Friday, 30 November 2007
४६ साल बाद मुशर्रफ ने उतारी वर्दी
पाकिस्तान में चार ऐसे सेनाध्यक्ष रहे हैं जो राष्ट्रपति बनकर सत्ता पर क़ाबिज़ रहे। इनमें जनरल अय्यूब ख़ान, जनरल याहया ख़ान, जनरल ज़ियाउल हक़ और परवेज़ मुशर्रफ़ शामिल हैं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने लंबी अटकलों और भारी अंतरराष्ट्रीय और घरेलू दबाव के बीच 28 नवंबर 2007 को सेनाध्यक्ष का पद छोड़ दिया. परवेज़ मुशर्रफ़ ने अक्तूबर 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की सरकार का तख़्तापलट करके सत्ता पाई थी। वे क़रीब आठ साल तक सरकार के मुखिया के साथ-साथ सेनाध्यक्ष भी रहे और अब ४६ साल बाद उन्होंने वर्दी उतार दी है। लोकतंत्र बहाली का वादा करके बतौर असैनिक राष्ट्रपति शपथ ली। यह अलग बात है कि जनरल जियाउल हक ने भी जुल्फिकार अली भुट्टो का तख्ता पलटने के बाद सिर्फ तीन महीने में लोकतंत्र बहाली का वादा किया था जो कभी पूरा नहीं हुआ। देखिए मुशर्रफ के वादों का क्या होता है। पहले असैनिक राष्ट्रपति बन चुके मुशर्रफ के उस भाषण का अवलोकन करें जिसमें उन्होंने अपनी पूरी कवायद को लोकतंत्र की बहाली और पाकिस्तान की भलाई करार दिया है।
पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने २९ नवंबर को बतौर जनरल विदाई के बाद आयोजित भव्य समारोह में कहा है कि 16 दिसंबर को इमरजेंसी हटा ली जाएगी और चुनाव पूर्व घोषणा के अनुसार आठ जनवरी को ही कराए जाएंगे और चुनावों को किसी भी सूरत में नहीं टाला जाएगा. गुरूवार को असैनिक राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण करने के बाद परवेज़ मुशर्रफ़ ने कहा कि सरकार स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव चाहती है. उन्होंने कहा कि चुनावों की निगरानी के लिए जो देश चाहे और जितने चाहे, पर्यवेक्षक भेज सकता है.परवेज़ मुशर्रफ़ ने बुधवार, 28 नवंबर को सेनाध्यक्ष का पद छोड़ने के एक दिन बाद राष्ट्रपति पद के दूसरे कार्यकाल की शपथ ग्रहण की. इस मौक़े पर परवेज़ मुशर्रफ़ ने दोहराया कि वे पाकिस्तान में लोकतंत्र और मानवाधिकारों के लिए प्रतिबद्ध हैं. उन्होंने कहा कि यह एक भावनापूर्ण और ऐतिहासिक दिन है जब वे लगभग आधी सदी के बाद वर्दी उतारने के बाद असैनिक राष्ट्रपति के रूप में शपथ ले रहे हैं. उन्होंने इमरजेंसी लगाए जाने के अपने फ़ैसले की भी हिमायत की. वर्दी उतारने के लिए हुए समारोह की तुलना में कम भावुक नज़र आ रहे राष्ट्रपति मुशर्रफ़ ने पूर्व प्रधानमंत्रियों बेनज़ीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ़ की पाकिस्तान वापसी का स्वागत किया. उन्होंने कहा कि इन दोनों नेताओं की वापसी पाकिस्तान में लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत है और इससे राजनीतिक सहमति की शुरुआत हो सकेगी. दोनों नेताओं के नाम लिए बिना उन्होंने कहा, "जो लोग चुनाव बहिष्कार की धमकी दे रहे हैं उन्हें समझ लेना चाहिए कि चुनाव किसी भी सूरत में नहीं टाले जाएँगे और आठ जनवरी को नई सरकार के लिए चुनाव हो जाएंगे." उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली का आख़िरी दौर चल रहा है और इसमें कोई बाधा नहीं आने दी जाएगी. परवेज़ मुशर्रफ़ ने कहा, "पाकिस्तान में 1999 से पहले सही मायनों में लोकतंत्र कभी था ही नहीं" और उन्होंने तीन चरणों में लोकतंत्र स्थापित करने की कोशिश की है.
पहला चरण उन्होंने वर्ष 1999 से 2002 को बताया. यह वही समय था जब उन्होंन सेनाध्यक्ष के रूप में नवाज़ शरीफ़ का तख्ता पलटकर सत्ता अपने हाथों में ले ली थी.उन्होंने कहा कि इस चरण में उन्होंने पाकिस्तान को एक विफल राष्ट्र से एक उन्नतशील अर्थव्यवस्था में बदला.वर्ष 2002 से 2007 को दूसरा चरण बताते हुए उन्होंने कहा कि इस दौर में पाकिस्तान में लोकतंत्र को सार रूप में लागू किया गया.उन्होंने कहा, "सिर्फ़ चुनाव करवाने से ही किसी देश में लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो जाती. इस दौर में हमने महिलाओं से लेकर अल्पसंख्यकों तक सभी को अधिकार संपन्न बनाया और कार्यपालिका को अधिकार देते हुए मीडिया को स्वतंत्रता भी प्रदान की."मौजूदा दौर को तीसरा दौर बताते हुए उन्होंने इसरजेंसी लगाए जाने के फ़ैसले को सही ठहराया.उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के बर्खास्त किए गए मुख्य न्यायाधीश इफ़्तिख़ार चौधरी का नाम लिए बिना कहा कि पूर्व मुख्यन्यायाधीश लोकतंत्र बहाली की प्रक्रिया को षडयंत्रपूर्वक तरीके से बाधित करना चाहते थे.उन्होंने कहा कि देश के कई हिस्सों में ख़ासकर, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में 'आतंकवादी घटनाएँ' बढ़ गई थीं और मीडिया का एक हिस्सा ठीक तरह काम नहीं कर रहा था.परवेज़ मुशर्रफ़ ने इमरजेंसी शब्द का उपयोग किए बिना कहा, "यह एक अलग सी परिस्थिति थी और इसमें अलग सा क़दम उठाना ज़रुरी था."उन्होंने आरोप लगाया कि वे नियमानुसार 15 नवंबर को ही वर्दी छोड़ देना चाहते थे लेकिन सुप्रीम कोर्ट के रवैये के कारण वे ऐसा नहीं कर सके.
पश्चिमी देशों को सलाह
लोकतंत्र बहाली के लिए सलाह देने वाले पश्चिमी देशों के परवेज़ मुशर्रफ़ ने एक बार फिर अपनी पुरानी सलाह दोहराई है.उन्होंने पश्चिमी देशों से कहा कि वे लोकतंत्र और मानवाधिकारों को पाकिस्तान में उस तरह लागू नहीं करवा सकते जिसे उन्होंने सदियों के अनुभव के बाद हासिल किया है.उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में लोकतंत्र अपनी तरह से लागू होगा और फिर उसमें धीरे-धीरे बदलाव आएगा.उन्होंने कहा कि किसी भी देश में समाज परिवर्तन को धीरे-धीरे स्वीकार करता है इसमें दशकों और सदियों का समय लगता है.उन्होंने लोकतंत्र बहाली की इस प्रक्रिया में लगने वाले समय को बर्दाश्त करने की अपील करते हुए पश्चिमी देशों से सहायता का भी अनुरोध किया.परवेज़ मुशर्रफ़ ने देश की जनता से वादा किया, "मैं जो भी निर्णय लूँगा उसमें पाकिस्तान का हित सर्वोपरि होगा."शपथ ग्रहण समारोह के बाद परवेज़ मुशर्रफ़ ने सलामी गारद का निरीक्षण भी किया.
जनरल मुशर्रफ़ का वह दौर
सेनाध्यक्ष का पद छोड़ने के राष्ट्रपति मुशर्रफ़ के फ़ैसले को 1999 में सैन्य तख्तापलट के बाद का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय माना जा रहा है.1999 में तख्तापलट के ज़रिए मुशर्रफ़ सत्ता पर काबिज़ हुए थे. हालांकि तख्तापलट के बाद उनका रास्ता उतना आसान नहीं रहा जितना उन्होंने सोचा था.आगे चलकर वो राष्ट्रपति बने लेकिन दूसरी बार राष्ट्रपति पद की शपथ लेने से पहले उन्हें आपातकाल लगाना पड़ा और सुप्रीम कोर्ट के कई न्यायाधीशों को बर्खास्त करना पड़ा. आपातकाल को लेकर हो रहा विवाद उनका पीछा शायद ही छोड़े. आने वाले दिनों में वो चुनाव के ज़रिए जीत कर आने वाले प्रधानमंत्री और नए सैन्य प्रमुख के साथ सत्ता की भागेदारी करेंगे.हालांकि चुनी गई सरकार को बर्खास्त करने का अधिकार राष्ट्रपति के पास रहेगा लेकिन इस तरह का फ़ैसला इस बात पर निर्भर करेगा कि नया प्रधानमंत्री कितना लोकप्रिय है और सेना राष्ट्रपति का कितना साथ देती है. इससे पहले भी राष्ट्रपति की किसी भी प्रकार की कार्रवाई सेना के समर्थन पर निर्भर करती रही है लेकिन पिछले कुछ समय में सेना की भी कड़ी आलोचना होती रही है. आलोचक मानते हैं कि नए सैन्य प्रमुख के लिए सबसे बड़ी चुनौती सेना की छवि सुधारना और सैनिकों का मनोबल ऊंचा करना होगा. उधर मुशर्रफ़ चाहेंगे कि उन्हें सेना का समर्थन मिलता रहे और वोलोकतांत्रिक तौर पर चुने गए नेताओं के साथ सत्ता में पूरी भागेदारी न करने के सेना के सामूहिर रवैये का फ़ायदा उठाएं. ये तो आगे की बात हुई, तत्काल अगर देखा जाए तो मुशर्रफ़ के लिए सबसे बड़ी चिंता आने वाले चुनावों में पाकिस्तान मुस्लिम लीग क्यू के प्रदर्शन को लेकर है क्योंकि यह दल उन्हें पूर्व में रबर स्टांप जैसी संसद उपलब्ध कराती रही है. लेकिन अगर पीएमएल क्यू का प्रदर्शन इतना बेहतर होता है कि प्रधानमंत्री उनका बने तो इसमें आश्चर्य नहीं कि यह पार्टी भी मुशर्रफ़ के हाथ बांधने में पीछे नहीं रहेगी. इतना ही नहीं कुछ आलोचकों के अनुसार चुनावों में गड़बड़ी करने की मुशर्रफ़ की कोई कोशिश उनके लिए आखिरी लड़ाई साबित हो सकती है परवेज़ मुशर्रफ़ के पाँच वर्ष के कार्यकाल में देश में हुई प्रगति का जो ब्यौरा दिया गया है उनमें दस नए टीवी चैनल खुलने और एफएम रेडियो स्टेशनों की स्थापना का भी उल्लेख है.कहा गया है कि मीडिया की आज़ादी और प्रसार के ज़रिए पाकिस्तान की मौजूदा सरकार लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहती है.एक और उदाहरण मोबाइल फ़ोन और इंटरनेट के क्षेत्र में हुए विकास का दिया गया है, सरकार का कहना है कि 1999 में देश में सिर्फ़ दो लाख मोबाइल फ़ोन कनेक्शन थे जो अब बढ़कर 40 लाख हो गए हैं जबकि इंटरनेट कनेक्शन भी इतनी ही तेज़ी से बढ़े हैं.जबकि पाकिस्तान की विपक्षी पार्टियों का कहना है कि परवेज़ मुशर्रफ़ के कार्यकाल में देश में अव्यवस्था बढ़ी है, ग़रीबों की समस्याएँ बढ़ी हैं.
बेनज़ीर भुट्टो की कोशिशें
पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो इस समय उसी व्यवस्था की स्थापना करने में लगी हुई हैं जिसके कारण नब्बे के दशक में उन्हें खासा नुकसान उठाना पड़ा था.दो बार प्रधानमंत्री चुनी गईं बेनज़ीर को दोनों ही बार तत्कालीन राष्ट्रपतियों ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए बर्खास्त कर दिया था.लेकिन आलोचकों और विशेषज्ञों का मानना है कि बेनज़ीर अब पहले से अधिक चतुर हो गई हैं. अमरीका और पाकिस्तान के प्रशासन में उनकी ज़बर्दस्त नेटवर्किंग के कारण उन्हें पाकिस्तान वापसी में ख़ास मुश्किलें नहीं हुई हैं. उन्होंने पाकिस्तान आते ही न केवल मुशर्रफ़ को चुनौती दी बल्कि पीएमएल क्यू को भी पंजाब प्रांत में खुली चेतावनी दे डाली है.वरिष्ठ पाकिस्तानी विशेषज्ञ इरशाद अहदम हक्कानी कहते हैं कि बेनज़ीर न केवल खुद वापस आईं बल्कि अमरीकी प्रशासन को नवाज़ शरीफ़ की वापसी को समर्थन देने के लिए भी राज़ी किया है.बेनज़ीर को सिंध प्रांत में व्यापक समर्थन है और पंजाब में भी उनके समर्थकों की संख्या में इज़ाफा हुआ है. पंजाब नवाज़ शरीफ़ का गढ़ माना जाता है और अगर बेनज़ीर पंजाब में पीएमएल क्यू और नवाज़ शरीफ़ के लिए तिकोने संघर्ष की स्थिति पैदा कर दें तो यह बड़ी बात होगी.कहा ये भी जा रहा है कि वो नवाज़ शरीफ़ के साथ पंजाब में सीटों की भागेदारी पर भी विचार कर रही हैं ताकि पीएमएल क्यू की उपस्थिति नगण्य हो सके.हालांकि नवाज़ शरीफ़ के संभावित चुनावी बहिष्कार और चुनावी धांधली की स्थिति में त्रिशंकु संसद बनेगी जिसमें बेनज़ीर के विकल्प सीमित हो सकते हैं
नवाज़ शरीफ़ की मुश्किलें
नवाज़ शरीफ़ भी उन नेताओं में हैं जो दो बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे हैं और उन्हें बेनज़ीर भुट्टो से कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ रहा है.लेकिन अगर उनकी पार्टी पूरा ज़ोर लगा दे तो वो पंजाब मे बेहतरीन प्रदर्शन कर पीएमएल क्यू को ख़त्म कर सकते हैं.सन् 2000 में अदालत द्वारा सज़ा सुनाए जाने के कारण भी नवाज़ शरीफ़ की उम्मीदवारी शक के घेरे में है. उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी जिसे राष्ट्रपति मुशर्रफ़ ने माफ़ कर दिया पर इसके बाद ही मुशर्रफ़ ने उन्हें निर्वासित कर दिया था.शायद यही कारण है कि नवाज़ शरीफ़ के चुनाव में भागेदारी के लिए कड़ी शर्ते रखी हैं. उनकी मांग है कि राष्ट्रपति मुशर्रफ़ तीन नवंबर को आपातकाल की घोषणा के बाद सुप्रीम कोर्ट के बर्खास्त किए गए सभी न्यायाधीशों बहाल करें.ऐसा संभव नहीं है क्योंकि इन्हीं न्यायाधीशों की बर्खास्तगी के बाद अब मुशर्रफ़ दोबारा राष्ट्रपति पद की शपथ लेने वाले हैं. नवाज़ शरीफ़ ने यह भी कहा है कि वो ऐसी किसी सरकार में प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे जिसके राष्ट्रपति मुशर्रफ़ हों. यही कारण है कि नवाज़ शरीफ़ के लिए चुनावों का बहिष्कार करना सबसे अच्छा विकल्प है लेकिन इसके लिए उन्हें बेनज़ीर का भी समर्थन चाहिए होगा. दूसरा विकल्प ये है कि नवाज़ शरीफ़ बेनज़ीर के साथ मिलकर पीएमएल क्यू के ख़िलाफ लड़ें. पीएमएल क्यू नवाज़ शरीफ़ की पार्टो को तोड़कर ही बनवाई गई थी.
जुल्फिकार अली भुट्टों का लोकतंत्र
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने देश में राजनीतिक जागरूकता का दौर शुरू किया. ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को चार अप्रेल 1979 को फाँसी दे दी गई थी.भुट्टो को पाकिस्तान में एक नए दौर का प्रतीक माना जाता है और कहा जाता है कि उन्होंने लोगों को न सिर्फ़ अपने अधिकारों का अहसास दिलाया बल्कि राजनीतिक को भी राजाओं-ज़मींदारों के घरों से बाहर निकाला.भुट्टो के दौर के बारे में कहा जाता है उन्होंने समाज के तथाकथित निचले तबकों के लोगों को भी यह अहसास दिलाया कि उनके वोट की क्या अहमियत है और वे इसे अपनी इच्छानुसार इस्तेमाल कर सकते हैं.पाकिस्तान में 1947 से अब तक ज़्यादातर समय सेना का ही शासन रहा है और 1973 में जब ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने लोकतंत्र का दौर शुरू किया.लेकिन वे ज़्यादा दिन तक नहीं टिक सके और 1977 में उन्हें इस पद से हटा दिया गया. इतना ही नहीं उन पर अपने एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की हत्या का आरोप लगाया गया.एक मुक़दमें में उन्हें दोषी क़रार दिया गया हालाँकि इस मामले में फ़ैसला सुनाने वाले जजों की निष्पक्षता पर भी उंगलियाँ उठाई गई थीं.कहा जाता है कि उन्हें फ़ाँसी देने से पहले कोई चेतावनी भी जारी नहीं की गई.भुट्टो के परिवार को उस समय नज़रबंद कर दिया गया था लेकिन उनकी बेटी बेनज़ीर भुट्टो को फाँसी से पहले अपने पिता से मिलने की इजाज़त दे दी गई थी.बेनज़ीर भुट्टो बाद में प्रधानमंत्री बनीं.
भुट्टो की फाँसी
उस समय सैनिक तानाशाह जनरल ज़ियाउल हक़ थे और सेना की तरफ़ से भुट्टो को फाँसी दिए जाने की सही जानकारी नहीं दी गई थी. प्राप्त जानकारी के अनुसार भुट्टो को स्थानीय समय के मुताबिक़ आधी रात के बाद क़रीब दो बजे रावलपिंडी की ज़िला जेल में फाँसी दी गई. लेकिन दुनिया को भुट्टो की फाँसी के बारे में तब पता चला जब सरकारी रेडियो पर स्थानीय समय के मुताबिक़ ग्यारह बजे इस बारे में सूचना दी गई.फाँसी देने के बाद उनके शव को सिंध प्रांत में उनके गृहनगर ले जाया गया और वहाँ उन्हें दफ़ना दिया गया.ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो की पत्नी नुसरत भुट्टो और बेटी बेनज़ीर भुट्टो को जनाज़े में शामिल होने की इजाज़त नहीं दी गई.भुट्टो के साथ-साथ चार अन्य लोगों को भी हत्या का दोषी पाया गया था और वे जेल में बंद रखे गए.ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो एक धनी और प्रभावशाली परिवार से संबंध रखते थे. हालाँकि उन्हें अपने ही अंदाज़ में चलने वाले एक नेता के रूप में देखा जाता था लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी काफ़ी इज़्ज़त थी.कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो की मौत के बाद पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ जाएगा.उस समय संयुक्त राष्ट्र महासचिव कुर्त वाल्दहीम ने ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को फाँसी दिए जाने की निंदा की थी.पाकिस्तान के तत्कालीन सैनिक तानाशाह जनरल ज़ियाउल हक़ ने भुट्टो पर दया दिखाने की तमाम अंतरराष्ट्रीय अपीलों को खारिज कर दिया था.
तानाशाही का दौर
पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल ज़ियाउल हक़ ने पाँच जुलाई 1977 को ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की सरकार का तख़्ता पलटकर सत्ता अपने हाथों में ले ली थी और इसी के साथ देश के इतिहास में एक नया दौर शुरू हुआ था जो 17 अगस्त 1988 को उनकी मौत के साथ समाप्त हुआ. अपने शासन काल में उन्होंने चुनाव कराने का कई बार वादा किया लेकिन उस पर अमल टालते भी रहे.सत्ता अपने हाथों में लेने के बाद टेलीविज़न पर अपने भाषण में जनरल ज़ियाउल हक़ ने कहा था कि उनका कोई राजनीतिक मक़सद नहीं है और भरोसा दिलाया था कि वह तीन महीने के अंदर चुनाव करा देंगे जिसके बाद सत्ता चुनी हुई सरकार को सौंप दी जाएगी और सेना अपनी ड्यूटी में लग जाएगी.लेकिन 17 अगस्त 1988 को एक विमान दुर्घटना में उनकी मौत होने तक वह सैनिक शासक ही रहे.1977 में तमाम विपक्षी नेताओं को नज़रबंद कर दिया गया था और कहा गया था उन्हें सिर्फ़ कुछ ही समय के लिए नज़रबंद किया जा रहा है. ज़ियाउल हक़ ने कहा था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने देश को अस्थिर किया है जिसकी वजह से सेना को दख़ल देनी पड़ी है. भुट्टो को 1979 में फाँसी दे दी गई थी.लेकिन जनरल ज़ियाउल हक़ ने 17 अगस्त 1988 को एक विमान हादसे में अपनी मौत तक सत्ता अपने हाथों में ही रखी और 11 साल के उनका शासन काल में देश की राजनीति में अनेक उतार चढ़ाव आए.
ज़ियाउल हक़ ने तीन महीने के अंदर चुनाव कराने का वादा किया था लेकिन चुनाव कई बार स्थगित किए गए और चुनाव हुए तो ख़ुद के मनोनीत किए गए प्रधानमंत्री मोहम्मद ख़ान जुनेजो को भी बर्ख़ास्त कर दिया था.जब जनरल ज़ियाउल हक़ ने जुनेजो को बर्ख़ास्त किया था---29 मई 1988 का दिन पाकिस्तान के इतिहास में ख़ासी अहमियत रखता है क्योंकि उस दिन देश के फौजी शासन ने अपनी ही चुनी हुई सरकार को कुछ इस तरह बर्ख़ास्त किया कि आने वाले दिनों में साफ़ हो जाए कि इस देश में सेना के साथ मिलकर सत्ता चलाना तो संभव है लेकिन सत्ता असैनिक नेताओं के हाथों में कभी नहीं आ सकती.और अगर कोई ऐसा करने की जुर्रत करेगा तो अपने अंजाम को पहुँचेगा.मोहम्मद ख़ान जुनेजो पश्चिमी देशों के दौरे से 29 मई 1988 को लौटने पर हवाई अड्डे पर संवाददाताओं से रूबरू थे कि तभी सूचना मंत्रालय के प्रेस सूचना विभाग के कुछ अधिकारियों ने वरिष्ठ पत्रकारों को सरगोशियों में संदेश देना शुरू कर दिया कि उन्हें जुनेजो के संवाददाता सम्मेलन के बाद राष्ट्रपति भवन पहुँचना है.जुनेजो का संवाददाता सम्मेलन काफ़ी लंबा खिंच गया था इसलिए कुछ पत्रकारों ने राष्ट्रपति भवन जाने के बजाय अपने दफ़्तरों की तरफ़ रुख़ करने का फ़ैसला किया लेकिन फिर भी कुछ पत्रकार राष्ट्रपति भवन पहुँच ही गए.कुछ देर बाद शेरवानी पहने हुए जनरल ज़ियाउल हक़ पत्रकारों के सामने आए और पत्रकारों को बुलंद आवाज़ में सलाम किया. उन्होंने पहले से तैयार किया हुआ संदेश पढ़ना शुरू किया. यह संविधान के 58वें संशोधन के तहत जुनेजो सरकार और प्रांतीय और केंद्रीय एसेंबलियों को बर्ख़ास्त करने का हुक्मनामा था.जिस संसद ने तीन साल पहले फौजी सरकार के अनुरोध पर यह संवैधानिक संशोधन किया था वह ख़ुद ही उसका निशाना बन गई थी.
लोकतंत्र के पक्षधर जुनेजो
प्रधानमंत्री मोहम्मद ख़ान जुनेजो कई अर्थों में विशिष्ट हस्ती थे. उन्हें जनरल ज़ियाउल हक़ ने ख़ुद इस पद के लिए चुना था लेकिन सत्ता में आने के बाद जुनेजो की यह पूरी कोशिश रही कि जितना जल्दी हो सके पूर्ण लोकतंत्र क़ायम किया जाए.इस सिलसिले में उन्होंन कई अहम फ़ैसले भी किए और कुछ मौक़ों पर तो सैनिक अधिकारियों की आलोचना भी की. फौज की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ अफ़ग़ानिस्तान का मसला हल करने की ख़ातिर उन्होंने जिनेवा समझौता किया.और जब आई एस आई की निगरानी में क़ायम शस्त्रागार में तबाही मची तो उन्होंने उसकी खुली जाँच का आदेश भी दिया.अलबत्ता ये तमाम फ़ैसले करते वक़्त जुनेजो ये भूल गए कि देश का राष्ट्रपति एक सैनिक जनरल भी है और जुनेजो की सत्ता हस्तांतरण असैनिक प्रतिनिधियों के हाथों में सौंपने की कोशिश उन्हें ख़ासी महंगी पड़ी.संवाददाताओं का कहना है कि ज़ियाउल हक़ के शासन काल में धार्मिक कट्टरता बढ़ी और धर्मनिर्पेक्ष मानी जाने वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेताओं को काफ़ी दबाव में रखा गया.संवाददाताओं के अनुसार ज़ियाउल हक़ ने प्रेस की आज़ादी पर भी कुठाराघात किया और ऐसा भी सुनने में आया कि पत्रकारों को कौड़े भी लगाए गए.1977 में सत्ता संभालने के दो साल बाद ही 1979 में पाकिस्तान के पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सेनाएँ घुस गई थीं जिनके ख़िलाफ़ पश्चिमी देशों के अभियान में जनरल ज़ियाउल हक़ को काफ़ी मददगार पाया गया था.
Monday, 26 November 2007
तस्लीमा के मायने
पश्चिम बंगाल में कट्टरपंथियों के हिंसक विरोध के बाद दर-बदर हुईं बांग्लादेश की विवादास्पद लेखिका तस्लीमा नसरीन के प्रति वाममोर्चा की बुद्धदेव सरकार के रवैए ने कई सवाल और राजनैतिक संकट खड़े कर दिए हैं। पहले तो यही कि सत्ता और वोट की खातिर एक सिद्धांतवादी सरकार कट्टरपंथियों के आगे झुक गई। यही सरकार इन्हीं तसलीमा को पश्चिम बंगाल में बाकायदा प्रगतिशीलता के परिचय देते हुए तब संरंक्षण और शरण दिया था जब इनकी दूसरी विवादास्पद पुस्तक द्विखंडिता प्रकाशित की गई थी। कोलकाता पुस्तक में तस्लीमा ने बाकायदा भ्रमण किया। तब कट्टरपंथी विरोध जरूर कर रहे थे मगर इतने हिंसक होने की औकात नहीं थी। साफ कहा जा सकता है कि कट्टरपंथ के आगे तब किसी भी हाल में न झुकने की दृढ़ता दिखाई थी बुद्धदेव ने। तस्लीमा बेखौफ कोलकाता में रह रहीं थीं मगर आज बुद्धदेव के सामने ऐसी क्या मजबूरी आ गई कि खुद सरकार को तस्लीमा को गुपचुप बंगाल निकाला करके जयपुर भेजना पड़ा। इसमें उनके कोलकाता के मारवाड़ी सहायकों ने मदद की। इसमें स्पष्ट नाम राजस्थान फाउंडेशन के संदीप भूतोड़िया का लिया जा रहा है। अब पता नहीं भूतोड़िया ने ऐसा करके मुख्यमंत्री व वाममोर्चा सरकार की मदद की या राजकीय व संवैधानिक संरक्षण से वंचित तस्लीमा की। जो भी हो भूतोड़िया तो सरकार के संकट मोचक बन गए और तस्लीमा के मददगार मगर इस पूरी कवायद ने राजनैतिक संकट खड़ा कर दिया है। पहला तो यही कि क्या धर्म के आधार पर ऐसा कोई सरकार कर सकती है जैसा तसलीमा के साथ किया गया। दूसरी बात यह कि अगर इसी तरह कट्टरपंथियों के आगे सरकारें सत्ता व वोट की खातिर झुकतीं रहीं तो इस देश में संविधानिक व्यवस्था का क्या भविष्य होगा। क्या दलाई लामा को देश से बाहर करने की जहमत उठाई जा सकती है। अगर नहीं तो तसलीमा को राजनैतिक संरक्षण के मुद्दे पर क्यों ढुलमुल रवैया अपनाया जा रहा है। जब गुजरात के नरेंद्र मोदी साफ-साफ शब्दों में तस्लीमा को शरण देने को तैयार हैं तो बाकी को क्यों ड़र लग रहा है। तस्लीमा का सवाल छोड़ भी दिया जाए तो क्या यह मान लिया जाए कि अब किसी भी मुद्दे पर कट्टरपंथी सरकारों को अपने हिसक विरोध के बल पर झुका देंगे। अगर ऐसा ही है तो यह देश के लिए बहुत भयावह स्थिति हो गई है। भारतीय राजनीति में तो माफियाओं ने कब्जा कर ही लिया है। ताजा उदाहरण तो अनंत सिंह का सामने ही है कि वे उन पत्रकारों को सरआम बांधकर पीटते हैं जो उनसे सवाल पूछने जाते हैं। आम जनता इन माफियाओं के जुल्म से बेफिक्र होकर जी नहीं पा रही है। पत्रकार धमकाए व पीटे जा रहे हैं और अपनी जमीन देने से मना करने और विरोध करने पर माकपा के कैड़रों ने नंदीग्राम में किसानों का जीना मुहाल कर दिया है । हमारी चुनी सरकार के मुख्यमंत्री बुद्धदेव बाकायदा एलान करते हैं कि हमने बदला चुका लिया। उधर नरेंद्र मोदी गुजरात में लोगों को संविधानिक सुरक्षा देने की जगह क्रिया-प्रतिक्रिया का न्यूटन का सिद्धांत लागू कर देते हैं तो फिर देश में सुरक्षित कौन बचेगा। यह तो संविधानिक संकट भी है। क्या मोदी और बुद्धदेव को लोगों को संविधानिक
सुरक्षा प्रदान की जिम्मेदारी नहीं। सरकार का मुखिया होने के नाते उनकी सबसे पहली जिम्मेदारी नागरिकों को संविधानिक सुरक्षा प्रदान करने की है मगर इसका न तो मोदी ने निर्वाह किया और न कामरेड बुद्धदेव ने। स्पष्ट है कि दोनों ने अपनी सत्ता के लिए उस संविधानिक जिम्मेवारी को नहीं निभाई जिसकी मुख्यमंत्री बनते वक्त शपथ ली थी।
तब आम आदमी अब किस पर भरोसा करे। क्या ख्द कानून हाथ में ले, शस्त्र उठाए। अगर ऐसा है तो राज करने वालों सावधान हो जाओ क्यों कि जनक्रांति तुम्हें भी कुचल देगी। बेहतर है संविधान के दायरे में रहकर अपनी जिम्मेदारियां निभाओं, अवाम को हथियार उठाने पर मत मजबूर करो। तुम पर भरोसा है अवाम को तो इस भरोसे को कायम रखने में ही देश की भलाई भी है। नंदीग्राम और तस्लीमा के मामले में गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाकर जो संकट खड़ा किया है उसे खुद ही खत्म करना होगा। लोकतंत्र को ताकत का गुलाम बनाना न तो देश हित में है न ही आप राजनेताओं के लिए श्रेयस्कर।
सुरक्षा प्रदान की जिम्मेदारी नहीं। सरकार का मुखिया होने के नाते उनकी सबसे पहली जिम्मेदारी नागरिकों को संविधानिक सुरक्षा प्रदान करने की है मगर इसका न तो मोदी ने निर्वाह किया और न कामरेड बुद्धदेव ने। स्पष्ट है कि दोनों ने अपनी सत्ता के लिए उस संविधानिक जिम्मेवारी को नहीं निभाई जिसकी मुख्यमंत्री बनते वक्त शपथ ली थी।
तब आम आदमी अब किस पर भरोसा करे। क्या ख्द कानून हाथ में ले, शस्त्र उठाए। अगर ऐसा है तो राज करने वालों सावधान हो जाओ क्यों कि जनक्रांति तुम्हें भी कुचल देगी। बेहतर है संविधान के दायरे में रहकर अपनी जिम्मेदारियां निभाओं, अवाम को हथियार उठाने पर मत मजबूर करो। तुम पर भरोसा है अवाम को तो इस भरोसे को कायम रखने में ही देश की भलाई भी है। नंदीग्राम और तस्लीमा के मामले में गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाकर जो संकट खड़ा किया है उसे खुद ही खत्म करना होगा। लोकतंत्र को ताकत का गुलाम बनाना न तो देश हित में है न ही आप राजनेताओं के लिए श्रेयस्कर।
Tuesday, 20 November 2007
युद्धदेव के राज में गुंडो का नंदीग्राम
नंदीग्राम में जो कुछ हुआ उसे कोलकाता के अखबारी दुनिया को भी उद्देलित कर दिया है। यहां की राजनीति में भूचाल तो आया ही, बुद्धिजीवी भी सड़क पर उतर आए। जिस तरह से राजनीति में जवाबी कार्रवाई हुई उसी तरह बुद्धिजीवी भी दो खेमे में बंटकर आमने-सामने आ गए हैं। कोलकाता से छपने वाले अंग्रेजी अखबार टाइम्स आफ इंडिया, दी टेलीग्राफ, दी इंडियन एक्सप्रेस, दी स्टेट्समैन, हिंदुस्तान टाइम्स के अलावा हिंदी अखबार जनसत्ता, प्रभात खबर, राजस्थान पत्रिका, सन्मार्ग ने नंदीग्राम में माकपा के हिंसक चेहरे से नकाब उठाया है। बांग्ला अखबार आनंदबाजार पत्रिका, वर्तमान, प्रतिदिन ने भी माकपा की नंदीग्राम में गुंडागर्दी को उजागर किया है। इनमें से माकपा के मुखपत्र गणशक्ति ने सरकार के पक्ष को दुरुस्त रखने की कोशिश की है मगर माकपा पर हो रहे चौतरफे हमले में गणशक्ति की आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई है।
इन सबने अपनी रिपोर्ट में साफ तौर पर स्पष्ट किया है कि किस तरह पुलिस को निष्क्रिय रहने का आदेश देकर माकपा के कैडरों को नंदीग्राम में मनमानी की छूट दे दी गई। स्थानीय लोगों के मोबाइल छीनकर और स्थानीय पीसीओ बंद कराकर पूरी संचार व्यवस्था को ठप कर दिया था माकपा कैडरों ने। नृशंश होकर महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया गया। विस्तार से नंदीग्राम के लोगों की दुर्दशा पर टाइम्स ने कई लेख छापो हैं। धर्मनिरपेक्ष माकपा का चेहरा दी इंडियन एक्सप्रेस ने बेनकाब किया है। २० नवंबर के अंक में दी इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है कि नंदीग्राम में माकपा कैडरों की गुंडागर्दी के अधिकतर शिकार मुसलमान ही हुए हैं। जो माकपा के धर्मनिरपेक्ष चेहरे का एक और सच है।
वर्तमान बांग्ला अखबार को तो अपने संवाददाता सम्मेलन में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने बाकायदा बंद कराने की धमकी तक दे डाली। वजह वही कि वह अपनी खबरों से सरकार की गुंडागर्दी को बेखौफ होकर उजागर कर रहा है।
हिंदी अखबारों ने इतना निर्भीक होने का परिटय तो नहीं दिया मगर जनसत्ता हिंदी दैनिक में अखबार के पूर्व संपादक व वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने बुद्धदेव के उस हुंकार को बेनकाब किया है जिसमें नंदीग्राम पर कब्जा के बाद कहा गया कि- माकपा ने हिसाब बराबर कर दिया है। सभी के लेख को यहां दिया जाना संभव नहीं मगर प्रभाष जोशी के लेख को पीडीएफ फार्म में दे रहा हूं। दो दिन के अंक में दोनों दिन बाटम में प्रभाष जोशी का लेख छपा है। जनसत्ता के पूरे पेज के साथ लेख के साथ दिया है। पूरा लेख टर्न के साथ बगल में ही रखा है। आप भी अवलोकन करिए कि एक संपादक के नजरिए से नंदीग्राम के मायने क्या हैं। लेख का शीर्षक है- इनका काडर संविधान और लोकतंत्र से उपर और बड़ा है और दूसरा है- युद्धदेव के राज में गुंडो का नंदीग्राम। इसके अलावा जनसत्ता में इसी मुद्दे पर १८ नवंबर के अंक में प्रभाष जोशी का कागद कारे-गुंडई का पक्का लोकतंत्र भी- नंदीग्राम के सच का दस्तावेज ही है।
इन सबने अपनी रिपोर्ट में साफ तौर पर स्पष्ट किया है कि किस तरह पुलिस को निष्क्रिय रहने का आदेश देकर माकपा के कैडरों को नंदीग्राम में मनमानी की छूट दे दी गई। स्थानीय लोगों के मोबाइल छीनकर और स्थानीय पीसीओ बंद कराकर पूरी संचार व्यवस्था को ठप कर दिया था माकपा कैडरों ने। नृशंश होकर महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया गया। विस्तार से नंदीग्राम के लोगों की दुर्दशा पर टाइम्स ने कई लेख छापो हैं। धर्मनिरपेक्ष माकपा का चेहरा दी इंडियन एक्सप्रेस ने बेनकाब किया है। २० नवंबर के अंक में दी इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है कि नंदीग्राम में माकपा कैडरों की गुंडागर्दी के अधिकतर शिकार मुसलमान ही हुए हैं। जो माकपा के धर्मनिरपेक्ष चेहरे का एक और सच है।
वर्तमान बांग्ला अखबार को तो अपने संवाददाता सम्मेलन में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने बाकायदा बंद कराने की धमकी तक दे डाली। वजह वही कि वह अपनी खबरों से सरकार की गुंडागर्दी को बेखौफ होकर उजागर कर रहा है।
हिंदी अखबारों ने इतना निर्भीक होने का परिटय तो नहीं दिया मगर जनसत्ता हिंदी दैनिक में अखबार के पूर्व संपादक व वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने बुद्धदेव के उस हुंकार को बेनकाब किया है जिसमें नंदीग्राम पर कब्जा के बाद कहा गया कि- माकपा ने हिसाब बराबर कर दिया है। सभी के लेख को यहां दिया जाना संभव नहीं मगर प्रभाष जोशी के लेख को पीडीएफ फार्म में दे रहा हूं। दो दिन के अंक में दोनों दिन बाटम में प्रभाष जोशी का लेख छपा है। जनसत्ता के पूरे पेज के साथ लेख के साथ दिया है। पूरा लेख टर्न के साथ बगल में ही रखा है। आप भी अवलोकन करिए कि एक संपादक के नजरिए से नंदीग्राम के मायने क्या हैं। लेख का शीर्षक है- इनका काडर संविधान और लोकतंत्र से उपर और बड़ा है और दूसरा है- युद्धदेव के राज में गुंडो का नंदीग्राम। इसके अलावा जनसत्ता में इसी मुद्दे पर १८ नवंबर के अंक में प्रभाष जोशी का कागद कारे-गुंडई का पक्का लोकतंत्र भी- नंदीग्राम के सच का दस्तावेज ही है।
Saturday, 17 November 2007
सूर्य आराधना का सबसे ब़ड़ा पर्व - छठ महोत्सव
सूर्य आराधना का सबसे ब़ड़ा पर्व है छठ महोत्सव। पूर्वांचल के लोगों द्वारा मनाया जाने वाले में इस पर्व में पहले अस्त होते सूर्य की और फिर दूसरे दिन सुबह उगते सूर्य की पूजा के साथ चार दिन का कठिन तप पूरा होता है। इस व्रत को महिलाएं व पुरूष दोनों करते हैं। ज्यादातर महिलाएं ही यह व्रत करती हैं।
दीपावली बीतते ही इसकी तैयारी शुरू हो जाती है। नदी किनारे पूजा की परंपरा है, लेकिन जहाँ नदी नहीं है वहाँ कुंड या तालाब के किनारे पूजा होती है। इस चार दिनी महोत्सव में पहले दिन छठी माता को जल एवं फूल से आमंत्रण दिया जाता है। इस दिन व्रत रखने वाले श्रद्धालु चने की दाल, चावल एवं घी में बनाई लौकी की सब्जी खाते हैं।
दूसरे दिन निर्जल उपवास रखते हैं। शाम को सूर्यास्त से पूर्व सूर्य देवता को जल एवं पुष्प का अर्घ्य दिया जाता है। रात्रि में गु़ड़ की खीर तथा रोटी खाते हैं। तीसरे दिन पुनः निर्जल उपवास रखा जाता है। शाम को व्रत करने वाले जलकुंड में ख़ड़े होकर बाँस से बने सूप में प्रसाद रखकर डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं। अगले दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने तक व्रत रखने वाले जल भी ग्रहण नहीं करते।
सांध्य अर्घ्य सम्पन्न होते पर व्रती घर लौटकर कोसी भरने की तैयारी करते हैं। पहले गाय के गोबर से आंगन लीपते हैं, फिर आंगन में निर्धारित पूजा स्थल पर मिट्टी के बने हाथी पर दो कलश रखकर उनमें छठ पूजा की समस्त सामग्री भरी जाती है। वहीं पांच ईख से मंडप बनाते हैं। ईख के अंतिम छोर पर नए वस्त्रों में लपेट कर व्रत सामग्री बांध दी जाती है। उसे चानपा कहते हैं। ईख के इस मंडप के चारों तरफ मिट्टी के छोटे-छोटे सकोरों में व्रत का सामान सजाकर उस पर दीप जलाया जाता है। सुगंधित हवन सामग्री से हवन भी होता है। इसी को कोसी भरना कहते हैं। कोसी भरने का दृश्य बड़ा ही मनोरम होता है।
इस पूजा की खास बात यह है कि इसमें किसी ब्राह्मण या पुरोहित की कोई जरूरत नहीं होती। पूरी शुद्धता के साथ व्रती अपने परिवार के साथ इस व्रत को निभाता है।
छठ पूजा का उद्देश्य
छठ पूजा की कई पौराणिक मान्यताएँ हैं। पुत्र प्राप्ति, सुख-समृद्धि, आरोग्यता, पुत्र को निरोगी व दीर्घायु रखने के लिए यह उपवास किया जाता है। कई लोग पूजा स्थल पर मन्नत भी माँगते हैं। जब मन्नत पूरी हो जाती है तो वर्षों तक व्रत रखते हैं। ऐसे कई लोग पूजा स्थल तक लोट लगाते आते हैं। जो व्रत नहीं रख पाते वे पूजा करने वालों की मदद करते हैं। देव माता अदिति के पुत्र सूर्य सब के लिए पूजनीय हैं। छठ उनकी उपासना का महाव्रत है, इस पूजा को कालजेई भी कहा जाता है। सूर्य एकमात्र प्रत्यक्ष देवता हैं। इन्हें समस्त जगत का नेत्र भी कहा जाता है। यह एकमात्र पर्व है जिसमें उदयमान सूर्य के साथ-साथ अस्ताचलगामी सूर्य को भी अर्घ्य दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह व्रत करने से सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति होती है, पति एवं पुत्र दीर्घायु होते हैं।
कठिन तप, क़ड़े नियम
इस व्रत के लिए काफी क़ड़े नियम बने हैं। धारणा है कि नियमों का उल्लंघन होने से सूर्य देवता तथा छठ माता नाराज हो जाती हैं। इसलिए काफी सावधानी बरतनी होती है। इस व्रत में पवित्रता का सबसे ज्यादा ध्यान रखना प़ड़ता है। दीपावली के बाद से ही सावधानी रखना प़ड़ती है। इस दौरान बाहर के खाद्य पदार्थ व पानी पीना भी वर्जित रहता है। कठोर नियमों के कारण ही कम उम्र की महिलाएँ यह व्रत नहीं रखतीं। व्रत के दौरान जूते-चप्पल का उपयोग भी नहीं किया जाता तथा जमीन पर सोना होता है।
पौराणिक मान्यताएँ
पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि इस व्रत को नाग कन्या, सुकन्या एवं कृष्ण के पुत्र ने भी किया था। अज्ञातवास के समय पांडव जन दौपद्री के साथ जंगल में दाने-दाने को मोहताज थे। उस समय ऋषियों ने दौपद्री को छठ करने को कहा। उन्होंने यह व्रत विधिवत किया। व्रत के महात्म्य का वर्णन करने वाले ऐसा मानते हैं कि इसी से पांडवों ने खोया हुआ अपना राजपाट वापस प्राप्त किया। शिल्प के देवता विश्वकर्मा द्वारा निर्मित भारत में 12 सूर्य मंदिरों का जिक्र पुराणों में मिलता है। उन्हीं में से एक, दिवाकर मंदिर से छठ पूजा का प्रचलन हुआ, ऐसा कहा जाता है।
सूर्य के उदय की शक्ति पर ही ब्रह्मांड का संचालन होता है। पौराणिक आधार पर देखें तो आदि शक्ति छठी वेदमाता का स्वरूप है। स्वामी विश्वामित्र ने साधना कर उनका आह्वान किया था। इसके बाद अदिति माता ने विश्व के तीनों लोक में ऊर्जा के लिए सूर्य का आह्वान किया। अस्त होते समय सूर्य शीतलता लिए होता है, लेकिन दूसरे दिन जब वह उदित होता है तो उसमें वही ऊर्जा व आभा होती है। डूबते सूर्य की प्रार्थना का उद्देश्य यही है कि सूर्य अपने जैसी ही शीतलता व ऊर्जा लोगों के जीवन को भी देता रहे। सूर्य जीवंत सत्य है। इसे वैज्ञानिक भी मानते हैं और निरंतर शोध भी चलते रहते हैं। पूरे ब्रह्मांड पर सूर्य की किरणों से ही प्राण ऊर्जा मिलती है। इस कारण सूर्य का विधिवत आह्वान किया जाता है ताकि आरोग्यता, सुख व समृद्धि बनी रहे। सूर्य से निकले दृश्य प्रकाश के सात रंगों (स्पेक्ट्रम ) को विज्ञान भी स्वीकार करता है।
बिहार एवं पूर्वांचल (पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड आदि) के हर घर में छह दिन तक चलने वाला यह व्रत बड़े उत्साहपूर्वक संपन्न किया जाता है। इसकी बहुत महिमा मानी जाती है। जैसा उत्साह इस क्षेत्र में छठ पूजा के समय दिखता है, वैसा किसी अन्य त्योहार पर नजर नहीं आता। हिन्दुओं में कार्तिक का महीना अत्यंत पवित्र माना जाता है। इसी महीने में छठ पूजा होती है। छह दिन तक चलने वाले इस व्रत का आरम्भ दीपावली के दिन से ही हो जाता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष चौथी को नहा-खा, पंचमी को खरना और सूर्य षष्ठी को महाव्रत यानी छठ पूजा। आज छठ का यह पर्व दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता और चेन्नै सरीखे महानगरों में ही नहीं, मॉरिशस एवं न्यू यॉर्क तक में मनाया जाने लगा है।
नंदीग्राम : जमीन व गांवों के बाद अब वैचारिक दखल की लड़ाई
पश्चिम बंगाल में लेखकों, कलाकारों, शिल्पकारों का आम जनता बेहद सम्मान करती है। इतना ही नहीं बंगाल के ये बुध्दिजीवी कई अहम सरकारी फैसलों पर भी अपने प्रभाव रखते हैं। सरकार भी सामाजिक-सांस्कृतिक विकास के हर पहलू पर इनसे राय लेकर आगे बढ़ती है। पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार के स्थायित्व की सामाजिक-सांस्कृतिक कड़ी हैं ये बुध्दिजीवी। जिस तरह से माकपा या उसके घटक राजनीतिक ताकत से आम लोगों को अपना समर्थक बनाए हुए हैं उसी तरक से आम लोगों के वैचारिक और भावनात्मक जमीन की बड़ी मजबूत कड़ी हैं पश्चिम बंगाल के बुध्दिजीवी, रंगमंच व नाट्यकर्मी, खिलाड़ी और शिल्पकार वगैरह। आम लोगों की बुध्दिजीवियों के प्रति इसी अटूट आस्था की बुनियाद को वाममोर्चा सरकार ने अपने स्थायित्व का मानदंड बना लिया है। यही वजह है कि कई बार सरकार को इन्हीं बुध्दिजीवियों की बात सरकार को माननी पड़ती है। ये बातें मैं सिर्फ पश्चिम बंगाल के संदर्भ में कह रहा हूं। यह िस लिए भी कि अब नंदीग्राम के मुद्दे पर बंगाल के ये बुध्दिजीवी भी हथियार के तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे हैं। यह नहीं कहता मगर नंदीग्राम के मुद्दे पर कोलकाता में १४ नवंबर और १५ नवंबर को हुई बुध्दिजीवियों की लगातार दो रैलियों ने इस खेमेबाजी को बेपर्दा कर दिया है। सिर्फ बंगाल ही नहीं देश भर के वामपंथी बुध्दिजीवी पश्चिम बंगाल की उस बुध्ददेव सरकार के साथ खड़े हो गए हैं जिसने बाकायदा कैडरों व सरकारी मशीनरी के बल पर नंदीग्राम में बर्बरता का परिचय दिया।
पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम मसले पर अब देश के बुद्धिजीवी विभाजित हो गए है। १४ नवंबर २००७ को कोलकाता में मृणाल सेन, महाश्वेता देवी, जोगेन चौधरी, सांवली मित्रा, ममता शंकर आदि ने नंदीग्राम के मुद्दे पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के रवैए का विरोध किया था और जुलूस में भाग लिया था। गुरुवार को दिल्ली में प्रख्यात इतिहासकार इरफान हवीब, सईद मिर्जा, एमके. रैना, प्रभात पटनायक, जयंती घोष जैसे बुद्धिजीवियों ने एक बयान जारी कर माकपा का समर्थन किया है। इन बुद्धिजीवियों ने बयान में कहा है कि वैसे तो उनकी पूरी सहानुभूति उन किसानों के साथ है जो खुद को बेदखल किए जाने के खिलाफ लड़ रहे है, लेकिन नंदीग्राम के मसले पर वाममोर्चा सरकार ने स्पष्ट रप से कहा है कि वहाँ कोई रासायनिक कारखाना नहीं खोला जाएगा लेकिन इसके वाबजूद इस मुद्दे पर संघर्ष जारी है जो अवांछित है। इन बुद्धिजीवियों का कहना है कि नंदीग्राम में अब जो लोग लौट रहे है, वे माकपा के समर्थक है और उन्हें अपनी जमीन से बेदखल कर दिया गया था। बयान में कहा गया है कि नंदीग्राम में अब जो विरोध हो रहा है वह इन्हीं माकपा समर्थकों की वापसी के खिलाफ हो रहा है1 बयान पर मालिनी भट्टाचार्य, राजेन्द्र प्रसाद, शशि कुमार और पार्थिव शाह के भी हस्ताक्षर है।
देश के इन वामपंथी बुध्दिजीवियों को इस बात का कोई मलाल नहीं कि बदला लेने के इस खूनी खेल में मरा तो गरीब किसान ही। आखिर आपके विचारों की पोषक बंगाल सरकार यह खेल लोकतांत्रिक तरीके की बजाए गुंडों की तरह क्यों खेल रही है? यह कौन सी क्रांति का रास्ता है? अपने मकसद के लिए जब नक्सली संगठन भी खून-खराबा करते हैं तब आपको क्यों गलत लगता है? तब यह कानून और व्यवस्था का सवाल होता है और नंदीग्राम का माकपाई खूनी खेल उचित लगता है। अगर आगे आना ही ही है तो पहले मुख्यमंत्री बुध्देव पर सवाल उठाइए जिन्हें नंदीग्राम की माकपाई गुंडों की कार्रवाई ईंट का जवाब पत्थर लगता है। सिर्फ तरफदारी करना बुध्दिजीवियों का धर्म क्यों बन गया है। क्या सही गलत का विचार बुध्दिजीवी भी राजनेताओं की ही तरह करेंगे ? अगर हां तो कल को यह फर्क करना भी मुश्किल हो जाएगा कि आप वाकई बुध्दिजीवी हैं या बुध्दिजीवियों के वेश में मौकापरस्त राजनेता ?
जब भी देश पर राजनैतिक और वैचारिक संकट आया है तो इतिहास गवाह है कि हमारे लेखक, पत्रकार, शिक्षक, रंगमंच के कलाकार, समाजसेवी सभी कंधे से कंधा मिलाकर इन्हीं गरीब और कुचली जा रही जनता को दमनचक्र से उबारा है। चाहे वह हमारी आजादी का मसला रहा हो या फिर सामाजिक सुधार का। खुद यातनाएं सहते रहे मगर विचारों को नतो मरने दिया और न ही किसी सत्ता के हाथों बिके। जो बिके उन्हें समय ने भी माफ नहीं किया। फिर इस दुसमय में आप कहां खड़े होने जा रहे हैं। यह विचार इस लिए भी करिए क्यों कि आपके ही साथ के लोगों ने सरकार के कृत्य को अमानवीय करार दिया है। आप ही की तरह जनसत्ता हिंदी दैनिक में एक विचारक व वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने नंदीग्राम की घटना से आहत होकर १५ नवंबर के अंक में जो लेख लिखा है उसमें बुध्देव को युध्ददेव करार दिया है। ऐसा नहीं कि उन्हें नंदीग्राम के सच का पता नहीं है। फिर माकपा के कृत्य के साथ खड़े होने वाले आप बुध्दिजीवी क्यों दिग्भ्रमित हैं?
आइए अब उन दोनों शांति जुलूसों की भी पड़ताल करें जिसने बंगाल की जनता को दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया। एक जुलूस हिंसा के खिलाख निकला और इतना विशाल कि खुद सरकार भी घबरा गई और उनके समर्थकों की तरफ दूसरे दिन जवाबी जुलूस निकाला जो पहले जुलूस के आगे लगभग प्रभावहीन ही रहा।
पहला शांति मार्च
पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में जारी हिंसा के विरोध में बुधवार को कोलकाता में बुद्धिजीवियों ने एक शांतिमार्च का आयोजन किया. इन बुद्धिजीवियों ने नंदीग्राम की हिंसा को 'जनसंहार' बताते हुए वहाँ शांति स्थापना की माँग की है.
लेखकों, फ़िल्मकारों, अभिनेताओं, चित्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की इस रैली में मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के उस बयान की भी निंदा की गई जिसमें उन्होंने सीपीएम के कार्यकर्ताओं की हिंसा को सही ठहराया था. बुद्धदेब भट्टाचार्य ने मंगलवार को कहा था कि हिंसा पहले विपक्ष ने की थी और सीपीएम कार्यकर्ताओं की हिंसा तो उसका जवाब भर थी.
बीबीसी संवाददाता अमिताभ भट्टाशाली के अनुसार इस शांति मार्च में कोई बीस हज़ार लोगों ने हिस्सा लिया.
तीन किलोमीटर से भी अधिक लंबी इस रैली में फ़िल्मकार मृणाल सेन, गौतम घोष और अपर्णा सेन, चित्रकार जोगेन चौधरी और सुवा प्रसन्ना, उपन्यासकार शीर्षेन्दु मुखर्जी, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी सहित कई विभिन्न क्षेत्र के प्रमुख हस्तियों ने हिस्सा लिया. इस मौन रैली में प्रदर्शनकारी पोस्टर और बैनर लिए हुए थे जिसमें नंदीग्राम में हिंसा का विरोध किया गया था और इसे 'जनसंहार' भी कहा गया था. समाचार एजेंसी यूएनआई के अनुसार फ़िल्मकार अपर्णा सेन और गौतम घोष ने इसे ऐतिहासिक रैली बताते हुए कहा है कि यह एक ग़ैर-राजनीतिक विरोध प्रदर्शन था.
गौतम घोष ने मुख्यमंत्री बुद्धदेब के बयान की निंदा करते हुए कहा है कि राज्य के मुख्यमंत्री को इस भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए. पीटीआई के अनुसार उन्होंने कहा, "एक सामान्य राजनीतिज्ञ तो अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए 'हम' और विपक्षी दलों के लिए 'उनका' जैसे संबोधनों का प्रयोग कर सकते हैं लेकिन एक मुख्यमंत्री ऐसा नहीं कर सकते."
जवाबी रैली
बुद्धिजीवियों ने इस विरोध प्रदर्शन को ग़ैर राजनीतिक कहा है लेकिन इसके बाद ही गुरुवार को एक और रैली निकाले जाने की घोषणा की गई। बीबीसी संवाददाता का कहना है कि जिन बुद्धिजीवियों के नाम इस रैली के लिए दिए गए हैं वे आमतौर पर सरकार के समर्थक माने जाते हैं और इस रैली का उद्देश्य सरकार पर दबाव बनाना नहीं बल्कि सरकार का समर्थन करना होगा. अब यह बड़ा मुद्दा नहीं रह गया कि दूसरी जवाबी रैली में किस कद के बुद्धिजीवी शामिल हुए। यह मुद्दा है माकपा की एक दूसरी जवाबी कार्रवाई का जिसने अपने ही बुद्धिजीवियों को दो खेमे में खड़ा कर दिया है। एक ओर हिंसा से आहत तो दूसरी ओर सरकार को सही ठहराते बुद्धिजीवी। यानी नंदीग्राम में माकपा के कैडरों ने इलाका दखल तय कर दिया तो कोलकाता उनके कृत्य को जायज ठहराने के लिए बुद्धिजीवियों की इलाका दखल की लड़ाई शुरू कर दी गई है। वहां किसानों को बेदखल करने का खूनी खेल हुआ तो यहां वैचारिक जमीन के दखल की लड़ाई चल रही है। यह कौन सा विकास का रास्ता है? यह तो खुद माकपा या उसके कर्णधार ही बता सकते हैं। हम तो इनके सही और गलत में ही उलझ गए हैं।
Wednesday, 14 November 2007
नंदीग्राम में सत्ता और पूंजी के मुखौटे में दिखे कम्युनिस्ट !
नंदीग्राम में सरकार की प्रायोजित हिंसा और बंद के बाद पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार की जो छवि दुनिया के सामने आई है उसने पूरे कम्युनिस्ट सिध्दांतों को सत्तालोलुपता के हाथों गिरवी रख दिया है। गरीबों, मजदूरों और किसानों के हक के लिए सत्ता को दरकिनार करके न्याय की लड़ाई लड़ने की छवि वाले क्या यही कम्युनिस्ट हैं? यह सोचकर सिहरन पैदा हो जाती है कि अब कौन लड़ेगा गरीबों की लड़ाई? दखल या विरोधियों को सबक सिखाने की खूनी जंग तो नरेंद्र मोदी भी गुजरात में खेल चुके हैं। क्या नंदीग्राम को उससे अलग करके देखा जा सकता है? शायद इसका जवाब भी पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट कर्णधारों के पास हो मगर मानवता के नाते जो नंदीग्राम में हुआ उसे तो कोई भी जायज नहीं ठहरा रहा है। यह बात अलग है कि खुद वाममोर्चा सरकार के मुख्यमंत्री इस इलाका दखल को सही ठहरा रहे हैं। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सत्तारूढ़ सीपीएम के नंदीग्राम पर फिर से कब्जे को न सिर्फ सही ठहराया बल्कि यह भी कहा कि विपक्षी दलों को ईंट का जवाब पत्थर से दिया गया। 11 महीनों तक अपने घरों से दूर रहने वाले हमारे समर्थक लौटने के लिए बेकरार थे। उन्होंने अपनी जान का खतरा उठाया और घर लौटे। उन्होंने अपनी सरकार की अपील के बावजूद सीआरपीएफ भेजने में देरी के लिए केंद्र को दोषी ठहराया और कहा कि यदि सीआरपीएफ समय पर पहुंच जाती तो स्थिति को टाला जा सकता था।
मुख्यमंत्री ने कोलकाता में सोमवार १२ नवंबर को राज्य सचिवालय राइटर्स में पत्रकारों से कहा कि मैंने 27 अक्टूबर को इस बारे में गृह मंत्रालय को लिखा था, लेकिन उन्होंने मुझे 5 नवंबर को बताया कि केंद्रीय बलों को गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भेजे जाने के कारण राज्य को केंद्रीय बल मुहैया नहीं कराए जा सकते। इन दोनों राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। मुख्यमंत्री के मुताबिक, मैंने खुद केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल और विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी से बात कर उनसे केंद्रीय बल भेजने की अपील की थी। नंदीग्राम के लिए सीआरपीएफ की एक बटैलियन मंजूर की गई। वह रविवार को कोलकाता पहुंची और अगले दिन नंदीग्राम। नंदीग्राम में पुलिस की विफलता के बारे में पूछे जाने पर बुद्धदेव ने कहा कि कुछ हद तक यह उनकी विफलता थी। पुलिस नंदीग्राम में नहीं घुस सकी। अगर वे ऐसा करने में कामयाब होते तो स्थिति बेहतर होती।
आप भी कुछ हद तक मुख्यमंत्री के इन बयानों से सहमत हो सकते हैं मगर क्या वह सब कुछ सही है जो बुध्ददेव कह रहे हैं। अगर नंदीग्राम में जो हो रहा है उसके विरोध को कुछ राजनैतिक दल अपनी सियासी जिम्मेदारी नहीं मान लेते और सरकार जो कर रही है उसे मनमाने तरीके से करने देते तो शायद इतना खून-खराबा नहीं होता। इससे खून खराबा टाला जा सकता था मगर अन्याय जो हो रहा है उसे कौन रोकेगा? क्या अपनी सियासी जरूरतों के लिए किसी रक्षक को भक्षक बनने दिया जा सकता है। रक्षक ही जब भक्षक बन जाएंगे, तो जनता कहां जाएगी?
इस पूरे प्रकरण के लिए सिर्फ कम्युनिस्ट ही दोषी कैसे ठहराए जा सकते हैं। आखिर वे भी राज्य के विकास और बंगाल की जनता का भला करने में जुटे हैं। भले ही इसके लिए विरोध करने वाले उजड़ जाएं। नंदीग्राम में पिछले 8 महीने से सीपीएम बेकसूर ग्रामीणों का खून बहा रही है और राज्य व केंद्र में सत्तासीन पार्टियों ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस मामले पर ध्यान देना तक गवारा नहीं समझा। आपको याद होगा कि इसी साल 14 मार्च को जब नंदीग्राम के किसान इंडोनेशिया के सलीम समूह के प्रस्तावित सेज़ के लिए जमीन अधिग्रहण किए जाने का विरोध कर रहे थे , तो पुलिस ने फायरिंग करके 15 से अधिक लोगों को मार दिया। यही वह पृष्ठभुमि है जिसके कारण नंदीग्राम में इलाका दखल का खूनी संग्राम माकपा सरकार व कैडरों ने खेला। इस घटना के बाद 8 महीने से सीपीएम अपना राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने के लिए घेराबंदी कर रखी थी। सरकार जब खुद ग्रामीणों को जमीने देने से मनाने में विफल रही तो अपने कॉडरों को वहां के लोगों को डराने , धमकाने और यहां तक कि जान से मारने की मौन रूप से खुली छूट दे दी। मरता क्या न करता और वहां के स्थानीय लोगों ने भी संगठित होकर सीपीएम के कॉडरों का विरोध किया , पर सरकारी की शह पर लड़ रहे ' पेशेवर गुंडों ' की फौज का मुट्ठी भर किसान व ग्रामीण भला क्या और कैसे मुकाबला करते ?
इस इलाका दखल के बारे में आरोप लगाया जा रहा है कि ' नंदीग्राम फतह ' करने के बाद सीपीएम ने अपनी रैली में भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के बंधक बनाए गए 500 सदस्यों को जीत की ट्रॉफी के रूप में हाथ बांधकर पेश किया। इसके बाद भी माकपा पोलित ब्यूरो की बेशर्मी देखिए । वो कहती है कि नंदीग्राम में माओवादी और तृणमूल कांग्रेस के लोग अपनी जमीन मजबूत करने के लिए हिंसा पर उतारू हैं। जबकि अभी तक वहीं से एक भी माओवादी पकड़ा नहीं जा सका है। हो सकता है कल को कुछ गिरफ्तारियां करके उन्हें जबरन माओवादी भी करार दे दिया जाए।
कम्युनिस्टों के इस कुकृत्य को माफ नहीं किया जा सकता है तो बंगाल की विरोधी पार्टियों को भी बहुत ईमानदार नहीं माना जा सकता। पूरी तरह से हासिए पर खिसक चुकी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के हाथ तो जैसे बटेर लग गई है। उनकी कुछ कोशिशें तो मुद्दे को अपने सियासी हक के लिए गरमाने की है तो कुछ उन किसानों के लिए लड़ने के लिए है जिन्हें माकपा के कैड़र कुचल देना चाहते हैं। रही कांग्रेस की बात तो पश्चिम बंगाल में उसे माकपा की बी टीम कहा जाता है। केंद्र की सरकार को माकपा ही चला रही है। ऐसे में पांग्रेस के सभी बड़े नेता चुप्पी साधे रहे और बोले तब जब लगा कि सियासी नुकसान हो जाएगा। थोड़ा कड़े होकर बोले भी तो सिर्फ प्रियरंजन दासमुंशी। अब क्या समझा जाए इन पार्टियों की मंशा को? अगर ईमानदारी रहती तो पहले ही आवाज उठाते और माकपा के इलाका दखल को रोकते। प्रणव मुखर्जी भी चुप रहे। आरोप है कि उनकी सीआरपीएफ तब लाई गई जब माकपा ने इलाका दखल का खूनी खेल मुकम्मल कर लिया। इतना ही नहीं इलाका दखल में कैडरों को इतनी छूट दी गई कि उनके काम में माडिया की मौजूदगी भी बर्दास्त नहीं की गई। सामाजिक संगठनों को भी नंदीग्राम से दूर रखा गया। अब दखल पूरा हो गया तो बुध्ददेव ने बुध्दिजीवियों से भी माफी मांग ली और मीडिया को भी छूट देने पर तैयार हो गए हैं।
फिलहाल तो सीआरपीएफ के जवानों ने मंगलवार को हिंसाग्रस्त नंदीग्राम के अधिकतर गांवों में प्रवेश कर छापे की कार्रवाई शुरू कर दी है। समाचार एजंसियों के मुताबिक पूर्वी मिदनापुर जिले के एसपी एस. एस.पांडा ने फोन पर बताया कि नंदीग्राम के गांवों में सीआरपीएफ के प्रवेश का सीपीएम या फिर भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति (बीयूपीसी) के समर्थकों ने कोई विरोध नहीं किया। सीआरपीएफ के जवान पुलिस के साथ विभिन्न इलाकों में गश्त कर रहे हैं
पांडा ने बताया कि केंद्रीय बलों ने 5 शिविर स्थापित किए हैं। जवानों ने सोनाचूरा, गोकुलनगर, अधिकारीपारा और अन्य इलाकों में छापे मारे हैं। इन इलाकों में कभी बीयूपीसी की पकड़ थी, लेकिन अब ये सीपीएम के नियंत्रण में हैं।
उन्होंने कहा कि पिछले 11 महीने से भूमि अधिग्रहण के विरोध में आंदोलन कर रही बीयूपीसी के सदस्यों पर सीपीएम कैडरों के प्रतिशोध स्वरूप हमले की कोई खबर नहीं है। उन्होंने गरचक्रबेरिया में सोमवार की रात सीपीएम समर्थकों के साथ गोलीबारी होने की खबरों को भी गलत बताया। एक सवाल के जवाब में पांडा ने कहा कि करीब 1500 लोग अपने घर छोड़ कर चले गए हैं, लेकिन उन्हें उम्मीद है कि ये लोग लौट आएंगे और उन पर कोई हमला नहीं होगा।
उधर प्रधानमंत्री ने भी बुद्धदेव से की बात की है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मंगलवार को पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से टेलिफोन पर बात कर नंदीग्राम की ताजा स्थिति की जानकारी ली। सीपीएम सूत्रों ने बताया कि मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को नंदीग्राम के बारे में विस्तृत जानकारी दी। प्रधानमंत्री का फोन जिस समय आया, मुख्यमंत्री उस दौरान प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करने के बाद गवर्नर से मिलने जा रहे थे। मगर यह सब कवायद तब क्यों नहीं शुरू हुई जब माकपा कैडरों के खूनी खेल को रोकने की गुंजाइश थी।
नंदीग्राम मुद्दे को लेकर माकपा तथा कांग्रेस में वाकयुद्ध शुरू हो गया है। माकपा ने नंदीग्राम घटनाक्रम को 'राज्य प्रायोजित नरसंहार' बताए जाने के लिए मंगलवार को केन्द्रीय मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी की कड़ी आलोचना की। पार्टी ने मंत्री की इस टिप्पणी को निंदनीय तथा स्तब्धकारी करार देने के साथ ही आरोप लगाया कि दासमुंशी नंदीग्राम पर कब्जा करने के लिए तृणमूल कांग्रेस समर्थित सशस्त्र हुड़दंगियों की मदद कर रहे हैं और उन्हें उकसा रहे हैं। माकपा नेताओं सीताराम येचुरी तथा बासुदेव आचार्य ने संयुक्त बयान में कहा कि पिछले 11 महीने में जब से तृणमूल कांग्रेस समर्थित सशस्त्र हुड़दंगियों ने नंदीग्राम पर कब्जा जमाया है। दासमुंशी हर स्तर पर ऐसी ताकतों को समर्थन दे रहे हैं और उकसा रहे हैं।
उन्होंने कहा कि दासमुंशी ने मार्च में नंदीग्राम में संचार सुविधाएँ बहाल करने के लिए पुलिस के हस्तक्षेप की निंदा की थी और इस माह के शुरुआत में अशांत क्षेत्र में सीआरपीएफ की बटालियन भेजने की राज्य सरकार की अपील का विरोध किया था।
प्रियरंजन दासमुंशी ने नंदीग्राम में जारी हिंसा पर गहरा दुख जताते हुए इसे 'राज्य प्रायोजित नरसंहार' की संज्ञा दी थी। उन्होंने आरोप लगाया था कि राज्य सरकार अशांत स्थिति को नियंत्रित करने के लिए केन्द्रीय सुरक्षा बलों का इस्तेमाल नहीं कर रही है। उन्होंने कहा- सरकार का यह दावा गलत है कि नंदीग्राम में सीआरपीएफ तैनात कर दी गई है, बल्कि सही यह है कि सीआरपीएफ के जवान नंदीग्राम के किसी कोने में खड़े हैं और उन्हें अभी तक तैनात नहीं किया गया है।
दासमुंशी ने कहा था कि पूरे राज्य को विनाश की तरफ धकेला जा रहा है। उन्होंने नंदीग्राम में इस स्थिति के लिए माकपा को जिम्मेदार ठहराया और इसे पार्टी की 'सामूहिक रणनीति' बताया। दासमुंशी ने कहा- यदि हत्या और बलात्कार की घटनाओं तथा 14 मार्च को हुई घटनाओं के दोषी लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाता तो उस क्षेत्र में कुछ नहीं हुआ होता।
बंगाल सरकार को बर्खास्त करें-भाजपा
भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह ने पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में भड़की हिंसा को राज्य में संवैधानिक मशीनरी की विफलता बताते हुए वहाँ की वाम मोर्चा सरकार को सोमवार को तत्काल बर्खास्त करने की माँग की।
कर्नाटक के रूप में दक्षिण भारत में पहली बार किसी राज्य में भाजपा की सरकार के अस्तित्व में आने के ऐतिहासिक पलों में भागीदारी के लिए यहाँ आए सिंह ने बीएस येद्दियुरप्पा के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद संवाददाता सम्मेलन में कहा कि देश मध्यावधि चुनाव की ओर बढ़ रहा है और भाजपा इसके लिए पूरी तरह तैयार है।
सिंह ने कहा कि पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में भड़की हिंसा के मद्देनजर भाजपा प्रदेश सरकार को बर्खास्त करने की माँग करती है। सिंह ने राज्य में संवैधानिक मशीनरी को पूरी तरह विफल बताया।
नंदीग्राम घटना की जितनी निंदा की जाए कम
लोकसभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में हाल ही की हिंसक घटनाओं की जितनी भी निंदा की जाए कम है और इस मुद्दे को संसद के शीतकालीन सत्र में उठाया जाएगा।
आडवाणी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के आठ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ सुबह नई दिल्ली से यहाँ नेताजी सुभाषचंद्र हवाई अड्डे पहुँचे। प्रतिनिधिमंडल में तृणमूल कांग्रेस के सांसद मुकुल राय के अलावा भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज और एसएस अहलूवालिया, शिवसेना के अनंत गीते, अकाली दल के सुखवीरसिंह बादल, जनता दल (यूनाइटेड) के शरद यादव, बीजू जनता दल के बीके त्रिपाठी तथा चंदन मित्रा शामिल हैं। प्रतिनिधिमंडल तामलुक अस्पताल और शरणार्थी शिविर का भी दौरा करेगा। आडवाणी ने कहा कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) को परमाणु करार सहित अंतरराष्ट्रीय मामलों की चिंता है जबकि देश इस बात को लेकर चिंतित है कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की अगुवाई वाली माकपा सरकार नंदीग्राम में किसानों का शोषण कर रही है।
वरिष्ठ भाजपा नेता ने कहा कि नंदीग्राम का मामला परमाणु करार से कम महत्वपूर्ण नहीं है और विपक्ष इसे संसद के शीतकालीन सत्र में जोरशोर से उठाएगा। कांग्रेस पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार के किसी भी मंत्री को नंदीग्राम की स्थिति जानने के लिए वहाँ जाने की चिंता नहीं है। प्रतिनिधिमंडल नंदीग्राम से लौटने के बाद शाम को पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपाल कृष्ण गाँधी से मुलाकात करेगा।
नंदीग्राम में घायलों से मिले आडवाणी
लोकसभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी पश्चिम बंगाल के हिंसाग्रस्त क्षेत्र नंदीग्राम की स्थिति का जायजा लेने के लिए मंगलवार को बेरोकटोक पहुँच गए। आडवाणी राजग के आठ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ नंदीग्राम पहुँचे। तामलुक से पूरे मार्ग में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की गई थी। आडवाणी ने तामलुक में अस्पताल जाकर हिंसा में घायल हुए लोगों का हालचाल पूछा और स्थिति की जानकारी ली। आडवाणी के साथ गए तृणमूल कांग्रेस के नेता मुकुल रे ने घायलों की प्रतिक्रिया और अनुभवों का अनुवाद किया। आडवाणी गोकुल नगर, तेंगुआ और सोनाचुरा में विभिन्न स्थानों पर रुके और प्रभावित लोगों से बातचीत की। एक ग्रामीण ने आडवाणी से कहा- हम चाहते हैं कि नंदीग्राम में शांति बहाल हो। कई नेता हमसे मुलाकात करने यहाँ आए और वापस चले गये लेकिन स्थितियों में कोई बदलाव नहीं आया। मेहरबानी करके इस बार यह सुनिश्चित कीजिए कि हम यहाँ सुरक्षित रहें।
आडवाणी ने कहा- मैं इस मुद्दे को संसद में उठाऊँगा। इसके अलावा मैं पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपाल कृष्ण गाँधी से कोलकाता में मुलाकात करूँगा और उनके साथ स्थिति पर विचार-विमर्श करूँगा। प्रतिनिधिमंडल में रे के अलावा भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज और एसएस अहलूवालिया, शिवसेना के अनंत गीते, अकाली दल के सुखवीरसिंह बादल, जनता दल (यू) के शरद यादव, बीजू जनता दल के बीके त्रिपाठी तथा चंदन मित्रा (निर्दलीय) शामिल हैं।
बंद में बेबस नजर आया पश्चिम बंगाल
कोलकाताः पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम घटनाक्रम के विरोध में आयोजित बंद का व्यापक असर देखने को मिला और बंद समर्थकों के उत्पात के बीच जनजीवन ठप्प पड़ गया। बंद समर्थकों ने सड़कों पर जाम लगाकर सब कुछ जाम करने की कोशिश की। उधर नंदीग्राम से खबर आई कि आरपीएफ के करीब 100 जवान और एक मैजिस्ट्रेट हिंसाग्रस्त नंदीग्राम में प्रवेश करने में सफल रहे। इसके पहले केंद्रीय बल की तीन कंपनियां सीपीएम समर्थकों के अवरोध के चलते इलाके में जाने में विफल रही थीं।
राज्य के गृह सचिव पी. आर. राय ने कहा कि सीआरपीएफ की 5 कंपनियां पहुंच चुकी हैं और उसमें एक कंपनी नंदीग्राम में प्रवेश कर गई है। दो और कंपनियों के एक-दो दिनों में पहुंचने की संभावना है। गांव में किसी को प्रवेश नहीं देने के बारे में पूछे जाने पर राय ने कहा कि आप स्थिति के बारे में जानते हैं, सीआरपीएफ को भी जाने की अनुमति नहीं दी जा रही।
राय ने कहा कि गांव में स्थिति तनावपूर्ण मगर नियंत्रण में है। इसके पहले सीआरपीएफ के महानिदेशक एस. आई. एस. अहमद ने मुख्यमंत्री बुद्घदेव भट्टाचार्य से राइटर्स बिल्डिंग में मुलाकात की। सीपीएम समर्थकों द्वारा सड़कें जाम कर दिए जाने से सीआरपीएफ की 3 कंपनियों को रविवार रात पूर्वी मिदनापुर जिले के मुख्यालय तामलुक लौटना पड़ा था।
उधर, पश्चिम बंगाल सरकार में आरएसपी के मंत्री मनोहर टिर्की ने कहा कि वह नंदीग्राम में हुई हत्याओं को लेकर बुद्घदेव भट्टाचार्य सरकार में नहीं बने रहना चाहते। टिर्की ने कहा कि मैंने पार्टी को लिखा है कि मैं भी मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना चाहता हूं। टिर्की ने कहा कि लेफ्ट फ्रंट का गठन लोगों के साथ खड़े होने के लिए किया गया था और नंदीग्राम में हत्याओं के बाद मंत्री बने रहना मेरे लिए शर्म की बात हो गई है।
इसके पहले आरएसपी के एक और मंत्री क्षिति गोस्वामी ने इस्तीफा देने की पेशकश की थी। विभिन्न राजनीतिक दलों के सोमवार के राज्यव्यापी बंद का असर अब तक अप्रभावित रहने वाले कोलकाता के आईटी क्षेत्र पर भी देखने को मिला। केवल 10 से 15 फीसदी कर्मचारी ही काम पर गए। साल्ट लेक आईटी कमेटी के सदस्य एस. राधाकृष्णन ने बताया कि बंद के कारण विभिन्न आईटी कंपनियों में उपस्थिति कम रही।
विप्रो टेक्नालाजीज 2004 में परिचालन शुरू होने से लेकर अब तक पहली बार बंद रही। एक अन्य आईटी कंपनी टेक महिन्द्रा ने अपने बीपीओ परिचालन को अगले 48 घंटे के लिए नोएडा स्थानांतरित कर दिया है। नासकॉम के अध्यक्ष किरण कार्णिक ने कहा कि राज्य सरकार को कर्मचारियों को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराकर उनमें विश्वास का संचार करना चाहिए।
दूसरी तरफ बंद समर्थकों ने हावड़ा के पंचानन टोला में बंगाली दैनिक ' आजकल ' के पांच कर्मचारियों के साथ कथित तौर पर बदसलूकी की। दैनिक के सूत्रों ने कहा कि बंद समर्थकों ने समाचार पत्र के पांच कर्मचारियों को उनके वाहन से जबरदस्ती बाहर निकाला और उनके साथ बदसलूकी की। कर्मचारियों में एक महिला भी शामिल थी। सूत्रों ने कहा कि इस संबंध में पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई है।
इलाका दखल पूरा किया
तामलुक / मिदनापुर : पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में रविवार को पुलिस के मूक समर्थन से सत्ताधारी सीपीएम के कार्यकर्ताओं ने ' ऑपरेशन कब्जा ' की मुहिम को परवान चढ़ा दिया। इससे पहले कि केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवान यहां पहुंचते तृणमूल समर्थिक भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति व सीपीएम के कॉडरों के बीच ' युद्ध ' समाप्त हो चुका था और एक बार फिर करीब-करीब पूरे नंदीग्राम पर सत्ताधारी पार्टी कब्जा जमा चुकी थी। नंदीग्राम पर कब्जे के बाद सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने एक रैली भी निकाली जिसमें भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के बंधक बनाए गए 500 सदस्यों को हाथ बांधकर विजय प्रतीक के रूप में प्रदर्शित भी किया गया।
सीपीएम के लोग रविवार को नंदीग्राम में फायरिंग करते हुए प्रवेश किया और लूटपाट व आगजनी करते हुए पूरे क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। इसमें कितने लोगों की जानें गईं है इसकी कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है क्योंकि सीपीएम कार्यकर्ताओं ने नंदीग्राम में जाने और आने के सभी रास्ते बंद कर दिए थे। यहां तक कि एसपी के काफिले को भी अंदर नहीं जाने दिया। एक स्थानीय अखबार ने भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति का नेतृत्व कर रहे विधायक शिशिर अधिकारी के हवाले से बताया है कि इस हमले में 50 लोग मारे गए हैं और 200 से ज्यादा घायल हुए हैं।
नंदीग्राम पर कब्जे के लिए पूर्वी और पश्चिमी मिदनापुर के दो शीर्ष नेताओं ने एक मीटिंग में दो हफ्ते पहले ही योजना बनाई थी। इस मीटिंग में पूर्वी मिदनापुर के एक सांसद और राज्य सरकार के मंत्री भी शामिल थे। मीटिंग में मुख्य रूप से इस बात पर चर्चा हुई कि 11 महीने से निंयत्रण से बाहर नंदीग्राम पर कैसे कब्जा किया जाए। इसको परवान चढ़ाने के लिए तीन जिलों-पूर्वी मिदनापुर , बांकुड़ा और उत्तरी 24 परगना से हथियारबंद लोग बुलाए गए थे।
प. बंगाल के राज्यपाल ज्योति बसु से मिले
कोलकाता : पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी ने वामपंथी नेता ज्योति बसु से नंदीग्राम मुद्दे पर शांति कायम करने के उपायों के बारे में चर्चा की। उन्होंने संकेत दिया कि नंदीग्राम में हुई हिंसा के लिए बुद्घदेव भट्टाचार्य की सरकार जिम्मेदार है। साल्ट लेक स्थित निवास पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु से करीब 40 मिनट की चर्चा के बाद राज्यपाल ने संवाददाताआ को संबोधित करते हुए कहा - मुझे पूरा भरोसा है कि उनके उपायों से नंदीग्राम में दोबारा शांति बहाल हो जाएगी। यह पूछे जाने पर कि क्या आप राज्य के मुख्यमंत्री से बात करेंगे राज्यपाल ने कहा - मुख्यमंत्री मुझसे बात करेंगे। केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) को सीपीएम द्वारा नंदीग्राम में प्रवेश करने से रोके जाने के बारे में राज्यपाल ने कहा - मुझे पूरा भरोसा है कि मुख्यमंत्री उचित कदम उठाएंगे। राज्यपाल से पहले सीपीएम के राज्य सचिव विमान बोस ने ज्योति बसु से आधे घंटे तक बातचीत की।
इसके साथ ही शांति प्रक्रिया की कवायद शुरू हो गई है। यह तो समय ही बताएगा कि इलाका दखल के बाद कुचले जा चुके किसानों के साथ कितना न्याय करेगी यह दमनकारी वाममोर्चा सरकार और मौकापरस्त पार्टियां? फिलहाल तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने नंदीग्राम की रिपोर्ट मांगी है। वाममोर्चा सरकार भी राज्यपाल को अपनी रिपोर्ट सौंप चुकी है। कलकत्ता हाईकोर्ट ने माना है कि नंदीग्राम नें कानून व व्यवस्था की रक्षा सरकार नहीं कर पाई है। देखिए न्याय होता है या न्याय का राजनैतिक वध।
Monday, 12 November 2007
यह जो नंदीग्राम है - माकपा की बला और तृणमूल की संजीवनी
नंदीग्राम की घटना पुराने मसय के हमलावर व बर्बर राजाओं की याद दिला रही है जो अपने साम्राज्य विस्तार के लिए नागरिकों को गाजरमूली की तरह काट देने में कोई परहेज नहीं रखते थे। आज उसी सियासत की बलि चढ़ रहा है नंदी ग्राम और मारे जा रहे हैं निरीह नागरिक। वे नागरिक जो सिर्फ अपने तरीके से जीने का हक मांग रहे हैं। इस वर्चस्व की लड़ाई ने राजनैतिक संकट भी खड़ा कर दिया है।
नंदीग्राम में हिंसा जारी रहने के बीच इस मुद्दे पर पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के समक्ष राजनीतिक संकट उभरता दिखा। नंदीग्राम मुद्दे पर वर्षों से एकजुट वाम मोर्चे पर मतभेद खुलकर सामने आ गए हैं। मोर्चा की घटक रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी ने अपने तीन मंत्रियों को बुद्धदेव भट्टाचार्य मंत्रिमंडल से हटाने की गुंजाइश से इनकार नहीं किया और आरएसपी नेता क्षिति गोस्वामी ने भी दोहराया कि वह सरकार में बने रहना नहीं चाहते हैं।
यह पूछे जाने पर कि क्या आरएसपी अपने तीनों मंत्रियों गोस्वामी विश्वनाथ चौधरी और सुभाष नासकर को मंत्रिमंडल से वापस बुला सकती है। पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद मनोज भट्टाचार्य ने कहा कि हम इसे खारिज नहीं कर रहे हैं। भट्टाचार्य ने कहा इन मुद्दों पर पार्टी सचिवालय और 13 तथा 14 नवम्बर को होने वाली राज्य समिति की बैठक में चर्चा की जानी है। उन्होंने कहा कि गोस्वामी ने मंत्री पद छोड़ने की इच्छा जताई है, लेकिन अभी पार्टी ने इसकी इजाजत नहीं दी है। प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री गोस्वामी ने कहा कि इस्तीफा देने के अपने निर्णय पर वह टिके हुए हैं और कल से वह न तो राइटर्स बिल्डिंग जाएँगे तथा न ही अपनी सरकारी कार का इस्तेमाल करेंगे। उन्होंने कहा कि माकपा इलाकों पर दोबारा नियंत्रण करने के लिए खूनखराबा करना चाहती है। गोस्वामी ने कहा लोकतंत्र का अर्थ है कानून का शासन। मैं ऐसी स्थिति बर्दाश्त नहीं कर सकता हूँ जिसमें निर्दोष लोगों पर बर्बर तरीके से बल प्रयोग किया जा रहा हो। उन्होंने कहा मेरी राय में आरएसपी को वाम मोर्चा मंत्रिमंडल से हट जाना चाहिए।
गोस्वामी के इस फैसले के बाद बंगाल में सत्तारूढ़ गठबंधन के बीच की दरार अब खुलकर नजर आने लगी है। गोस्वामी ने कहा कि नंदीग्राम में जो हो रहा है उसे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता हूँ, लिहाजा इस्तीफा देना चाहता हूँ। माकपा ने हमें धोखा दिया है। कहा कुछ जा रहा है किया कुछ और जा रहा है।मंत्री ने कहा पिछले दस महीनों से जारी हिंसा का मैं विरोध करता हूँ। सरकार के पास कदम उठाने का पर्याप्त वक्त था, लेकिन वह ईमानदार नहीं थी। ] सत्तारूढ़ वाममोर्चे के सहयोगी दल आरएसपी ने नंदीग्राम मामले पर आगे की रणनीति तय करने के लिए कोलकाता में 13 नवंबर को बैठक बुलाई है।
येचुरी बोले, वाम मोर्चे में कोई फूट नहीं
नई दिल्ली : हिंसाग्रस्त नंदीग्राम का मुद्दा रविवार को सीपीएम पोलित ब्यूरो की बैठक में छाया रहा। बैठक के बाद पार्टी नेताओं ने दावा किया कि पश्चिम बंगाल के सत्तारूढ़ वाम मोर्चा में इस मुद्दे को लेकर कोई दरार नहीं है। इस मुद्दे पर वाम मोर्चा में मतभेद होने के बारे में पूछे गए सवालों पर सीपीएम पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने संवाददाताओं से कहा - जिसकी आप लोग बात कर रहे हैं वह मतभेद है कहां, कोई फूट सत्तारूढ़ मोर्चा में नहीं है।
नंदीग्राम में तनावपूर्ण स्थिति, ममता को जाने से रोका
नंदीग्राम : पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में शनिवार से जारी झड़प में 4 लोगों की मौत के बाद यहां तनावपूर्ण शांति बनी हुई है। दूसरी तरफ सीपीएम के कार्यकर्ताओं ने नंदीग्राम जा रहीं तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी को पूर्वी मिदनापुर जिले के केलोमल से आगे नहीं बढ़ने दिया। काफिला रोके जाने के बाद ममता बनर्जी को उनकी पार्टी के कार्यकर्ता मोटरसाइकिल पर बैठकर अस्पताल ले गए जहां कल की हिंसा में घायल लोगों को भर्ती कराया गया है।
आईजी (कानून व्यवस्था) राज कनौजिया ने बताया कि एक बटालियन सीआरपीएफ पहुंच गई और इन जवानों को शीघ्र ही नंदीग्राम में तैनात किया जाएगा। नंदीग्राम में हुई हिंसा की ताजा घटना के मद्देनजर केंद्र ने शनिवार की रात नंदीग्राम के लिए 1000 अतिरिक्त सीआरपीएफ कर्मियों को भेजने की घोषणा की है। पुलिस थाने के बाहर पुलिसकर्मियों को तैनात किया गया है जिससे वहां होने वाले किसी हमले को रोका जा सके। शनिवार को भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के कार्यकर्ताओं ने थाने पर हमला कर दिया था जिसके बाद पुलिस को उनपर आंसू गैस के गोले दागने पड़े थे।
ताजा घटनाओं के मद्देनजर तृणमूल कांग्रेस ने सोमवार से अनिश्चितकालीन 'बंगाल रोको'
अभियान का आह्वान किया है, जबकि कांग्रेस,एसयूसीआई और भाकपा (माले) ने सोमवार को 24 घंटे के बंद का ऐलान किया है। बीजेपी ने भी इसी तरह के 48 घंटे के बंद का आह्वान किया है।
उधर प्रत्यक्षदर्शियों और स्थानीय युवा कांग्रेस नेता मिलन प्रधान ने दावा किया कि तेखाली पुल और महेशपुर में कथित माकपा कार्यकर्ताओं ने गोलीबारी और बमबारी की। बहरहाल पुलिस महानिरीक्षक (कानून व्यवस्था) राज कनौजिया ने कोलकाता में कहा कि किसी बड़ी घटना की रिपोर्ट नहीं है। इस बीच आधिकारिक सूत्रों ने कोलकाता में बताया कि सीआरपीएफ की 360 जवानों वाली तीन कम्पनियां हावड़ा रेलवे स्टेशन पहुंचीं और इन्हें नंदीग्राम में तैनात किया जायेगा। उन्होंने कहा कि कुछ और कम्पनियां पहुंचने वाली हैं।
ममता दक्षिण कोलकाता से सांसद हैं। नंदीग्राम में नरसंहार के विरोध में उन्होंने इस्तीफा दे दिया है जो तकननीकी कारणों से मंजी नहीं किया जा सका है। अपने इस्तीफे का ऐलान करते हुए उन्हेंने कहा है कि- मैं सभी संबंधित लोगों को अपना त्याग-पत्र भेज रही हूँ। उन्होंने कहा कि माकपा के एकदलीय और दमनकारी शासन के तहत पश्चिम बंगाल में राजनीतिक गतिविधियाँ जारी रखना संभव नहीं रह गया है। ममता ने कहा नंदीग्राम पर पूरी तरह कब्जा करने के लिए माकपा योजनाबद्ध तरीके से हिंसा का सहारा ले रही है। ममता ने दावा किया कि नंदीग्राम के सोनाचुरा और महेशपुर इलाकों में 200 लोगों की सामूहिक हत्या की गई जब माकपा ने भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के दो जुलूसों पर हमला किया। व्यथित और उत्तेजित दिख रहीं ममता ने कहा कि मैं इस नरसंहार के विरोध में इस्तीफा दे रही हूँ। वामपंथी कार्यकर्ता मारे गए लोगों के शव माकपा के गढ़ माने जाने वाले खेजुरी में ले गए जबकि घायलों को अस्पतालों में भर्ती नहीं होने दिया जा रहा है। यह पूछे जाने पर कि क्या वह सोमवार को एसयूसीआई के हड़ताल के आह्वान का समर्थन करती हैं, ममता ने कहा अब से सभी लोग साथ हैं।
इस्तीफा देने का ऐलान कर चुकीं ममता ने कहा मैं नंदीग्राम जाना चाहती हूँ। मैंने यह बात राज्यपाल गोपालकृष्ण गाँधी और केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल को बता दी है। ममता का इस्तीफा नामंजूरनंदीग्राम की ताजा ¨हसा के विरोध में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी द्वारा लोकसभा की सदस्यता से शनिवार को दिया इस्तीफा जिसे लोकसभा अध्यक्ष ने नामंजूर कर दिया।
राजनीतिक पैतरेबाज़ी
नंदीग्राम की स्थिति को लेकर राज्य में राजनीतिक लड़ाई भी तेज़ हो गई है. दरअसल राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी के कड़ा रवैया अख्तियार करने के बाद माकपा के अहम् को काफी चोट पहुंची है। स्थिति यह है कि राज्य सरकार और राज्यपाल गोपाल गांधी आमने-सामने आ गए हैं. जहाँ राज्यपाल ने राज्यसरकार की आलोचना की है वहीं वाम गठबंधन ने राज्यपाल पर पक्षपात का आरोप लगाया है. शुक्रवार को पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी ने कहा था कि नंदीग्राम युद्धक्षेत्र में तब्दील हो गया है. कोई भी सरकार या समाज ऐसे किसी युद्धक्षेत्र को बने रहने की अनुमति नहीं दे सकती है, वो भी बिना किसी तत्काल और प्रभावी कार्रवाई के.
इसके जवाब में वाम गठबंधन के प्रमुख बिमान बोस ने कहा था कि राज्यपाल ने अपनी संवैधानिक सीमा का उल्लंघन किया है. उनका रवैया साफ़ तौर पर पक्षपातपूर्ण है. राज्यपाल के लिए मार्क्सवादी समर्थकों की मौत कोई मायने नहीं रखती. वो तभी बोलते हैं जब किसी और की मौत हो जाए या कोई और घायल हो जाए.
वयोवृद्ध मार्क्सवादी नेता ज्योति बसु ने नंदीग्राम मसले पर पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपाल कृष्ण गाँधी की टिप्पणी को अवांछित बताया है।बसु ने एक बयान में कहा कि इस मसले पर राज्यपाल ने टिप्पणी कर कोई अच्छा काम नही किया है। इससे पहले माकपा ने राज्यपाल पर निष्पक्ष नहीं रहने का आरोप लगाया था। कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपाल कृष्ण गाँधी की राज्य के ताजा घटनाक्रम पर टिप्पणी से उत्पन्न विवाद से खुद को अलग रखते हुए कहा कि वह इस पर कोई प्रतिक्रिया देना नहीं चाहती। सहारा के समय चैनल पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रणव मुखर्जी तो टिप्पणी देने की बजाए सारी बोलकर पत्रकारों के सामने से निकल गए।
नंदीग्राम में 'कम्युनिस्ट आतंक'-मेधा पाटकर
कोलकाता : सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने कहा है कि पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में 'कम्युनिस्ट आतंक' प्रताड़ना और जोर जबरदस्ती कर फिर से अपनी पैठ बनाना चाहते हैं।सुश्री पाटकर ने नंदीग्राम में फिर से अपने आंदोलन को शुरू करते हुए कहा कि वहाँ शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं है और लोग परेशान तथा बेसहारा बन गए हैं। उन्होंने दावा किया कि नंदीग्राम में पीड़ितों को सहायता पहुँचाने का प्रयास करते समय उन्हें प्रताड़ित किया गया और माकपा के कार्यकर्ताओं ने उन्हें वहाँ जाने से रोका है।नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता ने कहा कि गुरुवार को जब वह नंदीग्राम की तरफ जा रही थीं तो उनके वाहन को रोका गया और उनके एक सहयोगी को पीटा गया। उन्होंने कहा कि माकपा के गुंडों ने उन्हें भी बाल पकड़कर खींचा। सुश्री पाटकर ने कहा कि उन्होंने रेडक्रॉस से अनुरोध किया है कि नंदीग्राम में लोगों को माकपा के आतंक का शिकार होना पड़ रहा है इसलिए यह सामाजिक संगठन वहाँ लोगों के हितों के लिए उन्हें सहायता उपलब्ध कराए।
पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपालकृष्ण गाँधी को नंदीग्राम मामले में कार्रवाई के लिए ज्ञापन सौंपने के बाद सुश्री पाटकर ने शुक्रवार शाम यहाँ कहा कि नंदीग्राम में मानवाधिकार का हनन हो रहा है, इसलिए उन्होंने मानवाधिकार आयोग के समक्ष गुहार लगाई है।
जानी-मानी समाजसेविका मेधा पाटकर नंदीग्राम के मसले पर कोलकाता के धर्मतला में बुध्दिजीवियों व कलाकारों के साथ भूख हड़ताल पर बैठी हैं. उनके साथ नंदीग्राम से भागकर आईं लड़किया और महिलाएं भी हैं। राज्यपाल को ग्यापन देने वे उस औरत के साथ भी गईं थीं जिसके साथ नंदीग्राम में कथित तौर पर बलात्कार का आरोप लगाया गया है। नंदीग्राम में पिछले एक सप्ताह से भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रही 'भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति' के समर्थकों और सत्ताधारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच हुई झड़पों के बाद वहाँ गहरा तनाव बना हुआ है. दोनों गुटों के बीच हुई हिंसा में लगभग नौ लोगों की मौत हो चुकी है और 50 से ज़्यादा लोग घायल हो गए हैं.सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने कहा है कि नंदीग्राम ऐसा यातना शिविर बन चुका है, जहां माकपा कार्यकर्ता आतंक फैला रहे हैं।
नंदीग्राम हिंसा के विरोध में मौसमी चटर्जी आगे आईं
कोलकाता : पश्चिम बंगाल के नन्दीग्राम में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी कार्यकर्ताओं के कथित तांडव के विरोध में सामने आए कलाकारों की सूची में बीते जमाने की प्रसिद्ध अदाकारा मौसमी चटर्जी भी शामिल हो गईं। उन्होंने इसके विरोध में एक सम्मान ग्रहण करने से भी इनकार कर दिया। चटर्जी ने बताया - नन्दीग्राम में जो भी कुछ हो रहा है। वह अमानवीय है। ऐसे समय में कोई भी बंगाली कैसे मूक दर्शक बना रह सकता है। उन्होंने कहा कि वहां जिस तरह से सीपीएम के कार्यकर्ता बर्बर होकर मासूम जनता का खून बहा रहे हैं। इसे कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। उन्होंने सवाल किया कि प. बंगाल में इस तरह का जंगल राज कैसे चल रहा है। गौरतलब है कि चटर्जी को एक प्रख्यात बंगाली पाकाशन संस्थान ने लाइफ्टाइम अवॉर्ड देने की घोषणा की थी जिसे उन्होंने इस समय लेने से इनकार कर दिया है। इस बीच कोलकाता में उन बुध्दिजीवियों की आज गिरफ्तारियां की गईं जो नंदीग्राम हिंसा पर लालबाजार पुलिस मुख्यालय के सामने विरोध जता रहे थे।
लेफ्ट को गुजरात पर बोलने का हक नहीं
नई दिल्ली: बीजेपी ने नंदीग्राम में जारी हिंसा के सवाल पर सीपीएम और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी के बीच विवाद में राज्यपाल का साथ देते हुए सीपीएम की कड़ी आलोचना की है। पार्टी ने केंद्र सरकार से मांग की है कि वह राज्यपाल से नंदीग्राम के हालात पर ठोस रिपोर्ट मंगाकर वहां शांति बहाल करने के लिए जरूरी कदम उठाए। बीजेपी ने कहा है कि लेफ्ट वाले गुजरात पर इतना चिल्ला रहे हैं, लेकिन उन्हें नंदीग्राम क्यों नहीं सूझता। राज्यपाल ने वहां के गांवों पर कब्जे को गैरकानूनी करार देते हुए कहा है कि इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
बीजेपी प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने सीपीएम की टिप्पणी को राज्यपाल की गरिमा पर चोट करार देते हुए कहा कि नंदीग्राम में पुलिस की सहायता से सीपीएम के गुंडे खुलेआम कई महीनों से नरसंहार को अंजाम दे रहे हैं। अभी तक वहां की सरकार ने कोई कार्रवाई क्यों नहीं की है? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह गुजरात पर बोलते हुए थकते नहीं हैं, लेकिन नंदीग्राम में गरीबों में भी जो सबसे गरीब लोग हैं, वे मारे जा रहे हैं। इस पर उनकी चुप्पी पर सभी स्तब्ध हैं। हालात इतने खराब हो गए हैं कि लेफ्ट सरकार ने अपनी कलई खुलने के डर से अब वहां मीडिया और मानवाधिकार संगठनों को भी जाने से रोक दिया है।
नंदीग्राम प्रकरण पर कांग्रेस नीत केंद्र सरकार की चुप्पी की कड़ी आलोचना करते हुए बीजेपी ने पश्चिम बंगाल के हिंसाग्रस्त क्षेत्र की स्थिति का आकलन करने के लिए एक उच्च स्तरीय टीम भेजने का निर्णय लिया है। बीजेपी ने आरोप लगाया है कि प्रदेश के राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी की रिपोर्ट और नंदीग्राम में लगातार हो रही हिंसा के बावजूद केंद्र सरकार प्रदेश सरकार की रक्षा कर रही है। पार्टी इस मुद्दे को संसद के शीतकालीन सत्र में जोर-शोर से उठाएगी।
बीजेपी के उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी ने बताया सीपीएम केंद्र सरकार संरक्षित हत्यारी है। नंदीग्राम की हिंसा ने कम्युनिस्ट पार्टी के असली चेहरे को उजागर कर दिया है। इस मामले में केंद्र की चुप्पी को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए नकवी ने कहा कि केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाला सत्तारूढ़ गठबंधन केवल सरकार को बचाने की फिराक में है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस सरकार केवल घड़ियाली आंसू बहा रही है और राज्यपाल की रिपोर्ट के बावजूद कुछ नहीं कर रही है।
बीजेपी के उपाध्यक्ष ने कहा कि पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह नंदीग्राम की जमीनी हकीकत तथा स्थिति का जाएजा लेने के लिए पार्टी की टीम वहां भेजेंगे। उन्होंने कहा कि टीम की रिपोर्ट के आधार पर गुरुवार से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र में इस मुद्दे को पार्टी जोर शोर से उठाएगी।
लगातार गलतियों से फंसी माकपा
बुधवार, 14 मार्च, 2007 को नंदीग्राम में बुधवार को हुई पुलिस गोलीबारी में १४ लोगों के मारे जाने और 50 से अधिक के घायल होने की वारदात को यही सरकार अंजाम दे चुकी है। हालांकि प्रशासन की ओर से सात लोगों की मरने और 25 लोगों के घायल होने की पुष्टि की गई । घायलों में कुछ पुलिसवाले भी हैं.दरअसल पूर्वी मिदनापुर ज़िले के नंदीग्राम के लोग पिछले कुछ समय से खेती की ज़मीन लेकर रसायन संयंत्र लगाने का विरोध कर रहे हैं और इसी को लेकर वहाँ पिछले कुछ दिनों से तनाव था.
तब भी पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी वामगठबंधन के घटकदलों में मतभेद उभर आए हैं. आरएसपी और फ़ॉर्वर्ड ब्लॉक ने इस घटना की निंदा करते हुए विरोध जताया था।
नंदीग्राम में विवाद की वजह है यहाँ प्रस्तावित रासायनिक इकाई की स्थापना के लिए भूमि आबंटन.
राज्य सरकार जहाँ इस तरह के कारख़ानों की स्थापना के लिए इस गाँव की ज़मीन के अधिग्रहण का अधिकार संबंधित समूहों को सौंप चुकी है वहीं स्थानीय लोग इसका विरोध कर रहे हैं. स्थानीय लोगों का कहना है कि वे अपनी ज़मीन पर ऐसी कोई इकाई नहीं चाहते हैं और उन्हें उनकी ज़मीनें वापस कर दी जाएँ. इसको लेकर कई मानवाधिकार संगठन और राज्य के विपक्षी दल भी सरकार का विरोध करते रहे हैं. लोगों और पुलिस प्रशासन के बीच यहाँ की ज़मीन के अधिग्रहण को लेकर पिछले कुछ दिनों से संघर्ष लगातार जारी है. इसी इलाक़े में इंडोनेशिया की सलेम समूह भी निवेश करने की योजना बना रही है.
अब कांग्रेस के आगे घुटने टेकने की नौबत
नई दिल्ली : नंदीग्राम में लगातार जारी हिंसा ने सीपीएम के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। सूत्रों के अनुसार नंदीग्राम में हिंसा की तीखी आलोचना ने सीपीएम को परमाणु समझौते पर भी बैकफुट पर ला दिया है। लगातार जारी विरोध और सरकार के अड़ियल रवैए ने हालात को काफी बिगाड़कर रख दिया है। अब फंस चुकी माकपा के नंदीग्राम मामले में तेवर ढीले पड़ने लगे हैं।
नंदीग्राम में हिंसा के मुद्दे पर पश्चिम बंगाल के वाम मोर्चे के घटक दल सीपीआई, फॉरवर्ड ब्लॉक और आरएसपी भी सीपीएम से असहमत हैं। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल द्वारा नंदीग्राम पर सार्वजनिक बयान पर सीपीएम के साथ सीपीआई ने कड़ी आपत्ति जताई है, मगर सीपीएम जिस तरह नंदीग्राम के मुद्दे से निपट रही है, उससे सीपीआई असंतुष्ट है। आरएसपी के पीडब्ल्यूडी मंत्री क्षिति गोस्वामी के इस्तीफे की इच्छा और लोकसभा से तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनजीर् के इस्तीफे पर भी चर्चा होगी।
नंदीग्राम में हिंसा की शुरुआत इस साल जनवरी में हुई थी। तभी सीपीआई ने अपनी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए राज्यसरकार के समस्या समाधान के लिए उठाए गए कदमों को अपर्याप्त बताया था। लेकिन बाद में अमेरिका से परमाणु समझौते पर यूपीए सरकार के साथ चले विवाद ने चारों वामदलों के बीच अन्तर्विरोधों की खाई पाट दी थी।
सीपीएम के पश्चिम बंगाल से आए सांसद मानते हैं कि नंदीग्राम के जख्म लंबे अरसे तक भरने वाले नहीं हैं। अगले लोकसभा चुनाव में इनका असर हो सकता है। पिछले लोकसभा चुनाव में सीपीएम 44 सीटें जीती थी, जिनमें से अधिकांश पश्चिम बंगाल से ही थीं। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के दल नंदीग्राम के संभावित राजनीतिक परिणामों को लेकर आशंकित हैं।
Tuesday, 6 November 2007
कम्युनिष्टों को डरा रहा है रिजवान का भूत !
समकालीन जनमत ने पश्चिम बंगाल में एक मुसलमान लड़के रिजवान-उर-रहमान की एक संपन्न मारवाड़ी लड़की प्रियंका तोदी से प्रेम की कहानी के दुखद अंत की कथा को समेटते हुए टिप्पड़ी छापी है। इस लेख को आप भी इस लिंक http://samkaleenjanmat.blogspot.com/2007/11/blog-post_3659.html पर जाकर पढ़िए। लेख मेंरे मित्र दिलीप मंडल ने लिखा है। मेरे मित्र पत्रकार हैं और हर किस्म की टिप्पड़ी लिखना उनका अधिकार है। लेख दो बातों को एक साथ जोड़ता है। एक रिजवान की घटना और दूसरा बंगाल में मुसलमानों का विकास। जो अनुचित है। समकालीन जनमत प्रगतिशील विचारधारा की पत्रिका है। मुझे आपत्ति दिलीप के लिखने पर नहीं बल्कि समकालीन जनमत से है। वे इस लेख को छापकर क्या संदेश देना चाहते हैं। एक तरफ त्रिलोचनजी पर अपील छाप रहे हैं और दूसरी तरफ रिजवान पर यह गफलत पैदा करने वाला लेख। आपके लेख तो जो सबसे तीब्र होकर बात सामने आ रही है वह यह है कि अब कम्युनिष्टों को डरा रहा है रिजवान का भूत। आर्कुट और समकालीन जनमत में कुछ तो फर्क दिखना चाहिए। हमारी इसी दृष्टि से तो बाकी दुनिया रिजवान के मामले को सिर्फ साम्प्रदायिक घटना मान रही है। जबकि इसका ठीक उल्टा यह है कि अत्यंत लोकतांत्रिक कम्युनिष्टों के शासन की वह संविधानिक खामी उभर कर सामने आई है जिसमें उनका साम्यता का दर्शन धुंधला गया है। शायद इसी हड़बड़ी में कई गलतियां भी कर चुकी है बुध्ददेव सरकार।
आपके लेख से तो मुझे भी यह लगता है कि रिजवान के बहाने शायद कम्युनिष्टों से मुसलमानों का मोह भंग हो जाए लेकिन रिजवान के मुद्दे को मुसलमानों के विकास से कैसे जोड़ा जा सकता है। आबादी के हिसाब से सभी को सरकारी नौकरी कैसे दी जा सकती है? तब तो यह भी देखना चाहिए कि आदिवासियों व शिक्षा के तौर पर दूसरी पिछड़ी जातियों को ही सरकारी नौकरी कहां उपलब्ध है। अगर ऐसे ही विकास का पैमाना हम बनाते रहे तो कई सदियों तक जाति, धर्म और आरक्षण से शायद ही बाहर निकल पाएं। प्रगतिशील होकर तर्क के लिए इस तरह के सहारे लेना छोड़ना होगा। क्या जाति, धर्म से मुक्त होकर अमीर- गरीब की बहस संभव नहीं? सर्वांगीण विकास तभी होगा जब देश के हर गरीब को विकसित होने का मौका मिले। रिजवान का मुद्दा मुसलमानों के बंगाल में विकास से जोड़कर देखना दुखद है। इसे एक शख्स को संविधानिक सुरक्षा न मिल पाने और सरकार को इसमें शामिल होने का दोषी मानना होगा। ऐसा नहीं कि यह पहला रिजवान है जो अन्याय का शिकार हुआ है। ऐसी तमाम प्रेम कहानियों से हम सभी वाकिफ हैं। प्लीज इसे सांप्रदायिक रंग मत दीजिए। यह अपने अधिकारों से वंचित किए जाने की शासकीय गुंडागर्दी की घटना है। इसी तरह देश के दूसरे हिस्से में ऐसी समस्याएं हैं। इन समस्याओं के लिए सिर्फ और सिर्फ सरकारें दोषी हैं। सरकारों की उपेक्षा से जुड़ी ऐसी सभी घटने वाली घटनाओं पर आवाज उठाना लाजिमी होगा।
Friday, 2 November 2007
वोट मांगना मतलब देश चलाने का जाब !
चुनाव जीतकर संसद या विधानसभा पहुंचने वाले नेता ही शासन की बागडोर संभालते हैं और इनके ही हाथों में होता है देश के करोड़ों लोगों का भविष्य। भारत समेत पूरी दुनियां में इसी तरह से जनप्रतिनिधि सत्ता संभालते है। सवाल यह उठता है कि क्या चुनाव जीतना ही ऐसी योग्यता की कसौटी है जिसे देश चलाने की योग्यता माना जा सकता है। यह सवाल उन कुछ चुनाव जीतने वालों पर नहीं उठाया जा सकता जो शिक्षित होने के साथ-साथ राजनीति का भी पर्याप्त अनुभव लेकर संसद या विधानसभा में पहुंचते हैं। या फिर जो किसी विचारधारा के चिंतक होने के साथ अपने देश के लोगों के लिए अपरिचित नहीं होते। उन्हें लोग किसी जनहित के आंदोलनों के कारण जानते हैं। मगर ऐसे कितने लोग हैं। अब जिस तरह से पार्टियों का प्रादुर्भाव हो रहा है उससे यह समझना मुश्किल हो गया है कि कौन देश को बेहतर भविष्य प्रदान कर सकेगा। क्या ये सारे लोग देश चलाने की योग्यता रखते हैं? कम से कम मैं तो यही कहूंगा कि इस कसौटी पर चुनाव जीतने वाले सारे नेता खरे नहीं उतरते।
यही सवाल उठाकर टाइम्स आफ इंडिया ने पूरे देश में मुहिम चलाकर उन लोगों को नेता बनने के लिए आमंत्रित किया था जो खुद को देश को बेहतर चला सकने की दक्षता रखते हैं। बहुत सारे लोग इस चुनौती को स्वीकार करके सामने आए। टाइम्स की इस मुहिम को जागरूकता के लिहाज से बेहतर प्रयास माना जा सकता है। मगर यह प्रयास इस मायने में अधूरा है क्यों कि आज की चुनावी राजनीति में पैसे और खून-खराबे का जो नंगा नांच खेला जा रहा है, जिस तरह से गली मुहल्ले के गुंडे बाहुबल पर मंत्री पद हासिल कर ले रहे हैं, वैसी परिस्थिति में कोई पढ़ा लिखा और विचारवान व्यक्ति कैसे इनका मुकाबला कर पाएगा। बाहुबलियों के सामने तो इनका टिकना मुश्किल होगा। गुंडों के सामने ये चुनाव भी नहीं जीत पाएंगे। यह संवैधानिक व्यवस्था है कि देश चलाने की पहली योग्यता चुनाव जीतना है। और वह इनके वश का नहीं होता। ऐसे में फिलहाल जो देश का राजनीतिक परिदृश्य है उसपर जाति, धर्म, क्षेत्रीयता, बाहुबल, भ्रष्टाचार और अपराधी हावी हैं। तो टाइम्स के चुने गए नेता इन सारी बुराईयों का मुकाबला कैसे कर पाएँगे। संभवतः कभी नहीं। यहां यह चिंतनीय है कि जो देश को चलाने की योग्यता रखता है वह आज के परिदृश्य में चुनाव नहीं जीत सकता और जो चुनाव जीत सकता है वह देश चलाने की योग्यता नहीं रखता। सत्ता के लिए फितरत की राजनीति में इनकी ही सारी पैंतरेबाजी होती है। ऐसे ही नेता जनता को अपनी खेती समझते हैं। और राजनीति को धंधा। तभी तो देश को लूटने में इन्हें शर्म नहीं फक्र होता है।
यह भी कहा जाता है कि ऐसे धंधेबाज अगर काबिल नहीं हैं तो जनता उन्हें चुनती ही क्यों है? मगर इस जुमले का सच यह है कि अपराधियों के आगे निरीह जनता और क्या कर सकती है। यही नहीं जाति व क्षेत्रीयता की आड़ में जो जनादेश हासिल करके सरकारें बनतीं हैं वह अपने दायरे से बाहर कभी नहीं निकल पाती हैं। इसकी वजह यह है कि ये विकास के मुद्दे पर चुनाव नही जीतते। जातीय समीकरण इनकी जीत का कारण बनता है। शायद इसी लिए देश की बजाए ये अपने समुदाय के हितचिंतक बने रहते हैं। जो देश हित में कभी नहीं होता। सबसे बड़ी बात यह होती है किजातीय व आपराधिक समीकरणों से जीतकर आए ऐसे नेता देश चलाने के काबिल ही नहीं होते।
देश चलाने की काबिलियत पर टाटा अग्नि चाय का एक विग्यापन करारा चोट करता है। प्रसंगवश इसका जिक्र करना गलत नहीं होगा। इस विग्यापन में एक नेताजी साधिकार एक मतदाता के पास पहुंचते हैं और कहते हैं कि -मैं आपसे आपका वोट मांगने आया हूं। इस पर मतदाता कहता है कि आपकी योग्यता क्या है? इस सवाल की खिल्ली उड़ाने के अंदाज में नेताजी का शागिर्द कहता है कि पूरे २५ साल का तजुर्बा है नेताजी को। इस जवाब से मतदाता संतुष्ट नहीं होता और न ही नेताजी के दबदबे से विचलित होता है। पूछता है कि-आपके पास अनुभव क्या है? अनुभव के सवाल पर अब नेताजी बौखला जाते हैं क्यों कि पहली बार वोट के सवाल पर कोई मतदाता इतने सवाल करता दिखता है। उल्टे सवाल करते हैं कि उन्होंने क्या किसी जाब के लिए अप्लाई किया है? अविचल मतदाता तपाक से जवाब देता है-आपने देश चलाने का जाब अप्लाई किया है। इस जवाब पर वोट मांगने आए नेताजी और उनके शागिर्द दोनों झेंप जाते हैं। यह आखिरी संवाद बहुत ही प्रभावकारी तरीके से यह बताता है कि नेता बनना देश चलाने का जाब है। आप उसमें कहां फिट बैठते हैं। अगर आप इस काबिल हैं तो आप को वोट मांगने का अधिकार है अन्यथा देश के भविष्ये साथ खिलवाड़ मत करिए।
विडंबना यह है कि आज के माहौल में बस खिलवाड़ ही तो हो रहा है। अगर खिलवाड़ नहीं होता तो बिहार के अनंत सिंह जैसे जनप्रतिनिधि कैसे पैदा हो जाते। जिन्होंने सरेआम लोकतंत्र की खिल्ली उड़ाते हुए खबर के लिए चंद सवाल पूछने गए पत्रकारों को बांधकर पीटा। ऐसे नेता से क्या कोई मतदाता यह सवाल पूछ सकता है कि वोट के लिए आपकी काबिलियत क्या है ? उसकी यह मजाल कि अनंत जैसे नेता को वोट देने से मना कर दे। अनंत की मोकामा इलाके में समानांतर सत्ता है। इतना खौफ पैदा करने वाले अनंत अकेले जनप्रतिनिधि नहीं हैं। सभी दलों में ऐसे बाहुबली हैं जो कहलाने को विधायक या सांसद होते हैं मगर असल में वे अपराधी किस्म के लोग होते हैं। यानी जब राजनीति का अपराधीकरण इस कदर हो चुका हो कि मतदाता विवेक की बजाए खौफ के साए में वोट डाले तो कैसा लोकतंत्र और कैसे जनप्रतिनिधि? इनकी देश को चलाने की काबिलियत कैसे मानी जा सकती है? हां मतदाताओं को डराने धमकाने की काबिलियत अवश्य इनमें होती है। इस काबिलियत की पार्टियों को सत्ता हासिल में जरूरत पड़ती है मगर देश के लिए ये नेता नहीं नासूर हैं। देश चलाने की काबिलियत को उस पैमाने पर भी मापा जाना चाहिए जो मंत्री या मंत्रालय के कामकाज देखने में एक वरिष्ठ आईएस अधिकारी से की जाती है। एक आईएस को विभिन्न परीक्षाओं व प्रशिक्षणों से तपाकर निकाला जाता है। जब वह खरा सोना बन जाता है तभी अनुभवों और कामकाज के बेहतर रिकार्ड के आधार पर उसे जिम्मेदारी सौंपी जाती है। क्या जनप्रतिनिधि से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती। नेता को भी कई परीक्षणों के दौर से गुजारना चाहिए। पार्टियों में नेतृत्व की क्षमता के आधार पर भर्ती की जानी चाहिए। निचले स्तर पर बेहतर शैक्षणिक रिकार्ड वाले ऐसे कार्यकर्ताओं को लिया जाना चाहिए जिनकी छवि साफ-सुथरी हो। इन्हें ही देश चलाने के लिए तैयार किया जाना चाहिए। मगर यह सब सभी पार्टियों की आचार संहिता में दफ्न हैं। हकीकत में पढ़ाई छोड़कर गुंडागर्दी करने वाले कालेज, विश्वविद्यालय या गली मुहल्लों के दादा को ही ज्यादातर नेता बनने का मौका हासिल होता है। अब बताईये कि एक तेज तर्रार छात्र जीवन गुजार चुका शख्स बेहतर होगा या ये गुंडे।
यह भी कहा जा सकता है कि बेहतर छात्र नेता की जगह डाक्टर, इंजीनियर या प्रशासनिक अधिकारी बनना पसंद करते हैं। मगर यह सही नहीं है। अगर राजनीति की डगर साफ-सुथरी अपराध मुक्त होती तो सभी अच्छे छात्र मंत्री बनना क्यों नहीं पसंद करते। मगर प्रखर छात्रों को नेता बनाने के लिए संरक्षण की जरूरत होगी। यह प्रयोग पार्टियां करती भी हैं। कई क्षेत्रों के विशेषग्यों को चुनाव जितवाकर लाती हैं और उन्हें वैसी जिम्मेदारी सौंपती हैं। लेकिन यह तो कृपा करने वाली बात हुई। ऐसे लोगों का जनाधार नहीं होता और न ही आम लोगों की व्यवहारिक समस्याओं का ग्यान होता है। नेता के तौर पर इनका व्यक्तित्व अधूरा होता है। इस प्रक्रिया को अपनाने की जगह पढ़े लिखे लोगों को बतौर पार्टी कार्यकर्ता प्रशिक्षित किया जाना शायद बेहतर होगा। और ऐसा तब होगा जब सभी पार्टियों को कानूनी दायरे में बांधकर ऐसा करने पर मजबूर किया जाए। इसे ठीक से लागू करने के लिए अपराध से नाता रखने वालों से नाता ईमानदारी से तोड़ना होगा। जनता इस मुद्दे पर दबाव डालने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभा सकती है। जागरूकता और हिम्मत के साथ ऐसे किसी प्रतिनिधि का बहिष्कार करना होगा भले ही वह अपनी रुचि की ही पार्टी का क्यों न हो। तय करना होगा कि देश चलाने का जाब उसी को सौंपेंगे जो इसकी काबिलियत रखता है। क्या राजनीति को धंधा, जनता को खेती, भ्रष्टाचार व अपराध को सिध्दांत, गुंडागर्दी को अपनी योग्यता समझने वाले नेताओं को टाटा-बाय बाय करने को तैयार हैं आप? अगर नहीं तो आपको भी जनप्रतिनिधि चुनने और ऐसी सरकारों को कोसने का कोई अधिकार नहीं है। देश को चलाने वाले लोगों के नियोक्ता आप ही हैं। जागिए, वरना वतन को गिरवी रख आपको फिर गुलाम बना देंगे ये नाकाबिल नेता।
डा. मान्धाता सिंह
३७, मनुजेंद्र दत्त रोड, दमदम कैंट
कोलकाता-२८
फोन-०३३-२५२९२२५२
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