------------ आम कर्मचारियों की तरह सांसदों पर भी 'काम नहीं तो वेतन नहीं' का प्रावधान लागू होना चाहिए। ऐसा मानना है मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का। माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने सोमवार को कहा कि वर्किंग क्लास काम नहीं करता है, तो उसका वेतन काट लिया जाता है। आप सांसद हैं तो खुद को इससे बख्श रहे हैं। आपको इसका अधिकार किसने दिया। गौरतलब है कि स्वामी अग्निवेश के नेतृत्व में कुछ लोगों ने आज संसद भवन में इस माँग को लेकर प्रदर्शन किया। लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी इस तरह की बात पहले ही कह चुके हैं। ( भाषा )।-----------------
सांसदों के कामकाज पर यह वामपंथी नजरिया सही है। कम से कम माकपा तो अपने सासंदों और विधायकों पर इतनी नकेल कस कर रखती ही है। इनके सांसद सिर्फ अपनी मर्जी से सांसद निधि खर्च नहीं कर सकता। इसके लिए कई स्तर पर मंजूरी की जरूरत होती है। यह अलग बात है कि ये भी अधिकतम पार्टी हित के मद्देनजर ही इस निधि के इस्तेमाल को मंजूरी देते हैं। मगर सांसद निधि की उतनी बर्बादी नहीं हो पाती जितनी की बाकी दलों के जरिए होना संभव होता है।अन्य दलों के मामूली से विधायक भी इतनी जल्द अपार संपत्ति के मालिक हो जाते हैं जैसे वे जनसेवक नहीं बल्कि कोई बड़े उद्योगपति हों। माकपा को इनके कामकाज पर सवाल उठाने का हक है। खुद जब थोड़ी ईमानदारी बरतते हैं तो अपने सहयोगी दलों से यह अपेक्षा तो रख ही सकते हैं।
इससे पहले माकपा के वरिष्ठ नेता और लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी भी सांसद निधि को गैरजरूरी करार दे चुके हैं। वे इस पर राष्ट्रीय बहस भी चाहते थे मगर खुद पर लगाम की बात देशभर के अन्य सांसदों को रास नहीं आई। वे नियामक हैं इसी लिए शायद पाबंदी पसंद नहीं। वरना यह बहस तो होनी ही चाहिए कि जब विकास के लिए बजट बनता ही है तो सांसदों को व्यक्तिगत तौर पर जनता की गाढ़ी कमाई की इतनी भारी राशि देने की क्या जरूरत? अगर वे सचमुच विकास ही चाहते हैं तो इस किस्म का प्रस्ताव संसद में ला सकते हैं। संसद को आवश्यक लगा तो वह इसकी मंजूरी देगी। सांसद अपने क्षेत्र का सर्वे करके विकास के मुद्दे को मीडिया और संसद के जरिए उठा सकता है। जो कि जनसामान्य से जुड़े रहने और अपने कामकाज को प्रदर्शित करने का बेहतर मगर मेहनत वाला रास्ता है। तब शायद उसके कामकाज और वेतन पर सवाल भी उठाना मुश्किल हो जाएगा। लोग सांसदों को सुविधाएं और धनराशि मुहैया कराए जाने के पक्ष में नहीं हैं मगर वायदा करके चुनाव बाद महाराजा बनकर आमलोगों की अनदेखी तो अक्सर करते हैं हमारे सांसद। हर चुनाव में यह आरोप सभी पार्टियां एक दूसरे पर लगाती हैं। नई सत्ता अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को निकम्मी ही बताती है। इसका सीधा अर्थ है कि सांसद और विधायक ईमानदारी से काम नहीं करते और सरकारें उनके निकम्मेपन व भ्रष्टाचारों के कारण गर्त में मिल जाती हैं। माकपा नेता सीताराम येचुरी अगर इन सारी बातों के मद्देनजर काम नहीं तो वेतन नहीं का सवाल उठाते हैं तो इसमें गलत क्या है? क्या खुद सांसदों को इसपर ईमानदारी से नहीं सोचना चाहिए?
1 comment:
"सांसदों पर भी 'काम नहीं तो वेतन नहीं' का प्रावधान लागू होना चाहिए। "
यह एक बहुत अच्छा सुझाव है. काम करो, दाम लो!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
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