Monday, 26 November 2007

तस्लीमा के मायने

पश्चिम बंगाल में कट्टरपंथियों के हिंसक विरोध के बाद दर-बदर हुईं बांग्लादेश की विवादास्पद लेखिका तस्लीमा नसरीन के प्रति वाममोर्चा की बुद्धदेव सरकार के रवैए ने कई सवाल और राजनैतिक संकट खड़े कर दिए हैं। पहले तो यही कि सत्ता और वोट की खातिर एक सिद्धांतवादी सरकार कट्टरपंथियों के आगे झुक गई। यही सरकार इन्हीं तसलीमा को पश्चिम बंगाल में बाकायदा प्रगतिशीलता के परिचय देते हुए तब संरंक्षण और शरण दिया था जब इनकी दूसरी विवादास्पद पुस्तक द्विखंडिता प्रकाशित की गई थी। कोलकाता पुस्तक में तस्लीमा ने बाकायदा भ्रमण किया। तब कट्टरपंथी विरोध जरूर कर रहे थे मगर इतने हिंसक होने की औकात नहीं थी। साफ कहा जा सकता है कि कट्टरपंथ के आगे तब किसी भी हाल में न झुकने की दृढ़ता दिखाई थी बुद्धदेव ने। तस्लीमा बेखौफ कोलकाता में रह रहीं थीं मगर आज बुद्धदेव के सामने ऐसी क्या मजबूरी आ गई कि खुद सरकार को तस्लीमा को गुपचुप बंगाल निकाला करके जयपुर भेजना पड़ा। इसमें उनके कोलकाता के मारवाड़ी सहायकों ने मदद की। इसमें स्पष्ट नाम राजस्थान फाउंडेशन के संदीप भूतोड़िया का लिया जा रहा है। अब पता नहीं भूतोड़िया ने ऐसा करके मुख्यमंत्री व वाममोर्चा सरकार की मदद की या राजकीय व संवैधानिक संरक्षण से वंचित तस्लीमा की। जो भी हो भूतोड़िया तो सरकार के संकट मोचक बन गए और तस्लीमा के मददगार मगर इस पूरी कवायद ने राजनैतिक संकट खड़ा कर दिया है। पहला तो यही कि क्या धर्म के आधार पर ऐसा कोई सरकार कर सकती है जैसा तसलीमा के साथ किया गया। दूसरी बात यह कि अगर इसी तरह कट्टरपंथियों के आगे सरकारें सत्ता व वोट की खातिर झुकतीं रहीं तो इस देश में संविधानिक व्यवस्था का क्या भविष्य होगा। क्या दलाई लामा को देश से बाहर करने की जहमत उठाई जा सकती है। अगर नहीं तो तसलीमा को राजनैतिक संरक्षण के मुद्दे पर क्यों ढुलमुल रवैया अपनाया जा रहा है। जब गुजरात के नरेंद्र मोदी साफ-साफ शब्दों में तस्लीमा को शरण देने को तैयार हैं तो बाकी को क्यों ड़र लग रहा है। तस्लीमा का सवाल छोड़ भी दिया जाए तो क्या यह मान लिया जाए कि अब किसी भी मुद्दे पर कट्टरपंथी सरकारों को अपने हिसक विरोध के बल पर झुका देंगे। अगर ऐसा ही है तो यह देश के लिए बहुत भयावह स्थिति हो गई है। भारतीय राजनीति में तो माफियाओं ने कब्जा कर ही लिया है। ताजा उदाहरण तो अनंत सिंह का सामने ही है कि वे उन पत्रकारों को सरआम बांधकर पीटते हैं जो उनसे सवाल पूछने जाते हैं। आम जनता इन माफियाओं के जुल्म से बेफिक्र होकर जी नहीं पा रही है। पत्रकार धमकाए व पीटे जा रहे हैं और अपनी जमीन देने से मना करने और विरोध करने पर माकपा के कैड़रों ने नंदीग्राम में किसानों का जीना मुहाल कर दिया है । हमारी चुनी सरकार के मुख्यमंत्री बुद्धदेव बाकायदा एलान करते हैं कि हमने बदला चुका लिया। उधर नरेंद्र मोदी गुजरात में लोगों को संविधानिक सुरक्षा देने की जगह क्रिया-प्रतिक्रिया का न्यूटन का सिद्धांत लागू कर देते हैं तो फिर देश में सुरक्षित कौन बचेगा। यह तो संविधानिक संकट भी है। क्या मोदी और बुद्धदेव को लोगों को संविधानिक
सुरक्षा प्रदान की जिम्मेदारी नहीं। सरकार का मुखिया होने के नाते उनकी सबसे पहली जिम्मेदारी नागरिकों को संविधानिक सुरक्षा प्रदान करने की है मगर इसका न तो मोदी ने निर्वाह किया और न कामरेड बुद्धदेव ने। स्पष्ट है कि दोनों ने अपनी सत्ता के लिए उस संविधानिक जिम्मेवारी को नहीं निभाई जिसकी मुख्यमंत्री बनते वक्त शपथ ली थी।
तब आम आदमी अब किस पर भरोसा करे। क्या ख्द कानून हाथ में ले, शस्त्र उठाए। अगर ऐसा है तो राज करने वालों सावधान हो जाओ क्यों कि जनक्रांति तुम्हें भी कुचल देगी। बेहतर है संविधान के दायरे में रहकर अपनी जिम्मेदारियां निभाओं, अवाम को हथियार उठाने पर मत मजबूर करो। तुम पर भरोसा है अवाम को तो इस भरोसे को कायम रखने में ही देश की भलाई भी है। नंदीग्राम और तस्लीमा के मामले में गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाकर जो संकट खड़ा किया है उसे खुद ही खत्म करना होगा। लोकतंत्र को ताकत का गुलाम बनाना न तो देश हित में है न ही आप राजनेताओं के लिए श्रेयस्कर।

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