Sunday, 30 September 2007
त्रिलोचन शास्त्री : जीवनभर लड़े जंग, अब है जीने की जंग !
फिर बेहद अशक्त और बीमार त्रिलोचन को अस्पताल की शरण लेनी पड़ी। गाजियाबाद के यशोदा अस्पताल में भर्ती हैं। सहारा का राष्ट्रीय चैनल अगर इसे खबर नहीं बनाता तो क्या पता चलता कि त्रिलोचन किस हाल में हैं। साहित्य अकादमी इस बार इस बीमार साहित्यकार की देखरेख की कुछ जिम्मेदारी उठायी है। त्रिलोचन जी के छोटे बेटे अमितप्रकाश ने ऐसा चैनल को भी बताया है। चैनल के मुताबिक दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी इलाज में मदद का भरोसा दिलाया है। बकौल अमितप्रकाश इस इमदाद के लिए दौड़धूप भी करनी पड़ती है मगर इतना वक्त वे नहीं निकाल पा रहे हैं। सवाल यह उठता है कि क्या त्रिलोचन के परिजनों को यह बार-बार बताना पड़ेगा कि राष्ट्रीय स्तर का यह साहित्यकार सिर्फ उनकी नहीं देश की भी जिम्मेदारी हैं। तो फिर इसके लिए दौड़धूप की अपेक्षा क्यों? अगर हो सके तो खुद ही सामने आकर त्रिलोचन की मदद की जानी चाहिए।
अगर भाषा और साहित्य ही किसी राष्ट्र की पहचान होती तो इसको समृद्ध करने में अपना जीवन खपा देने वाला साहित्यकार कहां से गौड़ हो जाता है। अगर कोई राजनेता इस काबिल समझा जाता है कि उसे सत्ता या शासन की मदद दी जानी चाहिए तो मान्यता हासिल कर चुके त्रिलोचन जैसे साहित्यकार क्यों नहीं। इसके लिए क्यों याचना करें उनके परिजन ? अगर ऐसा है तो यह हमारे समाज व संस्कृति के लिए शर्मनाक है। नीतिनियामकों को इसपर बड़ी संजीदगी से विचार करना चाहिए। क्यों कि ये सारी बातें यह तय करती हैं हमारे समाज की बुनियाद कितनी देर तक मजबूत रह पाएगी। हम भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में विकास की दायरा भी इसी से तय होगा। कहीं यह उपेक्षा हमें उस गर्त में नहीं पहुंचा दें जहां भ्रष्ट राजनीति भारत देश को ले जा रही है। त्रिलोचन का बहाना शायद वह संकल्प बन सकता जिससे उपेक्षित साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों को बेहाल होने से बचाया जा सके।
३० जुलाई २००७ को अपने इसी ब्लाग चिंतन पर -मुझको मेरे बाद जमाना ढूंढेगा शीर्षक से त्रिलोचनजी के हालात पर कुछ दस्तावेज व सुधी चिट्ठाकारों की छापी गई टिप्पणी भी अवलोकनीय है। उम्मीद है चिट्ठाकार भी अपनी आवाज बुलंद करेंगे। इससे पहले वोधिसत्व व चंद्रभूषण की कोशिश इस मुद्दे को प्रकाश में लाने में काफी कामयाब रही थी।
Wednesday, 12 September 2007
सत्ता के कोपभाजन बने कलाम, शेखावत और यूपी के 12 आईपीएस
सत्ता जिससे नाखुश हो तो उसकी खैर नहीं? जैलसिंह से इंदिरागांधी नाराज हो गईं थी तो उन्हें ऐसा आवास मिला था जिसमें आए दिन सांप निकलते थे। उस वक्त कई समाचार माध्यमों ने शासन के किसी निवर्तमान राष्ट्रपति के प्रति ऐसे रवैए की निंदा भी की थी। हालांकि यह दंश झेलने के लिए जैलसिंह ज्यादा दिन तक जिंदा भी नहीं रह पाए। अब ऐसी मुसीबत फिर पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम और पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावतके सामने आ खड़ी हुई है। वजह साफ है। कलाम ने वैसा नहीं किया जैसा केंद्र की सत्ताधारी यूपीए चाह रही थी और शेखावत तो हैं ही विरोधी खेमे के। कलाम ने अपने रवैए से सोनिया समेत अन्य नेताओं को नाराज किया। आपको याद होगा कि किसी राष्ट्रपति चुनाव में राजभवन राजनीति का इतना बड़ा अखाड़ा नहीं बना था। सत्ताधारी बहुसंख्यकों ने इसके लिए कलाम को दोषी माना। नतीजा सामने है। दोनों को अपने-अपने पदों से इस्तीफा दिए एक महीने से अधिक का वक्त गुजर चुका है लेकिन प्रशासन उनके आवासों को तैयार नहीं कर पाया है। 75 वर्षीय कलाम दिल्ली छावनी में 'हाई रिस्क कैटिगरी ऑफिसर्स हट' में रह रहे हैं। आर्मी चीफ जनरल जे. जे. सिंह ने 25 जुलाई को राष्ट्रपति का पद छोड़ने के बाद कलाम को यह आवास मुहैया कराने की पेशकश की थी। तीनों सेनाओं के पूर्व सर्वोच्च सेनापति ने सिंह की इस पेशकश को स्वीकार कर लिया और उसके बाद सेना ने इस आवास को विशेष रूप से कलाम के लिए तैयार किया। कलाम को जेड प्लस सिक्युरिटी मिली हुई है, लेकिन वह सेना के गेस्टहाउस में रहने को मजबूर हैं। हालांकि उनका कार्यालय शहरी विकास मंत्रालय को मध्य दिल्ली में उन्हें आवंटित किए गए घर को जल्दी तैयार करने के लिए कई बार प्रतिवेदन दे चुका है। केंद्रीय लोकनिर्माण विभाग धीमी गति से काम कर रहा है।
दूसरी ओर, उपराष्ट्रपति पद से 22 जुलाई को इस्तीफा दे चुके भैरों सिंह शेखावत की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। शेखावत अभी राजस्थान हाउस में रह रहे हैं क्योंकि उनका 31, औरंगजेब रोड स्थित नया आवास उन्हें सौंपा नहीं गया है। शेखावत की मंजूरी के बाद शहरी विकास मंत्रालय ने इस आवास को पूर्व उपराष्ट्रपति के नए घर के रूप में चुना था। टाइप-8 श्रेणी का यह भवन 5,000 वर्ग फुट में बना है और यह लुटियन द्वारा डिजाइन किया गया मूल बंगला है, जिसमें थोड़ा अतिरिक्त निर्माण किया गया है।
यही हालत नौकरशाहों की भी उत्तरप्रदेश में हो रही है। २००५-६ में पुलिस आरक्षी की भर्ती में अनियमितता के आरोप में १२ आईपीएस अधिकारियों को मायावती ने निलंबित कर दिया है। मुलायम सरकार के कार्यकाल में इनके द्वारा भर्ती किए गए ६५०४ आरक्षियों को भी सेवामुक्त कर दिया गया है। अब मायावतीजी कोई यह तो पूछे कि नौकरशाह किसके आदेश या भय से काम करते हैं। और उनके ईशारे पर काम न करने वालों का क्या हश्र होता है यह तो सभी जानते हैं। इन अधिकारियों की क्या बिसात जो किसी मुख्यमंत्री या सत्ताधारी पार्टी की अवहेलना कर दें। फिर ऐसे में इन अधिकारियों को मुअत्तल करने का क्या मतलब? अगर अनियमितता ही साबित हो रही थी तो बेहतर होता कि सारी भर्ती रद्द करके फिर से निरपेक्ष रूप से भर्ती की प्रक्रिया शुरू करातीं। इन तथाकथित दोषी आईपीएस अधिकारियों को कोई ऐसी सजा क्यों दी जानी चाहिए जिसके लिए दोषी खुद मंत्री, मुख्यमंत्री व सत्ताधारी पार्टी है। अगर मायावती जी ने भ्रष्टाचार मिटाने का प्रण ही कर लिया है तो पहले लिए दोषी इन मंत्रियों व मुख्यमंत्री के खिलाफ मुकदमा चलाएं कि उनके शासन में ऐसा कैसे हुआ। राजनीतिक भ्रष्टाचार का ठीकरा इन अधिकारियों के सिर क्यों फोड़ रही हैं।
दूसरी ओर, उपराष्ट्रपति पद से 22 जुलाई को इस्तीफा दे चुके भैरों सिंह शेखावत की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। शेखावत अभी राजस्थान हाउस में रह रहे हैं क्योंकि उनका 31, औरंगजेब रोड स्थित नया आवास उन्हें सौंपा नहीं गया है। शेखावत की मंजूरी के बाद शहरी विकास मंत्रालय ने इस आवास को पूर्व उपराष्ट्रपति के नए घर के रूप में चुना था। टाइप-8 श्रेणी का यह भवन 5,000 वर्ग फुट में बना है और यह लुटियन द्वारा डिजाइन किया गया मूल बंगला है, जिसमें थोड़ा अतिरिक्त निर्माण किया गया है।
यही हालत नौकरशाहों की भी उत्तरप्रदेश में हो रही है। २००५-६ में पुलिस आरक्षी की भर्ती में अनियमितता के आरोप में १२ आईपीएस अधिकारियों को मायावती ने निलंबित कर दिया है। मुलायम सरकार के कार्यकाल में इनके द्वारा भर्ती किए गए ६५०४ आरक्षियों को भी सेवामुक्त कर दिया गया है। अब मायावतीजी कोई यह तो पूछे कि नौकरशाह किसके आदेश या भय से काम करते हैं। और उनके ईशारे पर काम न करने वालों का क्या हश्र होता है यह तो सभी जानते हैं। इन अधिकारियों की क्या बिसात जो किसी मुख्यमंत्री या सत्ताधारी पार्टी की अवहेलना कर दें। फिर ऐसे में इन अधिकारियों को मुअत्तल करने का क्या मतलब? अगर अनियमितता ही साबित हो रही थी तो बेहतर होता कि सारी भर्ती रद्द करके फिर से निरपेक्ष रूप से भर्ती की प्रक्रिया शुरू करातीं। इन तथाकथित दोषी आईपीएस अधिकारियों को कोई ऐसी सजा क्यों दी जानी चाहिए जिसके लिए दोषी खुद मंत्री, मुख्यमंत्री व सत्ताधारी पार्टी है। अगर मायावती जी ने भ्रष्टाचार मिटाने का प्रण ही कर लिया है तो पहले लिए दोषी इन मंत्रियों व मुख्यमंत्री के खिलाफ मुकदमा चलाएं कि उनके शासन में ऐसा कैसे हुआ। राजनीतिक भ्रष्टाचार का ठीकरा इन अधिकारियों के सिर क्यों फोड़ रही हैं।
Monday, 10 September 2007
ठीक ही फरमा रहे हैं सीताराम येचुरी !
------------ आम कर्मचारियों की तरह सांसदों पर भी 'काम नहीं तो वेतन नहीं' का प्रावधान लागू होना चाहिए। ऐसा मानना है मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का। माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने सोमवार को कहा कि वर्किंग क्लास काम नहीं करता है, तो उसका वेतन काट लिया जाता है। आप सांसद हैं तो खुद को इससे बख्श रहे हैं। आपको इसका अधिकार किसने दिया। गौरतलब है कि स्वामी अग्निवेश के नेतृत्व में कुछ लोगों ने आज संसद भवन में इस माँग को लेकर प्रदर्शन किया। लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी इस तरह की बात पहले ही कह चुके हैं। ( भाषा )।-----------------
सांसदों के कामकाज पर यह वामपंथी नजरिया सही है। कम से कम माकपा तो अपने सासंदों और विधायकों पर इतनी नकेल कस कर रखती ही है। इनके सांसद सिर्फ अपनी मर्जी से सांसद निधि खर्च नहीं कर सकता। इसके लिए कई स्तर पर मंजूरी की जरूरत होती है। यह अलग बात है कि ये भी अधिकतम पार्टी हित के मद्देनजर ही इस निधि के इस्तेमाल को मंजूरी देते हैं। मगर सांसद निधि की उतनी बर्बादी नहीं हो पाती जितनी की बाकी दलों के जरिए होना संभव होता है।अन्य दलों के मामूली से विधायक भी इतनी जल्द अपार संपत्ति के मालिक हो जाते हैं जैसे वे जनसेवक नहीं बल्कि कोई बड़े उद्योगपति हों। माकपा को इनके कामकाज पर सवाल उठाने का हक है। खुद जब थोड़ी ईमानदारी बरतते हैं तो अपने सहयोगी दलों से यह अपेक्षा तो रख ही सकते हैं।
इससे पहले माकपा के वरिष्ठ नेता और लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी भी सांसद निधि को गैरजरूरी करार दे चुके हैं। वे इस पर राष्ट्रीय बहस भी चाहते थे मगर खुद पर लगाम की बात देशभर के अन्य सांसदों को रास नहीं आई। वे नियामक हैं इसी लिए शायद पाबंदी पसंद नहीं। वरना यह बहस तो होनी ही चाहिए कि जब विकास के लिए बजट बनता ही है तो सांसदों को व्यक्तिगत तौर पर जनता की गाढ़ी कमाई की इतनी भारी राशि देने की क्या जरूरत? अगर वे सचमुच विकास ही चाहते हैं तो इस किस्म का प्रस्ताव संसद में ला सकते हैं। संसद को आवश्यक लगा तो वह इसकी मंजूरी देगी। सांसद अपने क्षेत्र का सर्वे करके विकास के मुद्दे को मीडिया और संसद के जरिए उठा सकता है। जो कि जनसामान्य से जुड़े रहने और अपने कामकाज को प्रदर्शित करने का बेहतर मगर मेहनत वाला रास्ता है। तब शायद उसके कामकाज और वेतन पर सवाल भी उठाना मुश्किल हो जाएगा। लोग सांसदों को सुविधाएं और धनराशि मुहैया कराए जाने के पक्ष में नहीं हैं मगर वायदा करके चुनाव बाद महाराजा बनकर आमलोगों की अनदेखी तो अक्सर करते हैं हमारे सांसद। हर चुनाव में यह आरोप सभी पार्टियां एक दूसरे पर लगाती हैं। नई सत्ता अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को निकम्मी ही बताती है। इसका सीधा अर्थ है कि सांसद और विधायक ईमानदारी से काम नहीं करते और सरकारें उनके निकम्मेपन व भ्रष्टाचारों के कारण गर्त में मिल जाती हैं। माकपा नेता सीताराम येचुरी अगर इन सारी बातों के मद्देनजर काम नहीं तो वेतन नहीं का सवाल उठाते हैं तो इसमें गलत क्या है? क्या खुद सांसदों को इसपर ईमानदारी से नहीं सोचना चाहिए?
सांसदों के कामकाज पर यह वामपंथी नजरिया सही है। कम से कम माकपा तो अपने सासंदों और विधायकों पर इतनी नकेल कस कर रखती ही है। इनके सांसद सिर्फ अपनी मर्जी से सांसद निधि खर्च नहीं कर सकता। इसके लिए कई स्तर पर मंजूरी की जरूरत होती है। यह अलग बात है कि ये भी अधिकतम पार्टी हित के मद्देनजर ही इस निधि के इस्तेमाल को मंजूरी देते हैं। मगर सांसद निधि की उतनी बर्बादी नहीं हो पाती जितनी की बाकी दलों के जरिए होना संभव होता है।अन्य दलों के मामूली से विधायक भी इतनी जल्द अपार संपत्ति के मालिक हो जाते हैं जैसे वे जनसेवक नहीं बल्कि कोई बड़े उद्योगपति हों। माकपा को इनके कामकाज पर सवाल उठाने का हक है। खुद जब थोड़ी ईमानदारी बरतते हैं तो अपने सहयोगी दलों से यह अपेक्षा तो रख ही सकते हैं।
इससे पहले माकपा के वरिष्ठ नेता और लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी भी सांसद निधि को गैरजरूरी करार दे चुके हैं। वे इस पर राष्ट्रीय बहस भी चाहते थे मगर खुद पर लगाम की बात देशभर के अन्य सांसदों को रास नहीं आई। वे नियामक हैं इसी लिए शायद पाबंदी पसंद नहीं। वरना यह बहस तो होनी ही चाहिए कि जब विकास के लिए बजट बनता ही है तो सांसदों को व्यक्तिगत तौर पर जनता की गाढ़ी कमाई की इतनी भारी राशि देने की क्या जरूरत? अगर वे सचमुच विकास ही चाहते हैं तो इस किस्म का प्रस्ताव संसद में ला सकते हैं। संसद को आवश्यक लगा तो वह इसकी मंजूरी देगी। सांसद अपने क्षेत्र का सर्वे करके विकास के मुद्दे को मीडिया और संसद के जरिए उठा सकता है। जो कि जनसामान्य से जुड़े रहने और अपने कामकाज को प्रदर्शित करने का बेहतर मगर मेहनत वाला रास्ता है। तब शायद उसके कामकाज और वेतन पर सवाल भी उठाना मुश्किल हो जाएगा। लोग सांसदों को सुविधाएं और धनराशि मुहैया कराए जाने के पक्ष में नहीं हैं मगर वायदा करके चुनाव बाद महाराजा बनकर आमलोगों की अनदेखी तो अक्सर करते हैं हमारे सांसद। हर चुनाव में यह आरोप सभी पार्टियां एक दूसरे पर लगाती हैं। नई सत्ता अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को निकम्मी ही बताती है। इसका सीधा अर्थ है कि सांसद और विधायक ईमानदारी से काम नहीं करते और सरकारें उनके निकम्मेपन व भ्रष्टाचारों के कारण गर्त में मिल जाती हैं। माकपा नेता सीताराम येचुरी अगर इन सारी बातों के मद्देनजर काम नहीं तो वेतन नहीं का सवाल उठाते हैं तो इसमें गलत क्या है? क्या खुद सांसदों को इसपर ईमानदारी से नहीं सोचना चाहिए?
Sunday, 9 September 2007
सावधान, ईमेल में वायरस है ?
मित्रों, भारत में हर २८वें ईमेल में से एक मेल वायरस वाला होता है। साईबर अपराध ने तो नाक में दम कर ही रखा है, अब अधिकतर कंप्यूटर भी ऐसे ईमेल की भेट चढ़ जाएंगे। ईमेल में वायरस के बढ़ते प्रकोप का यह खुलासा मेसेजलैब ( यानी मेसेजिंग सिक्योरिटी एंड मैनेजमेंट सर्विसेज ) के अध्ययन के बाद हुआ है। इस नए वायरस स्टोर्मवर्म का आक्रमण वर्चुअलपोस्टकार्ड और यूट्यूबवीडिओ के जरिए किया जा रहा है। मेसेजलैब का दावा है कि स्टोर्मवार्म के हमले से १.८ मिलियन कंप्यूटर संक्रमित हो चुके हैं। १५ अगस्त को सिर्फ २४ घंटे में स्टोर्मवार्मधारी वायरसों वाली वेबसाइटों से ६ लाख ईमेल भेजे गए थे। इसका नतीजा यह हुआ कि वायरस वाले ईमेल की तादाद जुलाई के मुकाबले अगस्त में १९ प्रतिशत बढ़ गई। जुलाई में यह तादाद सिर्फ ०.५ प्रतिशत थी। इस तरह के वायरस वाली वेबसाइटें रोजाना बढ़ रहीं हैं । (प्रेट्र)।
Thursday, 6 September 2007
रोक दीजिए नग्नता का यह प्रदर्शन
इंडिया फ़ैशन वीक बुधवार को दिल्ली में शुरू हो गया। फ़ैशन वीक के दौरान कुल 30 शो होंगे। इस फ़ैशन वीक में देश भर के चुनिंदा 71 डिज़ाइनर हिस्सा ले रहे हैं। फ़ैशन वीक के लिए विशेष रुप से मॉडलों का चयन किया गया है। इंडिया फ़ैशन वीक में फ़िल्मी हस्तियों ने भी भाग लेना शुरू किया है. पहले दिन फ़िल्म अभिनेत्री तनुश्री दत्ता रैंप पर उतरीं। फ़ैशन उद्योग के जानकारों का कहना है कि भारत में फ़ैशन उद्योग अभी शुरुआती दौर में है। बहरहाल जहां फैशन पर इतना बड़ा आयोजन हो रहा है वहीं फ़ैशन वीक में प्रदर्शित होने वाले कपड़ों की उपयोगिता को लेकर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं। फ़ैशन डिज़ाइनर
रीना ढाका, शांतनु और निखिल, अंजना भार्गव की डिज़ाइनों की परिकल्पना को प्रदर्शित किया जा रहा है।
अगर आपको इस तरह के आयोजनों को नजदीक से देखने का अवसर मिला हो तो निश्चित रूप से कई सवाल आपके जेहन में भी उभरे होंगे। प्रदर्शित अधिकांश डिजाइनों में से कितनीं इस देश की बहुसंख्यक आबादी के उपयोग की होती हैं। यह भी सत्य है कि भले इन आयोजनों को व्यावसायिकता का अमलीजामा पहना दिया गया हो मगर असल में यह आयोजन पूरी तरह अश्लील लगता है। आधुनिकता और वैश्वीकरण की दलील के आगे तो संस्कृति व सभ्यता की बात करना भी आजकल दकियानूसी समझा जाने लगा है मगर ईमानदारी से सोचें तो पारंपरिक परिधानों को सिरे से नकारा जा रहा है। दरअसल बाजारवाद के खांचे में पारंपरिक परिधान उतने फिट नहीं बैठते जितने कि कम और तंग आधुनिक कपड़े। अश्लीलता को प्रदर्शित करके बाजार को पकड़ना शायद ज्यादा आसान होता है। और असल उद्देश्य तो बाजार को पकड़ना है। शायद इसी आपाधापी में डिजाइनदार कपड़े बेचने के हर हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। रैंप पर माडलों के अर्धनग्न प्रदर्शन भी ऐसे ही हथकंडे हैं। हो भी क्यों नहीं। आजकल उत्पादों के एडवरटाइजमेंट की दुनियां में यह सब जायज जो माना जाता है। यह भी सही है कि इन डिजाइनरों की परिकल्पना ने परिधानों की दुनिया में क्रांति ला दी है मगर यह तब खटकने लगता है जब ऐसी डिजाइनों को तरजीह दी जाती है जो अश्लील तो होती ही हैं, उनकी उपयोगिता भी संदिग्ध लगती है। क्या बाजारवाद की चकाचौंध में आकंठ डूबे ये डिजाइनर आधुनिक परिधानों की खोज के साथ अपने हिंदुस्तान की पहचान भी कायम रख पाएंगे? फिलहाल जो दौर जारी है उसमें तो मुश्किल ही लगता है। इनमे से जो अपनी पहचान भी कायम रखने की दिशा में काम कर रहे हैं उनको हमारी शुभकामनाएं। कृपया बाजारवाद के नाम रोक दीजिए नग्नता का यह प्रदर्शन।
नीचे रैंप की जो तस्वीरें हैं वे बीबीसी से साभार ली गईं हैं। महज आपके अवलोकन के लिए। आप भी तय कर सकें कि इन परिधानों में कितनी भरी है अश्लीलता और कितना अपनी देशज पहचान का ध्यान रखा गया है।
रीना ढाका, शांतनु और निखिल, अंजना भार्गव की डिज़ाइनों की परिकल्पना को प्रदर्शित किया जा रहा है।
अगर आपको इस तरह के आयोजनों को नजदीक से देखने का अवसर मिला हो तो निश्चित रूप से कई सवाल आपके जेहन में भी उभरे होंगे। प्रदर्शित अधिकांश डिजाइनों में से कितनीं इस देश की बहुसंख्यक आबादी के उपयोग की होती हैं। यह भी सत्य है कि भले इन आयोजनों को व्यावसायिकता का अमलीजामा पहना दिया गया हो मगर असल में यह आयोजन पूरी तरह अश्लील लगता है। आधुनिकता और वैश्वीकरण की दलील के आगे तो संस्कृति व सभ्यता की बात करना भी आजकल दकियानूसी समझा जाने लगा है मगर ईमानदारी से सोचें तो पारंपरिक परिधानों को सिरे से नकारा जा रहा है। दरअसल बाजारवाद के खांचे में पारंपरिक परिधान उतने फिट नहीं बैठते जितने कि कम और तंग आधुनिक कपड़े। अश्लीलता को प्रदर्शित करके बाजार को पकड़ना शायद ज्यादा आसान होता है। और असल उद्देश्य तो बाजार को पकड़ना है। शायद इसी आपाधापी में डिजाइनदार कपड़े बेचने के हर हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। रैंप पर माडलों के अर्धनग्न प्रदर्शन भी ऐसे ही हथकंडे हैं। हो भी क्यों नहीं। आजकल उत्पादों के एडवरटाइजमेंट की दुनियां में यह सब जायज जो माना जाता है। यह भी सही है कि इन डिजाइनरों की परिकल्पना ने परिधानों की दुनिया में क्रांति ला दी है मगर यह तब खटकने लगता है जब ऐसी डिजाइनों को तरजीह दी जाती है जो अश्लील तो होती ही हैं, उनकी उपयोगिता भी संदिग्ध लगती है। क्या बाजारवाद की चकाचौंध में आकंठ डूबे ये डिजाइनर आधुनिक परिधानों की खोज के साथ अपने हिंदुस्तान की पहचान भी कायम रख पाएंगे? फिलहाल जो दौर जारी है उसमें तो मुश्किल ही लगता है। इनमे से जो अपनी पहचान भी कायम रखने की दिशा में काम कर रहे हैं उनको हमारी शुभकामनाएं। कृपया बाजारवाद के नाम रोक दीजिए नग्नता का यह प्रदर्शन।
नीचे रैंप की जो तस्वीरें हैं वे बीबीसी से साभार ली गईं हैं। महज आपके अवलोकन के लिए। आप भी तय कर सकें कि इन परिधानों में कितनी भरी है अश्लीलता और कितना अपनी देशज पहचान का ध्यान रखा गया है।
Tuesday, 4 September 2007
तीन वरिष्ठ पत्रकारों को कारावास की सज़ा
जैसी करनी वैसी भरनी !
लखनऊ की एक अदालत ने एक प्रशासनिक अधिकारी का 'फ़र्ज़ी और छवि को नुक़सान पहुँचाने वाला इंटरव्यू' छापने के लिए तीन वरिष्ठ पत्रकारों को कारावास की सज़ा सुनाई है.
लखनऊ के चीफ़ जुडिशियल मजिस्ट्रेट ने दस साल तक चले मुक़दमे के बाद सोमवार को पॉयनियर अख़बार के तत्कालीन रिपोर्टर रमन कृपाल को एक वर्ष सश्रम कारावास और 5500 रुपए जुर्माना भरने की सज़ा सुनाई.
दो संपादकों और दो मैनेजरों को भी छह-छह महीने की क़ैद और ढाई हज़ार रुपए का जुर्माना भरने की सज़ा सुनाई गई है.
यह सज़ा अंग्रेज़ी दैनिक पॉयनियर और हिंदी दैनिक 'स्वतंत्र भारत' के पत्रकारों और प्रबंधकों को सुनाई गई है.
पॉयनियर के तत्कालीन संपादक अजित भट्टाचार्य, 'स्वतंत्र भारत' के तत्कालीन संपादक घनश्याम पंकज और प्रिंटर-प्रकाशक संजीव कंवर और दीपक मुखर्जी को भी छह-छह महीने की जेल की सज़ा सुनाई गई है.
घनश्याम पंकज ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि "यह एक बहुत कठोर फ़ैसला है" और वह इसके ख़िलाफ़ अपील करेंगे. उन्होंने कहा कि इस मामले में पॉयनियर समूह पूरी लड़ाई लड़ रहा है.
घनश्याम पंकज का कहना था कि उन्होंने तो पॉयनियर में प्रकाशित उस कथित इंटरव्यू के बारे में 'स्वतंत्र भारत' में संपादकीय टिप्पणी कर दी थी और उस इंटरव्यू को प्रकाशित करने या नहीं करने का फ़ैसला पॉयनियर के संपादक का था.
भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अनंत कुमार सिंह ने आरोप लगाया था कि पॉयनियर और 'स्वतंत्र भारत' ने अक्तूबर 1994 में उनका एक 'फ़र्ज़ी इंटरव्यू' प्रकाशित किया था.
अनंत कुमार सिंह तब मुज़फ़्फ़रनगर के ज़िलाधिकारी थे और उनका कहना है कि उस 'फर्ज़ी इंटरव्यू' में उनकी ओर से आपत्तिजनक बातें लिखी गईं थीं.
यह वो समय था जब उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाक़ों में उत्तराखंड अलग राज्य बनाने का आंदोलन चल रहा था. अलग राज्य की माँग के साथ भारी संख्या में लोग एक रैली निकालने के लिए दिल्ली की तरफ़ जा रहे थे.
मुज़फ़्फ़रनगर में पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश की और बल प्रयोग में कुछ लोगों की मौत भी हो गई. ऐसे भी आरोप लगाए गए थे कि ड्यूटी पर तैनात कुछ पुलिसकर्मियों ने कुछ महिला प्रदर्शनकारियों के साथ बलात्कार किया था.
'फ़र्ज़ी इंटरव्यू'
अंग्रेज़ी दैनिक पॉयनियर ने मुज़फ़्फ़रनगर के ज़िलाधिकारी अनंत कुमार सिंह का एक इंटरव्यू छापा था जिसे शीर्षक दिया गया था - "अगर कोई पुरुष किसी एकांत स्थान पर किसी महिला को अकेला पाएगा तो उसके साथ बलात्कार करने के लिए आतुर होगा."
इस इंटरव्यू में अनंत कुमार को यह कहते हुए बताया गया था, "आप तो जानते ही हैं कि यह मानव प्रवृत्ति है कि जब किसी जंगल में कोई महिला अकेली नज़र आए तो कोई भी पुरुष उसके साथ बलात्कार करने को आतुर होगा."
अनंत कुमार का यह तथाकथित इंटरव्यू पॉयनियर समूह के हिंदी अख़बार 'स्वतंत्र भारत' के लखनऊ संस्करण में भी प्रकाशित हुआ था.
मुज़फ़्फ़रनगर के ज़िलाधिकारी अनंत कुमार सिंह ने अपने लिखित बयान में कहा था कि पॉयनियर और 'स्वतंत्र भारत' में जो उनका इंटरव्यू प्रकाशित हुआ है वो फ़र्ज़ी है और रिपोर्टर रमन कृपाल उनसे कभी मिले ही नहीं हैं.
लेकिन वह अनंत कुमार सिंह का वह तथाकथित इंटरव्यू हर तरफ़ चर्चा का केंद्र बन गया था और अन्य अनेक अख़बारों ने भी उस तथाकथित इंटरव्यू को प्रकाशित किया था. अनेक अख़बारों ने अपने संपादकीय लेखों में ज़िलाधिकारी अनंत कुमार सिंह की तीखी आलोचना भी की थी.
अनेक संगठनों ने प्रस्ताव पारित करके अनंत कुमार सिंह के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई भी करने की माँग की थी.
अनंत कुमार सिंह की शिकायत पर 1996 में प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया ने परिस्थितियों को सनसनीख़ेज़ बनाने के लिए इस तरह का फ़र्ज़ी इंटरव्यू छापने के लिए उन तमाम अख़बारों और पत्रकारों की निंदा और भर्त्सना की थी. काउंसिल ने यह भी कहा था कि इस तरह का फ़र्ज़ी इंटरव्यू छापने से अनंत कुमार सिंह की छवि को नुक़सान पहुँचा है.
लेकिन अनंत कुमार सिंह प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के इस फ़ैसले से संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने इस मामले को आगे बढ़ाया और ख़ुद भी अदालत में दलीलें पेश कीं.
क़रीब दस साल के बाद गत सोमवार को लखनऊ के चीफ़ जुडीशियल मजिस्ट्रेट सुरेश चंद्र ने रिपोर्टर रमन कृपाल को एक साल के सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई.
अदालत ने दोनों पक्षों की बात सुनने के बाद कहा कि वह इंटरव्यू मनगढंत और भड़काऊ था और अभियुक्त पत्रकार यह साबित करने में नाकाम रहे हैं कि उन्होंने वाक़ई अनंत कुमार सिंह का कोई इंटरव्यू लिया था.
अदालत ने टिप्पणी की है कि अभियुक्त पत्रकारों ने प्रेस की आज़ादी के अपने अधिकार का दुरुपयोग किया है और इस मामले के किसी भी अभियुक्त ने अपने इस अधिकार का प्रयोग करने में सावधानी और ज़िम्मेदारी नहीं दिखाई.
अदालत ने यह भी कहा कि नैतिक ज़िम्मेदारी का अहसास रखने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा काम नहीं कर सकता जैसा कि रमन कृपाल ने किया है.
अभियुक्तों को अपील करने के लिए दो महीने का समय दिया गया है.
लखनऊ की एक अदालत ने एक प्रशासनिक अधिकारी का 'फ़र्ज़ी और छवि को नुक़सान पहुँचाने वाला इंटरव्यू' छापने के लिए तीन वरिष्ठ पत्रकारों को कारावास की सज़ा सुनाई है.
लखनऊ के चीफ़ जुडिशियल मजिस्ट्रेट ने दस साल तक चले मुक़दमे के बाद सोमवार को पॉयनियर अख़बार के तत्कालीन रिपोर्टर रमन कृपाल को एक वर्ष सश्रम कारावास और 5500 रुपए जुर्माना भरने की सज़ा सुनाई.
दो संपादकों और दो मैनेजरों को भी छह-छह महीने की क़ैद और ढाई हज़ार रुपए का जुर्माना भरने की सज़ा सुनाई गई है.
यह सज़ा अंग्रेज़ी दैनिक पॉयनियर और हिंदी दैनिक 'स्वतंत्र भारत' के पत्रकारों और प्रबंधकों को सुनाई गई है.
पॉयनियर के तत्कालीन संपादक अजित भट्टाचार्य, 'स्वतंत्र भारत' के तत्कालीन संपादक घनश्याम पंकज और प्रिंटर-प्रकाशक संजीव कंवर और दीपक मुखर्जी को भी छह-छह महीने की जेल की सज़ा सुनाई गई है.
घनश्याम पंकज ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि "यह एक बहुत कठोर फ़ैसला है" और वह इसके ख़िलाफ़ अपील करेंगे. उन्होंने कहा कि इस मामले में पॉयनियर समूह पूरी लड़ाई लड़ रहा है.
घनश्याम पंकज का कहना था कि उन्होंने तो पॉयनियर में प्रकाशित उस कथित इंटरव्यू के बारे में 'स्वतंत्र भारत' में संपादकीय टिप्पणी कर दी थी और उस इंटरव्यू को प्रकाशित करने या नहीं करने का फ़ैसला पॉयनियर के संपादक का था.
भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अनंत कुमार सिंह ने आरोप लगाया था कि पॉयनियर और 'स्वतंत्र भारत' ने अक्तूबर 1994 में उनका एक 'फ़र्ज़ी इंटरव्यू' प्रकाशित किया था.
अनंत कुमार सिंह तब मुज़फ़्फ़रनगर के ज़िलाधिकारी थे और उनका कहना है कि उस 'फर्ज़ी इंटरव्यू' में उनकी ओर से आपत्तिजनक बातें लिखी गईं थीं.
यह वो समय था जब उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाक़ों में उत्तराखंड अलग राज्य बनाने का आंदोलन चल रहा था. अलग राज्य की माँग के साथ भारी संख्या में लोग एक रैली निकालने के लिए दिल्ली की तरफ़ जा रहे थे.
मुज़फ़्फ़रनगर में पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश की और बल प्रयोग में कुछ लोगों की मौत भी हो गई. ऐसे भी आरोप लगाए गए थे कि ड्यूटी पर तैनात कुछ पुलिसकर्मियों ने कुछ महिला प्रदर्शनकारियों के साथ बलात्कार किया था.
'फ़र्ज़ी इंटरव्यू'
अंग्रेज़ी दैनिक पॉयनियर ने मुज़फ़्फ़रनगर के ज़िलाधिकारी अनंत कुमार सिंह का एक इंटरव्यू छापा था जिसे शीर्षक दिया गया था - "अगर कोई पुरुष किसी एकांत स्थान पर किसी महिला को अकेला पाएगा तो उसके साथ बलात्कार करने के लिए आतुर होगा."
इस इंटरव्यू में अनंत कुमार को यह कहते हुए बताया गया था, "आप तो जानते ही हैं कि यह मानव प्रवृत्ति है कि जब किसी जंगल में कोई महिला अकेली नज़र आए तो कोई भी पुरुष उसके साथ बलात्कार करने को आतुर होगा."
अनंत कुमार का यह तथाकथित इंटरव्यू पॉयनियर समूह के हिंदी अख़बार 'स्वतंत्र भारत' के लखनऊ संस्करण में भी प्रकाशित हुआ था.
मुज़फ़्फ़रनगर के ज़िलाधिकारी अनंत कुमार सिंह ने अपने लिखित बयान में कहा था कि पॉयनियर और 'स्वतंत्र भारत' में जो उनका इंटरव्यू प्रकाशित हुआ है वो फ़र्ज़ी है और रिपोर्टर रमन कृपाल उनसे कभी मिले ही नहीं हैं.
लेकिन वह अनंत कुमार सिंह का वह तथाकथित इंटरव्यू हर तरफ़ चर्चा का केंद्र बन गया था और अन्य अनेक अख़बारों ने भी उस तथाकथित इंटरव्यू को प्रकाशित किया था. अनेक अख़बारों ने अपने संपादकीय लेखों में ज़िलाधिकारी अनंत कुमार सिंह की तीखी आलोचना भी की थी.
अनेक संगठनों ने प्रस्ताव पारित करके अनंत कुमार सिंह के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई भी करने की माँग की थी.
अनंत कुमार सिंह की शिकायत पर 1996 में प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया ने परिस्थितियों को सनसनीख़ेज़ बनाने के लिए इस तरह का फ़र्ज़ी इंटरव्यू छापने के लिए उन तमाम अख़बारों और पत्रकारों की निंदा और भर्त्सना की थी. काउंसिल ने यह भी कहा था कि इस तरह का फ़र्ज़ी इंटरव्यू छापने से अनंत कुमार सिंह की छवि को नुक़सान पहुँचा है.
लेकिन अनंत कुमार सिंह प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के इस फ़ैसले से संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने इस मामले को आगे बढ़ाया और ख़ुद भी अदालत में दलीलें पेश कीं.
क़रीब दस साल के बाद गत सोमवार को लखनऊ के चीफ़ जुडीशियल मजिस्ट्रेट सुरेश चंद्र ने रिपोर्टर रमन कृपाल को एक साल के सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई.
अदालत ने दोनों पक्षों की बात सुनने के बाद कहा कि वह इंटरव्यू मनगढंत और भड़काऊ था और अभियुक्त पत्रकार यह साबित करने में नाकाम रहे हैं कि उन्होंने वाक़ई अनंत कुमार सिंह का कोई इंटरव्यू लिया था.
अदालत ने टिप्पणी की है कि अभियुक्त पत्रकारों ने प्रेस की आज़ादी के अपने अधिकार का दुरुपयोग किया है और इस मामले के किसी भी अभियुक्त ने अपने इस अधिकार का प्रयोग करने में सावधानी और ज़िम्मेदारी नहीं दिखाई.
अदालत ने यह भी कहा कि नैतिक ज़िम्मेदारी का अहसास रखने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा काम नहीं कर सकता जैसा कि रमन कृपाल ने किया है.
अभियुक्तों को अपील करने के लिए दो महीने का समय दिया गया है.
तब तो अवाम के कोप से आप भी नहीं बचोगे कामरेडों
देर से ही सही वामपंथी अपने ही समर्थन वाली केंद्र सरकार की अवांछित नीतियों का युद्धाभ्यास के विरोध के बहाने जनमत जुटाने सड़क पर उतर गए हैं। वामपंथियों से अवाम को ऐसी अपेक्षा हर उस मुद्दे पर थी जो आम आदमी के हितों के खिलाफ है। चाहे वह नौकरी अथवा जीविका की कानूनी गारंटी हो या फिर पीएफ पर ब्याज का मामला हो। हर बार यूपीए सरकार को बचाते नजर आते वामपंथियों ने भी गरीब या अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे मतदाताओं को निराश ही किया है। यह देश की वह आबादी है जिसे कभी कांग्रेस की रहनुमा इंदिरा गांधी पर बड़ा भरोसा था। गरीब, किसान, नौकरीपेशा और महिलाएं बड़ी उम्मीद रखते थे कांग्रेस और इंदिरा गांधी से। यही वजह थी कि केंद्र से कांग्रेस को तब तक कोई उखाड़ नहीं पाया जब तक कोंग्रेस और उसके नीति नियामकों की इस विशेष जरूरतमंद अवाम के प्रति प्रतिबद्धता रही। इसके बाद अवाम को यह समझते देर नहीं लगी कि कांग्रेस अब उनकी रहनुमा नहीं रही। नतीजा सामने है कि इंदिरा गांधी के रहते ही कांग्रेस का पतन भी शुरू हो गया। धरातल की सोच वाले नेताओं के पार्टी से गायब होते ही कांग्रेस की जमीन भी धसक गई। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और दक्षिण के आंध्र, तमिलनाडु व कर्नाटक जैसे मजबूत धरातल जातीय और क्षेत्रीय सरोकार वाले नेताओं-पार्टियों के वजूद बन गए। आम आदमी को जब ठगा जाता है तो इसी तरह इस लालू, मुलायम, कांशीराम, मायावती, एनटी रामाराव, जयललिता, प्रफुल्ल महंत, वीपी, चंद्रशेखर, चंद्रबाबू नायडू, ज्योति बसु वगैरह आम आदमी के रहनुमा बनकर उभरते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं मगर इस मायने में नुकसान तो देश का ही होता है। मौजूदा परिदृश्य में गरीबी व विकास की जगह क्षेत्रीयता व जातिवाद का बोलबाला है। यानी पूरे देश के अवाम की उपेक्षा और उसको बांधकर न रखकर पाने का खामियाजा अब राष्ट्र को भुगतना पड़ रहा है।
यह सब उदाहरण यहां सिर्फ इसलिए पेश किया ताकि गरीबों, किसानों, मजदूरों की वकालत करने वाले वामपंथी भी सावधान हो जाएं। इनका जब आसरा टूटेगा तो आपका भी वही हश्र होगा जो कांग्रेस का हुआ है। खुद से सवाल करें वामपंथी कि क्या इस देश से गरीबी समाप्त हो गई है? क्या यह देश इतना विकसित हो गया है कि इसे अमेरिका समझने लगें हम? क्या विकसित देशों के सारे मानदंड भारतीयों पर लागू किए जा सकते हैं? अगर नहीं, तो फिर सिर्फ अंधानुकरण कर रही कांग्रेस को सबक क्यों नहीं सिखाते? आम आदमी की परवाह नहीं तो फिर साम्यवाद के क्या मायने? सत्ता की जोड़-तोड़ में कहीं वामपंथ का मूल सिद्धांत तो ही नहीं भूल गए हैं? बुद्धदेव भट्टाचार्य भले मानते हों कि मौजूदा दौर में विकास के लिए नजरिया बदलना होगा मगर यह भी सत्य है कि आम आदमी की फिक्र करनी होगी। राजनीति की हिप्पोक्रेसी से भी लड़ना होगा। लेकिन कहां कोई लड़ रहा है? भाजपा जिस तरह से हिंदू कार्ड का इस्तेमाल कर रही है, उसी तरह से वामपंथियों समेत सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने मुस्लिम और जातिवादी कार्ड का सहारा ले रखा है। अब वामपंथियों को तय करने का समय आ गया है कि वे कांग्रेस व भाजपा की राह जाएंगे या इस देश को अपने सिद्धांतों के अनुकूल नया आयाम देंगे।
शायद तय भी कर लिया है तभी तो युद्धाभ्यास के विरोध के बहाने सड़क पर उतर गए हैं। इस विरोध की हकीकत तो तब सामने आएगी जब जनहित के सारे मुद्दे नकारने का कांग्रेस से हिसाब ले पाएंगे। फिलहाल तो कांग्रेस और वामपंथियों की तथाकथित लड़ाई सड़क पर आ गई है। जनहित या कांग्रेस का साथ दोनों में से एक को चुनना होगा अन्यथा कांग्रेस और वामपंथियों का फर्क भी खत्म हो जाएगा। केंद्र की सीधे सत्ता का जनता के पास अब एक ही प्रयोग बाकी है। और वह है वामपंथ का भारतीय संस्करण। कांग्रेस, भाजपा और दूसरी ताकतों ने हाल के प्रयोगों के बाद यह एक मौका था जब वामपंथी सत्ता में अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाते मगर कांग्रेस की फितरत और खुद की नाकामी ने वामपंथियों को ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है जहां उन्हें अब दो टूक फैसले लेने हैं। क्या जनहित के लिए सत्ता का मोह छोड़ पाएंगे वामपंथी?
सड़क पर उतरे वामपंथी ॰॰ विरोध का छलावा या हकीकत
अमरीका के साथ संयुक्त नौसैनिक अभ्यास के ख़िलाफ़ वामपंथी दलों के मंगलवार से देशव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरु कर दिया है.
वामपंथी दलों ने इस विरोध प्रदर्शन को 'जत्था' नाम दिया है और यह एक हफ़्ते तक चलेगा.
साथ ही वामपंथी नेताओं ने यूपीए सरकार को चेतावनी दी है कि यदि सरकार परमाणु समझौते को लेकर आगे बढ़ती है तो इसके नतीजे भुगतने होंगे.
इस बीच बंगाल की खाड़ी में भारत-अमरीका सहित पाँच देशों की नौसेना का संयुक्त अभ्यास शुरु हो चुका है.
इस अभ्यास में अमरीका के दो विमानवाही पोत और 11 अन्य जलपोत हिस्सा ले रहे हैं.
विरोध प्रदर्शन
जत्था की शुरुआत करते हुए कोलकाता में वरिष्ठ वामपंथी नेता और सीपीएम पोलित ब्यूरो के सदस्य ज्योति बसु ने केंद्र की यूपीए सरकार पर 'अमरीका की ओर झुकाव' का आरोप लगाया.
समचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक़ उन्होंने कहा, "यूपीए सरकार देश को अमरीकी पाले में ले जाने की कोशिश कर रही है, जो उस न्यूनतम साझा कार्यक्रम के ख़िलाफ़ है जिसके आधार पर वामपंथी दल यूपीए सरकार को समर्थन दे रहे हैं."
सीपीएम के महासचिव ने साफ़ कहा कि जब तक केंद्र के साथ गठित समिति की रिपोर्ट नहीं आ जाती, सरकार को अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के साथ समझौते की दिशा में कोई बातचीत नहीं करनी चाहिए.
सीपीआई महासचिव एबी बर्धन जो कोलकाता से लेकर विशाखापट्टनम तक जत्थे का नेतृत्व कर रहे हैं, ने कहा, "मैं नहीं जानता कि समिति की रिपोर्ट में क्या होगा लेकिन यदि सरकार ने समिति की चिंताओं को दरकिनार करके समझौते की ओर क़दम बढ़ाया तो उसे नतीजों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा."
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक़ संयुक्त नौसैनिक अभ्यास पर वामपंथियों के विरोध पर सरकार की ओर टिप्पणी करते हुए विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा है कि इस मुद्दे पर यह वामपंथी दलों की चिंता हो सकती है वैसे तो संयुक्त नौसैनिक अभ्यास 1992 से चल रहा है.
जत्था
लगभग एक हफ़्ते तक चलने वाले इस नौसैनिक अभ्यास के विरोध में सीपीआई के महासचिव एबी बर्धन कोलकाता से अपनी यात्रा की शुरु करके उड़ीसा होते हुए आठ सितंबर को विशाखापत्तनम पहुंचेंगे.
रास्ते में जगह-जगह पर रैलियाँ होंगी और विरोध प्रदर्शन आयोजित किए जाएंगे. कोलकाता में इस रैली को ज्योति बसु झंडा दिखा कर रवाना करेंगे.
इसी तरह चेन्नई में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम के नेता प्रकाश कारत विरोध की कमान संभालेंगे.
इस तरह के नौसैनिक अभ्यास पहले भी होते रहे हैं तो इस बार विरोध क्यों. इस पर सीपीआई के नेता अतुल कुमार अंजान का कहना है, “कौन सा अमरीका का हित है जो वह 20 हज़ार किलोमीटर दूर से आकर सैनिक अभ्यास कर रहा है. भारत को किससे ख़तरा है. यहाँ नए लोगों को चौधरी बनाया जा रहा है. ये सब आने वाले समय में विदेश नीति को पलीता लगा कर हमारे मुहाने पर अमरीकी सेना को खड़ा करने की कोशिश है.”
वाम दलों का कहना है कि उनकी अमरीका से कोई शत्रुता नहीं है और उनका विरोध अमरीका की साम्राज्यवादी नीतियों से है.
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