Thursday, 28 February 2008

सिर्फ धनी वर्ग के लिए ही विश्वस्तरीय संस्थान की वकीलत क्यों ?

तकनीकी और प्रबंधन जैसी शिक्षा जिस कदर मंहगी होती जा रही है उसके हिसाब से आम आदमी को कम खर्च में मंहगे संस्थानों की तरह की सुविधा से मुंह मोड़ती अपनी कल्याणकारी सरकारें लगता है कि वैश्वीकरण के आगे बेबश हो गई हैं। तभी तो प्रबंध व तकनाकी संस्थान की पढ़ाई आम आदमी के बच्चों की पहुंच से लगातार दूर होती जा रही है। यही हाल रहा तो यह शिक्षा व्यवस्था ही मैकाले का वह मिशन पूरा करेगी जिसने जिसने अंग्रेजों या भारतीय अंग्रेजों के सामने आम भारतीयों को असहाय व अछूत जैसी श्रेणी में ला खड़ा कर दिया था। क्या भारत की मौजूदा शिक्षा पद्धति पूरी तरह भारतीय हो पाई है? संभवतः पूरी तरह नहीं। ऐसे में सिर्फ धनी वर्ग के लिए ही विश्वस्तरीय संस्थान की वकीलत क्यों की जा रही है? अधिकांश सामान्य आय वाले अभिभावक कैसे समझाएं अपने उन बच्चों को जो कैट या दूसरी परीक्षा की तैयारी से लेकर दाखिले का भारी खर्च न ढो पाने की स्थिति में मन मसोस कर कम खर्च वाली पढ़ाई का रास्ता अख्तियार करने को मजबूर होतो हैं। ऐसे हजारों छात्र बेहतर इजीनियर व प्रबंधक बन सकते हैं मगर मंहगी होती पढ़ाई उनकी राह में रोड़ बनती जा रही है।

यह अजब किस्म का विरोधाभास है कि एक तरफ केंद्र या राज्य सरकारों ने गरीब व अक्षम तबके के विकास के लिए आरक्षण की नीति अपनी रखी है तो दूसरी तरफ शिक्षाजगत में महंगी शिक्षा को बढ़ावा देकर एक बड़ी खाई पैदा कर रही है। स्पष्ट है कि यह मजदूर के बेटे को मजदूर ही बनाकर रखने की साजिश है। यह कौन सा तर्क है कि कम काबिल मगर संपन्न घर का बेटा इजीनियर, डाक्टर या प्रबंधक बन सकता है मगर उसके मुकाबले तेज मगर गरीब घर का बेटा इन सुविधाओं से वंचित रह जाए। अपने संविधान में समान अवसर की कानूनी व्यवस्था का यह तो सरासर उल्लंघन है और ताज्जुब है कि संविधान कीदुहाई देकर आरक्षण की वकालत करने वाली सरकारें भी शिक्षा को महंगी होते देख रहे हैं। कल्याणकारी सरकारें आखिर किसका कल्याण करना चाहती हैं? फिलहाल तो यह समझ से परे है। सरकारी स्कूल, जो कि कम खर्च में सभी के लिए समान काबिलियत प्रदर्शित करने का जरिया थे, बेहत आधुनिकी करण के अभाव में पिछड़ते जा रहे हैं। निजी स्कूलों को बढ़ावा देने के कारण अब बंद होने की कगार पर हैं। यानी ऐसी दोहरी शिक्षा व्यस्था लादी जा रही है जो शिक्षा के लिहाज से समाज का वर्गीकरण कर रही है। चमचमाते निजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के सामने काबिल होने के बावजूद खुद को हीन मानने को मजबूर किए जा रहे हैं गरीब छात्र।

गरीब लोगों की पहुंच से दूर रखने की कवायद में वह सब कुछ हो रहा जो नहीं होना चाहिए। महंगे होने के इसी क्रम में भारतीय प्रबंध संस्थान कोलकाता (आईआईएम कोलकाता) ने सालाना फीस एक लाख रूपए बढ़ा दी है। मंगलवार को बोर्ड की अंतरिम बैठक में यह तय किया गया। इस वृद्धि पर संस्थान के निदेशक शेखर चौधरी का कहना है कि संस्थान के रखरखाव व ढांचागत खर्च में वृद्धि ने फीस बढ़ाने पर मजबूर कर दिया। पहले आईआईएम कोलकाता की सालाना फीस दो लाख थी जो अब बढ़कर इस सत्र से तीन लाख सालाना हो जाएगी। ऐसा नहीं कि सिर्फ कोलकाता ने फीस बढ़ाई है भारत के अग्रणी प्रबंध संस्थान अमदाबाद व बंगलूर भी फीस बढ़ा चुके हैं। अमदाबाद ने २.५ लाख से तीन लाख सालना और बंगलूर ने २.५ से ३.५ लाख सालाना कर दिया है। मार्च में फीस दर बढ़ाने पर बैठक होगी। हालांकि इस वृद्धि से गरीब छात्रों को उबारने के लिए आईआईएम कोलकाता ने और अधिक मेधावी गरीब छात्रों को छात्रवृत्ति देने का फैसला किया है। बोर्ड के एक अंतरिम फैसले में तय हुआ है कि अब २५ की जगह ५०-६० छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाएगी। इसके अलावा कुछ और छात्रों को मदद की पहल की जाएगी।

मालूम हो कि भारतीय प्रबंध संस्थान जैसे मंहगे संस्थानों के दरवाजे आम छात्रों को खोलने की गरज से पूर्ववर्ती राजग सरकार के मानवसंसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने ८० प्रतिशत फीस कम किए जाने की पहल की थी जिस पर कोलकाता समेत बंगलूर व अमदाबाद के निदेशक नाराज हो गए थे। काफी खींचतान मची थी जिसमें जोशी ने अनुदान बंद कर देने तक की चेतावनी दे दी थी। यह मामला तब सुलटा जब नई संप्रग सरकार के मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने उस मुद्दे को वहीं दफनाकर सभी छह भारतीय प्रबंध संस्थानों की फीस में एकरूपता लाने की पहल की। फिर मामला उलझ गया और अंततः यहां भी संस्थानों की मनमानी चली और सरकार को झुकना पड़ा। संस्थानों का कहना है कि अभी भी प्रत्येक छात्र १.५ लाख का घाटा संस्थान के सहना पड़ता है जबकि संस्थान के कर्मियों को नए वेतनमान भी देने पड़ेंगे। कुल मिलाकर संस्थान ऐसे किसी रास्ते पर चलने को तैयार नहीं जिससे मेधावी मगर गरीब छात्र भी ऐसे संस्थान में शिक्षा हासिल कर सकें। क्या यह गलत नहीं लगता कि एक ही संस्थान में पढ़ रहे छात् में से कुछ को सिर्फ संपन्न्ता न होने के कारण अनुदान वाला की श्रेणा का करार दिया जाए। शिक्षा के क्षेत्र में समानता काबिलियत की होती तो यह एक सम्मानजनक होता। विश्वस्तरीय की दुहाई देकर आखिर कब तक गरीब छात्रों को अपमानित किया जाता रहेगा ? कुछ छात्रवृत्तियां कितनों का भला कर पाएंगी?

सिर्फ धनी वर्ग के लिए ही विश्वस्तरीय संस्थान की वकालत क्यों ?

तकनीकी और प्रबंधन जैसी शिक्षा जिस कदर मंहगी होती जा रही है उसके हिसाब से आम आदमी को कम खर्च में मंहगे संस्थानों की तरह की सुविधा से मुंह मोड़ती अपनी कल्याणकारी सरकारें लगता है कि वैश्वीकरण के आगे बेबश हो गई हैं। तभी तो प्रबंध व तकनाकी संस्थान की पढ़ाई आम आदमी के बच्चों की पहुंच से लगातार दूर होती जा रही है। यही हाल रहा तो यह शिक्षा व्यवस्था ही मैकाले का वह मिशन पूरा करेगी जिसने जिसने अंग्रेजों या भारतीय अंग्रेजों के सामने आम भारतीयों को असहाय व अछूत जैसी श्रेणी में ला खड़ा कर दिया था। क्या भारत की मौजूदा शिक्षा पद्धति पूरी तरह भारतीय हो पाई है? संभवतः पूरी तरह नहीं। ऐसे में सिर्फ धनी वर्ग के लिए ही विश्वस्तरीय संस्थान की वकीलत क्यों की जा रही है? अधिकांश सामान्य आय वाले अभिभावक कैसे समझाएं अपने उन बच्चों को जो कैट या दूसरी परीक्षा की तैयारी से लेकर दाखिले का भारी खर्च न ढो पाने की स्थिति में मन मसोस कर कम खर्च वाली पढ़ाई का रास्ता अख्तियार करने को मजबूर होतो हैं। ऐसे हजारों छात्र बेहतर इजीनियर व प्रबंधक बन सकते हैं मगर मंहगी होती पढ़ाई उनकी राह में रोड़ बनती जा रही है।

यह अजब किस्म का विरोधाभास है कि एक तरफ केंद्र या राज्य सरकारों ने गरीब व अक्षम तबके के विकास के लिए आरक्षण की नीति अपनी रखी है तो दूसरी तरफ शिक्षाजगत में महंगी शिक्षा को बढ़ावा देकर एक बड़ी खाई पैदा कर रही है। स्पष्ट है कि यह मजदूर के बेटे को मजदूर ही बनाकर रखने की साजिश है। यह कौन सा तर्क है कि कम काबिल मगर संपन्न घर का बेटा इजीनियर, डाक्टर या प्रबंधक बन सकता है मगर उसके मुकाबले तेज मगर गरीब घर का बेटा इन सुविधाओं से वंचित रह जाए। अपने संविधान में समान अवसर की कानूनी व्यवस्था का यह तो सरासर उल्लंघन है और ताज्जुब है कि संविधान कीदुहाई देकर आरक्षण की वकालत करने वाली सरकारें भी शिक्षा को महंगी होते देख रहे हैं। कल्याणकारी सरकारें आखिर किसका कल्याण करना चाहती हैं? फिलहाल तो यह समझ से परे है। सरकारी स्कूल, जो कि कम खर्च में सभी के लिए समान काबिलियत प्रदर्शित करने का जरिया थे, बेहत आधुनिकी करण के अभाव में पिछड़ते जा रहे हैं। निजी स्कूलों को बढ़ावा देने के कारण अब बंद होने की कगार पर हैं। यानी ऐसी दोहरी शिक्षा व्यस्था लादी जा रही है जो शिक्षा के लिहाज से समाज का वर्गीकरण कर रही है। चमचमाते निजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के सामने काबिल होने के बावजूद खुद को हीन मानने को मजबूर किए जा रहे हैं गरीब छात्र।

गरीब लोगों की पहुंच से दूर रखने की कवायद में वह सब कुछ हो रहा जो नहीं होना चाहिए। महंगे होने के इसी क्रम में भारतीय प्रबंध संस्थान कोलकाता (आईआईएम कोलकाता) ने सालाना फीस एक लाख रूपए बढ़ा दी है। मंगलवार को बोर्ड की अंतरिम बैठक में यह तय किया गया। इस वृद्धि पर संस्थान के निदेशक शेखर चौधरी का कहना है कि संस्थान के रखरखाव व ढांचागत खर्च में वृद्धि ने फीस बढ़ाने पर मजबूर कर दिया। पहले आईआईएम कोलकाता की सालाना फीस दो लाख थी जो अब बढ़कर इस सत्र से तीन लाख सालाना हो जाएगी। ऐसा नहीं कि सिर्फ कोलकाता ने फीस बढ़ाई है भारत के अग्रणी प्रबंध संस्थान अमदाबाद व बंगलूर भी फीस बढ़ा चुके हैं। अमदाबाद ने २.५ लाख से तीन लाख सालना और बंगलूर ने २.५ से ३.५ लाख सालाना कर दिया है। मार्च में फीस दर बढ़ाने पर बैठक होगी। हालांकि इस वृद्धि से गरीब छात्रों को उबारने के लिए आईआईएम कोलकाता ने और अधिक मेधावी गरीब छात्रों को छात्रवृत्ति देने का फैसला किया है। बोर्ड के एक अंतरिम फैसले में तय हुआ है कि अब २५ की जगह ५०-६० छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाएगी। इसके अलावा कुछ और छात्रों को मदद की पहल की जाएगी।

मालूम हो कि भारतीय प्रबंध संस्थान जैसे मंहगे संस्थानों के दरवाजे आम छात्रों को खोलने की गरज से पूर्ववर्ती राजग सरकार के मानवसंसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने ८० प्रतिशत फीस कम किए जाने की पहल की थी जिस पर कोलकाता समेत बंगलूर व अमदाबाद के निदेशक नाराज हो गए थे। काफी खींचतान मची थी जिसमें जोशी ने अनुदान बंद कर देने तक की चेतावनी दे दी थी। यह मामला तब सुलटा जब नई संप्रग सरकार के मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने उस मुद्दे को वहीं दफनाकर सभी छह भारतीय प्रबंध संस्थानों की फीस में एकरूपता लाने की पहल की। फिर मामला उलझ गया और अंततः यहां भी संस्थानों की मनमानी चली और सरकार को झुकना पड़ा। संस्थानों का कहना है कि अभी भी प्रत्येक छात्र १.५ लाख का घाटा संस्थान के सहना पड़ता है जबकि संस्थान के कर्मियों को नए वेतनमान भी देने पड़ेंगे। कुल मिलाकर संस्थान ऐसे किसी रास्ते पर चलने को तैयार नहीं जिससे मेधावी मगर गरीब छात्र भी ऐसे संस्थान में शिक्षा हासिल कर सकें। क्या यह गलत नहीं लगता कि एक ही संस्थान में पढ़ रहे छात् में से कुछ को सिर्फ संपन्न्ता न होने के कारण अनुदान वाला की श्रेणा का करार दिया जाए। शिक्षा के क्षेत्र में समानता काबिलियत की होती तो यह एक सम्मानजनक होता। विश्वस्तरीय की दुहाई देकर आखिर कब तक गरीब छात्रों को अपमानित किया जाता रहेगा ? कुछ छात्रवृत्तियां कितनों का भला कर पाएंगी?

Tuesday, 26 February 2008

एक नींव साझेदारी की मैंने रखी नई - लालू


वर्ष 2008-09 का रेल बजट पेश करते हुए केंद्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव अपने रंग में नजर आए और मजाकिया लहजे के साथ ही उनका शायराना अंदाज सदन में खिलखिलाहटों और ठहाकों का कारण बनता रहा।
उनके पूरे भाषण में कई जगह शायराना अंदाज दिखाई दिया। सबसे पहले उन्होंने अपने पिछले चारों बजट की सफलता को पेश किया :


सब कह रहे हैं हमने गजब काम किया है
करोड़ों का मुनाफा हर एक शाम दिया है
फल सालों ये अब देगा पौधा जो लगाया है
सेवा का समर्पण का हर फर्ज निभाया है।


इसके बाद लालू ने पिछली एनडीए सरकार पर व्यंग्य किया :

उजड़ा चमन जो छोड़ गए थे हमारे दोस्त
अब बात कर रहे हैं वो फस्ले-बहार की।


इसके बाद उन्होंने रेलवे के मुनाफे का मूलमंत्र बताते हुए कहा :

नई कथनी नई करनी नई एक सोच लाए हैं
तरक्की की नई पारसमणि हम खोज लाए हैं।


एक के बाद एक लालू ने अपने कार्यकाल में रेलवे की उपलब्धियों को गिनाते हुए एक और शेर प्रस्तुत किया :

गोल पर गोल दाग रहे हैं हम हर मैच में
देश का बच्चा-बच्चा बोले चक दे रेलवे।


रेलवे में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भागीदारी को भी उन्होंने शायराना फल्सफे में बांधा :

लेकर चला हूं सबको तरक्की की राह पर
एक नींव साझेदारी की मैंने रखी नई।


रेलवे कर्मचारियों के बारे में घोषणाएं करने से पहले लालू ने रेलवे कर्मचारियों की निष्ठा और मेहनत बताई :

समर्पित जिसका जीवन राष्ट्र सेवा में हमेशा है
कड़ी मेहनत करे जो वो सिपाही रेलकर्मी है।


अपने पिछले बजट से कुछ और बेहतर घोषणाओं का दावा भी उन्होंने किया :

जादू और टोना हमने दिखाया था पिछले साल
इस बार पूरा इंद्रजाल देख लीजिए।


आम लोगों के लिए लालू का खास बजट

रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने रेल किरायों में लगातार पाँचवें साल भी कोई वृद्धि नहीं कर भारतीय रेल के इतिहास में मंगलवार को एक नया कीर्तिमान स्थापित किया वहीं आम लोगों को खुश करने वाला खास चुनावी बजट पेश किया।
उलटे उन्होंने 2008-09 के बजट में किरायों में पाँच से सात प्रतिशत की कमी करने और माल भाड़े में चौतरफा वृद्धि न करने के साथ-साथ बुजुर्ग महिलाओं, छात्राओं-छात्रों, एड्स रोगियों और अशोक चक्र विजेता सैनिकों के लिए यात्रा में अनेक रियायतें देने की घोषणा की।

लोकसभा में भारी हंगामे के बीच अपना भाषण पूरा करते हुए रेलमंत्री ने 50 किलोमीटर तक की गैर उपनगरीय यात्रा पर प्रति टिकट एक रुपया छूट देने और उससे ऊपर के किराए में पाँच प्रतिशत की कमी करने का भी ऐलान किया।

उन्होंने एसी प्रथम श्रेणी का किराया सात प्रतिशत और एसी द्वितीय श्रेणी का किराया चार प्रतिशत सस्ता कर दिया है, जिससे रेलवे सस्ते किरायों पर सेवा देने वाली एयरलाइनों को टक्कर दे सकेगी। रेलमंत्री ने लगातार दूसरे साल वातानुकूलित श्रेणी के किरायों में कटौती की है।

यादव ने कहा कि ज्यादा स्लीपर बर्थों वाले नई डिजाइन के आरक्षित सवारी डिब्बों में छूट में बढ़ोतरी की जाएगी। रेलमंत्री ने उद्योग जगत को माल भाड़े के मामले में राहत देते हुए भाड़ा दरों में सामान्य रूप से कोई वृद्धि नहीं की है। उन्होंने पेट्रोल और डीजल के भाड़े में पाँच प्रतिशत तक की कमी करने की घोषणा की जिससे पेट्रोलियम पदार्थों में हाल में की गई मूल्यवृद्धि का असर कुछ कम करने में मदद मिलेगी।

उन्होंने फ्लाई ऐश के भाड़े में 14 प्रतिशत की भारी कमी करने की घोषणा की जिससे ट्रक मालिकों को रेलवे से बड़ी चुनौती मिलेगी। पूर्वोत्तर राज्यों के लिए माल भाड़े में 6 प्रतिशत की एक और छूट देने का बजट में प्रस्ताव है।

यादव ने अपनी नई खोज गरीब रथ एक्सप्रेस गाड़ियों का काफिला और बढ़ाते हुए 2008-09 में इस तरह की 10 नई गाड़ियाँ चलाने की घोषणा की। उन्होंने 53 नई यात्री गाड़ियाँ शुर करने, 16 गाड़ियों की मंजिल बढ़ाने और 11 गाड़ियों के फेरे बढ़ाने की भी घोषणा की।

रेलमंत्री ने मुंबई की जान कही जाने वाली उप नगरीय गाडियों में 300 नई सेवाएँ जोड़ने की भी घोषणा की। यादव ने इस बार के बजट में अपने गृह राज्य बिहार का पहले की तरह खास ध्यान रखने के साथ-साथ महाराष्ट्र और वामपंथी शासित केरल, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों का भी ध्यान रखा है।

उन्होंने अल्पसंख्यकों, दलितों और पिछड़ों के कल्याण के नाम पर लाइसेंसधारी कुलियों को गैंगमैन जैसे चतुर्थ श्रेणी के पदों पर शामिल करने, रेलवे में अल्पसंख्क प्रकोष्ठों की स्थापना तथा रेलवे भर्ती की परीक्षाएँ उर्दू में लेने जैसी घोषणाएँ कीं, जो चुनावी वर्ष की घोषणाएँ मानी जा रही हैं।

रेलमंत्री ने कहा कि रेलवे में दो वर्ष के अंदर टिकट खिड़कियों पर लाइन की समस्या को खत्म कर दिया जाएगा। इसके लिए संचार और कंप्यूटर प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर मोहल्ले-मोहल्ले में टिकट बिक्री सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी तथा लोगों को मोबाइल पर टिकट बुक कराने की भी सुविधा मिलेगी।

रेल मंत्री ने यात्री सुविधाओं को आधुनिक बनाने के लिए सन 2012 तक 36 हजार सवारी डिब्बों में हवाई जहाजों जैसे डिस्चार्ज फ्री शौचालय लगाने पर 4000 करोड़ रुपए खर्च करने, चलती गाड़ियों में यात्रा के दौरान भी साफ सफाई की व्यवस्था और प्रमुख स्टेशनों पर स्वचालित सीढ़ियों और लिफ्ट आदि का इंतजाम करने की घोषणा की।

उन्होंने रेल सुरक्षा बढ़ाने के लिए रेलवे सुरक्षा बल के सिपाहियों के 5700 और उप निरीक्षकों के 993 पद भरने तथा आतंकवादी हमलों से बचाव के लिए प्रमुख स्टेशनों पर क्लोज सर्किट टेलीविजन, मेटल डिटेक्टर, माल की स्कैनिंग और विस्फोटकों का पता लगाने के लिए एकीकृत सुरक्षा व्यवस्था शुरू करने की भी घोषणा की।

बजट में दूरदराज के इलाकों में जच्चा-बच्चा सेवाओं के विस्तार के लिए 'मदर चाइल्ड हेल्थ एक्सप्रेस ट्रेन' चलाई जाएगी। सात डिब्बों की यह सेवा राजीव गाँधी फाउंडेशन के सहयोग से शुरू होगी।

चार स्टेशन बनेंगे विश्वस्तरीय : रेलमंत्री ने वर्ष 2008-09 का रेल बजट पेश करते हुए चार स्टेशनों को विश्वस्तीय बनाने का ऐलान किया। उन्होंने घोषणा की कि राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली, मुंबई का छत्रपति शिवाजी टर्मिनल, पटना और सिंकदराबाद स्टेशनों को विश्वस्तरीय बनाया जाएगा। इसके लिए खुली निविदा जारी की जाएगी।

कुलियों को किया खुश : लोकसभा में रेलवे बजट पेश करते हुए लाइसेंसधारी कुलियों की गैंगमैन के पद पर नियुक्ति के अवसरों को हरी झंडी दिखा दी। उन्होंने कहा कि बड़ी संख्या में गैंगमैनों के प्रमोशन से उनके जो पद रिक्त होंगे, उन्हें लाइसेंसधारी कुलियों से भरा जाएगा। उन्हें रेलवे में चतुर्थ श्रेणी के अन्य पदों पर भी रखा जाएगा।

टिकट लाइन से निजात : रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने संसद में वर्ष 2008-09 का रेल बजट पेश करते हुए रेल यात्रियों को टिकट की लम्बी लाइनों की समस्या से निजात दिलाने की घोषणा की। यादव ने कहा कि इसक लिए कंप्यूटर और इंटरनेट प्रौद्योगिकी के जरिए आरक्षित और सामान्य टिकट बेचने की सुविधा मुहल्लों-मुहल्लों तक पहुँचाई जाएगी। इसके अलावा लोगों को मोबाइल फोन से टिकट खरीदने की सुविधा भी प्रदान की जाएगी।

53 नई गाड़ियाँ 10 गरीब रथ : रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने मंगलवार को लोकसभा में अगले वर्ष दस नए गरीब रथ तथा 53 नई गाड़ियाँ चलाने की घोषणा की। यादव ने अगले वर्ष का रेल बजट पेश करते हुए 16 गाड़ियों का विस्तार करने तथा 11 गाड़ियों के फेरे बढ़ाने की भी घोषणा की।

यात्री किराया छूट : साधारण और मेल, एक्सप्रेस गाड़ियों में 50 रुपए तक के किराए में प्रति यात्री एक रुपए और 50 रुपये से अधिक के किराये में 5 प्रतिशत की छूट। नए डिजाइन के अधिक बर्थ संख्या वाले स्लीपर क्लास कोच के किराए में छूट को को चार से बढ़ाकर छह प्रतिशत किया गया। वातानुकूलित श्रेणी के किराए को युक्तिसंगत बनाने की प्रक्रिया पूरी की गई। वातानुकूलित प्रथम श्रेणी के किरायों में 7 प्रतिशत और द्वितीय श्रेणी के किराए में 4 प्रतिशत तक कमी। लोकप्रिय गाड़ियों और व्यस्त अवधि के दौरान वातानुकूलित गाड़ियों में मिली कटौती आधी रहेगी, जैसा कि पिछले वर्ष भी था।

भाजपा को रास नहीं आया बजट

भारतीय जनता पार्टी ने संसद में मंगलवार को पेश रेल बजट को निराशाजनक बताते हुए आरोप लगाया कि रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव नेअपने पिछले बजटों में जो घोषणाएं की उनमें 70 प्रतिशत आज तक पूरी नहीं हुई।
भाजपा संसदीय दल के प्रवक्ता विजय कुमार मल्होत्रा ने रेल बजट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि जिस तरह से विपक्ष ने लोकसभा में वाकआउट किया वह साबित करता है कि यह बजट निराशाजनक है।
मल्होत्रा ने कहा कि रेलमंत्री ने अपने पिछले बजटों में जो घोषणाएं की थी उनमें 70 प्रतिशत आज तक पूरी नहीं हुई उन्होंने कहा कि यादव ने साधारण ट्रेनों को सुपर फास्ट ट्रेनों में बदलकर बिना सुविधा दिए यात्रियों से अधिक किराया वसूला। यहां तक ट्रेन में यात्रियों की सुविधा में कोई सुधार नहीं किया गया। कर्नाटक के भाजपा सांसदों ने पार्टी महासचिव अनंत कुमार के नेतृत्व में बजट पेश होने के बाद संसद परिसर में लगी राष्ट्रपति महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने धरना दिया। कुमार ने आरोप लगाया कि रेल बजट में कर्नाटक की एक बार फिर पूरी तरह से अनदेखी की गई है। उन्होंने कहा कि दरअसल यादव ने कनार्टक के साथ अन्याय किया है। कुमार ने रेल मंत्री द्वारा कर्नाटक के लोगों के बारे कही गई कथित आपत्तिजनक टिप्पणियों पर दी गई सफाई को अपर्याप्त बताया। उन्होंने कहा कि यादव का देश में और कर्नाटक में विरोध जारी रहेगा।


बजट भाषण के मुख्य अंश :

*10 नए गरीब रथ चलेंगे
*53 नई गाडियाँ चलेंगी
*16 गाड़ियों का विस्तार होगा
*रेल कारखानों के लिए 200 करोड़
*रेल कारखानों का आधुनिकीकरण होगा

*केरल में नई कोच फैक्टरी बनेगी
*भाप इंजनों के माध्यम से हेरीटेज रेलवे को बढ़ावा
*गैंगमैन को गेटमैन बनाया जाएगा
*कुलियों को गैंगमैन बनाया जाएगा
*चाइना रेलवे से समझौता
*सभी क्वार्टरों में सीएफएल बल्ब
*उर्दू के अखबारों में भी विज्ञापन दिए जाएँगे
*विदेशों से भी रेलवे कोच सप्लाई ऑर्डर
*सभी स्नातक छात्राओं को किराए में रियायत

*वीआरएस के लिए 7000 करोड़
*ट्रेक की जाँच के लिए नए डिवाइस
*पटना, सिकंदराबाद स्टेशन विश्वस्तरीय होंगे
*दुर्घटना टालने के लिए नए उपकरण
*मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग पर गार्ड लगेंगे
*अशोक चक्र के पास शताब्दी और राजधानी में मान्य होंगे
*एड्‍स पीड़ितों को आधा किराया देना होगा
*वरिष्ठ नागरिकों को 50 फीसदी छूट
*मदर चाइल्ड हेल्थ एक्सप्रेस चलेगी
*रेलवे में उर्दू को बढ़ावा, ग्रुप डी की परीक्षा अब उर्दू में भी
*बोनस 65 से बढ़ाकर 70 दिन का मिलेगा


*5700 नए सुरक्षाकर्मी भर्ती होंगे
*निजी कंपनियाँ टर्मिनल बना सकेंगी
*पाँच साल में ढाई लाख करोड़ का निवेश
*रेलवे विजन 2025 छह माह में तैयार होगा
*रेलगाड़ियों में इंटरनेट की सुविधा मिलेगी
*विश्वस्तरीय स्टेशनों के लिए 15 हजार करोड़
*नई दिल्ली रेलवे स्टेशन विश्व स्तरीय होगा
*छत्रपति शिवाजी टर्मिनल विश्वस्तरीय होगा


*195 स्टेशनों पर पैदल यात्री पुल
*50 बड़े स्टेशनों पर एस्केलेटर
*3 साल में 200 मिलियन टन सीमेंट ढुलाई का लक्ष्य
*कंटेनर रेलगाड़ियों को मंजूरी
*2000 वैगन बनाए जाएँगे
*2011 तक शताब्दी में नए डिब्बे
*2 साल में पाँच हजार कंप्यूटर टिकट काउंटर
*कुछ एक्सप्रेस गाड़ियों में पब्लिक एक्सप्रेस सिस्टम
*कंटेनर कारपोरेशन के आठ नए डिपो
*बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए 75 हजार करोड़

*30 स्टेशनों पर मल्टी लेवल पार्किंग
*कोयला परिवहन के लिए नए ट्रैक
*उड़ीसा में महानदी पर दूसरा पुल
*गाँधीधाम-पालनपुर पर नया गेज
*ऑटोमैटिक सिगनलिंग पर जोर
*1000 मिलियन टन ढुलाई का लक्ष्य

*मुंबईवासियों के लिए 'गो मुंबई कार्ड'
*2009 तक मुकम्मल होगा रेलवे कॉल सेंटर
*2010 ने राजधानी में नए तरह के डिब्बे
*2009 से स्टील डिब्बों का निर्माण
*2010 से सभी डिब्बे स्टील के
*मोबाइल पर टिकट देने का विचार
*6000 ऑटोमैटिक मशीनें लगेंगी
*चलती गाड़ियों से मैला गिरने से रोकने का इंतजाम करेंगे

*इंटरनेट से भी वेटिंग लिस्ट टिकट मिलेगा
*रेल संपत्तियों का सही इस्तेमाल किया
*जन साधारण टिकट काउंटर का विस्तार होगा
*स्मार्ट कार्ड से खरीद सकते हैं टिकट
*रेलवे कॉल सेंटर हकीकत में बदला
*मेल-एक्सेप्रेस ट्रेनों में डिस्प्ले सुविधा
*गाड़ियों की आवाजाही की पूरी जानकारी

*रेलवे को 25 हजार करोड़ का मुनाफा
*5 साल में 68 हजार करोड़ का मुनाफा
*माल ढुलाई से 2000 करोड़ की कमाई
*रेलवे को घाटे से उबारा- लालू
*आमदनी बढ़ाने पर ध्यान-यादव
*चार साल से किराया नहीं बढ़ाया
*यात्री किराया आमदनी 14 फीसदी बढ़ी
*यात्री गाड़ियों की लंबाई बढ़ाई गई
*लालू का पाँचवाँ रेल बजट



खबर स्रोत-एमएसएन, दैनिक भास्कर, याहू, समाचार एजंसिया

देश का बच्चा-बच्चा बोले चक दे रेलवे


वर्ष 2008-09 का रेल बजट पेश करते हुए केंद्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव अपने रंग में नजर आए और मजाकिया लहजे के साथ ही उनका शायराना अंदाज सदन में खिलखिलाहटों और ठहाकों का कारण बनता रहा।
उनके पूरे भाषण में कई जगह शायराना अंदाज दिखाई दिया। सबसे पहले उन्होंने अपने पिछले चारों बजट की सफलता को पेश किया :


सब कह रहे हैं हमने गजब काम किया है
करोड़ों का मुनाफा हर एक शाम दिया है
फल सालों ये अब देगा पौधा जो लगाया है
सेवा का समर्पण का हर फर्ज निभाया है।


इसके बाद लालू ने पिछली एनडीए सरकार पर व्यंग्य किया :

उजड़ा चमन जो छोड़ गए थे हमारे दोस्त
अब बात कर रहे हैं वो फस्ले-बहार की।


इसके बाद उन्होंने रेलवे के मुनाफे का मूलमंत्र बताते हुए कहा :

नई कथनी नई करनी नई एक सोच लाए हैं
तरक्की की नई पारसमणि हम खोज लाए हैं।


एक के बाद एक लालू ने अपने कार्यकाल में रेलवे की उपलब्धियों को गिनाते हुए एक और शेर प्रस्तुत किया :

गोल पर गोल दाग रहे हैं हम हर मैच में
देश का बच्चा-बच्चा बोले चक दे रेलवे।


रेलवे में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भागीदारी को भी उन्होंने शायराना फल्सफे में बांधा :

लेकर चला हूं सबको तरक्की की राह पर
एक नींव साझेदारी की मैंने रखी नई।


रेलवे कर्मचारियों के बारे में घोषणाएं करने से पहले लालू ने रेलवे कर्मचारियों की निष्ठा और मेहनत बताई :

समर्पित जिसका जीवन राष्ट्र सेवा में हमेशा है
कड़ी मेहनत करे जो वो सिपाही रेलकर्मी है।


अपने पिछले बजट से कुछ और बेहतर घोषणाओं का दावा भी उन्होंने किया :

जादू और टोना हमने दिखाया था पिछले साल
इस बार पूरा इंद्रजाल देख लीजिए।


आम लोगों के लिए लालू का खास बजट

रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने रेल किरायों में लगातार पाँचवें साल भी कोई वृद्धि नहीं कर भारतीय रेल के इतिहास में मंगलवार को एक नया कीर्तिमान स्थापित किया वहीं आम लोगों को खुश करने वाला खास चुनावी बजट पेश किया।
उलटे उन्होंने 2008-09 के बजट में किरायों में पाँच से सात प्रतिशत की कमी करने और माल भाड़े में चौतरफा वृद्धि न करने के साथ-साथ बुजुर्ग महिलाओं, छात्राओं-छात्रों, एड्स रोगियों और अशोक चक्र विजेता सैनिकों के लिए यात्रा में अनेक रियायतें देने की घोषणा की।

लोकसभा में भारी हंगामे के बीच अपना भाषण पूरा करते हुए रेलमंत्री ने 50 किलोमीटर तक की गैर उपनगरीय यात्रा पर प्रति टिकट एक रुपया छूट देने और उससे ऊपर के किराए में पाँच प्रतिशत की कमी करने का भी ऐलान किया।

उन्होंने एसी प्रथम श्रेणी का किराया सात प्रतिशत और एसी द्वितीय श्रेणी का किराया चार प्रतिशत सस्ता कर दिया है, जिससे रेलवे सस्ते किरायों पर सेवा देने वाली एयरलाइनों को टक्कर दे सकेगी। रेलमंत्री ने लगातार दूसरे साल वातानुकूलित श्रेणी के किरायों में कटौती की है।

यादव ने कहा कि ज्यादा स्लीपर बर्थों वाले नई डिजाइन के आरक्षित सवारी डिब्बों में छूट में बढ़ोतरी की जाएगी। रेलमंत्री ने उद्योग जगत को माल भाड़े के मामले में राहत देते हुए भाड़ा दरों में सामान्य रूप से कोई वृद्धि नहीं की है। उन्होंने पेट्रोल और डीजल के भाड़े में पाँच प्रतिशत तक की कमी करने की घोषणा की जिससे पेट्रोलियम पदार्थों में हाल में की गई मूल्यवृद्धि का असर कुछ कम करने में मदद मिलेगी।

उन्होंने फ्लाई ऐश के भाड़े में 14 प्रतिशत की भारी कमी करने की घोषणा की जिससे ट्रक मालिकों को रेलवे से बड़ी चुनौती मिलेगी। पूर्वोत्तर राज्यों के लिए माल भाड़े में 6 प्रतिशत की एक और छूट देने का बजट में प्रस्ताव है।

यादव ने अपनी नई खोज गरीब रथ एक्सप्रेस गाड़ियों का काफिला और बढ़ाते हुए 2008-09 में इस तरह की 10 नई गाड़ियाँ चलाने की घोषणा की। उन्होंने 53 नई यात्री गाड़ियाँ शुर करने, 16 गाड़ियों की मंजिल बढ़ाने और 11 गाड़ियों के फेरे बढ़ाने की भी घोषणा की।

रेलमंत्री ने मुंबई की जान कही जाने वाली उप नगरीय गाडियों में 300 नई सेवाएँ जोड़ने की भी घोषणा की। यादव ने इस बार के बजट में अपने गृह राज्य बिहार का पहले की तरह खास ध्यान रखने के साथ-साथ महाराष्ट्र और वामपंथी शासित केरल, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों का भी ध्यान रखा है।

उन्होंने अल्पसंख्यकों, दलितों और पिछड़ों के कल्याण के नाम पर लाइसेंसधारी कुलियों को गैंगमैन जैसे चतुर्थ श्रेणी के पदों पर शामिल करने, रेलवे में अल्पसंख्क प्रकोष्ठों की स्थापना तथा रेलवे भर्ती की परीक्षाएँ उर्दू में लेने जैसी घोषणाएँ कीं, जो चुनावी वर्ष की घोषणाएँ मानी जा रही हैं।

रेलमंत्री ने कहा कि रेलवे में दो वर्ष के अंदर टिकट खिड़कियों पर लाइन की समस्या को खत्म कर दिया जाएगा। इसके लिए संचार और कंप्यूटर प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर मोहल्ले-मोहल्ले में टिकट बिक्री सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी तथा लोगों को मोबाइल पर टिकट बुक कराने की भी सुविधा मिलेगी।

रेल मंत्री ने यात्री सुविधाओं को आधुनिक बनाने के लिए सन 2012 तक 36 हजार सवारी डिब्बों में हवाई जहाजों जैसे डिस्चार्ज फ्री शौचालय लगाने पर 4000 करोड़ रुपए खर्च करने, चलती गाड़ियों में यात्रा के दौरान भी साफ सफाई की व्यवस्था और प्रमुख स्टेशनों पर स्वचालित सीढ़ियों और लिफ्ट आदि का इंतजाम करने की घोषणा की।

उन्होंने रेल सुरक्षा बढ़ाने के लिए रेलवे सुरक्षा बल के सिपाहियों के 5700 और उप निरीक्षकों के 993 पद भरने तथा आतंकवादी हमलों से बचाव के लिए प्रमुख स्टेशनों पर क्लोज सर्किट टेलीविजन, मेटल डिटेक्टर, माल की स्कैनिंग और विस्फोटकों का पता लगाने के लिए एकीकृत सुरक्षा व्यवस्था शुरू करने की भी घोषणा की।

बजट में दूरदराज के इलाकों में जच्चा-बच्चा सेवाओं के विस्तार के लिए 'मदर चाइल्ड हेल्थ एक्सप्रेस ट्रेन' चलाई जाएगी। सात डिब्बों की यह सेवा राजीव गाँधी फाउंडेशन के सहयोग से शुरू होगी।

चार स्टेशन बनेंगे विश्वस्तरीय : रेलमंत्री ने वर्ष 2008-09 का रेल बजट पेश करते हुए चार स्टेशनों को विश्वस्तीय बनाने का ऐलान किया। उन्होंने घोषणा की कि राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली, मुंबई का छत्रपति शिवाजी टर्मिनल, पटना और सिंकदराबाद स्टेशनों को विश्वस्तरीय बनाया जाएगा। इसके लिए खुली निविदा जारी की जाएगी।

कुलियों को किया खुश : लोकसभा में रेलवे बजट पेश करते हुए लाइसेंसधारी कुलियों की गैंगमैन के पद पर नियुक्ति के अवसरों को हरी झंडी दिखा दी। उन्होंने कहा कि बड़ी संख्या में गैंगमैनों के प्रमोशन से उनके जो पद रिक्त होंगे, उन्हें लाइसेंसधारी कुलियों से भरा जाएगा। उन्हें रेलवे में चतुर्थ श्रेणी के अन्य पदों पर भी रखा जाएगा।

टिकट लाइन से निजात : रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने संसद में वर्ष 2008-09 का रेल बजट पेश करते हुए रेल यात्रियों को टिकट की लम्बी लाइनों की समस्या से निजात दिलाने की घोषणा की। यादव ने कहा कि इसक लिए कंप्यूटर और इंटरनेट प्रौद्योगिकी के जरिए आरक्षित और सामान्य टिकट बेचने की सुविधा मुहल्लों-मुहल्लों तक पहुँचाई जाएगी। इसके अलावा लोगों को मोबाइल फोन से टिकट खरीदने की सुविधा भी प्रदान की जाएगी।

53 नई गाड़ियाँ 10 गरीब रथ : रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने मंगलवार को लोकसभा में अगले वर्ष दस नए गरीब रथ तथा 53 नई गाड़ियाँ चलाने की घोषणा की। यादव ने अगले वर्ष का रेल बजट पेश करते हुए 16 गाड़ियों का विस्तार करने तथा 11 गाड़ियों के फेरे बढ़ाने की भी घोषणा की।

यात्री किराया छूट : साधारण और मेल, एक्सप्रेस गाड़ियों में 50 रुपए तक के किराए में प्रति यात्री एक रुपए और 50 रुपये से अधिक के किराये में 5 प्रतिशत की छूट। नए डिजाइन के अधिक बर्थ संख्या वाले स्लीपर क्लास कोच के किराए में छूट को को चार से बढ़ाकर छह प्रतिशत किया गया। वातानुकूलित श्रेणी के किराए को युक्तिसंगत बनाने की प्रक्रिया पूरी की गई। वातानुकूलित प्रथम श्रेणी के किरायों में 7 प्रतिशत और द्वितीय श्रेणी के किराए में 4 प्रतिशत तक कमी। लोकप्रिय गाड़ियों और व्यस्त अवधि के दौरान वातानुकूलित गाड़ियों में मिली कटौती आधी रहेगी, जैसा कि पिछले वर्ष भी था।

भाजपा को रास नहीं आया बजट

भारतीय जनता पार्टी ने संसद में मंगलवार को पेश रेल बजट को निराशाजनक बताते हुए आरोप लगाया कि रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव नेअपने पिछले बजटों में जो घोषणाएं की उनमें 70 प्रतिशत आज तक पूरी नहीं हुई।
भाजपा संसदीय दल के प्रवक्ता विजय कुमार मल्होत्रा ने रेल बजट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि जिस तरह से विपक्ष ने लोकसभा में वाकआउट किया वह साबित करता है कि यह बजट निराशाजनक है।
मल्होत्रा ने कहा कि रेलमंत्री ने अपने पिछले बजटों में जो घोषणाएं की थी उनमें 70 प्रतिशत आज तक पूरी नहीं हुई उन्होंने कहा कि यादव ने साधारण ट्रेनों को सुपर फास्ट ट्रेनों में बदलकर बिना सुविधा दिए यात्रियों से अधिक किराया वसूला। यहां तक ट्रेन में यात्रियों की सुविधा में कोई सुधार नहीं किया गया। कर्नाटक के भाजपा सांसदों ने पार्टी महासचिव अनंत कुमार के नेतृत्व में बजट पेश होने के बाद संसद परिसर में लगी राष्ट्रपति महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने धरना दिया। कुमार ने आरोप लगाया कि रेल बजट में कर्नाटक की एक बार फिर पूरी तरह से अनदेखी की गई है। उन्होंने कहा कि दरअसल यादव ने कनार्टक के साथ अन्याय किया है। कुमार ने रेल मंत्री द्वारा कर्नाटक के लोगों के बारे कही गई कथित आपत्तिजनक टिप्पणियों पर दी गई सफाई को अपर्याप्त बताया। उन्होंने कहा कि यादव का देश में और कर्नाटक में विरोध जारी रहेगा।


बजट भाषण के मुख्य अंश :

*10 नए गरीब रथ चलेंगे
*53 नई गाडियाँ चलेंगी
*16 गाड़ियों का विस्तार होगा
*रेल कारखानों के लिए 200 करोड़
*रेल कारखानों का आधुनिकीकरण होगा

*केरल में नई कोच फैक्टरी बनेगी
*भाप इंजनों के माध्यम से हेरीटेज रेलवे को बढ़ावा
*गैंगमैन को गेटमैन बनाया जाएगा
*कुलियों को गैंगमैन बनाया जाएगा
*चाइना रेलवे से समझौता
*सभी क्वार्टरों में सीएफएल बल्ब
*उर्दू के अखबारों में भी विज्ञापन दिए जाएँगे
*विदेशों से भी रेलवे कोच सप्लाई ऑर्डर
*सभी स्नातक छात्राओं को किराए में रियायत

*वीआरएस के लिए 7000 करोड़
*ट्रेक की जाँच के लिए नए डिवाइस
*पटना, सिकंदराबाद स्टेशन विश्वस्तरीय होंगे
*दुर्घटना टालने के लिए नए उपकरण
*मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग पर गार्ड लगेंगे
*अशोक चक्र के पास शताब्दी और राजधानी में मान्य होंगे
*एड्‍स पीड़ितों को आधा किराया देना होगा
*वरिष्ठ नागरिकों को 50 फीसदी छूट
*मदर चाइल्ड हेल्थ एक्सप्रेस चलेगी
*रेलवे में उर्दू को बढ़ावा, ग्रुप डी की परीक्षा अब उर्दू में भी
*बोनस 65 से बढ़ाकर 70 दिन का मिलेगा


*5700 नए सुरक्षाकर्मी भर्ती होंगे
*निजी कंपनियाँ टर्मिनल बना सकेंगी
*पाँच साल में ढाई लाख करोड़ का निवेश
*रेलवे विजन 2025 छह माह में तैयार होगा
*रेलगाड़ियों में इंटरनेट की सुविधा मिलेगी
*विश्वस्तरीय स्टेशनों के लिए 15 हजार करोड़
*नई दिल्ली रेलवे स्टेशन विश्व स्तरीय होगा
*छत्रपति शिवाजी टर्मिनल विश्वस्तरीय होगा


*195 स्टेशनों पर पैदल यात्री पुल
*50 बड़े स्टेशनों पर एस्केलेटर
*3 साल में 200 मिलियन टन सीमेंट ढुलाई का लक्ष्य
*कंटेनर रेलगाड़ियों को मंजूरी
*2000 वैगन बनाए जाएँगे
*2011 तक शताब्दी में नए डिब्बे
*2 साल में पाँच हजार कंप्यूटर टिकट काउंटर
*कुछ एक्सप्रेस गाड़ियों में पब्लिक एक्सप्रेस सिस्टम
*कंटेनर कारपोरेशन के आठ नए डिपो
*बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए 75 हजार करोड़

*30 स्टेशनों पर मल्टी लेवल पार्किंग
*कोयला परिवहन के लिए नए ट्रैक
*उड़ीसा में महानदी पर दूसरा पुल
*गाँधीधाम-पालनपुर पर नया गेज
*ऑटोमैटिक सिगनलिंग पर जोर
*1000 मिलियन टन ढुलाई का लक्ष्य

*मुंबईवासियों के लिए 'गो मुंबई कार्ड'
*2009 तक मुकम्मल होगा रेलवे कॉल सेंटर
*2010 ने राजधानी में नए तरह के डिब्बे
*2009 से स्टील डिब्बों का निर्माण
*2010 से सभी डिब्बे स्टील के
*मोबाइल पर टिकट देने का विचार
*6000 ऑटोमैटिक मशीनें लगेंगी
*चलती गाड़ियों से मैला गिरने से रोकने का इंतजाम करेंगे

*इंटरनेट से भी वेटिंग लिस्ट टिकट मिलेगा
*रेल संपत्तियों का सही इस्तेमाल किया
*जन साधारण टिकट काउंटर का विस्तार होगा
*स्मार्ट कार्ड से खरीद सकते हैं टिकट
*रेलवे कॉल सेंटर हकीकत में बदला
*मेल-एक्सेप्रेस ट्रेनों में डिस्प्ले सुविधा
*गाड़ियों की आवाजाही की पूरी जानकारी

*रेलवे को 25 हजार करोड़ का मुनाफा
*5 साल में 68 हजार करोड़ का मुनाफा
*माल ढुलाई से 2000 करोड़ की कमाई
*रेलवे को घाटे से उबारा- लालू
*आमदनी बढ़ाने पर ध्यान-यादव
*चार साल से किराया नहीं बढ़ाया
*यात्री किराया आमदनी 14 फीसदी बढ़ी
*यात्री गाड़ियों की लंबाई बढ़ाई गई
*लालू का पाँचवाँ रेल बजट



खबर स्रोत-एमएसएन, दैनिक भास्कर, याहू, समाचार एजंसिया

Monday, 25 February 2008

कौन सी जिम्मेदारी निभा रहे हैं हिंदी ब्लागर ?

अब वह दिन दूर नहीं जब अखबारों की तरह स्वतंत्र लेखन करने वाले हिंदी या दूसरी भाषाओं के ब्लागरों की राय भी कई मुद्दों पर लिए जाने वाले फैसलों में अपनी अहमियत दर्ज करा पाएगी। फिलहाल तो हिंदी ब्लागिंग अभी ऐसी किसी भूमिका से कोसों दूर है। हजारों की तादाद में हैं हिंदी ब्लागर और लाखों हैं पाठक मगर अभी भी इस तरह से खुद को संगठित नहीं कर पा रहे हैं कि वे देश के किसी मुद्दे पर भारी तादाद में एक साथ अपनी राय दे पाएं। या फिर किसी एग्रीगेटर की तरफ से देश के ज्वलनशील मुद्दों पर लोगों से बेबाक टिप्पणी बटोरने का प्रयास भी नहीं दिख रहा है।
अब ताजा हालात को ही ले लीजिए। देश का कौन ऐसा नागरिक या क्षेत्र होगा जो बजट से प्रभावित नहीं होता है, मगर बजट पेश होने से पहले ब्लागरों ने ऐसी कोई मुहिम नहीं चलाई जिससे बजटपूर्व आम आदमी की समझ के लायक बहस या गंभीर चर्चा सामने आई हो। मतलब महज छिटपुट टिप्पणी से संतोष कर लेने से काम नहीं चलेगा। अगर समानान्तर सूचना माध्यम बनना है तो ब्लागिंग को ऐसे मुकाम पर ले जाना होगा जहां से ब्लागर्स की राय भी देश के बारे में लिए जाने वाले किसी भी फैसले में सार्थक योगदान कर सके।
अगर ब्लागर्स बंधु बुरा न मानें तो यह भी कहना चाहूंगा कि सिर्फ ब्लाग की रेटिंग के लिए ही काम नहीं करना चाहिए। यह अच्छी व्यक्तिगत उपलब्धि तो हो सकती है या फिर किसी ब्लाग को बहुचर्चित बना सकती है मगर प्रकारान्तर से ब्लागिंग की दुनिया को खोखला ही करेगी। कुछ समूह ब्लाग कई विषयों पर जनमत लेने की कोशिश कर रहे हैं मगर यह अधूरा प्रयास है। क्या किसी विषय पर किसी एक ब्लाग पर राय मंगवा लेने से वह उद्देश्य पूरा हो जाएगा जो आप जैसे बुद्धिजीवी तबके से उम्मीद की जाती है। फिर सारे ब्लागर या पाठक जरूरी नहीं कि उसी ब्लाग पर टिप्पणी डालने पहुंचे। तो क्या यह जनमत संग्रह सारे ब्लागरों का समझा जाएगा ? अगर नहीं तो फिर यह भी होगा कि आपकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाएगी। अतः विचारक और बुद्धिजीवी होने के नाते आपकी ऐसे ब्लागर की जिम्मेदारी बनती है जो स्वविवेक से ज्वलंत सामयिक मुद्दे (जैसे फिलहाल बजट का मौसम को ले लीजिए ) पर अपनी बेबाक राय जाहिर करनी चाहिए कि देश को कैसा बजट चाहिए। यकीन करिए ब्लागरों की राय भी नियामको को सुननी पड़ेगी।
इसकी ताजा मिसाल तो यही है कि भारत में हिंदी ब्लागरों की पहचान बननी शुरू हो गई है और अखबारों ने भी इनकी नोटिस लेनी शुरू कर दी है। और दूसरी मिसाल पाकिस्तान के ब्लागरो कीं हैं। पाकिस्तानी ब्लागरों ने मुशर्रफ के न होने की स्थिति में संभावित नहीं बल्कि उचित भावी राष्ट्रपति पर अपनी बेबाक राय दी है। जिसमें ज्यादातर इमरान खान को बेहतर राछ्ट्रपति के रूप में देख रहे हैं। कई ने अल्पसंख्यक समुदाय के भगवानदास को इस पद के लिए बेहतर बताया है। सबसे बड़ी बात यह है कि दुनिया की अग्रणी समाचार संस्था प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया ने पाकिस्तानी ब्लागरों की इस अहम राय पर खबर भी जारी कर दी है। पीटीआई की यह पूरी खबर भी इसी पोस्ट में आप देख सकते हैं। ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दे पर ज्यादातर ब्लागरों की आई सार्थक राय ने इस समाचार एजंसी को भी इसे जारी करने को प्रेरित किया है। क्या भारत के हिंदी ब्लागर अपनी इस भूमिका के लिए तैयार हैं ? या फिर वे अपने ब्लाग की रेटिंग के अलावा कुछ सोचते ही नहीं। रेटिंग से आपको ढेर सारे विज्ञापन तो मिल जाएंगे मगर ब्लागिंग की एक अच्छी विरासत नहीं खड़ी कर पाएंगे जिस पर आने वाली पीढ़ी गर्व कर सके। सच मानिए यह भूमिका भी आपको ही निभानी है। अन्यथा तटस्थ होकर सिर्फ कमाई करने वालों ब्लागरों को इतिहास भी नहीं बख्शेगा।

यह है पाकिस्तानी ब्लागरों पर बनी पीटीआई की खबर।----------------
PAK-BLOGGERS
Bloggers want Imran or Bhagwandas as President
Islamabad, Feb 25 (PTI) If Pakistani bloggers could have
their way, they would have cricketer-turned-politician Imran
Khan or former judge Rana Bhagwandas as their next president,
though there are some die-hard fans of incumbent Pervez
Musharraf who would prefer him to "stay on forever".
Though several names were thrown up in response to a
post titled "Who should be the next President?" on
pakistaniat.com, Khan and Bhagwandas, the lone Hindu judge to
reach the highest echelons of Pakistan's judiciary, emerged as
clear favourites.
Khan, who has a "clean image", was preferred by many
bloggers though some thought he was too "politically naive" to
be the president.
Kamran, who blogs at pakistaniat.com, batted for Khan:
"If (President Pervez) Musharraf has to go, then definitely
Imran Khan." Another blogger Zakoota wrote, "Musharaf will
never go. However, I think Imran Khan is the best choice."
Bhagwandas was a favourite in the discussion initiated by
a blogger named Temporal.
"If India can have a Muslim president, why can't
Pakistan have a Hindu or Christian (president)? I know our
constitution may not allow this -- why not first amend that?"
wrote a blogger who logs in as Poalee.
Dakar seconded Poalee's suggestion and said Bhagwandas
would make a good president. "He would be an excellent choice
not because he is from a minority but because he has proved
his democratic credentials and stands for principles."
Other front-runners for the post in the virtual world are
deposed Supreme Court Chief Justice Iktikhar Mohammed
Chaudhry, top lawyer Aitzaz Ahsan, former premier and PML-N
chief Nawaz Sharif and PPP co-chairman Asif Ali Zardari.
Even though names of presidential hopefuls came up for
discussion on the website, there was no dearth of Musharraf
fans. (More) PTI RHL SDG
SDG
02251732 DEL

PAK-BLOGGERS 2 LAST
Abana Samuel wrote, "Minorities should be given a
chance. But at the moment I think President Pervez Musharaff
is doing an excellent job. He is the man. President Musharaff
is the best."
Another fan of the military ruler said: "I hope Musharraf
stays on forever. I trust this man 100 per cent."
Temporal suggested Chaudhry's name for the top job:
"Zardari has reservations about restoring him to the bench and
Sharif has made his restoration the cornerstone of his
campaign. So the best compromise would be to ease him into
presidency --'vakil bhee khush, quam bhee khush'."
However, a blogger named Malique disagreed. "Iftikhar as
president will not be a good choice because we want an
independent judiciary more than we want a gift-for-all
president."
Usman Khan wrote that rules should be amended to allow a
non-Muslim to be elected as president of Pakistan. So did
Adnan Ahmad.
"I have thought of this man (Bhagwandas) for this post.
He is honest, has a clean track record and has shown real
character in the face of serious adversity," Ahmad wrote.
"In a land where we can still hope for a true change,
Justice Bhagwandas would be an excellent choice." PTI RHL

SDG
02251734 DEL

कौन सी जिम्मेदारी निभा रहे हैं हिंदी ब्लागर ?

अब वह दिन दूर नहीं जब अखबारों की तरह स्वतंत्र लेखन करने वाले हिंदी या दूसरी भाषाओं के ब्लागरों की राय भी कई मुद्दों पर लिए जाने वाले फैसलों में अपनी अहमियत दर्ज करा पाएगी। फिलहाल तो हिंदी ब्लागिंग अभी ऐसी किसी भूमिका से कोसों दूर है। हजारों की तादाद में हैं हिंदी ब्लागर और लाखों हैं पाठक मगर अभी भी इस तरह से खुद को संगठित नहीं कर पा रहे हैं कि वे देश के किसी मुद्दे पर भारी तादाद में एक साथ अपनी राय दे पाएं। या फिर किसी एग्रीगेटर की तरफ से देश के ज्वलनशील मुद्दों पर लोगों से बेबाक टिप्पणी बटोरने का प्रयास भी नहीं दिख रहा है।
अब ताजा हालात को ही ले लीजिए। देश का कौन ऐसा नागरिक या क्षेत्र होगा जो बजट से प्रभावित नहीं होता है, मगर बजट पेश होने से पहले ब्लागरों ने ऐसी कोई मुहिम नहीं चलाई जिससे बजटपूर्व आम आदमी की समझ के लायक बहस या गंभीर चर्चा सामने आई हो। मतलब महज छिटपुट टिप्पणी से संतोष कर लेने से काम नहीं चलेगा। अगर समानान्तर सूचना माध्यम बनना है तो ब्लागिंग को ऐसे मुकाम पर ले जाना होगा जहां से ब्लागर्स की राय भी देश के बारे में लिए जाने वाले किसी भी फैसले में सार्थक योगदान कर सके।
अगर ब्लागर्स बंधु बुरा न मानें तो यह भी कहना चाहूंगा कि सिर्फ ब्लाग की रेटिंग के लिए ही काम नहीं करना चाहिए। यह अच्छी व्यक्तिगत उपलब्धि तो हो सकती है या फिर किसी ब्लाग को बहुचर्चित बना सकती है मगर प्रकारान्तर से ब्लागिंग की दुनिया को खोखला ही करेगी। कुछ समूह ब्लाग कई विषयों पर जनमत लेने की कोशिश कर रहे हैं मगर यह अधूरा प्रयास है। क्या किसी विषय पर किसी एक ब्लाग पर राय मंगवा लेने से वह उद्देश्य पूरा हो जाएगा जो आप जैसे बुद्धिजीवी तबके से उम्मीद की जाती है। फिर सारे ब्लागर या पाठक जरूरी नहीं कि उसी ब्लाग पर टिप्पणी डालने पहुंचे। तो क्या यह जनमत संग्रह सारे ब्लागरों का समझा जाएगा ? अगर नहीं तो फिर यह भी होगा कि आपकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाएगी। अतः विचारक और बुद्धिजीवी होने के नाते आपकी ऐसे ब्लागर की जिम्मेदारी बनती है जो स्वविवेक से ज्वलंत सामयिक मुद्दे (जैसे फिलहाल बजट का मौसम को ले लीजिए ) पर अपनी बेबाक राय जाहिर करनी चाहिए कि देश को कैसा बजट चाहिए। यकीन करिए ब्लागरों की राय भी नियामको को सुननी पड़ेगी।
इसकी ताजा मिसाल तो यही है कि भारत में हिंदी ब्लागरों की पहचान बननी शुरू हो गई है और अखबारों ने भी इनकी नोटिस लेनी शुरू कर दी है। और दूसरी मिसाल पाकिस्तान के ब्लागरो कीं हैं। पाकिस्तानी ब्लागरों ने मुशर्रफ के न होने की स्थिति में संभावित नहीं बल्कि उचित भावी राष्ट्रपति पर अपनी बेबाक राय दी है। जिसमें ज्यादातर इमरान खान को बेहतर राछ्ट्रपति के रूप में देख रहे हैं। कई ने अल्पसंख्यक समुदाय के भगवानदास को इस पद के लिए बेहतर बताया है। सबसे बड़ी बात यह है कि दुनिया की अग्रणी समाचार संस्था प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया ने पाकिस्तानी ब्लागरों की इस अहम राय पर खबर भी जारी कर दी है। पीटीआई की यह पूरी खबर भी इसी पोस्ट में आप देख सकते हैं। ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दे पर ज्यादातर ब्लागरों की आई सार्थक राय ने इस समाचार एजंसी को भी इसे जारी करने को प्रेरित किया है। क्या भारत के हिंदी ब्लागर अपनी इस भूमिका के लिए तैयार हैं ? या फिर वे अपने ब्लाग की रेटिंग के अलावा कुछ सोचते ही नहीं। रेटिंग से आपको ढेर सारे विज्ञापन तो मिल जाएंगे मगर ब्लागिंग की एक अच्छी विरासत नहीं खड़ी कर पाएंगे जिस पर आने वाली पीढ़ी गर्व कर सके। सच मानिए यह भूमिका भी आपको ही निभानी है। अन्यथा तटस्थ होकर सिर्फ कमाई करने वालों ब्लागरों को इतिहास भी नहीं बख्शेगा।

यह है पाकिस्तानी ब्लागरों पर बनी पीटीआई की खबर।----------------
PAK-BLOGGERS
Bloggers want Imran or Bhagwandas as President
Islamabad, Feb 25 (PTI) If Pakistani bloggers could have
their way, they would have cricketer-turned-politician Imran
Khan or former judge Rana Bhagwandas as their next president,
though there are some die-hard fans of incumbent Pervez
Musharraf who would prefer him to "stay on forever".
Though several names were thrown up in response to a
post titled "Who should be the next President?" on
pakistaniat.com, Khan and Bhagwandas, the lone Hindu judge to
reach the highest echelons of Pakistan's judiciary, emerged as
clear favourites.
Khan, who has a "clean image", was preferred by many
bloggers though some thought he was too "politically naive" to
be the president.
Kamran, who blogs at pakistaniat.com, batted for Khan:
"If (President Pervez) Musharraf has to go, then definitely
Imran Khan." Another blogger Zakoota wrote, "Musharaf will
never go. However, I think Imran Khan is the best choice."
Bhagwandas was a favourite in the discussion initiated by
a blogger named Temporal.
"If India can have a Muslim president, why can't
Pakistan have a Hindu or Christian (president)? I know our
constitution may not allow this -- why not first amend that?"
wrote a blogger who logs in as Poalee.
Dakar seconded Poalee's suggestion and said Bhagwandas
would make a good president. "He would be an excellent choice
not because he is from a minority but because he has proved
his democratic credentials and stands for principles."
Other front-runners for the post in the virtual world are
deposed Supreme Court Chief Justice Iktikhar Mohammed
Chaudhry, top lawyer Aitzaz Ahsan, former premier and PML-N
chief Nawaz Sharif and PPP co-chairman Asif Ali Zardari.
Even though names of presidential hopefuls came up for
discussion on the website, there was no dearth of Musharraf
fans. (More) PTI RHL SDG
SDG
02251732 DEL

PAK-BLOGGERS 2 LAST
Abana Samuel wrote, "Minorities should be given a
chance. But at the moment I think President Pervez Musharaff
is doing an excellent job. He is the man. President Musharaff
is the best."
Another fan of the military ruler said: "I hope Musharraf
stays on forever. I trust this man 100 per cent."
Temporal suggested Chaudhry's name for the top job:
"Zardari has reservations about restoring him to the bench and
Sharif has made his restoration the cornerstone of his
campaign. So the best compromise would be to ease him into
presidency --'vakil bhee khush, quam bhee khush'."
However, a blogger named Malique disagreed. "Iftikhar as
president will not be a good choice because we want an
independent judiciary more than we want a gift-for-all
president."
Usman Khan wrote that rules should be amended to allow a
non-Muslim to be elected as president of Pakistan. So did
Adnan Ahmad.
"I have thought of this man (Bhagwandas) for this post.
He is honest, has a clean track record and has shown real
character in the face of serious adversity," Ahmad wrote.
"In a land where we can still hope for a true change,
Justice Bhagwandas would be an excellent choice." PTI RHL

SDG
02251734 DEL

Tuesday, 19 February 2008

80 करोड़ लोग समझते हैं हिंदी मगर विश्व की दस भाषाओं में भी गिनती नहीं

हिदी ब्लाग, तमाम वेब साइट, हिंदी लिखने के टूल, गूगल और हिंदी पोर्टल की महज तीन चार सालों में इंटरनेट पर मौजूदगी भी हिंदी को अभी वह दर्जा नहीं दिला पाई है, जो दर्जा जनसंख्या के हिसाब से उसे हासिल है। इसकी चाहे जितनी वजहें गिनाई जाएं मगर अंग्रेजी जाने बिना हिंदी या भारत की किसी क्षेत्रीय भाषा जानने वाले को इंटरनेट पर कुछ भी कर पाना संभव नहीं है। भारत की शिक्षा पद्धति में व्यवहारिक ज्ञान दिए जाने की खामी के कारण हिंदी वालों को अंग्रेजी में पढ़ने और सीखने पर मजबूर होना पड़ रहा है। इसी कारण लिखने पढ़ने के लिए हिंदी का प्रयोग करने वाले न सिर्फ इंटरनेट पर फिसड्डी हैं बल्कि व्यवसाय और रोजगार की सूचनाक्रांति की दुनियां से वंचित हैं। देश के किस सरकारी हिंदी स्कूल में यह अनिवार्य किया गया है कि छात्र को कंप्यटर प्रयोग का व्यवहारिक ज्ञान दिया जाना अनिवार्य है और उसके लिए प्रत्येक छात्र को कंप्यूटर मुहैया कराया जाता है? अगर कुछ प्राइवेट संपन्न स्कूलों में मंहगी शिक्षा के आधार पर यह सुविधा उपलब्ध है तो इससे कितने हिंदी जानने वाले पैदा होंगे?
कटु सत्य यह है कि जो मंहगी शिक्षा हासिल करने की हैसियत रखता है वह हिंदी नहीं बल्कि अंग्रेजी पढ़ता है। यानी हम तब तक इंटरनेट ही नहीं सूचनाक्रांति की दुनिया में फिसड्डी रहेंगे जबतक सरकारी तौर पर सभी हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों को कंप्यूटर के प्रयोग की सुविधा मुहैया कराई नहीं जाएगी। भारत की क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ने वालों की भी यही कहानी है। कुल मिलाकर आम आदमी को सूचनाक्रांति का फायदा उठाने लायक बनाने की कोई ऐसी योजना ही नहीं है जिससे सभी हिंदी बोलने वाले उतने ही तादाद में इंटरनेट का प्रयोग करते दिखें।
हिंदी में संपन्न बेवसाइट का भी बहुत अभाव है। विशेष विषयों पर सम्पूर्ण सूचना हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं में खोज पाना लगभग असंभव है। मजबूर होकर जो हिंदी जानते भी हैं उन्हें अंग्रेजी में काम करना आसान लगता है। इन कारणों के आलोक में इंटरनेट पर हिंदी में काम करने वालों की कमी है। यूनिनागरी के आगमन से हिंदी लिखना थोड़ा आसान हुआ है मगर इसकी राह मे तकनीकी ज्ञान न होना बड़ी बाधा है।
इन सारी बाधाओं के कारण इंटरनेट में सबसे ज्यादा प्रयोग की जाने वाली भाषाओं की सूची में हिंदी पहले दस पायदानों में भी नहीं है। इंटरनेटवर्ल्डस्टैट्सडाटकाम नामक वेबसाइट की ताजा जानकारी में यह बात कही गई है। सूचना तकनीक की क्रांति जहां क्षेत्रीय भाषाओं पर गाज बनकर गिरी है वहीं क्षेत्रीय भाषाओं का दायरा बहुत सिकुड़ता जा रहा है। इंटरनेट पर हिंदी के प्रचार-प्रसार पर उम्मीद से बहुत कम ध्यान दिया गया है। आइए उन कारणों व इंटरनेट पर हिंदी की मौजूदगी को आंकड़ों के हिसाब से जानने का कोशिश करते हैं।


* इंटरनेट के जरिए कुछ भाषाओं का वर्चस्व कायम होती जा रही है, जबकि अन्य भाषाएं हाशिए पर जा रही हैं। इंटरनेट में मिलने वाली 98 प्रतिशत जानकारी दुनिया की गिनी-चुनी 12 भाषाओं में ही है।
* विश्व में 80 करोड़ लोग हिंदी समझते हैं, 50 करोड़ लोग हिंदी बोलतेहैं,और 35 करोड़ लोग हिंदी लिख सकते हैं। इसके बावजूद हिंदी इंटरनेट में अपनी सही जगह नहीं बना पाई।
* इंटरनेट में हिंदी और ऐसी ही अन्य लोकप्रिय भाषाओं में जानकारी के अभाव से सूचना तकनीक से जागरूकता और संपन्नता लाने का प्रयास बेमानी हो गया है। जानकारी वहां तक नहीं पहुंच पा रही जहां इसकी खास जरूरत है।
* एक अनुमान के मुताबिक इंटरनेट पर 20 अरब जालपृष्ठ हैं। इनका सम्मिलित आकार 10 लाख जीबी है।
* जस्ट कंसल्ट द्वारा के आंकड़ों में दावा किया गया है कि ऑनलाइन भारतीयों में 60 प्रतिशत अंग्रेजी पाठकों की तुलना में 42 प्रतिशत पाठक गैरअंग्रेजी भारतीय भाषाओं में और 17 प्रतिशत पाठक हिंदी में पढ़ना पसंद करते हैं।
* इस समय इंटरनेट में हिंदी में 20 अच्छी पत्रिकाएं चल रही हैं। इनके पढ़ने वालों की अच्छी तादाद है। उन्होंने एक स्तर बनाया हुआ है। इनमें से कुछ हैं अभिव्यक्ति, सृजनगाथा, शब्दांजलि, साहित्य कुंज, छाया, गर्भनाल, भारत दर्शन इत्यादि।
* नेट में जहां अंग्रेजी के 20 अरब से अधिक पेज मिल जाते हैं वहीं हिंदी के एक करोड़ से ज्यादा नहीं हैं।
* इंटरनेट में हिंदी के पिछड़ने का एक कारण यह भी है कि हिंदी जानने वाले भी अधिकारिक कामकाज के लिए अंग्रेजी का ही प्रयोग करते हैं।
* इंटरनेट में चीनी, जापानी, स्पेनिश, जर्मन, कोरिया इटालियन भाषाओं पर जबरदस्त काम हो रहा है। हिंदी में जहां काम कछुआ चाल से चल रहा है वहीं अभी भी तमाम वेबसाइटों में तकनीकी खामियां मौजूद हैं।
* ‘द वर्ल्ड इज फ्लैट’ के लेखक थॉम एल फ्रीडमैन ने दुनिया में नई ईबारत के लिए तीन चीजों की चर्चा की है पर्सनल कंप्यूटर, इंटरनेट और सॉफ्टवेयर क्रांति। यूनीकोड से हिंदी को नया तोहफा मिला। यूनिकोड प्रत्येक अक्षर के लिए एक विशेष नंबर प्रदान करता है चाहे कोई प्लेटफोर्म हो, प्रोग्राम हो या फिर भाषा हो।
* दुनिया में ऐसे लोगों की खासी तादाद है जो जरूरत के हिसाब से अंग्रेजी जानने के लिए मजबूर हैं। यानी आपको सामान्य कामकाज या अधिकारिक कामकाज जानना है तो अंग्रेजी जाननी ही पड़ेगी। विकी इंसाइक्लोपीडिया में दी गई जानकारी के मुताबिक दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या तो 32 करोड़ ही है जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी है लेकिन दूसरे ऐसे 35 करोड़ लोग हैं जो अंग्रेजी को संपर्क भाषा मानकर प्रयोग करते हैं।
(आंकड़े राष्ट्रीय सहारा से साभार)

इंटरनेट पर अभी फिसड्डी ही है हिंदी !

हिदी ब्लाग, तमाम वेब साइट, हिंदी लिखने के टूल, गूगल और हिंदी पोर्टल की महज तीन चार सालों में इंटरनेट पर मौजूदगी भी हिंदी को अभी वह दर्जा नहीं दिला पाई है, जो दर्जा जनसंख्या के हिसाब से उसे हासिल है। इसकी चाहे जितनी वजहें गिनाई जाएं मगर अंग्रेजी जाने बिना हिंदी या भारत की किसी क्षेत्रीय भाषा जानने वाले को इंटरनेट पर कुछ भी कर पाना संभव नहीं है। भारत की शिक्षा पद्धति में व्यवहारिक ज्ञान दिए जाने की खामी के कारण हिंदी वालों को अंग्रेजी में पढ़ने और सीखने पर मजबूर होना पड़ रहा है। इसी कारण लिखने पढ़ने के लिए हिंदी का प्रयोग करने वाले न सिर्फ इंटरनेट पर फिसड्डी हैं बल्कि व्यवसाय और रोजगार की सूचनाक्रांति की दुनियां से वंचित हैं। देश के किस सरकारी हिंदी स्कूल में यह अनिवार्य किया गया है कि छात्र को कंप्यटर प्रयोग का व्यवहारिक ज्ञान दिया जाना अनिवार्य है और उसके लिए प्रत्येक छात्र को कंप्यूटर मुहैया कराया जाता है? अगर कुछ प्राइवेट संपन्न स्कूलों में मंहगी शिक्षा के आधार पर यह सुविधा उपलब्ध है तो इससे कितने हिंदी जानने वाले पैदा होंगे?
कटु सत्य यह है कि जो मंहगी शिक्षा हासिल करने की हैसियत रखता है वह हिंदी नहीं बल्कि अंग्रेजी पढ़ता है। यानी हम तब तक इंटरनेट ही नहीं सूचनाक्रांति की दुनिया में फिसड्डी रहेंगे जबतक सरकारी तौर पर सभी हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों को कंप्यूटर के प्रयोग की सुविधा मुहैया कराई नहीं जाएगी। भारत की क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ने वालों की भी यही कहानी है। कुल मिलाकर आम आदमी को सूचनाक्रांति का फायदा उठाने लायक बनाने की कोई ऐसी योजना ही नहीं है जिससे सभी हिंदी बोलने वाले उतने ही तादाद में इंटरनेट का प्रयोग करते दिखें।
हिंदी में संपन्न बेवसाइट का भी बहुत अभाव है। विशेष विषयों पर सम्पूर्ण सूचना हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं में खोज पाना लगभग असंभव है। मजबूर होकर जो हिंदी जानते भी हैं उन्हें अंग्रेजी में काम करना आसान लगता है। इन कारणों के आलोक में इंटरनेट पर हिंदी में काम करने वालों की कमी है। यूनिनागरी के आगमन से हिंदी लिखना थोड़ा आसान हुआ है मगर इसकी राह मे तकनीकी ज्ञान न होना बड़ी बाधा है।
इन सारी बाधाओं के कारण इंटरनेट में सबसे ज्यादा प्रयोग की जाने वाली भाषाओं की सूची में हिंदी पहले दस पायदानों में भी नहीं है। इंटरनेटवर्ल्डस्टैट्सडाटकाम नामक वेबसाइट की ताजा जानकारी में यह बात कही गई है। सूचना तकनीक की क्रांति जहां क्षेत्रीय भाषाओं पर गाज बनकर गिरी है वहीं क्षेत्रीय भाषाओं का दायरा बहुत सिकुड़ता जा रहा है। इंटरनेट पर हिंदी के प्रचार-प्रसार पर उम्मीद से बहुत कम ध्यान दिया गया है। आइए उन कारणों व इंटरनेट पर हिंदी की मौजूदगी को आंकड़ों के हिसाब से जानने का कोशिश करते हैं।


* इंटरनेट के जरिए कुछ भाषाओं का वर्चस्व कायम होती जा रही है, जबकि अन्य भाषाएं हाशिए पर जा रही हैं। इंटरनेट में मिलने वाली 98 प्रतिशत जानकारी दुनिया की गिनी-चुनी 12 भाषाओं में ही है।
* विश्व में 80 करोड़ लोग हिंदी समझते हैं, 50 करोड़ लोग हिंदी बोलतेहैं,और 35 करोड़ लोग हिंदी लिख सकते हैं। इसके बावजूद हिंदी इंटरनेट में अपनी सही जगह नहीं बना पाई।
* इंटरनेट में हिंदी और ऐसी ही अन्य लोकप्रिय भाषाओं में जानकारी के अभाव से सूचना तकनीक से जागरूकता और संपन्नता लाने का प्रयास बेमानी हो गया है। जानकारी वहां तक नहीं पहुंच पा रही जहां इसकी खास जरूरत है।
* एक अनुमान के मुताबिक इंटरनेट पर 20 अरब जालपृष्ठ हैं। इनका सम्मिलित आकार 10 लाख जीबी है।
* जस्ट कंसल्ट द्वारा के आंकड़ों में दावा किया गया है कि ऑनलाइन भारतीयों में 60 प्रतिशत अंग्रेजी पाठकों की तुलना में 42 प्रतिशत पाठक गैरअंग्रेजी भारतीय भाषाओं में और 17 प्रतिशत पाठक हिंदी में पढ़ना पसंद करते हैं।
* इस समय इंटरनेट में हिंदी में 20 अच्छी पत्रिकाएं चल रही हैं। इनके पढ़ने वालों की अच्छी तादाद है। उन्होंने एक स्तर बनाया हुआ है। इनमें से कुछ हैं अभिव्यक्ति, सृजनगाथा, शब्दांजलि, साहित्य कुंज, छाया, गर्भनाल, भारत दर्शन इत्यादि।
* नेट में जहां अंग्रेजी के 20 अरब से अधिक पेज मिल जाते हैं वहीं हिंदी के एक करोड़ से ज्यादा नहीं हैं।
* इंटरनेट में हिंदी के पिछड़ने का एक कारण यह भी है कि हिंदी जानने वाले भी अधिकारिक कामकाज के लिए अंग्रेजी का ही प्रयोग करते हैं।
* इंटरनेट में चीनी, जापानी, स्पेनिश, जर्मन, कोरिया इटालियन भाषाओं पर जबरदस्त काम हो रहा है। हिंदी में जहां काम कछुआ चाल से चल रहा है वहीं अभी भी तमाम वेबसाइटों में तकनीकी खामियां मौजूद हैं।
* ‘द वर्ल्ड इज फ्लैट’ के लेखक थॉम एल फ्रीडमैन ने दुनिया में नई ईबारत के लिए तीन चीजों की चर्चा की है पर्सनल कंप्यूटर, इंटरनेट और सॉफ्टवेयर क्रांति। यूनीकोड से हिंदी को नया तोहफा मिला। यूनिकोड प्रत्येक अक्षर के लिए एक विशेष नंबर प्रदान करता है चाहे कोई प्लेटफोर्म हो, प्रोग्राम हो या फिर भाषा हो।
* दुनिया में ऐसे लोगों की खासी तादाद है जो जरूरत के हिसाब से अंग्रेजी जानने के लिए मजबूर हैं। यानी आपको सामान्य कामकाज या अधिकारिक कामकाज जानना है तो अंग्रेजी जाननी ही पड़ेगी। विकी इंसाइक्लोपीडिया में दी गई जानकारी के मुताबिक दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या तो 32 करोड़ ही है जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी है लेकिन दूसरे ऐसे 35 करोड़ लोग हैं जो अंग्रेजी को संपर्क भाषा मानकर प्रयोग करते हैं।
(आंकड़े राष्ट्रीय सहारा से साभार)

Wednesday, 13 February 2008

जलती रहे ब्लागर्स मशाल

एक हिंदी ब्लागर की आत्मकथा
कंप्यूटर पर खबरें लिखने और पेज बना लेने तक कंप्यूटर का सीमित ज्ञान तो था मगर अंतर्जाल पर हिंदी में खुद कुछ लिखने की जगह बन सकती है, यह बिल्कुल नहीं जानता था। अंतर्जाल में कुछ हिंदी पोर्टल वेबदुनिया और गूगल, याहू, एमएसएन वगैरह में जाकर हिंदी खबरें पढ़ लेता था। हिंदी अखबार जो नेट पर उपलब्ध थे, उन्हें भी खाली समय में पढ़ने तक सीमित था। कुछ ब्लाग ( हिंदी के कम मगर ज्यादा अंग्रेजी के थे ) को भी देखकर उन्हें जानने की जिज्ञासा होती थी, मगर यह डर भी समाया रहता था कि खर्चील होगा। इस खर्च के डर ने काफी समय तक आगे बढ़ने नहीं दिया। मेरे मित्र पलाश विश्वास ने बताया कि ईब्लागर में फ्री है। उन्होंने कई महीने पहले अंग्रेजी में अपना ब्लाग बना लिया था और बाकायदा लिख रहे थे। बहरहाल फ्री ब्लाग की सूचना ने मुझे हिंदी ब्लाग बनाने के लिए और भी प्रेरित किया। इस बीच ईबीबो में भी ब्लाग बनाकर लिखना शुरू किया। ईबीबो में हिंदी लिखना ईब्लागर से आसान था इसी लिए हिंदी लिखने का सीधा प्रयास ईबीबों में करने लगा और उसी को कापी करके ईब्लागर के चिंतन ब्लाग पर भी पोस्ट करने लगा। बाद में उसमें भी इतनी तकनीकी खामियां आईँ कि अंततः ईबीबो के ब्लाग को बंद ही कर दिया। सच यह है कि ईब्लागर में आज भी सीधे गति के साथ हिंदी लिखना दुरूह ही है। लेकिन आभारी ईब्लागर्स का ही हूं जहां से ब्लागिंग की दुनियां में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाया। आइए फिर वहीं चलते हैं जब ईब्लागर्स पर ब्लाग बनाने जुटा था।
यह सन् २००७ का मार्च महीना था। कई महीने की चिंतन और काफी मशक्कत के बाद ईब्लागर्स पर चिंतन नामक ब्लाग बना पाया। इस ब्लाग के चिंतन नामकरण की वजह भी यही है कि इसका प्रादुर्भाव बिना किसी की मदद के व्यक्तिगत प्रयास व चिंतन से हुआ। पर असली मुश्किल यह थी कि ब्लाग बना लेने के बाद भी उस पर लिख पाना संभव नहीं हो पा रहा था। कंप्यूटर का तकनीकी ज्ञान अल्प होने के कारण ही सबकुछ समझने में देरी हो रही थी। मेरे मित्र पलाश विश्वास ने तो हिंदी में लिख पाने की उम्मीद छोड़कर अंग्रेजी में ब्लाग लिखना शुरू कर दिया। हालांकि मेरे हिंदी ब्लाग के थोड़ा निखार पर आ जाने पर और वेब दुनिया में ब्लाग बना लेने के बाद उन्होंने भी अंततः हिंदी ब्लाग वेबदुनिया में पूरे एक साल के बाद बना ही लिया है। इसे मैं अपने हिंदी ब्लाग लिखने के निरंतर खोज की जीत मानता हूं। मेरे ही कारण मेरे कई और मित्र हिंदी ब्लाग बना चुके हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इनमें से कई वे भी हैं जो मेरे ब्लागिंग या ब्लागिंग का ही उपहास हाल तक उड़ाया करते थे।
क्षमा करें प्रसंगवश मूल कथा से भटक गया। आइए फिर वहीं चलते हैं जब अपने मित्र पलाशजी का अंग्रेजी ब्लाग देखकर हिंदी में ब्लाग बनान का दृढ़ निश्चय करके हिंदी ब्लाग बनाने में जुटा रहा। रोक के हताश होजाने वाले प्रयास के बावजूद मैंने हार नहीं मानी। रोज पलाशजी कहते कि डाक्टर साहब हिंदी लिखने की कोई तरकीब सूझी ? मेरा उत्तर निराश करने वाला ही होता था। अपनी ड्यटी करने से जो थोड़ा वक्त निकलता उसे मैं हिंदी लिखने की खोज में लगा देता था। ईब्लागर्स और नारद अक्षरग्राम की साइट में जाकर पढ़ता था। सबकुछ उसमें साफ-साफ समझाया गया था मगर मुझे यह अबूझ पहेली ही लगती थी। अंततः ईब्लागर्स में हिंदी में लिखने का टूल दिख गया। जहां रोमन में लिखने पर वह हिंदी में बदल देता है। इसमें कुछ मित्रों की मदद से लिखना तो शुरू किया मगर संतुष्ट नहीं हुआ। इस सारी प्रक्रिया में किसी इंजीनियर या ऐसे ब्लागर्स से मुलाकात भी नहीं हो पाई जो मेरे साथ बैठकर दो मिनट में मेरी मुश्किल आसान कर दे। जंगल में भटके राही की तरह खुद ही मंजिल तलाशा मैंने। विस्तार से हिंदी लिखना तब शुरू हो पाया जब हिंदी भाषा समूह की ओर से किसी शुभचिंतक ने कालूआनलाइन का लिंक भेज दिया। अब तक तो इसी टूल से काम चला रहा था मगर अब मायवेबदुनिया के ब्लाग ने सीधे ब्लाग में हिंदी लिखने की ऐसी आजादी मुहैया करायी है कि पिछली सारी तकलीफे अब याद तक नहीं आतीं। मगर ब्लागर्स की दुनिया में मेरे ब्लाग चिंतन ने जब पहला कदम रखा था तो इतनी गर्मजोशी से स्वागत हुआ कि मैं एकदम अवाक रह गया। जो मुझे न जानते हैं और न पहचानते हैं, वे अपने भाई बंधु से भी ज्यादा करीबी लगे।
अब मेरे पास तीन ब्लाग हैं। एक ही ब्लाग लिखने के लिए काफी था मगर तकनीकी दिक्कतें थीं कि पीछा ही नहीं छोड़ रहीं थीं। एक दुर्घटना घटी मेरे साथ। एक दिन एक लेख लिखकर अपने चिंतन ब्लाग पर पोस्ट किया तो किसी तकनीकी कारण से पोस्ट ही नहीं हुआ। बेहद निराश हुआ। लगा कि सब चौपट हो गया। जब चिंतन ब्लाग को तकनीकी तौरपर खराब मान लिया तो मजबूर होकर दूसरा ब्लाग हमारा वतन बनाया। फिर से इस दूसरे ब्लाग को सजाना पड़ा और सभी एग्रीगेटर पर डालने की जहमत उठानी पड़ी। इसे जहमत इस लिए कह रहा हूं क्यों कि तकनीकी कारणों से अक्सर इसमें उलझ जाता हूं। हालांकि अब यह कुछ आसान हो गया है। खासतौर पर नारद ने अपनी जटिल प्रक्रिया को आसान कर दिया है। बहरहाल हमारावतन पर लिखने के क्रम में खुद ही चिंतन की तकनीकी दिक्कतें भी दूर कर लिया। अब दोनों ब्लाग को मिलाकर सौ से अधिक प्रविष्टियां हैं।
अब ब्लाग पर लिखने के मकद पर कुछ बात न करूं तो लगेगा कि कुछ कहना भूल गया हूं। मैंने किसी खास व्यावसायिक मकसद की पूर्ति को जेहन में रखकर ब्लाग नहीं बनाया। यह इस लिए कह रहा हूं क्यों कि ब्लाग अब लोगों की कमाई का भी जरिया बन गया है। मैं इससे परे रहकर जब जिस विषय पर लिखने की तबियत हुई लिख डाला। किसी पार्टी या समुदाय की तरफदारी का तरजीह देना भी जरूरी नहीं समझा। बिल्कुल आजाद तबियत से जो कहना चाहा कह दिया। पत्रकारों के एक ब्लाग भड़ास का सदस्य बना। मगर उसमें जिस भाषा में प्रविष्टियां छप रही थीं या फिर छप रही हैं, उस पर भी ब्लाग के प्रशासक यशवंत से अपनी बात कही। असहमति जताते हुए उस ब्लाग पर भी उनकी भाषा का अनुकरण नहीं किया। अब भी व्यवसायिक ब्लाग समूहों की चकाचौंध से बेफिक्र रहकर लिखे जा रहा हूं।
इस लिखने के दौर में एक और पड़ाव का भी जिक्र करूंगा। अब मैं हिंदी में और बेहतर तरीके से इसी नए पड़ाव पर पहूंचकर ही लिख पारहा हूं। यह है वेबदुनिया का मेरा नया व्लाग कालचिंतन। हिंदी लिखने की इसी सुविधा का इस्तेमाल करके यह पूरी आत्मकथा भी लिख पारहा हूं। आखिर में इसकी शान में इतना ही कहना काफी होगा कि वेबदुनिया पर मुझे लिखते देखकर ही मेरे कई मित्र और वे भी ब्लाग बना लिए जो ब्लाग को तुच्छ समझते थे।
नीचे इसी आत्मकथा की मेरी वह काव्यमय अभ्व्यक्ति है जिसे ब्लाग बनाने के दौर में मैंने महसूस किया। शास्त्रीय काव्य के मानदंड से दूर महज अभिव्यक्ति है। साहित्य जगत के मित्रों से इस धृष्टता के लिए क्षमा चाहूंगा। इस ब्लागर्स राही ने अभी चलना बंद नहीं किया है। दौर जारी है। फिर मिलेंगे।

जलती रहे ब्लागर्स मशाल

अक्सर सोचा करता था, क्या होती है चीज ब्लाग
लगा खोजने इंटरनेट पर, तब भी नहीं खुला यह राज।।

अंग्रेजी के थे बड़े धुरंधर, हिंदी लिखना था बड़ा सवाल।
जिद हिंदी की ठानी थी, और नहीं कुछ आता रास।

अंतर्जाल की घुमक्कड़ी में, खोज लिया ही हिंदी ब्लाग।।
इसी खोज में साधो इक दिन, पाया नारद-अक्षरग्राम व हिंदी ब्लाग।

ब्लाग बनाने, हिंदी लिखने की है यह पाठशाला।
इन्हीं को अपना गुरू मानकर, ब्लाग बनाया हिंदी वाला।।

ई-ब्लागर के तहखाने में, जाकर पाया नया मुकाम।
श्रीश जैसे स्नेही मित्रों ने, हिंदी लिखना कर दिया आसान।।

अंग्रेजी के तोड़ चक्रव्यूह,, हिंदी चिंतन ने लिया अवतार।
साल भर के नन्हें शिशु का, पहला जन्मदिन है आज।।

युग-युग जिओ हिंदी ब्लागर्स, उत्साह बढ़ाया दिया सम्मान।
कामना करें सभी मिलकर, शिशु चिंतन भी बने महान।।

हिंदी चिट्ठों की द्रुतगामी नदियां, बह चलीं पहुंचीं सागर पार।
दुनिया के हर कोने में, अब बह रही है ब्लागर्स बयार।।

ब्लागवाणी चिट्ठाजगत औ नारद जैसा खेवनहार,
अंग्रेजी को मार दुलत्ती, हिंदी पर उड़ेला प्यार।।

बेलौस बको अब खूब लिखो, अभिव्यक्ति का यह नया आकाश।
अब नहीं करना है तुझे, अखबार पत्रिका की तलाश।।

कभी तो थे गिनती के यारों, अब हैं हम हजारों पार।
पाठकों की तो मत ही पूछो, वे भी हैं कई लाखों आज।।

हर विधा हर रंगा के ब्लागर्स, कुछ छोड़ते नहीं सब लिखते खास।
मोहल्ला चिंतन रिजेक्ट माल, कितने गिनाउं छा गए भड़ास।।

कोई कम नहीं हैं सभी धुरंधर, सबके अलह-अलग हैं राग।
किसी लेख से बहती कविता, कोई उगल रहा है आग।।

हिंदी जगत को अंतर्जाल पर, धुरंधर ब्लागर्स ने पहनाए ताज।
एग्रीगेटर्स की महिमा से, अखबारों में भी ब्लागर्स राज।।

ई-ब्लागर्स चिंतन नहीं अकेला अब, हमारा वतन भी देता साथ।
धूम मचाती ब्लागर्स दुनिया के, दोनों योद्धा हैं जांबाज।।

वेबदुनिया का भी लिया सहारा, जहां कालचिंतन है ब्लाग हमारा।
हिंदी लेखन मेल टिप्पणी , सब हिंदी में इसका नारा।।

हिंदी पोर्टल वेबदुनिया को, करता हू शत-शत प्रणाम।
ब्लागर्स की फैलती दुनिया में, यह भी है अब नया मुकाम।।

समानान्तर मीडिया की यह मशाल, ब्लागर्स बन्धु तुम्हारे हाथ।
जले निरंतर कभी बुझे ना, लो अभी शपथ मिला लो हाथ।।



डा. मान्धाता सिंह, कोलकाता
फोन- ०३३-२५२९२२५२

जलती रहे ब्लागर्स मशाल

एक हिंदी ब्लागर की आत्मकथा
कंप्यूटर पर खबरें लिखने और पेज बना लेने तक कंप्यूटर का सीमित ज्ञान तो था मगर अंतर्जाल पर हिंदी में खुद कुछ लिखने की जगह बन सकती है, यह बिल्कुल नहीं जानता था। अंतर्जाल में कुछ हिंदी पोर्टल वेबदुनिया और गूगल, याहू, एमएसएन वगैरह में जाकर हिंदी खबरें पढ़ लेता था। हिंदी अखबार जो नेट पर उपलब्ध थे, उन्हें भी खाली समय में पढ़ने तक सीमित था। कुछ ब्लाग ( हिंदी के कम मगर ज्यादा अंग्रेजी के थे ) को भी देखकर उन्हें जानने की जिज्ञासा होती थी, मगर यह डर भी समाया रहता था कि खर्चील होगा। इस खर्च के डर ने काफी समय तक आगे बढ़ने नहीं दिया। मेरे मित्र पलाश विश्वास ने बताया कि ईब्लागर में फ्री है। उन्होंने कई महीने पहले अंग्रेजी में अपना ब्लाग बना लिया था और बाकायदा लिख रहे थे। बहरहाल फ्री ब्लाग की सूचना ने मुझे हिंदी ब्लाग बनाने के लिए और भी प्रेरित किया। इस बीच ईबीबो में भी ब्लाग बनाकर लिखना शुरू किया। ईबीबो में हिंदी लिखना ईब्लागर से आसान था इसी लिए हिंदी लिखने का सीधा प्रयास ईबीबों में करने लगा और उसी को कापी करके ईब्लागर के चिंतन ब्लाग पर भी पोस्ट करने लगा। बाद में उसमें भी इतनी तकनीकी खामियां आईँ कि अंततः ईबीबो के ब्लाग को बंद ही कर दिया। सच यह है कि ईब्लागर में आज भी सीधे गति के साथ हिंदी लिखना दुरूह ही है। लेकिन आभारी ईब्लागर्स का ही हूं जहां से ब्लागिंग की दुनियां में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाया। आइए फिर वहीं चलते हैं जब ईब्लागर्स पर ब्लाग बनाने जुटा था।
यह सन् २००७ का मार्च महीना था। कई महीने की चिंतन और काफी मशक्कत के बाद ईब्लागर्स पर चिंतन नामक ब्लाग बना पाया। इस ब्लाग के चिंतन नामकरण की वजह भी यही है कि इसका प्रादुर्भाव बिना किसी की मदद के व्यक्तिगत प्रयास व चिंतन से हुआ। पर असली मुश्किल यह थी कि ब्लाग बना लेने के बाद भी उस पर लिख पाना संभव नहीं हो पा रहा था। कंप्यूटर का तकनीकी ज्ञान अल्प होने के कारण ही सबकुछ समझने में देरी हो रही थी। मेरे मित्र पलाश विश्वास ने तो हिंदी में लिख पाने की उम्मीद छोड़कर अंग्रेजी में ब्लाग लिखना शुरू कर दिया। हालांकि मेरे हिंदी ब्लाग के थोड़ा निखार पर आ जाने पर और वेब दुनिया में ब्लाग बना लेने के बाद उन्होंने भी अंततः हिंदी ब्लाग वेबदुनिया में पूरे एक साल के बाद बना ही लिया है। इसे मैं अपने हिंदी ब्लाग लिखने के निरंतर खोज की जीत मानता हूं। मेरे ही कारण मेरे कई और मित्र हिंदी ब्लाग बना चुके हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इनमें से कई वे भी हैं जो मेरे ब्लागिंग या ब्लागिंग का ही उपहास हाल तक उड़ाया करते थे।
क्षमा करें प्रसंगवश मूल कथा से भटक गया। आइए फिर वहीं चलते हैं जब अपने मित्र पलाशजी का अंग्रेजी ब्लाग देखकर हिंदी में ब्लाग बनान का दृढ़ निश्चय करके हिंदी ब्लाग बनाने में जुटा रहा। रोक के हताश होजाने वाले प्रयास के बावजूद मैंने हार नहीं मानी। रोज पलाशजी कहते कि डाक्टर साहब हिंदी लिखने की कोई तरकीब सूझी ? मेरा उत्तर निराश करने वाला ही होता था। अपनी ड्यटी करने से जो थोड़ा वक्त निकलता उसे मैं हिंदी लिखने की खोज में लगा देता था। ईब्लागर्स और नारद अक्षरग्राम की साइट में जाकर पढ़ता था। सबकुछ उसमें साफ-साफ समझाया गया था मगर मुझे यह अबूझ पहेली ही लगती थी। अंततः ईब्लागर्स में हिंदी में लिखने का टूल दिख गया। जहां रोमन में लिखने पर वह हिंदी में बदल देता है। इसमें कुछ मित्रों की मदद से लिखना तो शुरू किया मगर संतुष्ट नहीं हुआ। इस सारी प्रक्रिया में किसी इंजीनियर या ऐसे ब्लागर्स से मुलाकात भी नहीं हो पाई जो मेरे साथ बैठकर दो मिनट में मेरी मुश्किल आसान कर दे। जंगल में भटके राही की तरह खुद ही मंजिल तलाशा मैंने। विस्तार से हिंदी लिखना तब शुरू हो पाया जब हिंदी भाषा समूह की ओर से किसी शुभचिंतक ने कालूआनलाइन का लिंक भेज दिया। अब तक तो इसी टूल से काम चला रहा था मगर अब मायवेबदुनिया के ब्लाग ने सीधे ब्लाग में हिंदी लिखने की ऐसी आजादी मुहैया करायी है कि पिछली सारी तकलीफे अब याद तक नहीं आतीं। मगर ब्लागर्स की दुनिया में मेरे ब्लाग चिंतन ने जब पहला कदम रखा था तो इतनी गर्मजोशी से स्वागत हुआ कि मैं एकदम अवाक रह गया। जो मुझे न जानते हैं और न पहचानते हैं, वे अपने भाई बंधु से भी ज्यादा करीबी लगे।
अब मेरे पास तीन ब्लाग हैं। एक ही ब्लाग लिखने के लिए काफी था मगर तकनीकी दिक्कतें थीं कि पीछा ही नहीं छोड़ रहीं थीं। एक दुर्घटना घटी मेरे साथ। एक दिन एक लेख लिखकर अपने चिंतन ब्लाग पर पोस्ट किया तो किसी तकनीकी कारण से पोस्ट ही नहीं हुआ। बेहद निराश हुआ। लगा कि सब चौपट हो गया। जब चिंतन ब्लाग को तकनीकी तौरपर खराब मान लिया तो मजबूर होकर दूसरा ब्लाग हमारा वतन बनाया। फिर से इस दूसरे ब्लाग को सजाना पड़ा और सभी एग्रीगेटर पर डालने की जहमत उठानी पड़ी। इसे जहमत इस लिए कह रहा हूं क्यों कि तकनीकी कारणों से अक्सर इसमें उलझ जाता हूं। हालांकि अब यह कुछ आसान हो गया है। खासतौर पर नारद ने अपनी जटिल प्रक्रिया को आसान कर दिया है। बहरहाल हमारावतन पर लिखने के क्रम में खुद ही चिंतन की तकनीकी दिक्कतें भी दूर कर लिया। अब दोनों ब्लाग को मिलाकर सौ से अधिक प्रविष्टियां हैं।
अब ब्लाग पर लिखने के मकद पर कुछ बात न करूं तो लगेगा कि कुछ कहना भूल गया हूं। मैंने किसी खास व्यावसायिक मकसद की पूर्ति को जेहन में रखकर ब्लाग नहीं बनाया। यह इस लिए कह रहा हूं क्यों कि ब्लाग अब लोगों की कमाई का भी जरिया बन गया है। मैं इससे परे रहकर जब जिस विषय पर लिखने की तबियत हुई लिख डाला। किसी पार्टी या समुदाय की तरफदारी का तरजीह देना भी जरूरी नहीं समझा। बिल्कुल आजाद तबियत से जो कहना चाहा कह दिया। पत्रकारों के एक ब्लाग भड़ास का सदस्य बना। मगर उसमें जिस भाषा में प्रविष्टियां छप रही थीं या फिर छप रही हैं, उस पर भी ब्लाग के प्रशासक यशवंत से अपनी बात कही। असहमति जताते हुए उस ब्लाग पर भी उनकी भाषा का अनुकरण नहीं किया। अब भी व्यवसायिक ब्लाग समूहों की चकाचौंध से बेफिक्र रहकर लिखे जा रहा हूं।
इस लिखने के दौर में एक और पड़ाव का भी जिक्र करूंगा। अब मैं हिंदी में और बेहतर तरीके से इसी नए पड़ाव पर पहूंचकर ही लिख पारहा हूं। यह है वेबदुनिया का मेरा नया व्लाग कालचिंतन। हिंदी लिखने की इसी सुविधा का इस्तेमाल करके यह पूरी आत्मकथा भी लिख पारहा हूं। आखिर में इसकी शान में इतना ही कहना काफी होगा कि वेबदुनिया पर मुझे लिखते देखकर ही मेरे कई मित्र और वे भी ब्लाग बना लिए जो ब्लाग को तुच्छ समझते थे।
नीचे इसी आत्मकथा की मेरी वह काव्यमय अभ्व्यक्ति है जिसे ब्लाग बनाने के दौर में मैंने महसूस किया। शास्त्रीय काव्य के मानदंड से दूर महज अभिव्यक्ति है। साहित्य जगत के मित्रों से इस धृष्टता के लिए क्षमा चाहूंगा। इस ब्लागर्स राही ने अभी चलना बंद नहीं किया है। दौर जारी है। फिर मिलेंगे।


जलती रहे ब्लागर्स मशाल

अक्सर सोचा करता था, क्या होती है चीज ब्लाग
लगा खोजने इंटरनेट पर, तब भी नहीं खुला यह राज।।

अंग्रेजी के थे बड़े धुरंधर, हिंदी लिखना था बड़ा सवाल।
जिद हिंदी की ठानी थी, और नहीं कुछ आता रास।

अंतर्जाल की घुमक्कड़ी में, खोज लिया ही हिंदी ब्लाग।।
इसी खोज में साधो इक दिन, पाया नारद-अक्षरग्राम व हिंदी ब्लाग।

ब्लाग बनाने, हिंदी लिखने की है यह पाठशाला।
इन्हीं को अपना गुरू मानकर, ब्लाग बनाया हिंदी वाला।।

ई-ब्लागर के तहखाने में, जाकर पाया नया मुकाम।
श्रीश जैसे स्नेही मित्रों ने, हिंदी लिखना कर दिया आसान।।

अंग्रेजी के तोड़ चक्रव्यूह,, हिंदी चिंतन ने लिया अवतार।
साल भर के नन्हें शिशु का, पहला जन्मदिन है आज।।

युग-युग जिओ हिंदी ब्लागर्स, उत्साह बढ़ाया दिया सम्मान।
कामना करें सभी मिलकर, शिशु चिंतन भी बने महान।।

हिंदी चिट्ठों की द्रुतगामी नदियां, बह चलीं पहुंचीं सागर पार।
दुनिया के हर कोने में, अब बह रही है ब्लागर्स बयार।।

ब्लागवाणी चिट्ठाजगत औ नारद जैसा खेवनहार,
अंग्रेजी को मार दुलत्ती, हिंदी पर उड़ेला प्यार।।

बेलौस बको अब खूब लिखो, अभिव्यक्ति का यह नया आकाश।
अब नहीं करना है तुझे, अखबार पत्रिका की तलाश।।

कभी तो थे गिनती के यारों, अब हैं हम हजारों पार।
पाठकों की तो मत ही पूछो, वे भी हैं कई लाखों आज।।

हर विधा हर रंगा के ब्लागर्स, कुछ छोड़ते नहीं सब लिखते खास।
मोहल्ला चिंतन रिजेक्ट माल, कितने गिनाउं छा गए भड़ास।।

कोई कम नहीं हैं सभी धुरंधर, सबके अलह-अलग हैं राग।
किसी लेख से बहती कविता, कोई उगल रहा है आग।।

हिंदी जगत को अंतर्जाल पर, धुरंधर ब्लागर्स ने पहनाए ताज।
एग्रीगेटर्स की महिमा से, अखबारों में भी ब्लागर्स राज।।

ई-ब्लागर्स चिंतन नहीं अकेला अब, हमारा वतन भी देता साथ।
धूम मचाती ब्लागर्स दुनिया के, दोनों योद्धा हैं जांबाज।।

वेबदुनिया का भी लिया सहारा, जहां कालचिंतन है ब्लाग हमारा।
हिंदी लेखन मेल टिप्पणी , सब हिंदी में इसका नारा।।

हिंदी पोर्टल वेबदुनिया को, करता हू शत-शत प्रणाम।
ब्लागर्स की फैलती दुनिया में, यह भी है अब नया मुकाम।।

समानान्तर मीडिया की यह मशाल, ब्लागर्स बन्धु तुम्हारे हाथ।
जले निरंतर कभी बुझे ना, लो अभी शपथ मिला लो हाथ।।



डा. मान्धाता सिंह, कोलकाता
फोन- ०३३-२५२९२२५२

Monday, 11 February 2008

पंचायत चुनाव में सभी की होगी अग्निपरीक्षा


तीस साल बाद बंगाल में लालदुर्ग को उसके ही योद्धा ने चुनौती दे दी है। १९७७ में कांग्रेस के पतन के बाद समान विचारधारा वाले वामपंथी दलों माकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक ने सरकार बनायी और निर्बाध रूप से सत्ता में हैं। बाद में इसमें भाकपा भी शामिल हो गई है। रिकार्ड समय २५ साल तक सत्ता संभाले माकपा के पुरोधा ज्योति बसु ने घटक दलों के साथ तब ऐसी तालमेल बैठाई कि कभी कोई उपेक्षा का सवाल तक नहीं खड़ा कर पाया। लालदुर्ग की कमान अब कामरेड बुद्धदेव भट्टाचार्य के हाथों में है। और शायद दुःसमय झेल रहा है। यह शायद उनके कट्टर कामरेड होने की बजाए उदारवादी होने का नतीजा है। कभी सोवियत संघ के मजबूत कम्युनिष्ट गढ़ को भी इसी उदारवाद ने बिखराव पर ला खड़ा किया। ग्लास्नोस्त और पेरोत्रोइका ने वहां वही काम किया जो आज के लालदुर्ग बंगाल में पूंजी के प्रति उदार हुई वाममोर्चा सरकार के लिए सेज और कृषि जमीन अधिग्रहण शायद कर दे। ऐसा फारवर्ड ब्लाक के ६ फरवरी के बंगाल बंद की कामयाबी से और महसूस होने लगा है।

गांव से लेकर शहर तक इस बंद में जिन कुछ विपक्षी दलों ने सहयोग दिया, अगर इसे पंचायत चुनाव पूर्व का संकेत माना जाए तो निश्चित ही ३० साल बाद माकपा मुश्किल में पड़ने वाली है। हालांकि यह कहना जितना आसान है, तामील होना शायद ज्यादा मुश्किल हो। शायद इसी लिए फारवर्ड ब्लाक ने अभी मोर्चा छोड़ने का मन नहीं बनाया है। बंद के दिन पत्रकारों के मोर्चा छोड़ने के सवाल पर अशोक घोष ने कहा कि कुछ राजनैतिक उद्देश्यों के लिए बना है वाममोर्चा। अभी मोर्चा छोड़ने का सवाल ही नहीं पैदा नहीं होता। राजनीतिक मजबूरी भी इसमें साफ झलकती है कि माकपा के ४४ सांसदों के मुकाबले सिर्फ चार सांसदों के साथ फारवर्ड ब्लाक क्या मुकाबला कर पाएगा।

अब फारवर्ड ब्लाक पंचायत चुनावों के जरिए खुद को तौलना चाहता है कि माकपा को चुनौती आगे भी किस हद तक दी जा सकती है। माकपा की दादागीरी और महत्वपूर्ण फैसलों में घटक दलों की उपेक्षा ने ऐसा करने पर मजबूर किया है। उपेक्षा का आरोप तो वामवोर्चा के मंत्री क्षिति गोस्वामी और अशोक घोष कई बार लगी चुके हैं। वोममोर्चा सरकार में फारवर्ड ब्लाक के चार मंत्री हैं। शायद इसी दबाव और अभूतपूर्व बंद से हतप्रभ माकपा के नेता नाराज घटक दलों के साथ आपसी मतभेद सुलझा लेने की कोशिश में बंद के पहले से और बाद में भी लगे हुए हैं। विमान बोस ने तो बंद के दिन ही कहा कि हम मनमुटाव दूर करने की कोशिश कर रहे हैं।
फारवर्ड ब्लाक के माकपा के साथ शक्ति संतुलन की पहली परीक्षा तो त्रिपुरा चुनाव में ही होने वाली है। त्रिपुरा के चुनाव २३ फरवरी को होने वाले हैं और इसकी ६० सदस्यीय विधानसभा चुनाव में फारवर्ड ब्लाक ने अलग से १३ उम्मीदवार खड़े किए हैं। इसके बाद सबसे कड़ी परीक्षा मई में होने वाले बंगाल के पंचायत चुनावों में होने वाली है। लगातार गिरी माकपा की छवि और उन्हीं विवादास्पद मुद्दों पर फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी का माकपा से तकरार ने फारवर्ड ब्लाक को थोडा़ बेहतर स्थिति प्रदान की है। मुसलमानों के भी माकपा से नाराज होने और विपक्ष का बंद में साथ देना तो फिलहाल यही संकेत है कि वोममोर्चा के ही घटक फारवर्ड ब्लाक ने बिगुल बजा दिया है। जो काम विपक्ष में मजबूत रहकर काग्रेस और तृणमूल कागंरेस नहीं कर पाई उस काम को अब शायद घटक दल ही अंजाम देंगे। अगर माकपा को पूरा तरह शिकस्त नहीं दे पाए तो भी इतना कमजोर तो कर ही देंगे कि उसे आगे कभी धौंस देने की हिम्मत नहीं पड़ेगी।
फारवर्ड ब्लाक की यह कोशिश तब कारगर साबित हो सकती है जब कांग्रेस ईमानदार विपक्ष की भूमिका निभाए। हालांकि काग्रेस से कितनी उम्मीद रखी जा सकती है यह तो वक्त ही बताएगा। बंगाल में कांग्रेस को माकपा की बी टीम तक कहने का आरोप तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी अक्सर लगाती रही हैं। जबकि कांग्रेस से अलग होने के बाद माकपा और उसकी नीतियों का सबसे मुखर विरोध बंगाल में तृणमूल ने ही किया है। केंद्र में वामवोर्चा के समर्थन से सरकार बनाने के बाद से तो कांग्रेस का माकपा विरोध लगभग कम हो गया है। सिर्फ प्रियरंजनदास मुंशी अन्य कांग्रेसी नेताओं से इस मामले में थोड़ा अलग रहे हैं।
सबसे बड़ी बात तो पंचायत चुनाव में माकपा के विरोधी दलों की रणनीति की है। अगर सचमुच फारवर्ड ब्लाक पंचायत चुनाव को पार्टी के लिए अहम मानता है तो उसे बंद में समर्थन दिए दलों के साथ उम्मीदवार खड़े करने की वह रणनीति भी बनानी पड़ेगी जो पंचायत चुनाव में उसे बड़ी जीत दिला सके। इस चुनावी गणित में एक बात तो साफ है कि ढेर सारी सीटें माकपा इस लिए जीत जाती है क्यों कि वहां घटक दलों के वोट निर्णायक होते हैं। या थोड़े कम वोटों से काग्रेस या तृणमूल उम्मीदवार इसलिए हार जाते हैं क्यों कि उन्हें कुछ निर्णायक वोटों की जरूरत होती है। वामवोर्चा के यही नाराज घटक दलों के वोट कई जगह माकपा को हरा सकते हैं या फिर तृणमूल व काग्रेस के उम्मीदवारों को जिता सकते हैं। काग्रेस और तृणमूल भी इसी तरह फारवर्ड ब्लाक की सीटें जितवा सकते हैं। अर्थात कुल मिलाकर जो राजनैतिक विरोध दिख रहा है ,पंचायत चुनाव इसकी भी अग्निपरीक्षा लेगा। इस चुनावी गणित की तस्वीर एकदम साफ है। अगर इसके उलट कुछ होता है तो बंगाल की जनता को भी समझ लेना चाहिए कि माकपा की दुर्नीतियों का विरोध महज दिखावा है। बात साफ है कि इस बार का पंचायत चुनाव तय करेगा कि बंगाल के विपक्षी सत्ता परिवर्तन चाहते भी या नहीं ? कांग्रेस तो इस परीक्षा में फेल हो चुकी है, अब फारवर्ड ब्लाक की बारी है।

मैंग्रोव नष्ट हुआ तो सुंदरवन भी नहीं बचेगा


वैश्विक तापमान जितनी तेजी से बढ़ रहा है उससे हिमालय की ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। कई हिमनदियां सूख रही हैं । इतना ही नहीं गंगोत्री या गोमुख भी यथावत नहीं रह गया है। वैश्विक तापमान बढ़ने से तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर से समुद्र का जलस्तर भी बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। इससे विश्व की नायाब प्राकृतिक धरोहर सुंदरवन के अस्तित्व को भी खतरा पैदा हो गया है। संदरवन के लिए काम कर रही एक सामाजिक संस्था एनईडब्लूएस और कोलकाता विश्वविद्यालय के समुद्रविग्यान विभाग ने शोधोपरांत पाया है कि इस बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण समुद्र का जलस्तर हर साल तीन मिलीमीटर बढ़ रहा है। अगर समुद्र का जलस्तर इसी तरह बढ़ना जारी रहा तो अगले ३० सो १०० साल के भीतर पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता और इसके तीन जिले-उत्तर २४ परगना, दक्षिण २४ परगना और पूर्व मेदिनीपुर समुद्र में समा जाएंगे।

दरअसल सुंदरवन से बाघों के विलुप्त होने का संकट तो अभी खत्म हुआ ही नहीं था कि उल्टे सुंदरवन के ही नष्ट हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। दुर्गापूजा के बाद छठ पूजा के ठीक एक दो जिन पहले बांग्लादेश से जो सीडर तूफान भारत की बढ़ा था उसने सबसे ज्यादा नुकसान सुंदरवन को ही पहुंचाया था। अगर सुंदरवन बचा तो उन्हीं मैंग्रोव की कृपा से, जो आज इतने भी नहीं बचे हैं कि सुंदरवन को महफूज रख सकें। १०८ द्वीपों में बिखरे सुंदरवन के ३५०० किलोमीटर लंबे तट में से २००० किलोमाटर तट ऐसा है जहां मैंग्रोव हैं ही नहीं। ये मैंग्रोव दो तरह से सुंदरवन की रक्षा करते हैं। पहला यह कि इनकी मजबूत घनी जड़ें तटों का कटाव नहीं होने देतीं और दूसरा यह कि बेहद घने मैंग्रोव तूफान की गति काफी कम कर देते हैं। यानी मैंग्रोव आबादी की तरफ जाने वाले तूफान को इतना धीमा कर देते हैं कि जिससे बंगाल तटीय आबादी वाले इलाके भी भारी तबाही से बच जाते हैं।

कुछ विशेष किस्म के मैंग्रोव न सिर्फ ग्लोबलवार्मिंग से लड़ पाएंगे बल्कि सुंदरवन को कटाव व तेज तूफानों से भी बचा पाएंगे। कम कर पाएंगे। ऐसा भरोसा कोलकाता विश्वविद्यालय के वैग्यानिक और प्रोफेसर अभिजीत मित्र को रिसर्च के बाद हासिल हुआ है। केवड़ा और कुछ दूसरे मैंग्रोव हवा में कार्बनडाईआक्साइड को बढ़ने से रोकते हैं। अगर कार्नडाईआक्साइड को बढ़ना वायुमंडल में रोका जा सका तो ग्लोबलवार्मिंग व उससे होने वाले खतरों पर भी अंकुश रखा जा सकेगा।
मैंग्रोव के इस महत्व को देखते हुए ब्रिटेन की आर्थिक मदद से ४० लाख मैंग्रोव सुंदरवन के तटीय इलाके में रोपे जाएंगे। भारत सरकार और पश्चिम बंगाल सरकार ने इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार विमर्श किया है। इस किस्म की परियोजना की कोलकाता की संस्था नेचर इनवायर्नमेंट एंड वाइल्ड लाइफ सोसायटी (एन ई डब्लू एस ) ने जिम्मेदारी ली है। ब्रिटिश सरकार ने इस परियोजना के लिए ६० हजार अमेरिकी डालर मंजूर किए हैं। कोलकाता में ब्रिटिश उपउच्चायुक्त सिमोन विल्सन ने यह जानकारी दी। ब्रिटेन के सहयोग वाली यह परियोजना सुंदरवन को तो बचाएगी ही कोलकाता को प्राकृतिक आपदा से बचाने के लिए सुरक्षा कवच का काम करेगी। एनईडब्लूएस प्रोजेक्ट कोआर्डिनेटर अजंता दे का तो दावा है कि इससे इलाके के ग्रामीण इलाकों को भी आर्थिक फायदा हासिल होगा। क्यों कि सुंदरवन से गुजरने वाले तूफान इन ग्रामीण इलाकों में जानमाल का काफी नुकसान पहुंचाते हैं। मैंग्रोव इन तूफानों की गति ७० से ८० प्रतिशत कम कर देते हैं।( खबर स्रोत- समाचार एजंसी पीटीआई )

समुद्र लील सकता है कोलकाता को


वैश्विक तापमान जितनी तेजी से बढ़ रहा है उससे हिमालय की ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। कई हिमनदियां सूख रही हैं । इतना ही नहीं गंगोत्री या गोमुख भी यथावत नहीं रह गया है। वैश्विक तापमान बढ़ने से तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर से समुद्र का जलस्तर भी बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। इससे विश्व की नायाब प्राकृतिक धरोहर सुंदरवन के अस्तित्व को भी खतरा पैदा हो गया है। संदरवन के लिए काम कर रही एक सामाजिक संस्था एनईडब्लूएस और कोलकाता विश्वविद्यालय के समुद्रविग्यान विभाग ने शोधोपरांत पाया है कि इस बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण समुद्र का जलस्तर हर साल तीन मिलीमीटर बढ़ रहा है। अगर समुद्र का जलस्तर इसी तरह बढ़ना जारी रहा तो अगले ३० सो १०० साल के भीतर पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता और इसके तीन जिले-उत्तर २४ परगना, दक्षिण २४ परगना और पूर्व मेदिनीपुर समुद्र में समा जाएंगे।

दरअसल सुंदरवन से बाघों के विलुप्त होने का संकट तो अभी खत्म हुआ ही नहीं था कि उल्टे सुंदरवन के ही नष्ट हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। दुर्गापूजा के बाद छठ पूजा के ठीक एक दो जिन पहले बांग्लादेश से जो सीडर तूफान भारत की बढ़ा था उसने सबसे ज्यादा नुकसान सुंदरवन को ही पहुंचाया था। अगर सुंदरवन बचा तो उन्हीं मैंग्रोव की कृपा से, जो आज इतने भी नहीं बचे हैं कि सुंदरवन को महफूज रख सकें। १०८ द्वीपों में बिखरे सुंदरवन के ३५०० किलोमीटर लंबे तट में से २००० किलोमाटर तट ऐसा है जहां मैंग्रोव हैं ही नहीं। ये मैंग्रोव दो तरह से सुंदरवन की रक्षा करते हैं। पहला यह कि इनकी मजबूत घनी जड़ें तटों का कटाव नहीं होने देतीं और दूसरा यह कि बेहद घने मैंग्रोव तूफान की गति काफी कम कर देते हैं। यानी मैंग्रोव आबादी की तरफ जाने वाले तूफान को इतना धीमा कर देते हैं कि जिससे बंगाल तटीय आबादी वाले इलाके भी भारी तबाही से बच जाते हैं।

कुछ विशेष किस्म के मैंग्रोव न सिर्फ ग्लोबलवार्मिंग से लड़ पाएंगे बल्कि सुंदरवन को कटाव व तेज तूफानों से भी बचा पाएंगे। कम कर पाएंगे। ऐसा भरोसा कोलकाता विश्वविद्यालय के वैग्यानिक और प्रोफेसर अभिजीत मित्र को रिसर्च के बाद हासिल हुआ है। केवड़ा और कुछ दूसरे मैंग्रोव हवा में कार्बनडाईआक्साइड को बढ़ने से रोकते हैं। अगर कार्नडाईआक्साइड को बढ़ना वायुमंडल में रोका जा सका तो ग्लोबलवार्मिंग व उससे होने वाले खतरों पर भी अंकुश रखा जा सकेगा।
मैंग्रोव के इस महत्व को देखते हुए ब्रिटेन की आर्थिक मदद से ४० लाख मैंग्रोव सुंदरवन के तटीय इलाके में रोपे जाएंगे। भारत सरकार और पश्चिम बंगाल सरकार ने इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार विमर्श किया है। इस किस्म की परियोजना की कोलकाता की संस्था नेचर इनवायर्नमेंट एंड वाइल्ड लाइफ सोसायटी (एन ई डब्लू एस ) ने जिम्मेदारी ली है। ब्रिटिश सरकार ने इस परियोजना के लिए ६० हजार अमेरिकी डालर मंजूर किए हैं। कोलकाता में ब्रिटिश उपउच्चायुक्त सिमोन विल्सन ने यह जानकारी दी। ब्रिटेन के सहयोग वाली यह परियोजना सुंदरवन को तो बचाएगी ही कोलकाता को प्राकृतिक आपदा से बचाने के लिए सुरक्षा कवच का काम करेगी। एनईडब्लूएस प्रोजेक्ट कोआर्डिनेटर अजंता दे का तो दावा है कि इससे इलाके के ग्रामीण इलाकों को भी आर्थिक फायदा हासिल होगा। क्यों कि सुंदरवन से गुजरने वाले तूफान इन ग्रामीण इलाकों में जानमाल का काफी नुकसान पहुंचाते हैं। मैंग्रोव इन तूफानों की गति ७० से ८० प्रतिशत कम कर देते हैं।( खबर स्रोत- समाचार एजंसी पीटीआई )

Friday, 8 February 2008

पंचायत चुनाव में होगी अग्निपरीक्षा




तीस साल बाद पश्तिम बंगाल में लालदुर्ग को उसके ही योद्धा ने चुनौती दे दी है। १९७७ में कांग्रेस के पतन के बाद समान विचारधारा वाले वामपंथी दलों माकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक ने सरकार बनायी और निर्बाध रूप से सत्ता में हैं। बाद में इसमें भाकपा भी शामिल हो गई है। रिकार्ड समय २५ साल तक सत्ता संभाले माकपा के पुरोधा ज्योति बसु ने घटक दलों के साथ तब ऐसी तालमेल बैठाई कि कभी कोई उपेक्षा का सवाल तक नहीं खड़ा कर पाया। लालदुर्ग की कमान अब कामरेड बुद्धदेव भट्टाचार्य के हाथों में है। और शायद दुःसमय झेल रहा है। यह शायद उनके कट्टर कामरेड होने की बजाए उदारवादी होने का नतीजा है। कभी सोवियत संघ के मजबूत कम्युनिष्ट गढ़ को भी इसी उदारवाद ने बिखराव पर ला खड़ा किया। ग्लास्नोस्त और पेरोत्रोइका ने वहां वही काम किया जो आज के लालदुर्ग बंगाल में पूंजी के प्रति उदार हुई वाममोर्चा सरकार के लिए सेज और कृषि जमीन अधिग्रहण शायद कर दे। ऐसा फारवर्ड ब्लाक के ६ फरवरी के बंगाल बंद की कामयाबी से और महसूस होने लगा है।
गांव से लेकर शहर तक इस बंद में जिन कुछ विपक्षी दलों ने सहयोग दिया, अगर इसे पंचायत चुनाव पूर्व का संकेत माना जाए तो निश्चित ही ३० साल बाद माकपा मुश्किल में पड़ने वाली है। हालांकि यह कहना जितना आसान है, तामील होना शायद ज्यादा मुश्किल हो। शायद इसी लिए फारवर्ड ब्लाक ने अभी मोर्चा छोड़ने का मन नहीं बनाया है। बंद के दिन पत्रकारों के मोर्चा छोड़ने के सवाल पर अशोक घोष ने कहा कि कुछ राजनैतिक उद्देश्यों के लिए बना है वाममोर्चा। अभी मोर्चा छोड़ने का सवाल ही नहीं पैदा नहीं होता। राजनीतिक मजबूरी भी इसमें साफ झलकती है कि माकपा के ४४ सांसदों के मुकाबले सिर्फ चार सांसदों के साथ फारवर्ड ब्लाक क्या मुकाबला कर पाएगा।
अब फारवर्ड ब्लाक पंचायत चुनावों के जरिए खुद को तौलना चाहता है कि माकपा को चुनौती आगे भी किस हद तक दी जा सकती है। माकपा की दादागीरी और महत्वपूर्ण फैसलों में घटक दलों की उपेक्षा ने ऐसा करने पर मजबूर किया है। उपेक्षा का आरोप तो वामवोर्चा के मंत्री क्षिति गोस्वामी और अशोक घोष कई बार लगी चुके हैं। वोममोर्चा सरकार में फारवर्ड ब्लाक के चार मंत्री हैं। शायद इसी दबाव और अभूतपूर्व बंद से हतप्रभ माकपा के नेता नाराज घटक दलों के साथ आपसी मतभेद सुलझा लेने की कोशिश में बंद के पहले से और बाद में भी लगे हुए हैं। विमान बोस ने तो बंद के दिन ही कहा कि हम मनमुटाव दूर करने की कोशिश कर रहे हैं।
फारवर्ड ब्लाक के माकपा के साथ शक्ति संतुलन की पहली परीक्षा तो त्रिपुरा चुनाव में ही होने वाली है। त्रिपुरा के चुनाव २३ फरवरी को होने वाले हैं और इसकी ६० सदस्यीय विधानसभा चुनाव में फारवर्ड ब्लाक ने अलग से १३ उम्मीदवार खड़े किए हैं। इसके बाद सबसे कड़ी परीक्षा मई में होने वाले बंगाल के पंचायत चुनावों में होने वाली है। लगातार गिरी माकपा की छवि और उन्हीं विवादास्पद मुद्दों पर फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी का माकपा से तकरार ने फारवर्ड ब्लाक को थोडा़ बेहतर स्थिति प्रदान की है। मुसलमानों के भी माकपा से नाराज होने और विपक्ष का बंद में साथ देना तो फिलहाल यही संकेत है कि वोममोर्चा के ही घटक फारवर्ड ब्लाक ने बिगुल बजा दिया है। जो काम विपक्ष में मजबूत रहकर काग्रेस और तृणमूल कागंरेस नहीं कर पाई उस काम को अब शायद घटक दल ही अंजाम देंगे। अगर माकपा को पूरा तरह शिकस्त नहीं दे पाए तो भी इतना कमजोर तो कर ही देंगे कि उसे आगे कभी धौंस देने की हिम्मत नहीं पड़ेगी।
फारवर्ड ब्लाक की यह कोशिश तब कारगर साबित हो सकती है जब कांग्रेस ईमानदार विपक्ष की भूमिका निभाए। हालांकि काग्रेस से कितनी उम्मीद रखी जा सकती है यह तो वक्त ही बताएगा। बंगाल में कांग्रेस को माकपा की बी टीम तक कहने का आरोप तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी अक्सर लगाती रही हैं। जबकि कांग्रेस से अलग होने के बाद माकपा और उसकी नीतियों का सबसे मुखर विरोध बंगाल में तृणमूल ने ही किया है। केंद्र में वामवोर्चा के समर्थन से सरकार बनाने के बाद से तो कांग्रेस का माकपा विरोध लगभग कम हो गया है। सिर्फ प्रियरंजनदास मुंशी अन्य कांग्रेसी नेताओं से इस मामले में थोड़ा अलग रहे हैं।
सबसे बड़ी बात तो पंचायत चुनाव में माकपा के विरोधी दलों की रणनीति की है। अगर सचमुच फारवर्ड ब्लाक पंचायत चुनाव को पार्टी के लिए अहम मानता है तो उसे बंद में समर्थन दिए दलों के साथ उम्मीदवार खड़े करने की वह रणनीति भी बनानी पड़ेगी जो पंचायत चुनाव में उसे बड़ी जीत दिला सके। इस चुनावी गणित में एक बात तो साफ है कि ढेर सारी सीटें माकपा इस लिए जीत जाती है क्यों कि वहां घटक दलों के वोट निर्णायक होते हैं। या थोड़े कम वोटों से काग्रेस या तृणमूल उम्मीदवार इसलिए हार जाते हैं क्यों कि उन्हें कुछ निर्णायक वोटों की जरूरत होती है। वामवोर्चा के यही नाराज घटक दलों के वोट कई जगह माकपा को हरा सकते हैं या फिर तृणमूल व काग्रेस के उम्मीदवारों को जिता सकते हैं। काग्रेस और तृणमूल भी इसी तरह फारवर्ड ब्लाक की सीटें जितवा सकते हैं। अर्थात कुल मिलाकर जो राजनैतिक विरोध दिख रहा है ,पंचायत चुनाव इसकी भी अग्निपरीक्षा लेगा। इस चुनावी गणित की तस्वीर एकदम साफ है। अगर इसके उलट कुछ होता है तो बंगाल की जनता को भी समझ लेना चाहिए कि माकपा की दुर्नीतियों का विरोध महज दिखावा है। बात साफ है कि इस बार का पंचायत चुनाव तय करेगा कि बंगाल के विपक्षी सत्ता परिवर्तन चाहते भी या नहीं ? कांग्रेस तो इस परीक्षा में फेल हो चुकी है, अब फारवर्ड ब्लाक की बारी है।

Wednesday, 6 February 2008

सिंगुर, नंदीग्राम और अब दिनहाटा

सिंगुर, नंदीग्राम और अब दिनहाटा के कारण फिर अशांत हो गया बंगाल। राशन व्यवस्था में गड़बड़ी और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना के तहत गड़बड़ी के विरोध में दिनहाटा में आज फारवर्ड ब्लाक के कार्यकर्ताओं ने एसडाओ दफ्तर में तोड़फोड़ की और पुलिस की दो जीपें फूंक दी। अनियंत्रित हो रही भीड़ पर पुलिस ने फायरिंग कर दी जिसमें चार लोग मारे गए। फारवर्ड ब्लाक के बंगाल के सचिव अशोक घोष का कहना है कि उनके पांच कार्यकर्ता मोरे गए हैं। उनका यह भी आरोप है कि पुलिस ने इतनी निर्दयता से फायरिंग की कि मारे गए लोगों को पहचानना भी मुश्किल हो गया। इस घटना ने वाममोर्चा के घटक दल को इतना क्षुब्ध कर दिया कि उसे २४ घंटे का बंगाल बंद अपनी ही सरकार और सहयोगी दल माकपा व पुलिस के खिलाफ बुलाना पड़ा। जिसका तृणमूल, कांग्रेस व एसयूसीआई समेत कई विरोधी दलों ने समर्थन किया है।
वाममोर्चा के ३१ साल के शासन में ऐसा पहली बार होने जा रहा है जब घटक दल को ही अपनी सरकार के खिलाफ खड़ा होना पड़ रहा है। यह दरार भी सिर्फ एक साल के भीतर पैदा हुई है। जिसमें गलती माकपा की ही ज्यादा मानते है घटक दल। इनमें सेज के लिए किसानों की जमीन का सिंगुर, नंदीग्राम में अधिग्रहण पर सख्ती का एकतरफा फैसला, रिजवानूर की हत्या में पुलिस की संदिग्ध भूमिका, तसलीमा को बंगाल से खदेड़ने व कट्टरपंथियों के आगे झुकने, नंदीग्राम में पुलिस को नरसंहार की छूट और फिर बाद में अपने कैडरों को खुलेआम हिसा की छूट देकर नंदीग्राम में तथाकथित पुनर्दखल जैसे फैसले माकपा के नीति-नियामक विमान बोस व उनके सलाहकारों व मंत्रियों समेत मुख्यमंत्री बुद्धदेव के घटक दलों को अंधेरे में रखकर लिए गए । इसने घटक दलों में इतना अविश्वास पैदा किया कि न सिर्फ घटक दल बल्कि माकपा में आस्था रखने वाले बुद्धिजीवियों से भी माकपा की दूरी बढ़ गई।
मार्च २००७ में नंदीग्राम में विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाए जाने का विरोध कर रहे भूमि उच्छेद समिति के कार्यकर्ताओं पर पुलिस ने फायरिंग की। पुलिस के बल पर स्थिति को नियंत्रित करने का नतीजा यह हुआ कि पुलिस उसी जनता के खिलाफ हिसक हो गई जिसकी रक्षा के लिए तैनात की जाती है। यह पुलिस नहीं उस शासन और सरकार की गलती होती है जो अपने राजनीतिक हित के लिए पुलिस को अपना लठैत बना देती है। और नतीजा यह कि नंदीग्राम में महिलाओं के साथ खुलेआम बलात्कार हुआ और विरोध कर रहे लोग पुलिस की गोली के शिकार हुए। दुबारा पुलिस की आड़ में नंदीग्राम में सीधे माकपा कैडरों ने उत्पात मचाया। इसे पुनर्दखल का नाम दिया गया। यह इतनी बड़ी सरकारी गंडागर्दी थी कि उच्छेद समिति के लोगों को इलाका छोड़कर भागना पड़ा।सीआरपीएफ बुलानी पड़ी। कोलकाता हाईकोर्ट की कड़ी टिप्पणी के बाद बुध्देव सरकार को पुनर्वास का इंतजाम करना पड़ रहा है। जानबूझकर इस इलाके में पुलिस की भमिका संदिग्ध माने जाने के बावजूद सीआरपीएफ को देर से उतारे जाने की राजनीति की गई। संसद में यह मामला गूंजा। यानी पूरे एक साल भी नहीं बीते और बंगाल लगातार अशात होता रहा। घटक दलों में यह अविश्वास भी पैदा होता रहा कि माकपा उनकी अहमियत को मानती ही नहीं है।
अब उसी वाममोर्चा के घटक दल फारवर्ड ब्लाक ने पंचायत चुनाव वाममोर्चा से अलग अकेले लड़ने का फैसला किया। वाममोर्चा में रहकर ही अकेले पंचायत चुनाव लड़ने के इस फैसले ने माकपा को थोड़ा विचलित भी कर दिया है। इसकी वजह यह है कि गांवों में वाममोर्चा की गहरी पकड़ है और इन्हीं ग्रामीण वोटों की बदौलत माकपा घटक दलों में सबसे मजबूत हैं। पंचायतों पर नियंत्रण रखकर ही बंगाल की सत्ता हासिल हो सकती है यह वाममोर्चा का मूल मंत्र है। अब इसी मूलमंत्र को फारवर्ड ब्लाक ने परे रखकर माकपा को उसकी औकात बताने की ठान ली है। इस बंद का इसी अर्थ में दूरगामी असर भी पड़ने वाला है। इस आलोक में अगर बंगाल बंद देहात इलाकों में सफल हो जाता है तो समझ लीजिए माकपा की खतरे की घंटी बज गई। और वाममोर्चा के भीतर रहकर फारवर्ड ब्लाक माकपा के लिए चुनौती बन जाएगा। देखिए बंगाल बंद क्या गुल खिलाता है ?

Sunday, 3 February 2008

बड़ाबाजार में आग, नजरिया और कोलकाता के मारवाड़ी


बड़ाबाजार में आग लगी तो अखबारों के पन्नों पर कोलकाता के मारवाड़ी व्यवसायी समाज के कोलकाता में व्यवसाय शुरू करने से लेकर सुरक्षा की दृष्टि से बड़ाबाजार के सारे कच्चे-चिट्ठे छपने लगे। सरकार ने भी हर मदद का आश्वासन दिया तो कुछ व्यवसायियों ने मदद की जगह कर्ज की अपील की। इसके पीछे उनकी मंशा व वह आत्मविश्वास दिखा जिसकी बदौलत इस समाज ने खुद को सिर्फ कोलकाता नहीं बल्कि पूरे पूर्वी भारत में स्थापित कर लिया है। लेकिन कोलकाता के इस मारवाड़ी समाज की क्या व्यथा है ? और किन भ्रांतियों के आलोक में लोग इन्हें जानते हैं, यह भी कई लोगों की कौतूहल का विषय बना। आज आग में स्वाहा हो चुके तोड़े जा रहे नंदराम मार्केट का एक हिस्सा टूटने से एक मजदूर जख्मी हुआ । मलबा हटाया जा रहा है और उसी के साथ बड़ाबाजार प्रकरण पर लिखा जाना भी बदस्तूर जारी है। भूलभुलैया गलियों के बीच व्यस्त और संपन्न बड़ाबाजार पर मारवाड़ियों का प्रतिनिधित्व करने वाली कोलकाता की प्रमुख पत्रिका समाज विकास के हवाले से आग से लेकर मारवाड़ियों की पहचान तक पर एक लेख शंभू चौधरी ने लिखा है। यह हिंदीभाषा ग्रुप के मेल के माध्यम से मुझे भी मिला है। इसके लेखक ( -शम्भु चौधरी, पता: एफ.डी:- 453, सल्टलेक सिटी,कोलकाता-700106) ने मारवाड़ियों की प्रमुख पत्रिका समाज विकास के मेल से भेजा है। ब्लाग पर इसे इस आशय से डाल रहा हूं ताकि आप भी इनकी नजर से बड़ाबाजार और मारवाड़ियों को देख सकें। हालांकि बड़ाबाजार में आग को व्यंग्य करार दिया है मगर बात काबिलेगौर और रोचक है। आखिरी पैरे में पत्रकारों पर भी इन्होंने गंभीर टिप्पणी की है। देखिए---


व्यंग्य :बड़ाबाजार में आग तो रोज लगती है!

वाममोर्चा सरकार एक तरफ 30 वर्षों की अपनी सफलता का जश्न मना रही थी,
दूसरी तरफ दमकल कर्मी खतरे की घंटी बजाना बन्द कर रैली के पीछे-पीछे
सरकते जा रहे थे, और बड़ाबाजार धू-धू कर जलता रहा। संवेदनशील विचारधारा
के धनी मुख्यमंत्री माननीय श्री बुद्धदेव बाबू की ज़ुबान राज्य के 100 से
कम कट्टरपंथियों के आगे लडखड़ा गयी। परन्तु बिग्रेड मैदान में खूब जमकर
बोले राज्य की तरक्की के लिये उद्योगपतियों की सराहना की और कहा कि राज्य
में उद्योग लगाने के लिये कई देशी-विदेशी प्रस्ताव सरकार के पास आयें
हैं, उन्होंने माना कि बाम विचारधारा और प्रगति एक साथ नहीं चल सकती, तीस
साल बाद बामपंथियों को यह बात समक्ष में आयी, यही एक अच्छी बात है,
सर्वहारा वर्ग के मसिहा होने का ढींढोरा पिटने वली वाममोर्चा की सरकार,
किसानों की हत्याकर, उद्योग बैठायेगें यह बात गले नहीं उतरती, मुक्षे
क्या किसी भी वाम विचारधारा को नजदिक से जानने वाले को भी नहीं उतरेगी।
किसानों की उपजाऊ जमीन को गैरकानूनी तरिके से अधिकृत कर उद्योगपतियों को
औने-पौने दाम में बैच देना, नंदीग्राम के खेतिहर मजदूरों को मौत के घाट
सुला देना, कोई इनसे सीखे। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की जुबान पर
नपे-तुले शब्द थे, राज्य की प्रगति बस ! दूसरी तरफ एक कोस की दूरी
बड़ाबाजार में व्यापारियों का सबकुछ जलकर खाक हो रहा था, सारा का सारा
प्रशासन इस बात के लिये लगा था कि, मुख्यमंत्री महोदय को धूआं न लग जाये।
राज्य के वित्तमंत्री श्री असीमदास गुप्ता को छोड़कर सभी मंत्री
मकरसंक्रांति की ठण्ड में अपने-अपने घरों में वातानुकुलित शयनकक्ष का
आनन्द उठा रहे थे। वेतुके शब्दों की राजनीति करने वाले श्री विमान बोस
जिस तरह तस्लीमा के लिये अपनी जीभ हिला सकते थे, थोड़ा बहुत बड़ाबाजार
के व्यापारियों के प्रति भी हिला पाते तो कुछ सुकून मिलता, लेकिन
बामपंथी स्वभाव ने इनके हमदर्दी भरे शब्दों को भी जात और धर्म में वांट
रखा है, समाज के अन्दर असभ्यता फैलाने वाले एक शिक्षक जिसने अपनी एक
छात्रा को बहला-फुसला कर निकाह कर प्रेम का जामा पहनाया, जिसे राज्य के
स्पीकर हालीम साहेब ने राजस्थान की याद दिलाते हुये इस अपराध को नई
पीढ़ी का परिवर्तन बताया, राज्य के मुख्यमंत्री एक आम घटना पर उसके घर
जाकर सहानुभुति बटोर आये, शायद इसलिये कि मामला एक धर्मविशेष से जुड़ा
था, वाम विचारधारा को मानने वाले मेरे जैसे अनेक स्वतंत्र लोगों को तब
घोर आश्चर्य हुआ, जब 30 वर्षों से जो दल आम के फल को खट्टा बता कर , जी
भर कर कोसते रहे, आज उसी फल के गुण बताते नहीं थकते। हर मंत्री यहां तक
एक जमाने में पाँच पैसे भाड़े में वृद्धी को लेकर शहर की कई ट्रामों को
आग के हवाले कर देने वाले माननीय ज्योति बसु भी इस बात से सहमत नजर आये,
पूरे बंगाल के कल-कारखाने जब नरकंकाल बन चुके तब जाकर इनको, इस बात का
ख्याल आया कि इन नरकंकालों में अब भी थोड़ी जान बची है, जिससे राज्य का
विकास संभव है।
बड़ाबाजार आग की लपटें देशभर में फैल चुकी थी, परन्तु 100 गज की दूरी पर
खड़े राइटर्स भवन की लाल दीवारें इतनी शख्त विचारों की बनी है कि उस भवन
में बैठे मंत्री के चेम्बर तक नहीं पहूंच पाई। नगरनिगम के कर्मी और
कोलकाता के मेयर श्री विकास रंजन भट्टाचार्य बाबू और इनके प्यादे यह
बताने में लगे थे कि बड़ाबाजार की सारी इमारते गैरकानूनी है, कहने का
अर्थ यह था कि बंगाल में सिर्फ बड़ाबाजार में ही गैरकानूनी निर्माण होता
है, आग बुझे इस बात की चिन्ता किसी भी निगमकर्मी को नहीं थी, सारा का
सारा कॉरपोरेशन इस बात को लेकर परेशान था, कि यदि कोई कानूनी रूप से सही
भवन को आग लग जायेगी तो उसे भी गैरकानूनी कैसे साबित किया जाय सके।
राज्य में राजस्थान का एक तीन सदस्यी मंत्रियों का एक दल घटनास्थल का
निरक्षण करने राजस्थान से पहुंच गया, राज्य के दमकल मंत्री से मिलने उनके
कार्यलय भी गये, परन्तु राज्य के दमकल मंत्री श्री प्रतिम चटर्जी आग
बुझाने में इतने व्यस्थ थे कि इनके पास मिलने का भी वक्त नहीं था, भला हो
भी क्यों, विचारधारा का भी तो सवाल था, सांप्रदायिक लोगों से मिलकर अपनी
छवी को खराब करनी थी क्या? राजस्थान सरकार को सोचना चाहिये कि वह इसकी
दुश्मन नम्बर एक है, पहले ही तस्लीमा को लेकर राजस्थान ने आग में घी का
काम किया, उनका एक नुमांइदा जो समाज को किस तरह से नीचा करे की दौड़ में
लगा है, जिसके चलते पहले ही बंगाल के समाचार पत्रों ने जी भरकर गाली दे
डाली, राजस्थान के मंत्री आने से आग कितनी बुझी यह तो वक्त ही बतायेगा,
हां बामपंथियों के दिल में आग जरूर लग गय़ी। अब भला सच ही तो है, दमकल
मंत्री क्या केवल यही इंतजार करता रहेगा कि कब और कहां आग लगे, और भी तो
उनके पास बहुत सारे काम हैं, आपलोग खामांखा हो हल्ला करते रहिये।
बड़ाबाजार में आग लग गयी तो क्या हुआ, तपसीया, या न्यूमार्केट में तो आग
नहीं लगी है, जो बाममोर्चा के चिन्ता कारण बनती। बड़ाबाजार में तो यूँ ही
रोजना आग लगती रह्ती है, कभी प्याज के दाम में , तो कभी अनाज के दाम में,
दमकल मंत्री है, कोई खाद्यमंत्री तो है नहीं, जो बार-बार आप आग लगाते
रहिये और ये आकर बुझाते रहे। मछली य चमड़ा बाजार होती तो फिर भी सोचने की
बात थी, त्रिपाल पट्टी, कपड़ा बाजार था। आग तो लगना ही था। यह तो एहशान
है कि वे आग बुझाने आ गये, वर्ना आप क्या कर लेते।

उधार की जिन्दगी

आज एक महत्वपूर्ण प्रश्न मारवाड़ी समाज के साथ जुड़ सा गया है। - क्या वह
उधार की जिन्दगी जी रहा है, या किसी के एहशान के टूकड़ों पर पल रहा है?
या फिर किसी हमदर्दी और दया का पात्र तो नहीं? मारवाड़ी समाज का प्रवासीय
इतिहास के तीन सौ वर्षों के पन्ने अभी तक बिखरे पड़े हैं। न तो समाज के
अतीत को असकी चिंता थी, नही वर्तमान को इसकी फिक्र। घड़ी की टिक-टीक ने
इस सन्नाटे में अचानक हलचल पैदा कर दी है। - विभिन्न प्रन्तों में हो रहे
जातिवाद, आतंकवाद, साम्प्रदायिकता की आड़ में मारवाड़ी समाज के घ्रों को
जलाना एवं लूट लेना । साथ ही, राजनैतिक दलों का मौन रहना, मुगलों के
इतिहास को नए सिरे से दोहराते हुए स्थानीय आततायियों के रूप में
मौकापरस्त लोग एसी हरकतों से कुछ सोचने पर मजबूर कर देते हैं।

'जडूला' या 'गठजोड़


यह प्रश्न आज के परिप्रेक्ष्य में हमारे मानस-पटल पर उभर कर सामने आता है
कि अपने मूल स्थान से हमने जन्म-जन्मान्तर का नाता तोड़-सा लिये। पहले तो
समाज के लोग साल में एक दफा ही सही 'देस' जाया करते थे। अब तो
बच्चों को पता ही नहीं कि उनके पूर्वज किस स्थान के थे। एक समय था जब
'जडूला' या 'गठजोड़ की जात' देस जाकर ही दिया जाता था, समाज में कई ऎसे
उदाहरण हैं, जिसमें बाप-बेटा और पोता, तीनों का 'जडूला' और 'गठजोड़ की
जात' एक साथ ही 'देस' जाकर दी । यहाँ यह कहना जरूरी नहीं कि हमारा अपने
मूल स्थाना से कितना गहरा संबंध रहा और कितना फासला है। इन दिनों
'जडूला' तो स्थानीय प्रचलन एवं मान्यताओं से जूड़ती जा रही है। जो जिस
प्रदेश में या देश में है, वे उस प्रदेश या देश के अनुकुल अपनी-अपनी अलग
प्रथा बनाते जा रहे हैं, आने वाली पीढ़ी का अपने मूल प्रदेश से कितना
मानसिक लगाव रह जायेगा, इस पर संदेह है। वैसे भी एक स्थति और भी है,
वर्तमान को ही देखें - 'मारवाड़ी कहने को तो अपने आपको रास्थानी मानते
हैं,परन्तु राजस्थान के लोग इसे मान्यता नहीं देते। यदि कोई प्रवासी
राजस्थानी वहाँ जाकर पढ़ना चाहे तो उसे राजस्थानी नहीं माना जाता।
क्योंकि उसका मूल प्रान्त राजस्थान नहीं है। यह कैसी व्यवस्था ? असम ,
बंगा़ल, उडिसा जैसे अहिन्दी भाषी प्रान्त इनको प्रवासी मानते हैं, और
राजस्थान इनको अपने प्रदेश का नहीं मानता। असम में असमिया मूल के छात्र
को और राजस्थान में राजस्थान मूल के छात्रों को ही दाखिला मिलेगा तो यह
कौम कहाँ जाय?

प्रान्तीय भाषा


मुड़िया में मात्रा की कमी के चलते हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य प्रन्तीय
भाषाओं ने इस प्रवासी समाज के अन्दर अपना प्रमुख स्थान ग्रहन कर लिया ।
कई प्रवासी मारवाड़ी परिवार ऎसे हैं जिनको सिर्फ बंगला, असमिया, तमील, या
उड़िया भाषा ही लिखाना, बोलना और पढ़ना आता है, कई परिवार में तो
राजस्थानी की बात तो बहुत दूर उनको हिन्दी भी ठीक से बोलना-पढ़ना नहीं
आता, लिखने की कल्पना ही व्यर्थ है।

पर्व-त्यौहार

बिहार में 'छठ पूजा' की बहुअत बड़ी मान्यता है,ठीक वैसे ही बंगाल मैं
'दुर्गा पूजा', 'काली पूजा', असम में 'बिहू उत्सव', महाराष्ट्र में 'गणेश-
महोत्सव, उड़ीसा में 'जगन्नाथ जी की रथयात्रा', दक्षिण भारत में 'ओणम-
पोंगल', राजस्थान में होली-दिवाली, गुजरात में डांडीया-गरबा, पंजाब में
'वैशाखी उत्सव' आदि पर्व व त्योहरों की विषेश मान्यता है, असके साथ ही
हिन्दू धर्म के अनुसार कई त्योहार मनाये जाते हैं जिसमें राजस्थान में
विषेशकर के राखी, गणगोर की विषेश मान्यता है, गणगोर तो राजस्थान व
हरियाणावासियो का अनुठा त्योहार माना जाता है। जैसे-जैसे मारवड़ी समाज के
लोग इन प्रान्तों में बसते गये, ये लोग अपने पर्व के साथ-साथ स्थानीय
मान्यताओं के पर्व व त्योहारों को अपनाते चले गये। बिहार के मारवाड़ी तो
छठ पूजा ठीक उसी तरह मानाने लगे, जैसे बिहार के स्थानीय समाज मानाते हैं
यहाँ यह बताना जरूरी है कि जो मारवाड़ी परिवार कालान्तर बिहार से उठकर
किसी अन्य प्रदेश में बस गये, वे आज भी छठ पूजा के समय ठीक वैसे ही बिहार
जाते हैं जैसे बिहार के मूलवासी इस पर्व को मनाने जाते हैं। अब विवशता यह
है कि राजस्थान के बिहार के मारवाड़ी को बिहारी, असम के मारवाड़ियों को
असमिया, बंगाल व उड़ीसा के मारावाड़ियों को बिहारी, बंगाली, असमिया, या
उड़िया समझते हैं, एवं स्थानीय भाषायी लोग मारवाड़ियों को राजस्थानी
मानते हैं। विडम्बना यह है,कि मारवाड़ी कहने को तो रजस्थानी है, परन्तु
राजस्थान के लोग इसे राजस्थानी नहीं मानते।

लोगों का भ्रम:


आम तौर पर लोगों को यह भ्रम है कि मारवाड़ी समाज एक धनी-सम्पन्न समाज है,
परन्तु सच्चाई इस भ्रम से कोसों दूर है। यह कहना तो संभव नहीं कि
मारवाड़ी समाज में कितने प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, हाँ ! धनी
वर्ग का प्रतिशत इतर समाज के अनुपात में नहीं के बराबर माना जा सकता है।
उद्योग-व्यवसाय तो सभी समाज में कम-अधिक है। प्रवासी राजस्थानी, जिसे
हम देश के अन्य भागों में मारवाड़ी कह कर सम्बोधित करते हैं या जानते
हैं, अधिकतर छोटे-छोटे दुकानदार या फिर दलाली के व्यापार से जुड़े हुए
हैं, समाज के सौ में अस्सी प्रतिशत परिवार तो नौकरी-पेशा से जुड़े हुए
हैं, शेष बचे बीस प्रतिशत का आधा भा़ग ही संपन्न माना जा सकता है, बचे दस
प्रतिशत भी मध्यम श्रेणी के ही माने जायेगें। कितने परिवार को तो दो जून
का खाना भी ठीक से नसीब नहीं होता, बच्चे किसी तरह से संस्थाओं के सहयोग
से पढ़-लिख पाते हैं। कोलकाता के बड़ाबाजार का आंकलन करने से पता चलता है
कि किस तरह एक छोटे से कमरे में पूरा परिवार अपना गुजर-बसर कर रहा है।
इस समाज की एक खासियत यह है कि यह कर्मजीव समाज है, मांग के खाने की जगह
कमा कर खाना ज्याद पसंद करता है, समाज के बीच साफ-सुथरा रहना अपना
कर्तव्य समझता है, और कमाई का एक हिस्सा दान-पूण्य में खर्च करना अपना
धर्म। शायद इसलिए भी हो सकता है इस समाज को धनी समाज माना जाता हो, या
फिर विड़ला-बांगड़ की छाप इस समाज पर लग चुकी हो। ऎसा सोचना कि यह समाज
धनी समाज है, किसी भी रूप में उचित नहीं है। आम समाज की तरह ही यह समाज
भी है, जिसमें सभी तबके के लोग हैं , पान की दुकान, चाय की दुकान, नाई ,
जमादार, गुरूजी(शिक्षक), पण्डित जी (ब्राह्मण), मिसरानी ( ब्राह्मण की
पत्नी), दरवान, ड्राईवर, महाराज ( खाना बनाने वाले), मुनीम (खाता-बही
लिखने वाला) ये सभी मारवाड़ी समाज में होते हैं इनकी आय भारतीय मुद्रा के
अनुसार आज भी दो - तीन हजार रूपये प्रतिमाह (कुछ कम-वेसी) के आस-पास ही
आंकी जा सकती है। यह बात सही है कि समाज में सम्पन्न लोग के आडम्बर से
गरीब वर्ग हमेशा से शिकार होता आया है, यह बात इस समाज पर भी लागू होती
है।

आडम्बर:


मारवाड़ी समाज के एक वर्ग को संपन्न समाज माना जाता है, इनके कल-कारखाने,
करोबार, उद्योग, या व्यवसाय में आय की कोई सीमा नहीं होती, ये लो़ग जहाँ
एक तरफ समाज के सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते पाये जाते
हैं वहीं दूसरी तरफ अपने बच्चों की शादी-विवाह, जन्मदिन का जश्न मनाने
में, या सालगिरह के नाम पर आडम्बर को भी मात देने में लग जाते हैं, उस
समय पता नही इतना धन कहाँ से एकाएक इनके पास आ जाता है, जिसे पानी की तरह
बहाने में इनको आनन्द आता है, अब कोलकाता में तो बहार से आकर शादी करना
एक फैशन सा बनते जा रहा है, बड़े-बड़े पण्डाल, लाखों के फूल-पत्ती, लाखों
की सजावट, मंहगे-मंहगे निमंत्रण कार्ड, देखकर कोई भी आदमी दंग रह जायेगा।
सबसे बड़ा हास्यास्पद तब लगता है, जब कोई समाज की सभाओं में इन आडम्बरों
के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें तो करता है, जब खुद का समय आता है तो यही
व्यक्ति सबसे ज्यादा अडम्बर करते पाया जाता है। एक-दो अपवादों को छोड़
दिया जाय तो अधिकांशतः लोग समाज के भीतर गन्दगी फैलाने में लगे हैं। इनका
इतना पतन हो चुका है कि इनको किसी का भय भी नहीं लगता। समाज के कुछ दलाल
किस्म के हिन्दी के पत्रकार भी इनका साथ देते नजर आते हैं। चुंकि उनका
अखबार उनके पैसे से चलता है इसलिये भी ये लाचार रहतें हैं, दबी जुबान
थोड़ा बोल देते हैं परन्तु खुलकर लिखने का साहस नहीं करते। इन पत्रकारों
की मानसिकता इतनी गिर चुकी है कि, कोई भी इनको पैसे से खरिद सकता है,
भाई ! पेट ही तो है, जो मानता नहीं। अखबार इनलोगों से चलता है, इनका घर
इनकी दया पर चलता है, तो कलम का क्या दोष वह तो इनके दिमाग से नहीं इनके
हाथ से चलती है।
इन पत्रकारों के पास न तो कलम होती है, न ही हाथ य लुल्ले पत्रकार होते
हें , इनके पास सिर्फ कगज छापने की एक लोहे की मशीन भर होती है, बस ,
भगवान ही इनका मालिक होता है, दिमाग भी इतना ही दिया कि ये बस मजे से खा
सकते हैं। इनका समाज में किसी भी प्रकार का सामाजिक दायित्व नहीं के
बराबर है।

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