Monday, 15 December 2008

इराक़ी पत्रकार ने बुश पर जूते फेंके

मिश्र के टीवी चैनल बगदादिया के पत्रकार जैदी के फेंके जूते से बचते हुए बुश।

पत्रकार जैदी
यह घटना वीडियो में देखिए

ये राष्ट्रपति पद से हटने से पहले उनका आख़िरी इराक़ दौरा था. यहाँ से वो अफ़ग़ानिस्तान पहुँचे हैं. इराक़ी प्रधानमंत्री के साथ उन्होंने नए रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए. इसमें कहा गया है कि अमरीकी सेना वर्ष 2011 तक इराक़ से हट जाएगी. मैंने अपने कार्यकाल में कई बार इस तरह की अजीब घटनाएँ देखी हैं. ये महज ध्यान आकर्षित करने का तरीक़ा था. इससे इराक़ी पत्रकार भी दुखी हैं
जूता फेंकने की घटना उस समय हुई जब जॉर्ज बुश इराक़ी प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी के साथ प्रेस कॉफ़्रेंस कर रहे थे. तभी इराक़ी टेलीविज़न पत्रकार मुंतज़र अल ज़ैदी ने गालियाँ देते हुए बुश की ओर एक जूता फेंका. इसके तुरंत बाद ज़ैदी ने दूसरा जूता भी उनकी ओर फेंका लेकिन बुश ने चपलता दिखाई और वो बच गए.

बुश की प्रतिक्रिया
पहला जूता फेंकते समय ज़ैदी ने बुश से कहा, "ये इराक़ी लोगों की ओर से आपको आख़िरी सलाम है." पत्रकार मुंतदार ज़ैदी अल बग़दादिया टीवी के लिए काम करते हैं दूसरा जूता फेंकते समय इराक़ी पत्रकार ने चिल्लाते हुए कहा, "ये इराक़ की विधवाओं, अनाथों और मारे गए सभी लोगों के लिए है." सुरक्षाकर्मियों ने मुंतदार अल ज़ैदी को अपने नियंत्रण में ले लिया. वो मिस्र स्थित चैनल अल बग़दादिया टीवी के लिए काम करते हैं. अरब देशों में किसी को भी जूता दिखाना बेहद अपमानजनक माना जाता है.
हालाँकि जॉर्ज बुश ने कहा कि इसे गंभीरता से नहीं लेना चाहिए. उनका कहना था, "मैंने अपने कार्यकाल में कई बार इस तरह की अजीब घटनाएँ देखी हैं. ये महज ध्यान आकर्षित करने का तरीक़ा था. इससे इराक़ी पत्रकार भी दुखी हैं." इससे पहले जॉर्ज बुश ने कहा कि इराक़ में युद्ध अभी भी ख़त्म नहीं हुआ है और संघर्ष अभी भी जारी रहेगा.
नया सुरक्षा समझौता हुआ.
उन्होंने कहा कि इराक़ की ताज़ा स्थितियाँ ऐसी हैं कि अभी भी वहाँ बहुत कुछ करने की ज़रूरत है. सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर करते हुए राष्ट्रपति बुश ने कहा कि इससे इराक़ को वर्तमान में और फिर भविष्य में भी खुद को मज़बूत स्थिति में बनाए रखने में मदद मिलेगी. अपने अंतिम दौरे पर इराक़ पहुँचे अमरीकी राष्ट्रपति का राजधानी बग़दाद में इराक़ के राष्ट्रपति जलाल तालबानी ने स्वागत किया.
बुश की यात्रा और ताज़ा बयान ऐसे समय में आया है जब एक दिन पहले ही अमरीका के रक्षा मंत्री रॉबर्ट गेट्स ने कहा था कि अमरीकी सैनिकों का इराक़ी मिशन 'आख़िरी चरण' में है. रॉबर्ट गेट्स नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा के मंत्रिमंडल में भी रक्षा मंत्री बने रहेंगे.

Sunday, 7 December 2008

वीपी का जाना

विश्वनाथ प्रताप की राजनीतिक हलके में निंदा भी हुी और प्रशंसा भी। मगर जिन लोगों से उनके आत्मीय संबंध थे और उन्हें वीपी को व्यक्तिगत रूप से करीब से जानने का मौका मिला, वे कुछ अलग ही नजरिया रखते हैं। ऐसे एक वरिष्ठ पत्रकार और जनसत्ता के प्रधान संपादक रह चुके प्रभाष जोशी भी हैं। वीपी के निधन के बाद छपे एक लेख में देखिए उनके उदगार। आइए आप भी वीपी के प्रभाष जोशी की नजरों से जानें। उनके लेख का पीडीएफ देखिए।

अंग्रेजी ही चाहते हैं इंटरनेट यूजर ?

हैदराबाद में इंटरनेट गवर्नेस फोरम में इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं की उपस्थिति पर ही सवाल उठा दिया गया है। यह सवाल एक सर्वे के आधार पर उठाया गया। सर्वे यह किया गया था कि इंटरनेट यूजर किस भाषा के प्रयोग को प्राथमिकता देते हैं ? इसका जवाब आया कि ९९ प्रतिशत यूजर अंग्रेजी चाहते हैं। टेकट्री न्यूज स्टाफ ने यह खबर जारी की है। दो सवाल पूछे गए थे। पहला सवाल था-- कौन सी वह भाषा है जिसे भारतीय सीखना चाहते हैं ? दूसरा सवाल था --- वह कौन सी भाषा है जिसे संपर्क के लिए इंटरनेट पर भारतीय इस्तेमाल करते हैं। यह दूसरा सवाल ही इंटरनेट पर हिंदी समेत भारतीय भाषाओं की नगण्य उपस्थिति की कहानी कहता है। हालांकि दोनों सवालों में जवाब अंग्रेजी ही था।
रेडिफ डाटकाम के सीईओ अजीत बालाकृष्णन ने जो कहा उससे तो भारतीय भाषाओं के यूजर की इंटरनेट पर उपस्थिति और भी शर्मनाक है। बालाकृष्णन ने कहा कि पिठले दस सालों के इंटरनेट यूजर के आंकड़ों को प्रमाण माना जाए तो कहा जा सकता है कि यूजर भारतीय भाषाओं को नहीं चाहते। मालूम हो कि रेडिफ पर ११ भाषाओं में ईमेल की सुविधा उपलब्ध है। और रिपोर्ट के अनुसार ९९ प्रतिशत यूजर अंग्रेजी ईमेल का प्रयोग करते हैं। बालाकृष्णन मानते हैं की भारतीय भाषाओं से संबद्ध यूजर इंटरनेट पर होते हैं मगर उनकी गतिविधियां भाषाई न होकर सिर्फ संदेश भेजने, संगीत डाउनलोड करने, वीडियो या चित्र देखने तक ही सीमित होती है। इनकी गतिविधियां भाषाई लेखन या प्रयोग के स्तर पर नहीं के बराबर है। दस सालों से भाषाई मेल का सुविधा दिए जाने और उस पर भारी-भरकम निवेश के बावजूद बालाकृष्णन अब मानते हैं कि अपने यूजर को ११ भाषाओं में सुविधा मुहैया कराना निरर्थक रहा। फिर भी उन्हें उम्मीद है कि जब इंटरनेट शहरों की सीमा तोड़कर गांवों में पहुंचेगा तो शायद क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग बढ़े।

भाषाई यूजर क्यों मजबूर है अंग्रेजी अपनाने को ?
इस सर्वे से जो तस्वीर सामने आई हो मगर एक बात तो यह साफ है कि भाषाई और उसमें भी हिंदी यूजर की इंटरनेट बेशुमार वृद्धि हुई है। अखबारों के इंटरनेट संस्करण, हिंदी के तमाम पोर्टल, भाषाई पत्र-पत्रिकाएं अब इंटरनेट पर माजूद हैं। बालाकृष्णन साहब से मैं पूछना चाहता हूं कि क्या यह सब इंटरनेट पर भाषागत उपस्थिति के प्रमाण नहीं हैं। बेशक अंग्रेजी की तुलना में कम हैं मगर इतनी निराशाजनक भी स्थिति भी नहीं है जितना उनको दिख रही है। हालांकि कुछ बातें तो सच्चाई से कबूल करने में कोई हर्ज नहीं कि हिंदी में इंटरनेट पर सामग्री इतनी कम उपलब्ध हैकि अंततः अंग्रेजी का ही सहारा लेना पड़ता है। लेकिन बालाकृष्णन खुद अपनी अंतरआत्मा से पूछें कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में इंटरनेट पर मौलिक सामग्री उपलब्ध कराने की कोशिश हो रही है जितनी अंग्रेजी के लिए की जा रही है। अगर नहीं तो सर्वे में संसाधनों को भी सामने रखकर यूजर का प्रतिशत निकाला जाना चाहिए था। ऐसे में इस सर्वें की कितनी प्रमाणिकता मानी जाए।
दूसरा सवाल इंटरनेट पर हिंदी या भाषाई यूजर की मुश्किलों पर गौर न करने का है। अभी कुछ ही साल हुए हैं जब हिंदी समेत दूसरी भारतीय भाषाओँ के लिए इंटरनेट पर सुविधाएं चालू की गईँ। क्या सर्वे में इस बात का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए था। भला हो गूगल का जिसने हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं को इंटरनेट पर फलने-फूलने का तकनीकी साधन मुहैया कराया। हिंदी के पोर्टल वेबदुनिया भारतीय भाषाओँ और हिंदी को इंटरनेट पर और सुगम बना दिया मगर यूनिनागरी के जरिए हिंदी की क्रांति का सेहरा तो गूगल को बांधा जाना चाहिए। चलिए कम से कम गूगल ने तो अभी तक हिंदी या अन्य भारतीय भारतीय भाषाओँ पर अपने प्रयोग को निर्थक प्रयास नहीं बताया है। अब सिफी निराश है तो उसे अपने प्रयासों की फिर से समीक्षा करनी चाहिए।

हिंदी में ईमेल अब भी आसान नहीं
सारे प्रयासों के बावजूद टेढ़ी खीर है हिंदी या भारतीय भाषाओं में मेल लिखना। हालांकि हिंदयुग्म जैसे ब्लाग संचालकों, कई तकनीकी दक्षता हासिल किए ब्लागरों ने लोगों को हिंदी लिखने के लिए खूब मदद की। फोन पर निशुल्क हिंदी लिखना सिखाने का तो हिंदयुग्म ने बीड़ा ही उठा लिया है। हिंदी भारत समूह, हिंदी इंटरनेट समूह, हिंदी भाषा समूह और हजारों हिंदी ब्लाग जैसे प्रयास ने सक्रिय तौर पर हिंदी इंटरनेट यूजर को प्रोत्साहित किया है मगर हिंदी लिखने की तकनीकी समस्या इन्हें रोमन या सीधे अंग्रेजी लिखने पर मजबूर करती रहती है। इस कारण हतोत्साहित लोग भी अंग्रेजी की गणना में शामिल हैं।

Wednesday, 3 December 2008

भारत को नरेंद्र मोदी ही क्यों चाहिए ?

भारत को नरेंद्र मोदी ही क्यों चाहिए ? इस सवाल पर आपके या किसी राजनैतिक सरोकार रखने वाले व्यक्ति के जवाब जो हों मगर एक पत्रकार सुहेल सेठ ने इसका जवाब अपनी नजर से ढूंढा है। १९ अक्तूबर को मोदी से मुलाकात के बाद उन्होंने जो लेख लिखा उसमें मोदी संहारक नहीं बल्कि भारत के एक संवेदनशील राजनीतिज्ञ नजर आ रहे हैं। सुहेल सेठ वह पत्रकार हैं जिन्होंने मोदी के खिलाफ तबतक खूब लिखा जबतक उनसे मिले नहीं थे। आखिर मोदी में उन्हें क्या दिखा जिसने उनका मोदी के प्रति नजरिया ही बदल दिया ? सुहेल का यह लेख मुझे मेल से मिला है। उसके हिंदी सारसंक्षेप का आप भी अवलोकन कीजिए। हो सकता है कि आपकी राय सुहैल जैसी न हो। तो फिर क्या है आपकी राय यह तो मैं भी जानना चाहूंगा। फिलहाल लेख देखिए---------

भारत को नरेंद्र मोदी ही क्यों चाहिए ?

लेखक----सुहेल सेठ
मैं एक खुलासा करने जा रहा हूं। मैंने शायद मोदी और गोधरा कांड के बाद से मोदी की कारगुजारियों के खिलाफ सबसे ज्यादा लिखा है। मोदी को मैंने आज का हिटलर भी बना दिया। अक्सर अपने लेखों में मैंने यह धारदार तरीके से कहा है कि मोदी का कुकृत्य न सिर्फ उनके लिए बल्कि भारतीय राजनीति के लिए एक कलंक बना रहेगा। मैं तो आज भी मानता हूं कि गुजरात में गोधरा के दंगों में जो कुछ हुआ देश को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। मगर हकीकत यह है कि मोदी ने उस कालचक्र को ही आगे बढ़ा दिया । मोदी को गोधरा दंगों के बाद देश का सबसे सांप्रदायिक राजनीतिज्ञ करार दिया गया मगर यह हैरान कर देने वाली बात है कि धर्मनिरपेक्षता की मसीहा कांग्रेस पर भी १९८४ में वह दंगे कराने का आरोप है जिसमें ३५०० सिख मारे गए थे। जबकि गुजरात के दंगे में इससे तीनगुना कम लोग मारे गए थे। सांप्रदायिकता की किसी व्याख्या से परे हकीकत यह है कि भारतीय राजनीति में मोदी से बेहतर प्रशासक कोई नहीं है।

तीन सप्ताह पहले ( सुहेल सेठ का मूल लेख छपने की तारीख के हिसाब से ) मैं अमदाबाद गया था।
मुझे लगा कि यह मोदी से मिलने का अच्छा मौका है। मैंने एप्वाइंटमेंट मांगा और उसी दिन का समय मिल गया जिस दिन मैं अमदाबाद पहुंचा। सरकारी तामझाम से अलग मेरी मुलाकात मोदी से उनके घर पर ही हुई। वह भी उसी तरह जैसे खुद मोदी अपने घर में दिखते हैं। मोदी का घर और रहनसहन देखकर मैं हतप्रभ था। यह कुछ ऐसा था जिसे मायावती और गांधी के झंडाबरदारों को भी मोदी से सीखना चाहिए।
मोदी के घर में सेवकों की भीड़ नदारद थी। कोई सचिव या सहायक भी मुश्तैद नहीं था। सिर्फ हम दो और एक सेवक था जो हमारे लिए चाय ले आया था। यह मोदी का वह आभामंडल था जिसमें गुजरात का विकास और राज्य के लोगों के जीवन स्तर को बेहतर करने की दृढ़ता दिखाई दे रही थी। सच भी है। आज सिंगापुर में गुजरात का दूध बिकता है। अफगानी खाते हैं गुजराती टमाटर। कनाडा में भरा पड़ा है गुजरात का पैदा किया हुआ आलू। यह सब विकास की हार्दिक कामना व कोशिश के बिना संभव नहीं । मोदी ने संभव कर दिखाया है। इतना ही नहीं साबरमती के तट पर एक ऐसा औद्योगिक शहर बनाया जाना प्रस्तावित है जिसे देखकर दुबा और हांगकांग को भी झेंप महसूस होगी। वह मोदी ही हैं जिसने सभी नदियों को आपस में जोड़ा जिसके कारण अब साबरमती नदी सूखती नहीं।

गुजरात में नैनो
मोदी ने यह भी बताया कि कैसे नैनो परियोजना को गुजरात लाने में उन्होंने उत्सुकता दिखाई। रतन टाटा को प्रभावित करने के लिए उस पहले पारसी पुजारी नवसारी की कथा सुनाई। नवसारी पुजारी पहला पारसी पुजारी था जो गुजरात आया था। उस समय के गुजरात के शासक ने एक गिलास दूध भिजवाकर कहलवाया कि उनके लिे यहां कोी जगह नहीं है। तब पुजारी ने दूध में शक्कर मिलाकर वापस भिजवाया और कहा कि शक्कर में दूध की तरह ही वे स्थानीय लोगों से घुलमिल जाएंगे। इससे गुजरात को फायदा ही होगा। अर्थात वह हर कोशिश मोदी गुजरात के लिए कर रहे हैं जो राज्य को संपन्न और मजबूत बनाए। अपने इसी हौसले के कारण मोदी अब भाजपा का वह तुरुप का पत्ता हैं जिसे आडवाणी के बाद इस्तेमाल किया जाता है।

आतंकवाद के खिलाफ रणनीति
मोदी मानते हैं कि देश के पास आतंकवाद से लड़ने की कोई रणनीति नहीं है। उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने दिल्ली के बम धमाकों के बारे में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और सुरक्षा एजंसियों को आगाह किया था मगर उन्होंने इस सूचना को गंभीरता से नहीं लिया। नतीजा सामने था कि १३ सितंबर को दिल्ली में बम धमाके हुए। आतंकवाद से जूझने की स्पष्ट रणनीति के अभाव में ही हम झेल रहे हैं आतंकवाद। कुल मिलाकर मोदी व्यावसायिक प्रगति के लिए कानून व व्यवस्था को समान तरजीह देते हैं।
काम करने के तरीके और अपनी जिम्मेदारी के प्रति गंभीरता ने साबित कर दिया है कि वे गुजरात के प्रति कितने समर्पित हैं। उनसे मिलने के बाद जब लौटने के लिए कार में बैठा तो अपने ड्राईवर से पूछा कि कैसे हैं नरेंद्र मोदी ? साधारण से उसका जवाब था- मेरे लिए तो भगवान हैं। यह तथ्यगत बात है कि मोदी से पहले गुजरात को पास उतना कुछ नहीं था जो आज है। न रोड था, न बिजली और न मूलभूत ढांचा। आज गुजरात के पास अतिरिक्त बिजली है। गुजरात अब दूसरे राज्यों से ज्यादा उद्योगपतियों को आकर्षित करता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी गुजरात को ही तरजीह देती हैं। यही वह कुछ है जो मोदी ने गुजरात को दिया है और बाकी राज्यों में नहीं है।
जिस कार्यक्रम में मैं गया था वहां लोगों से नरेंद्र मोदी के बारे में पूछा तो जवाब था-- अगर भारत के पास ऐसे पांच नरेंद्र मोदी होते हमारा देश महान हो जाता। अब मुझे भी पक्का भरोसा हो गया था कि सच में भारत को ऐसा ही युगपरिवर्तक नरेंद्र मोदी चाहिए।

Friday, 28 November 2008

यह शोक का दिन नहीं

मुंबई पर नहीं भारत पर है यह हमला। कल तक हम नाराज थे कि मुंबई में उत्तर भारतीयों के साथ बदसलूकी की जा रही थी। आज हम दुखी हैं कि हमारी मुंबई को बर्बाद करने पर विदेशी ताकतें तुली हुई हैं। राज ठाकरे एंड कंपनी की बदतमीजी भुलाकर हम इस लिए दुखी हैं क्यों कि हम मराठी और मुंबई को खुद से अलग करके नहीं देखते। यह वक्त नाराजगी जताने का नहीं बल्कि मिलकर देश को तोड़ने की साजिश करने वालों के खिलाफ जिहाद छेड़ने का है। सचमुच यह शोक का नहीं मुट्ठी तानकर खड़े होने का है। राज ठाकरे को भी तुच्छता छोड़कर भारत की इस मूल आत्मा को पहचानना चाहिए। ईश्वर उसे सद् बुद्धि दें और मुंबई पर आतंकवादियों के हमले में मरे लोगों की आत्मा को शांति प्रदान करे। पूरे तीन दिन लोगों को बचाने में जुटे जवान यह सोचकर वहां जान की बाजी नहीं लगाने गए थे कि उन्हें राज ठाकरे की मुंबई को बचाना है। देश की खातिर शहीद हुए इन जवानों मैं सलाम करता हूं। देश का मतलब समझने वालों में यही जज्बा होना चाहिए। कविता वाचक्नवी ने हिंदी भारत समूह पर इसी जज्जे को सलाम करते हुए एक कविता पोस्ट की हैं। आप भी इसका अवलोकन करिए।

यह शोक का दिन नहीं

यह शोक का दिन नहीं,
यह आक्रोश का दिन भी नहीं है।
यह युद्ध का आरंभ है,
भारत और भारत-वासियों के विरुद्ध
हमला हुआ है।
समूचा भारत और भारत-वासी
हमलावरों के विरुद्ध
युद्ध पर हैं।
तब तक युद्ध पर हैं,
जब तक आतंकवाद के विरुद्ध
हासिल नहीं कर ली जाती
अंतिम विजय ।

जब युद्ध होता है
तब ड्यूटी पर होता है
पूरा देश ।
ड्यूटी में होता है
न कोई शोक और
न ही कोई हर्ष।
बस होता है अहसास
अपने कर्तव्य का।

यह कोई भावनात्मक बात नहीं है,
वास्तविकता है।
देश का एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री,
एक कवि, एक चित्रकार,
एक संवेदनशील व्यक्तित्व
विश्वनाथ प्रताप सिंह चला गया
लेकिन कहीं कोई शोक नही,
हम नहीं मना सकते शोक
कोई भी शोक
हम युद्ध पर हैं,
हम ड्यूटी पर हैं।

युद्ध में कोई हिन्दू नहीं है,
कोई मुसलमान नहीं है,
कोई मराठी, राजस्थानी,
बिहारी, तमिल या तेलुगू नहीं है।
हमारे अंदर बसे इन सभी
सज्जनों/दुर्जनों को
कत्ल कर दिया गया है।
हमें वक्त नहीं है
शोक का।

हम सिर्फ भारतीय हैं, और
युद्ध के मोर्चे पर हैं
तब तक हैं जब तक
विजय प्राप्त नहीं कर लेते
आतंकवाद पर।

एक बार जीत लें, युद्ध
विजय प्राप्त कर लें
शत्रु पर।
फिर देखेंगे
कौन बचा है? और
खेत रहा है कौन ?
कौन कौन इस बीच
कभी न आने के लिए चला गया
जीवन यात्रा छोड़ कर।
हम तभी याद करेंगे
हमारे शहीदों को,
हम तभी याद करेंगे
अपने बिछुड़ों को।
तभी मना लेंगे हम शोक,
एक साथ
विजय की खुशी के साथ।

याद रहे एक भी आंसू
छलके नहीं आँख से, तब तक
जब तक जारी है युद्ध।
आंसू जो गिरा एक भी, तो
शत्रु समझेगा, कमजोर हैं हम।

इसे कविता न समझें
यह कविता नहीं,
बयान है युद्ध की घोषणा का
युद्ध में कविता नहीं होती।

चिपकाया जाए इसे
हर चौराहा, नुक्कड़ पर
मोहल्ला और हर खंबे पर
हर ब्लाग पर
हर एक ब्लाग पर।


- कविता वाचक्नवी

यह शोक का दिन नहीं

मुंबई पर नहीं भारत पर है यह हमला। कल तक हम नाराज थे कि मुंबई में उत्तर भारतीयों के साथ बदसलूकी की जा रही थी। आज हम दुखी हैं कि हमारी मुंबई को बर्बाद करने पर विदेशी ताकतें तुली हुई हैं। राज ठाकरे एंड कंपनी की बदतमीजी भुलाकर हम इस लिए दुखी हैं क्यों कि हम मराठी और मुंबई को खुद से अलग करके नहीं देखते। यह वक्त नाराजगी जताने का नहीं बल्कि मिलकर देश को तोड़ने की साजिश करने वालों के खिलाफ जिहाद छेड़ने का है। सचमुच यह शोक का नहीं मुट्ठी तानकर खड़े होने का है। राज ठाकरे को भी तुच्छता छोड़कर भारत की इस मूल आत्मा को पहचानना चाहिए। ईश्वर उसे सद् बुद्धि दें और मुंबई पर आतंकवादियों के हमले में मरे लोगों की आत्मा को शांति प्रदान करे। पूरे तीन दिन लोगों को बचाने में जुटे जवान यह सोचकर वहां जान की बाजी नहीं लगाने गए थे कि उन्हें राज ठाकरे की मुंबई को बचाना है। देश की खातिर शहीद हुए इन जवानों मैं सलाम करता हूं। देश का मतलब समझने वालों में यही जज्बा होना चाहिए। कविता वाचक्नवी ने हिंदी भारत समूह पर इसी जज्जे को सलाम करते हुए एक कविता पोस्ट की हैं। आप भी इसका अवलोकन करिए।

यह शोक का दिन नहीं

यह शोक का दिन नहीं,
यह आक्रोश का दिन भी नहीं है।
यह युद्ध का आरंभ है,
भारत और भारत-वासियों के विरुद्ध
हमला हुआ है।
समूचा भारत और भारत-वासी
हमलावरों के विरुद्ध
युद्ध पर हैं।
तब तक युद्ध पर हैं,
जब तक आतंकवाद के विरुद्ध
हासिल नहीं कर ली जाती
अंतिम विजय ।

जब युद्ध होता है
तब ड्यूटी पर होता है
पूरा देश ।
ड्यूटी में होता है
न कोई शोक और
न ही कोई हर्ष।
बस होता है अहसास
अपने कर्तव्य का।

यह कोई भावनात्मक बात नहीं है,
वास्तविकता है।
देश का एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री,
एक कवि, एक चित्रकार,
एक संवेदनशील व्यक्तित्व
विश्वनाथ प्रताप सिंह चला गया
लेकिन कहीं कोई शोक नही,
हम नहीं मना सकते शोक
कोई भी शोक
हम युद्ध पर हैं,
हम ड्यूटी पर हैं।

युद्ध में कोई हिन्दू नहीं है,
कोई मुसलमान नहीं है,
कोई मराठी, राजस्थानी,
बिहारी, तमिल या तेलुगू नहीं है।
हमारे अंदर बसे इन सभी
सज्जनों/दुर्जनों को
कत्ल कर दिया गया है।
हमें वक्त नहीं है
शोक का।

हम सिर्फ भारतीय हैं, और
युद्ध के मोर्चे पर हैं
तब तक हैं जब तक
विजय प्राप्त नहीं कर लेते
आतंकवाद पर।

एक बार जीत लें, युद्ध
विजय प्राप्त कर लें
शत्रु पर।
फिर देखेंगे
कौन बचा है? और
खेत रहा है कौन ?
कौन कौन इस बीच
कभी न आने के लिए चला गया
जीवन यात्रा छोड़ कर।
हम तभी याद करेंगे
हमारे शहीदों को,
हम तभी याद करेंगे
अपने बिछुड़ों को।
तभी मना लेंगे हम शोक,
एक साथ
विजय की खुशी के साथ।

याद रहे एक भी आंसू
छलके नहीं आँख से, तब तक
जब तक जारी है युद्ध।
आंसू जो गिरा एक भी, तो
शत्रु समझेगा, कमजोर हैं हम।

इसे कविता न समझें
यह कविता नहीं,
बयान है युद्ध की घोषणा का
युद्ध में कविता नहीं होती।

चिपकाया जाए इसे
हर चौराहा, नुक्कड़ पर
मोहल्ला और हर खंबे पर
हर ब्लाग पर
हर एक ब्लाग पर।


- कविता वाचक्नवी

Thursday, 20 November 2008

नपुंशक बना देता है मधुमेह

मधुमेह या डायबिटीज का एक प्रभाव ऐसा भी है जिस पर अमूमन खुलकर चर्चा कम ही होती है। मधुमेह पर होने वाली कई गोष्ठियों में भी विशेषग्य अक्सर इस विषय ( सेक्स प्रभाव ) को छोड़ देते हैं। सच यह है कि असुविधाजनक चर्चा मानकर छोड़ दिए जाने से इस गंभीर नुक्सान के प्रति जागरूकता लाने का एक महत्वपूर्ण पहलू छूट जाता है। विशेषग्यों का मानना है कि मधुमेहग्रस्त स्त्रियों और पुरुषों में सेक्स संबंधी ऐसी शिथिलता आ जाती है जिसके कारण इच्छा होते हुए भी ऐसे मरीज सेक्स के प्रति अक्षम हो जाते हैं। अंग शिथिल पड़ जाते हैं । महिलाओं में योनि की तंत्रिकाओं व उसकी कोशिकाओं को इतना नुकसान पहुंचता है जिससे संसर्ग के वक्त होने वाला द्रव्य प्रवाह रुक जाता है। योनि मार्ग सूख जाता है जिससे संसर्ग काफी तकलीफदेह हो जाता है। नतीजे में मधुमेह के मरीजों में कामेच्छा ही मर जाती है। एक अध्ययन के मुताबिक लगभग ४० प्रतिशत मधुमेह पीड़ित महिलाओं में या कामेच्छा ही मर जाती है या सेक्स के प्रति उनकी रुचि ही खत्म हो जाती है। कोई कामोत्तेजना न होने या सेक्स की अक्षमता के कारण यौनांगों में कोई कामोत्मुक प्रतिक्रिया नहीं होती। कहने का अर्थ यह है कि ऐसा महिला मरीजों का पूरा सेक्स जीवन ही नष्ट हो जाता है।
इसी तरह पुरुषों में भी मधुमेह के कारण तंत्रिकाएं और रक्तवाहिनियां प्रभावित होती हैं। इस कारण वह नपुंशकता का शिकार हो जाता है। मधुमेह पुरुषों के शिश्न समेत पूरे शरीर के तंत्रिका तंत्र को नष्ट कर देता है। एक बार जब तंत्रिकाएं नष्ट हो जाती हैं तो वह बिल्कुल क्रियाशील नहीं रह जाती हैं। संपर्क या संसर्ग के वक्त इसी कारण पुरुषों को कोई उत्तेजना नहीं होती। सामान्य अर्थों में इसे यह कहा जा सकता है कि मन में उठी कामोत्तेजना शिश्न ( लिंग ) तक नहीं पहुंच पाती। मन उत्तेजित हो जाता है मगर यौनांग बेजान पड़े रहते हैं क्यों कि उनतक कामोत्तेजना को पहुंचाने वाली तंत्रिकाओं की क्रियाशीलता मधुमेह के कारण नष्ट हो चुकी रहती है। नपुंशकता की इस अवस्था में लगभग असहाय हो जाता है मधुमेह का मरीज। क्यों कि लिंग में वह तनाव या कड़ापन नही आ पाता जो सेक्स क्रिया को पूरा करने के लिए जरूरी होता है। यानी दो मुख्य घटनाएं होती हैं। पहला यह कि संवेदनाओं या कामेच्छा की सूचना यौनांगों तक नहीं पहुंच पाती और दूसरा यह कि रक्त कोशिकाओं में दोष के कारण लिंग में तनाव नहीं आता। स्त्रियों और पुरुषों में सेक्स की यह अधोगति तब आती है जब वे मधुमेह को नियंत्रित नहीं रख पाते। अगर मधुमेह पर कारगर नियंत्रण हो तो सेक्स संबंधी इन विकारों से बचा जा सकता है।
अब आइए समझने की कोशिश करते हैं कि कैसे या किन रसायनों के कारण मधुमेह के मरीज नपुंशकता के शिकार हो जाते हैं। दरअसल जब मधुमेह को मरीज नियत्रित नहीं रख पाता है तो शरीर में सेक्स व अन्य क्रियाओं को संपन्न कराने वाले महत्वपूर्ण रसायन नाइट्रिक आक्साइड की कमी हो जाती है। इसके अभाव में शिश्न या लिंग में रक्त का दबाव नहीं बन पाता है। इस कारण सेक्स का कार्य करने के लायक बनाने वाला लिंग में भरने वाला खून बाहर निकल जाता है। जबकि उसे लिंग में रुकना चाहिए। इब रक्त का दबाव नहीं बनने से लिंग शिथिल पड़ा रह जाता है। यानी मधुमेह के मरीज में नाइट्रिक आक्साइड की कमी से रक्तवाहिनियां काफी संकरी और कड़ी हो जाती हैं। उनमें लचीलीपन कम हो जाता है। इसे एथेरोस्क्लेरोसिस कहा जाता है। हृदयजनित बीमारियां भी इसी के कारण पैदा होती हैं। जब एथेरोस्क्लेरोसिस से वह धमनियां प्रभावित होती हैं जो लिंग में रक्त प्रवाहित करती हैं तो जाहिर तौरपर लिंग में बहुत कम रक्त जा पाता है नतीजे में शिश्न शिथिल ही पड़ा रह जाता है। जो सेक्स क्रिया के अयोग्य होता है। अगर मधुमेह को काबू में रखा जाए तो यह सब कुछ रोका या कम किया जा सकता है।

सेक्स क्षमता बनाए रखने के कुछ सुझाव

मधुमेह पीड़ित स्त्री व पुरुष इन विकारों को रोक सकते हैं। बस आप निम्न कुछ बातों को ध्यान में रखिए।

१- बेहिचक अपने चिकित्क से इस संबंझ में बात करिए। जब आप अपने डाक्टर से बात करेंगे तो कोई शर्म मत महसूस करिए क्यों कि आप जो बात डाक्टर को बता रहे हैं वह उसे पता है। वह जानता है कि मधुमेह के मरीज को यह परेशानी भी होती है। आप जैसे ही बात शुरू करेंगे उसकी भी आपके प्रति झिझक खत्म हो जाएगी। आपका डाक्टर बातचीत से ही तय कर पाएगा कि आपको यह समस्या क्यों है? यह मधुमेह से है या किसी अन्य कारण से ?

२- ब्लड सुगर को नियंत्रित रखिए। अगर लगातार ऐसा रखेंगे तो तंत्रिकाओं व रक्तवाहिनियों में वह गड़बड़ी नहीं आएगी जो सेक्स क्षमता को प्रभावित करती है।
३- मधुमेह के मरीज तंबाकू सेवन और धूम्रपान से बचें। धूम्रपान तो रक्त में नाइट्रिक आक्साइड के स्तर को घटा देता है। जो रक्तवाहिनियों को संकरा बनाकर उनमें रक्त प्रवाह को कम या बंद कर देता है।
४- अधिक शराब पीनें से बचें। यह मधुमेह पीड़ितों में सेक्स क्षमता को घटाता है और रक्तवाहिनियों को नुक्सान पहुंचाता है। अगर पीना जरूरी है तो पुरुष एक दिन में दो पैग और महिलाएं एक से ज्यादा न लें।
इन सब के पीछे सिर्फ यह एहतियात होनी चाहिए कि मधुमेहपीड़ित तंत्रिकाओं और रक्तवाहिनियों को नष्ट होने से बचाएं। और ऐसा सिर्फ जागरूक रहकर ही किया जा सकता है। अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहें और सुगर को कभी बढ़ने नहीं दें।

साभार-- मेलाबिकडाटकाम

Friday, 14 November 2008

तसलीमा पर फिर भारत छोड़ने का दबाव

नई दिल्ली। बांग्लादेश की निर्वासित एवं विवादित लेखिका तसलीमा नसरीन पर एक बार फिर भारत छोड़कर जाने का दबाव पड़ रहा है। इस साल आठ अगस्त को भारत लौटी तसलीमा ने कहा कि उन्हें सरकार के आदेश की वजह से 15 अक्टूबर को देश छोड़ना था।

तसलीमा ने एक साक्षात्कार में कहा कि हां, मुझ पर एक बार फिर भारत को छोड़कर जाने का दबाव पड़ रहा है। सरकार ने मुझे गुप्त शर्तो के साथ छह महीने का निवास परमिट दिया था लिहाजा मुझे कुछ दिनों में ही इस देश को फिर छोड़ना पडे़गा। अपनी विवादित किताब लज्जा के लिये मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर आई तसलीमा ने कहा कि वह इस समय यूरोप में हैं और व्याख्यान देने में व्यस्त हैं।

डाक्टर से लेखिका बनी तसलीमा को सात महीने बाद एक बार फिर भारत से जाना होगा। सात माह पहले उनकी यहां मौजूदगी के खिलाफ कट्टरपंथी संगठनों के विरोध प्रदर्शन की वजह से उन्हें भारत छोड़कर जाना पड़ा था। विवादास्पद किताब लिखने की वजह से बांग्लादेश से निकाली गई तसलीमा इसके पूर्व भारत से जाने से पहले वर्ष 1994 से हिंदुस्तान में रह रही थीं।

तसलीमा ने कहा कि भारत में रहने की अनुमति मिलने की फिलहाल उम्मीद नहीं है। मेरे लिए बांग्लादेश के दरवाजे बंद हो चुके हैं। लिहाजा मेरी नजर में अब भारत में ही मेरा घर है। अगर मुझे घर वापस आने की इजाजत नहीं मिलेगी तो मेरी जिंदगी फिर से एक खानाबदोश की सी हो जाएगी।

भारत से बार-बार निकाले जाने पर नाराजगी और अफसोस जाहिर करते हुए तसलीमा ने कहा कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष देश भारत मुझे पनाह नहीं दे सकता। उन्होंने कहा कि भारत एक ऐसे इंसान को शरण नहीं दे सकता, जिसने अपनी सारी जिंदगी धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद की सेवा में बिता दी। एक ऐसा इंसान जिसका न कोई वतन है और न ही जमीन, जो भारत को अपना मुल्क समझता है और कोलकाता को अपना घर।

अमार मेयेबेला, उटल हवा और द्विखंडितों जैसी चर्चित पुस्तकों की लेखिका तसलीमा ने कहा कि मैं इस बात से हैरान हूं कि भारत का कोई भी राजनीतिक दल संगठन या संस्थान मेरे साथ हो रहे बर्ताव के खिलाफ आवाज नहीं उठा रहा है। इसके अलावा धर्मनिरपेक्षता के आदर्श वाहक कहे जाने वाले अनेक लोग भी मेरे मामले पर खामोश हैं। उन्होंने कहा कि मुझे कोलकाता में रहने की अनुमति मिलने की उम्मीद है। मैं विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से शहर में रहने की इजाजत देने का आग्रह कर रही हूं।
याहू जागरण से साभार

Monday, 20 October 2008

मीडिया पर भी लगा आर्थिक मंदी का ग्रहण

विश्व आर्थिक मंदी का अमेरिकी माडिया पर भी असर पड़ने लगा है। इस कारण यह आशंका जताई जा रही है कि इनके साझा उपक्रम जो भारत और बाकी दुनिया में हैं, उनको भी ग्रहण लगने वाला है। शेयर बाजार में आए भूचाल ने तो पूरी दुनिया की वित्तीय व्यवस्था की नींव हिलाकर रख दी है। जेट का भारी भरकम छटनी ने तो नौकरीपेशा लोगों को संकते में डाल दिया था। इन्फारमेशन टेक्नालाजी पर भी आशंकाओं के बादल छाए हुए हैं। भारी खर्च करके और कर्ज लेकर पढ़ रहे छात्रों का भविष्य भी इस कारण अधर में लटक सकता है। इन सब आशंकाओं के बीच अब मीडिया पर भी तलवार लटक गई है। अमेरिकी मीडिया और समाचार एजंसी पर निर्भर या उसके साथ साझा उपक्रम वाले भारतीय माडिया संस्थानों को भी बचाव की मुद्रा में अब आना होगा क्यों कि दुनिया की सबसे बड़ी समाचार एजंसी एसोसिएटेड प्रेस ( एपी ) पर अमेरिका समेत दुनिया में आई आर्थिक मंदी का असर पड़ने लगा है।

यह वही समाचार एजंसी है जिसने १३७ साल पहले कोलंबस के लेख और चित्रों को छापा था। इस समाचार एजंसी से अमेरिका के दर्जनों बड़े अखबारों और दुनिया के तमाम अखबारों को रोजाना समाचार मुहैया होती है। मगर अब इसपर आर्थिक मंदी का ग्रहण लग गया है। इसी शुक्रवार को खर्चों में कटौती के प्रस्ताव के विरोध में सदस्य अखबारों ने इसने अपनी डिस्पैच सेवा को आर्थिक कारणों से रोकने का गंभीर फैसला ले लिया। एपी के परिवर्तनों के विरोध में कई बड़े-छोटे अखबार खड़े हो गए हैं । इनमें ट्रिब्यून जैसे बड़े नेटवर्क वाले अखबार भी हैं। इसने एसोसिएशन से हटने तक की धमकी दे दी है। हालांकि उसने यह भी कहा कि खर्चे में कटौती किए जाने की जरूरत है। लासएंजिलिस टाइम्स और शिकागो ट्रिब्यून ने भी उसकी हां में हां मिलाई है।
छोटे अखबारों ने एपी के खर्चे में कटौती के फैसले की घोर निंदा की है। इनका आरोप है कि एपी जितना डिस्पैच के एवज में वसूलता है, उसे हम बर्दास्त नहीं कर सकते। उल्टे आरोप भी लगाया कि जितनी हमें जरूरत होती है उससे कम ही मुहैया कराता है। इतना ही नहीं हमारे साथ प्रतिस्पर्धी जैसा बर्ताव भी करता है। यह सबकुछ देखकर लगता है कि वे यह भूल ही गए हैं कि वे हमारी सेवा के लिए ही हैं।
उधर एपी का कहना है कि वह अपने १४०० अखबार सदस्यों का पैसा बचाना चाहता है। इसी के मद्देनजर एपी ने नए परिवर्तन और खर्चे में कटौती की योजना बनाई है। एपी का कहना है कि इन परिवर्तनों से सदस्यों का ही फायदा होगा। एपी की कार्यकारी संपादक कैथलीन कैरोल का दावा है कि कम ही अखबारों ने कटौती और परिवर्तनों की योजना का विरोध किया है। यह विरोध भी गलतफहमी और उन अखबारों के अपने वित्तीय संकट के कारण है। कैथलीन का कहना है कि अनुबंध के मुताबिक डिस्पैच रोकने से पहले सदस्य अखबारों को दो साल की नोटिस देनी होती है। इस हिसाब से भी जो एपी से अलग होना चाहते हैं उन्हें कम से कम २०१० तक इंतजार करना पड़ेगा। कैथलीन ने इस विरोध के पीछे दबाव डालकर दर कम कराने की साजिश है।
एपी के इस संकट की वजह अमेरिकी अखबारों का वित्तीय संकट है। पिछले दो सालों में विग्यापनों से इनकी कमाई २५ प्रतिशत घटी है। इसके ठीक उलट एपी का पिछले साल मुनाफा ८१ प्रतिशत यानी २४ मिलियन डालर से ७१० मिलियन बढ़ा। जबकि यह एक गैरमुनाफा वाली कंपनी है। खुद एपी ने यह आंकड़ा अपने सदस्यों को जारी किया है।

अब सदस्यों के अलग होने की कवायद ने दुनिया की समाचार संकलन करने वाली सबसे बड़ी कंपनी एपी के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। करीब १०० देशों में इसके तीन हजार पत्रकार कार्यरत हैं। जिस दिन से एपी से समाचार मिलने बंद हो जाएंगे उस दिन से अमेरिकी अखबार दुबले हो जाएंगे। १६२ साल पहले गठित एपी एकमात्र अखबारों का संगठन है जो सदस्यों का स्वामित्व व बोर्ड में वोट का अधिकार देता है। एपी के रिपोर्टर ब्रेकिंग न्यूज अपने सदस्य अखबारों से लेते हैं और इसे दूसरे सदस्यों को देते हैं। अब इन्हीं सदस्यों का मानना है कि एपी का खर्च उनपर भारी पड़ रहा है। स्टार ट्रिब्यून के संपादज नैन्सी बर्न्स का कहना है कि वे एपी को एक मिलियन डालन देते हैं जो कि न्यूजरूम में १० से १२ रिपोर्टर के खर्च के बराबर है। तमाम अखबारों के संपादकों का कहना है कि वे दूसरी समाचार एजंसियों जैसे-रायटर या ब्लूमबर्ग न्यूज से सामग्री लेने पर विचार कर रहे हैं। हालांकि उनका भी मानना है कि एपी के फोटो का कोई विकल्प नहीं है।

सवाल यह उठता है कि अमेरिकी माडिया में एपी से उठा यह बवंडर क्या भारतीय मीडिया को प्रभावित करेगा ? विदेशी निवेश पर चल रहे भारतीय अखबारों व टीवी की उल्टी गिनती अब शुरू होने वाली है। एपी जैसा विशाल संगठन अपने खर्चे समेटने लगा है तो उसपर आधारित बाकी दुनिया की मीडिया को भी धक्के तो लगेंगे ही। यह अलग बात है कि भारत की तमाम मीडिया ऐसी भी है जो अपने बलबूते चल रही हैं। शायद उन्हें कम संकट झेलना पड़े मगर विदेशी निवेश वाले संस्थान बवंडर में घिरने वाले हैं।

खबर स्रोत--इस खबर को PoliticalForum@googlegroups.com पर Lone Wolf (phoenixx6@gmail.com )ने RICHARD PÉREZ-PEÑA के लेख को इस समूह को १९ अक्तूबर को फारवर्ड किया है। पोलिटिकल फोरम के सदस्य पलाश विश्वास ने यह मेल मुझे भेजा था। www.PoliticalForum.com पर भी यह खबर पढ़ी जा सकती है। इसी मूल अंग्रेजी का सार-संक्षेप भारतीय संदर्भ में विश्लेषण के साथ हिंदी में मैंने यहां दिया है। मान्धाता

Thursday, 9 October 2008

राजनीति के हाथ में सांप्रदायिकता की तलवार

प्रख्यात स्वाधीनता प्रेमी और आधायात्मिक विभूति महर्षि अरविंद ने भारत को आजादी मिलने के वक्त ही सांप्रदायिकता और अखंडता के उन खतरों से देश को आगाह किया था, जिसकी चुनौती आज भी भारत झेल रहा है। यह इत्तेफाक ही है कि आजादी मिलने से ७५ साल पहले १५ अगस्त को ही महर्षि अरविंद पैदा हुए थे। प्रथम स्वाधीनता दिवस के मौके पर एक संदेश में उन्होंने कहा था-- हिंदू-मुसलमानों के बीच प्राचीन सांप्रदायिक वर्गीकरण अब देश के स्थायी राजनीतिक विभाजन के रूप में सुदृढ़ होता प्रतीत हो रहा है।..........यदि यह स्थिति जारी रहती है तो भारत गंभीर रूप से विकलांग और कमजोर हो जाएगा। हमेशा जनता में फूट, एक और आक्रमण या विदेशियों के विजय की भी आशंका बनी रहेगी।
महर्षि अरविंद के ये वक्तव्य आज भी प्रासंगिक हैं। आजादी मिलने के ६० साल बाद भी भारत इन्हीं आशंकाओं के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है।लेकिन सिर्फ हिंदू-मुस्लिम ही नहीं बल्कि जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषाई सांप्रदायिकता के स्थायी संकट में फंसा हुआ है। दुखद यह है कि सत्ता की राजनीति के यही सांप्रदायिक तत्व प्रमुख हथियार बने हुए हैं। राजनीति के हाथ में सांप्रदायिकता की यह तलवार देश की एकता और अस्मिता को विध्वंश करने पर तुली है। इसके साए में अब हर किसी की पहचान ही सांप्रदायिक हो गई है।
सोचिए जब आपसे आपका परिचय पूछा जाता है, और जैसे ही आप नाम बताते हैं तो न चाहते हुए भी आप हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, दलित, सवर्ण,या फिर किसी भाषाई वर्ग मसलन बंगाली, मराठी, आदिवासी, हिंदुस्तानी, ( हिंदी भाषी लोगों के लिए यह शब्द जानबूझकर यहां प्रयोग किया है क्यों कि देश के कई हिस्से में हिंदी बोलने वाले हिकारत से इसी नाम से संबोधित किए जाते हैं।), मद्रासी , दक्षिण भारतीय, उत्तरभारतीय के साथ-साथ अपने-अपने हिसाब से न जाने क्या-क्या समझ लिए जाते हैं। इतना ही नहीं कोई सरकारी-गैरसरकारी फार्म भरना होगा तो बाकायदा जाति, धर्म के भी कालम भरने होते होते हैं। यानी आपका परिचय आपका जाति, धर्म, क्षेत्र व संप्रदाय ही है।
अल्पसंख्यक ( सामान्यतया यह शब्द मुसलमानों की पहचान से संबद्ध हो गया है जबकि किसी बहुसंख्यक समुदाय के साथ रहने वाले कम तादाद के उस समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए जो गैर मुस्लिम हो। मगर वोट की राजनीति ने इस शब्द को भी गिरवी रख दिया है।), पिछड़े, अनुसूचित जाति व जनजाति को कमजोर मानकर संविधान में आरक्षण के प्रावधानों ने और बुरी तरह से लोगों को संप्रदायों में बांटा है। और इसकी बात करने वाला हर कोई सांप्रदायिक है। किसी न किसी खेमे में बैठे लोगों को यह बात नागवार लगेगी मगर मुझे तो ये सारे लोग सांप्रदायिक ही लगते हैं। खासतौर से ऐसे प्रगतिशील विचारधारा से जुड़े दलों, कार्यकर्ताओं को मैं ज्यादा सांप्रदायिक समझता हूं जो सिर्फ वोट की खातिर अपने तरीके से सांप्रदायिकता की परिभाषा गढ़ लेते हैं। बहुत संभव है कि मेरी इस कटु समीक्षा के कारण छद्म प्रगतिशील मुझे भाजपाई, संघी या फिर भगवाधारी घोषित करदें। मुझे जानना है तो पूरा लेख पढ़ें। अगर तार्किक न लगे तो मेरी दलील को गलत साबित करें।
सांप्रदायिकता के संदर्भ में सामान्य अवधारणा है कि किसी विशेष प्रकार की संस्कृति और धर्म को दूसरों पर आरोपित करने की भावना या धर्म अथवा संस्कृति के आधार पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने की क्रिया सांप्रदायिकता है। सांप्रदायिकता समाज में वैमनस्य उत्पन्न करती है और एकता को नष्ट करती है। सांप्रदायिकता के कारण समाज को दंगे और विभाजन जैसे कुपरिणामों को भुगतना पड़ता है। साम्राज्यवादी ताकतें गरीब देशों पर या एक देश दूसरे देश पर अधिकार करने या उसको कमज़ोर करने की नीयत से सांप्रदायिकता फैलाते हैं। सांप्रदायिकता सामजिक सद्भावना के लिए घातक है। अर्थात वह सबकुछ सांप्रदायिकता की श्रेणी में आता है जिससे समाज, धर्म, संस्कृति व एकता नष्ट होती है।
इस अवधारणा को मानकर मैं तो डंके की चोट पर कहता हूं कि, चाहे संघी हों या प्रगतिशील व वामपंथी, सांप्रदायिकता के हमाम में सभी नंगे हैं। धर्म, जाति, क्षेत्रवाद की साप्रदायिक फसल काटकर ही कई उन राजनीतिक दलों का वजूद कायम है जिनसे बेहतर सरकार और उन्नत भारत की हम उम्मीद पाले बैठे हैं। जरा किनारे बैठकर देखिए ऐसे राजनीतिज्ञ, लेखक या खुद को सामाजिक कार्यकर्ता कहलाने वाले सफेदपोश लोग क्या सांप्रदायिक नहीं हैं ? बेशक हैं और बेशर्म भी हैं। बेशर्म इस लिए क्यों कि ये ही एक दूसरे को सांप्रदायिक भी करार भी देते हैं। इस विभेद को समाज और राजनीति में कब और कैसे जगह मिली ? कौन लेगा जिम्मेदारी अपने ऊपर ? सभी पल्ला झाड़ लेंगे और अपना दामन पाक-साफ बताएंगे मगर इतिहास की इन भूलों या मजबूरियों का खामियाजा तो अब देश भुगत रहा है। सत्ता का खेल खेलने वाले ही इस दुर्दशा के लिए सबसे बड़े जिम्मेदार माने जेने चाहिए। पूरे भारत की राजनीतिक तस्वीर को ऐसा बिगाड़ा है जिसमें समाज भी विकृत हो गया है और विशुद्ध भारतीयता की पहचान ही खो गई है। आइए जानने की कोशिश करते हैं कि आजादी के साथ विरासत में मिली सांप्रदायिकता ६० साल बाद कितने रूप बदल चुकी है।

आजादी के बाद
भारतीय राजनीति, बुद्धिजीवी और समाज कई खंडों में खंडित हो चुके हैं। भारत के इतिहास में आजादी के बाद से ही देखें तो यह खेमेबाजी बड़ी तेजी से बढ़ी और जिसके प्रतिरूप भी बदले हैं। एकजुट होकर आजाद होने के लिए लड़ रहे देश के लोगों को हिंदू और मुसलमानों में बांटकर भारत और पाकिस्तान बनना ही वह काला दिन था जिसने धर्म के आधार पर भारत के भीतर भी सांप्रदायिकता की वह आग लगा दी जिसमें आज भी भारत झुलस रहा है। हम मानते हैं कि भारत विभाजन, नोआखली के दंगे, पाकिस्तान और भारत से लोगों का पलायन, भाग रहे लोगों की हत्याएं जैसी वारदातों से बेदखल हुए लोगो की पीढ़ी ही भारतीय राजनीति में काबिज हुई। इसी पीढ़ी के लोगों ने वह नींव डाली है जिस पर आज का भारत खड़ा है। तो फिर ऐसे चेहरे भी पहचाने जाने चाहिए जिन्होंने भाषा, धर्म, जाति, व क्षेत्रवाद का जहर बोया। क्या गलती गांधी, नेहरू, अंबेडकर, सरदार पटेल जैसे नेताओं ने की या इनकी विरासत संभालने वाले राजनेताओं ने सत्ता की खातिर देश को भाड़ में झोंक दिया ? यह ऐसा सवाल है जिसमें इनके बाद भारत की दुर्दशा का जवाब छिपा है।

हिंदुओं के नाम पर शुरू से राजनीति कर रही पार्टी भारतीय जनसंघ ( अब भाजपा ) ने सीधे सीधे हिंदुत्व की वकालत की। सहयोग मिला दूसरे हिंदू संगठनों मसलनहिंदू जागरण, आरएसएस, विहिप वगैरह से। इसका चरम देश में हुए छोटो-बड़े हिंदू-मुस्लिम दंगे से गुजरकर गुजरात के दंगो तक पहुंचा। फिर भी सच यह है कि हिंदू-मुसलमानों में विभाजित भारत को यह धर्म आधारित राजनीति लंबे समय तक रास नहीं आई। लंबे समय तक इसी देश की बहुसंख्यक हिंदू जनता ने सांप्रदायिक राजनीति करने वालों को सत्ता से कोसों दूर रखा। इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ नारा हर सांप्रदायिक नारे पर भारी पड़ा। बाद में गलतियां भी यहीं से शुरू हुईं।
जाति आधारित आरक्षण, देशभर में त्रिभाषा फार्मूले पर शिक्षा के मुद्दे पर दक्षिण भारत समेत सारे अहिंदी क्षेत्रों में हिंदी के विरोध की सांप्रदायिक राजनीति इसी समय मुखर हुई। यह जाति और भाषाई राजनीति हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता पर भारी पड़ी और देश सत्ता के नए साप्रदायिक समीकरण में उलझ गया। कांग्रेस का अखिल भारतीय स्तर पर कमजोर होना भी क्षेत्रीय राजनीति के मुखर होने के साथ ही शुरू हुआ। असम, नगालैंड, मणिपुर, पंजाब, पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत भाषाई और क्षेत्रीय राजनीति के उदाहरण बने। ताजा हालात में महाराष्ट्र में शिवसेना के सभी घटक क्षेत्रीय राजनीति के घृणित स्तर पर उतर आई है। जगह-जगह हिंदी भाषियों को मारा और अब किसी उग्रवादी संगठन की तरह मराठी की अनिवार्यता का फतवा जारी कर दिया है।
पश्चिम बंगाल में ऐसे फतवे सत्ता में शामिल किसी संगठन ने तो नहीं जारी किए मगर हिंदी के विरोध की राजनीति जगजाहिर है। इसका सामान्य उदाहरण तो यही है कि हिंदी माध्यम में पढ रहे पश्चिम बंगाल बोर्ड के छात्रों को हिंदी में प्रश्नपत्र तमाम निवेदनों, आंदोलनों व दलीलों के बावजबूद नहीं दिए जाते हैं। यानी हिंदी माध्यम काछात्र अंग्रेजी में प्रश्न पढ़कर उसका हिंदी में उत्तर लिखता है। यह उदाहरण सिर्फ भाषा विरोध की उस राजनीति की ओर इशारा करने के लिए यहां रखा है जो प्रकारांतर से भाषाई राजनीति की सांप्रदायिकता है। और ऐसा पश्चिम बंगाल की वह कम्युनिष्ट सरकार करती है जो दूसरे दलों पर पक्षपाती और सांप्रदायिक होने का आरोप लगाती रहती है। इसी क्षेत्रीयता और भाषाई सांप्रदायिकता की बुनियाद पर पिछले २५ सालों से यह सरकार कायम है। सच यह है कि बंगाल समेत तमाम राज्यों के क्षेत्रीय दलों के हाथ में जाति, भाषा, क्षेत्रीयता की सांप्रदायिक तलवार है। यानी भाजपा जहां हिंदूवादी होकर हिंदुओं के वोट बटोरने की सांप्रदायिक राजनीति कर रही है तो खुद को प्रगतिशाल कहने वाले कांग्रेस, कम्युनिष्ट, समाजवादी या अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष छद्म धर्मनिरपेक्षता के साथ भाषा, जाति व क्षेत्रवाद की ऐसी घिनौनी राजनीति कर रहें हैं जिसमें देश एक रहकर भी कई टुकड़ों का दंश झेल रहा है।

इंदिरागांधी के बाद का भारत
कट्टर हिंदुत्व का नारा बुलंद करने वाली भाजपा और कुछ मुस्लिम संगठन अपने सांप्रदायिक नारे से लोगों को लुभाने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरागांधी के कार्यकाल में भी लगे रहे। बाबरी मसजिद या फिर काशी मथुरा के मंदिरों की मुक्ति के एक तरफ वायदे भाजपा कर रही थी तो दूसरी तरफ मुस्लिम संगठन अपने समुदाय को इनका भय दिखाकर एकजुट करते रहे। इंदिरा गांधी के १९८४ में पतन और सहानुभूति की लहर में कांग्रेस को मिली अद्भत जीत ने फिर इन सांप्रदायिक शक्तियों को हासिए पर धकेल दिया। पहले राजीव गांधी फिर उनकी हत्या के बाद पीवीनरसिंहाराव के कार्यकाल में न सिर्फ कांग्रेस कमजोर हुई बल्कि पूरे देश में क्षेत्रीय, भाषाई, व कट्रवादी ताकतों का बोलबाला हो गया। यहां कांग्रेस के कार्यकाल को पृष्ठभूमि बनाकर इसलिए बात की जा रही है क्यों कि इसी दौर में चुनाव की राजनीति गरीबी और विकास के मुद्दे से हटकर भाषाई और कट्टर हो गई। नतीजे में जातिवादी, क्षेत्रवादी जैसी राजनीतिक ताकतें पंजाब और असम में नरसंहार करने लगीं। इंदिरागांधी व राजीवगांधी की हत्या के कारण बनें। यह सब सांप्रदायिकता का ही प्रतिरूप है। और आज भाषाई और क्षेत्रीय राजनीति करने वालों के संगठन क्षेत्रीय दलों की मान्यता हासिल किए हुए हैं। मेरे कहने का मतब सिर्फ यह है कि हिंदू और मुसलमान का लड़ना ही सांप्रदायिकता नहीं है बल्कि भाषा, जाति और क्षेत्र के नाम पर चल रही पूरी भारतीय राजनीति ही सांप्रदायिक है। यहां मैं सांप्रदायिता का पूरा इतिहास नहीं लिखने जा रहा हूं मगर राजनीतिक दलों और उनके कर्णधारों की उस दोहरी राजनीति को जरूर उजागर करूंगा जिनसे हमारा देश और समाज बर्बादी के कगार पर ला खड़ा कर दिया गया है।

क्षेत्रीय राजनीति बनाम सांप्रदायिकता

किसी एक सशक्त दल के तौर पर पूरे देश में कायम कांग्रेस अस्सी के दशक में ही बिखरने लगी। इंदिरागांधी के कार्यकाल में ही कांग्रेस को चुनौती दी जनता दल ने । इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस का पतन हो गया। हालांकि फिर कांग्रेस की वापसी हुई मगर तब तक पंजाब, असम में क्षेत्रीय ताकतें सिर उठा चुकी थीं। दक्षिण में एनटीरामाराव का तेलुगूदेशम, उत्तरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी, पूर्वोत्तर में नगा व मणिपुरी ताकतें के अलावा देशभर में तमाम भाषाई व धार्मिक आधार पर छोटे-बड़े संगठन खड़े हो गए। इन सबको इसलिए गिना रहा हूं ताकि बता सकूं कि यही दल आज भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण बने हुए हैं और सरकारें भी इन्हीं की हैं। सरकारें यानी आमजनता की रहनुमा जिनपर देश और राज्य के विकास का सारा दारोमदार होता है। जबकि इन दलों की पृष्ठभूमि ही सांप्रदायिक है। वह कैसे आप भी जानते हैं। इन क्षेत्रीय दलों से आप कैसे भारत के निर्माण की उम्मीद कर सकते हैं। वैसे आज कोई राजपूत नेता है तो कोई ब्राह्मण नेता । यादव, मुसलमान या फिर हरिजन, राजभर, कुर्मी समेत तमाम जातियों के अलग-अलग नेता भारतीय राजनीति की तकदीर लिख रहे हैं। जाहिर है इन्हें पहले अपने वोट बैंक की चिंता होगी इसके बाद बाद ही शायद देश याद आए। इन्हें आप सांप्रदायिक कहेंगे तो गलत भी माना जाएगा क्यों ये सामुदासिक विकास की भावना से जुड़े हैं। अगर यह सब सामुदायिक है तो फिर सांप्रदायिक कौन है ? सभी तो अपने समुदाय का काम कर रहे हैं। मगर यह सच नहीं है। सच यह है कि सभी ने राजनीतिक फायदे के लिए अपने हाथ में सांप्रदायिकता की तलवार थाम रखी है और भारत माता के जिस्म को तार-तार कर रहे हैं। अब वक्त आ गया है जब इस किस्म की राजनीति पर रोक लगनी चाहिए अन्यथा यह तलवार समाज के साथ देश के भी टुकड़े कर देगी। कश्मीर में हाल में अमरनाथ की जमान के बहाने जो हुआ उससे बड़ा दूसरा उदाहरण क्या हो सकता है।
हम समझते हैं कि भारत की चुनाव प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन लाए जाने की जरूरत है। बहुदलीय प्रणाली भी खत्म की जानी चाहिए और सिर्फ पक्ष और विपक्ष के लिए चुनाव का प्रावधान हो तो बेहतर होगा। वैसे इस मुद्दे पर बहस चलाकर ही कोई कदम उठाया जाना चाहिए। वह व्यवस्था जिसमें सांप्रदायिकता के लिए कोई स्थान नहो। देश के चुनाव नेता की योग्यता और विकास के मुद्दे पर लड़े जाने चाहिए। इससे अलग किसी भी प्रावधान को चुनाव में जगह नहीं होनी चाहिए। इस किस्म के माडल पूरी दुनिया में उपलब्ध हैं। ये मेरे सुझाव हैं। आप भी मुहिम छेड़िए ताकि सांप्रदायिकता की यह तलवार फिर सामाजिक समरसता की म्यान में दफ्न हो जाए। हम ब्लागर अगर यह मुहिम छेड़ने की जिम्मेदारी उठा सकें तो यह भी ब्लाग के जरिए देश सेवा की बड़ी मिसाल होगी।

Wednesday, 8 October 2008

दुर्गापूजा की अनुपम छटा

पूर्वी भारत के मुख्यद्वार कोलकाता में नैनो परियोजना के चले जाने का भले ही मलाल है यहां के लोगों में मगर दुर्गापूजा के उल्लास में फिलहाल ऐसा कुछ नजर नहीं आता। पूरी रात इस पंडाल से उस पंडाल घूम रहे लोगों की चर्चा का विषय नैनो नहीं बल्कि दुर्गापूजा उत्सव है। पूरे साल इस उत्सव के इंतजार में बैठे लोग नहीं मानते कि उनका उत्सव कुछ भी फीका पड़ा है। हालांकि बंगाल को इस पूजा में धक्के पर धक्के लग रहे हैं। आज ही महाराज सौरभ गांगुली ने आंशिक तौर पर ही सही, क्रिकेट को अलविदा कहा। ऐन पूजा के वक्त मिली यह खबर भी तकलीफदेह ही है। मगर मुझे पूरी उम्मीद है कि पूजा की रौनक में इससे कोई कमा नहीं आएगी। वैसे हम वह दौर नहीं भूले हैं जब सौरभ दादा को टीम में जगह नहीं मिलने पर यहीं मीडिया में कितनी हायतौबा मची थी। कोलकाता में प्रदर्शन भी किए गए। यानी यहां दादा का टीम में खेलना या न खेलना काफी संवेदनशील मुद्दा बन जाता है। बंगाल के लोग या बंगाली मीडिया अपने सितारों से बहुत प्यार करती है। चाहे वह खिलाड़ी हो या फिर साहित्यकार, राजनेता, अभिनेता ही क्यों न हो। ऐसे में खुशी में थोड़ी खलल वाली बात तो है ही। वैसे भी पूरे साल कई घटनाक्रमों के कारण काफी उथलपुथल के बाद सबकुछ भुलाकर लोग उत्सव मनाने में मशगूल हैं। हम भी यही मानते हैं और बंगाल के लोगों को दुर्गापूजा की बधाई देते हैं।


मेरी तरफ से आप सभी को भी दुर्गापूजा और दशहरा की शुभकामनाएं। आप तो कोलकाता से दूर हैं इसलिए आपको कुछ उन पंडालों और प्रतिमाओँ की सौगात भेज रहा हूं जिन्हें पुरस्कृत किया गया है। वैसे पूजा की पूरी रौनक का अंदाजा चंद तस्वारों से नहीं लगाया जा सकता फिर भी निहारिए इनकी अनुपम छटा।



















देखिये बंगाल की अनुपम छटा : दुर्गापूजा



पूर्वी भारत के मुख्यद्वार कोलकाता में नैनो परियोजना के चले जाने का भले ही मलाल है यहां के लोगों में मगर दुर्गापूजा के उल्लास में फिलहाल ऐसा कुछ नजर नहीं आता। पूरी रात इस पंडाल से उस पंडाल घूम रहे लोगों की चर्चा का विषय नैनो नहीं बल्कि दुर्गापूजा उत्सव है। पूरे साल इस उत्सव के इंतजार में बैठे लोग नहीं मानते कि उनका उत्सव कुछ भी फीका पड़ा है। हालांकि बंगाल को इस पूजा में धक्के पर धक्के लग रहे हैं। आज ही महाराज सौरभ गांगुली ने आंशिक तौर पर ही सही, क्रिकेट को अलविदा कहा। ऐन पूजा के वक्त मिली यह खबर भी तकलीफदेह ही है। मगर मुझे पूरी उम्मीद है कि पूजा की रौनक में इससे कोई कमा नहीं आएगी। वैसे हम वह दौर नहीं भूले हैं जब सौरभ दादा को टीम में जगह नहीं मिलने पर यहीं मीडिया में कितनी हायतौबा मची थी। कोलकाता में प्रदर्शन भी किए गए। यानी यहां दादा का टीम में खेलना या न खेलना काफी संवेदनशील मुद्दा बन जाता है। बंगाल के लोग या बंगाली मीडिया अपने सितारों से बहुत प्यार करती है। चाहे वह खिलाड़ी हो या फिर साहित्यकार, राजनेता, अभिनेता ही क्यों न हो। ऐसे में खुशी में थोड़ी खलल वाली बात तो है ही। वैसे भी पूरे साल कई घटनाक्रमों के कारण काफी उथलपुथल के बाद सबकुछ भुलाकर लोग उत्सव मनाने में मशगूल हैं। हम भी यही मानते हैं और बंगाल के लोगों को दुर्गापूजा की बधाई देते हैं।
मेरी तरफ से आप सभी को भी दुर्गापूजा और दशहरा की शुभकामनाएं। आप तो कोलकाता से दूर हैं इसलिए आपको कुछ उन पंडालों और प्रतिमाओँ की सौगात भेज रहा हूं जिन्हें पुरस्कृत किया गया है। वैसे पूजा की पूरी रौनक का अंदाजा चंद तस्वारों से नहीं लगाया जा सकता फिर भी निहारिए इनकी अनुपम छटा।



















Friday, 3 October 2008

रतन टाटा का सिंगुर को टाटा


कोलकाता : रतन टाटा ने आखिरकार पश्चिम बंगाल के सिंगुर को टाटा कहने का फैसला कर लिया है। इस प्रोजेक्ट में पीपुल्स कार नैनो का प्रोडक्शन होना था। इस प्रोजेक्ट पर काफी काम आगे बढ़ चुका था। लेकिन जमीन अधिग्रहण को लेकर विवाद की वजह से वहां काम रोकना पड़ा था। सूत्रों ने खबर दी है कि टाटा इस प्लांट के लिए कर्नाटक, उत्तरांचल और गुजरात समेत कई ऑप्शन पर विचार कर रहे हैं। इस बारे में अगले हफ्ते तक फैसला होने की उम्मीद है।

दरअसल महीने भर से चले आ रहे सिंगुर विवाद को लेकर आज सबकी निगाहें अब रतन टाटा और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की मुलाकात पर टिकी हुई थीं।
रतन टाटा ने शुक्रवार को राइटर्स बिल्डिंग में मख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से मुलाकात की। सभी को लग रहा था कि मीटिंग से कोई पॉजिटिव जवाब आएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
सिंगुर के काफी लोगों का कहना है कि नैनो के निर्माण के लिए फैक्टरी सिंगुर में ही होनी चाहिए। लोगों का कहना है कि अगर टाटा ऐसा कोई एश्योरेंस देते हैं वही उनके लिए दुर्गा पूजा का बेहतरीन तोहफा होगा। यहां तक कि सौरभ गांगुली ने भी एक पत्र के जरिए टाटा से सिंगुर में बने रहने का आग्रह किया है।
बीती शाम मुख्यमंत्री ने सीपीएम स्टेट सेक्रेटेरिएट के सभी मेंबर्स से मुलाकात कर टाटा मोटर्स के कर्मचारियों की सुरक्षा से जुड़ी सभी समस्याओं के बारे में बातचीत भी की ताकि इस मामले में रतन टाटा आश्वस्त रह सकें।

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...