तकनीकी और प्रबंधन जैसी शिक्षा जिस कदर मंहगी होती जा रही है उसके हिसाब से आम आदमी को कम खर्च में मंहगे संस्थानों की तरह की सुविधा से मुंह मोड़ती अपनी कल्याणकारी सरकारें लगता है कि वैश्वीकरण के आगे बेबश हो गई हैं। तभी तो प्रबंध व तकनाकी संस्थान की पढ़ाई आम आदमी के बच्चों की पहुंच से लगातार दूर होती जा रही है। यही हाल रहा तो यह शिक्षा व्यवस्था ही मैकाले का वह मिशन पूरा करेगी जिसने जिसने अंग्रेजों या भारतीय अंग्रेजों के सामने आम भारतीयों को असहाय व अछूत जैसी श्रेणी में ला खड़ा कर दिया था। क्या भारत की मौजूदा शिक्षा पद्धति पूरी तरह भारतीय हो पाई है? संभवतः पूरी तरह नहीं। ऐसे में सिर्फ धनी वर्ग के लिए ही विश्वस्तरीय संस्थान की वकीलत क्यों की जा रही है? अधिकांश सामान्य आय वाले अभिभावक कैसे समझाएं अपने उन बच्चों को जो कैट या दूसरी परीक्षा की तैयारी से लेकर दाखिले का भारी खर्च न ढो पाने की स्थिति में मन मसोस कर कम खर्च वाली पढ़ाई का रास्ता अख्तियार करने को मजबूर होतो हैं। ऐसे हजारों छात्र बेहतर इजीनियर व प्रबंधक बन सकते हैं मगर मंहगी होती पढ़ाई उनकी राह में रोड़ बनती जा रही है।
यह अजब किस्म का विरोधाभास है कि एक तरफ केंद्र या राज्य सरकारों ने गरीब व अक्षम तबके के विकास के लिए आरक्षण की नीति अपनी रखी है तो दूसरी तरफ शिक्षाजगत में महंगी शिक्षा को बढ़ावा देकर एक बड़ी खाई पैदा कर रही है। स्पष्ट है कि यह मजदूर के बेटे को मजदूर ही बनाकर रखने की साजिश है। यह कौन सा तर्क है कि कम काबिल मगर संपन्न घर का बेटा इजीनियर, डाक्टर या प्रबंधक बन सकता है मगर उसके मुकाबले तेज मगर गरीब घर का बेटा इन सुविधाओं से वंचित रह जाए। अपने संविधान में समान अवसर की कानूनी व्यवस्था का यह तो सरासर उल्लंघन है और ताज्जुब है कि संविधान कीदुहाई देकर आरक्षण की वकालत करने वाली सरकारें भी शिक्षा को महंगी होते देख रहे हैं। कल्याणकारी सरकारें आखिर किसका कल्याण करना चाहती हैं? फिलहाल तो यह समझ से परे है। सरकारी स्कूल, जो कि कम खर्च में सभी के लिए समान काबिलियत प्रदर्शित करने का जरिया थे, बेहत आधुनिकी करण के अभाव में पिछड़ते जा रहे हैं। निजी स्कूलों को बढ़ावा देने के कारण अब बंद होने की कगार पर हैं। यानी ऐसी दोहरी शिक्षा व्यस्था लादी जा रही है जो शिक्षा के लिहाज से समाज का वर्गीकरण कर रही है। चमचमाते निजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों के सामने काबिल होने के बावजूद खुद को हीन मानने को मजबूर किए जा रहे हैं गरीब छात्र।
गरीब लोगों की पहुंच से दूर रखने की कवायद में वह सब कुछ हो रहा जो नहीं होना चाहिए। महंगे होने के इसी क्रम में भारतीय प्रबंध संस्थान कोलकाता (आईआईएम कोलकाता) ने सालाना फीस एक लाख रूपए बढ़ा दी है। मंगलवार को बोर्ड की अंतरिम बैठक में यह तय किया गया। इस वृद्धि पर संस्थान के निदेशक शेखर चौधरी का कहना है कि संस्थान के रखरखाव व ढांचागत खर्च में वृद्धि ने फीस बढ़ाने पर मजबूर कर दिया। पहले आईआईएम कोलकाता की सालाना फीस दो लाख थी जो अब बढ़कर इस सत्र से तीन लाख सालाना हो जाएगी। ऐसा नहीं कि सिर्फ कोलकाता ने फीस बढ़ाई है भारत के अग्रणी प्रबंध संस्थान अमदाबाद व बंगलूर भी फीस बढ़ा चुके हैं। अमदाबाद ने २.५ लाख से तीन लाख सालना और बंगलूर ने २.५ से ३.५ लाख सालाना कर दिया है। मार्च में फीस दर बढ़ाने पर बैठक होगी। हालांकि इस वृद्धि से गरीब छात्रों को उबारने के लिए आईआईएम कोलकाता ने और अधिक मेधावी गरीब छात्रों को छात्रवृत्ति देने का फैसला किया है। बोर्ड के एक अंतरिम फैसले में तय हुआ है कि अब २५ की जगह ५०-६० छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाएगी। इसके अलावा कुछ और छात्रों को मदद की पहल की जाएगी।
मालूम हो कि भारतीय प्रबंध संस्थान जैसे मंहगे संस्थानों के दरवाजे आम छात्रों को खोलने की गरज से पूर्ववर्ती राजग सरकार के मानवसंसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने ८० प्रतिशत फीस कम किए जाने की पहल की थी जिस पर कोलकाता समेत बंगलूर व अमदाबाद के निदेशक नाराज हो गए थे। काफी खींचतान मची थी जिसमें जोशी ने अनुदान बंद कर देने तक की चेतावनी दे दी थी। यह मामला तब सुलटा जब नई संप्रग सरकार के मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने उस मुद्दे को वहीं दफनाकर सभी छह भारतीय प्रबंध संस्थानों की फीस में एकरूपता लाने की पहल की। फिर मामला उलझ गया और अंततः यहां भी संस्थानों की मनमानी चली और सरकार को झुकना पड़ा। संस्थानों का कहना है कि अभी भी प्रत्येक छात्र १.५ लाख का घाटा संस्थान के सहना पड़ता है जबकि संस्थान के कर्मियों को नए वेतनमान भी देने पड़ेंगे। कुल मिलाकर संस्थान ऐसे किसी रास्ते पर चलने को तैयार नहीं जिससे मेधावी मगर गरीब छात्र भी ऐसे संस्थान में शिक्षा हासिल कर सकें। क्या यह गलत नहीं लगता कि एक ही संस्थान में पढ़ रहे छात् में से कुछ को सिर्फ संपन्न्ता न होने के कारण अनुदान वाला की श्रेणा का करार दिया जाए। शिक्षा के क्षेत्र में समानता काबिलियत की होती तो यह एक सम्मानजनक होता। विश्वस्तरीय की दुहाई देकर आखिर कब तक गरीब छात्रों को अपमानित किया जाता रहेगा ? कुछ छात्रवृत्तियां कितनों का भला कर पाएंगी?
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