Monday, 7 April 2008

माकपा और प्रकाश करात दोनों की होगी अग्नि परीक्षा


लालबंगाल के युगपुरुष ज्योति बसु की पार्टी और राजनीति में भूमिका कम कर दी गई है। इसके लिए काफी पहले ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत ने आग्रह भी किया था। माकपा की १९वीं पार्टी कांग्रेस ने पोलित ब्यूरों के १५ सदस्यों में इनका नाम दर्ज नहीं किया। बसु को पोलितब्यूरो का और सुरजीत को केंद्रीय समिति का आमंत्रित सदस्य का दर्जा दिया गया है। प्रकाश करात के अलावा पार्टी कांग्रेस ने केरल के मुख्यमंत्री वी. एस. अच्युतानंदन, बुद्धदेव भट्टाचार्य और मानिक सरकार, सीताराम येचुरी, सीटू अध्यक्ष एम. के. पांधे. पी. विजयन, एस रामचंद्रन पिल्लै, और बिमान बोस को पोलित ब्यूरो का सदस्य बनाए रखा है। के. वरदराजन, बी. पी. राघावुलु और बृंदा करात पोलित ब्यूरो के अन्य सदस्य हैं। पार्टी कांग्रेस ने 17 नये सदस्यों समेत 87 सदस्यीय नयी केंद्रीय समिति का भी चुनाव किया। इन सदस्यों में केरल के वित्त मंत्री थॉमस इसाक और पश्चिम बंगाल के मंत्री गौतम देव शामिल हैं।
पोलित ब्यूरो माकपा का नीति निर्धारण का सर्वोच्च मंच है। इसकी सदस्यता का अर्थ है पार्टी में अहमियत का बढ़ जाना। मगर बसु और सुरजीत इन मायनों से ऊपर हैं। छह दिनों तक पोलित ब्यूरो के विचार मंथन के बाद प्रकाश करात को पोलित ब्यूरो का दुबारा महासचिव बनाया जाना भी यह संकेत है कि पार्टी ने न सिर्फ भरोसा जताया बल्कि उनपर अगले लोकसभा चुनाव की जिम्मेदारी भी डाल दी है। इसका लक्ष्य होगा तीसरे विकल्प की तलाश। करात ने दिल्ली में २००५ में हरकिशनसिंह सुरजीत से यह उत्तराधिकार हासिल किया था। अब यह भी जिम्मेदारी करात पर है कि उत्तर भारत में माकपा के विस्तार के लिए क्या कर सकते हैं जबकि इस बार हरकिशनसिंह सुरजीत के बाद पोलित ब्यूरो में उत्तर भारत का कोई प्रतिनिधि नहीं है।

रिटायर हो गए सभी संस्थापक कामरेड
बहरहाल माकपा की स्थापना के ४४ साल बाद यह पहला पोलित ब्यूरो है जिसमें कोई संस्थापक सदस्य नहीं है। नौ संस्थापक सदस्यों की यह आखिरी जोड़ी थी जिसने खुद के लिए आराम मांगा और मिल भी गया। कोलकाता में हुए एक सम्मान समारोह में ज्योति बसु ने कहा था कि- कामरेड कभी रिटायर नहीं होता। सच भी है। ज्योति बसु अभी भी आमंत्रित सदस्य हैं। हों भी क्यों नहीं अपने समकक्षीय सुरजीत से दो साल बड़े होते हुए भी मानसिक और शारीरिक तौर पर उनसे काफी ठीक हैं। इन दोनों के नाम यह भी रिकार्ड है कि इन दोनों ने स्वेच्छा से अवकाश लिया जबकि बाकी सात या तो निधन या खुद पोलित ब्यूरो से जुदा हुए।
११ अप्रैल १९६४ में भाकपा से मतभेद के बाद ३२ सदस्यों ने आंध्रप्रदेश के तेनाली में स्थापना के अगले ही साल सम्मेलन किया। यहीं पर तय हुआ कि अलग पार्टी माकपा का गठन किया जाएगा। औपचारिक तौरपर सीपीएम का गठन कोलकाता में १९६४ में ३१ अक्तूबर से ७ नवंबर तक चली सातवीं कांग्रेस में हुआ। प्रथम पोलित ब्यूरो का गठन हुआ। इसके नौ संस्थापक सदस्य थे-
१- पी. सुन्दरैया
२- एम. बासवपुनैया
३- ईएमएस नम्बूदिरिपाद
४- ए. के. गोपालन
५- बी. टी. रणदिवे
६- पी. रामामूर्ति
७- प्रमोद दासगुप्ता
८- ज्योति बसु
९- हरकिशन सिंह सुरजीत
पोलित ब्यूरो के ये संस्थापक सदस्य ही भारतीय राजनीति के इतिहास में माकपा की वह नींव डाली जिसके बलबूते माकपा किंगमेकर बन गई है। पोलित ब्यूरो के ये पितामह आजादी के संघर्ष के दिनों में साथ-साथ बैठकें किए, जेल गए या फिर भूमिगत रहे। यह जरूर है कि माकपा के गठन के बाद नक्सलवादियों के अलग होने तक इन नौ धुरंधरों के बीच भी दरार पड़ी। यह विचारों के टकराव के कारण हुआ। मसलन पहले महासचिव पी सुन्दरैया पोलित ब्यूरो के इस फैसले से सहमत नहीं थे कि माकपा का मासपार्टी में तब्दील किया जाए। यह सैद्धांतिक विरोध इतना गहराया कि १९७६ में उन्होंने पोलित ब्यूरो छोड़ दी। तब भारत में आपातकाल लगा हुआ था। औपचारिक तौर पर उन्हें तब पद से हटाया गया जब उनकी जगह आपातकाल हटने के बाद माकपा की १९७८ में हुई १०वीं पार्टी कांग्रेस में ईएमएस नम्बूदिरिपाद महासचिव बना दिए गए। इस लिहाज से सुन्दरैया पहले संस्थापक सदस्य थे जिन्होंने पद पहले छोड़ा और निधन १९८५ में हुआ। मगर माकपा सबसे लोकप्रिय और जमीनी नेता गोपालन पद पर रहते हुए १९७७ में अपने कामरेड साथियों को अलविदा कह गए। इनकी जगह १९८३ में प्रमोददासगुप्ता को लाया गया। सुन्दरैया के बाद तमिलनाडु के मजदूर नेता पी रामामूर्ति १९८७ में निधन से पहले ही पोलित ब्यूरो छोड़ गए। तीन और संस्थापक सदस्य- रणदिवे, वासवपुनैया और नम्बूदिरिपाद आखिरी समय तक पोलित ब्यूरो से जुड़ रहे। १९९० तक इन तीनों का क्रमशः निधन हो गया।



बसु और सुरजीत की लंबी पारी
१९वीं पार्टी कांग्रेस इसी लिहाज से ऐतिहासिक रही कि इसने अपने दो संस्थापकों ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत को उनके ही आग्रह पर कार्यमुक्त कर दिया। इन दोनों ने अपनी लंबी पारी में माकपा को वहां पहुंचाया है जहां वह केंद्र सरकार की नीति नियामक बन गई है। इनका सबसे बड़ा योगदान अपने बेहतर उत्तराधिकारी तैयार करना और मजबूत कैडर आधारित संगठन तैयार करना रहा है। नए तेजतर्रार नेताओं की ऐसी जमात खड़ी कर दी है जो उनकी विरासत संभालने में सक्षम है। इनके इस कार्य से दूसरे दलों को सीखना चाहिए कि संगठन तभी मजबूत रह सकता है जब उभरते हुए प्रतिभाशाली पार्टी कैडरों का ईर्ष्या का शिकार नहीं बनाकर उनको और आगे बढ़ने को न सिर्फ प्रोत्साहित किया जाए बल्कि नई प्रतिभाओं के सम्मानपूर्वक पार्टीं में जिम्मेदारी देकर प्रशिक्षित किया जाए। माकपा के संस्थापक सदस्यों खासतौरपर इस आखिरी जोड़ी ने यह भूमिका बखूबी निभाई। बंगाल में मजबूत सत्ता कायम रहने के पीछे ज्योति बसु की यही कार्यप्रणाली कारगर सिद्ध हुई। अभी माकपा जिन हाथों में सौंपी गई है उनमें से प्रकाश करात पहले महासचिव सुन्दरैया और गोपालन की ईजाद हैं। इतना ही नहीं इन्हें तीसरे सेस्थापक नम्बूदिरिपाद से भी सीखने को मिला।
पश्चिम बंगाल के मौजूदा मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, और बंगाल में पार्टी का कामकाज देख रहे विमान बोस भी प्रमोददासगुप्ता और ज्योति की प्रेरणा से माकपा के कर्णधार बने। माकपा के बड़े और लोकप्रिय नेता सीताराम येचुरी को प्रेरणा तो बासवपुनैया से मिली मगर राजनीति के हुनर के मामले में उनके गुरू हरकिशन सिंह सुरजीत हैं।


केंद्रीय राजनीति में सुरजीत ने फहराया लाल झंडा
हरकिशनसिहं सुरजीत वह नाम है जिसने ४४ सालों से माकपा का लाल झंडा बुलंद कर रखा था। ९२ वर्षीय यह वही कामरेड है जिसने २००४ में यूपीए सरकार के गठन में अहम भूमिका निभाई। १९६४ में जब भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के विभाजन के बाद माकपा बनी तो ऐसा नहीं लगता था कि बाद में चलकर यही भाकपा से बड़ी पार्टी बन जाएगी। हिंदी इलाकों में माकपा ( देखें इसी पास्ट के साथ पीडीएफ लेख- हिंदी इलाकों में सिकुड़ गई है माकपा ) हालाकि वह सम्मानजनक स्थिति नहीं हासिल कर पाई जो तब और अब भी भाकपा को हासिल है मगर तीन राज्यों केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल माकपा के गढ़ बन गए हैं। यह अलग बात है कि सत्ता पर काबिज होने में उसे भाकपा, फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी ने मजबूत सहारा दिया है।

हिंदी क्षेत्रों में माकपा के प्रभावी नही पाने की शायद यह भी वजह रही है कि माकपा ने क्षेत्रीयता के पैमाने से सत्ता को हासिल किया और देश के दूसरे हिस्से में अपना कोई दूसरा ज्योति बसु और ईएमएस नम्बूदिरी पाद पैदा नहीं होने दिया। जालंधर में जन्में इस कामरेड की किंगमेकर की गतिविधियों को माकपा कभी भुला नहीं पाएगी। ज्योति बसु जैसे समर्पित कामरेड ने जहां सजबूत सत्ता के लिए माकपा को बंगाल में समेट लिया वहीं माकपा को राष्ट्रीय राजनीति में जिंदा रखने का स्मरणीय कार्य हरकिशन सिह सुरजीत ने किया। धर्मनिरपेक्ष सरकार कायम कराने में भी आगे रहे। जब केंद्र में भाजपा की सरकार अल्पमत में आ गई थी तब कांग्रेस जैसी धर्मनिरपेक्ष पार्टी के लिए किंगमेकर की सुरजीत ने भूमिका निभाई। यानी १९८९ में विश्वनाथ सिंह की सरकार हो या फिर १९९६ में यूनाइटेड फ्रंट की सरकार या फिर २००४ में यूपीए की सरकार हो सभी के रणनीतिकार हरकिशन किंह सुरजीत ही रहे।
यह माकपा के कर्णधारों की चूक थी अन्यथा १९९६ में सुरजीत की रणनीति देश को वामपंथी प्रधानमंत्री देने की थी। इसके लिए पूरा खाका तैयार हो गया था मगर माकपा की केंद्रीय समिति ने बसु को प्रधानमंत्री बनाने से रोक दिया। बाद में बसु के प्रधानमंत्री न बनाए जाने को ऐसिहासिक भूल भी पार्टी और बसु दोनों को मानना पड़ा। कुल मिलाकर सुरजीत ही वह कामरेड जिनकी सूझबूझ से केंद्र में माकपा समेत वाममोर्चा का महत्व बढ़ा। ज्योति बसु का वामपंथियों के लिए इस मायने में योगदान सराहनीय नहीं रहा। एक क्षेत्र में वामपंथी राजनीति कर रहे बसु ने राष्ट्रीय महत्व को लगभग भुला दिया था। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वामपंथी सत्ता की मजबूती के लिए बंगाल में जो कुछ हो रहा था उसका असर पूरे देश पर पड़ा।

दरअसल राष्ट्रीयता और क्षेत्रीयता दोनों की राजनीति एकसाथ संभव भी नहीं है। इसी कारण हिंदीक्षेत्रों में वामपंथी आंदोलनों के अगुवा रहे माकपा या भाकपा समर्थकों की जमीन ही खिसक गई। इस क्रम में उत्तरप्रदेश के सिर्फ दो बड़े नेताओं का जिक्र किया जाना काफी होगा जिनकी राजनीतिक सक्रियता पर इस क्षेत्रीयता का असर पड़ा। इनमें से एक गाजीपुर के सरयू पांडेय और दूसरे थे घोषी के झारखंड राय। दोनों ऐसी जमीन के नेता थे जिन्हें मजदूर स्वतः अपना रहनुमा समझते थे। मगर इनका इतना लोकप्रिय होना इस लिए काम नहीं आया क्यों कि तत्कालीन कांग्रेस की चतुर संचालक इंदिरा गांधी ने वामपंथियों के विखंडन का फायदा गरीबी हटाओ नारा देकर उठाया।



सर्वमान्य बनने की अग्नि परीक्षा
बंगाल में बाहरी लोगों के प्रति दुराव की खबरें देश के दूसरे कोने तक पहुंचने लगीं थी। बंगाल की इन खबरों ने वामपंथियों के गढ़ में भी माकपा के समर्थकों के कांग्रेस की तरफ विस्थापन का काम किया। नतीजा बंगाल के हक में तो अच्छा रहा क्यों कि इससे स्थानीय बहुमत उनके पक्ष में गया। ज्योति बसु जैसे माकपा के रणनीतिकार ने समय को भांपकर इस खिचाव को वोट और सत्ता में तबदील कर लिया और उसी ठोस धरातल पर बंगाल में माकपा सत्ता पर काबिज है। नुकसान इसका यह हुआ कि हिंदी क्षेत्रों में वामपंथी जमीन लगभग खिसक ही गई। इसका दुखद पहलू यह भी है कि देशभर के मजदूरों और गरीबों के भरोसे का वामपंथी सिर्फ बंगाल का ही प्रतीक बनकर रह गया। इसका खामियाजा अब देश भी भुगत रहा है और बंगाल भी। जो भी हो मगर माकपा को क्षेत्रीयता के कलंक बंगाल से मिटाने होंगे और राष्ट्रीय क्षितिज पर सर्वमान्य भूमिका में आना होगा। सवाल यह है कि क्या क्षेत्रीयता और राष्ट्रीयता दोनों एक साथ संभव है ? अगर हां तो बंगाल में क्षेत्रीय पार्टी की भूमिका से बाहर निकलना होगा जो बंगाल और देश दोनों के हित में है। प्रकाश करात की यही अग्निपरीक्षा भी है।

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