Thursday, 27 December 2007

अक्षरधाम दुनिया का सबसे विशाल हिंदू मंदिर परिसर

दिल्ली स्थित प्रसिद्ध अक्षरधाम मंदिर को दुनिया का सबसे विशाल हिंदू मंदिर परिसर होने के नाते गिनीज बुक आफ व‌र्ल्ड रिका‌र्ड्स में शामिल कर लिया गया है। गिनीज बुक आफ व‌र्ल्ड रिका‌र्ड्स के एक वरिष्ठ अधिकारी पिछले सप्ताह भारत की यात्रा पर आए और स्वामी नारायण संस्थान के प्रमुख स्वामी महाराज को विश्व रिकार्ड संबंधी दो प्रमाणपत्र भेंट किए। गिनीज व‌र्ल्ड रिकार्ड की मुख्य प्रबंध समिति के एक वरिष्ठ सदस्य माइकल विटी ने बोछासनवासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामी नारायण संस्थान को दो श्रेणियों के तहत प्रमाणपत्र दिए हैं। इनमें एक प्रमाणपत्र एक व्यक्ति विशेष द्वारा सर्वाधिक हिंदू मंदिरों के निर्माण तथा दूसरा दुनिया का सर्वाधिक विशाल हिंदू मंदिर परिसर की श्रेणी में दिया गया।


प्रमाणपत्र में कहा गया है, पूज्य प्रमुख स्वामी महाराज अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त आध्यात्मिक नेता हैं और बीएपीएस स्वामीनारायण संस्थान के प्रमुख हैं। उन्होंने अप्रैल 1971 से नवंबर 2007 के बीच पांच महाद्वीपों में 713 मंदिरों का निर्माण करने का विश्व रिकार्ड बनाया है। इसमें साथ ही कहा गया है कि इनमें से दिल्ली का बीएपीएस स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिर अद्भुत है और दुनिया का विशालतम हिंदू मंदिर परिसर है।
माइकल विटी ने कहा कि हमें अक्षरधाम की व्यापक वास्तुशिल्प योजना का अध्ययन तथा अन्य मंदिर परिसरों से उसकी तुलना परिसर का दौरा और निरीक्षण करने में तीन माह का समय लगा और उसके बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे कि मंदिर गिनीज बुक में शामिल किए जाने का अधिकारी है।
दिल्ली स्थित अक्षरधाम मंदिर 86342 वर्ग फुट परिसर में फैला है। यह 356 फुट लंबा 316 फुट चौड़ा तथा 141 फुट ऊंचा है। यह पहला मौका है जब गिनीज बुक ने अपने विशाल धार्मिक स्थलों की सूची में किसी हिंदू मंदिर को मान्यता प्रदान की है।

Wednesday, 26 December 2007

भाजपा का मोदी युग

भाजपा अब वाजपेयी युग से निकलकर सीधे मोदी युग में प्रवेश कर गई है। अपेक्षाकृत कट्टर कहे जाने वाले आडवानी ने रथयात्रा और राममंदिर आंदोलन के जरिए भाजपा को न सिर्फ मजबूत किया बल्कि सत्ता भी हासिल कर ली। वाजपेयी की अगुवाई में कट्टरता को किनारे रखकर समान विचार वाले दलों का गठबंधन बनाया और केंद्र की सत्ता हासिल की। लेकिन तब भाजपा को सत्ता विकास के नाम पर नहीं बल्कि राम और परिवर्तन के नाम पर मिली थी। वह था अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी का युग। अब नरेंद्र मोदी भाजपा को मोदी युग में ले आए हैं। बेशक मोदी भी कट्टर हिंदुत्व की राह चलकर इस मुकाम पर पहुंचे हैं मगर गुजरात में कांग्रेस को चुनौती उन्होंने सिर्फ हिंदुत्व नहीं, विकास के नाम पर दी थी। अब मोदी भले कहें कि भाजपा उनकी मां है मगर यह सच है कि अपनी कुशल कार्यशैली से वे भाजपा से भी बड़े हो गए हैं। इतने बड़े कि भाजपा यह युग मोदी युग के नाम से जाना जाएगा। जैसी गल्ती कांग्रेस ने गुजरात में की है अगर लोकसभा चुनावों में भी वहीं दुहराई तो संभव है कि मोदी भाजपा को केंद्र में काबिज करने में भी कामयाब हो जाएंगे। आखिर क्या खासियत है मोदी की जो चाय बेचने से अपना सफर शुरू करके एक पार्टी के भाग्यविधाता बन बैठे ।

छोटे से रेलवे स्टेशन पर कभी चाय बेचकर अपनी जिंदगी चलाने वाले भाजपा नेता नरेंद्र मोदी गुजरात की राजनीति में एक ऐसे क्षत्रप के रूप में उभरे हैं जो लगातार तीसरी बार राज्य का मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं जो एक रिकार्ड है।
मुख्यमंत्री के तौर पर 27 दिसंबर को पद और गोपनीयता की शपथ लेने जा रहे मोदी गोधरा कांड के बाद गुजरात में भड़के दंगों के दिनों से आज तक विपक्ष और अपने ही दल के कुछ छोटे-बडे़ नेताओं की आलोचनाओं और विरोध का सामना करते आ रहे हैं। 57 वर्षीय इस नेता ने इस बार के चुनाव में सभी बाधाओं को पार करते हुए लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री पद अपने पास बनाए रखा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रचारक मोदी को अन्य लोगों से अलग करने वाली खासियत है, प्रतिकूल परिस्थितियों को अपने लाभ में बदलने की उनकी कला। चाहे 2001 में गुजरात में आया भीषण भूकंप हो या उसके एक वर्ष बाद हुआ गोधरा कांड सभी घटनाक्रमों का उन्होंने अपने राजनीतिक लाभ के लिए बखूबी इस्तेमाल किया। गुजरात में आए भूकंप से मची तबाही और फिर तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के खिलाफ असंतोष उभरने पर तत्कालीन भाजपा महासचिव और पार्टी प्रवक्ता मोदी को प्राकृतिक और पार्टी के संकट से निपटने के लिए वहां मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी दे कर भेजा गया। संकटमोचक बन कर पहुंचे मोदी ने छह अक्टूबर 2001 को पटेल की जगह गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी ने कहा था कि वह गुजरात में एक दिवसीय मैच खेलने आए हैं, लेकिन 27 फरवरी 2002 को साबरमती एक्सप्रेस अग्निकांड और उसके बाद राज्य में भड़के सांप्रदायिक दंगों ने पूरी तस्वीर ही बदल दी। दोनों ही घटनाओं के बाद गुजरात की राजनीति का मुख्य बिंदु हिंदुत्व बन गया और मोदी उसकी केंद्रीय भूमिका में आ गए। आरएसएस के दुलारे रहे मोदी देखते ही देखते हिंदुत्व के पर्याय बन गए। मोदी की जिंदगी का सफरनामा 17 सितंबर 1950 को मेहसाणा जिले के छोटे से वाडनगर शहर में एक निर्धन परिवार से शुरू हुआ। वह घांची समुदाय के हैं जो अन्य पिछड़ा वर्ग में आता है।
शुरू से ही दृढ़ इच्छा शक्ति रखने वाले मोदी वाडनगर रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने और बाद में अहमदाबाद में एक कैंटीन चलाकर संघर्ष करते हुए गुजरात में सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचे हैं। संघर्षो के बीच ही मोदी ने वाडनगर में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की और आरएसएस प्रचारक रहते हुए 1980 के दशक में गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में एमए किया। उनमें नेतृत्व क्षमता छात्र जीवन से ही दिखने लगी थी, जब वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेता के रूप में उभरे। वर्ष 1987 में संघ से भाजपा में आने के बाद मोदी के राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई। एक वर्ष के भीतर ही उन्हें पार्टी की गुजरात इकाई का महासचिव बना दिया गया। 1995 में उन्हें भाजपा ने दिल्ली भेजा और वह राष्ट्रीय सचिव बनाए गए।
गुजरात दंगों के लिए भारी आलोचनाओं सामना करने के बावजूद उन्होंने इसे अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया और गौरव यात्रा निकाल कर दिसंबर 2002 के विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत से भाजपा की झोली में जीत डाली। 22 दिसंबर 2002 को मोदी को मुख्यमंत्री पद के दूसरे कार्यकाल के लिए शपथ दिलाई गई। पहले कार्यकाल में उन्होंने जहां अपने हिंदुत्व की छवि को धार दी वहीं दूसरे कार्यकाल में वह विकास पुरुष के रूप में खुद को स्थापित करने में जुट गए। पांच वर्ष के दूसरे कार्यकाल में मोदी ने जीवंत गुजरात का नारा दिया और बड़े पैमाने पर उद्योगपतियों तथा निवेशकों को गुजरात की ओर आकर्षित करने में सफल भी हुए। हालांकि राज्य के किसान, आदिवासी और कुछ अन्य समुदाय उनकी नीतियों से नाराज भी नजर आए, लेकिन एक बड़ा तबका राज्य का तेजी से औद्योगिक विकास होने के कारण खुश भी हुआ.

Tuesday, 25 December 2007

सारसंसार की नई पठनीय सामग्री- स्वीनिया के कुत्ताखोर

रोमा जाति की दुर्दशा पर आस्ट्रिया के लेखक कार्लमार्क्स गौस की पुस्तक का हिंदी अनुवाद सारसंसार हिदी पत्रिका ने प्रकाशित किया है। मैंने पढ़ा। यह काफी रोचक है। आप भी पढ़ सकते हैं साइट में जाकर। पत्रिका की मुख्य संपादक अमृत मेहता के मेल के जरिए यह लिंक मिला है। इस लिंक पर जाकर इस अनुवाद की पीडीएफ प्रति को खोलकर पढ़िए। पत्रिका ने और भी बहुत कुछ अनूदित किया है जिसका जिक्र इसी पीडीएफ में है। मैंने अमृतजी का मेल और उसके नीचे अनुवाद के पीडीएफ का पता भी दिया है।
अमृतजी का मेल - literature@saarsansaar.com

अनुवाद के पीडीएफ का पता - http://www.saarsansaar.com/sansar.pdf




यह है उनकी चिट्ठी जो उन्होंने भेजी है अनुवाद के बारे में पूरे विवरण के साथ।



Dear Friends of Literature,



SAAR SANSAAR in its latest issue of April-June 2008 presents you with something very special by an eminent Austrian writer Karl-Markus Gauss, "Svinia ke Kuttakhor" ("Die Hundeesser von Svinia") is a book on a clan of European Romas living in inhuman conditions in Slovakia. Their three castes, namely Roma, Siganik and Degesi represent the age-old caste-system of India, which is still prevalent in a remote corner of Europe in its ugliest form. The Degesis (the equivalent of our "Shudras") are the ones being discriminated by their high-caste tribesmen, while on the other hand the whole of Roma community is despised by the rest of the society in Europe. It becomes necessary to explain here that the Romas aka Gypsies, now living in Europe, come originally from India, from where they migrated to the West about eight centuries ago; before coming to Europe they traversed a long path from Asia to Arabia to the North-West. In the course of time they started calling themselves Arab and totally forgot their Indian ancestory. It was left to an Indian diplomat in Moscow, Mr. WR Rishi, who later became a Professor of Roma Studies at the Panjab University, Chandigarh, to dig out Roma's Indian tracing their linguistic affinity to Punjabi and Rajasthani.



In the Third Reich the Romas were evenly persecuted by the Hitlers Nazi-regime along with the Jews. They were also slaughtered in hordes in various Nazi death-camps. But while the Jews have been able to claim war-damages, the surviving Romas have received nothing, not even the compassion of their compatriot. Because neither do they have a strong lobby nor have they tried to assert their rights in the countries of their adoption.



Dr. Karl-Markus Gauss has expansively written on Europe, and also on its national minorities like Sefardins of Bosnia-Herzogvina, Sorbs of Germany, Armenians of Balkan, Ruthenians of Ukraine and Slovakia etc. He undertook an extensive journey of Slovakia to study the living conditions of Romas, the poorest of poor in Europe. In his narration he has objectively played the role of an observer. For his writings he has won most of the prestigious European Literary Prizes on Journalistic writings, e.g. European Essay Prize Charles Veillon, Austrian National Prize for Cultural Journalism, Austrian Book-Sellers' Prize for Central European Literature and Mannes Sperber Prize etc. He is also the Editor of a well-known journal for literary criticism, viz. "Literatur und Kritik"



A corrigendum to the last posting: The last date for applying for a Writers Residency in Chateau de Lavigny in Switzerland is not January, 2008, but March 1, 2008. The error is regretted. Our elite readers still have ample time to apply. In case there is difficulty in opening the website of the Chateau, please write directly to me. I will mail the Application Form.



This April 08 issue has been published much in advance as a Special New Year gift to the readers of "Saar Sansaar". It is hoped that the readers will enjoy this stimulating piece of literature. With this I also take a 6 months' Sabbatical to devote my time to other literary pastimes. Click www.saarsansaar.com to read Gauss' tour de force.



With this I wish you all, my friends, a verrry verrry merry Christmas and a Happy New Year 2008.



Sincerely yours

Amrit Mehta, Chief Editor

Monday, 24 December 2007

कोलकाता को किसने बसाया ?

आज का आधुनिक बंगाल और कोलकाता किसी जमाने की सामंती पहचान को काफी पीछे छोड़ चुका है। लगभग ३५ साल के कम्युनिस्ट शासन ने पूरे बंगाल समेत कोलकाता को एक अलग पहचान दिलाई है। लंबे कार्यकाल तक पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री रह चुके कामरेड ज्योति बसु और मशहूर फिल्म निर्देशक सत्यजित राय भी आधुनिक बंगाल की शान व पहचान में शुमार हैं। वैसे तो सातवीं शताब्दी के आसपास पालवंश और बाद में सेनबंश के हिंदू शासकों ने जो भी सास्कृतिक पहचान बंग क्षेत्र को दिलाई उसी शासन क्षेत्र का पहले मुगलों ने और बाद में अंग्रेजों ने विस्तार किया। आधुनिक पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले के विष्णुपुर में प्राचीन कालीन हिंदू राजाओं खासतौर पर बल्लाल ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। आठचाल और चारचाल शैली के इन मंदिरों में लक्ष्मीविलास मंदिर व अन्य मंदिरों के समूह बंगाल के हिंदू राजाओं के बेमिसाल स्मारक हैं। इसी कोटि में बर्दवान के आसपास के स्मारक और नदिया जिले में ध्वंश के कगार पर पहुंच रहा चैतन्य महाप्रभु का मंदिर भी आता है। चैतन्य के बारे में यह बताने की जरूरत नहीं भक्ति आंदोलन के उस युग में ऐसे समाजसुधारक की भुमिका निभाई जिसके कारण उन्हें महाप्रभु कहा जाने लगा। इन हिंदू राजाओं के पतन के बाद मुस्लिम शासन के तहत शासन व संस्कृति का मुख्य केंद्र मुर्शिदाबाद व ढाका हो गया। आधुनिक बंगाल का प्रादुर्भाव ठीक तरह से डच, पुर्तगालियों व फ्रांसीसियों के हुगली के चंदननगर में उपनिवेश स्थापित करने और बाद में इन्हीं उपनिवेशों पर ईस्ट इंडिया कंपनी के आधिपत्य के साथ शुरू होती है कोलकाता की कहानी। व्यापार का प्रमुख केंद्र बनकर कोलकाता इतिहास के पन्नों में ऐसे शहर के रूप में दर्ज है जहां आज भी बहस जारी है कि कोलकाता को किसने बसाया। जाब चार्नाक की कहानी पर भी सवाल उठ गया है। इसी सवाल पर यहां एक आलेख भी दे रहा हूं। बेदखल हुए जाब चार्नाक। यह पीडीएफ फार्म में है। इसे क्लिक करके पढ़ सकते हैं। साथ में अलग से सिर्फ संदर्भ के लिए कोलकाता का संक्षिप्त इतिहास भी अवलोकनीय है।




बंगाल का इतिहास

बंगाल पर इस्लामी शासन १३ विं शताब्दी से प्रारंभ हुआ तथा १६ विं शताब्दी में मुग़ल शासन में व्यापार तथा उद्योग का एक समृद्ध केन्द्र में विकसित हुआ। १५ विं शताब्दी के अन्त तक यहा यूरोपीय व्यापारियों का आगमन हो चुका था तथा १८ विं शताब्दी के अन्त तक यह क्षेत्र ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के नियन्त्रण में आ गया था। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का उद्गम यहीं से हुआ। १९४७ में भारत स्वतंत्र हुआ और इस्के साथ ही बंगाल मुस्लिम पूर्व बंगाल (जो बाद में बांग्लादेश बना) तथा हिंदू पश्चिम बंगाल में विभाजित हुआ। पश्चिम बंगाल भारत के उत्तर पूर्व मे स्थित एक राज्य है । इसके पड़ोसी राज्य नेपाल,सिक्किम,भूटान असम, बांग्लादेश, उड़ीसा, झारखंडऔर बिहार हैं। कोलकाता पश्चिम बंगाल की राजधानी है। जिसे पूर्वोत्तर राज्यों का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है।

कोलकाता शहर का इतिहास

बंगाल के इतिहास से भी दिलचस्प है कोलकाता का इतिहास। 300 वर्ष से भी अधिक पुराना शहर। कवि और साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता रविन्द्रनाथ टैगौर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, जगदीश चन्द्र बोस और महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चन्द्र बोस की जन्मभूमि। एक ऐसा शहर जहां एशिया का अपने प्रकार का एक अनोखा 467 मीटर लंबा हावड़ा ब्रिज स्थित है। शानदार स्मारकों, दर्शनीय संग्रहालयों, भव्य मेंशनों और दोस्ताना लोगों का शहर कोलकाता।
भारत के सबसे बड़े शहर और प.बंगाल की राजधानी, कोलकाता ब्रिटिश शासनकाल में भारत की राजधानी रहा, 1911 में वे राजधानी को दिल्ली ले आए। पौराणिक कथा है कि कोलकाता का नाम तब पड़ा था जब सती ने अपने पिता द्वारा अपने पति भगवान शिव के अपमान के बाद आत्म-सम्मान के कारण खुद को स्वाहा कर लिया था। भगवान शिव को पहुंचने में देर हो गई, तब तक सती का शरीर जल चुका था। उन्होंने सती का जला हुआ शरीर उठाकर तांडव नृत्य आरंभ कर दिया। अन्य देवतागण नृत्य को रोकना चाहते थे, उन्होंने भगवान विष्णु से उन्हें मनाने को कहा। भगवान विष्णु ने सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए, इस पर शिव ने अपना नृत्य रोक दिया। कहा जाता है कि सती का अंगूठा कोलकाता के दक्षिणी भाग में काली घाट में गिरा था। इस प्रकार, इस शहर को कालीकाता कहा गया जो आगे चलकर कोलकाता हो गया।
आधिकारिक रूप से इस शहर का नाम कोलकाता 1 जनवरी, 2001 को रखा गया। इसका पूर्व नाम अंग्रेजी में भले ही "कैलकटा' हो लेकिन बंगाल और बांग्ला में इसे हमेशा से कोलकाता या कोलिकाता के नाम से ही जाना जाता रहा है। सम्राट अकबर के चुंगी दस्तावेजों और पद्रहवीं सदी के बांग्ला कवि विप्रदास की कविताओं में इस नाम का बार बार उल्लेख मिलता है। लेकिन फिर भी नाम की उत्पत्ति के बारे में कई तरह की कहानी मशहूर है। इस शहर के अस्तित्व का उल्लेख व्यापारिक बंदरगाह के रूप में चीन के प्राचीन यात्रियों के यात्रा वृतांत और फारसी व्यापारियों के दस्तावेजों में भी उल्लेख है। महाभारत में भी बंगाल के कुछ राजाओं का नाम है जो कौरव सेना की तरफ से युद्ध में शामिल हुये थे। नाम की कहानी और विवाद चाहे जो भी हों इतना तो अवश्य तय है कि यह आधुनिक भारत के शहर में सबसे पहले बसने वाले शहरों में से एक है। इस शहर का इतिहास उतार-चढाव वाला रहा है। सबसे पहले यहाँ 1690 में इस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी "जाब चारनाक" ने अपने कंपनी के व्यापारियों के लिये एक बस्ती बसाई थी। 1698में इस्ट इंडिया कंपनी ने एक स्थानीय जमींदार से तीन गाँव (सूतानीति, कोलिकाता और गोबिंदपुर) खरीदा। अगले साल कंपनी ने इन तीन गाँवों का विकास प्रेसिडेंसी सिटीके रूप में करना शुरू किया। 1727 में इंग्लैंड के राजा जार्ज द्वतीय के आदेशानुसार यहाँ एक नागरिक न्यायालय की स्थापना की गयी। कोलकाता नगर निगम की स्थाप्ना की गयी और पहले मेयर का चुनाव हुआ। 1756 में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कोलिकाता पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उसने इसका नाम "अलीनगर" रखा। लेकिन साल भर के अंदर ही सिराजुद्दौला की पकड़ यहाँ ढीली पड़ गयी और अंग्रेजों का इसपर पुन: अधिकार हो गया। 1772 में कोलकाता वारेन हेस्टिंग्स ने इसे ब्रिटिश शासकों की भारतीय राजधानी बना दी। कुछ इतिहासकार इस शहर की एक बड़े शहर के रूप में स्थापना की शुरुआत 1698 में फोर्ट विलियम की स्थापना से जोड़कर देखते हैं। 1858 से 1912तक कोलकाता भारत में अंग्रेजो की राजधानी बनी रही।

स्वाधीनता आंदोलन में भूमिका
ऐतिहासिक रूप से कोलकाता भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के हर चरण में केन्द्रीय भूमिका में रहा है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ साथ कई राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों जैसे "हिन्दू मेला" और क्रांतिकारी संगठन "युगांतर" , "अनुशीलन" इत्यादी की स्थापना का गौरव इस शहर को हासिल है। प्रांरभिक राष्ट्रवादी व्यक्तित्वों में अरविंद घोष, इंदिरा देवी चौधरानी, विपिनचंद्र पाल का नाम प्रमुख है। आरंभिक राष्ट्रवादियों के प्रेरणा के केन्द्र बिन्दू बने रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने व्योमेश चंद्र बैनर्जी और स्वराज की वक़ालत करने वाले पहले व्यक्ति सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भी कोलकाता से ही थे। 19 वी सदी के उत्तरार्द्ध और 20 वीं शताब्दी के प्रांभ में बांग्ला साहित्यकार बंकिमचंद्र चटर्जी ने बंगाली राष्ट्रवादियों को बहुत प्रभावित किया। इन्हीं का लिखा आनंदमठ में लिखा गीत वन्दे मातरम आज भारत का राष्ट्र गीत है। सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का गठन कर अंग्रेजो को काफी साँसत में रखा। इसके अलावा रविन्द्रनाथ टैगोर से लेकर सैकड़ों स्वाधीनता के सिपाही विभिन्न रूपों में इस शहर में मौजूद रहे हैं।

1757 के बाद से इस शहर पर पूरी तरह अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया और 1850 के बाद से इस शहर का तेजी से औद्योगिक विकास होना शुरु हुआ खासकर कपड़ों के उद्योग का विकास नाटकीय रूप से यहाँ बढा हलाकि इस विकास का असर शहर को छोड़कर आसपास के इलाकों में कहीं परिलक्षित नहीं हुआ। 5 अक्टूबर 1864 को समुद्री तूफान (जिसमे साठ हजार से ज्यादा लोग मारे गये) की वजह से कोलकाता में बुरी तरह तबाही होने के बावजूद कोलकाता अधिकांशत: अनियोजित रूप से अगले डेढ सौ सालों में बढता रहा और आज इसकी आबादी लगभग 14 मिलियन है। कोलकाता 1980से पहले भारत की सबसे ज्यादा आबादी वाला शहर था, लेकिन इसके बाद मुंबई ने इसकी जगह ली। भारत की आज़ादी के समय 1947 में और 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद "पूर्वी बंगाल" (अब बांग्लादेश ) से यहाँ शरणार्थियों की बाढ आ गयी जिसने इस शहर की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह झकझोरा।

पुनर्जागरण और कोलकाता

ब्रिटिश शासन के दौरान जब कोलकाता एकीकृत भारत की राजधानी थी, कोलकाता को लंदन के बाद ब्रिटिश साम्र्याज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर माना जाता था। इस शहर की पहचान महलों का शहर, पूरब का मोती इत्यादि के रूप में थी। इसी दौरान बंगाल और खासकर कोलकाता में बाबू संस्कृति का विकास हुआ जो ब्रिटिश उदारवाद और बंगाली समाज के आंतरिक उथल पुथल का नतीजा थी जिसमे बंगाली जमींदारी प्रथा हिंदू धर्म के सामाजिक, राजनैतिक, और नैतिक मूल्यों में उठापटक चल रही थी। यह इन्हीं द्वंदों का नतीजा था कि अंग्रेजों के आधुनिक शैक्षणिक संस्थानों में पढे कुछ लोगों ने बंगाल के समाज में सुधारवादी बहस को जन्म दिया। मूल रूप से "बाबू" उन लोगों को कहा जाता था जो पश्चिमी ढंग की शिक्षा पाकर भारतीय मूल्यों को हिकारत की दृष्टि से देखते थे और खुद को ज्यादा से ज्याद पश्चिमी रंग ढंग में ढालने की कोशिश करते थे। लेकिन लाख कोशिशों के बावज़ूद जब अंग्रेजों के बीच जब उनकी अस्वीकारय्ता बनी रही तो बाद में इसके सकारत्म परिणाम भी आये, इसी वर्ग के कुछ लोगो ने नयी बहसों की शुरुआत की जो बंगाल के पुन्रजागरण के नाम से जाना जाता है। इसके तहत बंगाल में सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक सुधार के बहुत से अभिनव प्रयास हुये और बांग्ला साहित्य ने नयी ऊँचाइयों को छुआ जिसको बहुत तेजी से अन्य भारतीय समुदायों ने भी अपनाया।

आधुनिक कोलकाता

कोलकाता भारत की आजादी और उसके कुछ समय बाद तक एक समृद्ध शहर के रूप में स्थापित रहा लेकिन बाद के वर्षों में जनसँख्या के दवाब और मूलभूत सुविधाओं के आभाव में इस शहर की सेहत बिगड़ने लगी। 1960 और 1970 के दशकों में नक्सलवाद का एक सशक्त आंदोलन यहाँ उठ खड़ा हुआ जो बाद में देश के दूसरे क्षेत्रों में भी फैल गया। 1977 के बाद से यह वामपंथी आंदोलन के गढ के रूप में स्थापित हुआ और तब से इस राज्य में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी का बोलबाला है और वर्तमान मुख्यमंत्री हैं बुद्धदेव भट्टाचार्य।

नक्सलवाद

आधुनिक बंगाल का जिक्र नक्सली आंदोलन के जिक्र के बिना अधूरा माना जाएगा। नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुआ है जहाँ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की थी। मजुमदार चीन के कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ जिम्मेवार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और परिणामस्वरुप कृषितंत्र पर दबदबा हो गया है; और यह सिर्फ़ सशस्त्र क्रांति से ही ख्त्म किया जा सकता है। 1967 में "नक्सलवादियों" ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गये और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। 1971 में एक आंतरिक विद्रोह जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे। मजुमदार की मृत्यु के बाद इस आंदोलन की बहुत सी शाखाएँ हो गयीं और आपस में प्रतिद्वंदिता भी करने लगीं। आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टियाँ बन गयी हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेती है। लेकिन बहुत से संगठन अब भी छद्म लड़ाई में मशगूल हैं। नक्सलवाद की सबसे बड़ी मार आँधर प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है।

कोलकाता को किसने बसाया ?

आज का आधुनिक बंगाल और कोलकाता किसी जमाने की सामंती पहचान को काफी पीछे छोड़ चुका है। लगभग ३५ साल के कम्युनिस्ट शासन ने पूरे बंगाल समेत कोलकाता को एक अलग पहचान दिलाई है। लंबे कार्यकाल तक पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री रह चुके कामरेड ज्योति बसु और मशहूर फिल्म निर्देशक सत्यजित राय भी आधुनिक बंगाल की शान व पहचान में शुमार हैं। वैसे तो सातवीं शताब्दी के आसपास पालवंश और बाद में सेनबंश के हिंदू शासकों ने जो भी सास्कृतिक पहचान बंग क्षेत्र को दिलाई उसी शासन क्षेत्र का पहले मुगलों ने और बाद में अंग्रेजों ने विस्तार किया। आधुनिक पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले के विष्णुपुर में प्राचीन कालीन हिंदू राजाओं खासतौर पर बल्लाल ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। आठचाल और चारचाल शैली के इन मंदिरों में लक्ष्मीविलास मंदिर व अन्य मंदिरों के समूह बंगाल के हिंदू राजाओं के बेमिसाल स्मारक हैं। इसी कोटि में बर्दवान के आसपास के स्मारक और नदिया जिले में ध्वंश के कगार पर पहुंच रहा चैतन्य महाप्रभु का मंदिर भी आता है। चैतन्य के बारे में यह बताने की जरूरत नहीं भक्ति आंदोलन के उस युग में ऐसे समाजसुधारक की भुमिका निभाई जिसके कारण उन्हें महाप्रभु कहा जाने लगा। इन हिंदू राजाओं के पतन के बाद मुस्लिम शासन के तहत शासन व संस्कृति का मुख्य केंद्र मुर्शिदाबाद व ढाका हो गया। आधुनिक बंगाल का प्रादुर्भाव ठीक तरह से डच, पुर्तगालियों व फ्रांसीसियों के हुगली के चंदननगर में उपनिवेश स्थापित करने और बाद में इन्हीं उपनिवेशों पर ईस्ट इंडिया कंपनी के आधिपत्य के साथ शुरू होती है कोलकाता की कहानी। व्यापार का प्रमुख केंद्र बनकर कोलकाता इतिहास के पन्नों में ऐसे शहर के रूप में दर्ज है जहां आज भी बहस जारी है कि कोलकाता को किसने बसाया। जाब चार्नाक की कहानी पर भी सवाल उठ गया है। इसी सवाल पर यहां एक आलेख भी दे रहा हूं। बेदखल हुए जाब चार्नाक। यह पीडीएफ फार्म में है। इसे क्लिक करके पढ़ सकते हैं। साथ में अलग से सिर्फ संदर्भ के लिए कोलकाता का संक्षिप्त इतिहास भी अवलोकनीय है।





बंगाल का इतिहास

बंगाल पर इस्लामी शासन १३ विं शताब्दी से प्रारंभ हुआ तथा १६ विं शताब्दी में मुग़ल शासन में व्यापार तथा उद्योग का एक समृद्ध केन्द्र में विकसित हुआ। १५ विं शताब्दी के अन्त तक यहा यूरोपीय व्यापारियों का आगमन हो चुका था तथा १८ विं शताब्दी के अन्त तक यह क्षेत्र ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के नियन्त्रण में आ गया था। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का उद्गम यहीं से हुआ। १९४७ में भारत स्वतंत्र हुआ और इस्के साथ ही बंगाल मुस्लिम पूर्व बंगाल (जो बाद में बांग्लादेश बना) तथा हिंदू पश्चिम बंगाल में विभाजित हुआ। पश्चिम बंगाल भारत के उत्तर पूर्व मे स्थित एक राज्य है । इसके पड़ोसी राज्य नेपाल,सिक्किम,भूटान असम, बांग्लादेश, उड़ीसा, झारखंडऔर बिहार हैं। कोलकाता पश्चिम बंगाल की राजधानी है। जिसे पूर्वोत्तर राज्यों का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है।

कोलकाता शहर का इतिहास

बंगाल के इतिहास से भी दिलचस्प है कोलकाता का इतिहास। 300 वर्ष से भी अधिक पुराना शहर। कवि और साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता रविन्द्रनाथ टैगौर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, जगदीश चन्द्र बोस और महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चन्द्र बोस की जन्मभूमि। एक ऐसा शहर जहां एशिया का अपने प्रकार का एक अनोखा 467 मीटर लंबा हावड़ा ब्रिज स्थित है। शानदार स्मारकों, दर्शनीय संग्रहालयों, भव्य मेंशनों और दोस्ताना लोगों का शहर कोलकाता।
भारत के सबसे बड़े शहर और प.बंगाल की राजधानी, कोलकाता ब्रिटिश शासनकाल में भारत की राजधानी रहा, 1911 में वे राजधानी को दिल्ली ले आए। पौराणिक कथा है कि कोलकाता का नाम तब पड़ा था जब सती ने अपने पिता द्वारा अपने पति भगवान शिव के अपमान के बाद आत्म-सम्मान के कारण खुद को स्वाहा कर लिया था। भगवान शिव को पहुंचने में देर हो गई, तब तक सती का शरीर जल चुका था। उन्होंने सती का जला हुआ शरीर उठाकर तांडव नृत्य आरंभ कर दिया। अन्य देवतागण नृत्य को रोकना चाहते थे, उन्होंने भगवान विष्णु से उन्हें मनाने को कहा। भगवान विष्णु ने सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए, इस पर शिव ने अपना नृत्य रोक दिया। कहा जाता है कि सती का अंगूठा कोलकाता के दक्षिणी भाग में काली घाट में गिरा था। इस प्रकार, इस शहर को कालीकाता कहा गया जो आगे चलकर कोलकाता हो गया।
आधिकारिक रूप से इस शहर का नाम कोलकाता 1 जनवरी, 2001 को रखा गया। इसका पूर्व नाम अंग्रेजी में भले ही "कैलकटा' हो लेकिन बंगाल और बांग्ला में इसे हमेशा से कोलकाता या कोलिकाता के नाम से ही जाना जाता रहा है। सम्राट अकबर के चुंगी दस्तावेजों और पद्रहवीं सदी के बांग्ला कवि विप्रदास की कविताओं में इस नाम का बार बार उल्लेख मिलता है। लेकिन फिर भी नाम की उत्पत्ति के बारे में कई तरह की कहानी मशहूर है। इस शहर के अस्तित्व का उल्लेख व्यापारिक बंदरगाह के रूप में चीन के प्राचीन यात्रियों के यात्रा वृतांत और फारसी व्यापारियों के दस्तावेजों में भी उल्लेख है। महाभारत में भी बंगाल के कुछ राजाओं का नाम है जो कौरव सेना की तरफ से युद्ध में शामिल हुये थे। नाम की कहानी और विवाद चाहे जो भी हों इतना तो अवश्य तय है कि यह आधुनिक भारत के शहर में सबसे पहले बसने वाले शहरों में से एक है। इस शहर का इतिहास उतार-चढाव वाला रहा है। सबसे पहले यहाँ 1690 में इस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी "जाब चारनाक" ने अपने कंपनी के व्यापारियों के लिये एक बस्ती बसाई थी। 1698में इस्ट इंडिया कंपनी ने एक स्थानीय जमींदार से तीन गाँव (सूतानीति, कोलिकाता और गोबिंदपुर) खरीदा। अगले साल कंपनी ने इन तीन गाँवों का विकास प्रेसिडेंसी सिटीके रूप में करना शुरू किया। 1727 में इंग्लैंड के राजा जार्ज द्वतीय के आदेशानुसार यहाँ एक नागरिक न्यायालय की स्थापना की गयी। कोलकाता नगर निगम की स्थाप्ना की गयी और पहले मेयर का चुनाव हुआ। 1756 में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कोलिकाता पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उसने इसका नाम "अलीनगर" रखा। लेकिन साल भर के अंदर ही सिराजुद्दौला की पकड़ यहाँ ढीली पड़ गयी और अंग्रेजों का इसपर पुन: अधिकार हो गया। 1772 में कोलकाता वारेन हेस्टिंग्स ने इसे ब्रिटिश शासकों की भारतीय राजधानी बना दी। कुछ इतिहासकार इस शहर की एक बड़े शहर के रूप में स्थापना की शुरुआत 1698 में फोर्ट विलियम की स्थापना से जोड़कर देखते हैं। 1858 से 1912तक कोलकाता भारत में अंग्रेजो की राजधानी बनी रही।

स्वाधीनता आंदोलन में भूमिका
ऐतिहासिक रूप से कोलकाता भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के हर चरण में केन्द्रीय भूमिका में रहा है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ साथ कई राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों जैसे "हिन्दू मेला" और क्रांतिकारी संगठन "युगांतर" , "अनुशीलन" इत्यादी की स्थापना का गौरव इस शहर को हासिल है। प्रांरभिक राष्ट्रवादी व्यक्तित्वों में अरविंद घोष, इंदिरा देवी चौधरानी, विपिनचंद्र पाल का नाम प्रमुख है। आरंभिक राष्ट्रवादियों के प्रेरणा के केन्द्र बिन्दू बने रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंद । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने व्योमेश चंद्र बैनर्जी और स्वराज की वक़ालत करने वाले पहले व्यक्ति सुरेन्द्रनाथ बनर्जी भी कोलकाता से ही थे। 19 वी सदी के उत्तरार्द्ध और 20 वीं शताब्दी के प्रांभ में बांग्ला साहित्यकार बंकिमचंद्र चटर्जी ने बंगाली राष्ट्रवादियों को बहुत प्रभावित किया। इन्हीं का लिखा आनंदमठ में लिखा गीत वन्दे मातरम आज भारत का राष्ट्र गीत है। सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का गठन कर अंग्रेजो को काफी साँसत में रखा। इसके अलावा रविन्द्रनाथ टैगोर से लेकर सैकड़ों स्वाधीनता के सिपाही विभिन्न रूपों में इस शहर में मौजूद रहे हैं।

1757 के बाद से इस शहर पर पूरी तरह अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया और 1850 के बाद से इस शहर का तेजी से औद्योगिक विकास होना शुरु हुआ खासकर कपड़ों के उद्योग का विकास नाटकीय रूप से यहाँ बढा हलाकि इस विकास का असर शहर को छोड़कर आसपास के इलाकों में कहीं परिलक्षित नहीं हुआ। 5 अक्टूबर 1864 को समुद्री तूफान (जिसमे साठ हजार से ज्यादा लोग मारे गये) की वजह से कोलकाता में बुरी तरह तबाही होने के बावजूद कोलकाता अधिकांशत: अनियोजित रूप से अगले डेढ सौ सालों में बढता रहा और आज इसकी आबादी लगभग 14 मिलियन है। कोलकाता 1980से पहले भारत की सबसे ज्यादा आबादी वाला शहर था, लेकिन इसके बाद मुंबई ने इसकी जगह ली। भारत की आज़ादी के समय 1947 में और 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद "पूर्वी बंगाल" (अब बांग्लादेश ) से यहाँ शरणार्थियों की बाढ आ गयी जिसने इस शहर की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह झकझोरा।

पुनर्जागरण और कोलकाता

ब्रिटिश शासन के दौरान जब कोलकाता एकीकृत भारत की राजधानी थी, कोलकाता को लंदन के बाद ब्रिटिश साम्र्याज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर माना जाता था। इस शहर की पहचान महलों का शहर, पूरब का मोती इत्यादि के रूप में थी। इसी दौरान बंगाल और खासकर कोलकाता में बाबू संस्कृति का विकास हुआ जो ब्रिटिश उदारवाद और बंगाली समाज के आंतरिक उथल पुथल का नतीजा थी जिसमे बंगाली जमींदारी प्रथा हिंदू धर्म के सामाजिक, राजनैतिक, और नैतिक मूल्यों में उठापटक चल रही थी। यह इन्हीं द्वंदों का नतीजा था कि अंग्रेजों के आधुनिक शैक्षणिक संस्थानों में पढे कुछ लोगों ने बंगाल के समाज में सुधारवादी बहस को जन्म दिया। मूल रूप से "बाबू" उन लोगों को कहा जाता था जो पश्चिमी ढंग की शिक्षा पाकर भारतीय मूल्यों को हिकारत की दृष्टि से देखते थे और खुद को ज्यादा से ज्याद पश्चिमी रंग ढंग में ढालने की कोशिश करते थे। लेकिन लाख कोशिशों के बावज़ूद जब अंग्रेजों के बीच जब उनकी अस्वीकारय्ता बनी रही तो बाद में इसके सकारत्म परिणाम भी आये, इसी वर्ग के कुछ लोगो ने नयी बहसों की शुरुआत की जो बंगाल के पुन्रजागरण के नाम से जाना जाता है। इसके तहत बंगाल में सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक सुधार के बहुत से अभिनव प्रयास हुये और बांग्ला साहित्य ने नयी ऊँचाइयों को छुआ जिसको बहुत तेजी से अन्य भारतीय समुदायों ने भी अपनाया।

आधुनिक कोलकाता

कोलकाता भारत की आजादी और उसके कुछ समय बाद तक एक समृद्ध शहर के रूप में स्थापित रहा लेकिन बाद के वर्षों में जनसँख्या के दवाब और मूलभूत सुविधाओं के आभाव में इस शहर की सेहत बिगड़ने लगी। 1960 और 1970 के दशकों में नक्सलवाद का एक सशक्त आंदोलन यहाँ उठ खड़ा हुआ जो बाद में देश के दूसरे क्षेत्रों में भी फैल गया। 1977 के बाद से यह वामपंथी आंदोलन के गढ के रूप में स्थापित हुआ और तब से इस राज्य में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी का बोलबाला है और वर्तमान मुख्यमंत्री हैं बुद्धदेव भट्टाचार्य।

नक्सलवाद

आधुनिक बंगाल का जिक्र नक्सली आंदोलन के जिक्र के बिना अधूरा माना जाएगा। नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुआ है जहाँ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की थी। मजुमदार चीन के कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ जिम्मेवार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और परिणामस्वरुप कृषितंत्र पर दबदबा हो गया है; और यह सिर्फ़ सशस्त्र क्रांति से ही ख्त्म किया जा सकता है। 1967 में "नक्सलवादियों" ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गये और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। 1971 में एक आंतरिक विद्रोह जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे। मजुमदार की मृत्यु के बाद इस आंदोलन की बहुत सी शाखाएँ हो गयीं और आपस में प्रतिद्वंदिता भी करने लगीं। आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टियाँ बन गयी हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेती है। लेकिन बहुत से संगठन अब भी छद्म लड़ाई में मशगूल हैं। नक्सलवाद की सबसे बड़ी मार आँधर प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है।

Friday, 21 December 2007

त्यौहारों का संविधान - मजहब बैर नहीं सिखाता

कल ईद पर मुसलमान भाईयों से गायों की बलि न देने की देवबंद की शीर्ष मुसलिम संस्था की अपील सांप्रदायिक भाईचारे की राह में अच्छी कोशिश मानी जानी चाहिए। सच में त्यौहार भाईचारे बढाने के बेमिशाल माध्यम हैं मगर सियासी चालों ने त्यौहारों की चमक को फीका कर दिया है। हममें से कोई नहीं चाहता कि किसी मजहब से हमारी कोई अनबन हो। पर क्यों हो जाता है ऐसा कि हम एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। कहीं गोधरा हो जाता है तो कहीं इससे भी भयानक दंगे। कोई रहनुमा मोदी पैदा हो जाता है तो कोई दूसरी कौम का नायक। इनहें मिलते हैं सियासी फायदे मगर आमलोगों का सुखचैन छिन जाता है। कोई मजहब बैर नहीं सिखाता, यह हम आप सभी जानते हैं फिर क्यों किसी के बहकावे में आ जाते हैंलोग। फिर भी हमारी ये दूरियां जिस भी वजह से आईँ हों इनहें मिटा सकते हैं हमारे त्योहार। क्यों कि त्योहार कभी सांप्रदायिक नहीं होते। आपसी मेलजोल के सिद्धांत पर बने हैं सभी त्योहार। इनका यही संविधान है। और त्योहारों के संविधान को मानें तो मिट सकती हैं दुरियां और फासले। मैंने त्यौहारों के इसी संविधान की पड़ताल की है। यह लेख यूनिनागरी में नहीं है इसलिए इसे पीडीएफ फार्म में दे रहा हूं। लेख पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

स्मृति शेष-त्रिलोचन

कल 22 दिसंबर को त्रिलोचनजी के पैतृक गांव चिरानी पट्टी में उनके भतीजे अरुण सिंह और एसपी सिंह के आग्रह पर ब्रह्मभोज का आयोजन किया गया है। यह शायद आखिरी मौका होगा जब त्रिलोचन की आत्मिक शांति के लिए उनके पैतृक गांव में कोई आयोजन होने जा रहा है। जीवनभर त्रिलोचनजी घुमक्कड़ बने रहे। अपने पैतृक गांव या परिवार के लिए उनके न पांव थमे और न ही उन्होंने किसी सामाजिक बंधनों की परवाह की। अब किसी किस्म की सामाजिक रस्म का निर्वाह गांव के पारिवारिक लोगों की इच्छा ही मानी जा सकती है क्यों कि खुद त्रिलोचन तो जीवन इन सारे व्यामोह से मुक्त रहे। शायद गांव वालों और अपने चचेरे भाई अरुण सिंह के आग्रह को त्रिलोचनजी के बेटे अमित प्रकाश सिंह नहीं टाल पाए। वे भी 22 दिसंबर को त्रिलोचनजी की तेरही के मौके पर चिरानीपट्टी के लिए रवाना हो गए हैं। इस आखिरी रस्म के मौके पर उनकी स्मृति में आइए यह भी जान लें कि कैसे थे त्रिलोचन।

स्मृति शेष- इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा..
पहली ही मुलाकात में त्रिलोचन शास्त्री से जैसी आत्मीयता हुई, उसे मैं कभी भूल नहीं सकता। कवि त्रिलोचन को तो मैं बहुत पहले से जानता था और उनकी रचनाधर्मिता का मैं कायल भी था, लेकिन व्यक्ति त्रिलोचन से मेरी मुलाकात 1991 में हुई। उनकी सहजता और विद्वत्ता ने मुझे जिस तरह प्रभावित किया, उसने उनके कवि के प्रति मेरे मन में सम्मान और बढ़ा दिया। ऐसे रचनाकार अब कहां दिखते है, जो लेखन और व्यवहार दोनों में एक जैसे ही हों! पर त्रिलोचन में यह बात थी और व्यक्तित्व की यह सहजता ही उनके रचनाकार को और बड़ा बनाती है। अंग्रेजी का मुहावरा 'लार्जर दैन लाइफ' बिलकुल सकारात्मक अर्थ में उन पर लागू होता है।

अंग्रेजी का और नकारात्मक अर्थो में इस्तेमाल किए जाने के बावजूद इस मुहावरे का सकारात्मक प्रयोग करते हुए संकोच मुझे दो कारणों से नहीं हो रहा है। पहला तो यह हिंदी के प्रति पूरी तरह समर्पित होते हुए भी त्रिलोचन को अंग्रेजी से कोई गुरेज नहीं था। अंग्रेजी का छंद सॉनेट हिंदी में त्रिलोचन का पर्याय बन गया, इससे बड़ा प्रमाण इसके लिए और क्या चाहिए? दूसरा यह कि शब्दों के साथ खेलना मैंने त्रिलोचन से ही सीखा। वह कैसे किसी शब्द को उसके रूढ़ अर्थ के तंग दायरे से निकाल कर एकदम नए अर्थ में सामने प्रस्तुत कर दें, इसका अंदाजा कोई लगा नहीं सकता था। भाषा और भाव पर उनका जैसा अधिकार था उसकी वजह उनकी सहजता और अपनी सोच के प्रति निष्ठा ही थी।

अपने छोटों के प्रति सहज स्नेह का जो निर्झर उनके व्यक्तित्व से निरंतर झरता था, वह किसी को भी भिगो देने के लिए काफी था। लेकिन मेरी और उनकी आत्मीयता का एक और कारण था। वह था सॉनेट। वैसे हिंदी में सॉनेट छंद का प्रयोग करने वाले त्रिलोचन कोई अकेले कवि नहीं है। उनके पहले जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महाप्राण निराला भी इस छंद का प्रयोग कर चुके थे। उनके बाद जयप्रकाश बागी ने इसका प्रयोग किया। हो सकता है कि इसका प्रयोग कुछ और कवियों ने भी किया हो, पर इटैलियन मूल के इस छंद को आज हिंदी में सिर्फ त्रिलोचन के नाते ही जाना जाता है। ऐसे ही जैसे इटली में बारहवीं शताब्दी में शुरू हुए इस छंद को चौदहवीं सदी के कवि पेट्रार्क के नाते जाना जाता है।

ऐसा शायद इसलिए है कि पेट्रार्क की तरह त्रिलोचन भी ताउम्र सफर में रहे। वैसे ही जैसे यह छंद इटैलियन से अंग्रेजी, अंग्रेजी से हिंदी और फिर रूसी, जर्मन, डच, कैनेडियन, ब्राजीलियन, फ्रेंच, पोलिश, पुर्तगी़ज, स्पैनिश, स्वीडिश .. और जाने कितनी ही भाषाओं के रथ की सवारी करता दुनिया भर के सफर में है। चौदह पंक्तियों के इस छंद से त्रिलोचन का बहुत गहरा लगाव था और यह अकारण नहीं था। कारण उन्होंने मुझे पहली ही मुलाकात में बताया था, 'देखिए, यह छंद जल्दी सधता नहीं है, लेकिन जब सध जाता है तो बहता है और बहा ले जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें आप जो कहना चाहते है, वही कहते है और पढ़ने या सुनने वाला ठीक-ठीक वही समझता भी है।' मतलब यह कि दो अर्थो के चमत्कार पैदा करने के कायल अलंकारप्रेमी कवियों के लिए यह छंद मुफीद नहीं है। ठीक-ठीक वही अर्थ कोई कैसे ग्रहण करता है? इस सवाल पर शास्त्री जी का जवाब था, 'हिंदी में बहुत लोगों को भ्रम है कि शब्दों के पंक्चुएशन से अर्थ केवल अंग्रेजी में बदलता है। हिंदी में क्रिया-संज्ञा को इधर-उधर कर देने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। वास्तव में ऐसा है नहीं। हिंदी में तो केवल बलाघात से, बोलने के टोन से ही वाक्यों के अर्थ बदल जाते है। फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि यहां शब्दों के पंक्चुएशन से अर्थ न बदले?'

त्रिलोचन की कोशिश यह थी कि वह जो कहे वही समझा जाए। यही वजह है जो-

इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा

सॉनेट सॉनेट सॉनेट सॉनेट क्या कर डाला

यह उसने भी अजब तमाशा। मन की माला

गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा

अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे

ऐसे आयें जैसे किला आगरा में जो

नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को।

गेय रहे एकान्वित हो। ..

और इसे आप नॉर्सिसिज्म नहीं कह सकते है। वह इस विधा में अपने अवदान को लेकर किसी खुशफहमी में नहीं है। साफ कहते है-

उसने तो झूठे

ठाट-बाट बांधे है। चीज किराए की है।

फिर चीज है किसकी, यह जानने कहीं और नहीं जाना है।

अगली ही पंक्ति में वह अपने पूर्ववर्तियों को पूरे सम्मान के साथ याद करते है-

स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी

वर्डस्वर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी

स्वरधारा है। उसने नई चीज क्या दी है!

ऐसा भी नहीं है कि वह आत्मश्लाघा से मुक्त है तो आत्मबोध से भी मुक्त हों। अपने रचनात्मक अवदान के प्रति भी वह पूरी तरह सजग है और यह बात वह पूरी विनम्रता से कहते भी हैं-

सॉनेट से मजाक भी उसने खूब किया है,

जहां तहां कुछ रंग व्यंग का छिड़क दिया है।


कविता की भाषा के साथ भी जो प्रयोग उन्होंने किया, वह बहुत सचेत ढंग से किया है। गद्य के व्याकरण में उन्होंने कविता लिखी, जिसमें लय उत्पन्न करना छंदमुक्त नई कविता लिखने वालों के लिए भी बहुत मुश्किल है। लेकिन त्रिलोचन छंद और व्याकरण के अनुशासन में भी लय का जो प्रवाह देते है, वह दुर्लभ है। शायद यह वही 'अर्थ की लय' है जिसके लिए अज्ञेय जी आह्वान किया करते थे।

यह अलग बात है कि आज हम उन्हे एक छंद सॉनेट के लिए याद कर रहे है, पर कविता उनके लिए छंद-अलंकार का चमत्कार पैदा करने वाली मशीन नहीं है। कविता उनके लिए लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का माध्यम है। ठीक-ठीक वही बात जो वह सोचते है। वह अपने समय और समाज के प्रति पूरे सचेत है-

देख रहा हूं व्यक्ति, समाज, राष्ट्र की घातें

एक दूसरे पर कठोरता, थोथी बातें

संधि शांति की।..

वह यह भी जानते है जो संघर्ष वह कर रहे है वह उनकी पीढ़ी में पूरा होने वाला नहीं है। इसमें कई पीढि़यां खपेंगी, फिर उनके सपनों का समाज बन पाएगा। कहते है-

धर्म विनिर्मित अंधकार से लड़ते लड़ते

आगामी मनुष्य; तुम तक मेरे स्वर बढ़ते।

हंस के समान दिन उड़ कर चला गया

हंस के समान दिन उड़ कर चला गया

अभी उड़ कर चला गया

पृथ्वी आकाश

डूबे स्वर्ण की तरंगों में

गूंजे स्वर

ध्यान-हरण मन की उमंगों में

बंदी कर मन को वह खग चला गया

अभी उड़ कर चला गया

कोयल सी श्यामा सी

रात निविड़ मौन पास

आयी जैसे बँध कर

बिखर रहा शिशिर-श्वास

प्रिय संगी मन का वह खग चला गया

अभी उड़ कर चला गया


(यह श्रद्धांजलि याहू इंडिया से साभार । लेख इष्ट देव सांकृत्यायन ने लिखा है।)

Thursday, 20 December 2007

ईद उल जुहा पर गायों की न दें कुर्बानी: दारुल उलूम



हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए मशहूर इस्लामी संस्था दारुल उलूम ने देश के मुसलमानों से शुक्रवार को ईद उल जुहा के मौके पर गायों की कुर्बानी नहीं करने की अपील की है। कुर्बानी को खासतौर पर मद्देनजर रखते हुए देवबंद की इस इस्लामी संस्था ने एक किताब जारी किया है। इस किताब में देश के मुसलमानों से ईद उल जुहा पर हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए गायों की कुर्बानी से बचने को कहा गया है। गौरतलब है कि दारुल उलूम देवबंद मुसलिम समुदाय की धार्मिक समस्याओं पर शरीयत के मद्देनजर फतवे जारी करती रही है और इनका खास असर माना जाता है। ( मुजफ्फरनगर-भाषा)

ईद की बधाई

नई दिल्ली- प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने देशवासियों को ईद उल जुहा की बधाई दी है। प्रधानमंत्री ने गुरुवार को यहाँ अपने बधाई संदेश में कहा कि यह त्यो हार हजरत इब्राहीम के सर्वोच्च बलिदान की भावना का स्मरण कराता है। उनका निस्वार्थ बलिदान साबित करता है कि मानवता के लिये ज्यादा अच्छा काम करना व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर है। उन्होंने कहा कि इस अवसर पर मैं देशवासियों से अपील करता हूँ कि वे गरीबों, जरुरतमंदों और सुविधाओं से वंचित लोगों के उत्थान के लिए वचनबद्धता को पुन: सुनिश्चित करे। डॉ. सिंह ने आशा व्यक्त की कि ईद उल जुहा हमारे देश में सांप्रदायिक सौहार्द को और मजबूत करेगी तथा यह सभी के लिए खुशी और समृद्धि लाएगी।(भाषा)

सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो

इस्लाम में मुख्यत: दो त्योहारों का जिक्र आता है। पहला है ईद-उल-फितर। इसे मीठी ईद और छोटी ईद भी कहा जाता है। यह त्योहार रमजान के 30 रोजे रखने के बाद मनाया जाता है। दूसरी है ईद-उल-जुहा। इसे ईद-उल-अजहा अथवा बकरा-ईद (बकरीद) और बड़ी ईद भी कहा जाता हैं। ईद-उल-जुहा हज के बाद मनाया जाने वाला त्योहार है। इस्लाम के 5 फर्ज होते हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। हर मुसलमान के लिए अपनी सहूलियत के हिसाब से जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज के संपूर्ण होने की खुशी में ईद-उल-जुहा का त्योहार मनाया जाता है। पर यह बलिदान का त्योहार भी है। इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से लिया जाता है।

लगभग 4 हजार साल पहले हजरत इब्राहिम ने कुर्बानी का जो उदाहरण दुनिया के सामने रखा था, उसे आज भी परंपरागत रूप से याद किया जाता है। सिर्फ इस्लाम ही नहीं, बल्कि दुनिया में दूसरे धर्म के लोग भी हजरत इब्राहिम को पैगंबर के रूप में याद करते हैं, परन्तु जिस शिद्दत से इस्लाम ने उनके बलिदान को याद रखा है, वह अन्यथा देखने को नहीं मिलता। हजरत इब्राहिम किसी देश के राजा या शासक नहीं थे। वे एक छोटे से कबीले के सरदार थे। उनकी हैसियत ऐसी नहीं थी कि ज्यादा लोग उन्हें जानते, पर उन्होंने त्याग की भावना का जो उत्कृष्ट उदाहरण दुनिया के सामने रखा, उसकी मिसाल दुर्लभ है।

आकाशवाणी हुई कि अल्लाह की रजा के लिए अपनी सबसे प्यारी चीज कुर्बान करो, तो हजरत इब्राहिम ने सोचा कि मुझे तो अपनी औलाद ही सबसे प्रिय है। उन्होंने अपने बेटे को ही कुर्बान कर दिया। उनके इस जज्बे को सलाम करने का त्योहार है ईद-उल-जुहा। हजरत इब्राहिम की इस भावना में पूरे समाज का कल्याण और रब की रजा समाई है। कुर्बानी का मूल अर्थ है कि रक्षा के लिए सदा तत्पर। हजरत मोहम्मद साहब का फरमान है कि कोई व्यक्ति जिस परिवार, समाज, शहर या मुल्क में रहने वाला है, उस व्यक्ति का फर्ज है कि वह उस देश, समाज, परिवार की हिफाजत के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार रहे।

वैसे तो इस्लाम में सभी कार्य रब की रजा के लिए किए जाते हैं, परंतु ईद-उल-जुहा के जरिए सामाजिक एकता और समाज कल्याण की कामना की जाती है और इससे समाज को एक सूत्र में बांधने का कार्य आसान हो जाता है। आम तौर पर यह माना जाता है कि बकरे या किसी हलाल जानवर की कुर्बानी देने से ईद-उल-जुहा के त्योहार की इतिश्री हो जाती है। ऐसी रवायत तो है, पर रवायत सिर्फ इतनी भर नहीं है।

इस्लाम में कुर्बानी का अर्थ है कि अपना वक्त, अपनी दौलत और यहां तक कि खुद की कुर्बानी भी रब की राह में देनी पड़े, तो हिचकिचाएं नहीं। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से है। समाज कल्याण इसका मुख्य सरोकार है, इसीलिए ईद-उल-फितर की तरह ईद-उल-जुहा में भी गरीबों और मजलूमों का खास खयाल रखा जाता है। इसी मकसद से ईद-दल-जुहा के सामान यानी कि कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं। एक हिस्सा खुद के लिए रखा जाता है, बाकी दो हिस्से समाज में जरूरतमंदों में बांटने के लिए होते हैं, जिसे तुरंत तक्सीम कर (बांट) दिया जाता है।

ईद-उल-जुहा का एक मुख्य प्रयोजन हज का संपूर्ण होना भी है। जरूरी नहीं है कि सभी लोग हज का फर्ज पूरा कर पाते हों, परंतु मिलजुल कर हज की खुशी का मनाना समाज के संगठित होने का प्रमाण है। हज का फर्ज हर मुसलमान पूरा कर सकता है, परन्तु इसके कई नियम हैं। जैसे हज पर जाने वाला व्यक्ति किसी का कर्जदार न हो। नियम कहता है कि पहले अपना कर्ज उतारें, फिर हज पर जाएं। अपने पारिवारिक दायित्वों की अनदेखी करके भी हज पर जाना ठीक नहीं माना जाता है। तात्पर्य यह है कि इस्लाम व्यक्ति को अपने परिवार, अपने समाज के दायित्वों को पूरी तरह निभाने की हिदायत देता है।
( मुख्तार अहमद -नवभारत टाइम्स)।

Wednesday, 19 December 2007

क्या-क्या रोकेगी सरकार व न्यायपालिका ?

सिर्फ कानून बनाकर क्या-क्या रोकेगी सरकार व न्यायपालिका ? जब देश में सामान्य समझ और नैतिकता नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है तो कानून की भी वे कितनी परवाह करेंगे। कहीं पुलिस सरकारी गुंडे की शक्ल अख्तियार कर लेती है तो कहीं मंत्री कानून व संविधान से भी ऊपर खुद को समझता है। जैसे लोग समझना ही नहीं चाहते हैं कि उनके दायरे क्या हैं और जिस निरीह जनता के सामने आप बाघ बनते हैं उसके पास भी आपसे कम अधिकार नहीं हैं। हाजत में ले जाकर किसी को भी मार डालने के सियासी खेल के तमाम उदाहरण मौजूद हैं। और अगर यकीन नहीं तो किसी भी हिंदी समाचार चैनल पर क्राइम की दिखाई जा रही कहानियां रोज परोसी जाती हैं. खुद ही देख लीजिए। यह सब तो कुछ पुरानी बातें भी हो सकती हैं मगर ताजा दो मामले ऐसे हैं जो आपको जरूर सोचने पर मजबूर कर देंगे। आखिर इस देश के लोगों को हो क्या गया है?

पहला मामला

यह एक केंद्रीय मंत्री से जुड़ा मामला है जिससे यह अपेक्षी रहती है कि वह कम से कम ऐसे व्यवहार नहीं प्रदर्शित नहीं करेगा जिसकी एक नागरिक व मंत्री होने के नाते उनसे अपेक्षा नहीं ही की जा सकती। आज ही हिमांचल में दूसरे दौर के वोट डाले जा रहे थे। विदेश राज्यमंत्री आनंद शर्मा भी वोट डालने पहुंचे। वोट देने के लिे तय चुनाव आयोग का औपचारिकताओं के तहत जब उनसे मतदाता परिचय पत्र मांगा गया तो मंत्री महोदय का जवाब था कि- मजाक मत करो। तुम मुझे पहचानते नहीं ? चुनाव ड्यूटी पर तैनात कर्मचारी ने आग्रह किया कि मंत्रीजी मैं आपको जानता हूं मगर यह औपचारिकताएं हैं जिंन्हे पूरी करनी होती है। खैर आनंद शर्मा ने अपने परिचय पत्र मंगवाए मगर उन्हें यह काफी नागवार भी लगा। तभी तो उन्होंने लगे हाथ चुनाव कर्मचारी को यह भी सुना दिया कि- तुम्हारा समय है, मजाक तो कर ही सकते हो। यह पूरा वाकया सहारा के समय समाचार चैनल ने कई बार दिखाया। एक समाचार एजंसी पीटीआई के अनुसार शायद मंत्रीजी की फोटो सूची में दर्ज फोटो से पहचान नहीं हो पारही थी। आनंद शर्मा ने कहा कि बाद में वे अपना फोटो परिचयपत्र दिखाकर वोट डाल पाए। फिर भी समय समाचार चैनल पर जो टिप्पणी उनकी सुनाई दी वह क्या किसी मंत्री स्तर के व्यक्ति को शोभा देती है। एक नागरिक होने के नाते मैं भी आनंद शर्मा जैसे शालीन राजनेता के ऐसे व्यवहार से हतप्रभ रह गया। दिमाग में सवाल भी उठे कि क्या ऐसे ही राजनेता से हम एक बेहतर भारत की उम्मीद रखते हैं। क्या नेताजी को नहीं मालूम था कि वोट देने के लिए मतदाता परिचय पत्र की जरूरत होती है या फिर चुनाव आयोग ने मंत्रियों को किसी भी तरह से वोट डालने की छूट दे रखी है? आखिर किस संविधानिक कर्तव्य व आदर्श का निर्वाह कर रहे थे मंत्रीजी। जबकि कैमरे आन हैं उस वक्त ऐसा करके आखिर संदेश देना चाहते थे मंत्रीजी। हो सकता है इस मामले पर अपनी कोई सफाई पेश कर दें मंत्री जी मगर ऐसा किया ही क्यों? संभव है उन्हें रोकने वाला चुनाव कर्मचारी कल को अपनी नौकरी से हाथ धो बैठे। उसे धृष्टता की बाकायदा सजा भी दे दी जाए। मगर तब ये मंत्रीजी अपने विभागीय अधिकारियों व कर्मचारियों से किस अनुशासन की उम्मीद रख सकते हैं। यह यक्ष प्रश्न इस लिए भी महत्वपूर्ण व विचारणीय है क्यों कि ये हमारे मंत्री हैं। यह अलग बात है कि आनंद शर्मा की जगह अगर अनंत सिंह होते तो शायद वह कर्मचारी नियम पूर्वक काम करने की सजा भी पा चुका होता। आनंद शर्मा तो सिर्फ शालीन दुर्व्यवहार करके ही रूक गए।

अब एक शिक्षक की शालीनता देखिए

भुसावल (महाराष्ट्र) स्थित सेंट्रल रेलवे स्कूल में छात्रों के शोर मचाने से खफा एक शिक्षक ने फिजिक्स लैब में 18 छात्रों को बिजली के झटके दिए। पुलिस ने शिक्षक को हिरासत में ले लिया है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक शिक्षक सूर्यकांत द्विवेदी जब छठी कक्षा के छात्रों को पढ़ाने के लिए पहुंचे तो वे काफी शोरगुल मचाने लगे। शिक्षक के मना करने के बावजूद जब छात्रों का शोरगुल जारी रहा। नाराज होकर शिक्षक सभी छात्रों को फिजिक्स लैब में ले गए और अंदर का दरवाजा बंद कर दिया। इसके बाद एक-एक कर 18 छात्रों को बिजली का झटका दिया गया। बच्चों ने इस घटना की शिकायत अभिभावकों से की। इसके बाद मामला स्कूल प्रबंधन और पुलिस तक पहुंचा। स्कूल प्रबंधन ने शिक्षक को निलंबित कर दिया है वहीं पुलिस ने शिक्षक को हिरासत में ले लिया है। बिजली के झटके देने की इस घटना से छात्र काफी भयभीत हैं।
ये शख्स समाज के उस तबके से हैं जिन्हें गुरू का मान दिया जाता है। उम्मीद की जाती है कि इनके सानिध्य में रहकर बच्चे देश के कर्णधार बनेंगे। मगर कैसे जब इनमें ही इतना धैर्य नहीं कि बच्चों को किस हद तक सजा दी जानी चाहिए। पश्चिम बंगाल में तो छात्रों को मारने-पीटने पर ही सरकार ने रोक लगा रखी है। शायद महाराष्ट्र या देश के किसी भी हिस्से में बच्चों को ऐसे दंड देने का प्रावधान नहीं है। तो फिर कानून की परवाह क्यों नहीं है इनहें?
दो उदाहरण- एक राजनेता और दूसरा शिक्षक। दोनों ने न तो संविधान न ही अपनी नैतिक मर्यादा का पालन किया। जबकि कानून इन्हें ऐसा करने की इजाजत नहीं देता। तब सवाल यह उठता है कि क्या कानून पर्याप्त हथियार बन पाएगा इनको राह पर लाने के लिए या फिर कानून बनाने वालों को खुद इसके पालन की पहल करनी चाहिए।

Tuesday, 18 December 2007

जानलेवा है त्वचा रोग भी !

शिकागो- वैज्ञानिकों ने एक नए शोध से यह नतीजा निकाला है कि गंभीर त्वचा रोग सोरियासिस से पीड़ित युवा परिवार में अपने अन्य भाई बहनों के मुकाबले युवावस्था में ही मौत का शिकार हो सकता है।

रिपोर्ट में बताया गया है कि सामान्य लोगों के मुकाबले गंभीर त्वचा रोग से पीड़ित होने पर जीवन प्रत्याशा पाँच फीसदी कम हो जाती है। इससे पीड़ित व्यक्ति की जिंदगी के तीन से अधिक साल कम हो सकते हैं। महिलाओं की उम्र भी इस कारण चार साल तक कम हो सकती है।

शोधकर्ताओं ने अपनी रिपोर्ट में कहा है यह अध्ययन इस बात को रेखांकित करता है कि बीमारी की यह स्थिति कितनी गंभीर हो सकती है।

यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया के स्कूल ऑफ मेडिसिन में सहायक त्वचा रोग प्रोफेसर जोएल गेलफेंड ने कहा है यह त्वचा को विकृत करने से अधिक गंभीर स्थिति है। इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ जाती है, जिसका पीड़ित व्यक्ति के स्वास्थ्य पर बेहद बुरा असर होता है। नतीजा यह होता है कि जीवन प्रत्याशा कम हो जाती है।

वे कहते हैं कि गंभीर स्थिति तक पहुँचने से बचने के लिए जरूरी है कि मरीज नियमित रूप से स्वास्थ्य जाँच कराएँ और स्वस्थ जीवन शैली अपनाएँ।

सोरियासिस एक सामान्य, लेकिन असाध्य त्वचा रोग है। शुरुआत में यह त्वचा पर लाल रंग के धब्बों के रूप में नजर आता है। ये धब्बे शरीर के किसी भी हिस्से में हो सकते हैं।

चिकित्सकों की राय में यह बीमारी आंशिक रूप से आनुवांशिक होती है जिसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता में कुछ विकृति भी शामिल हो सकती है। इसका संबंध निराशा अधिक धूम्रपान शराब के सेवन तथा मोटापे ह्म्द्य संबंधी बीमारियों और कुछ प्रकार के कैंसर से होता है।

Monday, 17 December 2007

बनारस और बांसुरी वादक हरिप्रसाद चौरसिया



बनारस में रहकर गंगा में नहाएँ, जलेबी और मलाई खाएँ। उसके बिना मन नहीं लगता। 'कौनो भी देश में इ सब नहीं मिलेगा'। यह उद्गार हैं विश्व प्रसिद्ध बाँसुरी वादक पद्मविभूषण हरिप्रसाद चौरसिया के।
वाराणसी से लगे इलाहाबाद में 1938 में पैदा हुए चौरसिया ने एक विशेष साक्षात्कार में कहा कि बनारस की मिट्टी में जो सुगंध है, वह कहीं और नहीं है। यहाँ की मस्ती, यहाँ का अल्हङपन लोगों को बरबस ही अपनी ओर खींच लेता है।

यह पूछे जाने पर कि युवा वर्ग तो आधुनिक पश्चिमी संगीत की ओर खिंचा जा रहा है, ऐसे में भारतीय शास्त्रीय संगीत का समाज में आने वाले समय में क्या होगा, उन्होंने दृढ़ता से कहा कि पश्चिमी संगीत क्षणिक है और भारतीय शास्त्रीय संगीत शाश्वत है। यह ऐसा अंतर है जो कोई भी दूर नहीं कर सकता।

उन्होंने कहा कि बनारस की मिट्टी में बैठकर दाल-चावल और अचार भी खाएँ तो आनंद मिलता है। विदेशों की आधुनिकता में कुछ नहीं रखा है। विदेशों में बहुत घूमकर हमने सब देखा है। जो आनंद भारत में है वह विदेशों में कहीं भी नहीं मिलता।

बाँसुरी वादन को संगीत जगत में अहम स्थान दिलाने वाले चौरसिया ने कहा कि भारतीय संगीत के भविष्य को लेकर चिंतित होने की कोई बात नहीं है, क्योंकि यह बहुत उज्ज्वल है। और तो और विदेशों में भी लोग भारतीय संगीत की पूजा करते हैं।

उन्होंने कहा जब तक सूर्य में रोशनी रहेगी, भारतीय संगीत चमकता रहेगा। बाँसुरी सम्राट एक ही बात को लेकर बहुत उदास दिखे और वह है लोगों में बढ. रहा भौतिकवाद। उन्होंने कहा कि अब तो लोग रुपए के पीछे पागलों की तरह भागमभाग में लगे हैं। यह बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति है। रुपए के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार हैं।

चौरसिया मैहर घराने के संगीतकार हैं, जिसके संस्थापक उस्ताद अलाउद्दीन खान हैं। वे मध्यप्रदेश में मैहर के राजा के दरबार में सरोद वादक थे।

एक सवाल के जवाब में चौरसिया ने बताया कि हमने बाँसुरी इसलिए अपनाई क्योंकि यह निर्विवाद तौर पर भारतीय वाद्य है, जिसका प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने प्रारंभ किया था।

उन्होंने कहा कि यही कारण है कि हमारी बाँसुरी को लोगों का इतना प्यार और सम्मान मिला है जितना शायद ही किसी भी क्षेत्र में किसी अन्य को मिला होगा। उन्होंने बताया कि बाँसुरी में उनकी गुरु माँ अन्नपूर्णा देवी थीं।

पहलवान पिता के बेटे हरिप्रसाद को बचपन में छिपछिपकर बाँसुरी बजाना सीखना पङा। पिता चाहते थे कि बेटा एक मँझा हुआ पहलवान बने, लेकिन बेटे को तो कुछ और ही बनना था सो एक तो वह कुश्ती मन से नहीं लड़ते थे और दूसरे पूरा ध्यान चोरी-छिपे बाँसुरी सीखने पर लगाते थे।

जीवन के सत्तर बसंत देख चुके चौरसिया यह मानते हैं कि कुश्ती लङने में वे पिता की इच्छा के अनुरूप बेशक पारंगत नहीं हो सके हों, लेकिन उसका मुख्य लाभ यह हुआ कि उनमें गजब का माद्दा पैदा हो गया, जिससे उन्हें बाँसुरी जैसा वाद्य बजाने में कभी कोई तकलीफ नहीं हुई।

आज भी वह राग मास विहार, शंकरा अथवा छोटी बाँसुरी से पहाङी बजाते हैं तो माहौल इस प्रकार मदमस्त हो जाता है कि लोग सुध-बुध खो बैठते हैं।

उन्होंने इस बात पर दु:ख जताया कि अब कलाकारों का सम्मान आम लोगों और सरकार पर नहीं बल्कि कॉरपोरेट जगत पर निर्भर हो गया है। जब कॉरपोरेट हाउस वाले किसी को आमंत्रित करते हैं तो कलाकारों की पूछ होती है अन्यथा नहीं। स्थिति यहाँ तक हो गई है कि कॉरपोरेट न हो तो कलाकारों के कार्यक्रम आयोजित ही नहीं हों।

मीडिया की चर्चा करते हुए चौरसिया ने इस बात पर दु:ख व्यक्त किया कि आज के अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हत्या, बलात्कार और राजनीति की खबरें अटी पङी होती हैं जो समाज के लिए ठीक नहीं है।

लेकिन उन्होंने कहा कि समय बहुत शीघ्र समय बदलने वाला है और लोग अध्यात्म की ओर वापस आने वाले हैं।

उन्होंने कहा कि वे स्वयं जब स्टेज पर कार्यक्रम करने बैठते हैं तो यही सोचकर बैठते हैं कि वे यहाँ प्रार्थना कर रहे हैं न कि कोई व्यापार।

उन्होंने बताया कि वे संगीत के नए छात्रों के लिए मुंबई के जुहू में 'वृंदावन' नामक एक नि:शुल्क गुरुकुल चलाते हैं, जहाँ उनसे उनके शिष्य बाँसुरी की कला की बारीकियां सीखते हैं। (भाषा)

मोबाइल फोन से मुंह का कैंसर

लंदन( पीटीआई) : मोबाइल फोन के बेतहाशा इस्तेमाल से ब्रेन कैंसर और नपुंसकता होने की बातें तो आप सुनते आए हैं। अब खतरों की कतार में एक और कड़ी जुड़ गई है। ताजा रिसर्च में यह बात सामने आई है कि सेल फोन पर बहुत ज्यादा बात करने वाले लोगों को मुंह का जानलेवा कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है।

इस्त्राइली वैज्ञानिकों की एक टीम ने 1266 लोगों की लाइफस्टाइल की तुलनात्मक स्टडी की। इनमें 402 लोग ऐसे थे, जिनमें माउथ कैंसर के शुरुआती लक्षण पाए गए, जबकि 56 लोगों में यह बीमारी खतरनाक स्तर तक पहुंच गई थी। सर्वे और प्राप्त डेटा के विश्लेषण से नतीजा निकाला गया कि पैरोटिड ग्लैंड ट्यूमर के शिकार ज्यादातर वे लोग हैं, जो मोबाइल फोन का बेतहाशा इस्तेमाल करते हैं। इनमें यह बीमारी होने की संभावना उन लोगों की तुलना में 50 फीसदी ज्यादा है, जिन्होंने कभी मोबाइल फोन का इस्तेमाल नहीं किया।

स्टडी में यह भी पाया गया कि पैरोटिड ग्लैंड ट्यूमर मुंह के उसी हिस्से में हुआ, जिधर वह व्यक्ति ज्यादातर फोन रखता है। यह बात भी सामने आई कि दूरदराज के इलाकों में जहां अच्छा सिग्नल नहीं होने के कारण लोग फोन को कान से कसकर लगाते हैं, उन्हें ट्यूमर का खतरा ज्यादा है।

Thursday, 13 December 2007

वाजपेयी युग का अवसान



जिन्ना विवाद की प्रेतछाया के चलते कभी पार्टी अध्यक्ष पद से हटने को मजबूर हुए लालकृष्ण आडवाणी को भाजपा ने मौका मिलने पर प्रधानमंत्री बनाने का संकल्प लिया। इसके साथ ही भाजपा में अटलबिहारी वाजपेयी युग का अवसान हो गया। इस संकल्प की घोषणा में भाजपा के शीर्ष नेता अटलबिहारी वाजपेयी का आशीर्वाद और आडवाणी के चिरप्रतिद्वंद्वी मुरली मनोहर जोशी का साथ भी शामिल है। भाजपा की शीर्ष नीति निर्धारक इकाई पार्टी संसदीय बोर्ड की सोमवार को आननफानन बुलाई गई बैठक में सर्वसम्मत निर्णय किया गया कि अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी करेंगे पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने बैठक के बाद जोशी सहित बोर्ड के तमाम सदस्यों के बीच यह घोषणा की। सिंह ने बताया कि बोर्ड की बैठक से पहले उन्होंने वाजपेयी से इस बार में सलाह ली और पूर्व प्रधानमंत्री ने ही अपनी खराब सेहत को देखते हुए अगले आम चुनावों में पार्टी की कमान आडवाणी को सौंपने को कहा।

वाजपेयी के प्रति आभार : इस घोषणा के बाद आडवाणी ने वाजपेयी के प्रति आभार प्रकट किया और कहा- मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि उनकी (वाजपेयी) आकांक्षाओं पर खरा उतरूँ। शीर्ष नेता के रूप में आडवाणी को पेश किए किए जाने का शुरू से विरोध करते आ रहे जोशी ने इस फैसले के बारे में पूछे जाने पर कहा कि श्रद्धेय वाजपेयी की सलाह से किया गया यह फैसला पार्टी के लिए शुभ है। यह अच्छा फैसला है।पार्टी सूत्रों ने बताया कि पार्टी में अधिकतर लोगों की धारणा थी कि आडवाणी को अभी से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किया जाए जिससे कि इस विषय को लेकर पिछले कुछ समय से बना आ रहा असमंजस दूर हो जाए और यह सवाल भी शांत हो जाए कि पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के अस्वस्थ रहने के कारण उनकी जगह कौन लेगा। वाजपेयी लंबे समय से अस्वस्थ हैं। इस कारण वह कुछ दिनों से पार्टी की बैठकों में हिस्सा नहीं ले पा रहे हैं। भाजपा की पिछली राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी वह नहीं जा सके। ऐसा पहली बार हुआ है।
मध्यावधि की तैयारी : उल्लेखनीय है कि माकपा महासचिव प्रकाश करात ने सरकार को खुली धमकी दी है कि अगर वह भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ी तो वाम दल गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद उससे समर्थन वापस ले लेंगे।करात की इस धमकी से मध्यवाधि चुनावों की संभावनाएँ एक बार फिर बढ़ गई हैं। भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह ने माकपा नेता के इस बयान पर आज कहा कि उनकी पार्टी चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार है।


आडवाणी का सफरनामा


लालकृष्ण आडवाणी 2005 तक बीजेपी के प्रेजिडेंट रहे। अब वह लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं। 1984 में बीजेपी की लोकसभा में सिर्फ दो सीटें थीं। पार्टी के विस्तार का श्रेय आडवाणी को जाता है। आडवाणी ने राम भक्तों को अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए उत्साहित करने के लिए 1990 में रथ यात्रा निकाली। इसका असर रहा कि पार्टी ने 1996 के चुनावों में भारी जीत हासिल की। तब आडवाणी ने ऐलान किया कि अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री होंगे।

आरएसएस में शुरुआत

आडवाणी 1942 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े। वह संघ की कराची ब्रांच के सेक्रेटरी थे। देश का बंटवारा होने पर वह भारत आ गए और 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना में भागीदार बने। प्रारंभ में कुछ समय वह राजस्थान में सक्रिय रहे पर बाद में दिल्ली आ गए। 1966 में वह दिल्ली महानगर परिषद के अध्यक्ष चुने गए। 1970 में वह जनसंघ की टिकट पर राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए और 1989 तक उन्होंने इसी सदन में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया।

राजनीतिक सफर

इमरजेंसी के दौरान 1975 से 1977 तक वह मीसा एक्ट के तहत बेंगलुरु जेल में कैद रहे। लॉ ग्रैजुएट आडवाणी ने 1977 में जनता पार्टी की सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्री का पद संभाला। 1980 में राज्यसभा में विपक्ष के नेता रहे। 1989 और 1991 में वह लोकसभा के लिए चुनाव जीते। 1991 से 1993 तक आडवाणी लोकसभा में विपक्ष के नेता रहे। उन्होंने 1998 से 2004 तक सरकार में गृह मंत्री का पद संभाला और 1999 से 2004 तक उप प्रधानमंत्री रहे। 1999 में उन्हें बेस्ट सांसद अवॉर्ड से भी नवाजा गया।

आडवाणी पर आरोप

आडवाणी 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाने के मामले में आरोपी हैं। सितंबर 2003 में रायबरेली की एक अदालत ने आडवाणी को मामले से बरी कर दिया था। तब वह गृह मंत्री थे। जून 2005 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रायबरेली की अदालत के फैसले को निरस्त करते हुए आडवाणी के खिलाफ कार्यवाही फिर से शुरू की। 2005 में पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना की मजार में जाकर की गई उनकी टिप्पणी ने खासा विवाद पैदा किया और उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा।


भाजपा का 'रथी'

लोकसभा की दो सीटों तक सिमट चुकी भाजपा को सत्ता में लाने का करिश्मा दिखा चुके भाजपा के 'कृष्ण' लालजी को पार्टी ने अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर न सिर्फ अटलबिहारी वाजपेयी की विरासत सौंपी बल्कि उनसे अपनी अपेक्षाएँ भी बढ़ा लीं।आठ नवंबर 1929 को गुलाम लेकिन अविभाजित भारत के कराची में पैदा हुए लालकृष्ण आडवाणी का मूल नाम लालकिशन चंद्र आडवाणी है लेकिन पार्टी में उनके समकालीन प्यार से उन्हें 'लालजी' बुलाते हैं।कराची के सेंट पैट्रिक्स में शुरुआती शिक्षा के बाद बंबई विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल करने वाले आडवाणी ने हालाँकि कभी वकालत नहीं किया लेकिन हमेशा राष्ट्रवाद के पैरोकार बने रहे। उच्चतम न्यायालय में वे एक बार वकील के तौर पर उतरे। वह साल 1974 का था जब वे पार्टी की ओर से राष्ट्रपति द्वारा माँगी गई सलाह पर काले लिबास में देश की शीर्ष अदालत में दलील देने पहुँचे।कभी फिल्मों की समीक्षा लिखने वाले भाजपा के इस शीर्ष पुरुष फिल्मों के साथ साथ पुस्तकें पढ़ने और उनका संग्रह करने का शौक है। उन्हें अपने पुस्तकों के संकलन पर फख्र भी है।गाँधी ने जिस साल अंग्रेजों भारत छोड़ों का नारा दिया उसी साल आडवाणी 1942 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सदस्य बने। तब उन्हें कराची में संघ की शाखा के सचिव का दायित्व सौंपा गया था।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा 1951 में स्थापित जनसंघ के जमाने से राजनीति में सक्रिय आडवाणी 1986 में भाजपा अध्यक्ष बने और उसके बाद राम रसायन और पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रतापसिंह के 'मंडल' विष की काट के तौर पर 'रथयात्रा' पर सवार होकर मजबूती से स्थापित हुए।पहली बार 1989 में लोकसभा में दाखिल होने वाले आडवाणी 1977 की जनता सरकार के समय देश के सूचना प्रसारण मंत्री थे। उस समय वह राज्यसभा के सदस्य थे जो सिलसिला 1970 से चल रहा था। उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता पर आपातकाल के दौरान लगी बंदिशों की कड़ियाँ तोड़ीं। आपातकाल के दौरान वे बेंगलुरू जेल में मीसा के तहत कैद रहे।राजस्थान में संघ का कामकाज देखने के बाद 1957 में दिल्ली आए इस नेता ने 1973 से 1977 तक जनसंघ के अध्यक्ष का कामकाज संभाला। 1980 में भारतीय जनता पार्टी का जन्म होने पर वे पार्टी के महासचिव बनाए गए और 1986 में इसी पार्टी के अध्यक्ष बने। इससे पहले 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति की लहर में पार्टी दो सीटों तक सिमट गई थी और दिग्गज अटलबिहारी वाजपेयी भी चुनाव में पराजित हो चुके थे।भाजपा अध्यक्ष के रूप में आडवाणी का अंतिम कार्यकाल काफी उठा-पटक वाला रहा जिस दौरान उन्होंने पाकिस्तान यात्रा पर जाकर मोहम्मद अली जिन्ना के बारे में जो बयान दिया, उसे लेकर हिन्दुवादी संगठनों में तूफान उठा। 18 सितंबर 2005 को भाजपा अध्यक्ष पद से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था और उसके बाद राजनाथसिंह ने पार्टी की बागडोर संभाली ।

अपने ही घर में हुए बेगाने




भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारत से दूसरे देशों में बस गए लोगों को सलाह दी थी कि- आप जहां और जिस देश में रह रहे हैं, खुद को उसी देश का समझें। विदेशों में रह रहे भारतवंशियों ने यह नेक सलाह शायद मान भी ली। तब भी सवाल वहीं खड़ा है कि कहीं भी बस गए लोगों को स्थानीय लोगों से अलग समझा गया। मलेशिया, फिजी, सूरीनाम जैसे देशों में भारतीयों से जैसा बर्ताव हुआ और हो रहा है उससे इस सिद्धांत की भी धज्जियों उड़ जाती हैं कि पीढ़ियों बाद तब लोग आप्रवासी नहीं रह जाते जब सांस्कृतिक तौर पर अपने पालक देश को अपना लेते हैं। ताजा प्रकरण मलेशिया को देखने से तो यही लगता है। २५ नवंबर को जब प्रदर्शनकारी हिंदुओं पर मलेशियाई पुलिस कहर बरपा रही थी तो एक प्रदर्शनकारी कैमरे के सामने चिल्ला रहा था कि उन्हें क्यों अलग समझा जा रहा है जबकि वे यहीं पैदा हुए, पले-बढ़े और मलेशिया ही उनका मातृदेश है। उस शख्स की बात भी बिल्कुल सही है क्यों कि ऐसे लोगों का तो अपने मूल देश से कोई नाता भी नहीं रह जाता। अब मलेशिया के मुस्लिम शासक भारतीय हिंदुओं को इसी लिए अलग समझ रहे हैं क्यों कि अंग्रेजों के जाने के बाद सत्ता उनके हाथ में है और भारतीय अल्पसंख्यक हैं। बदावी से कोई यह पूछे कि पीढ़ियों से मलेशिया में रह रहे इन हिंदुओं की सिर्फ यही गल्ती है कि वे हिंदू हैं। और अब मूलदेश भारत से भी उनकी जड़ें कट गईं हैं।
ऐसा नहीं कि सिर्फ भारतीयों के साथ यह बर्ताव किया जा रहा है। बौद्ध, ईसाई भी इस उपेक्षा के शिकार हैं। मलेशिया में भारतीय सशंकित होकर जी रहे हैं। पूरे दक्षिणपूर्व एशिया में जब हिंदू उपनिवेश कायम हुए और भारतीय संस्कृति का परचम इंडोनेशिया के शैलेंद्र राजवंश ने फहराया था तब के और बाद में अंग्रेजों के समय मलेशिया लाए गए भारतीयों को इस बात का जरा भी आभास नहीं रहा होगा कि अपने ही उपनिवेश में वे गैर समझे जाएंगें। बौद्ध, शैव व वैष्णव तीनों को ही तब समान अधिकार प्राप्त थे। दसवीं शताब्ती के बाद जब मुस्लिम सत्ता आई और फिर अंग्रेजों ने इसे ही अपना अपना उपनिवेश बनाया मगर तब अंग्रेजों ने मुसलमानों समेत हिंदुओं, बौद्धों व ईसाईयों को अलग करके इस तरह नहीं देखा जैसा आज बदावी सरकार कर रही है। अब मलेशिया में सौहार्द्र तोड़ने के लिए किसे जिम्मेदार माना जाए? शासक बदावी को या समानता का अधिकार मांग रहे भारतीयों को। भारतीयों की गलती सिर्फ यही है कि उन्होंने खुद को मलेशिया का नागरिक समझते हुए अपने अधिकारों के दमन के खिलाफ आवाज उठाई। २५ नवंबर २००७ से पहले और बाद के मलेशिया संकट पर पूरे घटनाक्रम के विवरण के साथ देखें कि आखिर गड़बड़ी कहां है। और अब किस मानसिकती में जी रहे हैं मलेशिया के भारतवंशीय। घटनाक्रम के लिए पूरे इस दौर में छपी खबरों का भी जायजा लेकर बदावी की मनमानी समझी जा सकती है। विभिन्न समाचार एजंसियों व पोर्टल से ये खबरें तारीखवार भी देखें------



मलयेशिया में हिंदुओं का उत्पीड़न

मलयेशिया मुस्लिम राष्ट्र नहीं , ब्रिटिश कालोनी थी जब हिन्दुओं को मजदूर बनाकर अंग्रेज उपनिवेश काल में मलयेशिया ले गये थे। सूरीनाम, गुयाना, मारीशस, फिजी त्रिनिदाद और टोबैगो की तरह हिन्दुओं ने मलयेशिया को अपना घर और अपना देश आत्मसात किया। हिन्दुओं ने लगन परिश्रम और प्रतिभा के बल पर न केवल अपनी किस्मत बनायी अपितु विकास की सीढ़ियां नापी। हिन्दुओं के पुरखों को रत्ती भर यह आशंका नहीं होगी कि जिस मलयेशिया को वे अपना घर-अपना देश आत्मसात कर रहे हैं उसी मलयेशिया में उनकी संतानें एक दिन धार्मिक भेदभाव के न शिकार होंगे बल्कि उत्पीड़न के शिकंजे में कसते चले जाएंगे। मलयेशिया में हिन्दुओं की किस्मत तभी दगा दे गयी थी जब अंग्रेज मलयेशिया छोड़कर चले गये थे और मलयेशिया आजाद हो गया था। चूंकि मलयेशिया में मुस्लिम आबादी बहुमत में थी, इसीलिए वहां की सत्ता, प्रशासन, संस्कृति और विकास पर मुस्लिमों का कब्जा हो गया। मुस्लिम बहुलता की स्थिति में अन्य धमोर्ं की आजादी और उनकी संस्कृति के विकास की कल्पना भी क्या की जा सकती है? यही स्थिति मलयेशिया में रह रहे हिन्दुओं के साथ उत्पन्न हुई है। धर्म परिवर्तन जैसे उन्माद का शिकार बनाया जाता है। सत्ता और विकास के दरवाजे संकीर्ण किये जा चुके हंै। ऐसी स्थिति में कोई धर्म अपने अस्तित्व के निमित्त क्यों नहीं सड़कों पर उतरेगा? तमाम तरह के बंदिशों और गिरफ्तारियों के बाद भी बीस हजार से ज्यादा हिन्दुओं ने सड़कों पर प्रदर्शन कर मलयेशिया में धार्मिक असहिष्णुता ही नहीं सत्ता व्यवस्था की मुस्लिम परस्ती की पोल भी खोल कर रख दी। प्रदर्र्शनकारियों पर जिस तरह पुलिसिया जुल्म हुए वह भी मानवाधिकार हनन का विषय बनता है।

मलयेशिया के हिन्दू मुस्लिम सरकार से ज्यादा ब्रिटिश सरकार से खफा हंै। हिन्दुओं के अधिकारों के लिए संघर्षरत ‘हिन्दू राइट्स एक्शन फोर्स’ का साफ कहना है कि सबसे अधिक दोषी ब्रिटेन की सरकार है। अंग्रेज मलयेशिया को आजाद कर चले गये। सत्ता हस्तांतरण के समय संविधान में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए थी जिससे हिन्दुओं की धार्मिक और सांस्कृतिक आजादी का संरक्षण का दायित्व संविधान में निहित होता। पर ऐसा कुछ भी अंग्रेजों ने नहीं किया। पिछले काफी सालों से हिन्दुओं के अंदर धार्मिक भेदभाव के खिलाफ आग सुलग रही थी। ब्रिटेन सरकार के सामने कई बार हिन्दुओं ने अपने सवाल रखे और अपनी धार्मिक आजादी और संस्कृति के संरक्षण के लिए कार्रवाई करने का आह्वान किया। हिन्दू राइट्स एक्शन फोर्स ने ब्रिटिश सरकार से करोड़ों मिलियन डालर का मुआवजा भी मांगा है।

मुस्लिम बहुल आबादी में हिन्दुओं की हिस्सेदारी लगभग आठ प्रतिशत है जबकि मुस्लिम आबादी 60 प्रतिशत है। चीनी मूल के लोगों की भी अच्छी संख्या है। चीनी मूल की आबादी बौद्ध धर्मावलम्बी हैं। ईसाइयों की भी संख्या अच्छी है। मलयेशिया और इंडोनेशिया दो ऐसे देश हंै जहां पर मुस्लिम धार्मिक समूह पर हिन्दू संस्कृति की गहरी छाप रही है। कभी जीवन शैली से लेकर विभिन्न संस्कारों में हिन्दू संस्कृति साफ झलकती थी। लेकिन संकट तब शुरू हुआ जब अरब से इस्लामिक कट्टरता मलयेशिया , इंडोनेशिया के साथ ही साथ तुर्की पहुंच गयी। इस्लामिक कट्टरता ने उन सभी प्रतीकों पर बुलडोजर चला दिया जिनके संबंध अन्य धार्मिक समूहों के साथ जुड़े थे। जैसे-जैसे इस्लामिक कट्टरता के प्रसार होता चला गया वैसे-वैसे हिन्दुओं के साथ ही साथ अन्य सभी गैर इस्लामिक धार्मिक समूहों का जीवन दुरूह होता चला गया। येन-केन-प्रकारेण मुस्लिम बनाने की प्रक्रिया तेजी से चली। पिछले 10 साल में कई लाख लोगों को मुस्लिम बनने के लिए बाध्य किया गया। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मुस्लिमों को धार्मिक परिवर्तन करने की संवैधानिक आजादी नहीं है। कोई मुस्लिम अगर किसी अन्य धर्म से प्रभावित होकर उस धर्म को अपनाना चाहे तो इसकी इजाजत मलयेशिया का संविधान और कानून नही देता है। इसके उलट स्थिति यह है कि गैर इस्लामिक अल्पसंख्यकों के धार्मिक परिवर्तन पर कोई रोक भी नहीं है।
चाय बगानों में मजदूर के रूप में काम करने गये हिन्दुओं ने अपनी किस्मत खुद लिखी है। मलयेशिया को 1957 में आजादी मिली। आजादी के बाद चाय बगानों और जमीनों का अधिग्रहण कर लिया गया। सैकड़ों मंदिरों को विकास के नाम पर गिरा दिया गया। लेकिन आज तक एक भी मस्जिद नहीं गिरायी गयी। मलयेशिया सरकार का कहना है कि उसके देश में 50 लाख से अधिक अप्रवासी हैं जिनके कारण कई तरह की समस्याएं उत्पन्न हुई हंै। वास्तव में अप्रवासी का सवाल उठाकर मलयेशिया सरकार की धार्मिक अल्पसंख्यकों को खदेड़ने और उत्पीड़ित करना चाहती है। अप्रवासी उसे भी करार दिया जा रहा है जो मलयेशिया की आजादी के पूर्व से वहां पर रह रहे हैं।

हिंदुओं में अजीब सी खामोशी

आजादी के 50 साल पूरे होने की खुशी में आयोजित मलयेशिया एयर-एंड-सेल कार्निवाल में जबर्दस्त गहमागहमी थी, लेकिन हिंदुओं में अजीब सी खामोशी दिखाई दी। यहां तक कि मेले में हिंदुओं की भागीदारी भी बहुत कम थी। लोकल न्यूजपेपर 'स्टार' के मुताबिक मेले में करीब 150-200 स्टॉल्स थे। इनमें से करीब 100 स्टॉल भूमिपुत्र (मूल निवासियों) के, लगभग 60 स्टॉल चाइनीज लोगों के और बाकी दूसरे समुदाय के हैं। कार्निवाल में इलेक्ट्रॉनिक आइटम्स बेच रहे एक भारतीय सुखबीर ने बताया, 'इस बार बहुत कम भारतीयों ने यहां स्टॉल लगाए हैं। पिछले दिनों हुई घटना से सभी सकते में हैं। उन्हें लगता है कि इस घटना के बाद वे अच्छा बिजनेस नहीं कर पाएंगे।' फाइवस्टार होटल 'नोवोल्टी' के एक असिस्टेंट मैनेजर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, 'यहां के हालिया घटनाक्रम से भारतीय भयभीत हैं। हालात ऐसे हैं कि अब भारतीय एकजुट होकर आंदोलन करने की हिम्मत शायद ही जुटा पाएं।' अखबारों में छप रहे नेताओं के बयान देखकर भी लगता है कि सरकार को हिंदुओं के प्रतिरोध का तरीका पसंद नहीं आया। 'स्टार' अखबार ने उपप्रधानमंत्री नाजिम तुक रजक के हवाले से लिखा कि हिंदू राइट्स एक्शन फोर्स (हिंदरैफ) मलयेशिया की इमेज को दुनिया में खराब कर रही है। आंतरिक मामलों को अंतरराष्ट्रीय रूप दिया जा रहा है। ऐसी स्थिति को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

गौरतलब है कि मुस्लिमों की तरह समान अधिकार देने की मांग को लेकर मलयेशिया में रह रहे भारतीय आंदोलन कर रहे हैं। इस आंदोलन के बाद से यहां मंदिरों को ढहाने का सिलसिला तेज हो गया है। हालांकि सरकार कहती है कि मंदिर बनाने के लिए दूसरी जगह दी जाएगी। मलयेशिया हिंदू संगम के अध्यक्ष दातुक ए. नैथीईलगम कहते हैं, 'सरकार विकास के नाम पर ऐतिहासिक मंदिरों को ही ढहा रही है। दूसरी इमारतों को नुकसान नहीं पहुंचाया जा रहा है। सरकार हमारे साथ मनमानी पर उतर आई है।' दरअसल, अल्पसंख्यक होने के कारण मलयेशिया में रह रहे भारतीय हिंदू अपनी आवाज खुलेआम नहीं उठा सकते, लेकिन अगर चाइनीज साथ दें, तो वे संघर्ष कर सकते हैं।
शोरूम चला रहे एक भारतीय ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि हमने मलयेशिया को हमेशा अपने देश भारत की तरह माना है। लेकिन अब हालत यह है कि घर से निकलने में भी हमें सोचना पड़ता है। ये हालात ज्यादा दिनों तक नहीं रहेंगे। आखिर यहां की सरकार टूरिजम के नाम पर भारत से अच्छा-खासा कमाती है।' चीन के एक बिजनेसमैन जू हैन कहते हैं, 'भारतीय अधिकारों के लिए लड़ें, लेकिन यह लड़ाई कानूनी रूप से लड़ी जानी चाहिए। दुनिया में हर जगह लोग अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। यहां भी वही हो रहा है। भारतीयों ने आवाज उठाई है और सरकार उस पर गंभीरता से विचार कर रही है।'

मलयेशिया का बहुसंख्यक वर्ग भारतीयों का साथ नहीं दे रहा। इसकी बानगी देखिए। हाई कोर्ट के वकील अतीफ खान कहते हैं, 'भारतीय बेवजह शोर मचा रहे हैं। यहां 10 में से 3 स्कूल तमिल बेस हैं। ट्यूशन और कोचिंग सेंटर में तमिल सिखाई जाती है। किसी भी देश में इतने मंदिर नहीं हैं, जितने यहां हैं। ये लोग किसी भी बड़े स्कूल में अपने बच्चे को दाखिला दिलवाने के लिए फ्री हैं। जितना लोन चाहें, इन्हें बैंकों से मिलता है। बिजनेस में ये बहुत आगे हैं। हमारे हजारों लोग इनकी कंपनियों में काम कर रहे हैं। ऐसे में बदहाली कहां है?' अतीफ चाहे जो कहें, लेकिन यहां के भारतीय हिंदुओं के मुताबिक उन्हें सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता नहीं दी जाती। हां, प्राइवेट सेक्टर में टॉप मोस्ट पदों पर ज्यादातर भारतीय ही नजर आते हैं। फैमिली प्लानिंग के मामले में भी यहां चीनी और भारतीय लोगों के साथ असमान व्यवहार किया जाता है। जहां मलय लोगों को 5 से ज्यादा बच्चे पैदा करने की छूट है, वहीं चीनियों को 2 और भारतीयों को 2 से 3 बच्चों तक सीमित रहने की हिदायत है। मलयेशियन रेवेन्यू के सबसे बड़े स्रोत टूरिजम इंडस्ट्री पर भी भूमिपुत्रों का ही कब्जा है। भारतीयों और चीनियों का योगदान सिर्फ एजेंट तक सीमित है।

मलेशिया: एक और मंदिर तोड़ा गया
02 नवम्‍बर 2007 (वार्ता )


कुआलालंपुर। मलेशिया के सेलांगर प्रांत की राजधानी शाह आलम में सरकारी आदेश के बाद एक और हिन्दू मंदिर को तोड़ दिया गया है। मलेशिया हिन्दू संगम के अध्यक्ष दातुक ए वैथीलिंगम ने बताया कि शाह आमल में स्थित श्री महा मरियम्मा हिन्दू मंदिर को गत 30 अक्टूबर को सरकारी आदेश के बाद तोड़ दिया गया है। वैथीलिंगम ने बताया कि मंदिर को तोड़े जाने का विरोध कर रहे है स्थानीय हिन्दू नागरिको के साथ पुलिस ने दुर्व्यवहार भी किया।
उन्होंने कहा कि पुलिस ने तीन साल पुराने एक सरकारी आदेश के तहत यह कार्रवाई की है। लेकिन उस आदेश में धार्मिक स्थलों को हटाये जाने के बारे में कोई बात नहीं की गई थी। वैथीलिंगम ने बताया कि पुलिस की इस कार्रवाई से मलेशिया के हिन्दूओं में रोष है और उन्होंने इस मामले में प्रधानमंत्री अहमद बदावी से हस्तक्षेप करने की मांग की है। उल्लेखनीय है कि मलेशिया में पिछले कुछ महीनों के दौरान कई ऐतिहासिक हिन्दू मंदिरों को यह कहते हुए तोड़ा गया है कि वे सरकारी भूमि पर गैर कानूनी तरीके से बनाए गये है। तोडे गए कई मंदिर 50 साल से भी ज्यादा पुराने थे।

मलेशियाई हिन्दू सड़कों पर उतरे
कुआलालंपुर (वार्ता), रविवार, 25 नवंबर 2007


मलेशिया में मुस्लिमों की तरह समान अधिकारों की माँग को लेकर राजधानी कुआलालंपुर में रविवार को 10 हजार से ज्यादा हिन्दुओं ने सरकार के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए उन पर लाठीचार्ज किया, आँसू गैस के गोले छोड़े तथा पानी की तेज बौछार की।मलेशियाई हिन्दुओं ने भेदभाव के खिलाफ आयोजित इस रैली की तैयारी कई दिन पहले ही कर ली थी, लेकिन सरकार ने हिन्दुओं को यह रैली नहीं करने की चेतावनी दे रखी थी। बावजूद इसके मलेशियाई हिन्दू आज सड़कों पर उतरे और सरकार के खिलाफ नारेबाजी की। इस रैली को आयोजन कई हिन्दू संगठनों ने मिलकर किया था।हिन्दुओं के संगठन हिन्दू राइट्स एक्शन फोर्स (हिन्ड्राफ) ने आरोप लगाया कि सरकार हिन्दुओं के साथ भेदभाव कर रही है। हिन्दुओं को जानबूझकर नौकरियों में नहीं रखा जाता है जबकि हिन्दुओं के लिए विश्वविद्यालयों में दाखिला लेना हमेशा से मुश्किल रहा है।प्रदर्शनकारियों के हाथों में मलेशियाई झंडे तथा तख्तियाँ थीं जिन पर लिखा था- हमने भी इस देश की आजादी की लड़ाई लड़ी थी फिर हमारे हक की अनदेखी क्यों? इलाके में दर्जनों पुलिस के ट्रक और सैकड़ों की संख्या में दंगा निरोधक पुलिस बल तैनात था। पुलिस का एक हेलिकॉप्टर आसमान से उन पर पैनी नजर रखे हुए चक्कर लगा रहा था।प्रदर्शनकारियों ने कहा- हम अपना हक लेने यहाँ आये हैं। ब्रिटिश शासक 150 वर्ष पहले हमारे पूर्वजों को यहाँ लाए थे। सरकार को जो कुछ भी हमें देना चाहिए और हमारी देखभाल करनी चाहिए, उसमें वह असफल रही है।मलेशिया की आबादी का सात प्रतिशत हिस्सा भारतीय मूल के लोगों का है। उनकी शिकायत है कि देश में रोजगार एवं व्यापार के अवसरों में स्थानीय मलय सुदाय के दबदबे वाला राजनीतिक नेतृत्व उनके साथ भेदभाव करता है। सरकारी कार्रवाई से गुस्साए प्रदर्शनकारियों ने नारे भी लगाए। मलेशिया में कोई लोकतंत्र नहीं है, कोई मानवाधिकार नहीं है।

मलेशिया में हिंदुओं का आंदोलन
सोमवार, 26 नवंबर, 2007
अनीश अहलूवालिया (बीबीसी संवाददाता)


मलेशिया में रहने वाले हिंदुओं का कहना है कि मलेशिया सरकार देश के हिंदू समुदाय के साथ भेदभाव का बर्ताव करती है और उसे विकास के अवसरों से वंचित रखा जाता है. इस 'भेदभाव' के ख़िलाफ़ मलेशिया की राजधानी कुआलालम्पुर में रविवार को हिंदू समुदाय के लोगों ने एक प्रदर्शन किया जिसमें भारतीय मूल के हज़ारों लोगों ने हिस्सा लिया.पुलिस ने इस रैली को तितर-बितर करने के लिए आंसूगैस और बल का प्रयोग किया और कई लोगों को गिरफ़्तार किया गया.
यह पहला मौका है जब मलेशिया के भारतीय मूल के लोगों ने सरकार के ख़िलाफ़ इतना बड़ा अभियान छेड़ा है. भारतीय जनता पार्टी ने भारत सरकार से इस मामले में हस्तक्षेप की मांग की है. रैली का आयोजन हिंदू राइट्स एक्शन फ़ोर्स नाम के एक संगठन ने किया था और इसके नेता वहाँ ब्रितानी उच्चायोग को एक याचिका देना चाहते थे जिसमें ब्रिटेन की महारानी से अपील की गई थी कि वो मलेशिया में भारतीय मूल के लोगों के साथ हो रहे 'भेदभाव' को रोकें. मगर इस रैली से दो दिन पहले ही मलेशिया की पुलिस ने संगठन के कई लोगों को गिरफ़्तार कर लिया और रैली की अनुमति देने से इनकार कर दिया. मलेशियाई पुलिस का कहना है कि ऐसी रैली से देश में सामुदायिक वैमनस्य को बढ़ावा मिलेगा. मलेशिया में कोई भी रैली सरकार की अनुमति के बिना नहीं हो सकती और ज़ाहिर सी बात है कि पुलिस सरकार विरोधी किसी रैली की अनुमति नहीं देना चाहती. प्रदर्शनकारियों का कहना था कि लगभग डेढ़ सौ साल पहले ब्रिटेन की सरकार उन्हें मज़दूरी के लिए मलेशिया लाई थी इसलिए मलेशिया की आज़ादी के बाद उनके हितों की रक्षा की ज़िम्मेदारी भी ब्रिटेन पर है.


विरोध

हिंदू राइट्स एक्शन फ़ोर्स के नेताओं का कहना है कि मलेशिया सरकार जिस पर मलय लोगों की ही पकड़ है हिंदुओं के हितों की लगातार अनदेखी करती रही है.मलेशिया में हिंदुओं की जनसंख्या करीब आठ प्रतिशत है और मलय लोगों को बाद चीनी मूल के लोग दूसरा सबसे बड़ा समुदाय हैं. दक्षिणपूर्व एशिया मामलों के जानकार और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर गंगानाथ झा कहते हैं, "मलेशिया में हिंदुओं की समस्या की जड़े पुरानी हैं". उन्होंने कहा, "मलेशिया में विगत में शुरु हुए 20 सूत्री कार्यक्रम और राष्ट्रीय विकास कार्यक्रम में भी ज्यादातर स्थानीय मलाय लोगों के विकास को ही प्राथमिकता दी जाती रही है. नतीजा यह है कि शिक्षा और रोज़गार में भारतीयों का विकास नहीं हुआ है."डॉक्टर झा का कहना है कि भारतीयों के मुकाबले चीनी समुदाय का विकास कहीं ज्यादा हुआ है मगर चूंकि आरक्षण जैसी सुविधाएं सिर्फ़ मलय समुदाय को हासिल हैं चीनी मूल के लोग भी भारतीय समुदाय के साथ परिवर्तन चाहते हैं.
दिल्ली में विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने सरकार से मांग की है कि वो मलेशिया सरकार से बात करे. भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने कहा, "मलेशिया में भारतीय बड़ी संख्या में है. उनकी रोज़ी-रोटी की समस्या पैदा हो रही है. रोज़गार और उद्योग में लाइसेंस मिलने में उन्हें समस्या आती है. भारत सरकार को इस बारे में मलेशिया सरकार से बात करनी चाहिए जैसे चीन सरकार ने की थी, जब चीनी मूल के लोगों ने इस मुद्दे को उठाया था."

“हिन्दुओं के आगे नहीं झुकेगी मलेशियाई सरकार
26 नवम्बर 2007 (वार्ता)


सिंगापुर। मलेशिया के उप प्रधानमंत्री नाजिम तुन रजक ने कहा है कि कुआलालंपुर में रविवार को आयोजित हिन्दू संगठनों की रैली राजनीति से प्रेरित थी और सरकार ऐसे प्रदर्शनों के आगे नहीं झुकेगी। मलेशियाई उप प्रधानमंत्री ने कहा कि सरकार हिन्दू संगठनों की ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिये तैयार है1 उन्होंने कहा कि अगर सरकार हिन्दुओं के खिलाफ है तो हिन्दू मौजूदा गठबंधन सरकार का समर्थन क्यों कर रहे हैं।गौरलतब है कि श्री रजक मौजूदा गठबंधन सरकार में मलय,चीनी, भारतीय राजनीतिक पार्टियों के समन्वयक भी हैं।उल्लेखनीय है कि रविवार को हिन्दू संगठनों ने कुआलालंपुर में सरकार विरोधी रैली का आयोजन किया था। इस रैली के दौरान पुलिस के लाठीचार्ज और आंसू गैस के गोले फेंकने से करीब 130 प्रदर्शनकारी घायल हुये थे। हिन्दुओं का आरोप है कि मौजूदा मलेशियाई सरकार के शासन में उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया है। उधर हिन्दू संगठनों ने मलेशिया में स्थित ब्रिटिश उच्चायोग को भी एक ज्ञापन देकर मलेशियाई हिन्दुओं के लिये तीन अरब डॉलर के मुआवजे की मांग की है।
हिन्दू संगठनों का कहना है कि ब्रिटिश सरकार 19 वीं शताब्दी में हिन्दुओं को मलेशिया लाई, लेकिन उनका जमकर उत्पीड़न किया जा रहा है। संगठनों का आरोप है कि सरकार उनके मंदिरों को भी उजाड़ने पर तुली हुई है।

करुणानिधि अपने काम से काम रखें : मलयेशिया
29 Nov 2007


नई दिल्ली : मलयेशिया सरकार ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि से कहा है कि वे अपने काम से काम रखें और वहां बसे भारतीयों की चिंता न करें। मलय हिंदुओं के खिलाफ बरती जा रही सख्ती पर करुणानिधि ने केंद्र से दखल की गुजारिश की थी। मलयेशिया की इस टिप्पणी पर संसद में भारी हंगामा हुआ। सभी पार्टियों ने मलयेशिया में हो रही घटनाओं पर चिंता जताई है। इस बीच अमेरिका ने भी कहा है कि लोगों को शांतिपूर्ण ढंग से अपनी बात रखने का हक होना चाहिए। मलयेशिया में बसे हिंदू वहां की सरकार की नीतियों से नाराज हैं और आरोप है कि उनके साथ दूसरे दर्जे के नागरिक की तरह बर्ताव किया जाता है। करुणानिधि ने मंगलवार को पीएम मनमोहन सिंह से कहा था कि वे दखल देकर मलयेशिया में बसे तमिलों के हितों की रक्षा करें। उनका कहना था कि तमिलनाडु के लोग मलयेशिया के घटनाक्रम से आहत हैं। इस पर मलयेशिया सरकार के मंत्री नजरी आजिज ने कड़ी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा, 'यह मलयेशिया है, तमिलनाडु नहीं। यहां के मसलों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। वह अपने काम से काम रखें।' अजीज ने 26 नवंबर को हुए प्रदर्शन में शामिल लोगों को ठग कहा था, इस बारे में भी उन्होंने कोई खेद जताने से इनकार कर दिया। मलयेशिया से आई इस तीखी राय पर करुणानिधि ने संयम भरा बयान दिया है। उनका कहना है कि इस तरह की कड़वी बहस में नहीं पड़ना चाहता, मैं तो बस तमिल लोगों के हित की बात उठा रहा हूं। लेकिन उनकी बेटी कनिमोझी ने अपने पिता का बचाव किया है। संसद में उन्होंने कहा कि हम इसका विरोध करेंगे और केंद्र को भी कुछ करना चाहिए। बीजेपी ने कहा है कि सरकार को यह मुद्दा कॉमनवेल्थ और यूएनओ में उठाना चाहिए। सीपीआई ने भी कहा है कि भारत सरकार को यह मसला मलयेशिया सरकार के सामने रखना चाहिए। पार्टी के राष्ट्रीय सचिव डी. राजा ने कहा कि मलयेशिया मित्र देश है लेकिन वहां बसे बराबरी के अधिकार की मांग कर रहे हैं। ग्लोबल ऑर्गनाइजेशन ऑफ पीपल ऑफ इंडियन ऑरिजन ने भी मलयेशिया सरकार से मांग की है कि वह भारतीयों के साथ भेदभाव न करे। इस बीच मलयेशिया सरकार ने हिंदू एक्शन राइट्स फोर्स के नेताओं पर देशद्रोह का मुकदमा हटाने के बारे में फिर सोच रही है। यानी वह इस बारे में नरमी बरतने के मूड में नहीं है।

मलयेशिया में भारतीय मूल का नेता गिरफ्तार
29 Nov 2007


क्वालालंपुर : भारतीय मूल के लोगों को मलेशिया में कथित रूप से हाशिए पर रखे जाने के खिलाफ प्रदर्शन आयोजित करने वाले हिंदू अधिकार संगठन के नेता को गुरुवार को गिरफ्तार कर लिया गया। पिछले हफ्ते आयोजित यह प्रदर्शन मलयेशिया में भारतीय मूल के लोगों का अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन था।
खबरों के मुताबिक, हिंदू राइट्स एक्शन फोर्स (हिंदाफ) के नेता वी. गणपति राव को पुलिस ने उनके कार्यालय से उठा लिया। पी. उथयकुमार, वेथा मूर्ति और राव हिंदाफ के तीन प्रमुख नेता हैं। रविवार को इन्होंने रैली का आह्वान किया था, जिसमें करीब 10 हजार भारतीय मूल के लोगों ने शिरकत की। वे ब्रिटिश उच्चायोग जाकर वहां ज्ञापन सौंपना चाहते थे। ज्ञापन में शिकायत की गई थी कि भारतीयों को उस वक्त से हाशिए पर रखा गया है, जब उनके पूर्वजों को जबरन मजदूर बनाकर लाया गया था। इस बीच मलेशिया सरकार ने हिंदू राइट्स एक्शन फोर्स (हिंदाफ) के कथित ज्ञापन की प्रमाणिकता की जांच का फैसला किया है। प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री नजरी अजीज ने बुधवार रात यहां बताया कि मंत्रिमंडल की बैठक में इस ज्ञापन पर चर्चा हुई। अगर इस बात की पुष्टि होती है कि ज्ञापन हिंदाफ के नेता पी. उथयकुमार ने जारी किया, तो उन पर राष्ट्रविरोधी बयान देने के लिए देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाएगा। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को संबोधित इस ज्ञापन को एक लोकप्रिय वेबसाइट पर जारी किया गया था। इसमें दावा किया गया है कि युनाइटेड मलय नैशनल ऑर्गनाइजेशन ने हिंदू अल्पसंख्यकों के सफाए का संकल्प लिया है।

हिंड्राफ की जाँच करेगी सरकार
29 नवम्बर 2007


सिंगापुर-मलेशिया सरकार ने हिन्दुओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हिन्दू राइट्स एक्शन कमेटी (हिंड्राफ) द्वारा जारी कथित दस्तावेज (ज्ञापन) की प्रामाणिकता की जाँच करने का फैसला किया है।प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री नजरी अजीज ने बुधवार की रात यहाँ संवाददाताओं को बताया कि मंत्रिमंडल की बैठक में दस्तावेज पर चर्चा हुई। उन्होंने कहा कि अगर इस बात की पुष्टि होती है कि यह दस्तावेज हिंड्राफ के नेता पी उदयकुमार ने इसे जारी किया है तो उन पर राष्ट्रविरोधी बयान देने के लिए देशद्रोह कानून के तहत मुकदमा चलाया जाएगा।ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन को संबोधित इस दस्तावेज को एक लोकप्रिय वेबसाइट पर जारी किया गया था। इसमें दावा किया गया है कि यूनाइटेड मलय नेशनल आर्गेनाइजेशन ने हिन्दू अल्पसंख्यकों के सफाए का संकल्प लिया है। दस्तावेज में ब्रिटेन से हस्तक्षेप करने का आग्रह करते हुए कहा गया है कि वह भारतवंशियों के खिलाफ अपराध करने के लिए मलेशिया को अंतरराष्ट्रीय अदालत में खींचे। नजरी ने कहा कि इस दस्तावेज से यह साबित होता है कि उदयकुमार ने हिन्दुओं को सरकार के विरुद्ध भड़काया और मलय तथा मुस्लिमों को हिंड्राफ के खिलाफ किया।
सरकारी न्यूज एजेंसी (बेरनामा) ने उनके हवाले से कहा, ' जातीय शुद्धिकरण और श्रीलंका जैसी परिस्थितियां पैदा करने वाली धमकियाँ गैरजिम्मेदाराना हैं। सरकार को चुनौती मत दीजिए। उदयकुमार को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।
नजरी ने कहा कि मंत्रिमंडल ने हिंड्राफ द्वारा गत रविवार को आयोजित अवैध रैली पर भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि इसमें शामिल लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाया जाएगा। उन्होंने कहा कि वह हिंड्राफ से माफी कतई नहीं माँगेगे।
उन्होंने कहा, ' रैली में शामिल 20 हजार लोग गैंगस्टर हैं क्योंकि उन्होंने कानून की अनदेखी की। मैं यह भारतीय समुदाय के बारे में नहीं कह रहा हूँ लेकिन उन लोगों के बारे में कह रहा हूँ जो इस रैली में शामिल हुए।' नजरी ने कहा कि रैली में शामिल 20 हजार अवैध प्रदर्शनकारियों का रवैया बीस लाख भारतीयों से मेल नहीं खाता है जो शांति और एकता चाहते हैं। स्थानीय रिपोर्टों के अनुसार मलेशिया के मूल नागरिकों के समान अधिकारों की माँग को लेकर गत रविवार को लगभग दस हजार हिन्दुओं ने राजधानी कुआलालंपुर में उग्र प्रदर्शन किया। सरकार ने इस रैली को अवैध करार दिया था। हिन्दू संगठनों ने ऐसे और प्रदर्शन करने की चेतावनी दी है। हिन्दू नेताओं ने 18वीं शताब्दी में ब्रिटेन के उपनिवेश मलेशिया में भारतीयों को बंधुआ मजदूरों की तरह लाने और उनका शोषण करने पर चार लाख करोड़ डॉलर की क्षतिपूर्ति देने के लिए ब्रिटेन की सरकार के खिलाफ लंदन की एक अदालत में मुकदमा भी दायर किया है।

'तो इंडिया लौट जाओ'
30 Nov 2007


क्वालालंपुर : शॉपिंग फेस्टिवल की मस्ती से क्वालालंपुर की सड़कें सजी हुई हैं, टूरिस्टों के लिए होटल पूरी तरह बुक हैं। सब कुछ ठीकठाक से दिख रहे इस माहौल को जरा सा खरोचने की जरूरत है कि दर्द का एक सैलाब फूट पड़ता है। मलयेशिया के हालात पर यहां बसे भारतीयों से सवाल पूछिए तो पहले वह थोड़ा हिचकते हैं लेकिन एक हिंदुस्तानी से बात करते हुए उनकी भड़ास बाहर आ जाती है। अपने ही मुल्क में दूसरे दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार उन्हें कचोट रहा है। भारतीय मूल के महेंद्र सिंह मलयेशिया सरकार की नौकरी से रिटायर हो चुके हैं। मुल्क के बदलते माहौल को लेकर वह परेशान हैं। महेंद्र कहते हैं, 'हमारी जिंदगी तो कट गई, आने वाली पुश्तों का क्या होगा। अपने साथ किसी तरह के भेदभाव की हम बात करते हैं तो साफ कह दिया जाता है, मलयेशिया में दिक्कत है तो भारत लौट जाओ।' जिस मुल्क को वह आजतक अपना समझते रहे, अब वहां इस तरह का व्यवहार वह हजम नहीं कर पा रहे हैं। उनकी जड़ें पंजाब के मोगा इलाके से हैं लेकिन मलयेशिया को वह अपना वतन मानते रहे। पेशे से बैंकर अरुण भी भविष्य को लेकर परेशान हैं। उनके मुताबिक पिछले दिनों हालात जिस तरह बिगड़े हैं, उनसे भारतीय समुदाय डरा हुआ है। वह कहते हैं कि भारतीय और चीनी मूल के लोगों के साथ भेदभाव होता रहा है लेकिन अब स्थिति बेकाबू होती जा रही है। यही डर और आशंका यहां बसे 17 लाख भारतीयों के चेहरे से बयां हो जाती है।

क्वालालंपुर आने वाला हर टूरिस्ट पेट्रोनास टावर जरूर जाता है। यह एक तरह से मॉडर्न मलयेशिया का प्रतीक बन चुका है। लेकिन इसी आधुनिकता पर कट्टरता हावी होने लगी है। इसी टावर में काम कर रही एक भारतीय मूल की युवती बड़ी मुश्किल से हमसे बात करने को तैयार हुई और डर के मारे अपना नाम भी नहीं बताया। उनके मुताबिक 26 नवंबर को हुए प्रदर्शन में 500 लोग गिरफ्तार किए गए थे जिनमें से करीब 300 का अब भी पता नहीं है। इनमें उनके भी कुछ रिश्तेदार हैं। इस युवती के मुताबिक माहौल इतना खतरनाक है कि इस बारे में खुलकर बोलते हुए भी डर लगता है। करीब 14 साल से गाइड का काम कर रहे तमिल मूल के सैम कहते हैं कि पिछले एक-दो साल से हालात बिगड़े हैं और भारतीय पहचान का ठप्पा मलयेशियाई नागरिकता से बड़ा हो गया है। इसी टावर के पास डी-तंदूरी नाम से रेस्टोरेंट हैं, जहां आपको लजीज इंडियन फूड मिलेगा। यहां मैनेजर के तौर पर काम कर रहे आर. ओ. चिकराज कहते हैं कि हमारे साथ नाइंसाफी होती है और अब हम उसके खिलाफ आवाज भी नहीं उठा सकते। ये हालात तो ब्रिटिश राज से भी बुरे हैं। दूसरी तरफ टूरिस्टों की अगुवाई के लिए तैयार मलयेशिया के अधिकारी मानते हैं कि बातों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है। उनके मुताबिक दूसरे देशों से सैलानी जमकर आ रहे हैं और सब ठीक है। वह बोले भले ही नहीं, लेकिन वे भी जानते हैं कि सब ठीक नहीं है और अगर जल्द ही इस जख्म पर मलहम नहीं लगा तो यह ट्रूली एशिया की इमेज को घाव लग सकता है।

अंग्रेज जिम्मेदार
30 Nov 2007


नई दिल्ली : मलयेशिया में सरकार और वहां बसे हिंदुओं के बीच टकराव का मामला अंग्रेजों की 150 वर्ष पुरानी नाइंसाफी से जुड़ा हुआ है। मलयेशियाई हिंदुओं ने इस भेदभाव के मुआवजे के रूप में ब्रिटेन की सरकार से 40 अरब डॉलर मुआवजे की मांग की है। गौरतलब है कि 19 वीं शताब्दी के आखिर में अंग्रेज भारत से इन हिंदुओं को खेती कराने के लिए मलयेशिया ले गए थे। जहां धीरे-धीरे हिंदुओं ने अपनी जड़ें जमा लीं। अंग्रेजों के जाने के बाद मलयेशिया इस्लामी राष्ट्र बन गया और उनकी हालत खराब होती गई। मलयेशिया की आबादी लगभग 2.8 करोड़ हैं जिसमें लगभग 8 प्रतिशत भारतीय हिंदू हैं। मलयेशिया में इन हिंदुओं ने अपनी मांगों के समर्थन में क्वालालंपुर में ब्रिटिश उच्चायोग के सामने 25 नवंबर को रैली निकाली थी, जिसे वहां की सरकार ने अवैध घोषित कर दिया था। इस सिलसिले में काफी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिसमें वहां के प्रमुख भारतीय पी उथाया कुमार, पी. वयाथा मूर्ति और वी. गणपति राव अभी भी जेल में हैं।
पूर्व राजदूत तथा विदेशी मामलों के जानकार हरि किशोर सिंह ने बताया कि मलयेशिया के हिंदू इसके लिए अंग्रेजों को दोषी ठहराते हैं जिनके कारण उन्हें गरीबी के अंधेरे में धकेल दिया गया। इस बारे में हिंदुओं ने हिंदू राइट्स एक्शन फोर्स का गठन कर अगस्त में लंदन की एक अदालत में याचिका दायर कर 40 अरब डॉलर के मुआवजे की मांग की है।

हरि किशोर सिंह ने बताया कि मलयेशिया का समाज पहले बहुत उदार था लेकिन समय के साथ मुस्लिम कट्टरपंथियों ने वहां भी अपनी जड़ें जमा ली हैं। वहां के हिंदुओं विशेषकर तमिलनाडु के चेट्टियारों का व्यापार और अन्य क्षेत्रों में वर्चस्व रहा है। मुस्लिम कट्टरपंथियों ने इसका विरोध करना शुरू किया जिससे यह हालात पैदा हो गए। विदेशी मामलों के विशेषज्ञ कलीम बहादुर ने बताया कि मलयेशिया में हिंदू अपनी स्थिति के लिए अंग्रेजों को दोषी ठहरा रहे हैं जो उन्हें गुलाम बना कर यहां लाए। इसी कारण आज उन्हें गरीबी में रहना पड़ रहा है। उन्होंने बताया कि भारत सरकार का रुख इस मुद्दे पर ठीक है और हमें भी इसे हिंदू और मुस्लिम का सवाल न मानकर एक भारतीय के रूप में देखना चाहिए। विदेशी मामलों के विशेषज्ञ और एक पूर्व राजदूत ने बताया कि अंग्रेजों के जाने के बाद 1957 में मलयेशिया का संविधान तैयार किया गया था। संविधान गठन के समय यह कहा गया कि मलयेशिया के मूल निवासियों को उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए विशेष मदद और समर्थन की जरूरत है। उन्होंने बताया कि संविधान में इसी बात को ध्यान में रख कर कुछ प्रावधान किए गए जिसके बाद भारतीयों और चीन के लोगों की स्थिति दोयम दर्जे की हो गई। अब मलयेशिया में 50 वर्ष पुराने सामाजिक सह-अस्तित्व का ताना-बाना बिखर कर रह गया है। सभी विशेषज्ञों ने एक स्वर में इस मामले को अनौपचारिक रूप से आसियान स्तर पर उठाने के साथ सीधे मलयेशिया की सरकार से बातचीत करने का सुझाव दिया है। दूसरी ओर मलयेशिया के प्रधानमंत्री अब्दुल्ला अहमद बदावी ने इसे गैर-जरूरी करार देते हुए कहा है कि यह देश को अस्थिर करने का प्रयास है और इसके खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाएगी।

सरकार चिंतित : मनमोहन
30 Nov 2007


नई दिल्ली : मलयेशिया में भारतीय समुदाय के लोगों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार पर कदम उठाने के लिए लगातार बढ़ते दबाव के बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नपे - तुले शब्दों में टिप्पणी करते हुए वहां के घटनाक्रम पर चिंता जताई है। जबकि विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने संसद में कहा कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम . करुणानिधि पर मलयेशिया के मंत्री की टिप्पणी का मामला वह मलयेशिया के सामने उठाएंगे। करुणानिधि ने पूर्व एशियाई देश में भारतीय मूल के लोगों पर पुलिस कार्रवाई पर प्रतिक्रिया जताई थी। मनमोहन सिंह ने कहा कि दुनिया में जब भी भारतीय नागरिक या भारतीय मूल के लोग परेशानी में आते हैं तो सरकार को चिंता होती है। मलयेशिया मुद्दे पर सवालों के जवाब में प्रधानमंत्री ने संवाददाताओं से कहा , ' यह हमारे लिए चिंता की बात है। जब कभी भारतीय समस्या में होते हैं यह हमारे लिए चिंता का विषय होता है। ' बहरहाल उन्होंने इस संबंध में आगे कुछ भी कहने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि संसद सत्र जारी है। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी इस मामले में संसद में जवाब देंगे।

बदावी नाराज
02 दिसम्बर 2007


सिंगापुर- मलेशिया के प्रधानमंत्री अब्दुल्लाह अहमद बदावी ने देश के भारतवंशी हिंदू नेताओं द्वारा दिए गए 'नस्लीय भेदभाव' संबंधी बयानों पर नाराजगी जताई है।
गत रविवार को मलेशिया में रह रहे भारतीय मूल के लोगों ने कि हिन्दू राइट्स एक्शन फोर्स कि हिन्डफि' के झंडे तले एक विशाल रैली का आयोजन किया था। लेशिया में रह रहे इन भारतीय मूल के लोगों ने देश में उन्हें बराबरी का दर्जा दिए जाने की माँग को लेकर विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया था।
मलेशिया की 2.6 अरब की आबादी में विविध नस्ल एवं धर्मो के लोग रहते है। देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री बदावी ने 'हिन्डफि' के बयानों पर नाराजगी जताते हुए कहा था कि हिंदू अधिकारों वाले संगठनों ने मलेशियाई सरकार पर भेदभाव संबंधी झूठे आरोप लगाए है।
मलेशिया की राष्ट्रीय समाचार ऐजेंसी बरनामा के अनुसार बदावी ने कहा कि मैं वास्तव में इन बयानों से काफी नाराज हूँ, क्योंकि ये सरासर झूठ हैं और इस प्रकार के बयानों और आरोपों को बरदाश्त नहीं किया जाएगा।विभिन्न मीडिया रिपोर्टो के मुताविक राजधानी कुआलालम्पुर में हुई इस विरोध रैली में पाँच से बीस हजार भारतीय मूल के लोगों ने हिस्सा लिया था। उनका आरोप था कि देश के तेज विकास की दौड़ में उन्हें पीछे और अलग-थलग रखा गया है।

एलटीटीई से सांठगांठ?
शुक्रवार, 07 दिसंबर, 2007 ( बीबीसी )


मलेशियाई अधिकारियों ने कथित भेदभाव के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वाले भारतीय मूल के लोगों पर एलटीटीई और स्थानीय माफ़िया से मदद लेने का आरोप लगाया है. मलेशिया के अटर्नी जनरल अब्दुल गनी पटैल ने हिंड्राफ़ पर श्रीलंका के तमिल विद्रोहियों या एलटीटीई के साथ सांठगांठ रखने का आरोप लगाया है.उधर भारत ने भारतीय मूल के लोगों के साथ कथित दु‌र्व्यवहार के मामले को मलेशिया के समक्ष उठाया है. दूसरी ओर हिंदू राइट्स एक्शन फ़ोर्स (हिंड्राफ़) के बैनर तले प्रदर्शन करने वाले भारतीय मूल के लोगों का कहना है कि सरकार इस तरह के आरोप लगा कर उन्हें आंतरिक सुरक्षा क़ानून के तहत जेल भेजना चाहती है.मलेशिया के इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस मूसा हसन ने कहा है कि हाल में हुई जाँच से पता चलता है कि 'हिंड्राफ़ चरमपंथी संगठनों से मदद पाने के लिए सक्रिय रहा है.' उनका कहना था, "वे भारत, ब्रिटेन, अमरीका, संयुक्त राष्ट्र और यूरोप से भी अंतरराष्ट्रीय मदद पाने के लिए लॉबिंग कर रहे हैं." उन्होंने हिंड्राफ़ पर मलेशिया में रहने वाले भारतीयों की स्थिति को तोड़ मरोड़ कर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के समक्ष पेश करने का आरोप लगाया.

भारत की प्रतिक्रिया


भारतीय विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कहा है कि भारतीय मूल के लोगों के साथ कथित दु‌र्व्यवहार के मामले को मलेशिया के समक्ष उठाया गया है. मुखर्जी ने शुक्रवार को कहा कि भारत के लोगों के चरमपंथी गुट से ताल्लुक संबंधी मलेशिया सरकार के एक अधिकारी की टिप्पणी से जुड़े दस्तावेज़ उन्होंने नहीं देखे हैं. उन्होंने कहा कि जिस किसी भी देश का नागरिक चरमपंथी गतिविधियों में लिप्त पाया जाता है, उससे क़ानून के मुताबिक निपटा जाना चाहिए.विदेश मंत्री ने कहा कि चरमपंथी की पहचान उसकी राष्ट्रीयता और उसके देश के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए. भारतीय मूल के लोगों ने नौकरियों और रोज़गार के अन्य अवसरों में भेदभाव का आरोप लगाते हुए 25 नवंबर को पहली बार बड़ी रैली निकाली थी जिसे सख़्ती से दबा दिया गया और कई लोगों को गिरफ़्तार कर मुक़दमे दर्ज किए गए. मलेशिया की दो करोड़ 70 लाख की आबादी में भारतीय मूल के लोगों की संख्या लगभग आठ प्रतिशत है.

भारतीय मूल के लोगों पर आरोप

मलेशिया में सरकार विरोधी प्रदर्शन करनेवाले 26 भारतीय मूल के लोगों के ख़िलाफ़ एक पुलिसकर्मी की हत्या की कोशिश का मामला दर्ज किया गया है हालांकि इन लोगों ने इस मामले में शामिल होने से इनकार किया है.बचाव पक्ष के वकीलों का कहना है कि अपराध साबित होने पर इन लोगों को 20 वर्ष की क़ैद हो सकती है.दरअसल मलेशिया की राजधानी कुआलालम्पुर में 25 नवंबर को प्रदर्शन के दौरान एक पुलिसकर्मी को चोटें आईं थीं.ख़बरों के अनुसार प्रदर्शनकारियों ने उस पर लोहे के पाइप और ईंटें फेंकीं थीं.दूसरी ओर भारतीय विदेश मंत्रालय ने सोमवार को भारत में मलेशिया के कार्यवाहक उच्चायुक्त को तलब किया और उन्हें भारत की चिंता से अवगत कराया है.भारतीय विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने पत्रकारों से बातचीत में कहा,'' भारत में इस मामले को लेकर चिंता का स्तर आपने देखा है... हमने मलेशियाई अधिकारियों को भारतीय चिंता से अवगत करा दिया है.''विदेश सचिव का कहना था,'' हमें आश्वासन दिया गया है कि वो इस मामले में जो कर सकते हैं, करेंगे और इसे वो अंदरूनी मामला मानते हैं.''ग़ौरतलब है कि भारतीय मूल के लोगों के साथ हो रहे कथित बुरे बर्ताव का मुद्दा भारतीय संसद में भी उठा था.

भेदभाव का आरोप

मलेशिया में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों का कहना है कि मलेशिया सरकार देश के हिंदू समुदाय के साथ भेदभाव करती है और उसे विकास के अवसरों से वंचित रखा जाता है.इस 'भेदभाव' के ख़िलाफ़ राजधानी कुआलालम्पुर में हिंदू समुदाय के लोगों ने एक प्रदर्शन किया था जिसमें भारतीय मूल के हज़ारों लोगों ने हिस्सा लिया था.मलेशिया की पुलिस ने रैली की अनुमति देने से इनकार कर दिया था. पुलिस का कहना था कि ऐसी रैली से देश में सामुदायिक वैमनस्य को बढ़ावा मिलता.ये पहला मौक़ा है जब मलेशिया के भारतीय मूल के लोगों ने सरकार के ख़िलाफ़ इतना बड़ा अभियान छेड़ा है. रैली का आयोजन हिंदू राइट्स एक्शन फ़ोर्स नाम के एक संगठन ने किया था.इस संगठन के नेता उदय कुमार ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि भारतीय मूल के आठ फ़ीसदी को लोगों को किनारे करने की कोशिश की जा रही है.विभिन्न आरोपों के संबंध में उनका कहना था कि इसको लेकर भारतीय मूल के लोगों में रोष है और ये 'नस्लवाद' से प्रेरित है.

हिंदुओं को चेतावनी
8 Dec 2007,


क्वालालंपुर : मलयेशिया के प्रधानमंत्री अब्दुल्ला अहमद बदावी ने हिंदुओं को चेतावनी दी है कि अगर उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ कोई काम किया तो उन्हें आंतरिक सुरक्षा कानून (आईएसए) के तहत गिरफ्तार कर लिया जाएगा। पीएम ने पुलिस को हिंदुओं की गतिविधियों पर नजर रखने के आदेश भी दिए हैं। इस कानून के तहत किसी व्यक्ति को बिना ट्रायल के कई सालों तक हिरासत में रखा जा सकता है। इस बीच, प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री मोहम्मद नजरी अजीज ने कहा कि मलयेशियाई सरकार के पास जानकारी है कि हिंदू राइट्स एक्शन फोर्स (हिंदरैफ) के संबंध श्रीलंकाई लिट्टे और भारतीय संगठन आरएसएस से हैं, जो मिलिटेंट ऑर्गनाइजेशन है। स्टार अखबार से अजीज ने कहा कि यह जानकारी खुद हिंदरैफ नेताओं के बयानों से मिली है, जिन्होंने कहा था कि वे समर्थन हासिल करने के लिए विदेश जाएंगे और लिट्टे के नेताओं से मुलाकात करेंगे। उन्होंने कहा कि लिट्टे को संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका आतंकवादी संगठन घोषित कर चुके हैं। इसलिए उससे रिश्ते रखने वाला हिंदरैफ भी उग्रवादी संगठन है। हालांकि अखबार ने अजीज द्वारा आरएसएस के बारे में कही गई बातों को उजागर नहीं किया। न्यू स्ट्रेट्स टाइम्स अखबार ने प्रधानमंत्री बदावी के हवाले से कहा कि आंतरिक सुरक्षा कानून का विकल्प मेरे सामने है। सही वक्त आने पर मैं इसे लागू करने का फैसला करूंगा। उन्होंने कहा कि मैं जानता हूं कि हिंदरैफ आतंकवादी संगठनों और स्थानीय गैंगस्टरों से समर्थन और मदद हासिल करने में जुटी हुई है। उधर, विपक्षी दल डीएपी के नेता करपाल सिंह का मानना है कि हिंदरैफ नेताओं को प्रदर्शन की वजह स्पष्ट करने का मौका दिया जाना चाहिए। सेलंगर के सुल्तान शराफुद्दीन इदरिस शाह ने कहा कि हिंदरैफ समर्थकों ने महारानी एलिजाबेथ सेकंड की तस्वीर लेकर प्रदर्शन किया, इससे मैं नाखुश हूं। वे महारानी की तस्वीर दिखाते हुए उन्हें दखल देने की मांग क्यों कर रहे थे?

पीएम और कई अफसरों के खिलाफ पुलिस में शिकायत

क्वालालंपुर : हिंदरैफ के लिट्टे और दूसरे आतंकवादी संगठनों से रिश्ते का आरोप लगाने पर हिंदुओं के वकील ने मलयेशिया के प्रधानमंत्री बदावी और दूसरे वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी है। शिकायत में अधिकारियों पर झूठे और नस्लीय भेदभाव को बढ़ावा देने वाले बयान देने का आरोप लगाया गया है। हिंदरैफ के संस्थापक सदस्य पी. उत्तयकुमार ने कहा कि मैं अपनी जिंदगी में कभी लिट्टे से नहीं मिला। आतंकवाद से हमारा कोई रिश्ता नहीं है। हम हिंसा में विश्वास नहीं करते। सरकार हमें बेवजह जेलों में ठूंसने के लिए यह आरोप लगा रही है। पुलिस कंप्लेंट में बदावी के अलावा अटॉर्नी जनरल गनी पटेल, आईजी मूसा हसन और कानून मंत्री नजरी का भी नाम है।

मलयेशिया में हिंदुओं की कंपनी का लाइसेंस रद्द
8 Dec 2007


क्वालालंपुर: अपनी मांगों के लिए आवाज उठाने की गाज हिंदुओं पर गिरनी शुरू हो गई है। मलयेशियाई अधिकारियों ने हिंदुओं के संगठन हिंदरैफ की एक कंपनी का लाइसेंस रद्द कर दिया है। घरेलू व्यापार और उपभोक्ता मामलों के मंत्री शफी अपदल ने बताया कि मलयेशिया के कंपनी आयोग ने स्यारीकत हिंदरैफ इंटरप्राइजेज के खिलाफ यह कदम इसलिए उठाया कि वह हिंदरैफ से जुड़ी थी और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन गई थी। वह ऐसे काम भी कर रही थी, जिससे उसका कोई लेना-देना नहीं है। हिंदरैफ के संस्थापकों में से एक पी. उत्तयकुमार ने कहा कि कंपनी रजिस्ट्रार ने इस सप्ताह के शुरू में हमसे संगठन के बैंक खातों की जानकारी मांगी थी। इसके बाद हिंदरैफ पर लोगों से दान इकट्ठा करने के लिए 50 हजार रिंगेट (करीब 5.9 लाख रुपये) का जुर्माना लगा दिया गया। हिंदरैफ यहां रहने वाले गरीब भारतीयों से अब तक 1 लाख 70 हजार रिंगेट इकट्ठा कर चुकी है।

हिन्दू नेता पर देशद्रोह का मामला
11 दिसम्बर 2007 (वार्ता)


सिंगापुर। मलेशिया में हिन्दू राइट एक्शन फोर्स (हिन्ड्राफ) के वकील पी उदयकुमार के खिलाफ आज कुआलालंपुर की सत्र अदालत ने देशद्रोह का आरोप तय कर दिया।कुआलालंपुर की सत्र अदालत ने श्री उदयकुमार पर लगाये गये आरोपों पर सुनवाई की और फिर उन्हें पचास हजार रिंगिट के मुचलके पर जमानत दे दी। अदालत ने श्री उदयकुमार का पासपोर्ट भी जब्त करने का आदेश दिया और मामले की अगली तारीख सात जनवरी मुकर्रर की।श्री उदयकुमार ने 15 नवंबर को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को संबोधित एक पत्र लिखा था। मलेशिया सरकार इस पत्र को गैर कानूनी और देशद्रोह की श्रेणी में रख रही है। इस पत्र में “हिन्ड्राफ” ने कहा था कि ब्रिटेन मलेशियाई हिन्दुओं के उत्पीड़न के मामले को संयुक्त राष्ट्र में उठायें।
श्री उदयकुमार के खिलाफ देशद्रोह कानून.।948 की धारा 4 ए के तहत मामला दर्ज किया गया है।हिन्ड्राफ् ने ब्रिटेन की एक अदालत में भी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मुआवजे की मांग को लेकर एक याचिका दायर की है।
मलेशिया पुलिस ने हिंदू मानवाधिकार कार्यकर्ता पी. उदयकुमार को आज सुबह गिरफ्तार किया था। उदय कुमार ने पिछले हफ्ते कुआलांलपुर में दस हजार हिन्दू मलेशियाई नागरिकों की विरोध रैली में सक्रिय भूमिका निभाई थी।उदयकुमार ने अपनी किताब में कुछ ऐसी बातें कहीं हैं, जो मलेशिया सरकार के गले नहीं उतर रही हैं। उधर पुलिस ने कुआलालंपुर में कई जगह अवरोधक लगाए हैं ताकि राजनैतिक प्रदर्शनकारियों को रोका जा सके।
प्रदर्शनकारी देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराए जाने की मांग कर रहे है। पुलिस संसद भवन की ओर जाने वाले सभी मार्गों की चेकिंग कर रही है। पुलिस ने पूर्व उपप्रधानमंत्री एवं विपक्षी नेता अनवर इब्राहिम तथा विपक्ष के करीब 12 नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया था। हालांकि बाद में इब्राहिम को पूछताछ के बाद रिहा कर दिया गया था।आव्रजन अधिकारियों ने इब्राहिम को कुआलालंपुर के मुख्य हवाईअड्डे पर उस समय गिरफ्तार किया था, जब वे तुर्की से स्वदेश लौट रहे थे। इब्राहिम के वकील विलियम लियोंग ने बताया कि यह मामला सीधे तौर पर उत्पीड़न का है।उन्होंने कहा कि सत्तारूढ़ पार्टी यूनाईटेड मलय नेशनल ऑर्गेनाईजेशन (यूएमएनओ) में व्याप्त भ्रष्टाचार और न्यायपालिका को लेकर जनता में बढ़ते आक्रोश से ध्यान हटाने के लिए ऐसे कदम उठा रही है।इब्राहिम ने बताया कि आव्रजन अधिकारियों ने उन्हें बताया कि उनका नाम संदिग्ध व्यक्तियों की सूची में है इसलिए उन्हें हवाई अड्डे पर हिरासत में लिया गया है। न्होंने बताया कि हालांकि हिरासत में लिए जाने के बाद उन्हें जाने की अनुमति दे दी गई, लेकिन उनका नाम अब भी संदिग्ध व्यक्तियों की सूची में है।इब्राहिम के वकील ने बताया कि सरकार ने स्पष्ट नहीं किया है कि पूर्व उपप्रधानमंत्री का नाम संदिग्ध व्यक्तियों की सूची में क्यों है।

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