Saturday, 17 November 2007
नंदीग्राम : जमीन व गांवों के बाद अब वैचारिक दखल की लड़ाई
पश्चिम बंगाल में लेखकों, कलाकारों, शिल्पकारों का आम जनता बेहद सम्मान करती है। इतना ही नहीं बंगाल के ये बुध्दिजीवी कई अहम सरकारी फैसलों पर भी अपने प्रभाव रखते हैं। सरकार भी सामाजिक-सांस्कृतिक विकास के हर पहलू पर इनसे राय लेकर आगे बढ़ती है। पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार के स्थायित्व की सामाजिक-सांस्कृतिक कड़ी हैं ये बुध्दिजीवी। जिस तरह से माकपा या उसके घटक राजनीतिक ताकत से आम लोगों को अपना समर्थक बनाए हुए हैं उसी तरक से आम लोगों के वैचारिक और भावनात्मक जमीन की बड़ी मजबूत कड़ी हैं पश्चिम बंगाल के बुध्दिजीवी, रंगमंच व नाट्यकर्मी, खिलाड़ी और शिल्पकार वगैरह। आम लोगों की बुध्दिजीवियों के प्रति इसी अटूट आस्था की बुनियाद को वाममोर्चा सरकार ने अपने स्थायित्व का मानदंड बना लिया है। यही वजह है कि कई बार सरकार को इन्हीं बुध्दिजीवियों की बात सरकार को माननी पड़ती है। ये बातें मैं सिर्फ पश्चिम बंगाल के संदर्भ में कह रहा हूं। यह िस लिए भी कि अब नंदीग्राम के मुद्दे पर बंगाल के ये बुध्दिजीवी भी हथियार के तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे हैं। यह नहीं कहता मगर नंदीग्राम के मुद्दे पर कोलकाता में १४ नवंबर और १५ नवंबर को हुई बुध्दिजीवियों की लगातार दो रैलियों ने इस खेमेबाजी को बेपर्दा कर दिया है। सिर्फ बंगाल ही नहीं देश भर के वामपंथी बुध्दिजीवी पश्चिम बंगाल की उस बुध्ददेव सरकार के साथ खड़े हो गए हैं जिसने बाकायदा कैडरों व सरकारी मशीनरी के बल पर नंदीग्राम में बर्बरता का परिचय दिया।
पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम मसले पर अब देश के बुद्धिजीवी विभाजित हो गए है। १४ नवंबर २००७ को कोलकाता में मृणाल सेन, महाश्वेता देवी, जोगेन चौधरी, सांवली मित्रा, ममता शंकर आदि ने नंदीग्राम के मुद्दे पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के रवैए का विरोध किया था और जुलूस में भाग लिया था। गुरुवार को दिल्ली में प्रख्यात इतिहासकार इरफान हवीब, सईद मिर्जा, एमके. रैना, प्रभात पटनायक, जयंती घोष जैसे बुद्धिजीवियों ने एक बयान जारी कर माकपा का समर्थन किया है। इन बुद्धिजीवियों ने बयान में कहा है कि वैसे तो उनकी पूरी सहानुभूति उन किसानों के साथ है जो खुद को बेदखल किए जाने के खिलाफ लड़ रहे है, लेकिन नंदीग्राम के मसले पर वाममोर्चा सरकार ने स्पष्ट रप से कहा है कि वहाँ कोई रासायनिक कारखाना नहीं खोला जाएगा लेकिन इसके वाबजूद इस मुद्दे पर संघर्ष जारी है जो अवांछित है। इन बुद्धिजीवियों का कहना है कि नंदीग्राम में अब जो लोग लौट रहे है, वे माकपा के समर्थक है और उन्हें अपनी जमीन से बेदखल कर दिया गया था। बयान में कहा गया है कि नंदीग्राम में अब जो विरोध हो रहा है वह इन्हीं माकपा समर्थकों की वापसी के खिलाफ हो रहा है1 बयान पर मालिनी भट्टाचार्य, राजेन्द्र प्रसाद, शशि कुमार और पार्थिव शाह के भी हस्ताक्षर है।
देश के इन वामपंथी बुध्दिजीवियों को इस बात का कोई मलाल नहीं कि बदला लेने के इस खूनी खेल में मरा तो गरीब किसान ही। आखिर आपके विचारों की पोषक बंगाल सरकार यह खेल लोकतांत्रिक तरीके की बजाए गुंडों की तरह क्यों खेल रही है? यह कौन सी क्रांति का रास्ता है? अपने मकसद के लिए जब नक्सली संगठन भी खून-खराबा करते हैं तब आपको क्यों गलत लगता है? तब यह कानून और व्यवस्था का सवाल होता है और नंदीग्राम का माकपाई खूनी खेल उचित लगता है। अगर आगे आना ही ही है तो पहले मुख्यमंत्री बुध्देव पर सवाल उठाइए जिन्हें नंदीग्राम की माकपाई गुंडों की कार्रवाई ईंट का जवाब पत्थर लगता है। सिर्फ तरफदारी करना बुध्दिजीवियों का धर्म क्यों बन गया है। क्या सही गलत का विचार बुध्दिजीवी भी राजनेताओं की ही तरह करेंगे ? अगर हां तो कल को यह फर्क करना भी मुश्किल हो जाएगा कि आप वाकई बुध्दिजीवी हैं या बुध्दिजीवियों के वेश में मौकापरस्त राजनेता ?
जब भी देश पर राजनैतिक और वैचारिक संकट आया है तो इतिहास गवाह है कि हमारे लेखक, पत्रकार, शिक्षक, रंगमंच के कलाकार, समाजसेवी सभी कंधे से कंधा मिलाकर इन्हीं गरीब और कुचली जा रही जनता को दमनचक्र से उबारा है। चाहे वह हमारी आजादी का मसला रहा हो या फिर सामाजिक सुधार का। खुद यातनाएं सहते रहे मगर विचारों को नतो मरने दिया और न ही किसी सत्ता के हाथों बिके। जो बिके उन्हें समय ने भी माफ नहीं किया। फिर इस दुसमय में आप कहां खड़े होने जा रहे हैं। यह विचार इस लिए भी करिए क्यों कि आपके ही साथ के लोगों ने सरकार के कृत्य को अमानवीय करार दिया है। आप ही की तरह जनसत्ता हिंदी दैनिक में एक विचारक व वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने नंदीग्राम की घटना से आहत होकर १५ नवंबर के अंक में जो लेख लिखा है उसमें बुध्देव को युध्ददेव करार दिया है। ऐसा नहीं कि उन्हें नंदीग्राम के सच का पता नहीं है। फिर माकपा के कृत्य के साथ खड़े होने वाले आप बुध्दिजीवी क्यों दिग्भ्रमित हैं?
आइए अब उन दोनों शांति जुलूसों की भी पड़ताल करें जिसने बंगाल की जनता को दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया। एक जुलूस हिंसा के खिलाख निकला और इतना विशाल कि खुद सरकार भी घबरा गई और उनके समर्थकों की तरफ दूसरे दिन जवाबी जुलूस निकाला जो पहले जुलूस के आगे लगभग प्रभावहीन ही रहा।
पहला शांति मार्च
पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में जारी हिंसा के विरोध में बुधवार को कोलकाता में बुद्धिजीवियों ने एक शांतिमार्च का आयोजन किया. इन बुद्धिजीवियों ने नंदीग्राम की हिंसा को 'जनसंहार' बताते हुए वहाँ शांति स्थापना की माँग की है.
लेखकों, फ़िल्मकारों, अभिनेताओं, चित्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की इस रैली में मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के उस बयान की भी निंदा की गई जिसमें उन्होंने सीपीएम के कार्यकर्ताओं की हिंसा को सही ठहराया था. बुद्धदेब भट्टाचार्य ने मंगलवार को कहा था कि हिंसा पहले विपक्ष ने की थी और सीपीएम कार्यकर्ताओं की हिंसा तो उसका जवाब भर थी.
बीबीसी संवाददाता अमिताभ भट्टाशाली के अनुसार इस शांति मार्च में कोई बीस हज़ार लोगों ने हिस्सा लिया.
तीन किलोमीटर से भी अधिक लंबी इस रैली में फ़िल्मकार मृणाल सेन, गौतम घोष और अपर्णा सेन, चित्रकार जोगेन चौधरी और सुवा प्रसन्ना, उपन्यासकार शीर्षेन्दु मुखर्जी, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी सहित कई विभिन्न क्षेत्र के प्रमुख हस्तियों ने हिस्सा लिया. इस मौन रैली में प्रदर्शनकारी पोस्टर और बैनर लिए हुए थे जिसमें नंदीग्राम में हिंसा का विरोध किया गया था और इसे 'जनसंहार' भी कहा गया था. समाचार एजेंसी यूएनआई के अनुसार फ़िल्मकार अपर्णा सेन और गौतम घोष ने इसे ऐतिहासिक रैली बताते हुए कहा है कि यह एक ग़ैर-राजनीतिक विरोध प्रदर्शन था.
गौतम घोष ने मुख्यमंत्री बुद्धदेब के बयान की निंदा करते हुए कहा है कि राज्य के मुख्यमंत्री को इस भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए. पीटीआई के अनुसार उन्होंने कहा, "एक सामान्य राजनीतिज्ञ तो अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए 'हम' और विपक्षी दलों के लिए 'उनका' जैसे संबोधनों का प्रयोग कर सकते हैं लेकिन एक मुख्यमंत्री ऐसा नहीं कर सकते."
जवाबी रैली
बुद्धिजीवियों ने इस विरोध प्रदर्शन को ग़ैर राजनीतिक कहा है लेकिन इसके बाद ही गुरुवार को एक और रैली निकाले जाने की घोषणा की गई। बीबीसी संवाददाता का कहना है कि जिन बुद्धिजीवियों के नाम इस रैली के लिए दिए गए हैं वे आमतौर पर सरकार के समर्थक माने जाते हैं और इस रैली का उद्देश्य सरकार पर दबाव बनाना नहीं बल्कि सरकार का समर्थन करना होगा. अब यह बड़ा मुद्दा नहीं रह गया कि दूसरी जवाबी रैली में किस कद के बुद्धिजीवी शामिल हुए। यह मुद्दा है माकपा की एक दूसरी जवाबी कार्रवाई का जिसने अपने ही बुद्धिजीवियों को दो खेमे में खड़ा कर दिया है। एक ओर हिंसा से आहत तो दूसरी ओर सरकार को सही ठहराते बुद्धिजीवी। यानी नंदीग्राम में माकपा के कैडरों ने इलाका दखल तय कर दिया तो कोलकाता उनके कृत्य को जायज ठहराने के लिए बुद्धिजीवियों की इलाका दखल की लड़ाई शुरू कर दी गई है। वहां किसानों को बेदखल करने का खूनी खेल हुआ तो यहां वैचारिक जमीन के दखल की लड़ाई चल रही है। यह कौन सा विकास का रास्ता है? यह तो खुद माकपा या उसके कर्णधार ही बता सकते हैं। हम तो इनके सही और गलत में ही उलझ गए हैं।
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