पश्चिम बंगाल में एक ऐसा स्कूल भी है जहां पढ़ाई-लिखाई की शुरुआत किसी प्रार्थना से नहीं बल्कि उस दिन के ताजा समाचार वाले अखबार के वाचन से होती है। रोज सुबह एक छात्र या कोई छात्रा अखबार की खबरें पढ़ते हैं और सभी शिक्षक व छात्र ध्यान से खबरें सुनते हैं। इस प्रक्रिया के पूरा होने पर ही कक्षाएं शुरू की जाती हैं। इस अनोखे स्कूल का यह रिवाज पूरे राज्य या शायद पूरे देश में नायाब व इकलौता है। राज्य के बर्दवान जिले के कालना अनुमंडल के इस सिमलन अन्नपूर्णा काली विद्या मंदिर की स्थापना १९३३ में हुई थी लेकिन अखबार पढ़कर पढ़ाई रिवाज १९५७ में शुरू हुआ था। स्कूल के तत्कालीन प्रधानाध्यापक गौरीशंकर सिकदर ने यह परंपरा डाली थी जो आज भी जारी है। यह खबर जनसत्ता ( कोलकाता संस्करण ) में ४ जनवरी के अंक में छपी है।
मौजूदा प्रधानाध्यापक देवनाथ सिकदर हैं। फिलहाल यहां १२०० विद्यार्थी हैं। इतने बड़े विद्यालय में यह रिवाज शुरू करने के पीछे तर्क यह है कि उस वक्त विद्यालय के ३०-४० किलोमाटर के दायरे में अधिकतर लोगों के घर में न तो रेडियो उपलब्ध था न ही अखबार। हालांकि आज भी इस इलाके को औसतन गरीब ही बताया जाता है। ऐसे हालात में इस रिवाज के शुरू करने का मकसद देश-विदेश की खबरों से छात्रों को अवगत कराना था। ताज्जुब यह है कि पूरे राज्य में प्रार्थना सभा विद्यालयों में अनिवार्य है मगर इस स्कूल ने सरकारी आदेश को तब भी नहीं माना और आज भी नहीं मानता। आज के वाममोर्चा सरकार के शासन में तो प्रार्थना न किए जाने पर भले आपत्ति न दर्ज कराई जाए मगर उस दौर में आजादी मिलने के बाद तो विद्यालयों में प्रार्थना लगभग अनिवार्य ही थी। मगर इस विद्यालय ने जो रास्ता अपनाया है उसका न तो आज कोई विरोध कर रहा है और न तब ही किसी ने किया। आज सभी अभिभावक भी इस अनोखे रिवाज से खुश ही हैं।
इस रिवाज को इतनी लोकप्रियता और पहचान क्यों मिली ? जबकि इसे प्रार्थना के बाद भी करके पढ़ाई शुरू की जा सकती थी मगर यह सवाल भी शायद किसी ने नहीं उठाया। अगर कुछ विरोध अगर हुआ तो वह प्रभावहीन इस लिए भी हो गया होगा क्यों कि तब लोग भी चाहते रहे होंगे कि उनके बच्चे देशकाल की घटनाओं से वाकिफ रहें। प्रधानाध्यापक का तो कहना है कि स्कूल का मकसद यह है कि बच्चे घर जाकर इन खबरों पर अपने माता-पिता से चर्चा करें।
तब और आज के हालात और अखबारों के मिजाज में काफी बदलाव आए हैं मगर रिवाज विना विरोध के जारी है तो निश्चित ही सराहनीय है क्यों कि आज के बंगाल का माहौल बेहद राजनीतिक खेमेबाजी वाला है। ऐसे में स्कूल प्रबंधन का सामंजस्य बैठाना भी काबिले तारीफ है।
हाल ही में आंदोलित हो चुके बंगाल के कई इलाकों ने विचारों के स्तर पर और भी ज्यादा कड़वाहट पैदा किया है। स्कूल में सभी विचार वाले घरों से बच्चे पढ़ने आते हैं मगर यह स्कूल प्रबंधन की बाजीगरी है कि इस रिवाज से सभी अभिभावक भी सहमत और खुश हैं। क्या बंगाल के विकास के मुद्दे पर राजनीति छोड़कर सभी दल आपस में ऐसी सद्भावना दिखा सकते हैं? शायद नहीं, क्यों कि विकास नहीं बल्कि दलीय बर्चस्व व इलाका दखल जैसे घृणित कार्य को नैतिक मान बैठे हैं ये दल?
पश्चिम बंगाल के सभी दलों को आपस में लड़ना छोड़कर इस विद्यालय से सबक लेनी चाहिए। जब एक विद्यालय तमाम मतभेदों के बीच अपनी अनोखा रिवाज कायम रख सकता है तो विकास के नाम पर बंगाल की राजनीति करने वालों को लोगों को खेमों में बांटने का क्या हक है?
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