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फिर बेहद अशक्त और बीमार त्रिलोचन को अस्पताल की शरण लेनी पड़ी। गाजियाबाद के यशोदा अस्पताल में भर्ती हैं। सहारा का राष्ट्रीय चैनल अगर इसे खबर नहीं बनाता तो क्या पता चलता कि त्रिलोचन किस हाल में हैं। साहित्य अकादमी इस बार इस बीमार साहित्यकार की देखरेख की कुछ जिम्मेदारी उठायी है। त्रिलोचन जी के छोटे बेटे अमितप्रकाश ने ऐसा चैनल को भी बताया है। चैनल के मुताबिक दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी इलाज में मदद का भरोसा दिलाया है। बकौल अमितप्रकाश इस इमदाद के लिए दौड़धूप भी करनी पड़ती है मगर इतना वक्त वे नहीं निकाल पा रहे हैं। सवाल यह उठता है कि क्या त्रिलोचन के परिजनों को यह बार-बार बताना पड़ेगा कि राष्ट्रीय स्तर का यह साहित्यकार सिर्फ उनकी नहीं देश की भी जिम्मेदारी हैं। तो फिर इसके लिए दौड़धूप की अपेक्षा क्यों? अगर हो सके तो खुद ही सामने आकर त्रिलोचन की मदद की जानी चाहिए।
अगर भाषा और साहित्य ही किसी राष्ट्र की पहचान होती तो इसको समृद्ध करने में अपना जीवन खपा देने वाला साहित्यकार कहां से गौड़ हो जाता है। अगर कोई राजनेता इस काबिल समझा जाता है कि उसे सत्ता या शासन की मदद दी जानी चाहिए तो मान्यता हासिल कर चुके त्रिलोचन जैसे साहित्यकार क्यों नहीं। इसके लिए क्यों याचना करें उनके परिजन ? अगर ऐसा है तो यह हमारे समाज व संस्कृति के लिए शर्मनाक है। नीतिनियामकों को इसपर बड़ी संजीदगी से विचार करना चाहिए। क्यों कि ये सारी बातें यह तय करती हैं हमारे समाज की बुनियाद कितनी देर तक मजबूत रह पाएगी। हम भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में विकास की दायरा भी इसी से तय होगा। कहीं यह उपेक्षा हमें उस गर्त में नहीं पहुंचा दें जहां भ्रष्ट राजनीति भारत देश को ले जा रही है। त्रिलोचन का बहाना शायद वह संकल्प बन सकता जिससे उपेक्षित साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों को बेहाल होने से बचाया जा सके।
३० जुलाई २००७ को अपने इसी ब्लाग चिंतन पर -मुझको मेरे बाद जमाना ढूंढेगा शीर्षक से त्रिलोचनजी के हालात पर कुछ दस्तावेज व सुधी चिट्ठाकारों की छापी गई टिप्पणी भी अवलोकनीय है। उम्मीद है चिट्ठाकार भी अपनी आवाज बुलंद करेंगे। इससे पहले वोधिसत्व व चंद्रभूषण की कोशिश इस मुद्दे को प्रकाश में लाने में काफी कामयाब रही थी।
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