Wednesday, 9 January 2008
पतितों को क्यों नहीं दिखता गंदा होता गंगाजल !
गंगा नदी गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक पूरे भारत के सारे तीर्थों को जोड़ती है। इसका पवित्र जल न सिर्फ गहरी आस्था का द्योतक है बल्कि कृषि और जनजीवन का प्राणाधार भी है। कई मैदानी नदियों का जलस्रोत भी गंगा नदी है। निर्मल जल के प्रवाह में जिन पापियों के पाप धुल रहे हैं उन्हीं ने इस पतितपावनी गंगा को कलषित करने की भी ठान रखी है। वैसे तो पूरे प्रवाह मार्ग में इतनी बेशुमार गंदगी इस निर्मल जल में प्रवाहित की जा रही जिसने इस पवित्र जल को पीने लायक भी नहीं छोड़ा है। काशी जैसे पवित्र तीर्थ में गंगाजल निर्मल नहीं रह गया है। मकर संक्रांति के पावन मौके पर बरबस यह चिंता सताने लगी है कि क्या अब दुर्लभ हो जाएगा गंगा का निर्मल-पावन जल?
मकर-संक्रांति के दिन गंगा-स्नान तथा गंगातट पर दान की विशेष महिमा है। अपने किनारों पर संस्कृतियों का पोषण करने वाली पतित-पावनी नदी गंगा को भारत वासी मां की तरह पूजतेहैं। लेकिन आज यही मां के बेटे पवित्र गंगा को इतना प्रदूषित कर दिए हैं कि खुद ही उसमें डुबकी लगाने से परहेज करने लगे हैं। गंगा का ऐसा ही कुछ हाल है धार्मिक नगरी वाराणसी में। यहां गंगा की इतने बुरे हाल की कल्पना शायद ही कभी किसी ने की होगी। आज हालत यह है कि यहां लोग पापों को नष्ट करने वाली नदी होने की सदियों पुरानी आस्था के विपरीत उसकी धारा में डुबकी लगाने से भी कतराने लगे हैं। काशी के गंगा घाट पर रहने वाले पंडों व नाविकों की माने तो गंगा की वाराणसी में यही दुर्दशा हो गई है। वाराणसी में गंगा का पानी प्रदूषण से काला पड गया है। अनेक गंदे नालों का पानी गंगा में सीधे गिर रहा है। हाल यह है कि गंगा का जल पीने तो दूर नहाने लायक भी नहीं बचा है। प्रदूषण की वजह से मोक्षदायिनीगंगा को हाथ जोड प्रणाम कर वापस लौट जाते हैं। गंदगी को देखकर वे नहाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
वाराणसी के प्रसिद्ध दशाश्वमेधघाट पर एक बडे नाले से शहर का हजारों लीटर गंदा पानी गंगा में गिरते हुए कभी भी देखा जा सकता है। गंगा में व्याप्त प्रदूषण के चलते ज्यादातर लोगों विशेषकर स्थानीय निवासियों ने स्नान करना बंद कर दिया है। बाहर से आने वाले ऐसे लोग जिन्हें इस गंदगी के बारे में सही जानकारी नहीं है वे अलबत्ता दो चार डुबकी लगा लेते हैं। गंगा का प्रदूषण लोगों के इस नदी के प्रति लगाव पर भारी पड रहा है। अपनी खूबसूरती के लिए विख्यात वाराणसी के ज्यादातर घाटों पर सूनापन छाने लगा है। अगर यही हाल रहा तो हमारे सामने रोजी-रोटी की समस्या पैदा हो जाएगी।गंगा में प्रदूषण दूर करने के नाम पर करोडों रुपये बहाए जाने के बावजूद गंगा के पानी में सुधार आने के बजाय वह और ज्यादा प्रदूषित हो गया है।
ज्ञातव्य है कि राजघाट से लेकर असीघाट तक पांच हजार से ज्यादा पंडों की कमाई इन्हीं घाटों पर आने वाले यजमानों से हो रही है। गंगा घाटों पर स्नान के लिए बहुत कम लोग आते हैं, लेकिन शाम को गंगा तट पर सैर के लिए लोगों की भीड जरूर एकत्र होती है। अगर गंगा की यहीं स्थिति रही तो कुछ दिनों के बाद गंगा के ऐतिहासिक घाट बेकार हो जाएंगे। गंगा के किनारे मलमूत्र त्याग करना, साबुन लगाकर कपडे धोना और नहाने जैसे वर्जित कार्य भी अब बेधडक होने लगे हैं। गंगा में बढ रहे प्रदूषण के लिए शासन व प्रशासन से ज्यादा जिम्मेदार स्थानीय लोग हैं। लोगों द्वारा पूजा पाठ की सारी सामग्री पॉलीथीनमें भरकर गंगा में डाल दी जाती है जो बाद में सडकर दुर्र्गधफैलाती है।
इस नदी के किनारे पर स्थित दो श्मशानोंसे निकली राख व कोयले के निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं है जिसकी वजह से उसे भी गंगा में ही डाल दिया जाता है। उत्तरवाहिनी गंगा के बहाव के लिए वाराणसी में राम नगर के पास बन रहे दूसरे पुल की वजह से समस्या पैदा हो गई है। इस पुल के खंभों से टकराकर गंगा की धारा में परिवर्तन आ रहा है। गंगा की रेत घाटों की तरफ आ रही है जिससे नदी की गहराई कम होती जा रही है। बाढ के उतरने के बाद गंगा के घाटों पर हजारों टन मिट्टी जमा हो जाती है एवं नगर निगमकर्मीपंप लगा कर इस मिट्टी को धो देते हैं। यह मिट्टी फिर से गंगा में पहुंच जाती है और बहने के बजाय नीचे जमा हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप गंगा की गहराई प्रतिवर्ष कम होती जा रही है। स्थिति तो यह है कि कई घाटों को गंगा छोड चुकी है। वहां अब केवल मिट्टी का ढेर ही दिखाई देता है।
अब इतनी प्रदूषित हो चुकी पतितपावनी गंगा को धरती पर लाने की पौराणिक कथा भी आप जानते ही होंगे। यह सोचकर भगीरथ ने गंगा को धरती पर नहीं लाया होगा कि कभी जिसके जल से सगरपुत्र तर गए आज उस जल को प्रदूषण के कारण दूर से ही प्रणाम करके लौट जाने की नौबत आगई है। बहरहाल आइए आपको अब गंगा अवतरण की वह कथा बताते हैं जिसे विश्वामित्र ने भगवान राम को सुनाया था। बाल्मिकि रामायण में भी यह वर्णित है।
गंगा के पृथ्वी पर अवतरण की कथा
मिथकों के अनुसार ब्रह्मा ने विष्णु के पैर के पसीनों की बूँदों से गंगा का निर्माण किया। त्रिमूर्ति के दो सदस्यों के स्पर्श की वजह से यह पवित्र समझा गया। जबकि ऋषि विश्वामित्र ने गंगा अवतरण की इस कथा को इस तरह सुनाया है। "पर्वतराज हिमालय की अत्यंत रूपवती, लावण्यमयी एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएँ थीं। सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना इन कन्याओं की माता थीं। हिमालय की बड़ी पुत्री का नाम गंगा तथा छोटी पुत्री का नाम उमा था। गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवी गुणों से सम्पन्न थी। वह किसी बन्धन को स्वीकार न कर मनमाने मार्गों का अनुसरण करती थी। उसकी इस प्रतिभा से प्रभावित होकर देवता लोग विश्व के क्याण की दृष्टि से उसे हिमालय से माँग कर ले गये। पर्वतराज की दूसरी कन्या उमा बड़ी तपस्विनी थी। उसने कठोर एवं असाधारण तपस्या करके महादेव जी को वर के रूप में प्राप्त किया।"
विश्वामित्र के इतना कहने पर राम ने कहा, "गे भगवन्! जब गंगा को देवता लोग सुरलोक ले गये तो वह पृथ्वी पर कैसे अवतरित हुई और गंगा को त्रिपथगा क्यों कहते हैं?" इस पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, "महादेव जी का विवाह तो उमा के साथ हो गया था किन्तु सौ वर्ष तक भी उनके किसी सन्तान की उत्पत्ति नहीं हुई। एक बार महादेव जी के मन में सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया। जब उनके इस विचार की सूच瓥ना ब्रह्मा जी सहित देवताओं को मिली तो वे विचार करने लगे कि शिव जी के सन्तान के तेज को कौन सम्भाल सकेगा? उन्होंने अपनी इस शंका को शिव जी के सम्मुख प्रस्तुत किया। उनके कहने पर अग्नि ने यह भार ग्रहण किया और परिणामस्वरूप अग्नि के समान महान तेजस्वी स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ। देवताओं के इस षड़यंत्र से उमा के सन्तान होने में बाधा पड़ी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि भविष्य में वे कभी पिता नहीं बन सकेंगे। इस बीच सुरलोक में विचरण करती हुई गंगा से उमा की भेंट हुई। गंगा ने उमा से कहा कि मुझे सुरलोक में विचरण करत हुये बहुत दिन हो गये हैं। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर विचरण करूँ। उमा ने गंगा आश्वासन दिया कि वे इसके लिये कोई प्रबन्ध करने का प्रयत्न करेंगी।
"वत्स राम! तुम्हारी ही अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। सगर की पटरानी केशिनी विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी। केशिनी सुन्दर, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी। सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति थी जो राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी। दोनों रानियों को लेकर महाराज सगर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में जाकर पुत्र प्राप्ति के लिये तपस्या करने लगे। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें वर दिया कि तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी। दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी के साठ हजार पुत्र होंगे। कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें। केशिनी ने एक पुत्र की कामना की और गरुड़ की बहन सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की।
उचित समय पर रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकल जिसे फोड़ने पर छोटे छोटे साठ हजार पुत्र निकले। उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया। कालचक्र बीतता गया और सभी राजकुमार युवा हो गये। सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर उन्हें डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था। इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। असमंजस के अंशुमान नाम का एक पुत्र था। अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया।
राम ने ऋषि विश्वामित्र से कहा, "गुरुदेव! मेरी रुचि अपने पूर्वज सगर की यज्ञ गाथा को विस्तारपूर्वक सुनने में है। अतः कृपा करके इस वृतान्त को पूरा पूरा सुनाइये।" राम के इस तरह कहने पर ऋषि विश्वामित्र प्रसन्न होकर कहने लगे, " राजा सगर ने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरी भरी भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे पीछे भेज दिया। यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने एक राक्षस का रूप धारण करके उस घोड़े को चुरा लिया। घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ। पूरी पृथ्वी में खोजने पर भी जब घोड़ा नहीं मिला तो, इस आशंका से कि किसीने घोड़े को तहखाने में न छुपा रखा हो, सगर के पुत्रों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया। उनके इस कार्य से असंख्य भूमितल निवासी प्राणी मारे गये। खोदते खोदते वे पाताल तक जा पहुँचे। उनके इस नृशंस कृत्य की देवताओं ने ब्रह्मा जी से शिकायत की तो ब्रह्मा जी ने कहा कि ये राजकुमार क्रोध एवं मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं। पृथ्वी की रक्षा कर दायित्व कपिल पर है इसलिये वे इस विषय में कुछ न कुछ अवश्य करेंगे। पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब घोड़ा और उसको चुराने वाला चोर नहीं मिला तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी। रुष्ट होकर सगर ने आदेश दिया कि घोड़े को पाताल में जाकर ढूढो। पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे सनातन वसुदेव कपिल के आश्रम में पहुँच गये। उन्होंने देखा कपिलदेव आँखें बन्द किये बैठे हैं और उन्हीं के पास यज्ञ का वह घोड़ा बँधा हुआ है। उन्होंने कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उनके लिये अनेक दुर्वचन कहे और उन्हें मारने के लिये दौड़े। सगर के इन कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई। उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के उन सब पुत्रों को भस्म कर दिया।
"जब महाराज सगर को बहुत दिनों तक अपने पुत्रों की सूचना नहीं मिली तो उन्होंने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिये आदेश दिया। वीर अंशुमान शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर उसी मार्ग से पाताल की ओर चल पड़ा जिसे उसके चाचाओं ने बनाया था। मार्ग में जो भी पूजनीय ऋषि मुनि मिले उनका यथोचित सम्मान करके अपने लक्ष्य के विषय में पूछता हुआ उस स्थान तक पहुँच गया जहाँ पर उसके चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था। अपने चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों को देखकर उसे बहुत दुःख हुआ। उसने उनका तर्पण करने के लिये जलाशय की खोज की किन्तु उसे कहीं जलाशय दिखाई नहीं पड़ा। तभी उसकी दृष्टि अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी। उन्हें सादर प्रणाम करके अंशुमान ने पूछा कि बाबाजी! मैं इनका तर्पण करना चाहता हूँ। पास में यदि कोई सरोवर हो तो कृपा करके उसका पता बताएं। यदि आप इनकी मृत्यु के विषय में कुछ जानते हैं तो वह भी मुझे बताने की कृपा करें। गरुड़ जी ने बताया कि किस प्रकार उसके चाचाओं ने कपिल मुनि के साथ उद्दण्ड व्यवहार किया था जिसके कारण कपिल मुनि ने उन सबको भस्म कर दिया। इसके पश्चात् गरुड जी ने अंशुमान से कहा कि ये सब अलौकिक शक्ति वाले दिव्य पुरुष के द्वारा भस्म किये गये हैं अतः लौकिक जल से तर्पण करने से इनका उद्धार नहीं होगा, केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करने पर इनका उद्धार सम्भव है। अब तुम घोड़े को लेकर वापस चले जाओ जिससे कि तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो सके। गरुड़ जी की आज्ञानुसार अंशुमान वापस अयोध्या पहुँचे और अपने पितामह को सारा वृतान्त सुनाया। महाराज सगर ने दुःखी मन से यज्ञ पूरा किया। वे अपने पुत्रों के उद्धार करने के लिये गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे पर ऐसा करने के लिये उन्हें कोई भी युक्ति न सूझी।"
सगर के पुत्रो की आत्माएँ भूत बनकर विचरने लगे क्योंकि उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया था। सगर के पुत्र अंशुमान ने आत्माओं की मुक्ति का असफल प्रयास किया और बाद में अंशुमान के पुत्र दिलीप ने भी। भगीरथ राजा दिलीप की दूसरी पत्नी के पुत्र थे । उन्होंने अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार किया । उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रण किया जिससे उनके संस्कार का राख स्वर्ग में जा सके।
भगीरथ ने ब्रह्माकी घोर तपस्या की ताकि गंगा को पृथ्वी पर लाया जा सके। ब्रह्मा प्रसन्न हुये और गंगा को पृथ्वी पर भेजने के लिये तैयार हुये और गंगा को पृथ्वी पर और उसके बाद पाताल में जाने का आदेश दिया ताकि सगर के पुत्रों के आत्माओं की मुक्ति संभव हो सके। गंगा को यह आदेश अपमानजनक लगा और उन्होंने समूची पृथ्वी को बहा देने का निश्चय किया, स्थिति भाँप कर भगीरथ ने शिव से प्राथना की और शिव गंगा के रास्ते में आ गये।
गंगा जब वेग में पृथ्वी की ओर चली तो शिव ने अपनी जटाओं में उसे स्थान देकर उसका वेग कम किया। शिव के स्पर्श से गंगा और भी पावन हो गयी और पृथ्वी वासियों के लिये बहुत ही श्रद्धा का केन्द्र बन गयीं। पुराणों के अनुसार स्वर्ग में गंगा को मन्दाकिनी और पाताल में भागीरथी कहते हैं।
कहते हैं कि मकर संक्रांति के दिन ही गंगा सागर में जाकर मिली और वर्तमान पश्चिम बंगाल का सागर द्वीप इन्हीं कारणों पवित्र तीर्थ बन गया। सागरद्वीप पर आज भी मकरसंक्राति को लगता है गंगासागर मेला और गंगा व सागर के इस पावन संगम पर लोग डुबकी लगाकर अपने कई जन्मों के पाप से मुक्त हो जाते हैं।
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