Thursday, 17 January 2008

गांव को गांव ही रहने दो यारों



जब भी गांवों की बात चलती है तो कहा जाता है कि भारत की न सिर्फ अस्सी प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है बल्कि इस देश की आत्मा भी गांव ही हैं। फक्र से यह सब किछ कहा जाता है मगर इन गांवों के विकास पर आजादी के बाद से उतना भी ध्यान नहीं दिया गया जितने से भारत विकसित व सुविधासंपन्न गांवों का देश कहा जा सके। गुजरात या फिर कुछेक और राज्यों को छोड़ दें तो जरूरत भर को बिजली और पानी भी मयस्सर नहीं है गांवों को। किसान बदहाल और खुदकशी करने को लाचार हैं।
भारत की ग्रामीण आबादी जो सुदूर गांवों में रहती है आज की सूचना क्रांति से कोसों दूर है। शाम होते ही छा जाता है घुप्प अंधेरा। खेत-खलिहान से लेकर घर तक पसरे सियाह अंधेरे को चीरने के लिए रियायती मिट्टी का तेल भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाते हैं ऐसे ग्राम्यवासी। बीमार होजाएं तो जिले या किसी बड़े कस्बे से पहले कोई डाक्टर ही नहीं मिलता। डाक्टर कहीं दूर उपलब्ध भी होतो वहां तक समय से पहुंचना भी टेढ़ी खीर होती है उन लोगों के लिए। सरकारी आंकड़ों में गांवों की सुविधाओं को देखें तो सचमुच लगता है किकाफी बदल गए हैं भारत के गांव। यह अलग बात है कि चुनाव जीतने का नया हथकंडा अब गांव और किसान ही बन गया है। यानी राजनीति और बाजारवाद के निशाने पर भारत के वह गांव भी हैं जो अब तक अपनी ही लयताल में विकास के लिए आजादी के बाद से सरकार की ओर हर चुनाव में आशा की नजर से देखते हैं। यह अलग बात है कि हर बार उन्हे निराशा ही हाथ लगती है।
हम यहां सरकारी आंकड़ों में विकसित व सुविधासंपन्न हो चुके गांवों का दुखड़ा नहीं रो रहे हैं बल्कि भारत के उन गांवों की बात कर रहा हूं जो भारत के अंधाधुंध शहरीकरण में कहीं खो गए हैं। पंजाब, हरियाणा के किसानों को छोड़ दें तो बाकी देश के छोटे किसान और कम आय वाले ग्रामीणों की दशा में कोई खास सुधार नहीं आया है। ऐसे गांवों के लोगों की मानें तो उनसे बेहतर तो शहर में सामान्य नौकरी पेशा है। यानी भारत का यह ग्रामदेवता और हमारा अन्नदाता अपनी खेती से बेहतर मामूली नौकरीपेशा वाले को मानता है। ऐसी हीनता की स्थिति उस भारत के छोटे और मझोले किसानों व ग्रामीणों के लिए क्यों पैदा हुई जहां जुमला है कि--उत्तम खेती, मध्यम बान। निषिध चाकरी भीख निदान।। या भी कभी सम्मान से हमारे कवि लिख गए-- हे ग्राम देवता नमस्कार। साने चांदी से नहीं किन्तु तुमने मिट्टी से किया प्यार।। आखिर इस ग्राम देवता या उत्तम खेती वालों का आजाद भारत में क्या हश्र हो रहा है। बड़े किसान नतो गांवों की पहचान हैं और नही सही अर्थों में किसान ही हैं। वे कृषि के व्यापारी हैं। यानी व्यवसायी किसान हैं। इनसे बाजार जिंदा रह सकता है हमारा वह गांव नहीं जहां भारत की आत्मा रहती है। जिनके लिए हमारा लोकगायक भी कहता है--- दिया बरे ला किसान के अंगनवां में------।
कृषि का आधुनिकीकरण और औद्योगिक क्रांति बदलते समय की मांग है मगर क्या भारत की आत्मा को ही इसके लिए मार डालेंगे ? पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार दलील दे रही है कि सिर्फ खेती से ही गांव और किसानों का विकास नहीं होगा। औद्योगिकीकरण ( वहां इसे शिल्पायन कहते हैं ) अब अपरिहार्य है। कोई उनसे यह पूछे कि अपनी जमीन को अपनी जान से ज्यादा समझने वाले किसानों और उनकी उपजाऊ जमीन को बर्बाद करके आप किस भारत का निर्माण करना चाहते हैं। सिर्फ सत्ता की ताकत के बदौलत सिंगुर और नंदीग्राम या फिर देश में कहीं भी किसानों और गांवों की शांति छीनना कितना न्यायोचित है। मायावती का नजरिया इस मामले में बेहतर समझा जा सकता है जिन्होंने गंगा एक्सप्रेसवे परियोजना के लिए किसी उपजाऊ जमीन को न लेने सख्त हिदायत दी है।
अगर पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार के नजरिए से गांवों व किसानों का विकास करना है तो वह दिन भी दूर नहीं होगा जब भारत के पारंपरिक गांव व किसान किसी संग्रहालय की बाजारू प्रदर्शनी बन जाएंगे। कर्नाटक में बंगलूर से थोड़ी दूर हैसरगाटा में तो यह अभिनव प्रयोग शुरू भी हो गया है। यहां एक ऐसे कृत्रिम गांव का निर्माण किया गया है जहां शहरी बाबुओं को पारंपरिक गांव का सारा नजारा उपलब्ध होगा। बस इसके लिए आपको रोज छह हजार रुपए चुकाने होंगे। क्या विकास की दुहाई देकर हम ऐसे ही भविष्य के भारत का निर्माण करने में जुटे हैं ? कम से कम मैं इस नजरिए का विरोधी हूं क्यों कि मैं भी ग्रामीण परिवेश वाले छोटे व पारंपरिक किसान का बेटा हूं। विकास का भी पक्षधर हूं मगर कृषि के विकास का। हमें गांवों में चौबीस घंटे बिजली चाहिए। शिक्षा व स्वास्थ्य की वह सारी सुविधाएं चाहिए जो किसी मामूली से शहर को भी उपलब्ध है। आखिर गांवों को विकास के स्तर पर शहरों से पीछे क्यों रखा जाता है। इसी देश के गुजरात में के गांव तो शहरों के सात कदम मिलाकर चल रहे हैं तो क्या वहीं के पारंपरिक गांव देश के नक्शे से मिट रहे हैं। बिल्कुल नहीं। पंजाब, हरियाणा के संपन्न गांव खेती के बल पर ही शहरों से आगे हैं। आखिर वह दिन कब आएगा जब लोग शहर की जगह गांवों में ही रहने का विकल्प चुनेंगे और गांवों की आबादी का शहरों की ओर पलायन रुकेगा। ताकि किसी कृत्रिम हैसरगाटा की जगह हम सचमुच के खुशहाल गांवों वाले भारत को बचा पाएं।

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