४ जून २००१ को नेपाल के हनुमान महल में राजा घोषित किए जाने के बाद ताज पहन कर राजगद्दी पर बैठे राजा ग्यानेंद्र और राजसभा के लोग।
कल के नेपाल के महाराज ग्यानेंद्र वीर विक्रम शाहदेव। अभी ही तो वह दौर भी गुजरा है जब नेपाल के ये हिंदू राजा देवा-देवताओं की तरह पूजे जाते थे। उनके फैसले ईश्वरीय आदेश माने जाते थे मगर आज वह दिन भी आगया जब जब नेपाल की लोकतंत्र की बयार में इनका न तख्त बचा न ताज। २००१ में नेपाल के पूर्ववर्ती राजा वीरेंद्र वीर विक्रम शाहदेव और उनके पूरे शाही परिवार के इसी शाही महल नारायणहिती में बर्बरतापूर्वक कत्ल किए जाने के बाद ग्यानेंद्र ने सत्ता संभाली। इसके साथ ही सत्ता का पहले से नेपाल में चल रहा संघर्ष और तेज हो गया। (पढिए नेपाल में राजशाही का उत्थान और पतन)
यहीं से शाही नेपाल और राजा ग्यानेंद्र दोनों का पतन शुरू हो गया। लगातार अलोकप्रिय हुए ग्यानेंद्र अब आमआदमी की हैसियत से नेपाल का शाही महल छोड़कर कहीं और रहेंगे क्यों कि नेपाल अब उनका राज्य नहीं रहा। यह है- रिपब्लिक आफ नेपाल।
यही है नेपाल का वैभवशाली राजशाही नारायणहिती महल। इस महल से अब राजशाही ध्वज उतार दिया गया है। राजशाही के समर्थकों को यह नागवार भी लगा।
नेपाल में राजशाही खत्म
नेपाल में पिछले 240 साल से चली आ रही राजशाही बुधवार को खत्म हो गई। ऐतिहासिक संविधान सभा में देश को धर्मनिरपेक्ष, संघीय, लोकतांत्रिक, गणराज्य घोषित कर दिया गया। नेपाल में नया राष्ट्रप्रमुख अब राष्ट्रपति होगा हालांकि कार्यपालिका की तमाम शक्तियां प्रधानमंत्री के हाथ में रहेंगी। माओवादियों की बहुलता वाली नई संविधान सभा की पहली बैठक में देश को गणराज्य घोषित करने का प्रस्ताव लगभग एकमत से पास हो गया। सभा में प्रस्ताव के पक्ष में 560 और विरोध में चार वोट पडे़। देश के गणराज्य बनने की घोषणा प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला की ओर से गृहमंत्री कृष्ण प्रसाद ने की। इस घोषणा के साथ ही राजा ज्ञानेंद्र देश के आम नागरिक बनकर रह गए हैं। राजा की सभी सांस्कृतिक, प्रशासनिक, राजनीतिक शक्तियां खत्म हो गई हैं। सत्तारूढ़ गठबंधन ने नरेश ज्ञानेंद्र को महल छोड़ने के लिए 15 दिन का वक्त दिया है। अगर उन्होंने इस आदेश का पालन नहीं किया तो उन्हें जबरन महल से निकाल दिया जाएगा। इसके बाद नारायणहिती महल को संग्रहालय में बदल दिया जाएगा। आज पारित प्रस्ताव में कहा गया है कि देश में प्रत्येक 28 मई को गणतंत्र दिवस मनाया जाएगा। देश में राष्ट्रप्रमुख के रूप में राष्ट्रपति के पद के सृजन को सत्तारूढ़ गठबंधन ने मंजूरी दे दी है। कार्यवाहक प्रमुख प्रधानमंत्री होगा। नेपाली कांग्रेस के सूत्रों ने बताया कि राष्ट्रपति नेपाली सेना का सुप्रीम कमांडर होगा। उसे आपातकाल लागू करने का अधिकार भी होगा। 13 हज़ार लोगों की जान लेने वाला गृहयुद्ध समाप्त हो चुका है. और सबसे बड़ी बात – नेपाल आज एक गणराज्य है, जनता के चुने हुए प्रतिनिधि अब उसकी किस्मत के बारे में फ़ैसला लेंगे.
राजा ग्यानेंद्र और महारानी कोमल के अलावा राजकुमार पारस।
नेपाल में उत्सव का माहौल
राजशाही की समाप्ति और देश के गणतंत्र घोषित होने की खुशी में बृहस्पतिवार को नेपाल में उत्सव का माहौल रहा। सरकार ने शाही महल सहित देश के सभी भागों से राजतंत्र के चिन्ह वापस ले लिए हैं। नारायणहिती से शाही ध्वज को उतार दिया गया है। पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र से तुरंत महल खाली कराने की मांग को लेकर भीड़ हिंसा पर भी उतर आई लेकिन सुरक्षा बलों ने उन्हें बेकाबू नहीं होने दिया। नारायणहिती से शाही ध्वज हटाने की घटना के हजारों लोग गवाह बने। ये लोग पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र के खिलाफ नारे लगा रहे थे और आंदोलनकारी गीत गा रहे थे। लोगों के एक समूह ने शाही महल के मुख्य द्वार के ऊपर राष्ट्रध्वज फहराना चाहा लेकिन पुलिस ने लाठीचार्ज कर उन्हें खदेड़ दिया। कुछ देर बाद ही ज्ञानेंद्र विरोधी लोगों का एक समूह पथराव पर भी उतर आया। पूर्व नरेश के खिलाफ जनविरोधी भावनाओं को देखते हुए महल के आसपास कडे़ सुरक्षा बंदोबस्त किए गए हैं। सरकार ने राजतंत्र के अंत और गणतंत्र की शुरुआत का जश्न मनाने के लिए तीन दिन के राष्ट्रीय अवकाश की घोषणा की है। राजधानी काठमांडू सहित देश के तमाम हिस्सों में रैलियां एवं सभाएं आयोजित की जा रही हैं। लोगों ने अपने घरों को सजाया है। सरकारी कार्यालयों को भी रोशनी से नहलाया जा रहा है।
नेपाल को रिपब्लिक घोषित किए जाने के बाद जशन मनाते लोग।
बदलाव का दुनिया भर में स्वागत
लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने पड़ोसी देश में गणतंत्र की घोषणा का स्वागत करते हुए समृद्धि और स्थायित्व के मकसद से किए जा रहे इस काम में भारत के हर संभव सहयोग की वचनबद्धता दुहराई है। उन्होंने कहा कि हमें पूरा विश्वास है कि संविधान सभा में विचार विमर्श के फलस्वरूप नेपाल में पूर्ण लोकतंत्र स्थापित करने का स्वप्न साकार होगा।
अमेरिका ने नेपाल के राजशाही को छोड़कर ऐतिहासिक गणतांत्रिक व्यवस्था अपनाने पर कोई टिप्पणी नहीं की है लेकिन हिमालयी राष्ट्र से राजनीतिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की अपील की है। विदेश विभाग के प्रवक्ता टाम कैसी ने कहा कि हम स्थिति पर नजर रखेंगे। उन्होंने कहा कि अमेरिका नेपाल को फिलहाल दी जा रही हर तरह की सहायता आगे भी जारी रखेगा।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने नेपाल में राजतंत्र को समाप्त कर गणतंत्र की घोषणा किए जाने का स्वागत किया है।
Thursday, 29 May 2008
Tuesday, 27 May 2008
दांतों की बीमारी यानी कैंसर का खतरा
मसूड़े और दांतों की बीमारी को अगर आप गंभीरता से नहीं लेते हैं तो अपनी आदत बदल डालिए। यह अनदेखी कैंसर जैसी गंभीर समस्या का सबब बन सकती है। यह दावा लंदन के इम्पीरियल कालेज में 50 हजार लोगों के स्वास्थ्य रिकार्ड के अध्ययन के आधार पर किया गया है।
यह अध्ययन करने वाले दल ने पाया कि मसूड़े की बीमारी फेफड़े, किडनी, खून और पैनक्रियाज के कैंसर का खतरा बढ़ा देती है। प्रमुख शोधकर्ता डा. डोमिनिक मिचाड के अनुसार, मसूड़ों की बीमारी का लगातार बने रहना प्रतिरक्षण प्रणाली के कमजोर होने का संकेत हो सकता है। इसके कमजोर होने से शरीर में कैंसर फैलने का मौका मिल सकता है। यह रिपोर्ट 'लैनसेट आनकोलाजी' जर्नल में प्रकाशित हुई है।
अध्ययन में पाया गया कि जिन लोगों को मसूड़े की बीमारी थी, उनमें कैंसर होने का खतरा उन लोगों के मुकाबले 14 फीसदी अधिक था जिन्हें मसूड़े की बीमारी नहीं थी। मसूड़े की बीमारी से ग्रस्त लोगों में फेफड़े का कैंसर होने का खतरा भी अधिक था और किडनी कैंसर होने का खतरा 50 फीसदी अधिक पाया गया। पैनक्रियाज के कैंसर होने का खतरा भी इतना ही अधिक था। ल्यूकेमिया जैसी ब्लड सेल के कैंसर का खतरा मसूड़ों की बीमारी वालों को 30 फीसदी अधिक था।
डा. मिचाड के मुताबिक यह भी हो सकता है कि मसूड़े की बीमारी से संबंधित बैक्टिरिया जब फैले तो मुंह या गले का कैंसर हो जाए। डा. मिचाड कहते हैं कि इसका मतलब यह नहीं है कि मसूड़े की बीमारी के बाद कैंसर से बचाव का इलाज शुरू कर देना चाहिए। इसकी जगह लोगों को दांत के डाक्टर से संपर्क करना चाहिए।
यह अध्ययन करने वाले दल ने पाया कि मसूड़े की बीमारी फेफड़े, किडनी, खून और पैनक्रियाज के कैंसर का खतरा बढ़ा देती है। प्रमुख शोधकर्ता डा. डोमिनिक मिचाड के अनुसार, मसूड़ों की बीमारी का लगातार बने रहना प्रतिरक्षण प्रणाली के कमजोर होने का संकेत हो सकता है। इसके कमजोर होने से शरीर में कैंसर फैलने का मौका मिल सकता है। यह रिपोर्ट 'लैनसेट आनकोलाजी' जर्नल में प्रकाशित हुई है।
अध्ययन में पाया गया कि जिन लोगों को मसूड़े की बीमारी थी, उनमें कैंसर होने का खतरा उन लोगों के मुकाबले 14 फीसदी अधिक था जिन्हें मसूड़े की बीमारी नहीं थी। मसूड़े की बीमारी से ग्रस्त लोगों में फेफड़े का कैंसर होने का खतरा भी अधिक था और किडनी कैंसर होने का खतरा 50 फीसदी अधिक पाया गया। पैनक्रियाज के कैंसर होने का खतरा भी इतना ही अधिक था। ल्यूकेमिया जैसी ब्लड सेल के कैंसर का खतरा मसूड़ों की बीमारी वालों को 30 फीसदी अधिक था।
डा. मिचाड के मुताबिक यह भी हो सकता है कि मसूड़े की बीमारी से संबंधित बैक्टिरिया जब फैले तो मुंह या गले का कैंसर हो जाए। डा. मिचाड कहते हैं कि इसका मतलब यह नहीं है कि मसूड़े की बीमारी के बाद कैंसर से बचाव का इलाज शुरू कर देना चाहिए। इसकी जगह लोगों को दांत के डाक्टर से संपर्क करना चाहिए।
Friday, 23 May 2008
दखल की लड़ाई में बेदखल हुए वामपंथी
कोलकाता में राजभवन के नजदीक पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास निगम का दफ्तर है। इस दफ्तर में प्रवेश करते ही सामने एक बोर्ड लगा है जिसपर लिखा है- टर्न लेफ्ट फार राइट डायरेक्शन। इसका सीधा अर्थ तो यही हुआ कि दफ्तर में घुसने के लिए बाएं मुड़िए। इसका सांकेतिक अर्थ भी है। अर्थात् अगर पश्चिम बंगाल को औद्योगीकृत देखना चाहते हैं तो वामपंथी रूझान रखिए। यानी वामपंथी बनिए या वामपंथ की राह चलिए। प्रकारांतर से यह एक नारा भी है कि अगर वामपंथी सरकार पर भरोसा रखें तभी पश्चिम बंगाल का औद्योगिकीकरण संभव होगा। अब पंचायत चुनाव के नतीजों ने इस नारे पर सवाल उठा दिया है। वह लाख टके का सवाल यह भी है कि क्या जिन तौर-तरीकों, सिद्धांतों को हथियार बनाकर बंगाल का औद्योगिकीकरण किया जा रहा है, वह जनता को स्वीकार्य है ?
कम से कम सिंगूर और नंदीग्राम में वाममोर्चा की भारी पराजय से तो यही लगता है कि सेज की यह नीति जनता को मंजूर नहीं। विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईज़ेड) के लिए भूमि अधिग्रहण को लेकर हिंसा का शिकार रहे सिंगूर और नंदीग्राम में त्रिस्तरीय पंचायती चुनाव में विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने जीत हासिल की है। इन चुनावों को उद्योग के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण की बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार की नीति के लिए अग्निपरीक्षा के तौर पर देखा जा रहा था। जबरन कैडरवाहिनी के आतंक के साये में औद्योगिकीकरण के इस प्रयास को जनता ने नकारकर वाममोर्चा सरकार पुनर्विचार करने पर विवश कर दिया है।
माना जाता है कि पश्चिम बंगाल में पंचायतें जिनके आधीन होती हैं राज्य में सरकारें भी उन्हीं की कायम रहती हैं। यही ग्रामीण आधार हैं जिनपर १९७१ के बाद से वाममोर्चा सरकार कायम है। इसी कारण बंगाल को वामपंथियों का अभेद्य लालदुर्ग कहा जाता है। लेकिन मई २००८ में हुए पंचायत चुनाव में ममता बनर्जी की अगुआई में तृणमूल कांग्रेस ने इसी अभेद्य लालदुर्ग में सेंध लगा दी है।
आखिर ऐसा क्यों हुआ ?
अगर पंचायत चुनाव को जनादेश मानें तो ऐसे कई कारण हैं जिसने माकपा समेत उसके घटक दलों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है। पहला तो यह कि जिस सरकारी गुंडीगर्दी और कैडर राज का वाममोर्चा सरकार ने अधिग्रहण वाले इलाकों में प्रदर्शन किया उससे जनता बेहद भयभीत हो गई। इस डर का ही विपक्ष ने फायदा उठाया। दूसरे घटक दलों को हासिए पर रखनेऔर उन्हें दरकिनार कर अकेले फैसले लेने की रवायत ने इतना नाराज किया कि उन्हें मजबूर होकर अपनी ही सरकार की आलोचना करनी पड़ी। इसका मनोवैग्यानिक असर यह पड़ा कि जनता ने उनके विकल्प के तौर पर दूसरे दलों को चुना। घटक दलों को भी नुकसान इसी लिए हुआ क्यों कि वे विरोध भी करते रहे और वाममोर्चा में भी बने रहे। घटक दलों की इस बेवकूफी ने वाममोर्चा को वोट देने वालों में काफी भ्रम पैदा किया।
ममता बनर्जी के आंदोलन को बंगाल के बुद्धिजीवियों का समर्थन और सरकार की नीतियों के विरोध में कोलकाता में बुद्धिजीवियों का जुलूस वह मंजर था जहां साबित हो गया कि सरकार कहीं न कहीं तो गलत है। इसने एक ऐसा वातावरण तैयार किया जो सरकार की नीतियों की धज्जी उड़ाने के लिए काफी थी।
किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में तरह सरकार चलाने वालों का व्यवहार भी लोगों में सरकार के प्रति घृणा ही पैदा किया। मसलन तसलामा नसरीन के मुद्दे से लेकर सिंगुर और नंदीग्राम के मुद्दे पर पार्टी के आला नेता विमान बसु. विनय कोन्नार और खुद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का रवैया अल्पसंख्यकों को बेहद नाराज करने वाला रहा। इनकी जगह अनिल विश्वाश होते तो शायद विपक्ष इन मुद्दों को इतना भुना नहीं पाता। इसका सीधी अर्थ यह भी है कि पिछले दो साल में सरकार को डांवाडोल करने वाले रिजवानुर रहमान, तस्लीमा नसरीन, सिंगुर और नंदीग्राम के साथ खेती की जमीन के अधिग्रहण के तमामा मुद्दे पर ज्योति बसु को छोड़कर बाकी राज्य के माकपा के कर्णधारों का रवैया किसानों और अल्पसंख्यकों को नाराज करने वाला ही रहा। नतीजे में लालदुर्ग में तृणमूल ने आसानी से सेंध लगा ली। अगर यह शहरी इलाका होता माकपा को कम परेशानी होती मगर गांवों में तृणमूल का बढ़ता जनाधार वाममोर्चा के लिए खतरे की घंटी है।
चुनाव के बाद हिंसा तो अब भी नंदीग्राम में जारी है। नीचे दिए गए कुछ फोटो देखिए जो सरकार की उस मनमानी की कहानी कह रहे हैं जिसने आज वाममोर्चा को कुछ हद तक कमजोर कर दिया है और ऐसा बंगाल में वाममोर्चा के साथ पहली बार हुआ है।
टाटा की वह नैनो कार जिसका कारखाना सिंगुर में विवाद का विषय बना।
तापसी मलिक। सिंगुर में टाटा मोटर कारखाना स्थल से इसकी जली लाश बरामद हुई। सरकार के विरोध का इसे भी भिगतना पड़ा खामियाजा।
सरकार का विरोध करने वालों के तहस-नहस कर दिया गए घर।
नंदीग्राम में खाली कराए गए एक गांव में लहराता माकपा का झंडा।
नरसंहार के बाद खाली पड़े वे गांव जिन पर माकपा कैडरों ने पुनर्दखल का दावा किया।
बूथ रिगिंग करने के आरोप में इन लोगों को पकड़ी है पुलिस
अंततः ११ मई से शुरू हुए पंचायत चुनाव। नंदीग्राम में वोट डालने कतारबद्ध महिलाएं। बुलेट को बैलेट की ताकत दिखाने का वक्त आ गया था।
हिंसा में मारे गए बेकसूर लोगों के शव
नंदीग्राम में फायरिंग से दीवालों पर गोलियों के निशान
नंदीग्राम में नरसंहार की खबर के बाद ममता भी रवाना हुई नंदीग्राम। सभी को रास्ते में रोक लिया गया।
मेधापाटकर हिंसाग्रस्त नंदीग्राम को रवाना होती हुईं
बुद्धिजीवी सड़कों पर
कोलकाता में नंदीग्राम की हिंसा और सरकार के पुनर्दखल के बयान से बौखलाए बुद्धिजीवी सड़कों पर उतरे
नंदीग्राम में हिंसा के खिलाफ कोलकाता में बुद्धिजीवियों की रैली
नंदीग्राम में तैनात सीआरपीएफ जवान
पंचायत चुनाव में इस तरह ममता ने लगाई सेंध
पूर्वी मिदनापुर ज़िले में ज़िला परिषद की 53 सीटों में से 36 तृणमूल कांग्रेस के कब्ज़े में आई है।इसी जिले में नंदीग्राम है। तीन चरणों में हुए पंचायत चुनावों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी और दस से ज़्यादा लोग मारे गए थे। पिछले पंचायत चुनाव में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने नंदीग्राम की 24 में से 19 पंचायत समितियों में जीत हासिल की थी। भूमि अधिग्रहण को लेकर तृणमूल कांग्रेस नीत भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति और माकपा के बीच विवाद में पिछले दो वर्षों में नंदीग्राम में काफी हिंसा हुई है और कई लोग मारे गए हैं। वाम मोर्चा को सिंगूर में भी करारा झटका लगा है। यहीं पर टाटा मोटर्स की प्रतिष्ठित नैनो कार परियोजना का निर्माण स्थल है। माकपा का पारंपरिक गढ़ रहे इस जिले में 1978 के बाद ऐसा पहली बार हो रहा है, जब जिला परिषद पर उसका नियंत्रण खत्म हो गया है। इस जिले में मिली हार इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहीं ऐतिहासिक तेभागा कृषक विद्रोह हुआ था। पिछले तीन दशकों से इस जिले की जनता पार्टी के साथ दृढ़ता से खड़ी थी।
वाम मोर्चे के परंपरागत गढ़ दक्षिण चौबीस परगना में सीपीएम को 1978 के बाद पहली बार ज़िला परिषद में हार का सामना करना पड़ा है। यहाँ ग्राम पंचायत की 73 में से 34 पर तृणमूल ने जीत दर्ज की है, जबकि पांच पर उसकी सहयोगी सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर के उम्मीदवार जीते हैं। जिले में वाम मोर्चा सरकार को ऐसे समय में झटका लगा है, जब वह नॉलेज सिटी और हेल्थ सिटी जैसी अनेक मेगा परियोजनाएँ शुरू करने की योजना बना रही है। इस जिला परिषद पर माकपा का कब्जा लगातार पिछले छह कार्यकाल से था। तृणमूल कांग्रेस ने कुल्पी पंचायत समिति में जबरदस्त जीत हासिल की। वहाँ पार्टी ने 31 सीटें जीतीं। माकपा को महज पाँच सीटों से संतोष करना पड़ा जबकि कांग्रेस को एक सीट पर जीत मिली।
वाम मोर्चा ने हालाँकि मुर्शिदाबाद जिला परिषद का नियंत्रण कांग्रेस से छीन लिया। इस क्षेत्र से कांग्रेस के कद्दावर नेता प्रणब मुखर्जी और दो अन्य नेता अधीर चौधरी तथा मन्नान हुसैन 2004 में लोकसभा पहुँचे थे। उत्तरी दीनाजपुर जिला परिषद सीटों पर कांग्रेस ने माकपा से कब्जा छीन लिया। इस बार पंचायत चुनाव में भूमि अधिग्रहण बड़ा मुद्दा था।
कम से कम सिंगूर और नंदीग्राम में वाममोर्चा की भारी पराजय से तो यही लगता है कि सेज की यह नीति जनता को मंजूर नहीं। विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईज़ेड) के लिए भूमि अधिग्रहण को लेकर हिंसा का शिकार रहे सिंगूर और नंदीग्राम में त्रिस्तरीय पंचायती चुनाव में विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने जीत हासिल की है। इन चुनावों को उद्योग के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण की बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार की नीति के लिए अग्निपरीक्षा के तौर पर देखा जा रहा था। जबरन कैडरवाहिनी के आतंक के साये में औद्योगिकीकरण के इस प्रयास को जनता ने नकारकर वाममोर्चा सरकार पुनर्विचार करने पर विवश कर दिया है।
माना जाता है कि पश्चिम बंगाल में पंचायतें जिनके आधीन होती हैं राज्य में सरकारें भी उन्हीं की कायम रहती हैं। यही ग्रामीण आधार हैं जिनपर १९७१ के बाद से वाममोर्चा सरकार कायम है। इसी कारण बंगाल को वामपंथियों का अभेद्य लालदुर्ग कहा जाता है। लेकिन मई २००८ में हुए पंचायत चुनाव में ममता बनर्जी की अगुआई में तृणमूल कांग्रेस ने इसी अभेद्य लालदुर्ग में सेंध लगा दी है।
आखिर ऐसा क्यों हुआ ?
अगर पंचायत चुनाव को जनादेश मानें तो ऐसे कई कारण हैं जिसने माकपा समेत उसके घटक दलों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है। पहला तो यह कि जिस सरकारी गुंडीगर्दी और कैडर राज का वाममोर्चा सरकार ने अधिग्रहण वाले इलाकों में प्रदर्शन किया उससे जनता बेहद भयभीत हो गई। इस डर का ही विपक्ष ने फायदा उठाया। दूसरे घटक दलों को हासिए पर रखनेऔर उन्हें दरकिनार कर अकेले फैसले लेने की रवायत ने इतना नाराज किया कि उन्हें मजबूर होकर अपनी ही सरकार की आलोचना करनी पड़ी। इसका मनोवैग्यानिक असर यह पड़ा कि जनता ने उनके विकल्प के तौर पर दूसरे दलों को चुना। घटक दलों को भी नुकसान इसी लिए हुआ क्यों कि वे विरोध भी करते रहे और वाममोर्चा में भी बने रहे। घटक दलों की इस बेवकूफी ने वाममोर्चा को वोट देने वालों में काफी भ्रम पैदा किया।
ममता बनर्जी के आंदोलन को बंगाल के बुद्धिजीवियों का समर्थन और सरकार की नीतियों के विरोध में कोलकाता में बुद्धिजीवियों का जुलूस वह मंजर था जहां साबित हो गया कि सरकार कहीं न कहीं तो गलत है। इसने एक ऐसा वातावरण तैयार किया जो सरकार की नीतियों की धज्जी उड़ाने के लिए काफी थी।
किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में तरह सरकार चलाने वालों का व्यवहार भी लोगों में सरकार के प्रति घृणा ही पैदा किया। मसलन तसलामा नसरीन के मुद्दे से लेकर सिंगुर और नंदीग्राम के मुद्दे पर पार्टी के आला नेता विमान बसु. विनय कोन्नार और खुद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का रवैया अल्पसंख्यकों को बेहद नाराज करने वाला रहा। इनकी जगह अनिल विश्वाश होते तो शायद विपक्ष इन मुद्दों को इतना भुना नहीं पाता। इसका सीधी अर्थ यह भी है कि पिछले दो साल में सरकार को डांवाडोल करने वाले रिजवानुर रहमान, तस्लीमा नसरीन, सिंगुर और नंदीग्राम के साथ खेती की जमीन के अधिग्रहण के तमामा मुद्दे पर ज्योति बसु को छोड़कर बाकी राज्य के माकपा के कर्णधारों का रवैया किसानों और अल्पसंख्यकों को नाराज करने वाला ही रहा। नतीजे में लालदुर्ग में तृणमूल ने आसानी से सेंध लगा ली। अगर यह शहरी इलाका होता माकपा को कम परेशानी होती मगर गांवों में तृणमूल का बढ़ता जनाधार वाममोर्चा के लिए खतरे की घंटी है।
चुनाव के बाद हिंसा तो अब भी नंदीग्राम में जारी है। नीचे दिए गए कुछ फोटो देखिए जो सरकार की उस मनमानी की कहानी कह रहे हैं जिसने आज वाममोर्चा को कुछ हद तक कमजोर कर दिया है और ऐसा बंगाल में वाममोर्चा के साथ पहली बार हुआ है।
टाटा की वह नैनो कार जिसका कारखाना सिंगुर में विवाद का विषय बना।
तापसी मलिक। सिंगुर में टाटा मोटर कारखाना स्थल से इसकी जली लाश बरामद हुई। सरकार के विरोध का इसे भी भिगतना पड़ा खामियाजा।
सरकार का विरोध करने वालों के तहस-नहस कर दिया गए घर।
नंदीग्राम में खाली कराए गए एक गांव में लहराता माकपा का झंडा।
नरसंहार के बाद खाली पड़े वे गांव जिन पर माकपा कैडरों ने पुनर्दखल का दावा किया।
बूथ रिगिंग करने के आरोप में इन लोगों को पकड़ी है पुलिस
अंततः ११ मई से शुरू हुए पंचायत चुनाव। नंदीग्राम में वोट डालने कतारबद्ध महिलाएं। बुलेट को बैलेट की ताकत दिखाने का वक्त आ गया था।
हिंसा में मारे गए बेकसूर लोगों के शव
नंदीग्राम में फायरिंग से दीवालों पर गोलियों के निशान
नंदीग्राम में नरसंहार की खबर के बाद ममता भी रवाना हुई नंदीग्राम। सभी को रास्ते में रोक लिया गया।
मेधापाटकर हिंसाग्रस्त नंदीग्राम को रवाना होती हुईं
बुद्धिजीवी सड़कों पर
कोलकाता में नंदीग्राम की हिंसा और सरकार के पुनर्दखल के बयान से बौखलाए बुद्धिजीवी सड़कों पर उतरे
नंदीग्राम में हिंसा के खिलाफ कोलकाता में बुद्धिजीवियों की रैली
नंदीग्राम में तैनात सीआरपीएफ जवान
पंचायत चुनाव में इस तरह ममता ने लगाई सेंध
पूर्वी मिदनापुर ज़िले में ज़िला परिषद की 53 सीटों में से 36 तृणमूल कांग्रेस के कब्ज़े में आई है।इसी जिले में नंदीग्राम है। तीन चरणों में हुए पंचायत चुनावों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी और दस से ज़्यादा लोग मारे गए थे। पिछले पंचायत चुनाव में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने नंदीग्राम की 24 में से 19 पंचायत समितियों में जीत हासिल की थी। भूमि अधिग्रहण को लेकर तृणमूल कांग्रेस नीत भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति और माकपा के बीच विवाद में पिछले दो वर्षों में नंदीग्राम में काफी हिंसा हुई है और कई लोग मारे गए हैं। वाम मोर्चा को सिंगूर में भी करारा झटका लगा है। यहीं पर टाटा मोटर्स की प्रतिष्ठित नैनो कार परियोजना का निर्माण स्थल है। माकपा का पारंपरिक गढ़ रहे इस जिले में 1978 के बाद ऐसा पहली बार हो रहा है, जब जिला परिषद पर उसका नियंत्रण खत्म हो गया है। इस जिले में मिली हार इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहीं ऐतिहासिक तेभागा कृषक विद्रोह हुआ था। पिछले तीन दशकों से इस जिले की जनता पार्टी के साथ दृढ़ता से खड़ी थी।
वाम मोर्चे के परंपरागत गढ़ दक्षिण चौबीस परगना में सीपीएम को 1978 के बाद पहली बार ज़िला परिषद में हार का सामना करना पड़ा है। यहाँ ग्राम पंचायत की 73 में से 34 पर तृणमूल ने जीत दर्ज की है, जबकि पांच पर उसकी सहयोगी सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर के उम्मीदवार जीते हैं। जिले में वाम मोर्चा सरकार को ऐसे समय में झटका लगा है, जब वह नॉलेज सिटी और हेल्थ सिटी जैसी अनेक मेगा परियोजनाएँ शुरू करने की योजना बना रही है। इस जिला परिषद पर माकपा का कब्जा लगातार पिछले छह कार्यकाल से था। तृणमूल कांग्रेस ने कुल्पी पंचायत समिति में जबरदस्त जीत हासिल की। वहाँ पार्टी ने 31 सीटें जीतीं। माकपा को महज पाँच सीटों से संतोष करना पड़ा जबकि कांग्रेस को एक सीट पर जीत मिली।
वाम मोर्चा ने हालाँकि मुर्शिदाबाद जिला परिषद का नियंत्रण कांग्रेस से छीन लिया। इस क्षेत्र से कांग्रेस के कद्दावर नेता प्रणब मुखर्जी और दो अन्य नेता अधीर चौधरी तथा मन्नान हुसैन 2004 में लोकसभा पहुँचे थे। उत्तरी दीनाजपुर जिला परिषद सीटों पर कांग्रेस ने माकपा से कब्जा छीन लिया। इस बार पंचायत चुनाव में भूमि अधिग्रहण बड़ा मुद्दा था।
Wednesday, 21 May 2008
दखल की लड़ाई में बेदखल हुआ वाममोर्चा
कोलकाता में राजभवन के नजदीक पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास निगम का दफ्तर है। इस दफ्तर में प्रवेश करते ही सामने एक बोर्ड लगा है जिसपर लिखा है- टर्न लेफ्ट फार राइट डायरेक्शन। इसका सीधा अर्थ तो यही हुआ कि दफ्तर में घुसने के लिए बाएं मुड़िए। इसका सांकेतिक अर्थ भी है। अर्थात् अगर पश्चिम बंगाल को औद्योगीकृत देखना चाहते हैं तो वामपंथी रूझान रखिए। यानी वामपंथी बनिए या वामपंथ की राह चलिए। प्रकारांतर से यह एक नारा भी है कि अगर वामपंथी सरकार पर भरोसा रखें तभी पश्चिम बंगाल का औद्योगिकीकरण संभव होगा। अब पंचायत चुनाव के नतीजों ने इस नारे पर सवाल उठा दिया है। वह लाख टके का सवाल यह भी है कि क्या जिन तौर-तरीकों, सिद्धांतों को हथियार बनाकर बंगाल का औद्योगिकीकरण किया जा रहा है, वह जनता को स्वीकार्य है ?
कम से कम सिंगूर और नंदीग्राम में वाममोर्चा की भारी पराजय से तो यही लगता है कि सेज की यह नीति जनता को मंजूर नहीं। विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईज़ेड) के लिए भूमि अधिग्रहण को लेकर हिंसा का शिकार रहे सिंगूर और नंदीग्राम में त्रिस्तरीय पंचायती चुनाव में विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने जीत हासिल की है। इन चुनावों को उद्योग के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण की बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार की नीति के लिए अग्निपरीक्षा के तौर पर देखा जा रहा था। जबरन कैडरवाहिनी के आतंक के साये में औद्योगिकीकरण के इस प्रयास को जनता ने नकारकर वाममोर्चा सरकार पुनर्विचार करने पर विवश कर दिया है।
माना जाता है कि पश्चिम बंगाल में पंचायतें जिनके आधीन होती हैं राज्य में सरकारें भी उन्हीं की कायम रहती हैं। यही ग्रामीण आधार हैं जिनपर १९७१ के बाद से वाममोर्चा सरकार कायम है। इसी कारण बंगाल को वामपंथियों का अभेद्य लालदुर्ग कहा जाता है। लेकिन मई २००८ में हुए पंचायत चुनाव में ममता बनर्जी की अगुआई में तृणमूल कांग्रेस ने इसी अभेद्य लालदुर्ग में सेंध लगा दी है।
आखिर ऐसा क्यों हुआ ?
अगर पंचायत चुनाव को जनादेश मानें तो ऐसे कई कारण हैं जिसने माकपा समेत उसके घटक दलों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है। पहला तो यह कि जिस सरकारी गुंडीगर्दी और कैडर राज का वाममोर्चा सरकार ने अधिग्रहण वाले इलाकों में प्रदर्शन किया उससे जनता बेहद भयभीत हो गई। इस डर का ही विपक्ष ने फायदा उठाया। दूसरे घटक दलों को हासिए पर रखनेऔर उन्हें दरकिनार कर अकेले फैसले लेने की रवायत ने इतना नाराज किया कि उन्हें मजबूर होकर अपनी ही सरकार की आलोचना करनी पड़ी। इसका मनोवैग्यानिक असर यह पड़ा कि जनता ने उनके विकल्प के तौर पर दूसरे दलों को चुना। घटक दलों को भी नुकसान इसी लिए हुआ क्यों कि वे विरोध भी करते रहे और वाममोर्चा में भी बने रहे। घटक दलों की इस बेवकूफी ने वाममोर्चा को वोट देने वालों में काफी भ्रम पैदा किया।
ममता बनर्जी के आंदोलन को बंगाल के बुद्धिजीवियों का समर्थन और सरकार की नीतियों के विरोध में कोलकाता में बुद्धिजीवियों का जुलूस वह मंजर था जहां साबित हो गया कि सरकार कहीं न कहीं तो गलत है। इसने एक ऐसा वातावरण तैयार किया जो सरकार की नीतियों की धज्जी उड़ाने के लिए काफी थी।
किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में तरह सरकार चलाने वालों का व्यवहार भी लोगों में सरकार के प्रति घृणा ही पैदा किया। मसलन तसलामा नसरीन के मुद्दे से लेकर सिंगुर और नंदीग्राम के मुद्दे पर पार्टी के आला नेता विमान बसु. विनय कोन्नार और खुद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का रवैया अल्पसंख्यकों को बेहद नाराज करने वाला रहा। इनकी जगह अनिल विश्वाश होते तो शायद विपक्ष इन मुद्दों को इतना भुना नहीं पाता। इसका सीधी अर्थ यह भी है कि पिछले दो साल में सरकार को डांवाडोल करने वाले रिजवानुर रहमान, तस्लीमा नसरीन, सिंगुर और नंदीग्राम के साथ खेती की जमीन के अधिग्रहण के तमामा मुद्दे पर ज्योति बसु को छोड़कर बाकी राज्य के माकपा के कर्णधारों का रवैया किसानों और अल्पसंख्यकों को नाराज करने वाला ही रहा। नतीजे में लालदुर्ग में तृणमूल ने आसानी से सेंध लगा ली। अगर यह शहरी इलाका होता माकपा को कम परेशानी होती मगर गांवों में तृणमूल का बढ़ता जनाधार वाममोर्चा के लिए खतरे की घंटी है।
चुनाव के बाद हिंसा तो अब भी नंदीग्राम में जारी है। नीचे दिए गए कुछ फोटो देखिए जो सरकार की उस मनमानी की कहानी कह रहे हैं जिसने आज वाममोर्चा को कुछ हद तक कमजोर कर दिया है और ऐसा बंगाल में वाममोर्चा के साथ पहली बार हुआ है।
टाटा की वह नैनो कार जिसका कारखाना सिंगुर में विवाद का विषय बना।
तापसी मलिक। सिंगुर में टाटा मोटर कारखाना स्थल से इसकी जली लाश बरामद हुई। सरकार के विरोध का इसे भी भिगतना पड़ा खामियाजा।
सरकार का विरोध करने वालों के तहस-नहस कर दिया गए घर।
नंदीग्राम में खाली कराए गए एक गांव में लहराता माकपा का झंडा।
नरसंहार के बाद खाली पड़े वे गांव जिन पर माकपा कैडरों ने पुनर्दखल का दावा किया।
बूथ रिगिंग करने के आरोप में इन लोगों को पकड़ी है पुलिस
अंततः ११ मई से शुरू हुए पंचायत चुनाव। नंदीग्राम में वोट डालने कतारबद्ध महिलाएं। बुलेट को बैलेट की ताकत दिखाने का वक्त आ गया था।
हिंसा में मारे गए बेकसूर लोगों के शव
नंदीग्राम में फायरिंग से दीवालों पर गोलियों के निशान
नंदीग्राम में नरसंहार की खबर के बाद ममता भी रवाना हुई नंदीग्राम। सभी को रास्ते में रोक लिया गया।
मेधापाटकर हिंसाग्रस्त नंदीग्राम को रवाना होती हुईं
बुद्धिजीवी सड़कों पर
कोलकाता में नंदीग्राम की हिंसा और सरकार के पुनर्दखल के बयान से बौखलाए बुद्धिजीवी सड़कों पर उतरे
नंदीग्राम में हिंसा के खिलाफ कोलकाता में बुद्धिजीवियों की रैली
नंदीग्राम में तैनात सीआरपीएफ जवान
पंचायत चुनाव में इस तरह ममता ने लगाई सेंध
पूर्वी मिदनापुर ज़िले में ज़िला परिषद की 53 सीटों में से 36 तृणमूल कांग्रेस के कब्ज़े में आई है।इसी जिले में नंदीग्राम है। तीन चरणों में हुए पंचायत चुनावों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी और दस से ज़्यादा लोग मारे गए थे। पिछले पंचायत चुनाव में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने नंदीग्राम की 24 में से 19 पंचायत समितियों में जीत हासिल की थी। भूमि अधिग्रहण को लेकर तृणमूल कांग्रेस नीत भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति और माकपा के बीच विवाद में पिछले दो वर्षों में नंदीग्राम में काफी हिंसा हुई है और कई लोग मारे गए हैं। वाम मोर्चा को सिंगूर में भी करारा झटका लगा है। यहीं पर टाटा मोटर्स की प्रतिष्ठित नैनो कार परियोजना का निर्माण स्थल है। माकपा का पारंपरिक गढ़ रहे इस जिले में 1978 के बाद ऐसा पहली बार हो रहा है, जब जिला परिषद पर उसका नियंत्रण खत्म हो गया है। इस जिले में मिली हार इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहीं ऐतिहासिक तेभागा कृषक विद्रोह हुआ था। पिछले तीन दशकों से इस जिले की जनता पार्टी के साथ दृढ़ता से खड़ी थी।
वाम मोर्चे के परंपरागत गढ़ दक्षिण चौबीस परगना में सीपीएम को 1978 के बाद पहली बार ज़िला परिषद में हार का सामना करना पड़ा है। यहाँ ग्राम पंचायत की 73 में से 34 पर तृणमूल ने जीत दर्ज की है, जबकि पांच पर उसकी सहयोगी सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर के उम्मीदवार जीते हैं। जिले में वाम मोर्चा सरकार को ऐसे समय में झटका लगा है, जब वह नॉलेज सिटी और हेल्थ सिटी जैसी अनेक मेगा परियोजनाएँ शुरू करने की योजना बना रही है। इस जिला परिषद पर माकपा का कब्जा लगातार पिछले छह कार्यकाल से था। तृणमूल कांग्रेस ने कुल्पी पंचायत समिति में जबरदस्त जीत हासिल की। वहाँ पार्टी ने 31 सीटें जीतीं। माकपा को महज पाँच सीटों से संतोष करना पड़ा जबकि कांग्रेस को एक सीट पर जीत मिली।
वाम मोर्चा ने हालाँकि मुर्शिदाबाद जिला परिषद का नियंत्रण कांग्रेस से छीन लिया। इस क्षेत्र से कांग्रेस के कद्दावर नेता प्रणब मुखर्जी और दो अन्य नेता अधीर चौधरी तथा मन्नान हुसैन 2004 में लोकसभा पहुँचे थे। उत्तरी दीनाजपुर जिला परिषद सीटों पर कांग्रेस ने माकपा से कब्जा छीन लिया। इस बार पंचायत चुनाव में भूमि अधिग्रहण बड़ा मुद्दा था।
कम से कम सिंगूर और नंदीग्राम में वाममोर्चा की भारी पराजय से तो यही लगता है कि सेज की यह नीति जनता को मंजूर नहीं। विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईज़ेड) के लिए भूमि अधिग्रहण को लेकर हिंसा का शिकार रहे सिंगूर और नंदीग्राम में त्रिस्तरीय पंचायती चुनाव में विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने जीत हासिल की है। इन चुनावों को उद्योग के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण की बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार की नीति के लिए अग्निपरीक्षा के तौर पर देखा जा रहा था। जबरन कैडरवाहिनी के आतंक के साये में औद्योगिकीकरण के इस प्रयास को जनता ने नकारकर वाममोर्चा सरकार पुनर्विचार करने पर विवश कर दिया है।
माना जाता है कि पश्चिम बंगाल में पंचायतें जिनके आधीन होती हैं राज्य में सरकारें भी उन्हीं की कायम रहती हैं। यही ग्रामीण आधार हैं जिनपर १९७१ के बाद से वाममोर्चा सरकार कायम है। इसी कारण बंगाल को वामपंथियों का अभेद्य लालदुर्ग कहा जाता है। लेकिन मई २००८ में हुए पंचायत चुनाव में ममता बनर्जी की अगुआई में तृणमूल कांग्रेस ने इसी अभेद्य लालदुर्ग में सेंध लगा दी है।
आखिर ऐसा क्यों हुआ ?
अगर पंचायत चुनाव को जनादेश मानें तो ऐसे कई कारण हैं जिसने माकपा समेत उसके घटक दलों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है। पहला तो यह कि जिस सरकारी गुंडीगर्दी और कैडर राज का वाममोर्चा सरकार ने अधिग्रहण वाले इलाकों में प्रदर्शन किया उससे जनता बेहद भयभीत हो गई। इस डर का ही विपक्ष ने फायदा उठाया। दूसरे घटक दलों को हासिए पर रखनेऔर उन्हें दरकिनार कर अकेले फैसले लेने की रवायत ने इतना नाराज किया कि उन्हें मजबूर होकर अपनी ही सरकार की आलोचना करनी पड़ी। इसका मनोवैग्यानिक असर यह पड़ा कि जनता ने उनके विकल्प के तौर पर दूसरे दलों को चुना। घटक दलों को भी नुकसान इसी लिए हुआ क्यों कि वे विरोध भी करते रहे और वाममोर्चा में भी बने रहे। घटक दलों की इस बेवकूफी ने वाममोर्चा को वोट देने वालों में काफी भ्रम पैदा किया।
ममता बनर्जी के आंदोलन को बंगाल के बुद्धिजीवियों का समर्थन और सरकार की नीतियों के विरोध में कोलकाता में बुद्धिजीवियों का जुलूस वह मंजर था जहां साबित हो गया कि सरकार कहीं न कहीं तो गलत है। इसने एक ऐसा वातावरण तैयार किया जो सरकार की नीतियों की धज्जी उड़ाने के लिए काफी थी।
किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में तरह सरकार चलाने वालों का व्यवहार भी लोगों में सरकार के प्रति घृणा ही पैदा किया। मसलन तसलामा नसरीन के मुद्दे से लेकर सिंगुर और नंदीग्राम के मुद्दे पर पार्टी के आला नेता विमान बसु. विनय कोन्नार और खुद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का रवैया अल्पसंख्यकों को बेहद नाराज करने वाला रहा। इनकी जगह अनिल विश्वाश होते तो शायद विपक्ष इन मुद्दों को इतना भुना नहीं पाता। इसका सीधी अर्थ यह भी है कि पिछले दो साल में सरकार को डांवाडोल करने वाले रिजवानुर रहमान, तस्लीमा नसरीन, सिंगुर और नंदीग्राम के साथ खेती की जमीन के अधिग्रहण के तमामा मुद्दे पर ज्योति बसु को छोड़कर बाकी राज्य के माकपा के कर्णधारों का रवैया किसानों और अल्पसंख्यकों को नाराज करने वाला ही रहा। नतीजे में लालदुर्ग में तृणमूल ने आसानी से सेंध लगा ली। अगर यह शहरी इलाका होता माकपा को कम परेशानी होती मगर गांवों में तृणमूल का बढ़ता जनाधार वाममोर्चा के लिए खतरे की घंटी है।
चुनाव के बाद हिंसा तो अब भी नंदीग्राम में जारी है। नीचे दिए गए कुछ फोटो देखिए जो सरकार की उस मनमानी की कहानी कह रहे हैं जिसने आज वाममोर्चा को कुछ हद तक कमजोर कर दिया है और ऐसा बंगाल में वाममोर्चा के साथ पहली बार हुआ है।
टाटा की वह नैनो कार जिसका कारखाना सिंगुर में विवाद का विषय बना।
तापसी मलिक। सिंगुर में टाटा मोटर कारखाना स्थल से इसकी जली लाश बरामद हुई। सरकार के विरोध का इसे भी भिगतना पड़ा खामियाजा।
सरकार का विरोध करने वालों के तहस-नहस कर दिया गए घर।
नंदीग्राम में खाली कराए गए एक गांव में लहराता माकपा का झंडा।
नरसंहार के बाद खाली पड़े वे गांव जिन पर माकपा कैडरों ने पुनर्दखल का दावा किया।
बूथ रिगिंग करने के आरोप में इन लोगों को पकड़ी है पुलिस
अंततः ११ मई से शुरू हुए पंचायत चुनाव। नंदीग्राम में वोट डालने कतारबद्ध महिलाएं। बुलेट को बैलेट की ताकत दिखाने का वक्त आ गया था।
हिंसा में मारे गए बेकसूर लोगों के शव
नंदीग्राम में फायरिंग से दीवालों पर गोलियों के निशान
नंदीग्राम में नरसंहार की खबर के बाद ममता भी रवाना हुई नंदीग्राम। सभी को रास्ते में रोक लिया गया।
मेधापाटकर हिंसाग्रस्त नंदीग्राम को रवाना होती हुईं
बुद्धिजीवी सड़कों पर
कोलकाता में नंदीग्राम की हिंसा और सरकार के पुनर्दखल के बयान से बौखलाए बुद्धिजीवी सड़कों पर उतरे
नंदीग्राम में हिंसा के खिलाफ कोलकाता में बुद्धिजीवियों की रैली
नंदीग्राम में तैनात सीआरपीएफ जवान
पंचायत चुनाव में इस तरह ममता ने लगाई सेंध
पूर्वी मिदनापुर ज़िले में ज़िला परिषद की 53 सीटों में से 36 तृणमूल कांग्रेस के कब्ज़े में आई है।इसी जिले में नंदीग्राम है। तीन चरणों में हुए पंचायत चुनावों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी और दस से ज़्यादा लोग मारे गए थे। पिछले पंचायत चुनाव में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने नंदीग्राम की 24 में से 19 पंचायत समितियों में जीत हासिल की थी। भूमि अधिग्रहण को लेकर तृणमूल कांग्रेस नीत भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति और माकपा के बीच विवाद में पिछले दो वर्षों में नंदीग्राम में काफी हिंसा हुई है और कई लोग मारे गए हैं। वाम मोर्चा को सिंगूर में भी करारा झटका लगा है। यहीं पर टाटा मोटर्स की प्रतिष्ठित नैनो कार परियोजना का निर्माण स्थल है। माकपा का पारंपरिक गढ़ रहे इस जिले में 1978 के बाद ऐसा पहली बार हो रहा है, जब जिला परिषद पर उसका नियंत्रण खत्म हो गया है। इस जिले में मिली हार इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहीं ऐतिहासिक तेभागा कृषक विद्रोह हुआ था। पिछले तीन दशकों से इस जिले की जनता पार्टी के साथ दृढ़ता से खड़ी थी।
वाम मोर्चे के परंपरागत गढ़ दक्षिण चौबीस परगना में सीपीएम को 1978 के बाद पहली बार ज़िला परिषद में हार का सामना करना पड़ा है। यहाँ ग्राम पंचायत की 73 में से 34 पर तृणमूल ने जीत दर्ज की है, जबकि पांच पर उसकी सहयोगी सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर के उम्मीदवार जीते हैं। जिले में वाम मोर्चा सरकार को ऐसे समय में झटका लगा है, जब वह नॉलेज सिटी और हेल्थ सिटी जैसी अनेक मेगा परियोजनाएँ शुरू करने की योजना बना रही है। इस जिला परिषद पर माकपा का कब्जा लगातार पिछले छह कार्यकाल से था। तृणमूल कांग्रेस ने कुल्पी पंचायत समिति में जबरदस्त जीत हासिल की। वहाँ पार्टी ने 31 सीटें जीतीं। माकपा को महज पाँच सीटों से संतोष करना पड़ा जबकि कांग्रेस को एक सीट पर जीत मिली।
वाम मोर्चा ने हालाँकि मुर्शिदाबाद जिला परिषद का नियंत्रण कांग्रेस से छीन लिया। इस क्षेत्र से कांग्रेस के कद्दावर नेता प्रणब मुखर्जी और दो अन्य नेता अधीर चौधरी तथा मन्नान हुसैन 2004 में लोकसभा पहुँचे थे। उत्तरी दीनाजपुर जिला परिषद सीटों पर कांग्रेस ने माकपा से कब्जा छीन लिया। इस बार पंचायत चुनाव में भूमि अधिग्रहण बड़ा मुद्दा था।
Tuesday, 20 May 2008
खतरे में हैं हिंदू
पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा संकट हिंदू ही झेल रहे हैं। मानवाधिकार संबंधी एक नई रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश, पाकिस्तान, मलेशिया और सऊदी अरब सहित दुनियाभर के कई देशों में रहने वाले हिंदू रोजाना भेदभाव, पीड़ा और खतरे के साए में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
स्वयंसेवी संगठन ‘हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन’ (एचएएफ) द्वारा आज यहां जारी की गई ‘दक्षिण एशिया और विदेशों में हिंदू: मानवाधिकार सर्वे 2007’ नामक इस रिपोर्ट में दस देशों में हिंदुओं के जीवन स्तर का अध्ययन किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश में सरकार बदलने के बावजूद वर्ष 2007 के पहले छह महीनों में हिंदुओं की हत्या, बलात्कार और मंदिर तोड़ने जैसी 270 घटनाएं दर्ज की गई हैं। वहीं पाकिस्तान में भी हिंदुओं के खिलाफ बंधुआ मजदूरी, अपहरण और महिलाओं के जबरन धर्म परिवर्तन जैसे कई अपराध घटित हुए हैं।
रिपोर्ट को जारी किए जाने के अवसर पर सीनेटर फ्रैंक आर. लाउटेनबर्ग ने कहा, “हम सभी के मूल्य एक समान हैं। हमें सभी लोगों उनकी संस्कृतियों और आस्थाओं का सम्मान करना चाहिए लेकिन यह रिपोर्ट बताती है कि अभी भी ढेरों कमियां मौजूद हैं”। रिपोर्ट लॉन्गवुड विश्वविद्यालय में संचार विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर रमेश राव के नेतृत्व में तैयार की गई।
हिंदुओं पर अत्याचार के मलेशिया में तमाम उदाहरण है। मसलन मलेशिया के पेराक राज्य के तूपाह एस्टेट में रहने वाले तमिल हिंदुओं ने श्मशान भूमि को कृषि भूमि में परिवर्तित कर दिए जाने का विरोध किया है। विरोध के लिए उन्होंने शांतिपूर्ण प्रदर्शन का सहारा लिया। एस्टेट में रहने वाले एम. मरिमुथु ने दावा किया कि भारतीय समुदाय पिछले 90 सालों से इस भूमि का प्रयोग अपने लोगों के अंतिम संस्कार के लिए कर रहा था। उन्होंने कहा, “कुछ गैरजिम्मेदार किस्म के लोगों ने जमीन पर कब्जा कर लिया है और उसके मालिकाना हक का दावा करने लगे हैं”।
नेपाल तो अब हिंदू राष्ट्र रहा नहीं और मलेशिया में हिंदुओं पर कानूनी अत्याचार भी थमा नहीं है जबकि ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर के नेलसन इलाके के नागरिकों ने स्वामी नारायण संस्था द्वारा प्रस्तावित एक हिन्दू मंदिर के निर्माण का विरोध किया गया। स्थानीय लोगों का तर्क है कि मंदिर के निर्माण के कारण इस क्षेत्र में पार्किग और इमारतों का डिजाइन प्रभावित होगा। इससे पहले इस इलाके में एक मुस्लिम स्कूल के खिलाफ भी लोग एकजुट हो गए थे। संस्था के ट्रस्टी करसन कराई ने बताया कि दरअसल लोग हिन्दू मंदिर को लेकर भ्रमित हैं और फिजूल के सवाल उठा रहे हैं। इस इलाके में हिन्दू मंदिर के निर्माण से स्थानीय सुविधाओं पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
संस्था ने 10 लाख ऑस्ट्रेलियाई डॉलर की लागत से इस इलाके में एक हिन्दू मंदिर के निर्माण की योजना बनाई है, लेकिन स्थानीय नागरिक मंदिर के डिजाइन और पार्किंग को लेकर इसका विरोध कर रहे है।इससे पहले स्वामी नारायण संस्था कई देशों में भव्य मंदिरों का निर्माण कर चुकी है। गौरतलब है कि लंदन के नेस्डन इलाके में बनाया गया हिन्दू मंदिर ब्रिटिश हिन्दूओं में काफी लोकप्रिय है। हॉल ही में इस संस्था ने अटलांटा और टोरंटो में भी भव्य हिन्दू मंदिरों का निर्माण किया है।
स्वयंसेवी संगठन ‘हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन’ (एचएएफ) द्वारा आज यहां जारी की गई ‘दक्षिण एशिया और विदेशों में हिंदू: मानवाधिकार सर्वे 2007’ नामक इस रिपोर्ट में दस देशों में हिंदुओं के जीवन स्तर का अध्ययन किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश में सरकार बदलने के बावजूद वर्ष 2007 के पहले छह महीनों में हिंदुओं की हत्या, बलात्कार और मंदिर तोड़ने जैसी 270 घटनाएं दर्ज की गई हैं। वहीं पाकिस्तान में भी हिंदुओं के खिलाफ बंधुआ मजदूरी, अपहरण और महिलाओं के जबरन धर्म परिवर्तन जैसे कई अपराध घटित हुए हैं।
रिपोर्ट को जारी किए जाने के अवसर पर सीनेटर फ्रैंक आर. लाउटेनबर्ग ने कहा, “हम सभी के मूल्य एक समान हैं। हमें सभी लोगों उनकी संस्कृतियों और आस्थाओं का सम्मान करना चाहिए लेकिन यह रिपोर्ट बताती है कि अभी भी ढेरों कमियां मौजूद हैं”। रिपोर्ट लॉन्गवुड विश्वविद्यालय में संचार विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर रमेश राव के नेतृत्व में तैयार की गई।
हिंदुओं पर अत्याचार के मलेशिया में तमाम उदाहरण है। मसलन मलेशिया के पेराक राज्य के तूपाह एस्टेट में रहने वाले तमिल हिंदुओं ने श्मशान भूमि को कृषि भूमि में परिवर्तित कर दिए जाने का विरोध किया है। विरोध के लिए उन्होंने शांतिपूर्ण प्रदर्शन का सहारा लिया। एस्टेट में रहने वाले एम. मरिमुथु ने दावा किया कि भारतीय समुदाय पिछले 90 सालों से इस भूमि का प्रयोग अपने लोगों के अंतिम संस्कार के लिए कर रहा था। उन्होंने कहा, “कुछ गैरजिम्मेदार किस्म के लोगों ने जमीन पर कब्जा कर लिया है और उसके मालिकाना हक का दावा करने लगे हैं”।
नेपाल तो अब हिंदू राष्ट्र रहा नहीं और मलेशिया में हिंदुओं पर कानूनी अत्याचार भी थमा नहीं है जबकि ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर के नेलसन इलाके के नागरिकों ने स्वामी नारायण संस्था द्वारा प्रस्तावित एक हिन्दू मंदिर के निर्माण का विरोध किया गया। स्थानीय लोगों का तर्क है कि मंदिर के निर्माण के कारण इस क्षेत्र में पार्किग और इमारतों का डिजाइन प्रभावित होगा। इससे पहले इस इलाके में एक मुस्लिम स्कूल के खिलाफ भी लोग एकजुट हो गए थे। संस्था के ट्रस्टी करसन कराई ने बताया कि दरअसल लोग हिन्दू मंदिर को लेकर भ्रमित हैं और फिजूल के सवाल उठा रहे हैं। इस इलाके में हिन्दू मंदिर के निर्माण से स्थानीय सुविधाओं पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
संस्था ने 10 लाख ऑस्ट्रेलियाई डॉलर की लागत से इस इलाके में एक हिन्दू मंदिर के निर्माण की योजना बनाई है, लेकिन स्थानीय नागरिक मंदिर के डिजाइन और पार्किंग को लेकर इसका विरोध कर रहे है।इससे पहले स्वामी नारायण संस्था कई देशों में भव्य मंदिरों का निर्माण कर चुकी है। गौरतलब है कि लंदन के नेस्डन इलाके में बनाया गया हिन्दू मंदिर ब्रिटिश हिन्दूओं में काफी लोकप्रिय है। हॉल ही में इस संस्था ने अटलांटा और टोरंटो में भी भव्य हिन्दू मंदिरों का निर्माण किया है।
खतरे में हैं हिंदू
मानवाधिकार संबंधी एक नई रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश, पाकिस्तान, मलेशिया और सऊदी अरब सहित दुनियाभर के कई देशों में रहने वाले हिंदू रोजाना भेदभाव, पीड़ा और खतरे के साए में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
स्वयंसेवी संगठन ‘हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन’ (एचएएफ) द्वारा आज यहां जारी की गई ‘दक्षिण एशिया और विदेशों में हिंदू: मानवाधिकार सर्वे 2007’ नामक इस रिपोर्ट में दस देशों में हिंदुओं के जीवन स्तर का अध्ययन किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश में सरकार बदलने के बावजूद वर्ष 2007 के पहले छह महीनों में हिंदुओं की हत्या, बलात्कार और मंदिर तोड़ने जैसी 270 घटनाएं दर्ज की गई हैं।
वहीं पाकिस्तान में भी हिंदुओं के खिलाफ बंधुआ मजदूरी, अपहरण और महिलाओं के जबरन धर्म परिवर्तन जैसे कई अपराध घटित हुए हैं। रिपोर्ट को जारी किए जाने के अवसर पर सीनेटर फ्रैंक आर. लाउटेनबर्ग ने कहा, “हम सभी के मूल्य एक समान हैं। हमें सभी लोगों उनकी संस्कृतियों और आस्थाओं का सम्मान करना चाहिए लेकिन यह रिपोर्ट बताती है कि अभी भी ढेरों कमियां मौजूद हैं”।रिपोर्ट लॉन्गवुड विश्वविद्यालय में संचार विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर रमेश राव के नेतृत्व में तैयार की गई।
स्वयंसेवी संगठन ‘हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन’ (एचएएफ) द्वारा आज यहां जारी की गई ‘दक्षिण एशिया और विदेशों में हिंदू: मानवाधिकार सर्वे 2007’ नामक इस रिपोर्ट में दस देशों में हिंदुओं के जीवन स्तर का अध्ययन किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश में सरकार बदलने के बावजूद वर्ष 2007 के पहले छह महीनों में हिंदुओं की हत्या, बलात्कार और मंदिर तोड़ने जैसी 270 घटनाएं दर्ज की गई हैं।
वहीं पाकिस्तान में भी हिंदुओं के खिलाफ बंधुआ मजदूरी, अपहरण और महिलाओं के जबरन धर्म परिवर्तन जैसे कई अपराध घटित हुए हैं। रिपोर्ट को जारी किए जाने के अवसर पर सीनेटर फ्रैंक आर. लाउटेनबर्ग ने कहा, “हम सभी के मूल्य एक समान हैं। हमें सभी लोगों उनकी संस्कृतियों और आस्थाओं का सम्मान करना चाहिए लेकिन यह रिपोर्ट बताती है कि अभी भी ढेरों कमियां मौजूद हैं”।रिपोर्ट लॉन्गवुड विश्वविद्यालय में संचार विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर रमेश राव के नेतृत्व में तैयार की गई।
Saturday, 17 May 2008
हरकिशनसिंह सुरजीत की हालत नाजुक
हरकिशनसिंह सुरजीत की हालत नाजुकनई दिल्ली-मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के पूर्व महासचिव एवं वयोवृद्ध नेता हरकिशनसिंह सुरजीत की हालत अत्यंत नाजुक है और उन्हें कृत्रिम साँस दी जा रही है। यद्यपि डॉक्टरों को उनके स्वास्थ्य में शीघ्र सुधार की आशा है। माकपा महासचिव प्रकाश करात तथा पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य एस रामचन्द्र पिल्लै ने गुरुवार को यहाँ राजधानी से सटे नोएडा में मेट्रो हार्ट अस्पताल जाकर उनका इलाज कर रहे डॉक्टरों से उनके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी प्राप्त की। बाद में जारी पार्टी के एक वक्तव्य में कहा गया था कि 92 वर्षीय सुरजीत को कुछ दिन पहले साँस की तकलीफ के कारण अस्पताल में दाखिल कराया गया और उनकी हालत बिगड़ जाने के बाद उन्हें सघन चिकित्सा कक्ष में रखा गया है। वक्तव्य के अनुसार उनकी हालत स्थिर है।
चौदह साल की आयु में 1930 में महान क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के संगठन ( नौजवान भारत सभा) के साथ अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू करने वाले सुरजीत अविभाजित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में पंजाब के राज्य सचिव और 1964 में भाकपा के विभाजन के बाद बनी माकपा के नौ संस्थापक पोलित ब्यूरो सदस्यों में एक थे। वह 1992 से 2005 तक लगातार माकपा के महासचिव रहे और खासकर गठबंधन की राजनीति के दौर में उन्हें भारतीय राजनीति का चाणक्य तक कहा जाता रहा।
इस बीच मेट्रो अस्पताल के प्रबंध निदेशक डॉ. पुरुषोत्तम लाल ने नोएडा में बताया कि साँस लेने में तकलीफ की वजह से आठ मई को अस्पताल में भर्ती कराए गए सुरजीत की तबीयत गुरुवार से ज्यादा खराब हो गई। वह कल पन्द्रह मिनट के लिए तो चेतना शून्य भी हो गए थे। उन्हें जीवन रक्षक उपकरण पर रखा गया है।
Thursday, 15 May 2008
भूकंप प्रलय अब भी है अबूझ
भूकंप आज भी ऐसा प्रलय माना जाता है जिसे रोकने या काफी समय पहले सूचना देने की कोई प्रणाली वैग्यानिकों के पास नहीं है। प्रकृति के इस तांडव के आगे सभी बेबश हो जाते हैं। सामने होता है तो बस तबाही का ऐसा मंजर जिससे उबरना आसान नहीं होता है। अभी तो चीन में ही आए भूकंप को देखलीजिए। भरी दुपहरिया में जब लोग या तो अपने काम पर थे या फिर घरों में औरतें-बच्चे अपनी बेफिक्र जिंदगी में आने वाले इस मौत के तांडव से अनजान थे। नहीं पता था कि जिसे वे अपना घर या आशियाना समझ रहे थे वहीं कुछ ही पलों में जिंदा दफ्न होने वाले हैं। थोड़ी ही देर में एक खुशगवार माहौल चीख-पुकार में बदल गया।
चीन के इस सिचुआन प्रांत में सोमवार को आए भूकंप से हुई भारी तबाही में मारे गए लोगों की संख्या 15 हज़ार तक पहुँच गई है. हज़ारों और लोग अब भी मलबे में दबे हुए हैं और जीवितों की तलाश की जा रही है. इंगश्यू शहर में ढही इमारतों से अभी भी चीखने की आवाज़ें सुनाई दे रही है. सोमवार को आया वह भूकंप रिक्टर पैमाने पर 7.9 मापा गया था. उससे अनेक स्थानों पर ज़मीन धँस गई और इमारतें धराशायी हो गईं. हज़ारों घर तबाह हो गए और अनेक स्थानों पर तो पूरे गाँव के गाँव ही धराशायी हो गए. जान-माल की क्षति का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि दस हज़ार की आबादी वाले इस शहर में सिर्फ़ दो हज़ार तीन सौ लोग जीवित बचे हैं. पिछले 30 सालों से भी ज़्यादा समय में ये सिचुआन में आया सबसे शक्तिशाली भूकंप था।
कारण तो पता है मगर रोकना नामुमकिन
वैज्ञानिकों ने धरती की सतह के काफ़ी भीतर आने वाले भूंकपों की ही तरह नकली भूकंप प्रयोगशाला में पैदा करने में सफलता पाई है.ऐसे भूकंप आमतौर पर धरती की सतह से सैंकड़ों किलोमीटर अंदर होते हैं, और वैज्ञानिकों की तो यह राय है कि ऐसे भूकंप वास्तव में होते नहीं हैं.वैज्ञानिकों ने इन कथित भूकंपों को प्रयोगशाला में इसलिए पैदा किया कि इसके ज़रिए धरती की अबूझ पहेलियों को समझा जा सके.ताज़ा प्रयोगों से धरती पर आए भीषणतम भूकंपो में से कुछ के बारे में विस्तृत जानकारी मिल सकेगी.अधिकांश भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किलोमीटर अंदर होती है.
सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने और कम दबाव के कारण भंगुर होती है. ऐसी स्थिति में जब अचानक चट्टानें गिरती हैं तो भूकंप आता है.एक अन्य प्रकार के भूकंप सतह से 100 से 650 किलोमीटर नीचे होते हैं.इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि सिद्धांतत: चट्टानें द्रव रूप में होनी चाहिए, यानि किसी झटके या टक्कर की कोई संभावना नहीं होनी चाहिए.लेकिन ये चट्टानें भारी दबाव के माहौल में होती हैं.इसलिए यदि इतनी गहराई में भूकंप आए तो निश्चय ही भारी ऊर्जा बाहर निकलेगी।
धरती की सतह से काफ़ी गहराई में उत्पन्न अब तक का सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलीविया में रिकॉर्ड किया गया. सतह से 600 किलोमीटर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी.हालाँकि वैज्ञानिक समुदाय का अब भी मानना है कि इतनी गहराई में भूकंप नहीं आने चाहिए क्योंकि चट्टान द्रव रूप में होते हैं.वैज्ञानिकों का मानना है कि विभिन्न रासायनिकों क्रियाओं के कारण ये भूकंप आते होंगे.अत्यंत गहराई में आने वाले भूकंपों के बारे में ताज़ा अध्ययन यूनवर्सिटी कॉलेज, लंदन के मिनरल आइस एंड रॉक फिज़िक्स लैबोरेटरी में किया गया है.
जानवरों को मालूम हो जाता है भूकंप
बचपन में बड़े बुजुर्गों से सुना था कि जब भूकंप आने को होता है तो पशु-पक्षी कुछ अजीब हरकतें करने लगते हैं। चूहे अपनी बिलों से बाहर आ जाते हैं। अगर यह सही है तो वैग्यानिक पशु-पक्षियों की इस अद्भुत क्षमता को भूकंप की पूर्व सूचना प्रणाली में क्यों नहीं बदल सकते। अगर ऐसा संभव हो जाए तो प्रकृति की इस तबाही पर विजय पा सकेगा मानव। हालांकि प्रयोगशालाओं में इस पर शोध कर रहे हैं वैग्यानिक।
चूहे भूकंप आने का संकेत दे सकते हैं। जापान के शोधकर्ताओं का कुछ यही मानना है। उन्होंने पाया है कि भूकंप आने से पहले जिस तरह के विद्युत और चुंबकीय क्षेत्र बनते है अगर चूहों को उन क्षेत्रों में रखा जाए तो वे अजीबोगरीब हरकते करते हैं। ओसाका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ताकेशी यागी का कहना है कि चूहों का अजीब व्यवाहर उन्होंने आठ साल पहले कोबे में आए भूकंप से एक दिन पहले अपनी प्रयोगशाला में देखा था.इस तरह के व्यवाहर से भूकंप के आने का कुछ अंदेशा लगाया जा सकता है. हालाँकि जीववैज्ञानिकों का मानना है कि इस तरह की हरकतें एक समान नहीं रहती इसलिए पक्की भविष्यवाणी करना कठिन हो जाता है.
अगल-अगल कहानियाँ
दुनिया भर में ऐसी कई कहानियाँ हैं कि जानवर भूकंप से पहले अदभुत तरह से बर्ताव करने लगते हैं. जैसे चीन में कैट नाम की मछली पानी से बाहर कूदने लगती है, मैक्सिको में साँप अपने बिलों से बाहर आ जाते हैं. अमरीका में भूगर्भ सर्वेक्षण के एक कार्यकर्ता मानते है कि भूकंप से पहले अख़बारों में गुम हुए पालतू जानवरों के इश्तिहार भी ज़्यादा हो जाते है. प्रोफेसर यागी के परीक्षण में चूहों को दो हफ़्तो के लिए एक स्थिर पर्यावरण में रखा गया और उनकी हरकतों पर नज़र रखी गई. फिर उन्हें 30 मिनट के लिए विद्युत और चुंबकीय क्षेत्र में रखा गया. प्रोफेसर का कहना है कि ऐसा करने से उनका चूहा बेचैन होने लगा था. हालाँकि वे मानते हैं कि इन नतीजों को पक्का करने के लिए कुछ और परीक्षण करने होंगे।
चीन के १२ मई के भूकंप के पहले ये भी हुए हैं बर्बाद
तीन फ़रवरी, 2008-- कॉंगो और रवांडा में ज़बरदस्त भूकंप आया. इसमें 45 लोग मारे गए.
छह मार्च, 2007--इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप में 6.3 तीव्रता का भूकंप, 70 लोगों की मौत
27 मई, 2006--इंडोनेशिया के योगजकार्ता में आए भूकंप में छह हज़ार लोग मारे गए और 15 लाख बेघर हो गए.
आठ अक्तूबर, 2005--पाकिस्तान में 7.6 तीव्रता वाला भीषण भूकंप आया जिसमें करीब 75 हज़ार लोग मारे गए. करीब 35 लाख लोग बेघर हुए.
28 मार्च, 2005:--इंडोनेशिया में आए भूकंप में लगभग 1300 लोग मारे गए. रिक्टर स्केल में यह 8.7 मापा गया था.
22 फ़रवरी, 2005:--ईरान के केरमान प्रांत में लगभग 6.4 तीव्रता के आए भूकंप में लगभग 100 लोग मारे गए थे.
26 दिसंबर,2004:--भूकंप के कारण उत्पन्न सूनामी लहरों ने एशिया में हज़ारों लोगों की जान ले ली थी. इस भूकंप की तीव्रता 8.9 मापी गई थी.
24 फ़रवरी, 2004:--मोरक्को के तटीय इलाक़े में आए भूकंप ने 500 लोगों की जान ले ली थी.
26 दिसंबर, 2003:--दक्षिणी ईरान में आए भूकंप में 26 हज़ार से अधिक लोगों की मौत हो गई थी.
21 मई 2003:--अल्जीरिया में बड़ा भूकंप आया. इसमें दो हज़ार लोगों की मौत हो गई थी और आठ हज़ार से अधिक लोग घायल हुए थे.
1 मई 2003:--तुर्की के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में आए भूकंप में 160 से अधिक लोगों की मौत हो गई जिसमें 83 स्कूली बच्चे शामिल थे.
24 फरवरी 2003:--पश्चिमी चीन में आए भूकंप में 260 लोग मारे गए और 10 हज़ार से अधिक लोग बेघर हो गए.
21 नवंबर 2002:--पाकिस्तान के उत्तरी दियामीर ज़िले में भूकंप में 20 लोगों की मौत.
31 अक्टूबर, 2002:--इटली में आए भूकंप से एक स्कूल की इमारत गिर गई जिससे एक क्लास के सभी बच्चे मारे गए.
12 अप्रैल 2002:--उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में दो महीनों में ये तीसरा भूकंप का झटका था. इसमें अनेक लोग मारे गए.
25 मार्च 2002:--अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी इलाक़े में भूकंप मे 800 से ज़्यादा लोग मरे. भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6 थी.
3 मार्च 2002:--अफ़ग़ानिस्तान में एक अन्य भूकंप ने 150 को मौत की नींद सुलाया. इस भूकंप की तीव्रता 7.2 मापी गई थी.
3 फ़रवरी 2002:---पश्चिमी तुर्की में भूकंप में 43 मरे. हज़ारों लोग बेघर.
24 जून 2001:--दक्षिणी पेरू में भूकंप में 47 लोग मरे. भूकंप के 7.9 तीव्रता वाले झटके एक मिनट तक महसूस किए जाते रहे.
13 फ़रवरी 2001:--अल साल्वाडोर में दूसरे बड़े भूकंप की वजह से कम से कम 300 लोग मारे गए. इस भूकंप को रिक्टर स्केल पर 6.6 मापा गया.
26 जनवरी 2001:--भारत के गुजरात राज्य में रिक्टर स्केल पर 7.9 तीव्रता का एक शक्तिशाली भूकंप आया. इसमें कम से कम तीस हज़ार लोग मारे गए और क़रीब 10 लाख लोग बेघर हो गए. भुज और अहमदाबाद पर भूकंप का सबसे अधिक असर पड़ा.
13 जनवरी 2001:--अल साल्वाडोर में 7.6 तीव्रता का भूकंप आया. 700 से भी अधिक लोग मारे गए.
6 अक्टूबर 2000:--जापान में रिक्टर स्केल पर 7.1 तीव्रता का एक भूकंप आया. इसमें 30 लोग घायल हुए और क़रीब 200 मकानों को नुकसान पहुंचा.
21 सितंबर 1999:--ताईवान में 7.6 तीव्रता का एक भूकंप आया. इसमें ढाई हज़ार लोग मारे गए और इस द्वीप के हर मकान को नुकसान पहुंचा.
17 अगस्त 1999:--तुर्की के इमिट और इंस्ताबूल शहरों में रिक्टर स्केल पर 7.4 तीव्रता का भूकंप आया. इस भूकंप की वजह से सतरह हज़ार से अधिक लोग मारे गए और हज़ारों अन्य घायल हुए.
29 मार्च 1999:--भारत के उत्तरप्रदेश राज्य के उत्तरकाशी और चमोली में दो भूकंप आए और इनमें 100 से अधिक लोग मारे गए.
25 जनवरी 1999:--कोलंबिया के आर्मेनिया शहर में 6.0 तीव्रता का भूकंप आया. इसमें क़रीब एक हज़ार लोग मारे गए.
17 जुलाई 1998:---न्यू पापुआ गिनी के उत्तरी-पश्चिमी तट पर समुद्र के अंदर आए भूकंप से बनी लहरों ने तबाही मचा दी. इसमें एक हज़ार से भी अधिक लोग मारे गए.
26 जून 1998:---तुर्की के दक्षिण-पश्चिम में अदना में 6.3 तीव्रता का भूकंप आया जिसमें 144 लोग मारे गए. एक हफ़्ते बाद इसी इलाक़े में दो शक्तिशाली भूकंप आए जिनमें एक हज़ार से अधिक लोग घायल हो गए.
30 मई 1998:--उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में एक बड़ा भूकंप आया. इसमें चार हज़ार लोग मारे गए.
फ़रवरी 1997:---उत्तर-पश्चिमी ईरान में रिक्टर स्केल पर 5.5 तीव्रता का एक भूकंप आया जिसकी वजह से एक हज़ार लोग मारे गए. तीन महीने बाद 7.1 तीव्रता का भूकंप आया जिसकी वजह से पश्चिमी ईरान में डेढ़ हज़ार से अधिक लोग मारे गए.
27 मई 1995:--रूस के सुदूर पूर्वी द्वीप सखालीन में 7.5 तीव्रता का एक शक्तिशाली भूकंप आया जिसकी वजह से क़रीब दो हज़ार लोगों की मृत्यु हो गई.
17 जनवरी 1995: --जापान के कोबे शहर में शक्तिशाली भूकंप में छह हज़ार चार सौ तीस लोग मारे गए.
6 जून 1994:---कोलंबिया में आए भूकंप में क़रीब एक हज़ार लोग मारे गए.
30 सितंबर 1993:---भारत के पश्चिमी और दक्षिणी हिस्सों में आए भूकंपों में क़रीब दस हज़ार ग्रामीणों की मृत्यु हो गई.
21 जून 1990:--ईरान के उत्तरी राज्य गिलान में आए एक भूकंप ने चालीस हज़ार से भी अधिक लोगों की जान ले ली.
17 अक्टूबर 1989:---कैलिफ़ोर्निया में आए भूकंप में 68 लोग मारे गए.
7 दिसंबर 1988:---उत्तर-पश्चिमी आर्मेनिया में रिक्टर स्केल पर 6.9 तीव्रता के एक भूकंप ने पच्चीस हज़ार लोगों की जान ले ली.
19 सितंबर 1985:---मैक्सिको शहर एक शक्तिशाली भूकंप से बुरी तरह से हिल गया. इसमें बड़ी इमारतें तबाह हो गईं और दस हज़ार से अधिक लोग मारे गए.
23 नवंबर 1980:---इटली के दक्षिणी हिस्से में आए भूकंप की वजह से सैंकड़ों लोग मारे गए.
28 जुलाई 1976:---चीन का तांगशान शहर भूकंप की वजह से मिट्टी में मिल गया. इसमें पांच लाख से अधिक लोग मारे गए.
27 मार्च 1964---रिक्टर स्केल पर 9.2 तीव्रता के एक भूकंप ने अलास्का में 25 लोगों की जान ले ली और बाद के झटकों की वजह से 110 और लोग मारे गए.
22 मार्च 1960:---दुनिया में अब तक का सबसे शक्तिशाली भूकंप चिली में आया. इसकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर 9.5 दर्ज की गई. कई गांव के गांव तबाह हो गए और सैंकड़ों मील दूर हवाई में 61 लोग मारे गए.
28 जून 1948:---पश्चिमी जापान में पूर्वी चीनी समुद्र को केंद्र बनाकर भूकंप आया जिसमें तीन हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए.
31 मई, 1935---क्वेटा और उसके आसपास के इलाक़ों में आए ज़बरदस्त भूकंप में लगभग 35 हज़ार लोगों की जानें गईं.
1935:---ताईवान में रिक्टर स्केल पर 7.4 तीव्रता का एक भूकंप आया जिसकी वजह से तीन हज़ार दो सौ लोग मारे गए.
1 सितंबर 1923:---जापान की राजधानी टोक्यो में आया ग्रेट कांटो भूकंप. इसकी वजह से 142,800 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
18 अप्रैल 1906:---सैन फ़्रांसिस्को में कई मिनट तक भूकंप के झटके आते रहे. इमारतें गिरने और उनमें आग लगने की वजह से सात सौ से तीन हज़ार के बीच लोग मारे गए.
चीन के इस सिचुआन प्रांत में सोमवार को आए भूकंप से हुई भारी तबाही में मारे गए लोगों की संख्या 15 हज़ार तक पहुँच गई है. हज़ारों और लोग अब भी मलबे में दबे हुए हैं और जीवितों की तलाश की जा रही है. इंगश्यू शहर में ढही इमारतों से अभी भी चीखने की आवाज़ें सुनाई दे रही है. सोमवार को आया वह भूकंप रिक्टर पैमाने पर 7.9 मापा गया था. उससे अनेक स्थानों पर ज़मीन धँस गई और इमारतें धराशायी हो गईं. हज़ारों घर तबाह हो गए और अनेक स्थानों पर तो पूरे गाँव के गाँव ही धराशायी हो गए. जान-माल की क्षति का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि दस हज़ार की आबादी वाले इस शहर में सिर्फ़ दो हज़ार तीन सौ लोग जीवित बचे हैं. पिछले 30 सालों से भी ज़्यादा समय में ये सिचुआन में आया सबसे शक्तिशाली भूकंप था।
कारण तो पता है मगर रोकना नामुमकिन
वैज्ञानिकों ने धरती की सतह के काफ़ी भीतर आने वाले भूंकपों की ही तरह नकली भूकंप प्रयोगशाला में पैदा करने में सफलता पाई है.ऐसे भूकंप आमतौर पर धरती की सतह से सैंकड़ों किलोमीटर अंदर होते हैं, और वैज्ञानिकों की तो यह राय है कि ऐसे भूकंप वास्तव में होते नहीं हैं.वैज्ञानिकों ने इन कथित भूकंपों को प्रयोगशाला में इसलिए पैदा किया कि इसके ज़रिए धरती की अबूझ पहेलियों को समझा जा सके.ताज़ा प्रयोगों से धरती पर आए भीषणतम भूकंपो में से कुछ के बारे में विस्तृत जानकारी मिल सकेगी.अधिकांश भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किलोमीटर अंदर होती है.
सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने और कम दबाव के कारण भंगुर होती है. ऐसी स्थिति में जब अचानक चट्टानें गिरती हैं तो भूकंप आता है.एक अन्य प्रकार के भूकंप सतह से 100 से 650 किलोमीटर नीचे होते हैं.इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि सिद्धांतत: चट्टानें द्रव रूप में होनी चाहिए, यानि किसी झटके या टक्कर की कोई संभावना नहीं होनी चाहिए.लेकिन ये चट्टानें भारी दबाव के माहौल में होती हैं.इसलिए यदि इतनी गहराई में भूकंप आए तो निश्चय ही भारी ऊर्जा बाहर निकलेगी।
धरती की सतह से काफ़ी गहराई में उत्पन्न अब तक का सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलीविया में रिकॉर्ड किया गया. सतह से 600 किलोमीटर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी.हालाँकि वैज्ञानिक समुदाय का अब भी मानना है कि इतनी गहराई में भूकंप नहीं आने चाहिए क्योंकि चट्टान द्रव रूप में होते हैं.वैज्ञानिकों का मानना है कि विभिन्न रासायनिकों क्रियाओं के कारण ये भूकंप आते होंगे.अत्यंत गहराई में आने वाले भूकंपों के बारे में ताज़ा अध्ययन यूनवर्सिटी कॉलेज, लंदन के मिनरल आइस एंड रॉक फिज़िक्स लैबोरेटरी में किया गया है.
जानवरों को मालूम हो जाता है भूकंप
बचपन में बड़े बुजुर्गों से सुना था कि जब भूकंप आने को होता है तो पशु-पक्षी कुछ अजीब हरकतें करने लगते हैं। चूहे अपनी बिलों से बाहर आ जाते हैं। अगर यह सही है तो वैग्यानिक पशु-पक्षियों की इस अद्भुत क्षमता को भूकंप की पूर्व सूचना प्रणाली में क्यों नहीं बदल सकते। अगर ऐसा संभव हो जाए तो प्रकृति की इस तबाही पर विजय पा सकेगा मानव। हालांकि प्रयोगशालाओं में इस पर शोध कर रहे हैं वैग्यानिक।
चूहे भूकंप आने का संकेत दे सकते हैं। जापान के शोधकर्ताओं का कुछ यही मानना है। उन्होंने पाया है कि भूकंप आने से पहले जिस तरह के विद्युत और चुंबकीय क्षेत्र बनते है अगर चूहों को उन क्षेत्रों में रखा जाए तो वे अजीबोगरीब हरकते करते हैं। ओसाका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ताकेशी यागी का कहना है कि चूहों का अजीब व्यवाहर उन्होंने आठ साल पहले कोबे में आए भूकंप से एक दिन पहले अपनी प्रयोगशाला में देखा था.इस तरह के व्यवाहर से भूकंप के आने का कुछ अंदेशा लगाया जा सकता है. हालाँकि जीववैज्ञानिकों का मानना है कि इस तरह की हरकतें एक समान नहीं रहती इसलिए पक्की भविष्यवाणी करना कठिन हो जाता है.
अगल-अगल कहानियाँ
दुनिया भर में ऐसी कई कहानियाँ हैं कि जानवर भूकंप से पहले अदभुत तरह से बर्ताव करने लगते हैं. जैसे चीन में कैट नाम की मछली पानी से बाहर कूदने लगती है, मैक्सिको में साँप अपने बिलों से बाहर आ जाते हैं. अमरीका में भूगर्भ सर्वेक्षण के एक कार्यकर्ता मानते है कि भूकंप से पहले अख़बारों में गुम हुए पालतू जानवरों के इश्तिहार भी ज़्यादा हो जाते है. प्रोफेसर यागी के परीक्षण में चूहों को दो हफ़्तो के लिए एक स्थिर पर्यावरण में रखा गया और उनकी हरकतों पर नज़र रखी गई. फिर उन्हें 30 मिनट के लिए विद्युत और चुंबकीय क्षेत्र में रखा गया. प्रोफेसर का कहना है कि ऐसा करने से उनका चूहा बेचैन होने लगा था. हालाँकि वे मानते हैं कि इन नतीजों को पक्का करने के लिए कुछ और परीक्षण करने होंगे।
चीन के १२ मई के भूकंप के पहले ये भी हुए हैं बर्बाद
तीन फ़रवरी, 2008-- कॉंगो और रवांडा में ज़बरदस्त भूकंप आया. इसमें 45 लोग मारे गए.
छह मार्च, 2007--इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप में 6.3 तीव्रता का भूकंप, 70 लोगों की मौत
27 मई, 2006--इंडोनेशिया के योगजकार्ता में आए भूकंप में छह हज़ार लोग मारे गए और 15 लाख बेघर हो गए.
आठ अक्तूबर, 2005--पाकिस्तान में 7.6 तीव्रता वाला भीषण भूकंप आया जिसमें करीब 75 हज़ार लोग मारे गए. करीब 35 लाख लोग बेघर हुए.
28 मार्च, 2005:--इंडोनेशिया में आए भूकंप में लगभग 1300 लोग मारे गए. रिक्टर स्केल में यह 8.7 मापा गया था.
22 फ़रवरी, 2005:--ईरान के केरमान प्रांत में लगभग 6.4 तीव्रता के आए भूकंप में लगभग 100 लोग मारे गए थे.
26 दिसंबर,2004:--भूकंप के कारण उत्पन्न सूनामी लहरों ने एशिया में हज़ारों लोगों की जान ले ली थी. इस भूकंप की तीव्रता 8.9 मापी गई थी.
24 फ़रवरी, 2004:--मोरक्को के तटीय इलाक़े में आए भूकंप ने 500 लोगों की जान ले ली थी.
26 दिसंबर, 2003:--दक्षिणी ईरान में आए भूकंप में 26 हज़ार से अधिक लोगों की मौत हो गई थी.
21 मई 2003:--अल्जीरिया में बड़ा भूकंप आया. इसमें दो हज़ार लोगों की मौत हो गई थी और आठ हज़ार से अधिक लोग घायल हुए थे.
1 मई 2003:--तुर्की के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में आए भूकंप में 160 से अधिक लोगों की मौत हो गई जिसमें 83 स्कूली बच्चे शामिल थे.
24 फरवरी 2003:--पश्चिमी चीन में आए भूकंप में 260 लोग मारे गए और 10 हज़ार से अधिक लोग बेघर हो गए.
21 नवंबर 2002:--पाकिस्तान के उत्तरी दियामीर ज़िले में भूकंप में 20 लोगों की मौत.
31 अक्टूबर, 2002:--इटली में आए भूकंप से एक स्कूल की इमारत गिर गई जिससे एक क्लास के सभी बच्चे मारे गए.
12 अप्रैल 2002:--उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में दो महीनों में ये तीसरा भूकंप का झटका था. इसमें अनेक लोग मारे गए.
25 मार्च 2002:--अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी इलाक़े में भूकंप मे 800 से ज़्यादा लोग मरे. भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 6 थी.
3 मार्च 2002:--अफ़ग़ानिस्तान में एक अन्य भूकंप ने 150 को मौत की नींद सुलाया. इस भूकंप की तीव्रता 7.2 मापी गई थी.
3 फ़रवरी 2002:---पश्चिमी तुर्की में भूकंप में 43 मरे. हज़ारों लोग बेघर.
24 जून 2001:--दक्षिणी पेरू में भूकंप में 47 लोग मरे. भूकंप के 7.9 तीव्रता वाले झटके एक मिनट तक महसूस किए जाते रहे.
13 फ़रवरी 2001:--अल साल्वाडोर में दूसरे बड़े भूकंप की वजह से कम से कम 300 लोग मारे गए. इस भूकंप को रिक्टर स्केल पर 6.6 मापा गया.
26 जनवरी 2001:--भारत के गुजरात राज्य में रिक्टर स्केल पर 7.9 तीव्रता का एक शक्तिशाली भूकंप आया. इसमें कम से कम तीस हज़ार लोग मारे गए और क़रीब 10 लाख लोग बेघर हो गए. भुज और अहमदाबाद पर भूकंप का सबसे अधिक असर पड़ा.
13 जनवरी 2001:--अल साल्वाडोर में 7.6 तीव्रता का भूकंप आया. 700 से भी अधिक लोग मारे गए.
6 अक्टूबर 2000:--जापान में रिक्टर स्केल पर 7.1 तीव्रता का एक भूकंप आया. इसमें 30 लोग घायल हुए और क़रीब 200 मकानों को नुकसान पहुंचा.
21 सितंबर 1999:--ताईवान में 7.6 तीव्रता का एक भूकंप आया. इसमें ढाई हज़ार लोग मारे गए और इस द्वीप के हर मकान को नुकसान पहुंचा.
17 अगस्त 1999:--तुर्की के इमिट और इंस्ताबूल शहरों में रिक्टर स्केल पर 7.4 तीव्रता का भूकंप आया. इस भूकंप की वजह से सतरह हज़ार से अधिक लोग मारे गए और हज़ारों अन्य घायल हुए.
29 मार्च 1999:--भारत के उत्तरप्रदेश राज्य के उत्तरकाशी और चमोली में दो भूकंप आए और इनमें 100 से अधिक लोग मारे गए.
25 जनवरी 1999:--कोलंबिया के आर्मेनिया शहर में 6.0 तीव्रता का भूकंप आया. इसमें क़रीब एक हज़ार लोग मारे गए.
17 जुलाई 1998:---न्यू पापुआ गिनी के उत्तरी-पश्चिमी तट पर समुद्र के अंदर आए भूकंप से बनी लहरों ने तबाही मचा दी. इसमें एक हज़ार से भी अधिक लोग मारे गए.
26 जून 1998:---तुर्की के दक्षिण-पश्चिम में अदना में 6.3 तीव्रता का भूकंप आया जिसमें 144 लोग मारे गए. एक हफ़्ते बाद इसी इलाक़े में दो शक्तिशाली भूकंप आए जिनमें एक हज़ार से अधिक लोग घायल हो गए.
30 मई 1998:--उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में एक बड़ा भूकंप आया. इसमें चार हज़ार लोग मारे गए.
फ़रवरी 1997:---उत्तर-पश्चिमी ईरान में रिक्टर स्केल पर 5.5 तीव्रता का एक भूकंप आया जिसकी वजह से एक हज़ार लोग मारे गए. तीन महीने बाद 7.1 तीव्रता का भूकंप आया जिसकी वजह से पश्चिमी ईरान में डेढ़ हज़ार से अधिक लोग मारे गए.
27 मई 1995:--रूस के सुदूर पूर्वी द्वीप सखालीन में 7.5 तीव्रता का एक शक्तिशाली भूकंप आया जिसकी वजह से क़रीब दो हज़ार लोगों की मृत्यु हो गई.
17 जनवरी 1995: --जापान के कोबे शहर में शक्तिशाली भूकंप में छह हज़ार चार सौ तीस लोग मारे गए.
6 जून 1994:---कोलंबिया में आए भूकंप में क़रीब एक हज़ार लोग मारे गए.
30 सितंबर 1993:---भारत के पश्चिमी और दक्षिणी हिस्सों में आए भूकंपों में क़रीब दस हज़ार ग्रामीणों की मृत्यु हो गई.
21 जून 1990:--ईरान के उत्तरी राज्य गिलान में आए एक भूकंप ने चालीस हज़ार से भी अधिक लोगों की जान ले ली.
17 अक्टूबर 1989:---कैलिफ़ोर्निया में आए भूकंप में 68 लोग मारे गए.
7 दिसंबर 1988:---उत्तर-पश्चिमी आर्मेनिया में रिक्टर स्केल पर 6.9 तीव्रता के एक भूकंप ने पच्चीस हज़ार लोगों की जान ले ली.
19 सितंबर 1985:---मैक्सिको शहर एक शक्तिशाली भूकंप से बुरी तरह से हिल गया. इसमें बड़ी इमारतें तबाह हो गईं और दस हज़ार से अधिक लोग मारे गए.
23 नवंबर 1980:---इटली के दक्षिणी हिस्से में आए भूकंप की वजह से सैंकड़ों लोग मारे गए.
28 जुलाई 1976:---चीन का तांगशान शहर भूकंप की वजह से मिट्टी में मिल गया. इसमें पांच लाख से अधिक लोग मारे गए.
27 मार्च 1964---रिक्टर स्केल पर 9.2 तीव्रता के एक भूकंप ने अलास्का में 25 लोगों की जान ले ली और बाद के झटकों की वजह से 110 और लोग मारे गए.
22 मार्च 1960:---दुनिया में अब तक का सबसे शक्तिशाली भूकंप चिली में आया. इसकी तीव्रता रिक्टर स्केल पर 9.5 दर्ज की गई. कई गांव के गांव तबाह हो गए और सैंकड़ों मील दूर हवाई में 61 लोग मारे गए.
28 जून 1948:---पश्चिमी जापान में पूर्वी चीनी समुद्र को केंद्र बनाकर भूकंप आया जिसमें तीन हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए.
31 मई, 1935---क्वेटा और उसके आसपास के इलाक़ों में आए ज़बरदस्त भूकंप में लगभग 35 हज़ार लोगों की जानें गईं.
1935:---ताईवान में रिक्टर स्केल पर 7.4 तीव्रता का एक भूकंप आया जिसकी वजह से तीन हज़ार दो सौ लोग मारे गए.
1 सितंबर 1923:---जापान की राजधानी टोक्यो में आया ग्रेट कांटो भूकंप. इसकी वजह से 142,800 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
18 अप्रैल 1906:---सैन फ़्रांसिस्को में कई मिनट तक भूकंप के झटके आते रहे. इमारतें गिरने और उनमें आग लगने की वजह से सात सौ से तीन हज़ार के बीच लोग मारे गए.
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