासी सरकार तिब्बतियों को हिंसा पर उतारू कर रही है। यह आरोप निराधार है, क्योंकि दलाई लामा ने हिंसा का स्पष्ट विरोध किया है। 1989 के बाद से तिब्बत में हुई ये सबसे बड़ी हिंसक घटना है. 1959 में चीनी शासन के ख़िलाफ़ हुए संघर्ष की बरसी पर सोमवार को शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरु हुए थे लेकिन शुक्रवार को हिंसा भड़क उठी.
चीन के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों के दौरान कम से कम 80 लोग मारे गए हैं. निर्वासित सरकार के अधिकारियों ने कहा है कि की सूत्रों से मृतकों की संख्या की पुष्टि हुई है. चीन के मुताबिक मरने वालों की संख्या 10 है.
वहीं तिब्बत के निर्वासित सरकार के प्रमुख और आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने आशंका जताई है कि यदि चीन अपनी नीति नहीं बदलता है तो तिब्बत में और मौतें हो सकती हैं. इस बीच चीन के नियंत्रण वाले तिब्बत की राजधानी ल्हासा में चीनी सेना ने अपना नियंत्रण बढ़ा दिया है और सूनी सड़कों पर सैनिक बख़्तरबंद गाड़ियों के साथ गश्त लगा रहे हैं. अमरीका, रूस, फ्रांस सहित दुनिया के कई देशों ने चीन से संयम बरतने की अपील की है.

चीन ने तिब्बत में विदेशियों के प्रवेश पर लगाई रोक

चीन ने तिब्बत में विदेशी नागरिकों के प्रवेश पर रोक लगा दी है और वहां रह रहे पर्यटकों से चले जाने को कहा है। तिब्बत की राजधानी में शासन के खिलाफ और स्वतंत्रता के समर्थन में पिछले 2 दशक में भड़की सबसे बड़ी हिंसा के बाद चीन ने यह कदम उठाया है। हिंसा में अब तक 10 लोगों की मौत हो चुकी है। लोकल अफसरों के मुताबिक ल्हासा में पिछले सप्ताह भड़की हिंसा के बाद तिब्बत के क्षेत्रीय प्रशासन ने सुरक्षा के मद्देनजर विदेशियों के पर्यटन संबंधी सभी आवेदन फिलहाल रद्द कर दिए हैं। विदेशी मामलों के क्षेत्रीय कार्यालय के निदेशक जु जियान्हवा का हवाला देते हुए शिन्हुवा न्यूज एजेंसी ने बताया है कि स्थानीय प्रशासन की मदद से 20 विदेशी पर्यटकों को तिब्बत से निकाला जा चुका है। ल्हासा पुलिस के मुताबिक, 3 जापानी पर्यटकों सहित 580 लोगों का बचाव किया गया है। चीनी सुरक्षा बल ल्हासा पर कड़ी नजर रखे हुए है। शुक्रवार को फैली हिंसा और लोगों के मारे जाने के बाद रविवार तक और लोगों के मारे जाने की कोई खबर नहीं थी। गौरतलब के 57 वर्ष के चीनी शासन के खिलाफ तिब्बत की आजादी के लिए चल रहे आंदोलन की 49वीं बरसी के मौके पर बौद्ध भिक्षुओं ने विरोध,प्रदर्शन शुरू किया था।

दलाई लामा पर दोष

चीन ने ल्हासा की घटनाओं के लिए दलाई लामा को ज़िम्मेदार ठहराया है.दलाई लामा ने प्रदर्शनों को तिब्ब्तियों के असंतोष का प्रतीक बताया है .चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि ये प्रदर्शन 'पूर्वनियोजित' थे और इसके पीछे दलाई लामा हैं.लेकिन दलाई लामा के प्रवक्ता चाइम आर छोयकयापा ने दिल्ली में इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज कर दिया है.
उनका कहना है कि चीन सरकार तिब्बतियों की समस्या को बंदूक से नहीं सुलझा सकती और उसे तिब्बतियों का मन पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. उधर तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा है कि ल्हासा की स्थिति को लेकर वो गंभीर रूप से चिंतित हैं. दलाई लामा ने एक प्रेस वक्तव्य जारी करके चीन से माँग की है वह ल्हासा में बर्बर तरीके से बलप्रयोग करना बंद करे. उन्होंने कहा है कि तिब्बतियों ने जो प्रदर्शन किए हैं वो चीनी शासन के ख़िलाफ़ लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का प्रतीक हैं.

भारत का रुख़

ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत सरकार की ओर से जारी बयान में चीन के बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ भी नहीं कहा गया है.दरअसल, भारत के साथ दुविधा यह है कि मानवाधिकार और अन्य पहलुओं पर भारत तिब्बत की निर्वासित सरकार से सहमत है. यही वजह है कि पिछले कुछ दशकों से तिब्बत की निर्वासित सरकार को भारत ने अपने पास शरण दे रखी है. पर इस शर्त पर कि उनकी ओर से कोई भी राजनीतिक गतिविधि नहीं की जाएगी.
ऐसे में जहाँ भारत तिब्बतियों के देश में हो रहे प्रदर्शनों को अनुमति नहीं दे रहा है वहीं चीन से सुधरते संबंधों को ध्यान में रखते हुए बहुत संभलकर बोल रहा है.

तिब्बत में पिछले 20 बरसों के दौरान हिंसा की यह सबसे बड़ी घटना बताई जा रही है. चीन ने ल्हासा की घटनाओं के लिए दलाई लामा को ज़िम्मेदार ठहराया है. चीन के सरकारी मीडिया ने कहा है कि ये प्रदर्शन 'पूर्वनियोजित' थे और इसके पीछे दलाई लामा हैं. लेकिन तिब्बतियों के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा है कि ल्हासा की स्थिति को लेकर वो गंभीर रूप से चिंतित हैं. दलाई लामा ने एक प्रेस वक्तव्य जारी करके चीन से माँग की है वह ल्हासा में बर्बर तरीके से बलप्रयोग करना बंद करे. उन्होंने कहा है कि तिब्बतियों ने जो प्रदर्शन किए हैं वो चीनी शासन के ख़िलाफ़ लंबे समय से चले आ रहे असंतोष का प्रतीक हैं.

तिब्बत की बदलती तस्वीर

चीन ने पिछले साल ही बीजिंग को रेललाईन के ज़रिए तिब्बत की राजधानी ल्हासा से जोड़ दिया था. इस रेलसंपर्क ने दुनिया की छत कहे जाने वाले तिब्बत पर गहरा असर डालना शुरू कर दिया है. इस रेल संपर्क ने जहां तिब्बत को चीन की मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया है तो वहीं इसकी वजह से तिब्बत में बढ़ रहे चीनी दख़ल पर कई तरह की आशंकाएं भी जताई जा रही है. इस रेल से तिब्बती लोगों के जनजीवन में काफ़ी फ़र्क आया है, साथ ही तिब्बत में नये विचार पहुँच रहे हैं. व्यापार शुरू हुआ है, किसानों को नई तकनीक और यहाँ की कला और संस्कृति को नए बाज़ार मिल रहे हैं. वो फल-फूल रहे हैं."
चीन ने बौद्ध धर्म अनुयायी तिब्बती लोगों की स्वतंत्रता की कोशिशों को 1951 में कुचलने की कोशिश ज़रूर की पर अब भी यहां तिब्बत के सर्वोच्च धार्मिक नेता दलाई लामा की छाप मिटी नहीं है.चीनी आक्रमण के बाद तिब्बत के चौदहवें दलाईलामा शरणार्थी के रूप में भारत आ गए थे जो आज भी चीन की आंखों की किरकिरी बने हुए हैं. ल्हासा स्थित दलाईलामा के आवास पोटाला महल में 13वें दलाईलामा तक की चर्चा होती है. मौज़ूदा दलाईलामा की चर्चा कोई नहीं करता. यहां चीनी सरकार की सख़्त नज़र रहती है.
तिब्बतियों में भारत के प्रति एक अलग तरह का प्रेम है. काफ़ी संख्या में लोग भारत से शिक्षा ले कर लौटे हैं. वे भारत को अपना दोस्त और हिमायती मानते हैं. ल्हासा के बाखोर बाज़ार की दुकानों में हिंदी गाने सुनाई देते हैं. ब्यूटी पार्लरों में बालीवुड अभिनेत्री ऐश्वर्या रॉय समेत फ़िल्मी हस्तियों के पोस्टर नज़र आते हैं. यहां के राष्ट्रीय टेलीविज़न में हिंदी धारावाहिकों को तिब्बती भाषा में दिखाया जाता है.

1 comment:

JaCk said...

Greetings from Italy :d

please visit my blog

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