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तीस साल बाद बंगाल में लालदुर्ग को उसके ही योद्धा ने चुनौती दे दी है। १९७७ में कांग्रेस के पतन के बाद समान विचारधारा वाले वामपंथी दलों माकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक ने सरकार बनायी और निर्बाध रूप से सत्ता में हैं। बाद में इसमें भाकपा भी शामिल हो गई है। रिकार्ड समय २५ साल तक सत्ता संभाले माकपा के पुरोधा ज्योति बसु ने घटक दलों के साथ तब ऐसी तालमेल बैठाई कि कभी कोई उपेक्षा का सवाल तक नहीं खड़ा कर पाया। लालदुर्ग की कमान अब कामरेड बुद्धदेव भट्टाचार्य के हाथों में है। और शायद दुःसमय झेल रहा है। यह शायद उनके कट्टर कामरेड होने की बजाए उदारवादी होने का नतीजा है। कभी सोवियत संघ के मजबूत कम्युनिष्ट गढ़ को भी इसी उदारवाद ने बिखराव पर ला खड़ा किया। ग्लास्नोस्त और पेरोत्रोइका ने वहां वही काम किया जो आज के लालदुर्ग बंगाल में पूंजी के प्रति उदार हुई वाममोर्चा सरकार के लिए सेज और कृषि जमीन अधिग्रहण शायद कर दे। ऐसा फारवर्ड ब्लाक के ६ फरवरी के बंगाल बंद की कामयाबी से और महसूस होने लगा है।
गांव से लेकर शहर तक इस बंद में जिन कुछ विपक्षी दलों ने सहयोग दिया, अगर इसे पंचायत चुनाव पूर्व का संकेत माना जाए तो निश्चित ही ३० साल बाद माकपा मुश्किल में पड़ने वाली है। हालांकि यह कहना जितना आसान है, तामील होना शायद ज्यादा मुश्किल हो। शायद इसी लिए फारवर्ड ब्लाक ने अभी मोर्चा छोड़ने का मन नहीं बनाया है। बंद के दिन पत्रकारों के मोर्चा छोड़ने के सवाल पर अशोक घोष ने कहा कि कुछ राजनैतिक उद्देश्यों के लिए बना है वाममोर्चा। अभी मोर्चा छोड़ने का सवाल ही नहीं पैदा नहीं होता। राजनीतिक मजबूरी भी इसमें साफ झलकती है कि माकपा के ४४ सांसदों के मुकाबले सिर्फ चार सांसदों के साथ फारवर्ड ब्लाक क्या मुकाबला कर पाएगा।
अब फारवर्ड ब्लाक पंचायत चुनावों के जरिए खुद को तौलना चाहता है कि माकपा को चुनौती आगे भी किस हद तक दी जा सकती है। माकपा की दादागीरी और महत्वपूर्ण फैसलों में घटक दलों की उपेक्षा ने ऐसा करने पर मजबूर किया है। उपेक्षा का आरोप तो वामवोर्चा के मंत्री क्षिति गोस्वामी और अशोक घोष कई बार लगी चुके हैं। वोममोर्चा सरकार में फारवर्ड ब्लाक के चार मंत्री हैं। शायद इसी दबाव और अभूतपूर्व बंद से हतप्रभ माकपा के नेता नाराज घटक दलों के साथ आपसी मतभेद सुलझा लेने की कोशिश में बंद के पहले से और बाद में भी लगे हुए हैं। विमान बोस ने तो बंद के दिन ही कहा कि हम मनमुटाव दूर करने की कोशिश कर रहे हैं।
फारवर्ड ब्लाक के माकपा के साथ शक्ति संतुलन की पहली परीक्षा तो त्रिपुरा चुनाव में ही होने वाली है। त्रिपुरा के चुनाव २३ फरवरी को होने वाले हैं और इसकी ६० सदस्यीय विधानसभा चुनाव में फारवर्ड ब्लाक ने अलग से १३ उम्मीदवार खड़े किए हैं। इसके बाद सबसे कड़ी परीक्षा मई में होने वाले बंगाल के पंचायत चुनावों में होने वाली है। लगातार गिरी माकपा की छवि और उन्हीं विवादास्पद मुद्दों पर फारवर्ड ब्लाक और आरएसपी का माकपा से तकरार ने फारवर्ड ब्लाक को थोडा़ बेहतर स्थिति प्रदान की है। मुसलमानों के भी माकपा से नाराज होने और विपक्ष का बंद में साथ देना तो फिलहाल यही संकेत है कि वोममोर्चा के ही घटक फारवर्ड ब्लाक ने बिगुल बजा दिया है। जो काम विपक्ष में मजबूत रहकर काग्रेस और तृणमूल कागंरेस नहीं कर पाई उस काम को अब शायद घटक दल ही अंजाम देंगे। अगर माकपा को पूरा तरह शिकस्त नहीं दे पाए तो भी इतना कमजोर तो कर ही देंगे कि उसे आगे कभी धौंस देने की हिम्मत नहीं पड़ेगी।
फारवर्ड ब्लाक की यह कोशिश तब कारगर साबित हो सकती है जब कांग्रेस ईमानदार विपक्ष की भूमिका निभाए। हालांकि काग्रेस से कितनी उम्मीद रखी जा सकती है यह तो वक्त ही बताएगा। बंगाल में कांग्रेस को माकपा की बी टीम तक कहने का आरोप तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी अक्सर लगाती रही हैं। जबकि कांग्रेस से अलग होने के बाद माकपा और उसकी नीतियों का सबसे मुखर विरोध बंगाल में तृणमूल ने ही किया है। केंद्र में वामवोर्चा के समर्थन से सरकार बनाने के बाद से तो कांग्रेस का माकपा विरोध लगभग कम हो गया है। सिर्फ प्रियरंजनदास मुंशी अन्य कांग्रेसी नेताओं से इस मामले में थोड़ा अलग रहे हैं।
सबसे बड़ी बात तो पंचायत चुनाव में माकपा के विरोधी दलों की रणनीति की है। अगर सचमुच फारवर्ड ब्लाक पंचायत चुनाव को पार्टी के लिए अहम मानता है तो उसे बंद में समर्थन दिए दलों के साथ उम्मीदवार खड़े करने की वह रणनीति भी बनानी पड़ेगी जो पंचायत चुनाव में उसे बड़ी जीत दिला सके। इस चुनावी गणित में एक बात तो साफ है कि ढेर सारी सीटें माकपा इस लिए जीत जाती है क्यों कि वहां घटक दलों के वोट निर्णायक होते हैं। या थोड़े कम वोटों से काग्रेस या तृणमूल उम्मीदवार इसलिए हार जाते हैं क्यों कि उन्हें कुछ निर्णायक वोटों की जरूरत होती है। वामवोर्चा के यही नाराज घटक दलों के वोट कई जगह माकपा को हरा सकते हैं या फिर तृणमूल व काग्रेस के उम्मीदवारों को जिता सकते हैं। काग्रेस और तृणमूल भी इसी तरह फारवर्ड ब्लाक की सीटें जितवा सकते हैं। अर्थात कुल मिलाकर जो राजनैतिक विरोध दिख रहा है ,पंचायत चुनाव इसकी भी अग्निपरीक्षा लेगा। इस चुनावी गणित की तस्वीर एकदम साफ है। अगर इसके उलट कुछ होता है तो बंगाल की जनता को भी समझ लेना चाहिए कि माकपा की दुर्नीतियों का विरोध महज दिखावा है। बात साफ है कि इस बार का पंचायत चुनाव तय करेगा कि बंगाल के विपक्षी सत्ता परिवर्तन चाहते भी या नहीं ? कांग्रेस तो इस परीक्षा में फेल हो चुकी है, अब फारवर्ड ब्लाक की बारी है।
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